प्रकाश चंद्रायन की कविताएं

  • 160x120
    जनवरी 2017
श्रेणी प्रकाश चंद्रायन की कविताएं
संस्करण जनवरी 2017
लेखक का नाम प्रकाश चंद्रायन





कविता






दोनों नहीं लौटीं...

22 अप्रैल की भोर,
पृथ्वी ने प्रकृति से कहा-
आज मनाया जा रहा है,
मेरा दिवस - पृथ्वी दिवस।
चलो, हम दोनों बहनें बस्तर घूम आएँ।
सांझ ढले लौट आएंगी।

देखें-सुनें तो सही कि
हमने जिसे मन से रचा-बसा है,
उसका सृजन-संगीत अब कितना-कैसा है?
जल, जंगल, ज़मीन, जीव और जन का जीवन,
कितना घिसा है और कितना बचा है?

दोनों वन गाँवों से गुजरीं-
रास्ते में मिले लश्कर और बंकर,
मुखबिर और गुप्तचर।
सरकार पर सवार सरकार,
आशंकाएं और अंधार।
चौकन्नी दोनों आगे बढ़ीं।
मिट्टी-पहाड़, खनिज-वनस्पति, पवन-पानी से
मिलते-जुलते दोनों पहुँची बैलाडीला1
यह क्या!
लहूलुहान हैं वक्षाकार पहाडिय़ाँ,
लुट रही हैं बेटियों-सी घाटियाँ।
भूधन की खेपें लद रही हैं,
तिजारती जहाजों पर।
अपने बन गए लुटेरे अपनों को लूटकर।
अंतिम जनों-आदिवासियों को आदेश-
खाली करो देस,
जैसे खाली कराये गए कल तक।

शंखिनी-डंकिनी2 रो रही हैं,
खून के आँसू।
नदी-बहनों के पास थम गए दोनों के पांव।
आँखों में तड़प, हृदय में हूक।
दोनों ने लगाई मर्मभेदी हाँक।
रोको, रोको! यह सब रोको!!
सोचो, सोचो! भविष्य की सोचो!!

इस आवाज़ पर
तुरत चलीं दो गोलियाँ।
निशाना था मस्तक।
एक लंबी चीख चीरती चली गई ब्रह्मांड,
बस्तर की गोद में ले ली गईं दो जान।

दिल्ली में मंत्रालय ने कहा-
दो संदिग्ध बाहरी,
मुठभेड़ में मारी गईं।
अब ख़तरे से बाहर है बस्तर।
पूरी तरह सुरक्षित है,
पृथ्वी और प्रकृति।

सांझ ढले,
दोनों को लौटना था।
सांझ ढल गई,
केशकाल घाटी में और रायसीना हिल पर।
दोनों नहीं लौटीं,
नहीं लौटीं,
नहीं लौटीं।

1. बैलाडीला: छत्तीसगढ़ का लौह अयस्क भंडार, दशकों से जिसे विदेश भेजा जा रहा है।
2. दो नदियां: पूरी नदी लौह अयस्क के धोवन से लाल हो गई है।

 


बो और बोआ

बहुत दुखद खबर है,
'बो'1 मर गई।
पैंसठ हजार साल आयु थी उसकी।
नवपाषाण युग से भी पहले -
उसने लिया था जन्म।
थम गई दुर्लभ बोली की धकधक,
उसे बचा न सका भारतीय राज्य
                            - दुखद है।

अंडमान-निकोबार द्वीप ने उसे पाला-पोसा,
हिंद महासागर ने दुलराया।
ज्वालामुखियों, भूकंपों और सुनामियों में भी
वह साबुत बच गई,
लेकिन उसे बचा न सका मैनलैंड।
                            - दुखद है।

बोओ सीनियर2 थीं 'बो' की अंतिम आस,
26 जनवरी 2010 को टूट गई-
उनकी आखिरी साँस।
ऐन गणतंत्र दिवस पर हुआ,
'बो' और बोआ का निधन।
राष्ट्रीय शोक तो दूर,
इस वाचिक थाती की याद तक नहीं कहीं।
न भाषाओं ने दी श्रद्धांजलि,
उस हिन्दी ने भी नहीं-
जिसे बोआ ने सीख लिया था,
अंडमानी हिंदी बनाकर।
                 - दुखद है।

बोआ पक्षियों से 'बो' में बात करती थीं,
उन्हें अपना पूर्वज मानती थीं।
जैसे पक्षी सेते हैं अंडे,
बोआ भी सेती रहीं 'बो'
क्या बोआ पक्षियों की वंशज थीं?
कहीं वह पक्षी तो नहीं हो गईं!
ऐसा हुआ तो अच्छा हुआ,
पोर्टब्लेयर से दिल्ली तक क्या अच्छा हुआ?

वह अंडमानियों की चाची थीं।
क्षमा करें, बोआ चाची!
हम हिन्दी आपको प्रणाम करने लायक नहीं।
हम हिन्दी के भी लायक कहाँ हैं?
कृतघ्नताओं की होड़ में,
आप हैं अविज्ञापित जैविक कृतज्ञता।
कभी आएगा कोई कृतज्ञ भाषावेत्ता,
जड़ें खोजता कोई वंशधर।
जो 'बो' का गुणसूत्र खोज लेगा,
और आपको बोलीफूल भेंट करेगा।

अच्छा हुआ आप मैनलैंड से रहीं दूर।
इतनी दूर कि बनी रहीं
पैंसठ हजार साल दूर भाखा का बेतार!
यहाँ तो जुड़ते नहीं भाषाओं के तार,
बोलियाँ तो पहले से तार-तार।
मारी जा रही हैं
भाखाएँ, ज़ुबानें, भाषाएँ और बोलियाँ3
इस संहार पर संसद में बजती हैं,
अंग्रेजी की तालियाँ... तालियाँ।

1. बो : अंडमानी बोलियों में एक। स्थापना है कि अंडमानी बोलियां नवप्रस्तर युग से भी प्राचीन बोलियों की प्रतिनिधि है।
2. बोआ सीनियर: अंडमान की 'बो' बोली की अंतिम जानकार, जिनका निधन 26 जनवरी 2010 को हुआ। 65 हजार साल पुरानी अंडमानी जनजाति की इस सदस्या की मृत्यु के साथ 'बो' बोली विलुप्त हो गई। 'बो' की एकमात्र जानकार होने के कारण वह पक्षियों से बात करती देखी जाती थीं। 'चाची' के संबोधन से प्रिय बोआ सीनियर को अंडमानी हिन्दी और स्थानीय अंडमानी का भी विशेष ज्ञान था।
3. पिछले सत्तर साल में भारत में 300 ज़ुबानें समाप्त हो चुकी हैं और 196 बोलियों के नष्ट होने के अनुमान हैं।

 


अरब सागर पर चाँद

धुला-पुछा, भरा-पूरा
चाँद उतरा है -
अरब सागर के आकाश में।
उतना ही चमकीला,
जितना ढोल-ढाक-ताशा बजाता,
अरब सागर का पानी।

जब हम चाँद पर िफदा होते हैं-
और अक्सर होते ही हैं,
तब खगोलवेत्ता हँसते-कहते हैं-
चाँद की चमक है आभासी,
चाँदनी तो है सूरज की उधारी।

ठीक है; ठीक है आपकी गणना
फिर भी, हमें कह लेने दें-
नूर और नाद का समां बंधा है,
भूमंडल में आज की रात।
जहाँ जा रही चाँदनी,
वहीं खिल रही कुमुदिनी।
ऐसे में िफदा होने से कौन रोक सकता है?

पूरा या अधूरा या घटने-बढऩे की कला,
सब खगोल का अनूठा चक्र है।
अपना तो रिश्ता है करीबी,
धरती का है मीठा पड़ोसी।
अरब सागर के किनारों से
देख लें हिंद-पाक।
पृथ्वी और चंद्रमा
पड़ोस निभाने में लाजवाब।

ज्वार उमड़ा है,
अरब सागर में।
लहरों में द्वन्द्व,
द्वन्द्व में लहरें-
कुछ भी नहीं निद्र्वन्द्व।
न जल न थल,
न ग्रह न गर्भ,
न जन न मन।
चाँद रिमोट से कर रहा है,
अतल मन और अटूट लहरों की
विलक्षण उठापटक।

धरती की आँख से गोलगाल चाँद-
गायब रहता है जिस रात,
भाटे से करता रहना है बात
भाटा धरती से आता है,
धरती में जाता है।
अंधेरे में भाटा, उजाले में ज्वार-
क्या खूब गति का यह इज़हार।
गति में चरम, गति में ही परम।
गति की कलाबाज़ी में
उस कलाकार को बड़ा मज़ा आता है।
कहते हैं कि चतुर चाँद के
अजीब हैं चालढाल।
किसी को पागल बनाता है-
कुछ को कवि, कुछ को उन्मादी
कुछ को प्रेमी, कुछ को अपराधी।
कवि-प्रेमी तक तो चलता है,
बाकी बहुत खलता है।
जैसे अतिसुंदर कश्मीर में,
अपने-अपने चाँद के लिए
अंतहीन उथलपुथल।

यकीन नहीं होता-
देखने में उत्तर-पूर्व जैसा मोहक चाँद,
इतने विचलन का है कारक।
होंगे मनोविद् सही,
होगा अवचेतन-उपचेतन का वजूद-
लेकिन इस ख़तरनाक प्रचार से,
बेलाग बच जाएगा असली संहारक।
सिर्फ, वही मन को मुट्ठी में करता है-
चाँद के बहाने

नहीं, चाँद बहाना नहीं है।
वह झर-झर झरता नूर है,
मन के अरब सागर में।

 

 

 

प्रकाश चंद्रायन मुख्यधारा के कवि नहीं हैं। इन कविताओं में गहरी राजनीतिक अंर्तध्वनि है। प्रकाश जी हिंदी के एक सम्माननीय पत्रकार रहे हैं। लंबे समय तक सुप्रसिद्ध लोकमत समाचार से जुड़े थे। मो. 09273090402

Login