कविता
समूह नृत्य
भीमबैठका की चट्टान को देख रहा हूँ समूह नृत्य उकेरा गया है जिसकी बाँह नृत्य-चित्र को निहारने से नाचने लगती है पूरी चट्टान नृत्य में जीवन का कितना जादू है जीवन में नृत्य भी जादू ही है नाचते हुए हम देह में रहकर भी हो जाते हैं देह के पार नृत्य ही संभव कर सकता है यह देह में रहते हुए हो जाना देह से परे
मोहाविष्ट निहारता रहा काफी देर फिर धन्यवाद में चट्टान के कान में बुदबुदाता हूँ: जहां भी नृत्य देखता हूँ रीझ जाता है मेरा आदिवासी मन!
आज बारिश ने
भीमबैठका की चट्टानें बादलों की बेटियाँ हैं इसीलिए बारिश कभी इनका घर नहीं बिगाड़ती
झमाझम बारिश हो रही है पानी चट्टानों को चूमता है: गहरे आवेग और अपने द्रव-होंठ से
भीतर तक चट्टानें भीग रही हैं पा कर मीठा-तरल प्यार आज बारिश ने अपने संगीत से चट्टानों को इतना नहलाया कि चट्टानों की सारी झुर्रियाँ हवा हो गयी हैं
सूखे पत्ते
भीमबैठका में सूखे पत्ते अपनी हरियाली की स्मृति में धड़कते हैं
दो चट्टानों के बीच सूखे पत्ते खाली नहीं बैठे हैं हवा से अपने संवाद लिख रहे हैं
अँजोरपूरित रात में अपनी टहनी की याद लिख रहे हैं
सूखे पत्ते हरियाली के लिए नहीं अपने संगीत के लिए जाने जाते हैं धोखे से भी पाँव पड़ जाये तो सूखे पत्ते सारा जंगल जगा देते हैं
पसीना
विचित्र न हों हम इसीलिए भीमबैठका के चित्र हैं उकेरे हुए हमारे पूर्वजों के
इसी तरह अजन्ता-एलोरा और और भी कितना कुछ रचा-बचा हुआ
चित्रों में कितना विश्वास था हमारे आदि पूर्वजों को गूँथने के लिए अपने हृदय की धड़कनें
सदियों से चले आ रहे यह चित्र अकेले नहीं हैं इनके साथ चट्टान मन है गोधूलि की-बिहान की स्मृतियाँ हैं दोपहर-आधीरात की अनुभूतियाँ हैं
रक्षा के लिए चित्र में ही बरछी-भाला, धनुष-तीर लिए प्रहरी हैं। रंग गुडाकेश हैं।
इन बोलते रंगों में पत्थरों का भी पसीना लगा हुआ है
शिलान्यास
जहाँ रंगों और रेखाओं का शिलान्यास है जहाँ रंगों में मन का खनिज रचा हुआ है जहाँ रेखाएँ और रंग अपने समय का सारांश जी रहे हैं जहाँ चट्टानें सपने देखती हैं जो रंग और रेखाओं के रूप में जीवन बोलते रहते हैं
जहाँ अपने समय को पीसकर- पकाकर शैलचित्र बना दिया गया है
वह भीमबैठका है इन शैलचित्रों को निहार तारीखों की आँखें खुली की खुली रह जाती हैं।
प्रेमशंकर शुक्ल भारत भवन से सम्बद्ध हैं और पूर्वग्रह के संपादक हैं। कविताएं दूसरी बार प्रकाशित। |