कविता
ऐसा नहीं है कि ...
ऐसा नहीं है कि सारे कुकर्म समाजवादियों ने ही किये हों अर्धवाम तो वे थे ही देशभक्त और सर्वधर्मसमभावक थे ही उनकी कुछ गाढ़ी दोस्तियाँ मार्क्सवादियों से भी थीं मुसलमानों से भी और मैकालेपरस्तों से भी कोई ज़ाती रंजिश तो न थी उन्होंने हमेशा सिद्धांत की लड़ाई को सिद्धांत तक रखा — मर्यादा न तोड़ी... संघी राज अकेला उन्हीं का लाया हुआ तो नहीं भाई, मोदी संभावना क्या उन्हीं के चाहने से आई? पीछे की बात करें तो क्या करते लोहिया और जे पी मामला पतन और गिरावट का नहीं युगीन नियति का है समाजवाद की बातें हवा हुईं धर्मनिरपेक्षता बचाए नहीं बच रही... सामाजिक न्याय की शक्तियों का हाल आपने देख ही लिया कि जहाँ 'ताकत ही ताकत है... चीख नहीं' — क्या तो नाम है कवि का जिसने यह कहा? रही बात कम्युनिस्टों की तो कम्युनिस्टों में भी अब क्या बचा रहा है!
ऐसा नहीं है कि हिंदुस्तान में हम आप ही को नज़र आती हो बदतरी ऐसा भी नहीं है कि हिंदुस्तान ही में निवास करती हो ये बदतरी।
यह एक चौथाई सदी खड़ी है तीन सदियों के मलबे पर न मुक्ति की बात रही न मुक्ति संग्राम की औद्योगिक हड़ताल कैसी गर्वीले कामगार कहाँ पूँजी पूँजी न रही, वित्त ही वित्त है अब किस दुनिया में रहते हो साथी मज़दूर वर्ग अब एक मिथ है वर्ग भी मिथ है मिथ हमेशा मिथ थी पर जब तक थी अच्छी थी लाल लाल लहरा लिया जब तक लहरा लिया कहते हैं सभी विज्ञजन—समाजविज्ञानी, इतिहासज्ञ, मीडिया-विशेषज्ञ अभियंता, चिकित्सक, खिलाड़ी, और- सच तो यह है - खुद आप... सिर्फ हमीं नहीं। * * *
हमारे ज़माने में विमर्श है अमर्ष भी खूब है किसी का लेकिन पक्ष पता नहीं चलता कौन कहाँ जाकर मिलता है किसी से, कितनी देर लगा रहता है फोन पर नेट पर किसकी कितनी ऊर्जा जाती है हिसाब-किताब में चाल-चलन मापने के ये पैमाने व्यवस्था के काम आते हैं जीविका से इनका क्या रिश्ता सच्ची मेहनत सच्ची आग सच्चा अनाज सच्चे आँसू ऐसे नहीं आते अचानक खून के धब्बों की तरह उभरती हैं खाली जगहें कभी यहाँ कभी वहाँ जिन्हें भरने दौड़ते हैं वे जन जिनके कंधे पर गमछा बगल में बच्चा नहीं मेट्रो में मिला नए अर्थतंत्र में काम करता उन्नीस साला लड़का कहता है क्या अन्याय सर, आप ही बताओ व्यवस्थाएँ कहीं चला करती हैं अन्याय के बिना! क्या तुम किसी गरीब के बेटे नहीं सुनकर वह आपा खो देता है गरीब क्यों होने लगे हम अंकल जी, आपने मेरे को कमूनिस्ट समझा है क्या? ऐसे मूड में है हमारा नौजवान, यही उसका प्रतिरोध है यों मुकम्मल होती है सादर प्रणाम से शुरू हुई बात।
एक चौथाई सदी खड़ी है तीन सदियों के मलबे पर प्रतिपक्ष है जहाँ स्त्री नहीं, स्त्री है जहाँ प्रतिपक्ष नहीं, और स्त्री मैं है स्त्री वह नहीं स्त्री का शोर ही जहाँ स्त्री है खामोशी स्त्री नहीं है संशय मनुष्यता नहीं पितृसत्ता का विनाश भी अब एक खराब सा जुमला होकर रह गया है जो विरोध की लाचारी बताता है जिसे सबसे पहले संरक्षण चाहिए और अंत में संरक्षण अदालत में पेश हो तो पुलिस के साथ, थाने जाना हो तो वकील के हमराह पीछे गैर भरोसेमन्द सी एक ओ बी वैन।
जो लोग पर्दों पर निगाह गड़ाए रहते हैं यकीन मानिए पर्दा भी उन्हीं को देखता है टेक्स्ट और ओरल तक न रह जाइये जानिये विज़ुअल डिजिटल वर्चुअल ऐसा तादात्म्य इतिहास में कभी देखा नहीं गया कि यह दैनिक चमत्कार है हिन्दुस्तान भी बस एक चमत्कार ही है दलालों ने हर चीज़ को खेल में बदल दिया है विडियो गेम से उकताते हैं तो मुसलमानों को मारने के लिए निकल पड़ते हैं और जो रास्ते में आता है कहते हैं हम आपको देख लेंगे नम्बर आपका भी आएगा जी। हम बार बार बोल चुके हैं — ज़ोर से कहता है एक दलित विमर्शकार — हिन्दू मुस्लिम मामला खुली धोखाधड़ी है, साफ मिलीभगत है दोनों पक्षों की ताकि दलितों का पक्ष सामने न आने पाए, थोड़ी बहुत मारकाट से क्या फर्क पड़ता है असली लड़ाई दलितों की है, मियाँ लोगों की नहीं।
यह एक चौथाई सदी खड़ी है तीन सदियों के मलबे पर खुला मैदान है कहीं भी मूत लो, किधर भी निपट आओ असल सचाई तो ये है कि जो उत्तरसत्य पर ईमान लाए, है वही इस ज़मीन का सच्चा नागरिक।
आसान हिंसा
और फिर यह भी कि व्यक्ति को मारने में ज़्यादा झंझट है समूह को मारने में कोई कठिनाई नहीं कोई संशय नहीं कोई चमक भी नहीं अपराध को छिपाने की ज़रूरत भी क्या जब वह अपराध हो भी न, उसे तो आपके कहे बिना पत्रकार ही छिपा लेते हैं सरे आम टी वी नट जाता है बुद्धिजीवी उचाट मन से सुनता है राजनेता हाँ हूँ करता है सुनवाई के दौरान मुन्सिफ़ बार बार उबासी लेता है
हिंसा इतनी आसान हो गई है जितना कि हिंसा का खयाल बेखयाली में भी लोगों को मार डाला जा सकता है जानवर को हम खाने के लिए मारते हैं सोच समझकर काटते हैं मनुष्य को बस मारने के लिए एक धब्बा जो जल्द ही फीका पड़ कर उड़ जाता है एक परछाईं जो गायब हो जाती है सरदी की धूप की तरह
अनुभवी हाथ
अब किसी को याद नहीं एक ज़माने में मैं ब-यक-वक्त रंगमंच समीक्षक और राशिफल लेखक हुआ करता था एक अखबार में जिसके मालिक थे एक बुज़ुर्ग स्वतंत्रता सेनानी और सम्पादक उनका भूतपूर्व कमसिन माशूक जो अब चालीस का हो चला था और जिसकी आँखें एक आहत इन्सान की आँखें थीं
''तुम्हें यहाँ दोहरी भूमिका निभानी है'', सम्पादक ने मुझसे कहा और गौर से मेरे चेहरे को देखा, ''दिन में राशिफल बनाकर देना है और रात को नाटक समीक्षा पर देखो उल्टी चाल नहीं... कि यहाँ नाटक करो और शाम को वहाँ नजूमी बनकर हाथ देखने लगो, हा हा... और सुनो पहले तीन महीने यहाँ नाम नहीं छपता।''
मैं क्या कहता आदमी वह शायद बुरा न था तो मैंने धीरे से कहा, जी ठीक है।
हफ्ते भर ही में गुल खिलने शुरू हो गए वहाँ के कम्पोज़ीटरों ने मुझे हाथों हाथ लिया, कहते — अरे भैया तुम कहाँ से आए मेरे लिखे अतिनाटकीय और मसालेदार भविष्यफल को वे वह मज़े लेकर पढ़ते और कभी कभी गैली-प्रूफ दिखाने के बाद अपनी तरफ से उसमें चुपके से कुछ जोड़ दिया करते
वही थे मेरे असली साथी और हमदम लैटरप्रैस और सीसे के टाइपों के उस धुँधले युग में
और शहर की तमाम नाटक मंडलियाँ जल्द ही मुझसे खार खाने लगीं और शहर की वह प्रमुख अभिनेत्री जो गृहमंत्री की कुछ लगती थी एक औसत दर्जे की अभिनेत्री कहे जाने पर इतना बिगड़ी कि नौसिखिए समीक्षक के बजाए सम्पादक के पीछे पड़ गई। तीन ही महीने लगे मेरी छुट्टी होने में, सम्पादक ने मुझे लगभग प्यार से गले लगाया : ''अरे मियाँ, कैसे तुमने इतने कम समय में इतने दुश्मन पैदा कर दिए? हर कोई मेरे खून का प्यासा घूमता है... वो शहज़ादी कहती है मैं ही सब लिखवा रहा हूँ और घटिया ड्रामे करने वाला वो कमीना डायरेक्टर, वो भड़ुआ, वो... वो दलाल... उसे मेरे िखलाफ उकसाए जा रहा है... क्या तुम चाहते हो कि तुम्हारे लिये मेरी नौकरी जाए?''
सूखे गले से मैंने कहा : ''नहीं आपकी क्यों...''
उसने कहा : ''मालिक से उनके घर पर मिल लो, तुम्हें पूछ रहे थे।''
अब मेरा और क्या बिगड़ सकता है मैंने सोचा कुछ ही देर बाद मैं बैठा था स्वतंत्रता सेनानी के आमने सामने।
''सोचा एक बार तुम्हारे दर्शन तो कर लूँ'', उसने कहा, ''और तुम्हें यह कहूँ कि मुझे हमेशा अपना शुभचिंतक मानना, बिल्कुल तुम मेरा राशिफल बहुत अच्छी तरह बताते रहे हो ज्योतिष पर तुम्हारी पकड़ है और अपने ग्रह नक्षत्र देखने की तुम्हें अभी कोई ज़रूरत नहीं... तुम बड़े तेज़ और होनहार नौजवान हो, बस थोड़ा सँवरना दरकार है... जिसके लिए इस घर के दरवाज़े हमेशा खुले हैं यह याद रखना... फरज़न्द।''
और यह कहकर उसने अपना पुरातन और बेहद उदास हाथ मेरी तरफ बढ़ाया
मुझे वह सचमुच एक उदास आदमी मालूम हुआ।
नेपाल
नेपाल तुम हमेशा अपना रास्ता बंद कर लेते हो नेपाल तुम हमेशा घिरे रहते हो हर तरफ अपने ही दोस्तों से तुम्हें दुश्मनों की क्या ज़रूरत कहीं वह घड़ी बीत तो नहीं गई नेपाल तुम्हें समुद्र तक जाना था नेपाल तुम्हें पामीर से उराल से हाथ मिलाना था नेपाल
उनका निशाना तुम्हारा जिगर था उसे तुमने नहीं बचाया सलाहकारों से कहो अब थोड़ा आराम कर लें और फिर अपनी आवाज़ सुनो देखो कहीं तुम उसे भूल तो नहीं गए कहीं तुम्हारे लोग अपने ही से अजनबी तो नहीं हुए जा रहे
नेपाल क्या तुम्हारी सभी लड़कियाँ लौट आई हैं उपमहाद्वीपीय भट्टियों से उनसे कहो तुम्हें उनका इन्तिज़ार है अनाज के दाने उनका इन्तिज़ार करते हैं बादलों के फाहे मरहम से तर उनका इन्तिज़ार करते हैं आ जाओ ताकि दरवाज़े की लकड़ी और चौखट का पत्थर और सड़क पर मील के पत्थर कह सकें अब सब ठीक है
होटल खुरासान
अपनी तीसरी बरसी के आसपास उस्मान सामने आता नज़र आया।
बोला — कहा था न, ''बस याद करो, सामने खड़ा मिलूँगा''? बोल सही या गलत?
दिल पर पत्थर रखकर मैंने कहा — गलत!
उसने कहा — मैंने भी ऐसा घटिया डॉयलाग कब बोला था? बस तुम्हारी खराब याददाश्त का फायदा उठा रहा था।
उसी खारे लहजे में उसने मुझसे पूछा — अपने उस होटल खुरासान का क्या हाल है? कोई वहाँ बैठता है कि नहीं?
अफसोस! तब मैंने कहा — तुम्हारा वह महबूब ढाबा भी पारसाल नेस्तो-नाबूद हुआ।
अपना नाम ही अफसोस खाँ पठान है, निस्संग सी आवाज़ में तब उसने कहा।
शर्मिन्दा हूँ उस्मान... तुम्हें मैंने मायूस किया मैं वाकई तुम्हारे ही बारे में सोच रहा था!
उसने कहा — चल छोड़! ये बता... नाटक देखने जाते हो? वो लोग तुम्हें निमंत्रण भेजते हैं कि नहीं?
और हिन्दी साहित्य? हिन्दी साहित्य का क्या हाल है?
रुखसत होते वक्त उस्मान ने कहा — तुमसे हाथ मिलाते हुए डर लगता है कि तुम्हें कुछ हो न जाए (फिर स्वगत) एक आत्मालाप ही में गुज़र जाएगी तुम्हारी उम्र।
पुरानी बात
बात बीच में रोककर मेरी बहन अचानक कहती है — पता नहीं ये रमज़ान सुकून से गुज़रेंगे या नहीं... ईद कैसी होगी? मैं क्या कहता क्या बीत सकता है इस फासिस्ट समय में! सिवा इसके — बाजी, सिग्नल खराब है, घर पहुँचकर लैंडलाइन से बात करूँगा। मैंने सुनी उसकी ठंडी साँस और तीन पुराने लफ्ज़ — अल्लाह खैर करे! उसने सुना मुझे कहते हुए — खुदा हािफज़!
दान-पुण्य
सिर्फ एक भूला बिसरा सरकारी ज़िला अस्पताल ही इक्कीसवीं सदी से आपकी रक्षा कर सकता है और एक ज्ञानी कम्पाउन्डर जो हजामत के बाद चेहरे पर फिटकरी की बट्टी रगड़ता है
मरने के लिए यह जगह बुरी नहीं है हकीमजी कहता है वह बेड नम्बर 14 पर लेटे आदमी से जो दरअसल घर के झगड़े-टंटे से तंग आकर अक्सर अस्पताल में भर्ती हो जाया करता है
सुना है बड़े लोग इसी काम के लिए बेदान्ता नाम के हस्पताल में जाते हैं और एक एक पार्टी जाते जाते अरे इतना दान बेदान्ता में कर जाती है जितने में हम हों तो दो-दो गऊशाला चार-पाँच पक्के प्याऊ बनवा दें और एक कुआँ भी खुद जाए कि मनुष्य का कल्याण हो और पशु का और बाकी रहे जगत में दानकर्ता का नाम भी
कुछ लोग कुआँ खुदवाकर नामी हों कुछ उसमें कूदकर
कवि-राजनेता
''चश्म हो तो आईना-खाना है दहर मुँह नज़र आता है दीवारों के बीच'' (मीर) जिस जनशत्रु का जन्मदिन आज है भूल गया है कि उसके दुश्मन का कल था कुछ साल पुरानी तस्वीर में जिससे वह गले मिल रहा है
आजकल हँसते हुए झिझकता है सोचता है बाहर जाकर दाँतों का नवीकरण करा ले फिर बिटिया अन्नो की शादी आ जाएगी उसके अगले हफ्ते पिता की बरसी फिर गणतंत्र दिवस
चेहरा कितनी विकट चीज़ है यह पता चला है उन्हें फेसबुक से फैनपेज से
चेहरों की एक किताब हुआ करती थी जिसे लोग भूल गए हैं
संपर्क - असद ज़ैदी (गुडग़ांव) - 09868126587 |