चरमराते एकेडमिक्स की आहटें...

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    जनवरी 2017
श्रेणी चरमराते एकेडमिक्स की आहटें...
संस्करण जनवरी 2017
लेखक का नाम राहुल सिंह





विमर्श/चार





यह एक ऐसा मसला है जिसके बारे में जानते सब हैं, पर कोई बात नहीं करता। इसकी अपनी दुश्वारियां हैं, बावजूद इसके इन पर बात अब होनी चाहिए। आप इसे 'अकादमिक सडांध' या 'अकादमिक प्रदूषण' कह सकते हैं, जिससे पूरा देश जूझ रहा है। देश पर आयत्त अनेक संकटों में से यह एक बड़ा संकट है। यह 'एकेडमिक क्राइसिस' किसी एक अनुशासन तक महदूद नहीं है, इसकी जद़ में कला, विज्ञान, वाणिज्य सब शामिल हैं। अकारण नहीं है कि विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयो की सूची में शुरुआती दो सौ में भारत का एक भी विश्वविद्यालय जगह नहीं बना पाया है (टाईम्स हाइअर एजुकेशन डॉट कॉम की वेबसाईट पर टंगी 2015-2016 की सूची से इसकी तस्दीक की जा सकती है)। पर मेरी बातें हिन्दी के अकादमिक गलियारों में गुजरे पिछले वर्षों के हासिल अनुभवों पर आधारित है। एक दौर था जब एम. ए. में टॉप करने पर विभागाध्यक्षों को इतना अधिकार होता था कि वे उन टॉपर्स को सीधे व्याख्याता बहाल करा देते थे। इस एकाधिकार का आलम यह था कि प्रतिभाओं का सारा विस्फोट उन विभागाध्यक्षों और शिक्षकों के घर-आँगन में ही होने लगा था। उनके बाल-बच्चे ही टॉप करने लगे थे। ऐसा नहीं कि यह रीत अब खत्म हो गई है पर इस किस्म की निर्लज्जता में कमी आई है। ठीक-ठीक मालूम नहीं यह रवायत कब बदली पर विभागाध्यक्षों के बच्चे उसके बाद भी टॉप करते रहे। संभव है कि उसमें कुछेक काबिल भी रहें हों पर हमारी मुलाकात नालायकों से ज्यादा हुई है। अकादमिक शुचिता को ताक पर रखने वाली ऐसी कहानियाँ हर शहर में आपको मिल जायेंगी। खैर यह हमारे बाप के दौर की कहानियाँ रहीं, जहाँ एकेडमिक्स के ठीहे पर हमारे बाप-दादाओं को हलाल किया गया। दौर बदले, तौर बदले। पर नतीजों में बहुत बदलाव हुआ, ऐसा दावे के साथ नहीं कहा जा सकता। विभागाध्यक्षों के इस एकाधिकार को तोडऩे की नीयत से ही 'रोटेशनल हेडशिप' की अवधारणा सामने आई। इससे घूरे के भी दिन फिरने लगे। इस 'रोटेशनल हेडशिप' ने एक नये किस्म की हिस्से-बट्टे की साझी संस्कृति को जन्म दिया है, जिसमें 'अहि, मयूर, मृग, बाघ' के बीच भाईचारगी बढ़ गई है। अगर इसकी लीलाओं की बानगी देखनी हो तो निर्मला जैन की आत्मकथा 'जमाने में हम' जरूर पढ़ी जानी चाहिए, जिसमें उन्होंने अदम्य साहस और निर्भीकता के साथ ऐसे कुछेक किस्सों को जगह दी है। बाकी सब तो 'चुपाई मारो दुलहिन' वाली मुद्रा में ही है। बल्कि निर्मला जैन की आत्मकथा को पढ़ते हुए यह महसूस हुआ कि आलोचकों को आत्मकथा जरुर लिखनी चाहिए।
लेक्चरशिप के लिए अलग से आयोजित की जानेवाली 'नेट' परीक्षा फौरी तौर पर बाधा के बतौर जरुर लाई गई पर एक चोर दरवाजा पी-एच.डी. का छोड़ दिया गया। 2006-07 तक आते-आते प्रो. सुखदेव थोराट के कार्यकाल (2006-2011) में एक जबर्दस्त प्रहार यूजीसी द्वारा संचालित 'नेट' की परीक्षा में किया गया, जब सवालों को 'सब्जेक्टिव' की जगह 'ऑब्जेक्टिव' कर दिया गया। छठे-छमासे होनवाली इस परीक्षा में जहाँ बमुश्किल चार-साढ़े चार हजार परीक्षार्थी उत्तीर्ण हुआ करते थे, उसके बाद यह आंकड़ा चौबीस से चालीस हजार तक को अचानक से छूने लगा। नौकरियों का कहीं अता-पता नहीं था, ऐसे में 'नेट पास' करने का भी बहुत मतलब नहीं रह गया था। नेट पास करने के बाद भी स्लेट और पी-एच.डी. के अभ्यर्थी कभी भी, कहीं भी उन्हें धूल चटाने में समर्थ थे। एम.ए. करके नेट करने के बाद भी नौकरी की कोई आश्वस्ति कहीं से नहीं थी। इस असुरक्षा और अनिश्चितता के माहौल ने पुन: विभागाध्यक्षों से लेकर बाकी अकादमिक जोड़-तोड़ की गुंजाइशों को बनाये और बचाये रखा। इस कारण ज्यादातर केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में भी शोधार्थियों का जीवन उनके शोध निदेशक के इर्द-गिर्द ही सिमट कर रह जाता है। आमतौर पर वे या तो मुखबिर की तरह काम करते हैं, या चुगलखोरी करते हैं या किसी मठ की शिष्यता ग्रहण करके सार्वजनिक स्थलों पर उनकी महानता का अजपा-जाप करते हैं। और अपने इस अथक अभ्यास और कीर्तन से जब वे विश्वविद्यालय की सेवा में आते हैं, तो अपने छात्रों से इसी का पुनर्पाठ कराते हैं। ऐसे गुणा-गणित में शातिर छात्रों के लिए विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपनी किताब 'गुरुजी की खेती बारी' में एक खूबसूरत शब्द दिया है, 'नक्शेबाज छात्र'। यह 'नक्शेबाज छात्र' एकेडमिक्स में आकाशधर्मा गुरुओं की परम्परा के अवसान के भी सूचक हैं।
दरअसल, हमने जिस अकादमिक माहौल को सिरजा है, उसमें योग्यता-प्रतिभा जैसी चीजें निर्णायक नहीं रह गईं हैं। अगर प्रतिभा, योग्यता के साथ आपमें आत्म सम्मान भी पर्याप्त मात्रा में मौजूद है तो हिन्दी का अकादमिक वातावरण आपके लिए जीता-जागता कब्रगाह है। जहाँ आपका दफन होना तयशुदा है। आखिर आजादी के 69 साल बाद भी हम शिक्षा के क्षेत्र में यूपीएससी जैसी किसी संस्था का निर्माण क्यों नहीं कर सके हैं? किसने हमारे हाथ बांध रखें हैं? ऐसी किसी संस्था के निर्माण की नीयत भी दूर-दूर तक दिखलाई नहीं देती है। पर इससे ज्यादा दुख और चिंता का विषय यह है कि देश की अकादमिक चिंताओं में इस किस्म के सवाल शामिल नहीं हैं, फिर उसके भविष्य के बारे में कोई सुखद तस्वीर कैसे देखी जा सकती है।
क्या आपने किसी भी अनुशासन के शीर्षस्थ विद्वान को इस दिशा में समय रहते संजीदगी से विचार करते देखा है या ऐसी किसी कोशिश को अंजाम देने की कोशिश देखी है। दरअसल ऐसी किसी मांग को उठाना ही सत्ता-संरचना के खेल से खुद को बाहर कर देना है। और इस सत्तालोलुप समय में कोई अपनी शक्ति को त्याग कर अप्रासंगिक होना नहीं चाहता है। छोटी सी छोटी जगहों पर विभागाध्यक्ष के रुतबे को लोग जिस ढंग से भुनाते हुए आपको आये दिन मिल जायेंगे, गर उससे वास्ता नहीं पड़ा है तो, उनकी दयनीयता का आप अनुमान भर कर सकते हैं।
उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में भी यूपीएससी जैसी एक नियामक संस्था की बहुत ज्यादा आवश्यकता है। उसकी कठिनता का स्तर चाहे जो हो पर ऐसी कोई परीक्षा उच्चतर शिक्षा के लिए जरुर होनी चाहिए जो शिक्षण की शुचिता और प्रतिष्ठा को स्थापित कर सके। जैसे यूपीएससी क्वालिफाई करने के बाद रैंकिंग के आधार पर उनकी सेवा का निर्धारण और आबंटन होता है, वैसे ही कम से कम केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में नियुक्तियों के लिए ऐसी किसी परीक्षा का अनिवार्य किया जाना चाहिए और उतने ही लोगों को उत्तीर्ण किया जाना चाहिए जितने नियुक्त किये जा सके। जिससे रीढ़ वाले शिक्षकों की एक पौध तो कम से कम सामने आये। एक कोना तो हम ऐसा बनायें जहाँ लोग ठकुरसुहाती, चापलूसी, चुगलखोरी, अकारण निन्दा, सेटिंग के गुणा-गणित से मुक्त होकर फकत अपने तईं अपने लिए एक जगह बना सके। जहाँ वे अपनी रीढ़, अपनी खब्त, अपने एकांत, अपने आत्म सम्मान के साथ अपनी शर्तों पर दाखिल हो सकें। यह कैसा अकादमिक वातावरण है जिसमें हम अपने भाई-भतीजा-भाभी-दामाद-वधू-पौत्र-प्रपौत्र-नाती-नातिन के लिए तो गुंजाइशें पैदा कर लेते हैं पर किसी खुद्दार और काबिल के लिए सहजता से कोई जगह उपलब्ध नहीं है। क्या हम अपनी भाषा और शिक्षा में वह लोच पैदा नहीं कर सकते हैं जो वाजिब प्रतिभाओं के लिए गुंजाइशें पैदा कर सके? केन्द्रीय विश्वविद्यालय पर अलग से बल देने की वजह यह है कि देश भर के सबसे उर्वर छात्र इन केन्द्रों की ओर दौड़ लगाते हैं और वहाँ अगर किसी ठस्स को आप बिठा देते हैं तो वह एक राष्ट्रव्यापी बंजरता को फैलाने का काम करता है, और इसे भी किसी राष्ट्रद्रोही गतिविधि की तरह ही देखा जाना चाहिए। क्योंकि यह संभावनाओं की हत्या करते हैं। कहना न होगा कि हमने प्रतिभाओं की बलि लेनेवाली ऐसी वधशालाओं के निर्माण की गति बढ़ाई है। एक बात जो आम जन की प्रचलित समझदारी में जगह नहीं बना पाई है वह यह कि शिक्षण एक रोजगार भर नहीं है। यह राष्ट्रनिर्माण की नींव भी है और रीढ़ भी। यह त्याग, समर्पण, एकनिष्ठा से युक्त एक जीवन पद्धति है। लेकिन इसे भी नौकरी मान कर जो लोग इस पेशे में आ गये हैं, सबसे ज्यादा अहित उन लोगों ने किया है। इस पेशे की हत्या वस्तुत: जुगाड़ से नौकरी पाने वालों ने की है।
भारतीय राजनीति में वंशवाद एक मुद्दा बन गया है, जबकि भारतीय राजनीति से ज्यादा घनघोर रुप में यह एकेडमिक्स में व्याप्त है। लेकिन इस पर कहीं कोई सुनियोजित और सुव्यवस्थित चर्चा नहीं होती है। राष्ट्रीय संगोष्ठियों के लिए बदनाम और लघु पत्रिकाओं के लिए कुख्यात हिन्दी में भी इन विषयों पर ना तो कोई संगोष्ठी होती है और न ही कोई पत्रिका विशेषांक निकालती है (वैसे बया का एक अंक उच्चतर शिक्षा पर आना तय हुआ है नये साल में)। आप राज्यवार तरीके से, एक-एक विश्वविद्यालय में गर इस किस्म का कोई सर्वेक्षण करने-कराने के लिए तैयार हो जायें तो एकेडमिक्स में इसकी व्याप्ति किसी महामारी की तरह लगेगी। गर आप उनकी नियुक्ति की कथाओं की तह तक पहुँच जायें तो बहुत से वंदनीय और पूजनीय लोगों पर खखार कर थूकने की इच्छा होने लगेगी। हर राज्य में वंशवाद की बेलें आपको फैलीं दिख सकती हैं। वंशवाद और परिवारवाद के बाद एकेडमिक्स की जड़ खोदने में महत्वपूर्ण योगदान जातिवाद का रहा है। दरअसल इस जातिवाद में एक किस्म के सवर्णवाद का बोल-बाला रहा है। ब्राह्मणवाद, राजपूतवाद, कायस्थवाद, भूमिहारवाद का 'कथासरित्सागर' मौजूद है। इसके विरोध में उपजे दलितवाद के दावों में सचाई है। पर दलितों ने एकेडमिक्स में हासिल मौके को जिस कदर गंवाने का काम किया है, वह दुर्भाग्यपूर्ण है। इस दुर्भाग्य से आशय यह है कि 'मेरिट' को कोसते हुए वे एकेडमिक्स में दाखिल हुए, पर उसके बाद बजाय 'मेरिटवालों' को आईना दिखाने के, वे दलितवाद के दायरे में सिमट कर रह गये। कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में नियुक्त दलित अध्यापकों के पठन-पाठन और चिंतन की टेक बस कोल्हू के बैल की मानिंद एक धुरी पर चक्कर खा रही है। उन पर एक बड़ी जिम्मेदारी थी वे इस मौके को भुना सकते थे। लेकिन वे चंबल के छोटे-मोटे गिरोह बना कर ही सरगना होने के सुख में डूब-उतरा रहे हैं। यह भी मठाधीशी की उसी रस्ते पर निकल पड़े हैं। अब आगे कौन हवाल। एकेडमिक्स में दलितों, स्त्रियों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के अनुभवों पर भी अलग से बात-चीत की गुंजाईश निकाली जानी चाहिए, जिससे इसके अनछुए पहलुओं पर भी रोशनी पड़ सके।
एकेडमिक्स में अब एक बात चलती है कि फलां जगह जो रिक्तियाँ आईं थीं, उसके आलोक में आवेदन किये हुए साल भर होने को आये अभी तक 'इंटरव्यू कॉल' नहीं कर रहे हैं। इसके जवाब में आपको यह सुनने को मिल सकता है कि अभी 'कंडीडेट फिक्स' नहीं हुआ है। जब 'कंडीडेट फिक्स' हो जायेंगे तो वे इंटरव्यू कॉल करेंगे। दूसरों को मुसीबत में क्यों डालूं पश्चिम बंगाल का अपना किस्सा बयान करता हूँ। वर्द्धमान विश्वविद्यालय में आवेदन किया था। साक्षात्कार हमेशा की तरह शानदार रहा। पर निकलते ही मालूम हुआ कि केन्द्रीय संस्थान, आगरा के निदेशक के साला का होना तय हुआ है। निकलकर किया कुछ नहीं फेसबुक पर इस आशय का पोस्ट लगा दिया। लिफाफा तो उसके सप्ताह या पन्द्रह दिन बाद खुला पर फेसबुक पर वह नाम मैंने उसी दिन घोषित कर दिया था। लोगों ने बताया कि उसके हेड की जान सांसत में थी। ऐसे आधा दर्जन अनुभव मेरे पास है। (पश्चिम बंगाल में राज्य के स्तर पर होनेवाली नियुक्तियों ने अब भी अपनी साख बचा रखी है।) खैर महत्वपूर्ण यह किस्से नहीं है, महत्वपूर्ण है-पूरे देश भर में व्याप्त इनकी एकरुपता। इसे मैं व्यक्तिगत बनाना नहीं चाहता ना ही व्यक्ति केंद्रित करना चाहता हूँ। पर उदाहरण इसलिए दिया है कि हम एक ऐसे अकादमिक वातावरण में सांस ले रहे हैं, जहाँ आपके लिखने-पढऩे का मोल नहीं रह गया है। दूसरी चीजें मायने रखने लगी हैं। ऐसे एक हजार किस्से आपको हर साल इस एकेडमिक्स में 'ऑफ दि रिकार्ड' सुनने को मिल जायेंगे। जरुरत इस बात की है कि अब इन अनुभवों को सार्वजनिक मंचों पर लोग बेहिचक साझा करना शुरु करें जिससे इन तथाकथित 'प्रतिबद्ध' और 'प्रतिश्रुत' लोगों की कलई खुल सके। यह इसलिए भी जरुरी है कि यह दर्ज हो सके कि किनके ऊपर किन्हें तरजीह दी गई। यह दी गई तरजीह पिछले किसी अहसान की चुकाई गई कीमत है या भावी फायदे के लिए किया गया कोई अग्रिम निवेश। व्यापमं के बाहर मौखिकी को आधार बना कर की गई नियुक्तियों में स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा घपला संभवत: झारखंड में 2008 की व्याख्याता नियुक्तियों में हुआ था, जिसके कारण जेपीएससी (झारखंड पब्लिक सर्विस कमीशन) के लगभग सदस्यों को जेल जाना पड़ा। यह दोनों भाजपा के शासनकाल में हुआ, जो 'गुड गर्वनेंस' का ढोल सबसे ज्यादा पीटती है। उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के किस्से वैसे अलहदा नहीं हैं। अखिलेश यादव के शासन काल में वहाँ एक ओबीसीवाद आपको पैर फैलाता मिल जायेगा। पश्चिम बंगाल में वामपंथियों ने विश्वविद्यालयों में जिस सुनियोजित तरीके से पार्टी के लोगों को भरने का काम किया था, भाजपा अब वही अभियान पूरी ढिठाई और निर्लज्जता के साथ पूरे देश में चला रही है। जब आपने यही आचारण पैंतीस साल तक किया हो तो इसका प्रतिकार किस मुँह से करेंगे? जब सारी कवायद नीतियों को धता बता कर अपनों को लाभ पहुँचाने की हो तो ऐसे में सामाजिक-सांवैधानिक संस्थायें कमजोर होती हैं। पहले तो तरह-तरह के उपक्रम करके कम योग्य लोगों को इस व्यवस्था में दाखिल कराया जाता है, उसके बाद उनकी कमियों से उपजी संरचनागत और व्यवस्थागत संकट को नीति के स्तर पर दूर करने की कवायद की जाती है। नौकरशाही के इस हस्तक्षेप से अकादमिक स्वायत्ता का बार-बार हनन होता है। इससे परेशानी उन नालायकों को तो नहीं ही होती है, जो इस संकट के लिए जिम्मेदार हैं। असल संकट आत्म-सम्मान वाले अध्यापकों को होता है। यह याद दिलाने लायक बात लगती है कि एक सांसद या विधायक को पाँच साल में बदलने का एक मौका आपके पास रहता है पर एक खराब अध्यापक का बीस-तीस साल आप कुछ बिगाड़ नहीं सकते हैं। बिगाडऩे का एकाधिकार उसका रहता है। और जब एकेडमिक्स की आलोचना गैर अकादमिक लोग करते हैं तो उनकी निगाहों में ऐसे लोग ज्यादा होते हैं।
अमूमन हर राज्य में एक जलनखोर नौकरशाही मौजूद है, जो यह मान कर चलती है कि इस देश का सबसे कामचोर कौम विश्वविद्यालय की सेवा में रत है। जो दो या तीन पीरियड पढ़ा कर उनसे भी ज्यादा वेतनभोगी हैं। इसलिए वे बराबर आपको मिलनेवाली वेतन भत्तों में कतर ब्योंत करते रहते हैं। केन्द्रीय विश्वविद्यालयों को छोड़ कर अलग-अलग राज्य की विश्वविद्यालय की सेवा का एक तुलनात्मक अध्ययन करें तो मालूम होगा कि गजब का वैविध्य यहाँ मौजूद है। जिन विश्वविद्यालयों में कोई कार्य-संस्कृति नहीं है, इस देश का असल 'जादुई यथार्थवाद' वहाँ मौजूद है। जहाँ विश्वविद्यालय का एकमात्र काम डिग्रियाँ बांटना रह गया है। इन भयावहताओं को संबोधित करनेवाला कोई नहीं है, क्योंकि यह एक आत्मघाती कदम है। कोई भी व्यवस्था अपनी अंदरुनी कमजोरियों का सार्वजनिक किया जाना बर्दाश्त नहीं करती है। बहुत से राज्यों में एकेडमिक्स का यह वृत्त वस्तुत: राजनीति की परिधि के भीतर ही आता है। कहने का आशय यह है कि इसमें जब चाहे राजनीति और नौकरशाही हस्तक्षेप करती रहती है। हमें अपनी प्रचलित समझदारी को इस स्तर पर दुरुस्त करने की जरुरत है कि इस समय के भारत में कुलपति का पद एक राजनीतिक पद हो गया है जो राजनीति और नौकरशाही को साध कर पाया जा रहा है। असल बात यह है कि उच्चतर शिक्षा को लेकर सरकार के पास कोई विजन नहीं है। वह जिनको विश्वविद्यालय के सर्वोच्च पदों पर बिठा रही है, उनके पास भी इसे लेकर उसी किस्म की अदूरदर्शिता व्याप्त है। अगर उनके पास भी कोई दृष्टि हो, तो कम से कम पाँच साल के 'टर्म' में वे अपनी छाप छोड़ कर जा सकते हैं। पर यह पद उन्हें उनकी राजनीतिक सम्बद्धता या थैली की एवज में कुछ अपवादों को छोड़ कर हासिल हो रहा है। इसलिए या तो वे 'यस मैन' बन कर रह जा रहे हैं या फिर थैली की जगह जाने से पहले बोरी भरने के जुगाड़ में लगे हैं।
बात केवल हिन्दी एकेडमिक्स के संदर्भ में करें तो वंशवाद, जातिवाद से इतर एक प्रांतवाद या प्रदेशवाद से भी हिन्दी का एकेडमिक्स आक्रांत है। हिन्दी में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के दबदबे का एक ऐतिहासिक आधार और पृष्ठभूमि रही है। इसलिए पुरस्कार से लेकर विश्वविद्यालयों की नियुक्तियों तक में इनके दखल का एक लम्बा इतिहास रहा है। बहुत से हिन्दी भाषी राज्यों में लम्बे समय तक किसी केन्द्रीय विश्वविद्यालय का अभाव रहा है। कई राज्यों में तो गठन के बाद आज भी हिन्दी का पठन-पाठन आरंभ नहीं हो सका है, झारखंड स्वयं इसका उदाहरण है। अत: निर्णायक मौकों पर विशेषज्ञों की उपलब्धता यह दोनों राज्य ही प्रमुखता से कराते रहे हैं। इसलिए हिन्दी की सत्ता-संरचना के खेल में इनका एक अनकहा वर्चस्व बना रहा है। यह अकारण नहीं है कि एकेडमिक्स से इतर रचना और आलोचना के धरातल पर भी इन राज्यों से बाहर के रचनाकारों को समय रहते मान कम ही हासिल हुआ है। नामवर सिंह के द्वारा 'रेणु' को पहचानने में हुई देरी महज भूल-गलती नहीं रही है। सुरेन्द्र चौधरी समेत कई लोगों के नाम आपको मिल जायेंगे, जो वर्चस्व की इस लड़ाई में खेत रहे। और यह अकारण नहीं है कि 'रेणु' की महत्ता को समय रहते नलिन विलोचन शर्मा पहचानते हैं। या सुरेन्द्र चौधरी के काम को बिहार के ही लोग उपराने का काम करते हैं। इन बातों को ध्यान में रखें तो भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग के समर्थन और विरोध के स्वरों की नीयत और राजनीति को समझा जा सकता है। ब्रज और अवध के लोग सूर और तुलसी को बांच कर अपना पूरा कैरियर पार लगा गये। यह भी एक तथ्य है जो दर्ज किया जाना चाहिए। कुछ बिहार मूल के लोग अगर हिन्दी के परिदृश्य में अभी दिख रहे हैं तो उसके लिए उन्होंने सीधे दिल्ली की मंडी में जाकर अपने लिए जगह बनाई है। इधर राजस्थान के लोगों ने इस वर्चस्व में सेंधमारी की कोशिश जरुर की, पर सफलता वैसी हाथ नहीं लगी है। सोशल मीडिया के सामने आने से इन मंडलियों की पहचान स्पष्ट हुई है।
फिलवक्त, सबसे ज्यादा मुश्किल में वे शोधार्थी-विद्यार्थी हैं, जिनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता ना तो किसी पार्टी से है, ना घनिष्ठता किसी मठ या मठाधीश से। इस पूरे प्रसंग में वे ना तो तीन में हैं, ना तेरह में। विशुद्ध लिखने-पढऩेवालों के लिए तो यह भयावह समय है। उनको संबल देने का काम हिन्दी का वह अज्ञातकुलशील पाठक वर्ग कर रहा है, जो वक्त-बेवक्त अपनी प्रतिक्रियाओं से उनकी उम्मीद और खुद उनको जिंदा रखे हुए है और इन प्रतिभाओं के असमय होनेवाली मौतों को टालने का काम इस वक्त मुख्य धारा की लघु पत्रिकायें कर रहीं हैं। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान में कांन्ट्रेक्चुअल आधार पर काम करनेवाले युवा कवि प्रकाश की आत्महत्या तो कम से कम हिंदी समाज में दर्ज हो गई। ऐसे नामालूम कितने हैं जो थक-हार कर गुमनामी में मर रहे हैं। ऐसा एक किस्सा विश्वनाथ त्रिपाठी की किताब 'गुरुजी की खेती-बारी' में दर्ज है। और लगातार उम्मीद बंधाने के बाद भी ऐन मौकों पर अनदेखी की ऐसी ही मार्मिक कथा आपको 'जेएनयू में नामवर सिंह' किताब में मिल जायेगी।
इस देश में नियम बनने के साथ ही उसका तोड़ पैदा करनेवालों का कुनबा रातों-रात उग आता है। एकेडमिक्स को जिन लोगों ने आरामगाह मान लिया था, उनका चैन छिनने के उद्देश्य से यूजीसी 'एपीआई' (एकेडमिक प्वांइटर इंडेक्स) की अवधारणा सामने लेकर आई थी। पर उस 'एपीआई' का जो हाल अकादमिक दलालों ने किया है, कायदे से शोध और राष्ट्रीय संगोष्ठी तो उस पर होनी चाहिए। यूजीसी 'मेजर' और 'माइनर रिसर्च प्रोजेक्ट' देती है। 'माइनर' का तो नहीं पर 'मेजर रिसर्च प्रोजेक्ट' के नाम पर मिलनेवाली पन्द्रह लाख तक की राशि में यदि पाँच-छह लाख से ऊपर की राशि आप चाहते हैं तो अकादमिक गलियारों में ऐसे दलाल आपको मिल जायेंगे जो 10-20 टका कमीशन पर यह काम करा सकते हैं। राष्ट्रीय संगोष्ठी के प्रमाण-पत्र चार-पाँच सौ रुपये में घर-बैठे आप हासिल कर सकते हैं। एक-दो हजार रुपये में आप गली-मोहल्ले-टोले में रातों-रात उग आये आईएसएसएन नंबर वाली पत्रिकाओं में अपना कूड़ा-कचरा छपा कर यूजीसी की निगाह में पढ़नियार हो सकते हैं। हाँ, 'पहल', 'तद्भव' की तुलना में यह पत्रिकायें यूजीसी और विश्वविद्यालयों की निगाह में ज्यादा बेशकीमती हैं। 'पहल', 'तद्भव' जैसी पत्रिकाओं की गरिमा को समझाने के लिए आपके पास पढ़े-लिखे लोगों की एक जमात होनी चाहिए, जो ऐन मौके पर इसके लिए जिरह कर सकें। नहीं तो महज पचास प्रतियों को छापनेवाली कोई पत्रिका ऐन मौके पर आपको औकात बता सकती है। फिलहाल तो 'एपीआई' अकादमिक प्रपंच का एक नया अनुष्ठान बन गया है। 'कैरियर एडवांसमेंट' से लेकर 'प्रोमोशन' तक में एपीआई की पूछ ने नई किस्म की अकादमिक मजबूरियों को पैदा करने का काम किया है। इसलिए आप पायेंगे कि आज से पहले कभी विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले अध्यापकों ने इतनी बड़ी संख्या में पत्रिकायें नहीं निकाली हैं। यह पत्रिकायें एक बाम तीन काम वाले अंदाज में अपनी छठा बिखेर रहीं हैं। एक तो विज्ञापनों और लेखों को छापने के नाम पर की जानेवाली वसूली से। दूसरा, वक्त-बेवक्त आप जिनके काम आते हैं, वे राष्ट्रीय संगोष्ठी से लेकर, शोध-प्रबंधों के मूल्यांकन से लेकर अन्य मौकों पर निमंत्रित कर इसका अहसान चुकाते हैं। सगर्व इन यात्रा की फेसबुक पर की जानेवाली सचित्र घोषणाओं से एक अलग आभामंडल बनता है। तीसरा, प्रकाशकों से समीक्षा के नाम पर मुफ्त की किताबें मिल जाती हैं, जिससे आप अपनी ड्राइंग रुम सजा कर रौब गालिब कर सकते हैं। कुल मिलाकर विश्वविद्यालय से निकलनेवाली इन लघु पत्रिकाओं ने एक नये किस्म का बाजार निर्मित कर दिया है, जहाँ इनके संपादकों की हैसियत एक 'पावर ब्रोकर' की तो हो ही गई है। इसमें भी कुछ जेनुइन हैं, पर ज्यादातर चिंताजनक ही हैं।
ऐसे समय में शातिर प्रकाशकों की एक पौध उग आई है जो इन मौकों को भुना रही है। हाल के वर्षों में पत्रिकाओं के विशेषांकों को किताब के रुप में लाने का चलन बढ़ा है, पर ऐसे 'जेबकतरे प्रकाशक' इस पेशे में अब आ गये हैं जो पत्रिकाओं को किताब के रुप में छापने के बाद उसमें शामिल लेखकों को उनकी लेखकीय प्रति देने की बजाय उनको भी 20-40 फीसदी छूट पर उनकी लिखी चीज बेचने पर आमादा हैं। इस धंघे में शामिल प्रकाशकों में से जिस तीन से मेरा साबका पड़ा है। उसमें से एक है स्वराज प्रकाशन (नई दिल्ली, दरियागंज), शिल्पायन प्रकाशन (शाहदरा, दिल्ली), प्रवीण प्रकाशन (नई दिल्ली, भारत)। आप अपने अनुभव से इसमें कुछ और जोड़ सकते हैं। आजादी के 69 साल बाद भी हिन्दी में गिनती के एकाध दर्जन प्रकाशकों को छोड़ दें, तो ईमानदारी से आपके लिखे की रॉयल्टी देने वाला भी सहजता से उपलब्ध नहीं है। यहाँ रॉयल्टी तो दूर उल्टे अपना लिखा खरीद कर पढऩे के हालात यह 'जेबकतरे प्रकाशक' पैदा करने में लगे हैं। अगर आप सोच रहें हैं कि इससे भी ज्यादा कुछ अफसोसनाक हो सकता है तो जवाब होगा हाँ। और वह यह कि अब ऐसे भी प्रकाशक बाजार में उतर चुके हैं जो 10-30 हजार लेकर किताब छापने का धंधा कर रहे हैं।
हांलाकि यह चलन तो पहले से है पर इस 'एपीआई' के आने के बाद से इस दिशा में एक अकादमिक प्रैक्टिस और बढ़ गई है और वह है पाठ्यक्रमों के लिए पाठ्यपुस्तकें संकलित और संपादित करने का। केन्द्रीय विश्वविद्यालयों को माफ कर दें तो राज्य के विश्वविद्यालयों में तो अंधेर मची है। केन्द्रीय विश्वविद्यालयों का अपना एक परिसर रहता आया है। पर राज्यों में आधारभूत संसाधनों के अभाव में महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों (मुख्यालयों) के बीच की दूरी सवा सौ से डेढ़ सौ किलोमीटर की भी है। ऐसे में विश्वविद्यालय के आस-पास जो महाविद्यालय या स्नातकोत्तर विभागों होते हैं, वही नीति-नियंता बन जाते हैं। परिधि पर होना ऐसी जगहों में हाशिये पर होना है। पाठ्यक्रम बनाने से लेकर उसे कोर्स में लगाने तक सारा धंधा वही चलाते हैं। आखिर कर पूरे देश में हिन्दी का पाठ्यक्रम वही है पर पाठ्य पुस्तक की जो 'रेन्ज' है, उतनी तो भारत जैसे देश में जैव विविधता नहीं है। इसका एक मानक पाठ्यक्रम विकसित करने में क्या कठिनाई है, इस पर बहस हो सकती है? कुछेक पत्रों में स्थानियता के प्रवेश की गुंजाईश छोड़ी जा सकती है, पर एनसीईआरटी जैसी कोई संस्था पाठ्यक्रम निर्धारित करने के लिए भी होनी चाहिए, जिससे यह अंधेरगर्दी खत्म हो। एक उदाहरण दे रहा हूँ। मेरे विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में भक्तिकाल के अंतर्गत मलिक मुहम्मद जायसी को नहीं पढ़ाया जाता है। कबीर जिस रुप में पाठ्यक्रम में शामिल है, वह अपने आप में एक मिसाल है। कबीर के वैसी साखियाँ जिनसे उनके धार्मिक बाह्याडम्बरों के प्रति मुखर विरोध का पता चलता है, न के बराबर हैं। ज्यादातर साखियों में प्रयुक्त होनेवाले 'नाम' पदबंध का रुपान्तरण 'राम' में कर दिया है। इस तरह कबीर को पढ़ाने के क्रम में ही उसका एक हिन्दूवादी पाठ स्वत: निर्मित होने लगता है। मानक या शुद्ध पाठ की उपलब्धता तो दूर की बात है। वैसे बड़े-बड़े नाम भी खाली वक्त में कवियों का प्रतिनिधि संकलन एक भूमिका के साथ संपादित करने में दिनों संलग्न देखे जा सकते हैं। फर्क इतना है कि उनकी एक सांस्थानिक पहचान है और उसका प्रकाशक समादृत हैं। लेकिन बाकी देश में ऐसे छुटभैयों का बोलबाला है। 
इन नीतिगत, संरचनागत और व्यवस्थाजन्य समस्याओं से इतर हिन्दी की एकेडमिक्स एक खास किस्म के संकट के गिरफ्त में आ चुकी है, जो धीरे-धीरे विकराल होती जा रही है। इस संकट को हिन्दी के मठाधीशों की अदूरदर्शिता और व्यक्तिगत स्वार्थ ने अंजाम दिया है। यह संकट हिन्दी साहित्य के पठन-पाठन से जुड़ा है। हिन्दी में स्नातक और स्नातकोत्तर के पाठ्यक्रमों में शामिल बहुत से क्षेत्रों के पढ़ानेवाले अब लुप्तप्राय प्रजाति की श्रेणी में आ गये हैं। मसलन् हिन्दी साहित्य के आदिकाल के अंतर्गत पढ़ाये जानेवाले सिद्ध-नाथ-जैन या अपभ्रंश साहित्य के जानकार अब ढूंढे मिलने मुश्किल हैं। यह अध्ययन-अध्यापन अब टीका, भाष्य या कुंजी की शरण में जा चुका है। जल्द ही यही स्थितियाँ भक्तिकाल के साथ घटित होने जा रही हैं। रीतिकाल पर तो कलावाद का जो डंडा रामचंद्र शुक्ल ने चलाया था, उसके बाद प्रगतिशील आलोचना ने उसकी इतनी अनवरत निन्दा-आलोचना की उस ओर देखना तो वैसे ही छूट चुका है जैसे विवाह के बाद किसी बेटी का मायका छूटता है। भाषा विज्ञान की हालत खस्ता है और भारतीय काव्यशास्त्र भी अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है। हिन्दी में हम एक अदद राधावल्लभ त्रिपाठी पैदा नहीं कर सके। रंगकर्म के पठन-पाठन का तो आलम यह है कि आजीवन नाटक पढ़ानेवालों का ऐसा तबका भी रहा है, जिन्होंने अपने पूरे जीवनकाल में एक अदद नाटक तक नहीं देखा। रंगकर्म को पढ़ाने के लिए रंगमंच की उपलब्धता कितनी जरुरी है, यह कभी हमारे अकादमिक चिन्ता में शामिल ही नहीं हो सका। यह हिन्दी के एकेडमिक्स का 'पारिस्थितिकी असंतुलन' है। गजब यह है कि अब भी इसका संज्ञान लेनेवाला कोई नहीं है। नियुक्तियों में इस बात का खयाल कभी रखा गया हो, ऐसा ध्यान नहीं पड़ता। व्यक्तिगत नफा-नुकसान से चालित नियुक्तियों की इस प्रक्रिया ने ऐसे हालात पैदा कर दिये हैं कि सब समकालीन विषयों के ही जानकार बन कर रह गये हैं। विश्वविद्यालय में होने वाले शोध को इन समकालीन विमर्शों ने गजब की सहूलियतें उपलब्ध कराईं हैं। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, अथवा किसी पुरस्कृत रचना या समकालीन चर्चित रचना पर काम करना इधर के वर्षों का पसंदीदा अकादमिक प्रैक्टिस बन कर उभरा है। इसकी प्रमुख वजह यह रही कि इसमें संसाधन जुटाने के लिए अतिरिक्त श्रम करना नहीं पड़ता है। समकालीन पत्रिकाओं में इन पर लगातार सामग्री मिलती रहती है। इस सहूलियत ने हिन्दी के अकादमिक बोध को समकालीनता के इर्द-गिर्द समेट देने का काम किया है। परंपरा के गहन ज्ञान से आचार्यत्व की जो परंपरा पनपती थी, मर्मज्ञता के जो पुरोधा कभी पाये जाते थे, शास्त्रीयता का जो सौंदर्य होता था वह अब स्मृति का हिस्सा होती जा रहीं हैं। और ऐसा भी नहीं हुआ कि समकालीनता के इस आग्रह ने कोई आला दर्जा का विमर्शकार ही हमें दिया हो। यह एक ऐसा दौर है जिसमें औसत प्रतिभाओं वाले गिरोहबंदी के जरिये सत्ता और शक्ति के केन्द्रों को हस्तगत करने में लगे हैं। इसका एक तरीका जो अब ऐसी गतिविधियों का शिल्प हो गया है, वह यह कि काबिल लोगों का बड़ी कुशलता से अपने मंच और पक्ष में इस्तेमाल किया जाना। इससे वे वैधता अर्जित कर रहे हैं और अपनी गिरोहबंदी को लगातार मजबूत करते जा रहे हैं। 'साहित्य-उत्सवों' (लिटरेचर फेस्टिवल्स) की जो धूम इन दिनों मची है, उनके आयोजकों की पृष्ठभूमि को जानने की जरुरत है। ये साहित्य को भी इवेंट में बदलने की ताकत रखनेवाला हिन्दी का नया बिचौलिया तबका है। जो अलग-अलग अनुशासन के लोगों को एक मंच में लाकर खबर बनाने की ताकत रखता है। खबर बनाने की ताकत रखना, आज के दिन में एक बहुत बड़ी बात है। यह हिन्दी के नये शक्ति-पीठ हैं, जिसमें ब्लॉगर, फ्रीलांसर, पत्रकार, प्रकाशक, नेता, अभिनेता, निर्देशक सबको सान कर एक ऐसी चाशनी तैयार कर दी गई है कि इसके ताकत को नजरंदाज कर पाना मुश्किल है। सोशल मीडिया इनका 'कंपेनिंग ग्राउंड' है, जहाँ से यह हवा बनाने का काम करते हैं। वे एक साथ अलग शहरों में बैठे हुआं-हुआं करना शुरु करते हैं गर उनके 'नाभिनाल सम्बद्धता' को आप नहीं जान पाते हैं तो समझते-समझते वे दुकानदारी करके निकल लेते हैं। आप उस चकाचौंध में उलझ कर रह जाते हैं। दरअसल हिन्दी की विपन्नता से उपजी मानसिकता का ऐसा लाभ उठाने की इतनी संगठित कोशिशें इससे पहले नहीं की गईं थीं। थियोडोर एडोर्नो और होर्खाइमर के 'संस्कृति उद्योग' की सही परिणति इस दौर में देखने को मिल रही है, पर सवाल वही है कि विकल्प क्या है? विकल्प कुछ ऊपर सुझाये गये हैं, कुछ आप सुझा सकते हैं। यह दौर जितना संकटों का है, उतना ही उनके निदान और विकल्पों को तलाशने का भी है। और ऐसी कोशिशों की सार्थकता समूहबद्ध प्रयत्नों में है। यह अकारण नहीं है कि इस शासनकाल में यह संकट गहराया है। भारत के बेहतर माने-जाने वाले विश्वविद्यालयों में बाहर से हमले बढ़े हैं, आनेवाले दिनों में जिन संस्थानों की भी अपनी अलग पहचान है, उस पर हमले तेज होंगे। जेएनयू और हैदराबाद झांकी है, पूरा भारत अभी बाकी है। अंग्रेजों के बाद 'मानसिक औपनिवेशन' की नयी इबारत लिखने की तैयारी हो रही है। उसकी राह में सबसे बड़ी बाधा चेतना, विवेक, तर्कशीलता के यही केन्द्र है, इसको ध्वस्त किये बगैर 'मानसिक औपनिवेशन' की प्रक्रिया संपन्न नहीं होनी है। वे अपनी मुहिम पर लग चुके हैं, आप अपनी तैयारी देखिये। क्योंकि अपने इस गढ़ को मजबूत करने की बजाय हमने लगातार कमजोर किया है। अभी उन अंदरुनी कमजोरियों को ही संबोधित करने की चेतना और ताकत नहीं जुटा पाये थे और यह बड़ा हमला हो गया है। लोकतंत्र की रक्षा उसकी सांवैधानिक संस्थाओं को बचा कर भी की जा सकती है। अपने देश की सांवैधानिक संस्थाओं पर किसी लोकतांत्रिक सरकार द्वारा ऐसा संगठित हमला पहली बार बोला गया है। आंतरिक जर्जरता से जूझ रहे इस एकेडमिक्स का इस संकट के आगे वैसे तो टिक पाना मुश्किल है। लेकिन उम्मीद पर दुनिया कायम है। इसी उम्मीद के साथ।




पहल की दूसरी पारी में हमने कई बार हिन्दी की अकादमिक हालत पर तीखे सवाल उठाए पर हिन्दी प्राध्यापक समाज पर कोई फर्क नहीं पड़ा। वह उत्तरोत्तर एक क्रूर माफिया के रूप में पनप रहा है। युवा आलोचक और हिन्दी प्राध्यापक राहुल सिंह ने इस पर नए सिरे से पहल के लिए लिखा है।
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