सोशल मीडिया और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद

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    जनवरी 2017
श्रेणी सोशल मीडिया और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
संस्करण जनवरी 2017
लेखक का नाम जगदीश्वर चतुर्वेदी





विमर्श/दो




सोशल मीडिया ने माध्यमों की दुनिया बदल दी है। सभी किस्म की राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक संरचनाओं को गहरे तक प्रभावित किया है। सोशल मीडिया के अनेक रूप प्रचलन में हैं, जैसे- फेसबुक, ब्लॉगिंग, जी प्लस, ट्विटर आदि। सोशल मीडिया में 'सोशल' पदबंध बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह सामाजिक से भिन्न है। समाज विज्ञान से लेकर परंपरागत विमर्श के विभिन्न क्षेत्रों में 18 वीं शताब्दी के बाद से लेकर आज तक जिसे सामाजिक कहते हैं उससे यह 'सोशल' का कोई लेना-देना नहीं है। सवाल यह है 'सोशल' को कैसे परिभाषित करें। 'सोशल' के कई रूप हैं। राजनीतिक संप्रेषण से लेकर मार्केटिंग तक इसके वैविध्यपूर्ण रूप नजर आते हैं। सोशल मीडिया में जो 'सोशल' है वह सामाजिक जिम्मेदारी के विचारों से भागा हुआ यूजर है। सोशल नेटवर्क में सामाजिक जिम्मेदारी का भाव कम है, हमें सामाजिक विकास के लिए ऐसे विकल्प चाहिए जो सामाजिक जिम्मेदारी निभाएं। सामाजिक जिम्मेदारी निभाने के लिए 'भरोसेमंद' और 'विश्वसनीय' नेटवर्क की जरूरत है। हमें आज और सोशलाइजेशन की जरूरत नहीं है, बल्कि भरोसेमंद और विश्वसनीय लोगों के नेटवर्क की जरूरत है, क्योंकि सोशल मीडिया में बहुत कुछ ऐसा कंटेंट है, कम्युनिकेशनल है, जो भरोसे लायक नहीं है, समाज के लिए हितकारी नहीं है।
दिलचस्प बात है कि हममें से कोई भीड़ का अंग बनना नहीं चाहता, 'भीड़' में बोलना नहीं चाहता। लेकिन सोशल मीडिया में तो सब कुछ है, 'भीड़' है। सोशल मीडिया में ज्यों ही दाखिल होते हैं 'भीड़' का अंग बन जाते हैं। सोशल मीडिया में 'मास' ही शक्ति है। भीड़ ही ताकतवर है।
ज्यां बौद्रिलार्द के शब्दों में कहें तो 'सोशल' का यथार्थ में रुपान्तरण 'सामाजिक' के रूप में नहीं होता। वह खोखला है। जिसे हम 'मास' कहते हैं वह खोखला पदबंद है। यह एक तरह से क्रिस्टल वॉल की तरह है। बौद्रिलार्द ने 'मास' को 'बहुसंख्यक' के रूप में देखा है। 'मासेज' से की गयी अपील का कोई प्रत्युत्तर नहीं मिलता। 'मासेज' पदबंद में राज्य, इतिहास, संस्कृति आदि सभी विचार हजम हो जाते हैं। 'मासेज' हमारी आधुनिकता का सबसे विस्फोटक फिनोमिना है। इसमें आप किसी भी किस्म की परंपरागत थ्योरी और अभ्यासों को समाहित नहीं कर सकते। 'मासेज के दो रूप मिलते हैं, पहला, स्वत: स्फूर्त, दूसरा पेसिव। लेकिन यह हमेशा संभावित ऊर्जा से भरी रहती है। आज वे चुप हैं लेकिन कल वे जब बोलेंगे तो 'साइलेंट मेज़ोरिटी' कहे जाएंगे। इतिहास में 'मासेज' का कोई इतिहास नहीं होता। उनका कोई अतीत और भविष्य भी नहीं होता। उनके पास कोई वर्चुअल एनर्जी भी नहीं होती, जिसे वे रिलीज कर सकें। लेकिन उसमें हजम करने या तटस्थ करने की क्षमता होती है।
बौद्रिलार्द का मानना है 'मास' या 'भीड़' कोई अवधारणा नहीं है। बल्कि राजनीतिक भाषणकला का अंग है। यह हल्का, रुढ़ और लुंपन पदबंध है। प्रत्येक खोखले वक्ता के पास अनुगामी गूंगा समूह होता है। जिसकी कोई निजी राय नहीं होती। वह सभी किस्म के विमर्शों में सारहीन रूप में भाग लेता है। 'भीड़' का अर्थ है 'सोशल' का पूरी तरह सफाया। 'भीड़' के प्रसंग में 'भक्त' और 'भगवान' की इमेज को नए सिरे से पढऩे की जरूरत है। इन दोनों की इमेज में कोई अर्थ संप्रसारित नहीं होता। कोई विचार संप्रसारित नहीं होता। 'भक्त' कभी भगवान के विचार से प्रभावित नहीं होते। ज्यों ही 'भगवान' की याद आती है पुजारी याद आता है। उस समय आप न तो पाप पर गुस्सा होते हैं और न व्यक्तिगत मुक्ति के सवालों पर गुस्सा होते हैं। मंदिरों और तीर्थों में संस्कार देखते हैं, यह रूपान्तरण की धारणा का विलोम है। वे अंतत: भक्त हैं, वे छोटी छोटी इमेजों के जरिए जिन्दा रहते हैं। वे इमेजों में किए गए छोटे छोटे बदलावों और अंधविश्वासों के जरिए जिंदा रहते हैं। इसके क्रम में वे पतनशील संस्कारों को बनाए रखते हैं। आध्यात्मिक आस्था के भिखारी के रूप में बचे रहते हैं। वे आस्था के लिए मरना नहीं चाहते। वे रूपान्तरित भी होना नहीं चाहते। उनकी अनिश्चितता, अविश्वास, भेदभाव और इंतज़ार कभी खत्म नहीं होता। वे हर चीज से पलायन करते हैं और यही चीज उनको धर्म से जोड़े रखती हैं। मासेज के लिए भगवान सब समय हैं और हर जगह हैं। उनकी अनंत इमेज हैं। उन अनंत इमेजों को हम मूर्तियों में सहज ही देख सकते हैं। भीड़ धर्म को पूरी तरह हजम कर जाती है। उसके स्रोत को भी हजम कर जाती है। इसमें भक्त के दर्शकीय भावबोध की बड़ी भूमिका है। कहने का तात्पर्य है कि 'भीड़' के आईने में 'सोशल' को देख ही नहीं सकते। अथवा सोशल के आईने में स्वयं को देख नहीं सकते। यह ऐसा आईना है जो टुकड़े-टुकड़े हो चुका है। इसमें कोई चीज नजर नहीं आती।
बौद्रिलार्द कहते हैं जो बातें 'भीड़' पर लागू होती हैं, वे सूचना पर भी लागू होती हैं। यदि आप 'भीड़' को विवेक के दायरे में लाना चाहेंगे तो बड़ी मुश्किल होगी। नैतिक तौर पर सही सूचना देने की कोशिश करेंगे तो मुश्किल होगी। बेहतर ढंग से सामाजिक बनाना चाहेंगे तो निराशा हाथ लगेगी। 'भीड़' तो विवेकपूर्ण संप्रेषण के खिलाफ प्रतिवाद करती है। वह हर चीज को दर्शकीय भाव से देखती है। उसके लिए 'नॉनसेंस' को दिखाओ फिर उसे गंभीरता में रुपान्तरित करो। 'नॉनसेंस' उसको अपील करता है। वह किसी गंभीर 'कोड' या 'संहिता' में बंधना नहीं चाहती। उसे तो 'साइन' या प्रतीक चाहिए। वह प्रतीक के साथ खेलती है, उनका आदर्शीकरण करती है। उसे स्टीरियोटाइप पसंद है। वह ऐसे किसी भी कंटेंट को हजम कर जाएगी जिसका दर्शकीय अर्थ हो और जो देखने में अच्छा हो। वे जो चीज खारिज करते हैं वह है 'द्वंद्ववादी अर्थ'। वे राजनीतिक इच्छा शक्ति और पारदर्शिता को अस्वीकार करते हैं। वे किसी तार्किक और विवेकपूर्ण विमर्श को नहीं मानते, उनकी दिलचस्पी तो आधारहीन आयाम में प्रस्तुत चीजों में होती है। इस अर्थ में प्रतीक अपना अर्थ खो देते हैं। 'भीड़' मौन बहुसंख्यक समूह के रूप में काम करती है। वह अपने जीवन के भेदों की चर्चा नहीं करती। वह अपने मतभेदों को छिपा लेती है। कहने का आशय यह कि 'भीड़' अपनी स्वाभाविक प्रकृति के अनुरुप काम नहीं करती। वह उन तत्वों से भी अनभिज्ञ है जो उन पर थोप दिए गए हैं। बल्कि उनके अंदर न जानने की भावना पैदा कर दी जाती है। यह उदासीनता उनमें सत्ता पैदा करती है।
बीसवीं शताब्दी 'राजनीतिक केन्द्रीकरण' और 'संचार केन्द्रीकरण' की शताब्दी है। एकाधिकार, केन्द्रीकरण और मुनाफा ये इस युग के तीन बड़े लक्ष्य हैं। पहली बार अमेरिका में एनएसए, माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, फेसबुक, एपल आदि के बीच समझौते हुए हैं। इसे 'प्रिज्म' कार्यक्रम के नाम से जानते हैं। इसका मकसद है है विश्व में निगरानी करना, बहुराष्ट्रीय निगमों और अमेरिका के राजनीतिक और सांस्कृतिक हितों का विस्तार करना। इंटरनेट का समस्त डाटा संकलित करना, उसका व्यापारिक और राजनीतिक इस्तेमाल करना। डिजिटल तकनीक के आने के बाद संचार क्रांति का पैराडाइम बदलता है। अब हम ज्ञानमीमांस से तत्वमीमांस की ओर मुड़ गए हैं। यानी 'आप क्या जानते हो' से 'तुम क्या हो' की ओर मुड़ गए हैं। 'ज्ञान प्रबंधन' से 'अस्मिता प्रबंधन' की ओर मुड़ गए हैं। सोशल मीडिया ने इस पैराडाइम शिफ्ट में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। नव्य-उदारीकरण के दौर में 1990-91 में जब संचार क्रांति आई तो, वह मोबाइल-टेलीफोन और कम्प्यूटर तक सीमित थी, उस दौर में तकनीकी उपयोग और सूचना या ज्ञान के संचय पर जोर दिया गया, सूचना से ज्ञान की ओर प्रयाण किया, लेकिन 2004 में जब से फेसबुक का जन्म हुआ तो किसी ने नहीं सोचा था कि ज्ञान से छलांग लगाकर सीधे अस्मिता के क्षेत्र में समाज दाखिल होने जा रहा है।
फेसबुक के बारे में यह धारणा है कि वह मुफ्त है। हम मुफ्त में उसका इस्तेमाल करते हैं। जबकि सच यह है कि यह मुफ्त नहीं है। दूसरा भ्रम है कि यहां लोकतंत्र है। इस प्रसंग में पहली बात यह कि लोकतंत्र और फेसबुक कम्युनिकेशन में ज़मीन-आसमान का अंतर है। एक समानता है दोनों को एकाधिकारवादी पूंजी नियंत्रित करती है। फेसबुक संचार तो संचार पर्यटन है। इसके विपरीत लोकतंत्र तो ठोस भौतिक लोकतांत्रिक संरचनाओं और लोकतांत्रिक अभ्यासों पर निर्भर है। यदि हम इस पर सारवान कम्युनिकेशन करना चाहते हैं, तो छोटे समूहों में कम्युनिकेट करें। जिससे प्रत्येक व्यक्ति सीख सके और आलोचना कर सके।
फेसबुक फंडा है 'क्लिक-ट्विट एंड पोस्ट', यहां तक आप शिरकत करते हैं तो अकेले शिरकत करते हैं। नेटवर्क की राय में शामिल होते हैं। इससे आत्मशिक्षा होती है और आभार भाव पैदा होता है। फेसबुक पर अनेक किस्म की विचारधाराओं के लोग सक्रिय हैं, इनमें वे भी हैं जो प्रतिक्रियावादी हैं, वे स्वयं को मुक्तिदाता के रूप में पेश करते हैं। लेकिन इन लोगों का सामाजिक मुक्ति से कोई संबंध नहीं है। सवाल उठा है कि फेसबुक क्या है? क्या यह कोई सिस्टम या व्यवस्था है? क्या उसका अपना कोई कंटेंट है। असल फेसबुक तो मात्र प्लेटफार्म है, मंच है। मार्क जुकरबर्ग ने कहा हमने कोई सिस्टम नहीं बनाया, बल्कि प्लेटफॉर्म बनाया है। हमने कोई कंटेंट नहीं दिया। हमने तो प्लेटफॉर्म दिया है, यूजर अपना कंटेंट विकसित करें और लगाएं। फेसबुक को कनेक्शंस का जंगल है। यहाँ हर व्यक्ति तफरीह कर रहा है। इस नजरिए से देखें तो सतह पर यही लगेगा कि फेसबुक निर्माता ने तो मंच दिया है और इस मंच की अपनी कोई विचारधारा नहीं है। लेकिन यह बात सतह पर सही लगती है लेकिन व्यवहार में फेसबुक की विचारधारा है और वह एकाधिकारवादी विचारधारा के वर्चस्व का सबसे प्रभावशाली मीडियम है। फेसबुक ऐसा मंच है जिस पर यूजर की विचारधारा प्रभावहीन है, यहां मीडियम की विचारधारा सभी किस्म की विचारधाराओं को हजम कर जाती है। यूजर यहां थक जाता है, फेसबुक नहीं थकता। यूजर की विचारधारा को आप भूल सकते हैं, फेसबुक के असर को नहीं भूल सकते।
'सूचना तकनीक' के सवाल बेहद जटिल एव संश्लिष्ट सवाल हैं। इन सवालों में आम लोगों की कोई रूचि नहीं है। यही वजह है कि 'सूचना तकनीक' का रुपान्तरण कैसे किया जाए, उससे जुड़े सवालों पर बहस की जाए, आज भी ये सवाल तकनीकीविदों के बीच तक ही सीमित हैं। 'सूचना' आज सबसे ताकतवर माल है। आज कोई भी वस्तु मुफ्त में नहीं मिलती। गूगल में यदि कोई चीज लेनी है तो उसका भी भुगतान करना होता है। यह भुगतान प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों ही रूपों में करना होता है। ब्रॉडबैंड कनेक्शन के मासिक भुगतान से लेकर विज्ञापन से आय के रूप में गूगल यह पैसा वसूलता है। आज गूगल ज्ञान का बहुत बड़ा स्रोत है। गूगल में यदि कोई चीज मिल जाती है, तो अपने को भाग्यशाली और गूगल को भगवान समझते हैं। सतह पर गूगल हमें चीजें मुफ्त में देता नजर आता है, लेकिन व्यवहार में ईमेल, चैटिंग आदि के जरिए यूजर के बारे में सब कुछ जान जाता है। जो बातें हम किसी को नहीं बताते, उन्हें भी वह जान जाता है। यूजर के बारे में गूगल का सब कुछ जान जाना मुफ्त सूचना की बहुत बड़ी कीमत है, जिसे यूजर खुशी से देता है।
कल तक कारर्पोरेट घरानों के एकाधिकारवादी चरित्र को लेकर प्रतिवादी भाव नजर आता है, कार्पाेरेट घरानों से हम नफरत करते थे, लेकिन इन दिनों मामला उलटा हो गया है। गूगल ने एकाधिकार से सामंजस्य बिठाकर जीने के लिए मजबूर कर दिया है। एकाधिकार के सवालों को गायब कर दिया है। गूगल आज सूचना एकाधिकार का सबसे बड़ा प्रतीक है। सूचना एकाधिकार की गिरफ्त में हम इस कदर कैद हैं कि आंखें खोलकर देखना ही नहीं चाहते कि गूगल आखिरकार हमसे क्या ले रहा है और क्या दे रहा है? अभी तक सारी दुनिया 'सैन्य-औद्योगिक गठजोड़' से परेशान थी। अब इसमें नया तत्व सूचना एकाधिकार का जुट गया है। अब ये दोनों तत्व मिलकर सारी दुनिया पर नियंत्रण कर रहे हैं। सूचना एकाधिकार के प्रेम में इस कदर डूबे हैं कि इसके सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभावों के प्रति अनभिज्ञ हैं।
गूगल के आने के बाद सबसे बड़ी समस्या है 'सूचना एकाधिकार' की। इसके कारण राष्ट्र, व्यक्ति, कंपनी आदि सबके स्वायत्तता आज खतरे में है। मुक्त बाजार का चरम मीडिया उत्कृर्ष है इंटरनेट और सोशलमीडिया। इसमें जहां एक ओर मुक्त अभिव्यक्ति को जनप्रिय बनाया, इसका आड़ की तरह इस्तेमाल किया, लेकिन इस मुक्त अभिव्यक्ति के दो सीधे लक्ष्य हैं- पहला, तीसरी दुनिया के देशों की सांस्कृतिक और बौद्धिक संपदा का अपहरण करना। दूसरा, दूरसंचार कंपनियों के लिए बेशुमार मुनाफा सृजित करना, वैचारिक नियंत्रण और वर्चस्व स्थापित करना। सूचना के समग्र नियंत्रण में हमने पहले कभी काम नहीं किया। आज जो चीज दूरसंचार कंपनियों, गूगल या माइक्रोसॉफ्ट के नियंत्रण में है उस पर आप अपना दावा नहीं कर सकते, उसे बदल नहीं सकते। बदलने के लिए सॉफ्टवेयर कार्यक्रम का होना जरूरी है। मसलन, भाषाएं जनता की संपदा हैं, लेकिन अब वे दूरसंचार कंपनियों और माइक्रोसॉफ्ट के नियंत्रण में हैं। भाषा के कम्प्यूटर रुप को जनता अपनी इच्छानुसार बदल नहीं सकती। हमारे बुद्धिजीवी-लेखक बदल नहीं सकते। भाषा के रुप में बदलने के लिए सॉफ्टवेयर का होना जरुरी है।
सन् 2006 के बाद गूगल के एकाधिकारवादी चरित्र में महत्वपूर्ण बदलाव आया है। इस बदलाव पर कोई बात नहीं हो रही है। गूगल ने बिना किसी अनुमति के सारी दुनिया की ज्ञान संपदा पर डाका डाला है। अनेक भाषाओं के साहित्यकारों की रचनाओं को अपने मुनाफे का अंग बना लिया है। जबकि यह काम उसे नहीं करना चाहिए। विभिन्न देशों की सरकारें और बुद्धिजीवी भी चुप हैं। मसलन् आज तुलसीदास, सूरदास, कबीर आदि गूगल बुक का अंग हैं। इनसे होने वाली आमदनी का गूगल मालिक बन बैठा है। प्रचलित कॉपीराइट कानून मुद्रित सामग्री को मद्देनजर रखकर बनाया गया था, लेकिन गूगल ने संबंधित देशों की सरकारों से अनुमति लिए बिना कॉपीराइट कानून की परिधि के बाहर वाली किताबों को अपनी मुनाफे का अंग बना लिया, जबकि कॉपीराइट एक्ट से मुक्त रचना बाद में देश की संपदा होती थी, लेकिन अब गूगल की संपदा है। इस संपदा को कैसे बचाया जाए इस पर सोचने की जरूरत है। गूगल ने 'वेब' का आधार पेश करते समय यह कहा कि 'वेब' का मतलब है सिम्प्लीसिटी, एफीसिएंसी और अकादमिक एक्सीलेंस। यह नए किस्म के नरम पूंजीवाद की भाषा है।
यह लोकतांत्रिक एकता भंग करने का दौर है। चैटिंग, पोस्टिंग, वीडियो आदि से लेकर आंदोलनों तक ऐसी चीजें सामने आ रही हैं, जो लगातार लोकतांत्रिक एकाग्रता को भंग कर रही हैं। हम बिना सोच-विचार के 'शेयर' (साझा) कर रहे हैं। इसने अनालोचनात्मकता में इजाफा किया है। सोच-विचार के शिरकत करना चाहिए। फेसबुक में 'शेयर' की धारणा मूलत: कैलीफोर्नियन टर्बो कैपीटलिज्म से प्रभावित है। इसके अनुसार हमेशा 'और दो' और दो यानी 'मोर' पर जोर है। इसका नारा है छोटा हो लेकिन ताकतवर और तेज हो। यही विचारधारा है जिसके हम इन दिनों फेसबुक पर अनुयायी बने हुए हैं। आज छोटी-छोटी चीजें बहुत ताकतवर हैं। मसलन, डेस्कटॉप से लैपटॉप, ईमेल अटैचमेंट पहले ज्यादा बड़ा है। आज हमारे मोबाइल का कैमरा किसी भी टीवी स्क्रीन से बेहतर है। उसका रिजोल्यूशन टीवी से बेहतर है।
फेसबुक का नारा है ''हम सब कुछ तेज गति से चाहते हैं'', यानी जो कुछ है उसे जल्दी से व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। हमें फेसबुक के इस फ्रेमवर्क के बाहर निकलकर विकल्प बनाने होंगे। हमें ऐसे औजार विकसित करने होंगे जो स्व-प्रबंधन और स्वायत्तता को बनाए रखें। हमें इन चीजों से बचना होगा जो ऊपर से थोपी जाती हैं। सामाजिक सवाल मानवीय सवाल है, ये मात्र अभिव्यक्ति के सवाल नहीं हैं। इनका विशिष्ट संदर्भ, परिवेश और इतिहास होता है। इन सवालों पर बातें करते समय सामान्यीकरण से बचना चाहिए, सरलीकरण से बचना चाहिए। फेसबुक आदि पर ये सवाल जब भी उठते हैं तो सरलीकरण के शिकार हो जाते हैं। सरलीकरण से सवालों पर बहस नहीं हो पाती। सोशल मीडिया ने तेज संप्रेषण पैदा किया है लेकिन ग्रहण प्रक्रिया को निष्क्रिय कर दिया है। अब हम सब बोल रहे हैं, तेजगति से बोल रहे हैं, लेकिन सुन नहीं रहे, सोच नहीं रहे। बिना सुने और सोचे का यह संवाद एकायामी संचार पैदा करता है। अर्थहीन संवाद बनाता है। इससे जड़ता नहीं टूटती। यह एक तरह से संप्रेषण के नाम पर संप्रेषण है।
इंटरनेट ने यह भ्रम पैदा किया है कि हम ज्ञान समाज में दाखिल हो गए हैं। ज्ञान कोई चीज नहीं है, जिसे स्वत: इंटरनेट कनेक्शन मिलते ही हासिल कर लिया जाए। ज्ञान सायास प्रक्रिया है, इसे अर्जित करने की सामाजिक संरचनाओं का होना बेहद जरूरी है। इंटरनेट पर उपलब्ध ज्ञान वैसे ही है, जैसे किसी कम्पोजीटर के पास किताब हो। किताब के होने मात्र से ज्ञान मिलता जो कम्पोजीटर पहला और सबसे बड़ा ज्ञानी होता। इंटरनेट पर किताब के आने से किताब पाने में सुविधा हुई है। किताब से दूरी घटी है, उपलब्धता बढ़ी है। इंटरनेट पर किताबों के आने से किताबों के बोझ को ढोने से मुक्ति मिली है। किताब पहले स्थिर थी, आज गतिशील है। न्यूनतम परिश्रम और भुगतान के जरिए किताब पाना संभव हुआ है, किताब को नया जन्म मिला है। ज्ञान के लोकतांत्रिकीरण की प्रक्रिया में समाज ने लंबी छलांग लगायी है।
सोशल मीडिया और इंटरनेट में तमाम बंद समाजों को जानने का मौका दिया है। लेकिन बंद समाज तो सोशल मीडिया से नहीं खुलते, बंद समाज तब खुलते हैं जब सामाजिक समूह सक्रिय प्रयास करते हैं। सोशल मीडिया में बंद समाज की सूचनाएं हमें जानकारी देती हैं इससे समाज नहीं खुलता। सोशल मीडिया इसके विपरीत हमें बंद समाज की ओर ठेलता है। सोशल मीडिया आने के बाद पहले से उपलब्ध अनेक उदार मान्यताएं और हकों पर सरकारों ने पाबंदी लगायी है। यह सिलसिला फ्रांस से लेकर अमेरिका तक, भारत से लेकर बंगलादेश तक सहज ही देखा जा सकता है। इन तमाम देशों में अनुदारवादी और अविवेकवादी ताकतें पहले की तुलना में और भी ज्यादा ताकतवर बनकर उभरी हैं। इंटरनेट के आने के बद सबसे बड़े युद्ध और जनसंहार हुए हैं, लेकिन वे विश्वजनमत को जागृत नहीं कर पाए। समूचा यूगोस्लाविया टूट गया, लाखों लोग मारे गए, लेकिन हम सब नहीं जानते। समूचा इराक ध्वस्त कर दिया गया लेकिन हम नहीं जानते, लीबिया को तबाह कर दिया गया लेकिन हम नहीं जानते। कहने का आशय यह कि इंटरनेट और सोशलमीडिया आने के बाद उन्माद की खबर तो आती है लेकिन बाकी सूचनाएं नहीं आतीं, युद्ध शुरू हुआ यह तो पता चलता है लेकिन बाद में क्या हुआ यह पता नहीं चलता। मसलन् कश्मीर में आतंकी-सेना मुठभेड़ की खबर मिल सकती है, लेकिन कश्मीर की जनता के बारे में कुछ भी नहीं जानते कहने का तात्पर्य यह है कि सोशल मीडिया ने खुले समाज का भ्रम पैदा किया है, खुला समाज पैदा नहीं किया।
सोशल मीडिया और मीडिया जनित उत्पाद वस्तुत: तकनीकी निर्धारणवाद पर आश्रित है। यह रेनेसां की परम्परा पर टिका है। रैनेसां मानता था ज्ञान मुक्ति देता है, क्रांतिकारी होता है। इसीलिए अब कहा जा रहा है यह सूचना सशक्तिकरण का दौर है। ज्ञान और सूचनाएं क्रांतिकारी होती हैं। हमें कम्युनिकेशन से डरना नहीं चाहिए, वह लोकतांत्रिक है। तकनीकी निर्धारणवादी 'ऐतिहासिक अनिवार्यता' पर बल देता है, वह व्यक्ति के चयन पर ध्यान नहीं देता। सच यह है लोकतंत्र में कुछ भी स्वत: पैदा नहीं होता, ज्ञान और सूचनाएं भी स्वत: पैदा नहीं होतीं। यहां सब कुछ नियोजित है और पहले से तय है। हमें तयशुदा में से चुनना होता है। इसी तरह तकनीक की विचारधाराहीन और तटस्थ नहीं होता। तकनीक की विचारधारा होती है। वह भी पक्षधर होती है। तकनीक लोकतांत्रिक नहीं होती।
कायदे से फेसबुक में दिए गए विवरण और ब्यौरे सही होने चाहिए। लेकिन अमूमन ऐसा नहीं होता। यूजर अधिकतर सूचनाएं गलत देते हैं। इसने 'प्रामाणिकता' का नया अर्थ गढ़ा है। यहां 'प्रामाणिकता' की आड़ में बड़े पैमाने पर झूठ गढ़ा जाता है। यह असल में छिपाने की कला का सबसे बड़ा माध्यम है। यहां आप सूचनाएं देते हैं लेकिन चाहें तो छिपा भी सकते हैं। यहां प्रदर्शनप्रियता प्रमुख चीज है। यहां अस्मिता के प्रदर्शन प्रिय रूप पर बल है। यहां प्रोफाइल में या वॉल पर जो भी फोटो नजर आते हैं वे परफेक्ट फोटो, सुंदर फोटो ही होते हैं। यहां वे फोटो नजर नहीं आते जो यूजर की कमजोरियों या बदसूरती को उजागर करते हों। प्रामाणिकता के नाम पर कृत्रिमता का यह सबसे बड़ा मीडियम है।
आमतौर पर फेसबुक में एक आदमी पन्द्रह मिनट तक जनप्रयि रहता है। उसकी ताजा पोस्ट जनप्रिय होती है। फेसबुक अनिश्चित, असीमित और अहर्निश अपडेटिंग की मांग करता है। यहां सारा कार्य-व्यापार टीवी टॉक शो की तरह चलता है। यहां दुविधा और गंभीरता के लिए कोई जगह नहीं है। यहां यूजर 'गुमनाम' की तरह है, वह जितनी जल्दी दिखती है उतनी ही जल्दी हमारी नजरों से ओझल हो जाता है। यहां नया स्टेटस पुराने स्टेटस पर आरुढ़ है। यहां पुराने स्टेटस को कोई नहीं पढ़ता यहां नया स्टेटस महत्वपूर्ण है और वही पढ़ा जाता है। यहां तुरंत लिखा और तुरंत पढ़ो, तुरत भूलो। तुरंत फोटो लगाओ, साझा करो। प्रदर्शन करो, प्रदर्शनीय लगाव व्यक्त करो। यहां नए किस्म की अभिव्यक्ति की आजादी है।
जिस तरह धर्म में परफॉर्मेंस महत्वपूर्ण है, उसी तरह फेसबुक में भी यही चीज महत्वपूर्ण है। जिस तरह धर्म में भक्त अनुयायी होता है, वैसे ही यहां मित्र अनुयायी होता है, वैसे भी यहां मित्र अनुयायी होता है। धर्म में 'संस्कार' उपकरण हैं, यहां पर 'डिजिटल टूल्स' महत्वपूर्ण हैं। जिस तरह धर्म स्वादहीन होता है, वैसे ही सोशल मीडिया स्वादहीन है। यहां धर्म की तरह नियंत्रित संरचनाएं हैं और नजरदारी है। वहां 'धार्मिक उत्साही' हैं यहां 'तकनीकी उत्साही' हैं। जैसे मंदिर या तीर्थ में जितने भक्त जाएंगे उतनी ही आमदनी होगी ठीक वही दशा सोशल मीडिया की है यहां जितने लोग आएंगे कंपनियों को उतना ही मुनाफा मिलेगा। धार्मिक कर्मकांड में पंडितों की भीड़ जनता में ज्ञान वृद्धि नहीं करती उसी तरह ऑनलाइन विशेषज्ञों की भीड़ जनता के ज्ञान में इजाफा नहीं करती। बल्कि सच यह है कि भीड़ में ज्ञान संप्रेषण नहीं होता। सोशल मीडिया में जो आते हैं या लिखते हैं, इसका अर्थ यह नहीं है कि वे चीजों के बारे में जानते भी हैं। इसका अर्थ है कि वे डिजिटल प्रक्रिया का अंग है। सोशलमीडिया का नारा है 'सब कुछ कहो, निडर रहो'। लेकिन सच है कि निडर अभिव्यक्ति पर यहां सबसे ज्यादा हमले हो रहे हैं।
पेरी लेवी का नारा है 'सर्वज्ञ कोई नहीं, प्रत्येक कुछ कुछ जानता है, समस्त ज्ञान नेटवर्क में रहता हैं', इसका अर्थ यह है कि ज्ञान 'व्यक्ति' के पास नहीं उसके बाहर नेटवर्क में रहता है। बाह्य जगत में रहता है। ज्यादा ज्ञान है, ज्यादा सूचनाएं हैं, खबरें भी हैं, इसका अर्थ यह नहीं है कि हम ज्यादा जानते हैं। सूचना स्वयं में सचेत नहीं होती, उसे हम अपने विवेक के जरिए सचेत बनाते हैं। सूचना सचेत तब बनती है जब समुदाय उसका इस्तेमाल करता है, या सामुदायिक एक्शन का हिस्सा बनती है। 'बिग डाटा' होने से जरूरी नहीं है कि बड़े सामाजिक एक्शन भी होंगे। 'बिक डाटा' अपने आप में न तो मुक्त करता है और न सशक्तिकरण करता है। 'सामुदायिक नेटवर्क इंटेलीजेंस' की धारणा प्रतिक्रियावादी नियंत्रण की धारणा है। इसी तरह सामुदायिक सचेतनता महज सोशल मीडिया या टूल्स या स्वत: अभिव्यक्त नहीं है। सामुदायिक चेतना के प्रसारण के लिए सामुदायिक या वर्गीय संगठनों का जमीनी स्तर पर उस चेतना के प्रसारण के रूप में काम करना बेहत जरूरी है। सामाजिक संगठनों की यह जिम्मेदारी है कि वे गुणवत्तापूर्ण और सही सूचनाएं प्रसारित करें। सूचनाएं स्वत: समाज नहीं बनातीं बल्कि सामाजिक निर्माण की प्रक्रिया में सूचनाएं पूरक केरूप में भूमिका अदा कर सकती हैं। संस्थान और संगठनों की समाज के निर्माण में भूमिका होती है। सोशल मीडिया आने के बाद निजी और सार्वजनिक का नया वर्गीकरण सामने आया, प्राइवेसी का जो धावा धीरे-धीरे खत्म हो गया। मसलन्, फेसबुक में पहले जो निजी था वो सार्वजनिक हो चुका है। फेसबुक में जो 'पब्लिक' है वह भिन्न किस्म की चीज है। 'पब्लिक' वह है जिसका प्रबंध कर लिया गया, जो फेसबुक पर प्रकाशित कर दिया गया है। जो चीज प्रकाशित नहीं है वह सार्वजनिक भी नहीं है। इसलिए वह प्राइवेट है।
फेसबुक के मालिक मार्क जुकेरबर्ग ने डेविड किर्क पैट्रिक को उनकी किताब ''दि फेसबुक इफेक्ट'' में दिए इंटरव्यू में अस्मिता के सवाल पर सबसे विवादास्पद बयान दिया। मार्क का मानना है व्यक्ति की एक ही अस्मिता होती है। जिस दिन आपके काम की इमेज, मित्रों एवं सहकर्मियों में भिन्न किस्म की होगी तो यह बड़ा ही लज्जाजनक होगा। दो पहचान के रुपों का होना बताता है कि व्यक्ति के पास इंट्रीगिटी का अभाव है। असल में मार्क ने सिर्फ यूजर की घोषित पहचान को देखकर अस्मिता का निर्धारण किया है, यह अस्मिता के निर्धारण का सबसे विवादास्पद और कमजोर तरीका है। प्रोफाइल फोटो से ही पहचान का निर्धारण करना फेसबुक के संदर्भ में तो उपयोगी है लेकिन यह पहचान का बुनियादी आधार नहीं हो सकता। असल में फेसबुक तो ''निजीकृत भीड़'' की मार्केटिंग है। जिस तरह सत्ता अनेक रुपा है वैसे ही अस्मिता भी अनेक रुपा है। अस्मिता मूलत: संदर्भ पर निर्भर है। संदर्भ बदलने से अस्मिता भी बदल जाती है। अस्मिता की खूबी है वह सामाजिक संबंधों के साथ सामंजस्य बिठाकर सक्रिय रहती है। वह हमेशा नई पहचान के साथ सामने आती है जिसके कारण यही लगता है कि ''मैं वह व्यक्ति नहीं हूं जो पहले थे'', जिस तरह सत्ता को खत्म करना असंभव है ठीक वैसे ही अस्मिताओं को नष्ट करना असंभव है।
सोशल मीडिया का आर्थिक आयाम बहुत महत्वपूर्ण है। मसलन् फेसबुक के साथ 1.3 बिलियन मित्र और परिवार जुड़े है। वे इससे नए प्रोडक्ट और सेवाएं भी लेते हैं। इसने बाजार के प्रति अनुकूल माहौल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। व्यापारियों, एप-डवलपर और कनेक्टिविटी प्रदाताओं के लिए यह बड़ा प्रभावशाली माध्यम है। सन् 2014 में फेसबुक के आर्थिक असर का अध्ययन करने के बाद पता चला कि 227 बिलियन डॉलर का असर हुआ। सारी दुनिया में इसने 4.5 मिलियन लोगों को रोजगार दिया। मार्केटिंग पर 148 बिलियन डॉलर का असर हुआ। फेसबुक डवलपर डूल्स के क्षेत्र पर 29 बिलियन डॉलर का असर हुआ। मोबाइल आदि की खरीद और कनेक्टिविटी पर 50 बिलियन डॉलर का आर्थिक असर हुआ।
बौद्रिलार्द ने लिखा है एक जमाना था जब समाज में क्रांतिकारी विचार थे, उनके प्रति सम्मान भाव था। कल्याणकारी योजनाएं थीं। नए विचारों को अर्जित करने की जद्दोजहद थी, लेकिन 'भीड़' में 'सोशल' के रूपान्तरण के बाद 'सोशल' का सुनिश्चित अंत हो चुका है। इसने क्रांतिकारियों के काम को भी जटिल बना दिया है। अब क्रांतिकारी, क्रांति नहीं करना चाहते, यह उनसे संभव ही नहीं है। जनता में परिवर्तन का विचार लाना भी संभव नहीं दिखता, उसे विचार के साथ जनता को गोलबंद करना संभव नहीं लगता।
इसके विपरीत भारत में आम जनता में साम्प्रदायिक या आतंकवाद के नाम पर जमकर प्रचार हो रहा है। जनता को इन पदबंधों के पक्ष-विपक्ष में गोलबंद किया जा रहा है। बल्कि यह कहना समीचीन होगा कि जनता इसके बहाने एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है। दुखद बात यह है कि आम जनता को यह सब स्वाभाविक लग रहा है। उनको इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं लग रहा। इस क्रम में जनता की वृहत्तर एकता को तोडऩे की कोशिश की जा रही है। 'भीड़' को एकजुट करने की संभावनाएं जटिल हो गयी हैं। 'सोशल' की पहचान अर्जित करने की संभावनाएं और भी जटिल हो गयी है। बौद्रिलार्द के नजरिए से एक कदम आगे जाकर हम यहीं कहेंगे कि 'मनुष्य' की पहचान और भी दुर्लभ हो गयी है। पहचान के केन्द्र में जाति, धर्म, कबीले और उपजातियां आ गयी हैं, दुर्भाग्य से विभिन्न संगठन इस काम में सक्रिय रूप से लगे हैं। मसलन, अ-सवर्ण के शोषक के रूप में सवर्ण जाति को रेखांकित किया जा रहा है, हिन्दुओं के पिछड़ेपन के लिए मुसलमानों और ईसाईयों को दोषी ठहराया जा रहा है। हिन्दू धर्म के शत्रु के रूप में इस्लाम के प्रसार को दोषी ठहराया जा रहा है। इस समूची प्रक्रिया में मनुष्यत्व के भावबोध का हस हुआ है।
इसी तरह आतंकवाद विरोधी मुहिम में सारा जोर आपस में मतभेद पैदा करने पर है। जो सत्ता का विरोध कर रहे हैं उनको भी आतंकी कहा जा रहा है। जबकि आतंकी संगठन वे हैं, जो विदेशी ताकतों के इशारे, पैसे, मदद और हिंसा के सहारे काम कर रहे हैं। इनका लक्ष्य है भारत को तोडऩा। ये संगठन हिंसा का सहारा लेते हैं और आतंक पैदा कर रहे हैं, इन संगठनों का पाकिस्तान, सीआईए आदि से सीधा संबंध है। ये असल में भाड़े के सैनिकों की भर्ती करके चलने वाले संगठन हैं। इसके विपरीत इस तरह के संगठन भी है जो हिंसा करते हैं लेकिन भारत को एकजुट रखना चाहते हैं और भारत के सत्ता के चरित्र को बदलना चाहते हैं, इनकी बुर्जुआ संस्थाओं और बुर्जुआ व्यवस्था में कोई आस्था नहीं है। ये संगठन आम जनता में व्याप्त शोषण के रूपों के खात्मे के प्रति वचनबद्ध हैं। इन संगठनों को आतंकी कहना सही नहीं होगा।
हाल के वर्षों में आतंकवाद के खिलाफ जो मुहिम शुरू हुई है वह मूलत: 'सोशल' के खिलाफ है। जो व्यक्ति, लेखक, बुद्धिजीवी, संस्कृतिकर्मी सरकार की इस मुहिम का अंग नहीं है उसे 'आतंकी' समर्थक कहकर हमले किए जा रहे हैं। जो लोग आतंकवाद की मोदी सरकार की नीति से सहमत नहीं और भिन्न ढंग से देखता है उस पर हमले किए जा रहे हैं। इस नजरिए से देखें तो यह वही नजरिया है जो एक जमाने में अमेरिका ने आतंकवाद विरोधी विश्वव्यापी मुहिम के रूप में 25 साल पहले शुरू किया था और आज इस मुहिम के प्रभाव में सारी दुनिया है, जो इस मुहिम का विरोध कर रहे हैं उनको आतंकवाद समर्थक कहकर अपमानित किया जा रहा है। यहां पर आतंकवाद से परंपरागत ढ़ंग से लड़ाई नहीं हो रही है बल्कि 'हाइपररीयल' ढ़ंग से हमले हो रहे हैं। इस काम में मीडिया और इंटरनेट का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है। पेरिस के आतंकी हमले से लेकर कश्मीर के आतंकी हमलों तक इस फिनोमिना को देख सकते हैं।
बौद्रिलार्द के अनुसार मीडिया में आतंकी कवरेज जहां एक ओर लुभाता है, वहीं दूसरी ओर दहशत पैदा करता है। लोक-लुभावन भाव और दहशत इस कवरेज में अंतनिर्हित हैं। उनकी कार्रवाई और प्रबाव के तर्कों के बारे में कहीं पर भी बहस नजर नहीं आती। वे सेंसलेस और दृढ़निश्चय के साथ हमले करते हैं। वे व्यवस्था पर हमला करने के नाम पर सेना और सरकारी इमारतों पर हमले करते हैं। आतंकियों के निशाने पर असल में जनता है। वे अपने हमलों के जरिए जनता में दहशत पैदा करने में सफल हो जाते हैं। विस्फोट करना तो बहाना है असल में जनता को निशाना बनाना है। वे हमलों से जनता को चुप करते हैं। उसकी चुप्पी को निशाना बनाते हैं। अपनी कार्रवाईयों से अचंभित करते हैं। आतंकी हिंसा प्रतिवाद नहीं है वह तो हिंसा है जनता के खिलाफ युद्ध है। यह अंधभक्ति नहीं है। यह भाड़े के सैनिकों की कार्रवाई है।
यह वर्चुअल युग है, यथार्थ आरै उसके समस्त संदर्भों के विध्वंस का युग है, इसमें अन्य या हाशिए के लोगों को मीडिया यथार्थ के बाहर खदेड़कर विध्वंस के हवाले कर दिया गया है। स्थिति बड़ी भयावह है लेकिन मीडिया में यथार्थ के चित्र और यथार्थ की खबरें गायब हैं।
हमारे चेहरे और शरीर पर प्लास्टिक सर्जरी का रंदा चल रहा है। व्यक्तिगत जैसी कोई चीज नहीं बची है। प्राइवेसी से सेंधमारी चल रही है, निगरानी चल रही है। कहने के लिए हम सूचना क्रांति में दाखिल हो चुके हैं लेकिन वस्तुत: सूचना के कचरे में डूबे हुए हैं। हमारे आसपास जो दुनिया बनायी गयी है वह यथार्थ से कम और वर्जुअल यथार्थ से बनी ज्यादा है। सब चीज़ों में क्लोनिंग पद्धति दाखिल हो गयी है।
हमने 'विकास' के जयघोष की आड़ में 'अन्य' को हाशिए पर डाल दिया है। साथ ही 'अन्य' पर हमले तेज़ कर दिए हैं। इसके लिए इंटरनेट, सोशल मीडिया, मास मीडिया आदि का रीयल टाइम कम्युनिकेशन के रुप में इस्तेमाल किया जा रहा है। सूचना क्रांति के नाम पर विकसित समूचा ढाँचा समग्रता में यथार्थ की हत्या का तंत्र बन गया है। आज सच्चाई यह है कि कम्युनिकेशन ही यथार्थ और हाशिए के लोगों की हत्या का पूरक तंत्र बन गया है।
नए कम्युनिकेशन के परिदृश्य के प्रधान लक्षण ये हैं-
1. हाशिए के समुदायों का कम्युनिकेशन बंद। 2. शत्रु के साथ बातचीत। 3. अब किसी किस्म की नकारात्मकता मीडिया नजर नहीं आती, सिर्फ परम सकारात्मकता की ही इमेज वर्षा होती रहती है। 4. अब अन्य नहीं है सिर्फ अस्मिता और भिन्नता है। 5. अब भ्रम नहीं है, बल्कि हायपर रियलिटी, वर्चुअल रियलिटी है। 6. यह गोपनीयता नही है बल्कि पारदर्शिता के नाम पर निगरानी है। 7. मीडिया में सुंदर सामाजिक जीवन का सपना गायब है, उसकी जगह सुंदर वस्तुओं ने ले ली है। यानी मीडिया में अब भविष्य नहीं वस्तुओं का बोलबाला है।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
हाल के वर्षों में और खासकर मोदी सरकार आने के बाद 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' को लेकर बुद्धिजीवियों से लेकर मीडिया पर चर्चाएं तेज हो गयी हैं। इन चर्चाओं के पीछे किस तरह की राजनीतिक मंशाएँ सक्रिय हैं, इसे हम सबलोग जानते हैं। सवाल यह है सांस्कृतिक राष्ट्रवाद क्या है? इसका उत्तर इस सवाल से मिलेगा कि ये लोग भारत को किस तरह देख रहे हैं? किस तरह की सामाजिक इकाइयों के आधार पर देख रहे हैं? यानी इनके नक्शे में भारत की किस तरह की तस्वीर है। असल में, यह काल्पनिक धारणा है और इसका भारत के सामाजिक यथार्थ और उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रियाओं से कोई संबंध नहीं है। यह वर्तमान, अन्य (अदर) और विविधता के निषेध पर निर्मित अवधारणा है।
'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के पक्षधर भारतीय समाज को धार्मिक इकाइयों के आधार पर वर्गीकृत करके नस्ल के आधार पर देखते हैं। धर्म के आधार पर सामाजिक समूहों को वर्गीकृत करते हुए ये लोग खुले आम एक ऐसे हिंदू धर्म की श्रेष्ठता का दावा कर रहे हैं जो परंपरा में कहीं नहीं मिलता। सामाजिक जीवन में कहीं पर भी नज़र नहीं आता। यह वह हिन्दूधर्म है जिसकी रचना सन् 1925 के आसपास आरंभ हुई। आरएसएस के संस्थापकों ने इसको निर्मित किया। यह वह हिन्दू धर्म नहीं है जो हज़ारों सालों से हमारे देश में विभिन्न सम्प्रदायों के आचार-व्यवहार और शास्त्र विमर्श ने बनाया है। इसलिए इसे 'भगवा हिन्दूधर्म' कहना समीचीन होगा। भगवान हिन्दूधर्म 'हमारे वर्तमान के वैविध्य को देखने, समझने में एकदम असमर्थ है। इसके अधिकांश नेताओं की स्वाधीनता संग्राम में नकारात्मक भूमिका रही है। यहां तक कि संविधान बनने के बाद और बाद में अनेक बार संविधान विरोधी भूमिका रही है।
'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' का मूलाधार है एस.एल. गोलवरकर की किताब ''वी ओर अवर नेशनहुड डिफाइंड'' है, यह किताब सन् 1938 में लिखी गयी और सन् 1939 में इसका संस्करण प्रकाशित हुआ। इस किताब में नस्ल के आधार पर देश, राष्ट्र, धर्म, संस्कृति, भाषा आदि को व्याख्यायित किया गया।
'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की मूल समस्या है धर्म और अध्यात्मवाद के साथ साहित्य, कला, राजनीति, इतिहास आदि को जोड़कर देखना। जबकि यह वह नजरिया है जिसके आधार पर साहित्य और कलाओं को सही ढंग से समझा ही नहीं जा सकता। इससे भी बड़ी बात यह कि धर्म या नस्ल के आधार पर साहित्य और कलाओं की भूमिका को सही रुप में परिभाषित ही नहीं कर सकते। इसका प्रधान कारण है साहित्य और धर्म की प्रकृति का मूल अंतर। धर्म में मनुष्य को आगे की दिशा में बदलने की क्षमता ही नहीं, जबकि साहित्य और कलाओं में मनुष्य में सांस्कृतिक तौर पर प्रगतिशील मूल्य पैदा करने की क्षमता है। धर्म में निजी संरचना में सतही परिवर्तन करने की क्षमता है लेकिन मूलगामी परिवर्तन की इच्छाशक्ति नहीं है।
'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' जातीयता की धारणा का निषेध करता है। भाषावार राज्यों के गठन को गलत मानता है। वैसी अवस्था में जातीय भाषा, जातीय साहित्य, भारतीय साहित्य और विश्व साहित्य की अवधारणाएं एक सिरे से अप्रासंगिक हो जाएंगी। 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' असंभव सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक विनिमय है। उनके यहाँ हर चीज संभव से आरंभ होती है, लेकिन असंभव और अनिश्चितता में रुपान्तरित हो जाती है। इसके कारण इसमें वर्णित किसी भी विचार या व्यवहार का विनिमय नहीं कर सकते। फलत: इसका तथ्यों, आचार-विचार, परंपरा, संस्कृति, राजनीति आदि के साथ किसी भी किस्म का विनिमय नहीं कर सकते। साथ ही यथार्थ के साथ भी विनिमय नहीं कर सकते। बल्कि यह कहें तो ज्यादा सही होगा कि 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' में जो हर चीज अनिश्चित और जड़ है। इसमें वर्तमान जगह के लिए तो कोई जगह ही नहीं है इसलिए इसकी वैधता की किसी भी रुप में पुष्टि नहीं कर सकते। वह ऐसे यथार्थ को पेश करता है, जिसको पुष्ट करना संभव नहीं है। वह ऐसी धारणा है जिस पर बहस नहीं हो सकती, आप इसे मानें या खारिज करें।
'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' ऐसी अवधारणा है जिसके बदले में विनिमय करके आप कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते। इस तरह की अनेक धारणाएं प्रचलन में हैं उनका विनिमय करना मुश्किल है। 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की हिमायत में जो लोग बोल रहे हैं उनसे सवाल करें कि जीवन या समाज पर किसका शासन होगा? धर्म का शासन होगा या विज्ञान का शासन होगा? इसी तरह कलाओं पर किसका असर होगा धर्म का असर होगा या विज्ञान असर होगा? यह भी ध्यान रखें की चंद प्रतीकों और चिन्हों के ज़रिए भी 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' का विनिमय नहीं कर सकते।
कोई भी सिस्टम अपना विकास तब ही कर पाता है जब वह समानता के आधार पर अपना विनिमय करें और उसके अपने मूल्य हों।इस तरह के सिस्टम के तदर्थ और स्थायी मकसद भी होते हैं। जिसके कारण उनका तयशुदा विलोम या विरोध भी होता है। जैसे अच्छा-बुरा, सत्य-असत्य, सब्जेक्ट-ऑब्जेक्ट आदि। लेकिन 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के पास कोई सुचिंतित धारणा या सिस्टम की समझ नहीं है। 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' वस्तुत: आधारहीन विभाजक विचारधारा है। इसके पास सामाजिक यथार्थ और अंतर्विरोधों को देखने की क्षमता नहीं। लेकिन वह यथार्थ को विभ्रम में बदलने की क्षमता जरुर रखता है। यह मूलत: डिसरप्टिव व्यवस्था तोड़क विचारधारा है। अराजकता इसकी मूल आत्मा है। इसमें कोई चीज स्थिर नहीं रह सकती। भिन्नता और वैविध्य के साथ इसका वैचारिक अन्तर्विरोध है। मुश्किल यह है कि जनता के जिस हिस्से पर टिकी है वह जनता अनालोचनात्मक है।
'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के तर्क हमेशा यथार्थ के किसी न किसी कोण से शुरु होते हैं, उसके आधार पर यह आभास पैदा करने की कोशिश करता है कि वह वैध अवधारणा है लेकिन वे यह भूल जाते हैं इस अवधारणा के आधार पर विनिमय नहीं हो, सकता, आधुनिक समाज नहीं बनाया जा सकता। कोई भी नई चीज या संरचना बना नहीं सकते। क्योंकि इस धारणा का विनिमय मूल्य नहीं है। यह नपुंसक धारणा है। यह धारणा कृत्रिम रुप से बंधक यथार्थ के तहत ही अपनी वैधता का ढोल बजाती है। 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के मौजूदा प्रचार अभियान ने बड़े पैमाने पर 'अनक्रिटिकल जनता' तैयार की है। 'क्रिटिकल जनता' घटी है। खासकर सूचनावर्षा ने सूचना का बेतहाशा कचरा समाज में फेंका है। यही सूचना कचरा बड़े पैमाने पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ने इस्तेमाल किया है। सूचना कचरे के रुप में तौर पर जो विषय सामने आए हैं वे हैं - मुस्लिम तुष्टीकरण, भ्रष्टाचार, नैतिक-अनैतिक, सामान्य-असामान्य, छद्म धर्मनिरपेक्षता, हिन्दुत्व, आरक्षण, जाति द्वेष, बीफ या गोमांस आदि। यही वह कचरा है जिसने 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' का परिवेश निर्मित किया है। फलत: 'सूचना क्रांति' और 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' में हम गहरा याराना भी देखते हैं, मीडिया के साथ गहरी मित्रता भी देखते हैं।
'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' ने 'अन्य' या हाशिए के लोगों के प्रति शत्रुता या बदलने की भावना को नई बुलंदियों तक पहुँचाया है। बहुलतावाद पर हमले किए गए हैं। अकल्पनीय सामाजिक अव्यवस्था और अशांति की नींव रखी है। 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की मूल विशेषता है कि इसके पास मित्र कम और अपने निजी शत्रु ज्यादा हैं। इसके आधार पर वे सामाजिक व्यवस्था को ही नहीं बल्कि राजनीतिक व्यवस्था और बायलॉजिकल व्यवस्था को भी प्रभावित कररहे हैं।
दार्शनिक तौर पर 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' आइने में अपनी इमेज का गुलाम है। जिस व्यक्ति की इमेज को वे देखते हैं वे उससे भिन्न इमेज स्वीकार नहीं करते। वे आइने में हिन्दू देखते हैं या फिर धार्मिक पहचान को देखते हैं और उसी को पीटते हैं। इस क्रम में सद्भाव की इमेज का लोप हो जाता है। वे असल में आइने में हिन्दू इमेज देखते हैं तो उसी को दोहराते हैं। वे यही चाहते हैं कि आइने में जिस तरह के व्यक्ति की इमेज वे देखते हैं तो बाद में उसी इमेज को समाज में देखना चाहते हैं। यही अवस्था उनके सपने या यूटोपिया की है वे आइने में अपना जो सपना देखते हैं वही समाज में दोहराते हैं। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ने 'अन्य' को बड़े कौशल के साथ अपने सार्वजनिक विमर्श में गायब किया है। अन्य या हाशिए के सवाल कहने को चर्चा में हैं, लेकिन अर्थहीन और निष्प्रभावी होकर रह गए हैं। हमने आरक्षण, दलित साहित्य, स्त्री साहित्य आदि के बहाने हाशिए के लोगों के जीवन के सारवान रुप को गायब ही कर दिया। अब हाशिए के लोग हैं उनके सवाल भी हैं लेकिन सब सारहीन हैं। हाशिए के आदमी का विध्वंस कैसे हुआ? वह गायब कैसे हुआ? यह कोई नहीं जानता। आज स्थिति यह है कि दलित अरबपति हैं, करोड़पति हैं, लेकिन परिदृश्य से दलित गायब है। कहीं पर कोई विजुअल तक नज़र नहीं आता। चारों ओर औरतें ही औरतें हैं लेकिन उनके सवाल गायब हैं, औरत की यथार्थ अनुभूति गायब है। अब दलित, औरत, मुसलमान, आदिवासी लाक्षणिक रुप से ही बचे रह गए हैं। वास्तव रुप में हम उनको कहीं पर नहीं देख रहे। यथार्थ में उनका चारों और संकुचन हुआ है।
अब हम प्रतिकृतियों के युग में आ गए हैं। प्रतिकृतियों के रुपों पर इंकार बहस कर रहे हैं। इस क्रम में लिंगभेद और जातिभेद के सवालों को हमने आरक्षण के ज़रिए अपदस्थ कर दिया है। अब जब भी बहस होती है आरक्षण पर होती है लिंगभेद या जातिप्रथा पर बहस नहीं होती। तात्कालिक समाधानों पर बहस होती है दीर्घकालिक समाधानों पर बहस नहीं होती। इस तरह की बहसों से सामाजिकचेतना निर्मित नहीं होती, वायवीय सचेतनता पैदा होती है, जो अंतत सचेत रखती है। मसलन्, स्त्री, मुसलमान और दलित के पक्षधर अधिकांश लेखक अंतत: वही बने रहते हैं जो वे हैं। वे यथास्थिति बनाए रखते हैं। यही वजह है कि बड़े पैमाने पर स्त्री और दलित साहित्य प्रकाशित हुआ है, लेकिन सामाजिक स्थिति में मूलगामी बदलाव नहीं हुआ है। यह ऐसा साहित्य है जो स्त्री-दलित चेतना तो देता है लेकिन मनुष्य का समग्र भावाबोध पैदा नहीं करता। इस अर्थ में यह अनुत्पादक साहित्य है। अब स्त्री-पुरुष के शरीर को लिंग (जेण्डर) ने अपदस्थ कर दिया है। इसे कामुक भूमिका के प्रगतिशील रुप के तौर पर व्याख्यायित किया जा रहा है। यह असल में लिंगक्षय है। यह लिंग के सवालों का अंत है। यह स्त्री-पुरुष की समानता का अंत है। इन दोनों के भेद अब अ-भेद में रुपान्तरित हो गए हैं। अब दोनों ही लिंग या हाशिए के लोग आत्म-प्रसिद्धि में लगे हैं, इसने लिंगभेद या सामाजिक भेद के रुपों को अप्रासंगिक बना दिया है। अब लोग कह रहे हैं लिंगभेद, जातिभेद, धर्मभेद को भूल जाओ और सि$र्फ विकास की बात करो। विकास होगा तो सभी िकस्म के भेद खत्म हो जाएँगे। यह असल में स्त्री, पुरुष, दलित, मुसलमान आदि को वायवीय बना देने का मार्ग है जिस पर हम सब आरक्षण, विशिष्ट साहित्य रुप और भिन्न यथार्थ के नाम पर चल निकले हैं।
स्त्री-पुरुष दोनों एक दूसरे की आँखों में आँखें डालकर देख रहे हैं। यह सामान्य भाव है। इसके ज़रिए हमारे सामयिक नैतिक और सांस्कृतिक मूल्य अभिव्यक्त हो रहे हैं। हम सच्ची आँखों से छद्म को देख रहे हैं, सुंदर आँखों से गंदी या घटिया चीज को देख रहे हैं, सुंदर आँखों से शैतान या गुंडे को देख रहे हैं। यह वाइस वर्सा भी हो सकता है। वे एक-दूसरे को देख रहे हैं। इस प्रक्रिया में 'अन्य' भिन्न किस्म से चीज़ें ग्रहण कर रहा है। दोनों के साथ भेदभाव हो रहा है और दोनों ही 'शार्टकट' मार रहे हैं। वे संचार जहाज़ की तरह कम्युनिकेट कर रहे हैं। यह संचार का वह रुप है जो हम फेसबुक, चैटिंग, एसएमएस आदि के रुप में नज़र आता है। यह वह कम्युनिकेशन है जिसने लिंगभेद और जातिभेद के सवालों पर बहस का अंत कर दिया है। अंतक्र्रिया और विनिमय की संभावनाएं नष्ट कर दी हैं। यही वह बृहत्तर प्रक्रिया है जो हमें अनक्रिटिकल जनता बना रही है और हमें 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' का सहज निशाना भी बना रही है।



संपर्क - जगदीश चतुर्वेदी (कलकत्ता) - 09331672360

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