संभलकर दादू, स्केलेटर में अपना पैर मत फँसा लेना

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    जनवरी 2017
श्रेणी संभलकर दादू, स्केलेटर में अपना पैर मत फँसा लेना
संस्करण जनवरी 2017
लेखक का नाम सुभाष पंत





लंबी कहानी/एक





मैं जहाँ ज़िंदगी गुजार रहा वह कभी शहर का दिल हुआ करता था। अब यहाँ की सड़कें लगातार सिकुड़कर बहुत ग़रीब और विनम्र होती जा रही हैं, और बहुत उदारता के साथ जगह जगह चहबच्चों को अपनी गोद में जगह देने लगी हैं, जहाँ बरसात में तब तक पानी भरा रहता है, जब तक सूरज उसे सुखा नहीं देता। वहाँ शहर और उसके बाशिंदों में सनातन सहज दोस्ताना भाव बना हुआ है और वे एक दूसरे की जिम्मेदारी लेने में विशेष सुख और गौरव अनुभव करते हैं। मसलन जब फुटपाथों को घेरकर उन पर बिना छतों का रोज बसने और उठनेवाला बाज़ार सजा तो लोगों ने उदारभाव से उनसे अपने अधिकार छोड़ दिए कि जो धनाभाव में कोई और धंधें नहीं कर सकते, उन्हें भी रोटी कमाने का अधिकार है। वे धक्के-मुक्के खाते भीड़-भड़क्के में चलने और बेहद आत्मीयभाव से फुटपाथी फड़ों से खरीदारी ही नहीं करने लगे, बल्कि जब कभी प्रशासन चौकन्ना हो कर उनकी धर-पकड़ करता, तो अवैध कब्जोंवालों की सहानुभूति में उनकी संवेदनाएँ व्याकुल होने लगीं हालांकि, उनसे खरीदी चीज़ें बेहद घटिया और नकली होतीं। जैसे उनसे खरीदा कंघा देखने में आकर्षक और बाज़ार से चौथाई मूल्य का होता, लेकिन उससे बाल सँवारते ही उसके झनझन बोलते आधे काँटे झड़ जाते। मुख्य बाज़ार की नालियों पर बड़े दुकानदारों की दुकानें फैल गईं हैं और निकासी व्यवस्था कि जिम्मेदारी बिना शिकवा-शिकायत किए बाजार की मुख्य सड़कों ने उठा ली हैं। बाज़ार की ज़्या दातर दुकानों ने अपने रूप और लिाबस जरूर बदल लिए हैं, लेकिन अपना मिज़ाज नहीं बदला। 'एक दाम' या 'नो बारगेन प्लीज' की तख्ती लटकी रहने के बावजूद वहाँ धड़ल्ले से मोल-भाव किया जाता है और ख़रीददारी करने के बाद 'थैंक्यू' कहने की औपचारिकता निभाने की ज़रुरत भी न पड़ती। शहर के मोहल्लों और गलियों के कुछ मकान तो परिवर्तन के विरुद्ध चुनौती हैं, जिन्हें बदला नहीं जा सकता। लेकिन शहर के वे घर जिन्होंने अपना पुराना चोला उतार दिया है, वे अपनी आक्रान्त अक्खड़ता के कारण, उसके मौलिक सौन्दर्य शास्त्र में मखमल के पैबन्दों की तरह लगते हैं।
शिक्षा के निजीकरण के बाद इसके वे विद्यालय, जिन्होंने कभी देश के हर क्षेत्र को महान प्रतिभाएं प्रदान की थी, दौड़ में पिछड़ गए हैं। वे अब ऐसी परम्परागत उपाधियाँ देते हैं, जो बाज़ार के लिए व्यर्थ हो गई हैं। इसके वे अस्पताल जहाँ दूर-दराज़ तक के रोगी उपचार के लिए आते थे, अब उन बीमारियों के खिलाफ पंगु हो गए हैं, जो बीमारियाँ नई सभ्यता पैदा कर रही है।
इस सबके बावजूद बड़ी बात तो यह है कि शहर का यह हिस्सा अपनी तरह से हर समय ज़िंदा रहता है। इसके मोहल्ले और गलियाँ सदा बोलते रहते हैं। बे बात लड़ रही औरतें, सब्जी के ठेलों पर मोल-भाव, कीर्तन, सुंदरकांड का अखंडपाठ, विवाह के मंगल गीत, मृत्यु का रुदन, सास-बहू तकरार, बच्चों की उछल-कूद, रोमंटी, बेइमानियाँ, लड़ाइयाँ, कोनों में खड़े प्रेमी युगलों की मनुहारें। चौराहों को घेरकर भगवती जागरण या किसी छुटभइए नेता का आग उगलता भाषण। चाय के खोखों में बहसें और क्रांतियाँ। पार्कों में धरने और भूख हड़तालें। घंटाघर के चौक पर किसी न किसी नेता का पुतला फूँकती उत्तेजित भीड़, पुलिसिया धड़-पकड़ वग़ैरह... इसके अलावा ठेलियों से सामान झटकते मस्ताए सांड,दीवारों पर टाँग उठाकर चित्रकारी करते कुत्ते, सड़क पर गोबर बिखेरती गाएँ वगैरह सब अपनी अपनी तरह से इसकी जीवन्तता में अपना योगदान देते रहते हैं। पेड़, मौसम और पक्षी भी... देशी शराब के ठेके भी यहाँ जीवंत है, जिनके ठर्रों में आदमी को आसमान में उड़ाने की ताक़त है और अपने ग्राहकों से उनकी ही भाषा में बात करने का कौशल भी... इसके अलावा शहर के इस हिस्से में अभी तक अपनी स्मृतियों, परिहास, करुणा, संस्कृति और संवेदनाओं को जिलाए रखा है। कोई अनजान शवयात्रा किसी भी गली, मोहल्ले, सड़क या बाज़ार से गुज़रती तो आदमी औरतें अपने घरों से बाहर निकलकर और दुकानदार भाव के सम्मान में दुकानों के शटर गिरा कर अंतिम विदा के लिए  हाथ जोड़ देते हैं। कोई कोई तो यह जाने बिना कि शव किसका है कुछ देर के लिए शवयात्रा में शामिल भी हो जाते हैं।
सबसे आश्चर्यजनक बात यह कि इसके मोहल्लों में जूते मरम्मत करनेवालों के ठिए भी हैं और ऐसे लोग भी जो पुराने जूतों को फेंकने की जगह, उन्हें दुरुस्त कराकर पहनना पसंद करते हैं। शहर के इस भाग में दर्जी जिंदा है और ऐसे लोग भी जो ब्रांडेड पोशाकें पहनने की जगह उनसे सिलाए कपड़े पहनते हैं। इसी तरह के और भी ऐसे आलतू-फालतू धंधे— जैसे कान का मैल निकालने वाले, चाकू-छुरी तेज़ करने वाले, बिगड़ी सिलाई मशीन ठीक करने वाले, साइकिलों पर फेरा लगाकर सामान बेचनेवाले वग़ैरह यहाँ हैं जो उन लोगों को जिलाए रखते हैं, जिन्हें बाज़ार जिंदा नहीं रखना चाहता...
अब यह शहर का दिल न रहकर उसका कोई निरंतर सड़ता हुआ ऐसा निरर्थक अंग हो गया है, जो शहर के इतिहास की स्मृतियों में तो है, लेकिन उसके वर्तमान में जिसकी कोई हैसियत नहीं रही। इसके पतन के पीछे उन सिर फिरे लोगों की बड़ी भूमिका है, जिन्होंने आधुनिक विचारों से समझौता नहीं किया। बाज़ार की सीमाएँ टूटने और उस पर पूंजी के एकाधिकार को मानव हित और भावी पीढिय़ों के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा ख़तरा माना और विचार और साहित्य की मृत्यु की घोषणाओं का विरोध किया। वे और विशेष रुप से बहुत से सचेत युवाओं का एक वर्ग— जो अपनी मेधा और योग्यता से इस तंत्र में शानदार जिन्दग़ी जी सकते हैं— सिर पर कफ़न बाँधें शोषितों, वंचितों और मज़दूरों के साथ हैं। ऐसे कुछ युवकों के साथ मेरी मित्रता है, जो बहुत आत्मीय तो नहीं है, लेकिन जिसे फालतू भी नहीं माना जा सकता। वे एक पाक्षिक अख़बार निकालते हैं, जिसका मैं भी वार्षिक सदस्य हूँ। बिना विज्ञापनों का यह अख़बार बहुत घटिया काग़ज़ पर निकलता है। लेकिन इसके समाचार और आलेख अकसर मेरी कई रातों की नींद छीन लेते हैं और यह सोचने को बाध्य कर देते हैं कि 'सूचना प्रौद्योगिकी के विस्फोट काल में मनुष्य सूचनाओं से कितना वंचित है। दुनिया कितनी बेचैन है और चैनलों में दिखाया जाता चमकदार संसार कामग़ारों के विरोध से कैसे पिघल रहा है, इसकी जानकारी मुझे घटिया काग़ज़ के इस अख़बार से ही मिलती रहती है, जिसके पीछे कोई प्रतिष्ठान नहीं है और जो पता नहीं कैसे जीवित है... ये अपने अखबार को डाक से भेजने की जगह खुद पाठकों तक पहुँचाते हैं। इस सिलसिले में, कभी चंदे के लिए और कभी किसी धरने का पैम्फ़लेट देने वे मेरे घर आते रहते हैं और शायद इस कारण भी कि क़िताबों से रिश्ता है और मैं लेखक हूँ और उनके बारे में लिखता हूँ, जिन्हें सभ्यता ने आदमी मानने से इनकार कर दिया है। वे मुझे अपना सिम्पेथाइज़र मानते हैं। साथ ही यह भी जानते हैं कि मेरा चरित्र मध्यवर्गीय है, जिसका पैंडुलम निरन्तर दोलन करता रहता है। जो बहस-मुबाहसों में जिन प्रतिष्ठानों को गाली देता है, सुबह उठकर अख़बारों में सबसे पहले उनके शेयरों के भाव देखता है। उनके भाव चढऩे से प्रसन्न होता है और घटने से उसके हाथ से कुछ छिन जाता है। मुझे भी उनकी आँखों में पनपते सपनों पर सहज विश्वास नहीं होता लेकिन मैं चाहता हूँ कि वे जिन्दा रहें। उन्होंने मुझे अपने संगठन के बारे में कभी कुछ नहीं बताया। लेकिन मैं उस समय एक अव्यक्त भय से भर गया था, जब उनका एक साथी मुकेश को पुलिस ने उठा लिया था। मैकेनिकल इंजींनियरिंग में बी.टेक. मुकेश अच्छी-खासी नौकरी पर लात मारकर स्वतंत्र पत्रकार की हैसियत से अंग्रेजी में पत्रकारिता करके रोटी का जुगाड़ करते हुए संगठन के साथ काम करता है। वह एक बार एक क्रांतिकारी कवि को लेकर मेरे घर आया था, जो भूमिगत उसके घर में छुपा हुआ था। उस गैर हिन्दीभाषी कवि ने लगभग दो घंटे तक बार-बार चाय की फ़रमाइश करते हुए साफ़-सुथरी और अत्यधिक सम्प्रेष्णीय हिन्दी में मुझे अपनी कविताएं सुनाई थीं, जो कलम से नहीं आँसू और आग से लिखी हुई थीं। इन कविताओं ने मेरे लेखकमन को उद्वेलित कर दिया था लेकिन मेरा मध्यवर्गीय मन इस दौरान चौकन्ना था और मेरे कान अपने आकार से बड़े होकर गेट पर होनेवाली हर खडख़ड़ाहट को सुन रहे थे, कहीं भूमिगत कवि की तलाश में गुप्तचर मेरे घर न पहुँच जाएँ और उसके साथ मैं भी गिरफ्तार न कर लिया जाऊँ।
सौम्य और विनम्र मुकेश की गिरफ्तारी से मैं आहत भी था, भयभीत भी और आश्चर्यचकित भी। मेरे मन में संगठन के प्रति ख़तरनाक शंका ने सिर उठा लिया था कि क्या उसका कोई दूसरा चेहरा भी है, जिससे मैं अब तक अनभिज्ञ हूं।
तब मैंने विनम्र कांइयांपन और शातिर चालाकी से संगठन के मन्तव्य बारे में कुछ जानना चाहा था।
'अख़बार में छपी खबर कि मुकेश को गिरफ्तार कर लिया गया...'
'हाँ, लेकिन नेपाल बार्डर के जंगल में गिरफ़्तार किए जाने की ख़बर ग़लत है। उसे घर से उठाया गया है।'
'और यह कि उसके पास से हथियार और विस्फ़ोटक बरामद किए गए।'
'उसकी जेब में कलम आरै हाथ में किताब थीं, जब उसे गिरफ्तार किया गया।'
'अजीब बात है...'
'कतई भी अजीब नहीं... ऐसा ही वक़्त आ रहा है कि वे गिरफ़्तार किए जाएँगे, जिनके हाथों में ऐसी किताबें होंगी, जैसी वे नहीं चाहते कि उनके हाथों में हों...'
'लेकिन उसे देशद्रोह के अपराध में...'
'हाँ, अब एक नई परिभाषा गढ़ी जा रही है। जो देश को खा रहे वे देशप्रेमी हैं और देश के आखरी आदमी के साथ खड़ा आदमी देशद्रोही हैं। लेकिन विरोध करनेवाले हर समय मौजूद रहते हैं। देश का एक बड़ा बुद्धिजीवी वर्ग उसके समर्थन में आ गया है, जिसमें सुप्रीमकोर्ट-हाईकोर्ट के वकील, संगठन और ह्यूमनराइट्स के आदमी भी शामिल हैं। व्यवस्था उसके विरुद्ध कुछ भी साबित नहीं कर सकती। यह तो नहीं बताया जा सकता कि कितना समय लगेगा, लेकिन वह सलाखों से बाहर होगा। आज तक कोई ऐसी जेल नहीं बनी जो विचारों को बंदी बना सकें।'
मैं और मेरे सभी साहित्यिक मित्र इस गिरफ्तारी से उत्तेजित और गम्भीररूप से आहत थे। हमने अपनी मासिक साहित्यिक गोष्ठी में इस पर व्यापक चर्चा और प्रशासन के दमनकारी रुख की भत्र्सना की थी और अविलम्ब मुकेश की रिहाई की अपील का प्रस्ताव भी पारित किया था। वह हमारे संस्था के रजिस्टर में लिखा गया था और अभी भी लिखा हुआ है, लेकिन वह सरकार के पास कभी भेजा नहीं गया। दरअसल हमारे दो चेहरे तो होते ही हैं...
मुकेश जब तक जेल से रिहा नहीं हो गया और यह एक लम्बा वक़्त था, मैं एक अव्यक्त से भय से घिरा रहा। मैंने हर उन संभावनाओं का विश्लेषण किया, जो मुझे किसी खतरे में डाल सकती थीं। यह सही था कि मैं संगठन का सदस्य नहीं था, लेकिन संगठन की पंजाब शाखा ने एक बार अपनी पत्रिका में मेरी कहानी छापी थी और उनके अख़बार की सदस्यता रसीद बुक में मेरा नाम था। राष्ट्रवाद पर गम्भीर चर्चा के इस नाजुक समय में इसे छोटा अपराध नहीं माना जा सकता। वैसे भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नारे पर बनी सरकार में एक बार मैं अपने लेखन के लिए गुप्तचरों का स्नेह झेल चुका था। हालांकि कुछ अरसे के मानसिक दबाव के बाद मैं उससे साबुत निकल भी गया था, लेकिन मेरे अवचेतन में अब भी वह डर अमिट स्याही से लिखा हुआ था। मैंने इस झटके से उबरने के बाद फिर से लिखना भी शुरु कर दिया था। मेरे लेखन की दिशा ज़रुर वही रही, लेकिन उसकी धार भोंथरी हो गई थी और मैं चौकन्ने और सावधान लेखक में बदल चुका था।
अव्यक्त भय और दुविधा और दोनों ओर की शंकाओं, संदेहों, विश्वास और अविश्वास के बावजूद हमारे बीच कोई ऐसा सम्बंध है, जो आत्मीय न होते हुए भी औपचारिक नहीं है और ज़रूरी है...
मेरे परिवार के अन्य सदस्यों ने उनके साथ मेरी दोस्ती को कभी पसंद नहीं किया। उन्होंने स्पष्ट रूप से तो कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन उनके लिए चाय बनाते हुए किचन की बर्तनों की अतिरिक्त झनझनाहट और चाय देते हुए उसके ठंडेपन में छिपी हास्यास्पद उपेक्षा और जिद्दी घृणा मैंने बराबर देखी है। उनका ख़याल है कि इस शहर के बाहर जो नया चमकदार शहर बस गया है, जोड़-तोड़ से किसी तरह वहाँ पहुँच की कोई ललक इन्होंने ही मेरे भीतर पैदा नहीं होने दी और इनकी वजह से ही मैंने औसत आदमी के ऊपर उठने का कभी कोई प्रयास नहीं किया।
शहर के नए संस्करण के लिए परिवार का गहरा आकर्षण है। उसके मॉल्स, शॉपिंग- काम्पलैक्सों, बिग बाज़ार, ब्रांडेड वस्तुओं, मल्टीप्लैक्सों, स्काई-स्क्रेपरों, सुविधा-संपन्न आधुनिक और सुरक्षित फ्लैटों और वहाँ रहनेवाले के जीवन स्तर पर दबी फुसफुसाहट और वहाँ बसने की एक विकट चाह किसी रोग की तरह मेरे घर में भी फैली रहती हैं। वे उसके मॉलों से ख़रीदारी करते हैं और मल्टीप्लैक्स में कोई पिक्चर देखने का सुअवसर निकाल लेते हैं। उस दिन उनका चेहरा आभिजात्य की गरिमा से दिपदिपाता रहता है। वे मॉल से खरीदे ब्रांडेड सामानों के रेपरों तक को कई कई दिन सँभाले रखते हैं।
'पाप फिल्म देखने का आनन्द तो मल्टीप्लेक्स में हैं। तुम्हारे इन खटारा हालों में हे भगवान... और महाबली क्या कमाल है! उसने कलेक्शन के सारे रिकार्ड तोड़ दिए। और कम्प्यूटर ग्रैफिक्स! उसने तो कमाल ही कर दिया।' किसी मल्टीप्लेक्स में यह फिल्म देखकर मेरी बेटी रिंकी ने आँखों से गागल्स उतारते हुए कहा, जिसने मुझे सुधारने का बीड़ा उठा रखा था।
'लेकिन फिल्में गिमिक्स के लिए नहीं, उन्हें यथार्थ की ठोस ज़मीन, मनुष्य की सच्चाई और संवेदना के लिए होनी चाहिए। उन्हें सैल्युलाइड पर किसी कविता की तरह लिखा जाना चाहिए। ऐसी फिल्में बनती भी हैं लेकिन मल्टीप्लैक्स संस्कृति में उनकी जगह नहीं हैं, वे डिब्बों में बंद रह जाती हैं। हमारे छविगृहों में कभी-कभी ऐसी फ़िल्में आ भी जाती हैं, जिन्हें तुम खटारा कह रही...'
'अपनी आँख से नहीं उन करोड़ों-करोड़ों लोगों की आँखों से देखो पापा जिनके विपन्न और दु:खी जीवन में ऐसी फिल्में किसी राहत की तरह है... बहुत छोटी राहत ही सही...'
'उन्हें ऐसी फ़िल्मों की ज़रूरत है जो उनके भीतर का यह विश्वास जगाए कि उनमें दुनिया को बेहतर दुनिया में बदलने की ताक़त है।'
'लेकिन उस बाज़ार में कभी नकली माल नहीं मिलता। आप कभी ठगे नहीं जा सकते। और आश्चर्य कि दो ख़रीदो, दो मुफ्त या ऐसी ही आकर्षक विक्रय योजनाएं वग़ैरह... लेकिन आप बदलने को तैयार नहीं हैं। इसमें भी उनकी कोई न कोई चालाकी ढूँढ ही लेंगे।
'तुम इतनी भोली नहीं रिंकी कि जानती ही न हो, यह आक्रमण है। लेकिन शायद तुमने इस पर विचार नहीं किया कि जब दुनिया के सारे बाजार सरप्लस से भर जाएँगे और खरीदनेवाला कोई नहीं होगा तब...'
'उन्होंने वे दिमाग़ ख़रीद लिए जो जरा से सुधार से चीजें बदल देते हैं और मीडिया कैसे उसकी ख़रीद के लिए क्रेज़ पैदा करता है! मैं खुद अब तक एक दर्जन से ज़्या दा मोबाइल ख़रीद चुकी हूँ और अगला ख़रीदने के लिए लालायित हूँ। फिर उससे अगले के लिए। हर हफ़्ते उसमें नए फीचर जोड़े जा रहे हैं। सब वस्तुओं के साथ यही हो रहा। उनके हर समय परिष्कृत संस्करण आते रहेंगे और पुरानी चीज़ें कूड़ेदान में फेंकी जाती रहेंगी। सरप्लसवाला सिद्धान्त सिर्फ क़िताबी में रह गया है। वे इसकी काट ढूँढ चुके हैं...'
यह मेरी दूसरी पीढ़ी है, जिसके साथ मेरी बहसें करने की संभावनाएं बाक़ी हैं, भलें ही हम एक दूसरे से सहमत न हों...
लेकिन मेरी तीसरी पीढ़ी को- जिसमें मेरी सात साल की पौत्री बोसु है- मेरी समझ पर कतई विश्वास नहीं है। बस एक छोटे से वाक्ये से उसने मेरे ज्ञान के परखचे उड़ा दिए थे। तब वह नर्सरी में थी और एक दिन सर्दियों की गुनगुनी धूप में अपनी छोटी कुर्सी पर बैठी अंगूर खा रही थी।
'वाह बोसु काले अंगूर खा रही है।' मैंने पूछा।
उसने हैरानी से मुझे देखा और फिर धमका दिया, 'स्टॉप दादू। ये काले नहीं वॉइलेट हैं।'
मैं औचक सन्नाटे से भर गया था। पिछली और मेरी पीढ़ी उन्हें काले अंगूर ही कहती है। उन्हें उगाने, बेचने और खरीदने वाले भी। हमने उनके रंग पर सुनकर विश्वास कर लिया। अपनी आँखों से नहीं देखा। मुझे नहीं मालूम कि सही कौन है, पर यह पीढ़ी सुने पर नहीं, देखे पर विश्वास कर रही... अपर केजी में मेरे लिखे अंग्रेज़ी के रनिंग लैटर्स से उसने असहमति प्रकट कर दी थी कि वे वैसे नहीं हैं जैसे उनकी मेम सिखाती है। और जब वह पहली कक्षा में थी उसने मेरी पत्रिकाओं में प्रकाशित कहानियों को रद्द कर दिया कि वे अंग्रेज़ी में नहीं, हिन्दी जैसी ग़रीब भाषा में लिखी गई हैं...
बहरहाल सहमति असहमति अपनी जगह है लेकिन उसके निश्छल प्यार का कोई प्रतिदान नहीं है। सड़क पर पैदल चलते हुए वह बराबर मेरा ख़याल रखती है, 'कीप लैफ्ट दादू' और जैसे ही किसी गाड़ी की आवाज़ सुनती है, मुझे ऐसे समेट लेती है, जैसे मैं कोई मासूम बच्चा हूँ। और जब उसे यह मालूम हुआ कि आदमी बूढ़े होकर मरते हैं और स्टार बन जाते हैं, तो उसे कतई यक़ीन नहीं हुआ कि मेरे साथ भी यह हो सकता है और वह अपने इतने अच्छे दोस्त को खो देगी। उसने खाना भी नहीं खाया और दिनभर बेहद उदास रही। और जब उसे विश्वास करना पड़ ही गया कि यह अपरिहार्य सच्चाई है तो उसने मुझसे विनम्र प्रार्थना की, 'तब आप ऐसा स्टार बनना जो आसमान में सबसे पास हो, जिसे मैं हर रात अपनी छत से देख सकूँ।''
उसका सातवां जन्मदिन आ रहा है। और यह गड़बड़-सी कहानी भी यहाँ जन्म ले रही है...
अपने जन्मदिन वाले महीने की पहली से ही उसने चौबीस तारीख़ के दिन गिनने शुरू कर दिए थे, जिस दिन उसका जन्मोत्सव मनाया जाना है। एक एक दिन उसे और दिनों से ज़्या दा लम्बा लग रहा था। वह अपने पापा से बर्थडे केक के डिजाइन और उस अवसर पर बच्चों को पहनाई जानेवाली टोपियों के बारे में बताती रही कि उसे उनसे अलग तरह का होना चाहिए जैसे वह दूसरों के जन्मदिवसों पर देखती आई है। वह परिवार में सबसे पूछ रही थी कि वे उसे जन्मदिन पर क्या उपहार देंगे।
जब उसने मुझसे अपने जन्मदिन पर दिए जाने वाले उपहार के बारे में पूछा उस समय मैं अपना चश्मा ढूँढ रहा था, जिसे मैं पता नहीं कहाँ रखकर भूल गया था। मैं उसे हर सम्भावित जगह खोज चुका था। वह मिल नहीं रहा था। मैं बेहद परेशान था, जैसे मेरा कोई अनिवार्य अंग मुझसे जुदा हो गया है।
'पहले मेरा चश्मा... पता नहीं कहाँ रख दिया?'
'आप रोज अपना चश्मा खो देते हैं और फिर मुझे और मम्मी को उसे ढूँढऩा पड़ता है।' उसने डाँट लगाई।
'इस बार के बाद कभी नहीं, मैं उसे कान पर जंजीर से बाँधे रखूँगा। प्लीज़...'
'ओके', उसने कहा और अगले ही पल चश्मा ढूँढ दिया जो कानों के पिछले हिस्सों पर कमानियों के सहारे मेरे सिर पर टिका ही हुआ था। 'आपके सिर पर तो है। आप भी दादू...'
'थैंक यू...' मैंने कहा और इससे पहले कि वह परिवार में मुझे मज़ाक बनाए उसे फुसलाया, 'मैं तुझे बर्थ डे पर तेरी पसंद का गिफ्ट दूँगा न...'
उसने मेरा मज़ाक बनाने का इरादा बदल दिया और तुरन्त सौदेबाजी पर उतर आई, ''पॉम पॉम वॉव' दिलवा देना।' उसने कहा।
मैं चकरा गया। लड़कियों के इस खिलोने का मैंने कभी नाम भी नहीं सुना था। मुझे एक अजीब-सी दहशत ने घेर लिया। कितने नफ़ीस ढंग से आक्रमण हो रहा है। भारतीय बाज़ारों में दुबली-पतली भूरे बालों, नीली आँखों और पतली टाँगों की लगभग वस्त्रहीन बार्बी डॉल आई और उसने माँओं के हाथों से बनाई कपड़ों की गुडिय़ाओं और उसके ममता भरे स्पर्श को ही नहीं बल्कि देसी गुडिय़ाओं के बाज़ार को अपनी उन मरगिल्ली टाँगों से रौंद दिया, जिस पर वह खुद खड़ी नहीं हो सकती। और अब पता नहीं क्या क्या... लेकिन मैं बोसु से वायदा कर चुका था। दरअसल यह वायदा भी नहीं, एक तरह से समझौता था।
उसकी मम्मी से ही मुझे मालूम हुआ कि यह लड़कियों का कोई डैकोरेशन सैट है। बोसु ने इसे ग्लोबल मॉल में देखा था और तब से ही वह इसे लेने की ज़िद्द कर रही है।
'पॉम पॉम वॉव' लेने ही मैं शहर के इस आधुनिक हिस्से में आया था, जिसने पुराने शहर को सैंडविच की तरह दबोच लिया है। हाईवे यहीं से होकर निकलता है और जब भी मुझे कभी बाहर जाना हुआ तो मैं यहाँ से ही गुजरता रहा। लेकिन तब बसों की खिड़कियों से शहर का यह नया संस्करण किसी सपने की तरह लगातार पीछे छूटता जाता था। लेकिन आज यह सपना नहीं यथार्थ था। मैं सचमुच यहाँ था। तीस साल पहले इस शहर से मेरा गहरा रिश्ता था। तब मैं बीएससी में था और यहाँ के एक गाँव में मेरा दोस्त रहता था, जिसके बिना मैं जीवन की कल्पना नहीं कर सकता था। अब वह दक्षिण अफ्रीका के किसी तकनीकी स्कूल में हैड मास्टर है और पिछले दस-बारह सालों में उससे मेरी एक बार ही फ़ोन पर बात हुई। लेकिन तब की बात ही कुछ और थी हम दो देह और एक प्राण थे। कॉलेज में तो हम साथ रहते ही और हर अवकाश में मैं उसके घर आ जाता, या, वह मेरे। इस तरह मेरा एक झीना सा रिश्ता उसके गाँव और उसका रिश्ता शहर से था।
इस समय मैं जिस सड़क के पैदल मार्ग से गुज़र रहा था, उन दिनों यह एक बैलगाड़ी से कुछ चौड़ी गड्ढों से भरी कच्ची सड़क हुआ करती थी। बहुत सँभलकर चलने के बावजूद अक़सर मेरे जूतों के सोल में जड़े सितारों में से एकआध सितारा यहाँ निकल जाता था और, मुझे ऐसा लगता था जैसे मैंने अपने शरीर का कोई ज़रूरी हिस्सा गंवा दिया। उन दिनों जूते के सोल में सितारे जड़वाने का प्रचलन था, जिससे वे कम घिसें और ज़्या दा समय तक पैरों की हिफ़ाजत करते रहे। बरसात में गड्ढों में पानी भरा रहता और शाम ढले ही उसमें मेंढक टर्राने लगते। सड़क में इतना कीचड़ होता कि बचते बचाते चलने पर भी फिसलने का डर बना रहता। किसी तरह अपने को गिरने से बचा भी लिया जाए तो जूतों और पैंट के पहोचों को गारे में सनने से तो बचाया ही नहीं जा सकता था। अब यहाँ आइने की तरह चमकती कार्पेट रोड है, जिस पर डूबते सूरज में मुझे अपनी परछाई में अपने चश्मे का फ्रेम तक दिखाई दे रहा था। तब कच्ची सड़क के दोनों ओर कंटीली बाड़ होती थी, जिसके पार लहलहाते खेत थे, जहाँ तक निग़ाह जाती हरा समंदर फैला होता। उगती, बढ़ती और पकती फ़सलों से तीन रंगों और महकों की हवाएँ बहतीं और मुझे महसूस होता जैसे मेरा हृदय अनायास फैली फ़सलों की तरह विशाल होता जा रहा है और, मैं महकी हवाओं की तरह हल्का होकर आसमान में उड़ रहा होऊँ.. घरती को सोना बना देने और आदमी की आत्मा को उदात्त बना देने का जादू... वहाँ अब फ़सलों की जगह काँच, काँक्रीट और सीमेंट का संसार बसा हुआ है। मेरी इच्छा अपने दोस्त के टिन के धूसर मकान को खोज लेने की हुई जिसके साथ जुड़ी मेरी स्मृतियों ने सहसा अपने पंख पसारने शुरु कर दिए थे। लेकिन जब गाँव, उसके आदमी, खेत और फ़सलें ही खो गए, तब यह बस एक व्यर्थ अभिलाषा थी....
आसमान की ओर फैलते चमकदार संसार के पैदलपथ पर चलते हुए मुझे ऐसा एहसास हुआ जैसे मैं लगातार निरीह और छोटा होता जा रहा हूँ। मेरे आगे पीछे भी छिटपुट लोग थे। सभी अपने में खोए हुए। मुझे लगा कि वे सभी भव्यता के खामोश अनुशासन से मेरी ही तरह डरे हुए हैं। सूरज ढलने की ओर जा रहा था। आसमान साफ़ था लेकिन वहाँ पँछी की उड़ानें नहीं थीं। सहमी सी हवा थी लेकिन वह उसे खूबसूरत महिला से आती सुगंध से भरी हुई थी, जो अपने गाबदू बच्चे के साथ मुझसे कुछ आगे चल रही थी। उसने एक हाथ से बच्चे की उंगली पकड़ रखी थी और दूसरे हाथ में थामे सैल पर किसी से बात कर रही थी। बात करते हुए वह मुस्कुराती तो उस गरूर से तने माहौल में कोई कोमल सी तितली उडऩे लगती और उससे आती भीनी सी महक सड़क पर दौड़ते वाहनों के सफ़ेद धुएँ के विरुद्ध एक शालीन अस्वीकृति मालूम होती...
तभी कुछ दौड़ते पैरों की भद्दी आवाज़ों से शहर की निष्ठुर भव्यता हड़बड़ा गई। परिदृश्य में सामने सिर पर तरकारियों का टोकरा उठाए बेतहाशा दौड़ता हुआ आदमी उभरा। वह एक दुबला देहाती था, जिसने मिलिटरी के रद्दी में ख़रीदे मज़बूत टो के जूते पहने हुए थे, जो भागते हुए ज़रूरत से ज्यादा आवाज़ कर रहे थे और उसकी लम्बी गरदन के सिर पर तरकारियों का इतना बड़ा टोकरा था कि दोनों को एक साथ सँभालने में उसे दिक्कत हो रही थी। फिर भी वह अपने पीछे दौड़ते पुलिसवालों की पकड़ से दूर था, जो अपनी आधे से ज़्या दा शक्ति का दुरुपयोग अपने कद से बड़े डंडे सँभालने और गालियाँ बकने में कर रहे थे जो इस बात का पुख्ता संकेत दे रही थी कि सभ्यता की कोई भी सीढ़ी चढऩे के बावजूद पुलिस की भाषा और शिल्प में कोई बदलाव नहीं हो सकता...
महिला इस अप्रत्याशित घटना से हड़बड़ा गई। उसकी मुसकुराहटें और बातें थम गईं। उसने सैल को कंधे पर लटकते कीमती वैनिटी बैग में डाला, जो शायद कछुए की खाल से बना था और फुर्ती से गाबदू बच्चे को अपने सुरक्षा घेरे में ले लिया। उसका चेहरा सहसा सफेद पड़ गया था, लेकिन तब भी वह खूबसूरत लग रही थी।
 'क्या हुआ मम्मी?' बच्चा इस अप्रत्याशित सुरक्षा से घबरा गया।
'टेरर्रिस्ट...' उसके मुँह से भयातुर चीख निकली।
तभी दौड़ते देहाती की टोकरी से कुछ तरकारियाँ उछलकर ज़मीन पर गिर पड़ीं। वह उन्हें उठाने के लिए झुका और पुलिस की चपेट में आ गया। उसकी पीठ पर लाठी का एक तीखा प्रहार हुआ। वह टोकरे समेत चमकदार फुटपाथ पर गिर पड़ा। उसकी सारी तरकारियाँ बिखर गई और वह कराहने लगा। सहसा मुझे ऐसा लगा कि चकमदार संसार में पीठ पर आघात सह कर देहात पड़ा कराह रहा है...
'इस बेचारे को क्यों मार रहे?' अनायास मेरे मुँह से निकला।
मेरे हस्तक्षेप से पुलिस की लाठियाँ रुक गई। यह हैरानी की बात थी। क्या वे जानते होंगे कि मैं एक लेखक हूँ? फिर मुझे ख़याल आया कि यह लेखन का नहीं लिबास का रौब है। मैं अपनी सबसे उम्दा पोशाक पहने हुए था।
इस बीच फुटपाथ पर गिरा देहाती खड़ा हो गया और सड़क पर बिखरा अपना सामान देखने लगा, जिसे वह समेटना चाहता था, लेकिन अभी उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। वह झुककर अपने जूतों के तस्में बांधने लगा। उसके साँवले चेहरे पर गहरी वितृष्णा थी और आँखों में भय की वजह विरोध की एक लौ धपधपा रही थी। इस बीच घटना-स्थल पर कुछ और लोग भी जमा हो चुके थे।
'इसने क्या अपराध किया है कि इसे इस तरह सरेआम पीटा जा रहा है?
भीड़ देखकर पुलिस का मनोबल कुछ क्षीण पड़ गया। देहाती ने अवसर का लाभ उठाया और अपनी बिखरी तरकारी समेटने लगा।
एक पुलिसवाले ने, जो जवान और अपने काम के प्रति ज्यादा गम्भीर था, कहा, 'यह क़ानून और व्यवस्था का मामला है। मेहरबानी करके इसमें टाँग न अड़ाएँ और हमें अपना काम करने दें।'
देहाती टोकरे में सब्जियाँ एकत्रित करके उठा। उसने हवा में अपना हाथ लहराते हुए कहा, 'साहब ये कुछ नहीं बोलेंगे। मैं ही अपना कसूर बता देता हूँ। मैंने 'ब्यिूटी पैंट' के झरने के नुक्कड़ पर सब्जियाँ बेचने का झाबा लगाया था।'
'वहाँ प्रशासन ऐसा करने की अनुमति नहीं देता।' जवान पुलिसवाले ने कहा।
'यह निश्चय ही देहाती की ग़लती है, फिर भी उसे इस तरह सड़क पर पीटना इससे भी बड़ी ग़लती है। इसने कोई चोरी या बलात्कार नहीं किया है...'
'अब आप ही हमारी मदद करें', पुलिसवाला रुआँसा हो गया, 'हम व्यवस्था बनाए रखने के लिए क्या करें? पुलिस ने इस मादरचो... को कई बार समझाया, डराया और धमकाया। छाबड़ा जब्त किया। पीटा। फाइन अदा न करने के लिए न्यायालय ने इसे जेल भी भेजा। फिर भी यह हरामी का बीज बाज नहीं आ रहा।'
अब तक देहाती ने बिखरी हुई तरकारियाँ समेटकर टोकरा अपने सिर पर रख लिया था। उसने अपने गिर्द जमा आदमियों से कोई सम्वाद न करते हुए पुलिस से कहा, 'थाने, कोरट, कचैरी जहाँ मर्जी ले चलो। मारोगे, पीटोगे, फैन करोगे, फैन अदा न करने पर जेहल भेजोगे। फाँसी पर तो नहीं चढ़ा सकते न। मैं लौटूँगा और सब्जी की टोकरी लेकर फिर 'बियूटी पैंट' के झरने के नुक्कड़ पर बैठूँगा। जब ये गाम था तब उधर मेरी दुकान थी। इस अस्थान पर मेरी नाल गड़ी है।' और उसने एक हाथ से सिर की टोकरी सँभालते हुए दूसरा हाथ हवा में फैला दिया ताकि पुलिस को उसे गिरफ्तार करने में कोई दिक्कत न हो। पुलिस ने उसका फैला हाथ पकड़ लिया लेकिन उसे घसीटने की आवश्यकता नहीं हुई, वह एक सज्जन अपराधी की तरह उनके साथ चलने लगा।
उसके गिर्द खड़े आदमी अवाक् रह गए। मैं भी। उसने किसी से भी मदद की कोई  गुहार नहीं लगाई थी। मुझे पता नहीं ऐसा क्यों लगा- जैसे वह स्वतंत्रता सेनानी की तरह अपनी गिरफ्तारी से लज्जित नहीं है। मैं फुटपाथ के किनारे खड़ा होकर सोचता रहा और मेरी समझ में नहीं आया कि देहाती के इस दुस्साहस को इस भव्यलोक में सूराख करने की ज़िद्द मानी जानी चाहिए या वहाँ, जहाँ से वह उखाड़ा गया, अपने लिए छोटी सी जगह की भोली इच्छा...
जैसा अमूमन हर लेखक हर समय समाज में बिखरी कहानियाँ चुरा लेने की जुस्तजू में रहता है, वैसी में मैं भी था और मेरे सामने तो सचमुच ऐसा घटा था, जिसके गिर्द कुछ कल्पना, सम्वेदना, भाषा और शिल्प की कलाबाजी से एक सफल कहानी बुनी जा सकती थी। मैं यह भी जानता था कि घटना का अंत कैसे होना है। देहाती को किसी दिन, हो सकता है आज ही, इतना पीटा जाएगा कि उसके हाथों में सब्जी की टोकरी सम्हालने की ताकत नहीं रहेगी और पैर खड़े होने में असमर्थ हो जाएँगे। याने मुझे कहानी के अन्त के लिए बेचैन भी नहीं होना था। फिर भी मेरे मन में इस घटना पर कहानी लिखने का विचार नहीं आया। दरअसल कहानियों का मिज़ाज बदल गया है। उस आदमी को जिसे समाज ने हाशिए में फेंक दिया है, कहानियाँ भी वैसा कर चुकी हैं। आए दिन देश में किसान आत्महत्या कर रहे हैं और कहानियाँ खामोश हैं...
ढलते सूरज की झीनी होती धूप में डिवाइडर की क्यारियों में सदाबहार पौधे अपना रंग बदल रहे थे। पुराने शहर में मुख्य सड़क के डिवाइडर में क्यारियाँ नहीं हैं। फूल भी। अगर वहाँ ऐसा होता तो क्यारियों के ज्यादा सदाबहार पौधे और फूल प्रकृति प्रेमियों के घरों की शोभा बढ़ा रहे होते।
सहसा कारपेट रोड पर एकाएक दर्जनों बेशकीमती गाडिय़ों का रेला दौडऩे लगा। अगली गाड़ी में मेक-अप सँवारती खूबसूरत महिला अपना क्षणिक माया संसार बिखेरते हुए मेरी आँखों के सामने से पानी में डुबकी लगाती रंगीन मछली की तरह ओझल हो गई। बस एक कोमल सा झिलमिल अहसास हवा में महकता रहा, जिसे उसके पीछे दौड़ती चमकदार गाडिय़ों की आक्रामकता ने झकझोर दिया।
एकाएक मेरी बगल में चलता लड़का चिल्लाया, 'वो रही मोनिका जी'। मैंने घूमकर उसकी ओर निगाह दौड़ाई और कार में तेज़ी से अदृश्य हो गई। महिला की छवि को उसकी स्वप्निल आँखों में देखकर आश्चर्य में डूब गया। उस महिला को, जिसकी छवि जवान पीढ़ी की आँखों में बसी है, न जानना वाकई शर्म की बात थी।
मैंने अपनी अज्ञानता के संकोच के साथ लड़के से पूछा, 'ये मोनिका जी कौन है?'
मेरे प्रश्न से लड़के को पहले तो आघात लगा, फिर उसने मुझे गौर से देखा और शायद मेरे लिए उसके भीतर दयाभाव उपज गया। 'अजीब बात है आप मोनिका जी को नहीं जानते। नाउ यूर रियली एन ओल्ड मैन सर। माफ कीजिए जैसे ही कोई सिने हीरो- हिरोइनों को पहचानना भूल जाता है, वो बूढा हो जाता है। शीज अ क्रेज़ दीज़ डेज़। यह हमारे नगर का सौभाग्य कि वो 'अल्ट्रा माडर्न शॉपिंग कॉम्प्लेक्स' का उद्घाटन करने यहाँ आई। जान लीजिए सर, मोनिका जी एक करोड़ का फीता काटेंगी। सुना है कि कॉम्प्लेक्स के मालिक चीनूभाई ने अपने सारे घोड़े खोल दिए तब सुरक्षा की पूरी गारंटी और एक करोड़ रुपये पर वे राजी हुई।' अगर आप मेरे साथ थोड़ा तेज़ चलें तो शायद आप भी उनके दर्शन कर लें और कुछ जवान भी हो जाएं। मुझे हर हालत में उनसे मिलना है। बस अगले मोड़ से थोड़ा आगे ही...'
'माफ करना दोस्त। मुझे ग्लोबल मॉल से 'पॉम पॉम वॉव' खरीदना है।'
मेरी बात सुनकर वह भी उतना ही चकरा गया जितना मैं मोनिका जी को न जानने से चकराया था। 'क्या कहा सर - पॉम पॉम वॉम - ये क्या चीज़ है?'
'सही बात तो यह है कि 'पॉम पॉम वॉम' के विषय में कोई जानकारी नहीं और मैं तो यह भी नहीं जानता कि ग्लोबल मॉल कहाँ है।'
'चलिए ग्लोबल मॉल की लोकेशन तो मैं आपको बता दूँगा। वह वाकई शानदार मॉल है, मानो सीधे अमेरिका से उठाकर यहाँ जड़ दिया गया है। लेकिन अब चीनूभाई के 'अल्ट्रा माडर्न शापिंग कॉम्प्लेक्स' के सामने वह पानी भरेगा। आप खुद ही सोच लें जिसका फीता युवा पीढ़ी की क्रेज़ सिने स्टार मोनिका जी काट रही हों और वह भी एक करोड़ में तो...'
हम बातें करते हुए साथ चलने लगे। वह दिलचस्प, बातूनी, हाजिर ज़वाब, राजनीति के प्रति निरपेक्ष और अपने में केंद्रित था। उसके हिलते हुए एक हाथ में ढीली सी चेन झूल रही थी। वह घुटनों पर घिसी जीन्स और नोकदार जूते पहने हुए था। उसने बताया कि वह किसी शौकिया नाट्य-संस्था के नाटकों में भाग लेता रहा था और वह क्रिकेट की स्कूल इलैवन में भी खेल चुका था। वह क्रिकेट खिलाड़ी और रजतपट की दो असंभव कल्पनाओं के बीच झूल रहा था। उसका ख़याल या कि इस समय देश का निम्न मध्यमवर्ग सबसे ज्यादा संकट में है। न वह अपने सपने पूरे कर सकता है, न उसके पास नौकरियाँ हैं और न वह अपने झूठे गरुर में निचले वर्ग के साथ जा सकता है। बस वह किसी तरह एक व्यर्थ ज़िंदगी जी रहा है। उसके पास कोच को देने के पैसे होते तो वह आज क्रिकेट के संसार में करोड़ों रुपए पीट रहा होता और किसी जान-पहचानवाले की सहायता से िफल्म जगत में घुस जाता तो दुनिया उसका लोहा मानती। सर अब आदमी किसी बड़े की जान-पहचान के सहारे, या पैसे के दम पर ही कुछ कर सकता है। उसके कंधे में लटकते गनी बैग में वह फाइल थी जिसमें अभिनय के दौरान खींची गई कुछ फोटो और उसके अभिनय की प्रशंसा में की गई स्थानीय अखबारों में छपी टिप्पणियों की कतरने थीं। 'सर', उसने कहा, 'मोनिका जी एक बार मेरे अभिनय संसार की बानगी देख लें। उनका तो इशारा ही बहुत है। लेकिन उनसे मिलना गूलर का फूल है। मेरे पास उद्घाटन का निमंत्रण पत्र भी नहीं है। बहुत कोशिश की फिर भी। एक कलाकार को उद्घाटन का निमंत्रण पत्र न दिया जाना शर्म की बात है, जबकि उसका उद्घाटन कलानेत्री के हाथों हो रहा हो। आजकल देश में अधिकतर शर्मनाक काम ही हो रहे हैं। आप यक़ीन नहीं करेंगे, लेकिन यह सच है कि एक एजेंट इस उत्सव के निमंत्रण पत्र बेच रहा था और वह भी इतने ज़्या दा पैसों में कि वो मेरे जैसे बेरोज़गार की जेब के बर्दाश्त से बाहर की बात थी। लेकिन मैं अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोडूँगा, चाहे पुलिस की लाठियाँ ही क्यों न खानी पड़ें।'
'अपने सपनों को जिंदा रखना ज़रूरी है। उनके लिए जोखिम भी, लेकिन सावधानी भी...' मैंने चलता-सा जवाब दिया।
'वो रहा कॉम्पलेक्स। आप यहाँ से बाएँ हाथ की सड़क पर सीधे चलते जाइए। एक छोटा मगर खूबसूरत पार्क मिलेगा, महात्मा गांधी की मूर्तिवाला। ठीक उसके सामने ग्लोबल मॉल है।'
मैंने उसे धन्यवाद देते हुए भव्य कॉम्पलेक्स की ओर देखा। उसके मुख्य द्वार पर कड़ी सुरक्षा थी। पार्किंग में तरतीब से गाडिय़ों का अंबार लगा था। ग्राउंड में शानदार आदमी-औरतें, कैमरे लिए मीडियाकर्मी, अखबारों के संवाददाता और शस्त्र सँभाले पुलिसवाले खड़े थे। अनजानी चाह में मैंने मोनिका की एक झलक देखनी चाहीं लेकिन वह मुझे दिखाई नहीं दी और न वो एक करोड़ का जादुई फीता ही, जिसे वह काटने आई थी।
अपनी राह चलते हुए मैंने पीछे मुड़कर देखा। वह लड़का कॉम्पलेक्स के सुरक्षाकर्मियों को अपने थैले से फाइल निकालकर अभिनय के चित्र और अभिनय की प्रशंसा की कतरने दिखा रहा है। कुछ देर बाद फिर मुड़कर देखा तो लगा कि वह हाथ जोड़कर भीतर जाने की विनती कर रहा है। फिर उसे झगड़ते और फिर जब सूरज डूब गया तो पुलिस के द्वारा उसे बाहर घसीटे जाते। लेकिन तब सब कुछ किसी धुंधली परछाई में बदल गया था। इसके बाद फिर मुड़कर देखने की मुझमें हिम्मत नहीं हुई।
तिराहे के जिस स्थान पर यातायात पुलिस का चबूतरा होना चाहिए था, वहाँ एक छोटा और खूबसूरत तिकोना पार्क था, जिसकी मखमल की तरह बिछी और करीने से सँवरी जापानी घास और ऐसे फूलों की क्यारियों के मध्य, जो शायद हर मौसम में खिले रहते हैं, बेशकीमती चमकादार काले ग्रेनाइट की महात्मा गांधी की आदमकद मूर्ति खड़ी थी। मूर्ति के सामने संगमरमर की खूबसूरत हौदी में फव्वारा रंगबिरंगी फुहारें छोड़ रहा था। पार्क के चारों ओर एक फुट की दीवार के ऊपर मोटी जंजीरों की घेराबंदी थी ताकि पार्क को सिर्फ बाहर से देखा जा सके और कोई भीतर प्रवेश न करे या शायद इसलिए भी कि कहीं वह लंगोटधारी महात्मा आडम्बर और चकाचौंध से घबराकर भाग न जाए जिसके विरोध में उसने चरखे को राष्ट्रीय प्रतीक बनाया था और विदेशी वस्त्र त्यागकर लंगोट पहनने लगा था।
पार्क की रोशनियाँ सड़क की रोशनियों की तुलना में कहीं मंद और कोमल थीं। मैं उन रोशनियों में औचक सन्नाटे से भर गया। वर्जित प्रदेश में महात्मा के चरणों के नीचे एक अधेड़ युगल बैठा था और ठीक उस जगह जहाँ गांधीजी की छड़ी रही होगी, वहाँ एक दफ्ती लटक रही थी, जिस पे काली स्याही से अनगढ़ और भद्दे लेकिन बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था - मेहरबानी करके हमें खरीद लीजिए।
शहर की हलचल में इस दृश्य के प्रति कोई हलचल नहीं थी। वह निष्काम-उदासीनता से दम्पत्ति और दफ्ती पर लिखी इबारत को पढ़ती और प्रतिक्रियाविहीन चेहरों के साथ गुजर रही थी। शायद उसे लग रहा था कि यह एक रसहीन नाटक है। वैसे भी यह देश नाटकों का देश है। हर पल, हर क्षण और हर जगह यहाँ कोई न कोई नाटक हो रहा होता है। लेकिन हर नाटक में हिस्सेदार होने वाले पुराने आत्मीय शहर के आधुनिक अवतार का एकाएक संवेदन शून्य हो जाना एक ख़तरनाक संदेश था।
मैं पार्क के सरहद की जंजीर पकड़कर स्तब्ध खड़ा रह गया। मेरी कतई समझ में नहीं आ रहा था कि मुझे वर्जित प्रदेश का अतिक्रमण करके उस युगल के संकट के बारे में जानना चाहिए या एक अनुशासनप्रिय व्यक्ति की तरह निषेध का सम्मान करना चाहिए। तभी एक युवक लपकते हुए इस ओर आया। उसके कंधे पर थैला और गले में कैमरा लटक रहा था। उसकी खोजी आँखें बता रही थी कि वह एक उत्साहित पत्रकार था और एक ऐसी सनसनीख़ेज स्टोरी की तलाश में था जो मोनिका के एक करोड़ का फ़ीता काटे जाने वाले उत्सव से कहीं ज़्यादा उत्तेजक और दिलचस्प हो। वह साहसी था और जनता को देश का असली चेहरा दिखाने के पवित्र ज़ज्बे से भरा हुआ था। उसने झम्म से कूद कर फैंसिंग पार की और महात्मा गांधी के चरणों में नतशिर युगल के पास पहुंच गया, जिन्होंने खुद को बेचने के लिए विनय दफ्ती लटका रखी थी और कई कोणों से इस दृश्य की तस्वीरें उतारने लगा। फिर उसने उनसे यह जानने की कोशिश की कि वे अपने को क्यों बेचना चाहते हैं।
यह एक मामूली सी कहानी थी।
उनकी चौदह बरस की बेटी, जो एकमात्र संतान होने के कारण उनकी आँख का तारा थी, किसी ऐसी बीमारी से ग्रसित हो गई, जिसे सरकारी अस्पताल के लम्बे और ग़लत उपचार ने गम्भीर रोग में बदल दिया। जब बेटी की हालत बहुत खराब हो गई तो उन्होंने अस्पताल के सम्बंधित डाक्टर से बात की जिसके अधीन उसका उपचार हो रहा था। उसने सलाह दी कि रोगी को कॉरपोरेट अस्पताल में ले जाना ठीक रहेगा, वहाँ बेहतर तकनीक, सुविधा ओर विशेषज्ञता है। ज्यादा अच्छा तो यह रहेगा कि रोगी को 'एक्सेल केयर' में दिखा दें। उन्होंने डाक्टर की सलाह से अपनी बेटी को इस पाँच सितारा अस्पताल में भर्ती कर दिया, जहाँ इतनी सफाई है कि चमचमाते फर्शों पर चेहरा दिखाई देता है, वार्ड वातानुकूलित हैं, मरीज़ों को लकदक पोशाक पहने बैरे खाना सर्व करते हैं और जहाँ की भाषा अंग्रेजी है। इतने तामझाम, विशेषज्ञ डाक्टरों, मुस्कराती नर्सों, शिष्ट व्यवहार, उपकरणों के संजाल, शानदार व्यवहार, आश्वासनों, महंगे टेस्टों और दवाइयों से उन्हें यकीन हो गया कि उनकी बेटी को बचा लिया  जाएगा। लेकिन बीस-पच्चीस दिनों के उपचार में उनके पास जो कुछ भी था और जहाँ से भी उधार लिया जा सकता था, वहाँ से लिया सारा पैसा खर्च हो गया। वे इतने कंगाल हो गए कि कोई शुभेच्छु बेटी की मिजाजपुर्सी के लिए आता तो वे उसे इस तरह टटोलने लगते कि क्या पता वह दयावश उनके लिए एक कटोरी चावल या दाल लाया हो और उनके एक वक्त खाने की व्यवस्था हो जाए। पैसों से पूरी तरह हार कर जब उन्होंने डाक्टर से असमर्थता जाहिर की उस समय उनकी बेटी वार्ड से आईसीयू की यात्रा करके क्रिटिकल आईसीयू में थी। प्रभारी अधिकारी की विशेष अनुमति ने नंगे पैरों, अस्पताल के लबादे में जीवणुनाशक छिड़काव भरे गलियारे से गुज़ारकर अपने मरीज को देखने के लिए उन्हें क्रिटिकल आईसीयू में ले जाया गया। उन्होंने बेटी को वैंटीलेकर पर देखा तो वे जान गए कि वह उनका साथ छोड़ चुकी है। उन्होंने प्रभारी डॉक्टर से प्रार्थना की कि उनकी बेटी को वैंटीलेटर से उतार दिया जाए। डॉक्टर ने उन्हें बताया कि अभी भी रोगी को बचाए जाने की संभावना समाप्त नहीं हुई हैं। मशीन बता रही है कि उसका रक्तचाप 20-40 है, अगर उनके पास पैसे खर्च करने की सामथ्र्य है तो महंगी दवाओं से उसे सामान्य किया जा सकता है। वह मरीज को वैंटीलेटर से उतारने की सिफारिश नहीं करता पर वे अपने रिस्क पर अपने मरीज को ले जा सकते हैं। वैंटीलेटर से उतरते ही... अस्पताल इसके लिए उत्तरदायी नहीं होगा। अगर उनका यही विचार है तो वे काउंटर पर जा कर इस आशय का फार्म भर दें। उन्होंने फार्म भर दिया। बेटी वैंटीलेटर से उतर कर लाश में बदल गई। काउंटर ने हिसाब-किताब का लेखा तैयार करके उन्हें बताया कि उनकी तरफ पचास हज़ार की देनदारी बाकी है। यह रक़म चुकता करने के बाद ही उन्हें उनकी बेटी की लाश सौंपी जाएगी। उनके पास कोई चारा नहीं था सिवाय इसके कि वे अपने को बेचें और अस्पताल से अपनी बेटी की लाश खरीद सकें।
'हॉरिबल', उत्साही-संवेदनशील पत्रकार ने उनकी कहानी सुनकर कहा, 'मैं आज ही आपकी स्टोरी लिखकर मेल करता हूँ ताकि वह कल अखबार में छप सके। मुझे यकीन है कि स्टोरी पढ़कर कोई न कोई सहृदय व्यक्ति, संस्था या एनजीओ आपकी मदद के लिए तैयार हो जाएगा। एनजीओ तो विशेष रूप से ऐसे अवसरों की तलाश में ही रहते हैं। डन। लेकिन आपका यह व्यवहार सभ्यता के विरुद्ध है। कभी ऐसा समय था जब आदमी खरीदे और बेचे जाते थे। आज यह अपराध है। इस अपराध के लिए आप गिरफ्तार किए जा सकते हैं। बर्बर दुनिया बदल चुकी है और अब यह एक सभ्य दुनिया है।'
'लेकिन आप देखेंगे', विक्रय के लिए आमादा आदमी ने कहा, 'कि वे दिन दूर नहीं हैं जब सभ्यता के चौराहों पर या तो लोग आत्महत्याएं कर रहे होंगे या अपने को बेच रहे होंगे...'
तभी तेज़ी से इस ओर आती पुलिस वैन को देखकर, जिसके लिए आदमी सम्मानपूर्वक रास्ता छोड़ रहे थे, पत्रकार ने कहा, 'गुड लक' और फैंसिंग कूदकर सड़क पर आ गया, जहाँ मैं काँटों भरी जंजीर थामे खड़ा था। उसने मेरी ओर देखा, 'पुलिस आ रही है। ब्लडी। अस्पताल ने उसे सूचना दी होगी। आप यहाँ से हट जाएँ तो बेहतर रहेगा। पुलिस कहीं बिना बात आपको भी न लपेट ले।'
मैं जंजीर छोड़कर उसके साथ कदम मिलाने लगा। मुझे उसके साथ चलने में सुखद अनुभूति हो रही थी। उसने मोनिका के एक करोड़ के फीता काटने के शानदार उत्सव की रिर्पोटिंग करने की जगह नई अपसभ्यता के पिटे निरीहों को स्टोरी के लिए चुना था। मैंने गौर से उसके चेहरे को देखा। वह चेहरे और कपड़ों से संजीदा कतई नहीं लगता था।
'तुम वाकई बड़ा काम कर रहे हो', मैंने कहा, 'हो सकता है तुम्हारी स्टोरी से उनका कुछ भला हो जाए।'
'यह जानते हुए कि हिन्दी पत्रकारिता में पैसा और ग्लैमर नहीं, जोखिम है। फिर भी मैंने इसे चुना कि मनुष्य की सच्चाई दुनिया के सामने लाई जा सके। मैं पूरी ईमानदारी से यह स्टोरी करूँगा ताकि लोगों को पता चले कि कॉर्पोरेट जगत कितनी हृदयहीनता से उन्हें लूट रहा है। लेकिन मैं आपको यह भरोसा नहीं दिला सकता कि सम्पादक मेरी स्टोरी अखबार में छापने का साहस कर लेगा। 'एक्सेल केयर' से अखबार को विज्ञापन मिलते हैं। कॉर्पोरेट जगत के हाथ बहुत लम्बे हैं और छोटी पूंजी के अखबारों के हाथ दिन पर दिन बौने होते जा रहे हैं। यह संवेदना पर अपसंस्कृति के हमले का वक्त है। फिर भी आप कल दैनिकवाणी देख लें।'
'मेरी कामना है...' मैं उदास हो गया।
'सबसे पहले अखबार को स्टोरी देना मेरी व्यवसायिक नैतिकता है। वो नहीं छापता तो भी मैं विकल्पहीन नहीं हूँ। टैक्नालॉजी ने सोशल मीडिया के रूप में सरकार और कॉर्पोरेट के नियंत्रण से मुक्त ऐसा हथियार दे दिया है कि हम अपनी बात करोड़ों लोगों तक पहुँचा सकते हैं। यह कहानी यहीं खत्म नहीं होगी... ओके मैं चलता हूँ। मुझे बिना समय गंवाए स्टोरी लिखनी है।'
वह चला गया। मैं स्तब्ध रह गया। उसने मेरे विचार को भयंकर रूप से झकझोर दिया था। मैंने अपने वामपंथी रुझान के कारण साहित्य और विमर्शों में निरंतर टैक्नालॉजी का विरोध किया था, जबकि विरोध विलास और विनाश के उत्पादों का होना चाहिए। मनुष्य की लालसा मनुष्य और प्रकृति की सबसे बड़ी दुश्मन है।
मैं अब ग्लोबल मॉल के सामने था, जहाँ पहुँचने में मैं तीन हादसों से गुजरा था जो अंतिम भी नहीं थे। यह कतई असम्भव नहीं था कि मैं अगली बार आऊँ और इनसे कुछ अलग और ज़्यादा संगीन हादसे न हो रहे हों...
मॉल सचमुच भव्य था लेकिन मुझे पता नहीं क्यों, आत्मा को विस्तार देने की जगह वह आत्मा पर मायावी बोझ की तरह लगा और उसकी आक्रमक रोशनियाँ विचार पर घातक प्रहार करती लगीं। उसके आभामंडल से अभिभूत हो जाने की जगह मेरा ध्यान उसके प्रवेशद्वार पर खड़े सितारे जड़ी वर्दी और हैट पहने संतरी की ओर चला गया जो झुककर हर उस आदमी को सलाम कर रहा था जो भीतर जा रहा था।
जब उसने झुककर मुझे सलाम किया तो मैंने उसके सलाम का जवाब देते हुए पूछा, 'तुम हर आदमी को सलाम क्यों कर रहे, जब तुम्हारे सलाम का कोई जवाब नहीं दे रहा।'
उसने बहुत सहजता से कहा, 'इसमें उनके प्रति आदर का कोई भाव नहीं, यह बस रस्म अदायगी है, अगर मेरी बीबी या मेरे बच्चे भी अन्दर जा रहे होंगे तो मैं उन्हें भी सलाम करुँगा।'
लेकिन तुम्हारा इस तरह आदमियों के सामने झुके रहना...'
'मुझे शुरु में झुके रहने में दिक्कत हुई थी। सच कहूँ, मेरी आत्मा रोई थी, लेकिन अब आदत हो गई है। शायद मेरी आत्मा मर चुकी है।' उसने सहजभाव से कहा।
'लेकिन तुम अब भी हिम्मत करो तो सीधा खड़े हो सकते हो। वरना एक दिन तुम धनुष की तरह झुके हुए निरीह आदमी में बदल जाओगे...'
'मुझे झुके रहने के ही पैसे मिलते हैं। सीधा खड़ा होते ही मेरी दुनिया लडख़ड़ाकर गिर पड़ेगी जिसमें एक खाँसता हुआ बूढ़ा पिता, खोए सपनों की थकी बीवी और खेलता हुआ बेटा है...'
संतरी की बात सुनकर अब इस सम्बंध में उससे वार्ता जारी रखने का कोई अर्थ नहीं रह गया था। लेकिन उसने मुझे चौकन्ना कर दिया था कि मैं जहाँ जा रहा हूँ, उससे बाहर निकलने का रास्ता मुझे मालूम होना चाहिए। वह इस मामले में मेरी सहायता कर सकता था। मेरा खयाल था कि उसके पास इसका जवाब ज़रूर होगा। मैंने उससे दोस्ताना ढंग से पूछा, 'तुम्हारी बात से मुझे दहशत हो रही है। इसी वजह से मैं पूछ भी रहा हूँ। जहाँ तुम झुके खड़़े हो यह भीतर जाने का रास्ता है। क्या यहाँ से बाहर निकलने का भी कोई रास्ता है?'
'मैं भीतर जाने के रास्ते के बारे में जानता हूँ और उन्हें सलाम करता हूँ जो इस रास्ते से भीतर जाते हैं। बाहर निकलने का रास्ता है या नहीं इस बारे में मैं आपको कोई जानकारी नहीं दे सकता।' उसने सपाट सा जवाब दिया।
'क्या सवाल पूछ रहे महोदय', मेरे पीछे खड़े गंजे और मजाकिया आदमी ने कहा, जो दिलचस्पी से हमारी बात सुन रहा था, 'यहाँ से बाहर निकलने का रास्ता है साहब, लेकिन उस रास्ते से आदमी जैसा भीतर जाता है वैसा बाहर नहीं निकलता। वह वस्तु में बदल चुका होता है।'
उसकी बात ने मुझे अजीब सी उलझन में डाल दिया। तभी मेरे जेबी फोन की रिंग की संगीतभरी टोन गुनगुनाने लगी। बोसु की काल थी। पूछ रही थी। 'क्या आप पहुँच गए दादू?'
'हाँ पहुँच गया।' मैंने जवाब दिया।
'भटकना नहीं। चौथे मंजिल की स्केलेटर लेना। वह ठीक किड्ज वल्र्ड के सामने रुकती है। और संभलकर दादू स्केलेटर में अपना पैर मत फँसा लेना।'



संपर्क - सुभाष पंत (देहरादून) - 09897254818

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