'फ़िराक़' हूं मैं न 'जोश' हूं 'मजाज़' हूं मैं सरफ़रोश हूं

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    नवम्बर 2016
श्रेणी पहल विशेष
संस्करण नवम्बर 2016
लेखक का नाम राजकुमार केसवानी





पहल विशेष/उर्दू रजिस्टर





 


कहते हैं  'इस दुनिया में हर इंसान ख़ाली हाथ आता है और ख़ाली हाथ जाता है।' कितनी अजीब सी बात है कि ज़माने ने इस बात को इंसानी वजूद का सबसे अहम जुमला मान रखा है। सोचता हूं इतने बड़े इंसानी नक्शे में, कहने वालों को सिर्फ हाथ ही क्यों नज़र आया ? सपने देखने वाली आंखें नज़र क्यों नहीं आईं? पूरे इंसानी वजूद में सबसे आला मकाम पर बैठा दिमाग़ नज़र क्यों नहीं आया? उस दिमाग़ में पैदा होते सवालों का ख़याल क्यों नहीं आया? यह भी तो एक सवाल ही है।
मैं जानता हूं कि इस दुनिया में इंसानों के पास जितने सवाल हैं इस दुनिया के कारीगरों ने उससे कहीं ज़्यादा जवाब ईजाद कर रखे हैं। एक सवाल करो तो फ़ौरन दस दिशाओं से दस जवाब सामने आ खड़े होते हैं। दर हक़ीक़त, जवाब के जामे में वो भी सवाल ही होते हैं, फिर भी वो जवाब ही होते हैं। 
आख़िर इस दुनिया में एक सवाल के कितने जवाब हैं? ...आसमान में मौजूद तारों जितने? फिर सवाल आता है कि आख़िर आसमान में तारे कितने हैं? ...या...या...या फिर हमारे सारे सवालों के असल जवाब ही इन तारों में छिपे हैं? और अगर ऐसा है तो सोचता हूं मेरे सवालों के जवाब किस तारे के पास हैं? हर एक सवाल के जवाब में एक नया सवाल तो पैदा हो जाता है लेकिन जवाब न जाने किस जगह बैठा अपनी हस्ती पर इतराता रहता है।
अपनी उम्र के तमाम बरस, इसी तरह के बेवक़ूफी से लदे सवालों के साथ पहरों आसमान में टंगे इन तारों को घूरता रहा हूं। जवाब तो क्या ही मिलना था अलबता टिम-टिम कर मुस्कराते तारों को देखते-देखते अपने सवालों को भूल जाता हूं और थक-हार कर तारों के साथ ही ख़ुद भी मुस्कराने लगता हूं। फिर हौले-हौले तारे भी गुम होने लगते हैं। उजाला फैल जाता है। उजाले के साथ ही एक बार फिर सामने होती है दुनिया और इस दुनिया के सवाल। हर दौर के का यही मसला है।
ऐसे ही किसी गुज़रे वक़्त में, एक शख़्स हज़ारों सवालों के काफिले के साथ इस ज़मीन पर यहां से वहां और कहां से कहां भटकता रहा। उसके सवालों के बदले हर बार उसे नए सवाल थमा दिए जाते। वह शायर था। निहायत जज़्बाती इंसान था। था बड़ा जंग-जू, मगर था तो इंसान ही। लिहाज़ा वो आसमानों की बेरुख़ी से हारकर ख़ुद से ही सवाल करता था -

ऐ ग़मे दिल क्या करूं?
वहशते-दिल क्या करूं?
क्या करूं? / क्या करूं? / क्या करूं? 

दिल ने कहा - मियां, जवाब तो नहीं है, शराब है। सो बस, उसी को जवाब मानकर उसे ही गले लगा लिया।
यह शख़्स था मजाज़। असरार-उल-हक़ 'मजाज़'। हिंदुस्तानी शायरी का शहज़ादा जिसे उर्दू का कीट्स कहा गया। मगर यह मजाज़ था कौन? मैं आपसे कसम खाकर कहता हूं कि मैं ख़ुद बरसों से इस सवाल को सीने में लिए भटक रहा हूं। कौन था यह मजाज़?
ख़ुदा के वास्ते मुझ पर इसलिए न हंसे कि इसे इतना भी पता नहीं कि मजाज़ कौन है। और उसी के साथ यह भी गिनवा दें कि जनाब, मजाज़ फलां तारीख़, फलां जगह पैदा हुए थे और बड़े अज़ीम शायर थे। इस पर मेरा जवाब होगा कि इसे अगर आप मेरे सवाल का जवाब मानते हैं तो अर्ज़ है कि इस आम से जवाब में एकाध माशा और जोड़कर मैं आपको सुनाए देता हूं। लेकिन इस गुज़ारिश के साथ कि इस सवाल को ज़रा और गहराई से सोचें तो हो सकता है आपको कई सारे न पूछे हुए सवालों के जवाब भी ख़ुद-ब-ख़ुद मिल जाएं। मगर इन जवाबों में मेरा जवाब शामिल नहीं है।
मजाज़ की बात शुरू करने से पहले निहायत ज़रूरी है कि आपको याद दिला दूं कि हमारे दौर का एक बड़ा तबका इस ख़ूबसूरत शायर को अक्सर उसकी एक बेहद मक़बूल नज़्म से पहचानता आता है। पिछले कोई 63 बरस से यह एक फिल्मी गीत की शक्ल में उसकी पहचान का परचम बनकर एक बलंद मकाम पर लहराता रहता है। यह गीत है 'ऐ ग़मे-दिल क्या करूं' असल में मजाज़ की नज़्म 'आवारा' के दो अंतरे भर हैं। इसे फिल्म 'ठोकर'(1953) के लिए संगीतकार सरदार मलिक ने कम्पोज़ किया है। तलत महमूद ने असल में और शम्मी कपूर ने पर्दे पर गाया है।
कहते हैं कि मजाज़ ने बम्बई के मरीन ड्राईव पर रात में तन्हा फिरते हुए यह नज़्म लिखी थी। मुझे तो इस नज़्म का हर लफ्ज़ अपने दिल के की-बोर्ड की रीड की तरह लगता है। ज़रा सा छू लो तो दिल से एक सदा सी गूंज जाती है। ख़ास कर तब जब शायर कहता है 'ग़ैर की बस्ती है, कब तक दर-ब-दर मारा फिरूं'। ये मेरे मरने का मकाम है। लेकिन उफ्फ ये बे-ग़ैरती! मर-मर के भी इस तरह जीना सिखा देती है कि मानो कभी मरे भी न थे।

रात हंस-हंसकर ये कहती है कि मैख़ाने में चल
फिर किसी शहनाज़े-लालारुख़ के काशाने में चल
ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल

इक महल की आड़ से निकला वो पीला माहताब (चांद)
जैसे मुल्ला का अमामा(पगड़ी), जैसे बनिए की किताब
जैसे मुफलिस की जवानी, जैसे बेवा (विधवा) का शबाब
ऐ ग़मे दिल क्या करूं, ऐ वहशते दिल क्या करूं?

आपने देखा कि मजाज़ का चांद पीला है। ज़र्द है। महल की आड़ से निकला वो पीला माहताब! 
अब हक़ तो यह है कि आगे बिना एक लफ्ज़ दाएं-बाएं किए मजाज़ की असल बात पर आ जाऊं। उतर प्रदेश के ज़िला बाराबंकी के एक कस्बे रुदौली में 19 अक्टूबर 1911 को पैदाइश। तमाम बच्चों की तरह मां-बाप की ज़िद के आगे सर झुकाकर स्कूल जाना पड़ा। पढ़ते-पढ़ाते अलीगढ़ यूनीवर्सिटी भी पहुंच गए।
मजाज़ के पिता सिराज-उल-हक़, लखनऊ के नज़दीक एक कस्बे रुदौली के बड़े रुत्बे वाले ज़मींदार थे। पढ़े-लिखे इंसान थे सो पलंग पर लेटकर हुक्का पीने की बजाय सरकारी नौकरी करते थे। सिराज साहब की औलादें तो बहुत हुईं लेकिन बचीं सिर्फ पांच औलादें : आरिफ़ा, सफ़िया, हमीदा, अंसार और इसरार। उन्होने अपनी इन औलादों को हर मुम$िकन बेहतरीन तरबीयत और बेहतरीन तालीम देने में कोई कसर न छोड़ी। बड़ी बेटी सफिया की शादी मशहूर शायर जां निसार अख़्तर से हुई और इन दोनो की दो औलादें जावेद अख़्तर और डाक्टर सलमान अख़्तर हैं। बेटे असरार-उल-हक़ 'मजाज़' को बेहतर से बेहतर तालीम देने की कोशिश की। इसी कोशिश के नतीजे में मजाज़ स्कूल से होकर अलीगढ़ यूनीवर्सिटी तक जा पहुंचे। एमए कर रहे थे तभी दिल्ली में 'आवाज़' नाम की एक पत्रिका के असिस्टेंट एडीटर की नौकरी मिल गई। आल इंडिया रेडियो की इस पत्रिका में वे महज़ एक साल ही काम कर पाए।
असल में अलीगढ़ पहुंचते-पहुंचते ही मजाज़ शायरी की मुहब्बत में गिरफ्तार हो चुके थे और शेर कहने लगे थे। 1929 में उनका परिवार आगरा में था और वहीं सेंट जान्स कालेज में उनका दाख़िला हुआ। तब उनका घर वहां 'हींग की मंडी' में था जहां मशहूर शायर फ़ानी बदायूनी उनके पड़ोसी थे। जज़्बी और आले अहमद सुरूर कालेज के साथी। यहां के माहौल ने जादू सा असर किया। शेर तो पहले से ही कह रहे थे मगर उस पर रंग आया यहां अलीगढ़ में। और क्यों न हो। जब ' मरने की दुआएं क्यों मांगू, जीने की तमन्ना कौन करे / ये दुनिया हो या वो दुनिया, अब ख़्वाहिश-ए-दुनिया कौन करे' जैसी ख़ूबसूरत ग़ज़लें कहने वाले शाइर मोईन एहसन जज़्बी जैसे दोस्त मिले। उस वक़्त जज़्बी 'मलाल' और मजाज़ 'शहीद' तख़ल्लुस इस्तेमाल करते थे।
और अब जो मजाज़ हुए तो उनकी शायरी में प्रगतिशीलता का वह रंग आया कि 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ का गठन हुआ तो मजाज़ की शायरी को एक मिसाली शायरी माना गया।
मजाज़ को बड़ी कम मुहलत मिली थी इस दुनिया में जीने की। कुल जमा 44 साल। कितनी अजीब बात है दुनिया के तमाम अच्छे और सच्चे लोग इसी तरह जाते हैं। मसलन सआदत हसन मंटो - 43 साल, शिव कुमार बटालवी 37 साल, महान रूसी लेखक चेख़व 44 साल, निकलई गोगोल 43 साल, अंग्रेज़ी का प्रसिद्ध कवि शैली - 33 साल, रूमानी कविता का शहज़ादा जान कीटस तो महज़ 25 साल ही जी पाया।
मजाज़ उर्दू का कीट्स कहा गया। लेकिन हक़ीक़त यह है कि मजाज़ कीट्स की रूमानियत से बहुत आगे इंसानियत और मोहब्बत का पेरोकार बनकर उभरा था। ग़रीबों और लाचारों की आवाज़ बनकर उभरा था। तभी तो महात्मा गांधी जैसी शख़ि्सयत भी मजाज़ के हुनर पर फिदा हो गई।
फ़िदा तो उन पर अलीगढ़ की लड़कियां भी थीं, जो बकौल इस्मत चुग़तई मजाज़ के नाम के कुर्रे निकालकर उसके साथ जीने-मरने के सपने देखती थीं। मगर जब हक़ीक़त की धरातल पर बात आई तो मजाज़ की शायरी को ही अपना ईमान मानने वाली एक लड़की ने उसका दिल यूं तोड़ा कि फिर न जुड़ सका। वो एक बा-ज़र और बा-असर इंसान ने शादी करके उसकी हो गई और मजाज़ की शराफ़त ने उसे महज़ 'ज़ुहरा जबीं' बनाकर अपनी यादों में संजो लिया।
अक्सर मजाज़ की बात होती है तो वह दर्दो-ग़म और अफसोस के लहजे में की जाती है। लेकिन ख़ुद मजाज़ ने अपने अंदाज़ में इन बातों पर यह कहकर धूल डालने की कोशिश की : मेरी बरबादियों का हमनशीनों / तुम्हे क्या, ख़ुद मुझे ग़म नहीं है। लेकिन फिर भी उनके अज़ीज़ों, उनसे मुहब्बत करने वालों को इस बात का बहुत ग़म था।    
...मजाज़ की ज़िंदगी एक अधूरी ग़ज़ल थी। उसकी शायरी का सारा हुस्न उसके अधूरेपन में है। सन 1930 के आसपास शायरी के उफ़क पर एक सितारा जगमगाया लोगों ने हैरत और मसर्रत से उसकी तरफ़ देखा। लेकिन देखते ही देखते वो आसमान पर चांदी की एक लकीर बनाता हुआ गुज़र गया। मजाज़ तमाम उम्र अपने ज़ख़्मों से खेलता रहा। अपने ग़मों को शायरी में ढालता रहा।
ये अल्फ़ाज़ हैं मशहूर शायर सरदार जाफ़री के। सरदार जाफ़री आख़िर किन ज़ख़्मों की बात करते हैं जिनसे मजाज़ खेलता था। यह ज़ख़्म ज़माने के थे और ख़ासकर उस मुहब्बत के जिसके बिना मजाज़ को सारी ज़िंदगी बेमानी लगने लगी थी। एक नाकाम मुहब्बत के ज़ख़्म। लेकिन इस नाकाम मुहब्बत से भी ज़्यादा एक और जज़्बा था जो उसकी ज़िंदगी का एक बेहद अहम हिस्सा था। वह था समाजी जि़म्मेदारी और उसकी बेहतरी। उनमे समाज में फैली ग़ैर-बराबरी को लेकर ग़ज़ब की बेचैनी थी। इसी जज़्बे ने उन्हें एक इंक़लाबी बना डाला था। उन्होने जहां एक तरफ मज़दूरों और मज़लूमों की लड़ाई का परचम उठाया तो दूसरी तरफ अपनी कलम से वो नारे बुलंद किए कि जिनकी आवाज़ से बड़े-बड़े मज़बूत किलों की दीवारों में दरक आ जाती थी।

बोल! अरी ओ धरती बोल!
राज सिंहासन डांवा डोल
बादल, बिजली, रैन अंधियारी , दुख की मारी परजा सारी
बूढ़े-बच्चे सब दुखिया हैं, दुखिया नर है, दुखिया नारी
बस्ती-बस्ती लूट मची है, सब बनिये हैं, सब व्योपारी
बोल! अरी ओ धरती बोल!, राज सिंहासन डांवां डोल

शायरे इंक़लाब जोश मलीहाबादी 'यादों की बारात' में लिखते हैं; यह कोई मुझसे पूछे कि मजाज़ क्या था और क्या हो सकता था। मरते वक़्त तक उसका फ़क़त एक चौथाई दिमाग़ ही खुलने पाया था और उसका यह सारा कलाम उस एक चौथाई खुलावट का करिश्मा है। अगर वह अपने बुढ़ापे की तरफ आता तो अपने ज़माने का सबसे बड़ा शायर होता।
जिन लोगों ने मजाज़ की शायरी पढ़ी है, वो तमाम लोग जोश साहब की इस बात को ख़ुद भी इसी तरह महसूस करते होंगे। आप ज़रा देखिए तो सही यह इंसान कितनी तहों वाले नाज़ुक अहसासात और जज़्बात का मुजस्समा था जो एक लम्हे की किसी एक जुंबिश से न जाने कब और कैसे मोम की तरह बह निकलता था। और तब उस पिघले मोम से न जाने कितनी ख़ूबसूरत नज़्में और न जाने कितनी हसीन ग़ज़लें शक्ल इख्तियार कर लेती थीं।
मजाज़ की शायरी के जादू से तो महात्मा गांधी भी न बच पाए। मजाज़ की एक निहायत दिल छूने वाली नज़्म है 'नन्ही पुजारिन'  (नौजवान ख़ातून)। 1936 में लिखी गई इस नज़्म को एक बार उन्हें महात्मा गांधी की मौजूदगी में पढऩे का मौका मिला। उस वक़्त पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरोजिनी नायडू भी वहां मौजूद थे।

इक नन्ही मुन्नी सी पुजारन, पतली बाहें, पतली गर्दन
भोर भये मंदर आई है, आई नहीं है मां लाई है
वक्त से पहले जाग उठी है, नींद भी आंखों में भरी है
ठोड़ी तक लट आयी हुई है, यूंही सी लहराई हुई है
आँखों में तारों की चमक है, मुखड़े पे चांदी की झलक है
कैसी सुन्दर है क्या कहिए, नन्ही सी इक सीता कहिए
धूप चढ़े तारा चमका है, पत्थर पर एक फूल खिला है
चांद का टुकड़ा, फूल की डाली, कमसिन सीधी भोली-भाली
कान में चांदी की बाली है, हाथ में पीतल की थाली है
दिल में लेकिन ध्यान नहीं है, पूजा का कुछ ज्ञान नहीं है
कैसी भोली और सीधी है, मंदर की छत देख रही है
मां बढ़कर चुटकी लेती है, चुपके-चुपके हंस देती है
हंसना रोना उसका मज़हब, उसको पूजा से क्या मतलब
खुद तो आई है मंदर में, मन उसका है गुडिय़ा घर में।

इस घटना का बयान मजाज़ की तब की महबूबा और बाद को 'ज़ुहरा जबीं', के अल्फ़ाज़ में इस तरह मिलता है। आज मजाज़ बहुत ख़ुश है। महात्मा गांधी के सामने नज़्म सुनाने का मौका मिल गया। गांधी जी को 'नन्ही पुजारन' पसंद आई। जब मजाज़ ने नज़्म शुरू की - 'एक नन्ही सी पुजारन, पतली बाहें, पतली गर्दन' तो गांधी जी ने मजाज़ की तरफ़ देखा। इससे पहले वो (गांधी जी) ऐसे बैठे थे जैसे कुछ सोच रहे हों।
जब ये शेर सुना 'भोर भए मंदर में आई है, आई नहीं मां लाई है / तो मुस्कराए। और आख़िरी शेर पर तो बहुत ख़ुश हुए 'ख़ुद तो आई है मंदर में, मन है उसका गुडिय़ा घर में।'
मजाज़ के अंदर एक ऐसी बेचैनी, एक ऐसी बेताबी ने घर कर लिया था कि उसे किसी एक जगह चैन नहीं मिलता था। सो बस भटकन बनी ही रहती। लगातार नौकरी की कोशिशें नाकाम हुईं तो उस दौर के अनेक नामचीन शायरों की तरह फ़िल्मों में किस्मत आज़माने की सोची। वह भी अपने दोस्त साहिर लुधियानवी के साथ।
इस वक़्त इस हक़ीक़त को इस जगह दर्ज कर देना बेहद ज़रूरी हुआ जाता है कि साहिर मजाज़ के बाद वाली पीढ़ी के शायर थे और उनकी शायरी पर मजाज़ का रंग था। प्रसिद्ध शायर-फिल्म गीतकार हसन कमाल ने बरसों पहले एक इंटरव्यू में इस बात का ज़िक्र किया था कि साहिर साहब कहते थे कि 'मैंने जो शायरी की है, उसकी जड़ें फ़ैज़ और मजाज़ के यहां हैं।'
साहिर और मजाज़ को लेकर हज़ार दास्तानें, हज़ार किस्से हैं। इन तमाम किस्सों, इन तमाम दास्तानों में सबसे नुमाया चीज़ है - मुहब्बत। अगर शिकवे-गिले हैं तो वो भी इसी मुहब्बत का हिस्सा हैं।
साहिर लुधियानवी के नाम मजाज़ का एक ख़त है जिसमें इस बात का शिकवा था कि साहिर ने उसके बारे में लिख दिया था कि मजाज़ का दिमाग़ चल गया था और नतीजे में दो बार उसे पागलख़ाने जाना पड़ा था। इस बात ने मजाज़ के दिल को बड़ा गहरा सदमा पहुंचाया था। इस ख़त में इसी बात का शिकवा था कि साहिर जैसे अज़ीज़ दोस्त ने उनके नर्वस ब्रेक डाऊन को 'पाग़ल' होना क्यों क़रार दे दिया? 
मजाज़ जिस वक़्त दिल्ली की नौकरी छूटने के बाद किस्मत आज़माने बम्बई पहुंचे, साहिर भी उसी वक़्त इसी किस्म की जद्दो-जहद में उलझे थे। लेकिन इन दोनो की कोशिश में एक फ़र्क था - मुस्तकिल मिजाज़ी का। जहां साहिर बम्बई में जमकर संघर्ष कर रहे थे वहीं मजाज़ 'रास्ते में रुक के दम' लेने वालों में से थे ही नहीं सो बम्बई आते-जाते रहते थे लेकिन उसे कभी अपना घर न बनाया।
एक और बेहद ज़रूरी नुख़्ता : मजाज़ जिस वक़्त फिल्मों को अपने लिए ज़रिया-ए-माश बनाने की कोशिश कर रहे थे, उसी वक़्त इंसानी ज़िंदगी की बेहतरी के काम में भी बराबरी से मुब्तला रहे। मजाज़ का एक तरीका यह था कि बम्बई में साहिर की मुहब्बत में उनके साथ रह लेते थे, कुछ वक़्त गुज़ार लेते थे तो अपने वक़्त का एक बड़ा हिस्सा वो मज़दूरों की मदनपुरा बस्ती में महफ़िल सजाते। इंक़लाब की अहमियत बताते और उनमें इस वास्ते जज़्बा जगाते। नाचते-झूमते-गाते और रात में कम्यूनिस्ट पार्टी के दफ़्तर में जाकर सो जाते।
इसी दौर का एक बेहद मशहूर किस्सा है, वह ज़रूर सुनाऊंगा। इस बहाने मजाज़ के हालात को लेकर दिल पर चली आरियों के ज़ख़्म कुछ देर को थम जाएंगे। कुछ देर मुस्कराएंगे।
साहिर-मजाज़ के करीबी दोस्त प्रकाश पंडित का बयान किया हुआ किस्सा यूं है। एक फिल्म निर्माता होते थे पी.एन.अरोरा। वे एक फिल्म बना रहे थे 'हूर-ए-अरब'(1955 में रिलीज़)। उन्होने इस फिल्म के गीत लिखने के लिए साहिर-मजाज़ को बुलाया हुआ था। अब इनकी बारी आती उससे पहले अभिनेत्री हेलन, जो उस वक़्त अरोरा के जाल में फंसी हुई थीं और इस फिल्म में भी काम कर रही थीं, का आना हुआ। वे सीधे अरोरा के चैंबर में घुस गईं और ये दोनो गर्मीं में पसीना बहाते बाहर बेंच पर बैठे इंतज़ार करते रहे।
इसी बीच एक साहब, इस मंज़र में नमूदार हुए, जिन्होने यह मुलाक़ात तय करवाई थी। छूटते ही सवाल किया कि मुलाक़ात हुई कि नहीं। साहिर ने जब ना में जवाब दिया तो फिर नया सवाल आया - क्यों?
इस बार जवाब मजाज़ ने, मजाज़ वाले अंदाज़ में ही दिया। चेहरे से पसीना पोंछकर फैंकते हुए फ़रमाया: ''हुज़ूर इसलिए कि हूर तो कब से अन्दर है और हम बाहर अरब में बैठे पसीना बहा रहे हैं''
एक बात बेहद काबिले ज़िक्र है। मजाज़ की दर्दो-ग़म से भरी और नतीजतन शराबनोशी के समंदर में डूबी ज़िंदगी का एक हसीन पहलू यह है कि इन हालात के बावजूद हंसना-हंसाना कभी न भूले। उनका सा सेंस आफ ह्यूमर विरले लोगों में ही हो सकता है। मजाज़ के इस पहलू को याद करता हूं तो यक-ब-यक मिर्ज़ा ग़ालिब और उनकी चिमगोइयां याद आती हैं।
एक मिसाल -  मजाज़ एक बार रात में एक बाज़ार से अकेले ही टहलते हुए गुज़र रहे थे। अचानक ही उनकी नज़र एक दुकान के बाहर निकले लकड़ी के पटियों पर पड़ी, जिस पर एक शायर 'सोज़ शाहजहांपुरी' बैठे हुए थे। जिस दुकान के बाहर वो बैठे थे ठीक उसी के ऊपर दुकान का बोर्ड लगा था - 'चीप शू स्टोर'। मजाज़ की नज़र दोनो पर एक साथ पड़ी, उन्होने एक नज़र ऊपर डाली और फिर सोज़ साहब की की तरफ मुखातिब होकर बड़े चुहल भरे अंदाज़ में कहा - 'मियां! आप अभी तक नहीं बिक पाए?'
बकौल प्रकाश पंडित मजाज़ महफिलों में जो फुलझडिय़ां छोड़ते थे सो तो ठीक लेकिन राह चलते भी लोगों से छेड़ की आदत कम न थी। एक बार एक तांगे को रोककर, तांगे वाले से बोला, 'क्यों मियां, कचहरी जाओगे?' तांगे वाले ने सवारी मिलने की आशा से प्रसन्न होकर उत्तर दिया, 'जाएंगे साब।' 'तो जाओ' मजाज़ कहकर अपने रास्ते पर हो लिया।
और वो मटके वाली बात। किसी ने एक बार मजाज़ को समझाया कि वो अपनी शराबनोशी पर काबू पाने के लिए एक तयशुदा वक़्त में घड़ी सामने रखकर एक तयशुदा मिक़दार में शराब पीना शुरू करें। मजाज़ का जवाब था कि जोश तो घड़ी सामने रखकर शराब पीते हैं, मेरा बस चले तो मैं घड़ा सामने रखकर पिया करूं।  
न जाने कितने कितने किस्से, न जाने कितनी कहानियां। सब कह भी डालूं तो मजाज़ की बात कभी पूरी न हो सकेगी। सो बेहतर है कि उनके फ़िल्मी दुनिया वाले किस्से को ही पूरा कर लूं।
बहरहाल, 'अरब की हूर' के गीत आख़िर शकील बदायूनी के हिस्से में आए। और मजाज़-साहिर लौट के घर को आए। 
साहिर के दिल में मजाज़ के लिए एक गहरी अक़ीदत का जज़्बा था। वो अपने इस जज़्बे को मजाज़ पर एक फिल्म की शक्ल में दुनिया के सामने पेश करना चाहते थे, लेकिन वह हो नहीं पाया। इस सबके बावजूद मजाज़ का नशा, साहिर के दिल-ओ-दिमाग़ पर इस क़दर तारी था कि वो अक्सर उनकी शायरी तक में छलक आता था।
फिल्म 'नया रास्ता'(1970) के लिए संगीतकार एन.दत्ता की धुन पर साहिर लुधियानवी का लिखा मुहम्मद रफी का गाया एक गीत है - 'मैने पी शराब, तुमने क्या पिया? आदमी का ख़ूं...'। दरअसल एक ज़माने में बेहिसाब शराब पीने के ताने सुनकर मजाज़ ने यह जवाब दिया था। इसी को साहिर ने अपने गीत में इस्तेमाल कर लिया।
इसी तरह राजेंद्र कृष्ण ने भी मजाज़ की एक बेहद मक़बूल और ख़ूबसूरत नज़्म का सहारा लेकर एक गीत फिल्म 'माडर्न गर्ल'(61) के लिए रच लिया था 'नज़र उठने से पहले ही झुका लेती तो अच्छा था / तू अपने आप को पर्दा बना लेती तो अच्छा था'(रफी)। अब ज़रा एक मजाज़ का मायार देखिए। कहते हैं -

हिजाबे-फ़ित्रा-परवर अब उठा लेती तो अच्छा था
ख़ुद अपने हुस्न को पर्दा बना लेती तो अच्छा था
तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था

मजाज़ की मौत के कोई दस साल बाद ख़्वाजा अहमद अब्बास ने अपनी फिल्म 'आसमान' में उनकी रचना 'मजबूरियां' को इस्तेमाल किया है। संगीतकार जे.पी.कौशिक ने, महज़ महेंद्र कपूर और विजया मजुमदार की आवाज़ों का इस्तेमाल किया है और बताया है कि शायरी में दम हो तो हज़ार साज़ों की बैसाख़ी की ज़रूरत नहीं पड़ती। सुन देखिए -

मैं आहें भर नहीं सकता कि नग़मे गा नहीं सकता
सुकूं लेकिन मिरे दिल को मुयस्सर आ नहीं सकता
न तूफ़ां रोक सकता है न आंधी रोक सकती है
मगर फ़िर भी मैं उस कस्रे-हसीं तक जा नहीं सकता
वो मुझको चाहती है और मुझ तक आ नहीं सकती
मैं उसको पूजता हूं और उसको पा नहीं सकता
ये मजबूरी सी मजबूरी, ये लाचारी सी लाचारी
कि उसके गीत भी जी खोलकर मैं गा नहीं सकता

फ़िल्मी दुनिया ने मजाज़ की चाहे जितनी नाक़द्री की हो, उसकी शायरी के ताब से वे कभी बच नहीं पाए। गुरूदत की महान फिल्म 'प्यासा' (1957) में घोष बाबू (रहमान) के घर दावत चल रही है और दावत में मुशायरा। उस मुशायरे में जिन दो शायरों के केरेक्टर इस्तेमाल किए गए हैं। उनमे से पहले हैं मजाज़ और दूसरे हैं जिगर मुरादाबादी। इन दो के बाद आते हैं विजय (गुरू दत्त) जो साहिर का लिखा गीत गाते हैं : जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला / हमने तो जब कलियां मांगीं, कांटो का हर मिला।
मजाज़ और जिगर को वहां कलाम पढ़ते हुए दिखाया गया है. मजाज़ कहते हैं-

रूदादे-ग़मे उल्फ़त उनसे, हम क्या कहते, क्योंकर कहते
इक हर्फ न निकला होंठों से और आंख में आंसू आ भी गए
उस महफ़िले कैफ-ओ-मस्ती में, उस अंजुमन-ए-इरफ़ानी में
सब जाम बक़फ़ बैठे ही रहे, हम पी भी गए, छलका भी गए।

और जिगर साहब ने फ़रमाया :

काम आख़िर जज़्बा-ए-बेइख़ि्तयार आ ही गया
दिल कुछ इस सूरत से तड़पा, उनको प्यार आ ही गया।
 
जो लोग मौत को ज़िन्दगी का आख़िरी मरहला मानते हैं, उनकी ख़िदमत में अपने अज़ीज़ दोस्त इजलाल मजीद का एक शेर नज़र करता हूं :
कोई मरने से मर नहीं जाता
देखना वो यहीं कहीं होगा।

माज़ी के न जाने कितने सिकंदराना और न जाने कितने कलंदराना नाम लेकर आपको इस बात का कायल कर सकता हूं कि देखिए किस तरह ये तमाम हस्तियां हज़ारहां साल से आज के ज़िंदा लोगों से ज़्यादा ज़िंदा हैं. आंख से ओझल और दिल में हाज़िर किरदारों में मेरे लिए एक किरदार मजाज़ का भी है।
आसमानों पर जा बैठे इंसानों की बात करना हो तो इन्द्र धनुष के झूले, जिसे साहिर ने 'झूला धनक का' कहा है,  उसकी सवारी सबसे ज़्यादा मुफ़ीद है। मजाज़ भी आसमान पर है। धरती पर था तो वह धरती के आम इंसानों की तरह जीता था सो उसे पहचानना ज़रा मुश्किल था। अब जो आसमां पर हैं तो उसकी ऊंचाई का अहसास भी हो जाता है।
धरती पर एक शहर है लखनऊ। इस लखनऊ में एक जगह है अमीनाबाद। इस अमीनाबाद में टोपियों की एक दुकान थी - नेशनल कैप हाऊस। इस जगह के बारे में रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' ने लिखा है कि शहर के काफ़ी हाऊस के अलावा यह दूसरी जगह थी जहां शहर के नौजवान मिल-बैठते और सोचते थे कि किस तरकीब से इस दुनिया का पुराना ढर्रा बदला जाए। कैसे नाइंसाफी के निज़ाम को इंसाफ़ में बदला जाए। इन नौजवानों में सबसे नुमाया आवाज़ होती थी मजाज़ की।
मजाज़ की फिक्र में मज़दूर की फिक्र थी। बेघर ख़ाना बदोशों की फिक्र थी। ग़रीबों की बहबूदी और मुल्क के अमनो-अमान की फिक्र थी।

गो आफत-ओ-ग़म के मारे हैं
हम ख़ाक नहीं हैं तारे हैं
इस जग के राज दुलारे हैं
मज़दूर हैं हम, मज़दूर हैं हम (मज़दूरों का गीत)  

बस्ती से थोड़ी दूर, चटानों के दरमियां
ठहरा हुआ है ख़ाना बदोशों का कारवां
उनकी कहीं ज़मीन, न उनका कहीं मकां
फिरते हैं यूं ही शामो-सहर ज़ेरे आसमां (ख़ाना बदोश)

और जो मुल्क के ग़द्दारों ने महात्मा गांधी को क़त्ल कर दिया तो मजाज़ ने एक सानिहा लिखकर अपने ग़म-ग़ुस्से और मातम का मज़ाहिरा भी किया।
 
हिंदू चला गया, न मुसलमां चला गया
इंसां की जुस्तजू में इक इंसां चला गया 
और क़ातिलों की ख़ुशनसीबी रही कि मजाज़ भी चला गया वरना तो इस सानिहा के आख़िर में वह कह गया था -
 
ख़ुश है बदी जो दाम ये नेकी पे डाल के
रख देंगे हम बदी का कलेजा निकाल के

मजाज़ ऐसे ही उभारों मे बहता, इंसाफ की, मज़दूरों की और ख़ानाबदोशों की बात करते-करते ख़ुद भी एक ख़ाना बदोश बन बैठा था। एक ऐसा ख़ाना बदोश जो घर के होते हुए भी बेघरी की ज़िंदगी जीता था। ज़िंदगी ने उसके साथ जो सुलूक किया उसके जवाब में मजाज़ ने अपनी ज़िंदगी को ही सरे आम रुस्वा कर डाला। कभी इस शहर तो कभी उस शहर। कभी इस गली तो कभी उस गली।
1945 की फरवरी में इलाहाबाद में थे. उनकी सालगिरह का मौका था। वहीं सरे आम एलान कर कह डाला :
 
इलाहाबाद में हर सू हैं चर्चे
कि दिल्ली का शराबी आ गया है
बसद आवारगी, बसद तबाही
बसद ख़ाना-ख़राबी आ गया है
गुलाबी लाओ, छलकाओ, लुंढाओ
कि शैदा-ए-गुलाबी आ गया है

गुलाबी के इस शैदाई ने ख़ुद को इस गुलाबी में इस क़दर डुबो दिया था कि उसके बारे में घर के लोगों ने भी थक-हारकर उम्मीद छोड़ दी थी। उनकी बहन हमीदा सालिम ने अपने 'जग्गन भैया' (मजाज़) के बारे उस वक़्त के हालात यूं बयान किए हैं। ...बेकारी और तन्हाई. अपनो की नसीहत, ग़ैरों की फ़ज़ीहत. ज़िंदगी में तल्ख़ियां बढ़ती रहीं और वो उन तल्ख़ियों को ग़र्के-मए-नाब (शराब में डुबोना) करते रहे।
कभी भी किसी की शिकायत या शिकवा करते न सुना। तल्ख़ियां सहते रहे और मिजाज़ को तल्ख़ी से महफ़ूज़ रखा। अंदर ही अंदर सहने का नतीजा यह हुआ कि तीसरा और आख़िरी नर्वस ब्रेक डाऊन का दौरा पड़ा। ऐसा शदीद, ऐसी इज़तराबी कैफ़ियत कि ख़ुदा की पनाह। दिल्ली के गली-कूचों में ख़ाक छानते फिरते थे। घरवाले हर लम्हा इस ख़बर के मुंतज़िर थे कि मजाज़ मोटर से कुचल गया। ठिठुरा हुआ सड़क पर पाया गया। अंजाम यही होना था, पर कुछ ठहरकर और महबूबा की गलियों से दूर।
दिल पे क्या-क्या न गुज़रा होगा इन घर वालों के, जो अपनी नज़रों के सामने ही अपने लाडले को यूं क़तरा-क़तरा मरते देखते रहे। बेबस, लाचार।
और आख़िर यह सारे अंदेशे एक दिन हक़ीक़त बनकर सामने आ ही गए। 3 दिसम्बर 1955 को लखनऊ में एक कांफ्रेंस थी जिसमें बाहर से कई अदीब और शायर हिस्सा लेने पहुंचे हुए थे। इनमे सरदार जाफ़री, साहिर लुधियानवी और इस्मत चुग़तई जैसे मजाज़ के दोस्त भी शामिल थे। पहली शाम साहिर और सरदार जाफरी ने मजाज़ को अपने साथ होटल पर ही रोक लिया और उसे सड़कों पर बुरी सोहब्बत में शराब पीकर आवारा फिरने से रोक लिया। अगले दिन भी साहिर ने अपने कमरे पर मजाज़ को रोके रखा और साथ ही बेहतरीन शराब की एक बोतल भी शाम के वादे के साथ अलमारी में रख दी।
साहिर के जाने के बाद न जाने कब मजाज़ वहां से निकल चले और फिर नए दोस्तों की एक टोली से जा मिले।
मंज़र सलीम की उर्दू किताब 'मजाज़ - हयात और शायरी' में उस दर्दनाक हादसे को बड़ी तफ़सील से बयान किया गया है। ये लोग लाल बाग़ की एक देसी शराब ख़ाने में पहंचे और वहां छत पर साइबान के नीचे 3 बजे रात तक शराब का दौर चलता रहा। इनके साथी किसी-किसी तरह वहां से उठकर चले आए और मजाज़ वहीं सर्दी में खुली छत पर। उनकी इस आलम में मौजूदगी की किसी को ख़बर न हो सकी।
5 दिसम्बर को दिन में शराब ख़ाने वालों ने उन्हें छत पर बेहोश पड़े देखा। एक डाक्टर को बुलवाया गया जिसने डबल निमोनिया तजवीज़ किया और वह ख़ुद दोपहर के वक़्त मजाज़ को बलरामपुर अस्पताल में पहुंचा गया।
ख़बर ज्यों ही कांफ्रेंस में मौजूद लोगों तक पहुंची, त्यो ही सब के सब अस्पताल पहुंच गए. दिसम्बर की ज़हरीली सर्द रात ने मजाज़ के जिस्म के दाएं हिस्से में लकवा मार दिया और साथ ही दिमाग़ की रगें भी फट चुकी थीं। रात के बजकर 22 मिनट पर मजाज़ इस दुनिया से उस दुनिया के सफर पर निकल गया।
7 दिसंबर को एक शोक सभा हुई। इस मौके पर तमाम लोगों ने अपनी-अपनी बात की लेकिन सबसे पुरअसर और दिल को छूने वाली बात कही इस्मत चुग़तई ने।
मैने अक्सर मजाज़ को उसकी बाज़ आदतों पर डांटा और ग़ुस्से में कहा  - 'इससे बेहतर है मजाज़ कि तुम मर जाते', मजाज़ ने जैसे मुंह पर तमाचा मार दिया और कहा 'लो मैं मर गया। तुम इसको इतना बड़ा काम समझती थीं।' (क़ौमी आवाज़ - 8 दिसम्बर 1955)
आगे कहना तो कुछ और चाहता था लेकिन इस वक़्त दिल दुखाने वाली बातों को छोड़ मजाज़ाना फ़ितरत इख़ि्तयार कर लेते हैं। मतलब ग़म पे धूल डालो। मजाज़ के दोस्त जनाब जमाल पाशा ने एक किस्सा दर्ज किया है।
एक बार किसी दावत में जज़्बी (मुईन अहमद) दसतरख़्वान पर से उठने का नाम ही न लेते थे और बैठे-बैठे दही का रायता पिए जा रहे थे। मजाज़ ने कहा - अमां उठो भी! जज़्बी ने जवाब दिया - एक-दो घूंट ज़रा रायता पी लूं तो चलूं। मजाज़ मुस्कराए और बोले - अमां अगर यही बात अख़्तर शीरानी होता तो यूं कहता- रायता जो रुख़े सलमा पे बिखर जाता है। और अगर अल्लामा इक़बाल होते तो इस तरह कहते - हैफ़ ! शाहीं रायता पीने लगा। अगर मीर होते तो यूं कहते - अभी टुक रायता पी सो गया है। और फिराक़ कहते तो यूं कहते - टपक रहा है उन आंखों से रायता कम-कम।
इस बात से आप ख़ुद अंदाज़ लगाएं कि पल के पल में यह इंसान - मजाज़ - कहां से कहां की उड़ान ले लेता था। और जो एक दिन ज़रा और ऊंची उड़ान ली तो बस वो जा बैठा आसमानो में।

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