किसानों की गल-फांस

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    नवम्बर 2016
श्रेणी मूल्यांकन
संस्करण नवम्बर 2016
लेखक का नाम सूरज पालीवाल





मूल्यांकन/फाँस (उपन्यास : संजीव)
अगले क्रम में : चित्रा मुद्गल, ममता कालिया








'अब तो प्रतिवर्ष कहीं न कहीं दुष्काल पड़ा ही रहता है, मुख्य करके अंग्रेजी राज में इसका घर है... जब अंग्रेज विलायत से आते हैं प्राय: कैसे दरिद्र होते हैं और जब हिंदुस्तान से अपने विलायत को जाते हैं तब कुबेर बनकर जाते हैं। ...इससे सिद्ध होता है कि रोग और दुष्काल इन दोनों के मुख्य कारण अंग्रेज ही हैं।' भारतेंदु, 'कवि वचन सुधा' 18 मई, 1874
'हिंदुस्तान संपत्तिहीन देश है। यहां सम्पत्ति की बहुत कमी है। जिधर आप देखेंगे उधर ही आंख को दरिद्र-देवता का अभिनय किसी न किसी रूप में अवश्य ही दीख पड़ेगा। परंतु इस दुर्दमनीय दारिद्र को देखकर भी कितने आदमी ऐसे हैं जिनको उनका कारण जानने की उत्कण्ठा होती है? यथेष्ट भोजन-वस्तु न मिलने से करोड़ों आदमी जो अनेक प्रकार के कष्ट पा रहे हैं उनका दूर किया जाना क्या किसी तरह सम्भव नहीं? गली-कूचों में, सब कहीं, धनाभाव के कारण जो कारुणिक क्रंदन सुनाई पड़ता है उसके बंद करने का क्या कोई इलाज नहीं? हर गांव और हर शहर में जो अस्थिर-चम्र्मावशिष्ट मनुष्यों के समूह आते-जाते दीख पड़ते हैं उनकी अवस्था उन्नत करने का क्या कोई साधन नहीं? बताइये तो सही, कितने आदमी ऐसे हैं जिनके मन में इस तरह के प्रश्न उत्पन्न होते हैं।' आ. महावीर द्विवेदी, सम्पत्तिशास्त्र की भूमिका की शुरूआत।
'अठारहवीं सदी के प्रारम्भ से लेकर अंत तक केवल चार दफे दुर्भिक्ष पड़ा। किंतु उन्नीसवीं सदी से दुर्भिक्ष का जोर बढऩे लगा। 1800 से 1825 तक संपूर्ण ब्रिटिश भारत में दस लाख भारतवासी भूखों मरे। 1825 से 1850 तक 5 लाख और 1850 से 1875 तक 50 लाख मनुष्यों ने बिना अन्न अपने प्राण खोये। उन्नीसवीं सदी के अंतिम 25 वर्षों के दुर्भिक्षों का विचार करने से तो छाती फटती है। केवल इन 25 वर्षों में दुर्भिक्ष दैत्य ने भारत पर 28 बार अपनी कोपाग्नि प्रकट की और लगभग 4 करोड़ मनुष्यों को भस्मीभूत कर दिया। उन्नीसवीं सदी में सब मिलकर जितने मनुष्यों ने भूख से प्राण त्याग किये उन पर विचार करके कौन ऐसा पाषाण हृदय होगा जिसके नेत्रों में आंसू न आ जायें? संसार में युद्ध से बहुत नरहत्या होती हैं किंतु जितने मनुष्य अकाल के कारण भारत में 100 वर्षों में मरे उतने संसार के सारे युद्धों में भी उन 100 वर्षों में नहीं मरे।' ईश्वरदास मारवाड़ी, 'सरस्वती', अगस्त, 1915
उपर्युक्त तीनों उदाहरणों से पता चलता है कि हमारे युग पुरुषों को न केवल साहित्य की चिंता थी अपितु जनता के दुख और तकलीफों की भी उतनी ही चिंता थी। इसे विडंबना ही कहा जाय कि भारत को स्वाधीनता तो मिली लेकिन स्वाधीनता आंदोलन के दौरान स्वतंत्र भारत के विकास को लेकर बहुत विचार नहीं किया गया। जो विचार हुआ भी वह विरुद्धों का सामंजस्य भर था। पंडित नेहरू जिस प्रकार का भारत चाहते थे, वह गांधी जी को प्रिय नहीं था। यही कारण है कि नेहरूजी ने गांधी जी के 'हिंद स्वराज' पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि 'मैं इसे पहले भी अवास्तविक मानता था और आज भी।' अवास्तविक मानने के कारण नेहरूजी के पास थे, वे 1925 में सोवियत संघ घूमकर आये थे, वे उस सपने को देखकर आये थे जो सपना सोवियत संघ में साकार हुआ था। नेहरूजी के समाजवाद को सोवियत संघ से अलग कर नहीं देखा जा सकता। वे चाहते थे कि बड़े उद्योग लगे, बाद में जिन्हें उन्होंने आधुनिक भारत के तीर्थ कहा था। गांधी जी लघु उद्योगों के माध्यम से भारत का विकास करना चाहते थे। कल्पना कीजिये कि 1952 के बाद जो पंचवर्षीय योजनाएं शुरू हुई उसमें वे यदि लघु उद्योगों के माध्यम से होती तो आज विकसित राष्ट्रों के सामने हम कहां टिक पाते। कहना न होगा कि गांधी जी को सबसे पहले महात्मा कहने वाले कविगुरु टेगौर ने गांधी जी को लंबा पत्र लिखकर 'चर्खा संस्कृति' का विरोध किया था। इस विरोध में रामराज्य की वह कल्पना छुपी थी जो आधुनिक विकास के पक्ष में नहीं थी। नेहरूजी स्वप्नदर्शी और भावुक थे, वे विकास के लिए आधुनिक संयंत्रों की स्थापना तो कर रहे थे लेकिन स्वाधीन भारत के सामाजिक विकास के लिए आत्मानुशासन की दिशा में उन्होंने कोई ठोस प्रस्ताव नहीं रखा। जैसे भूखा आदमी अच्छा खाना मिलने पर टूट पड़ता है उसी तरह स्वाधीन भारत में विकास की जो धारा बही उसे कुछ प्रभुत्वशाली लोगों ने अपने कब्जे में कर लिया। ग्रामीण जीवन में राजनीति गई तो दिशाहीन होकर, विकास की धारा गई तो कुछ लोगों तक, जो लोग जीवन की मूलभूत सुविधाओं तक से वंचित थे, उन्हें उसकी आवश्यकता थी, लेकिन वे उससे उपेक्षित ही रहे। योजनाएं बहुत अच्छी थीं लेकिन उनका क्रियान्वयन जिन लोगों ने किया वे सही नहीं थे। जमींदारी उन्मूलन हुआ तो लेकिन जमींदारों ने फर्जी नामों पर जमीन अपने नाते-रिश्तेदारों, नौकरों और यहां तक कि अपने प्रिय घोड़े, हाथी और कुत्ते तक के नाम पर दर्ज करा ली। जमींदारी उन्मूलन के साथ भूमि सुधार होने चाहिए थे जो कांग्रेसी सरकारों ने नहीं किये, सबसे पहले भूमि सुधार केरल की कम्युनिस्ट सरकार ने किया, जिस सरकार को बाद में नेहरूजी ने बर्खास्त कर दिया था। समाज के निचले पायदान पर खड़े लोग केवल दर्शक बने पहले भी खड़े थे और बाद में भी वे वैसे ही रहे।
आज जो किसानों की आत्महत्या पर हायतोबा मची हुई है, उसके केंद्र में हमारी नीतियां ही हैं। दरअसल, हमने उस तरह का समाज बनाया ही नहीं जिस समाज में सबको जीने का अधिकार हो। स्वाधीनता के बाद से ही यदि इस ओर ध्यान दिया जाता, भूमिहीनों को भूमि सुधारों के माध्यम से जमीनें बांटी जाती तो आज छोटे किसान से मजदूर बने अधिकांश ग्रामीण आत्महत्या करने के लिए विवश नहीं होते। कहना न होगा कि स्वाधीनता के बाद ग्राम केंद्रित और नगर केंद्रित लेखन की जो बहस चली थी, उसके मूल में भी नगरों की श्रेष्ठता और सुविधा सम्पन्न जीवन ही था। इसलिये गांव पर लिखना धीरे-धीरे कम होता गया। गांवों पर कहानियां या उपन्यास बहुत कम है। यही कारण है कि किसान आत्महत्याओं पर हिंदी में बहुत कम लिखा गया है। जिस महाराष्ट्र में सबसे अधिक किसान आत्महत्याएं हो रही हैं, वहां भी कहानी-उपन्यास कम ही है। सदानंद देशमुख ने 'बारोमास' उपन्यास इसलिये लिखा कि वे आज भी गांव में रहते हैं, गांव के जीवन से उनकी निकटता ने ही किसानों की भयावह आत्महत्याओं पर लिखने को प्रेरित किया। हिंदी में चर्चित उपन्यासकार संजीव ने 'फांस' इसलिये भी लिखा कि वे लगभग एक वर्ष विदर्भ के वर्धा में रहकर गये हैं। यह उपन्यास उन्होंने यहीं रहकर लिखा था। संजीव पर एक बार नामवरजी ने यह आरोप लगाया था कि 'संजीव प्रोजेक्ट के रूप में उपन्यास लिखते हैं'। मैं इस आरोप पर नहीं प्रोजेक्ट पर बात करना चाहूंगा कि प्रोजेक्ट बुरा नहीं है यदि लेखक में रचनात्मकता की धधक है। संजीव ने वर्धा में रहकर आसपास के गांवों की लगातार यात्राएं कीं, वे इन किसानों के घर भी गये, जिन किसानों ने आत्महत्या की थीं। उन्होंने न केवल वर्धा के भूगोल को समझा अपितु आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक चक्र को भी समझा जिसमें किसान लगातार पिस रहे हैं। विदर्भ में अधिकतर खेती कपास, सोयाबीन और ईख की होती है। कपास को यहां सफेद सोना कहा जाता है। यह एक प्रकार की कच्ची खेती है, जो बेमौसम बरसात या अकाल के कारण नष्ट हो जाती है। सीधा आदमी चालाकी करता है तो अपना ही नुकसान करता है, उसी प्रकार विदर्श के किसानों ने कपास की अधिक पैदावार के लिए अमेरिकी बीज 'बीटी' का उपयोग किया, जो उनके लिए आत्मघाती सिद्ध हुआ। इससे न केवल जमीन की उर्वरता कम हुई अपितु तमाम तरह की बीमारियों ने भी इस फसल को नुकसान पहुंचाया। फसल को बीमारी मुक्त करने के लिए जिस कीटनाशक दवाई का प्रयोग किया जाता है, अधिकांश किसान उसे ही पीकर आत्महत्या कर रहे हैं। आत्महत्या के पीछे जो सबसे बड़ा कारण है, वह है सरकारी उपेक्षा। कर्जदार किसान का कोई संगठन नहीं है, वह अकेला है 'गोदान' के 'होरी' की तरह। आठवें दशक में शरद जोशी के नेतृत्व में बड़ा 'शेतकारी संगठन' बना था, तब किसानों को एक उम्मीद जगी थी कि जब उनकी आवाज सरकार तक पहुंचेगी लेकिन सत्ता की कुटिलताओं के कारण शरद जोशी ही स्वयं दिल्ली दरबार के अंग बन गये, वे राज्यसभा के सदस्य हो गये और किसान संगठन से जो किरणें निकली थीं, वे दिल्ली दरबार के विषैले बावलों में घुट कर रह गई। जब-जब सत्ता को कोई चुनौती देता है तो सत्ता अपनी तमाम चालाकियों के तहत या तो उसे अपने में मिला लेती है या उसे उपेक्षित कर देती है। महाराष्ट्र में शरद जोशी या उत्तर प्रदेश में महेंन्द्र सिंह टिकेत इसके जीवंत उदाहरण है। शरद जोशी ने बहुत अच्छा नारा दिया था, वे पढ़े लिखे थे, देश दुनिया में रहकर आये थे, अंग्रेजी जानते थे इसलिए उन्होंने कहा था 'बाजार और टेक्नोलोजी तक किसानों की पहुंच हो'। बहुत छोटे-छोटे उत्पादों की कीमत भी उसका उत्पादक तय करता है लेकिन कपास की कीमत मंडियों में बैठे व्यापारी तय करते हैं। किसानों के पास अपनी फसल बेचने का दूसरा कोई रास्ता नहीं है। वह या तो मंडी में अपना उत्पादन बहुत कम कीमत पर बेचे या घर में रखकर सडऩे दे। फसल को तैयार करने के लिए उसने जो कर्ज साहूकार और बैकों से लिया था, उसे चुकाने के लिये वह औने-पौने दाम पर बेचने को विवश होता है। किसान हमेशा कर्ज में रहता है - साहूकार और बैंक अधिकारियों की लगातार प्रताडऩा उसके आत्म को धिक्कारती है, उसके जीवित होने को ललकारती है, उन स्थितियों में आत्महत्या के अलावा और कोई उपाय उसे दिखाई नहीं देता।
कर्ज के इस भयावह आतंक ने भारतीय किसानों का जीना दूभर कर दिया है। स्वाधीनता से पहले जमींदार और साहूकार दोनों मिलकर लूटते थे लेकिन आजादी के बाद गांव का बड़ा भूपति साहूकार बनकर अपने ही किसानों को लूट रहा है। न केवल जीते जी बल्कि मरने के बाद भी वही सबसे पहला आदमी होता है जो मृतक के घर जाकर आत्महत्या को पात्र सिद्ध करने के लिए मिलने वाले सरकारी अनुदान में अपना हिस्सा तय करता है। संजीव ने अपने उपन्यास 'फांस' में इस समस्या की भयावहता पर लिखा है 'शेतकारी लोगों की गुहार सुनकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और राहुल गांधी आये थे। 1997 से 2006 तक यहां 15 हजार किसान आत्महत्या कर चुके थे। समूचे देश में यह संख्या ढाई लाख तक पहुंच गई थी। विदर्भ के ग्यारह जिलों में ही तीस हजार। दिल्ली, मुंबई और पता नहीं कहां-कहां से लोग आये। समितियां बनी। जांच पड़ताल हुई। सभी का कहना था कि विदर्भ कृषि का ज्वालामुखी है। सुप्त ज्वालामुखी। कर्ज उतारना दो दूर, किसानों की आमदनी ही इतनी कम है कि खेती में बने रहना मुमकिन नहीं। दिल्ली लौटकर प्रधानमंत्री ने कहा कि कपास उत्पादक किसान को बचाना है तो उसे राहत पैकेज देना पड़ेगा। ठीक 2009 के चुनाव से पहले 72 हजार करोड़ रुपये की कर्ज माफी की घोषणा हुई। यानी जो कर्ज लिये थे, वो माफ। लेकिन कुछ गांव वालों का मुंह लटक गया। सरकार के हिसाब से कर्ज वही था जो सरकारी बैंकों से लिया गया था। उनको तो लाभ मिला लेकिन बाकियों को? ज्यादातर लोगों ने तो गांव के सूदखोरों से कर्ज लिया है। उनका खून साहूकार चूसता रहे और 72 हजार करोड़ का आंकड़ा सरकारी दान के रूप में छापकर सरकार अपनी पीठ थपथपाती रहे। फिरकर ये कोई नहीं देखता कि इससे कितने किसानों को लाभ पहुंचा। जिन्हें लाभ पहुंचाया गया है वे इसके पात्र थे भी कि नहीं। ये राजनीतिक खेल है, जिसकी सत्ता होती है, गांव पंचायत पर वही काबिज होता है और वही अपने लोगों को सरकारी पैसा बांटकर अपनी राजनीति पक्का कर प्रसन्न होता है। सरकारी आंकड़ों को देखा जाये तो गांव पंचायतों को अब तक जो धन मिला है, उससे गांवों को शहरों की बराबरी करनी चाहिये थी लेकिन वास्तविकता इसके उलट है। गांव अब भी नारकीय जीवन जी रहे हैं। पिछले दो वर्षों से शौचालयों के लिये पैसा बांटा जा रहा है। प्रधानमंत्री जी ने न जाने कितने करोड़ रुपये विज्ञापन पर खर्च कर दिये लेकिन गांव के लोग अब भी खेतों में ही शौच के लिये जा रहे हैं। घर के अंदर शौच जाने की कल्पना ही वे नहीं कर सकते। फसल के पाला मार जाने, अति बरसात में फसल नष्ट होने तथा अकाल में फसल सूख जाने पर जितना भी पैसा गांवों में पहुंचता है, वह अपने लोगों में बांटकर हिसाब भेज दिया जाता है। गरीब की हालत अभी भी दयनीय है। 'फांस' के शिबू ने जिस तरह मर-खप कर कर्ज चुकाया था लेकिन उसकी आत्महत्या के बाद उसे अपात्र इसलिए सिद्ध कर दिया गया कि उस पर बैंक का कर्ज नहीं है। संजीव किसानों की इस पीड़ा के बारे में लिखते हैं 'हरित क्रांति के लिये बांध बन रहे थे। हमने विस्थापन के बाद पुनर्वासन के लिए पैसे मांगे, नौकरियां मांगी। जवाब में ठीक गांधी जयंती के दिन पुलिस ने हमें पीटा। वह कमीज उलटकर पीठ दिखाने लगा, जिस पर लम्बे-लम्बे गोहटें उभरे हुये थे। लाखादुर तहसील के पुधार गांव के सोन्दरकार जी की फसल अचानक आयी बारिश से बर्बाद हो गई। देखकर खड़े-खड़े गिरे, मर गये। ऐसे बीसियों सोन्दरकार जी को मैं ही जानता हूं। उनकी मौत आत्महत्या नहीं मानी गयी। वह क्या है? बाप के नाम जमीन, मरा बेटा! आत्महत्या अपात्र! कारण, जमीन तो उसके नाम थी ही नहीं। यहां शिबू काका की आत्महत्या को पात्र नहीं माना गया। कारण, जमीन पर कर्ज तो कोई था ही नहीं? सरकारी कर्ज उतारने के लिये ही रोज-रोज मरते रहे। उनके और उसकी पत्नी, बाल-बच्चों को कभी सुस्वादु भोजन, ढंग का कपड़ा और सुरक्षा नहीं मिली, वह मौत कोई मौत नहीं?' संजीव किसानों के आक्रोश को वाणी देते हुये आगे लिखते हैं 'सरकार कृपया हम किसानों को यह बतायें कि आत्महत्या करते वक्त किन-किन बातों का खयाल रखा जाये-कब और कैसे की जाती है आत्महत्या? किस पंडित से पूछकर...? यह भी सिखाया जाये कि कैसे लिखी जाती है सुसाइडल नोट! उत्तेजना में उसके मुंह से फिचकुर निकलने लगी तो विजयेंद्र ने माइक ले लिया - एक बड़े समूह के लिये जिंदगी मात्र एक दु:स्वप्न बन जाये और मौत एक मात्र विकल्प! मौत मौत होती है - आत्महत्या में पात्र-अपात्र का फर्क करना सरकार या अधिकारियों की बेईमानी और बदनीयती बताती है।' पात्र अपात्र का खेल सरकारी खेल है, जिसे गांव का पटवारी तथा साहूकार सिद्ध करता है। मान लो शिबू काका पर साहूकार का कर्ज होता तो वे उसे हड़पने के लिए शिबू की मौत को पक्के तौर पर आत्महत्या सिद्ध करवा देते।
पूरे विदर्भ के सरकारी आंकड़ों को देखें तो मालूम होता है कि अधिकांश जमीन के मालिक कुनबी और राजपूत हैं। नीची समझी जाने वाली जातियों में महार, चमार और मांग पर कुल 15 प्रतिशत जमीन है। इन जातियों के अधिकांश लोग या तो खेत मजदूर हैं या छोटी-मोटी जोत के आधार पर कर्जे में फंसे रहते हैं। इसलिये किसान आत्महत्याओं के आंकड़ों को देखें तो मालूम होता है कि 64 प्रतिशत आत्महत्याएँ छोटे किसान ही करते हैं। इन आत्महत्याओं का सबसे बड़ा कारण किसानों का अनपढ़ होना, खाद, बीज एवं पानी के अभाव में खेती करना, मंडियों में उनकी फसल की कोई कीमत न होना तथा औने-पौने दामों पर स्थानीय साहूकारों से कर्ज लेना इत्यादि है। जून से लेकर नवंबर तक विदर्भ में अधिक किसान आत्महत्याएं होती है। उसका कारण यह है कि जून में यहां मानसून आ जाता है किसान बुवाई के लिए कर्ज लेता है। कई बार तो दो-तीन बार बुवाई करनी पड़ती है- कभी पानी नहीं पड़ा और कभी अधिक पानी पडऩे से बीज ही तबाह हो गया। इन स्थितियों में किसान बार-बार बीज और खाद के लिये कर्ज लेता है। संजीव इन स्थितियों के बारे में लिखते हैं 'मंहगे बीजों, खादों और कीटनाशकों की वजह से ज्यादातर किसानों को कर्ज लेना पड़ता है। सरकारी बैंकों में खसरा-खतौनी, नकल दुरस्ती समेत कई लफड़े कर्ज की राशि कम। फलत: ज्यादातर किसान वहां जाने से ही घबराते हैं और उन्हें ऋण एजेंसियों और गांव के साहूकारों से कर्ज लेना ही आसान लगता है। जो होता तो 10 प्रतिशत प्रतिमाह या उससे भी ज्यादा, पर वे यह नहीं पूछते थे कि किसलिये ले रहे हो।' इसलिए नहीं पूछते कि उन्हें मालूम है उनकी लाठी में ताकत है, सारा सरकारी महकमा उनके साथ बेचारा किसान बचकर जायेगा भी तो कहां? उसका घर और जानवर कुर्क कर लेंगे, उसे सरेआम बेइज्जत करेंगे और वह जैसे भी होगा चुकायेगा नहीं तो आत्महत्या कर लेगा। संजीव किसान की इसी मन:स्थिति को उभारते हैं 'इस बार पूजा करते समय सिर को माटी से कई बार लगाया था शिबू ने। बल्कि सगुन के लिये शकुन के गालों पर भी ढिठौने-सा जड़ दिया, कुलदेवी से मिन्नतें करते समय कंठ भारी हो गये - अब इम्तहान मत लेना देवी। मर जायेंगे हम। शकुन के कान की बाली बेचकर बीजा खरीदा है। नारियल फोड़ा, जैकारा हुआ और कापूस का बीज लेकर उतर गये घर के चारों सदस्य - पहले शिबू, फिर बड़ी, फिर छोटी और अंत में शकुन। यह तीसरी बुआई है। चुभ रही बदरकट्टू धूप। चुनचुना रही है पूरी देह। हाथ से लेकर बीजों को धमका रही है छोटी-दो-दो बार धोखा हो चुका है। इस बार बहना नहीं, बिलाना नहीं, सडऩा नहीं, सूखना नहीं, दगा मत देना। बरोबर जम सिल। समझाला? बहोत मारूंगी, हां! इस मीठी धमकी के बाद उसने बीजों को फिर चूमा और रोप दिया काली माटी में।' इस चित्रण में किसान परिवार का चित्र बनता है, वह आत्मीय के साथ दयनीय अधिक है। बीजों के प्रति जो ममता और विश्वास है, कुलदेवी से इस बार बीज नष्ट न होने देने की जो प्रार्थना है, उसमें पूरे परिवार की बेबसी स्वत: स्पष्ट हो जाती है। परिवार में छोटी सबसे अधिक क्रांतिकारी है, पढ़ी-लिखी है वही बीजों से बहन का रिश्ता जोड़कर अपनी स्थिति भी बता रही है और ममतालु होकर चेतावनी भी दे रही है, जैसे छोटे बच्चों को कहा जाता है कि यदि यह करोगे तो मारेंगे। छोटी जो अपने घर में सबसे छोटी है, वह बीजों को छोटी बहन मानकर उनसे परिवार को बचाये रखने की मार्मिक धमकी देती है। इस धमकी में अपनापन अधिक है, इस प्रकार के रिश्ते जीवन और मृत्यु के बीज झूलते किसान परिवारों में ही सम्भव हैं। किसान का रिश्ता पशुओं से लेकर बीजों तक से जिस प्रकार बनता है, वह किसान जीवन के बहुत छोटे-छोटे संघर्षों को जाने बिना नहीं बन सकता। संजीव जानते हैं कि जो किसान अपनी पत्नी की बाली बेचकर तीसरी बार बीज बो रहा है, उसके लिए बीज का क्या महत्व है? जैसे इस बार के बीज उनके लिए अंतिम आशा की तरह हैं, भयंकर गरीबी में घर का सब जाता रहा लेकिन यह अंतिम विश्वास है, जो उन्हें जीवित रखे हुये हैं, इस विश्वास की रक्षा करने की प्रार्थना छोटी अपने हाथों के बीजों से करती है जो उसकी मां के कान की बालियों से खरीदे गये हैं। बेटियां मां के दुख को अच्छी तरह जानती हैं, गरीब किसान की पत्नी के पास अब बालियों के अलावा बचा ही क्या था, जिन्हें बेचकर एक और प्रयास करने की हिम्मत होती। अंतिम तो कानों की बालियां थीं, जिनसे ये बीज खरीदे गये थे। इसलिये गरीब और बेबस किसान और उसके पूरे परिवार की जो जिजीविषा इस चित्रण में देखने को मिलती है, वह अप्रतिम है। विदर्भ में सबसे अधिक किसान आत्महत्या करते हैं पर क्यों करते हैं इस प्रश्न पर विचार किया जाना जरूरी है। विदर्भ में कोई बड़ा कारखाना नहीं है, रोजगार के और कोई साधन नहीं है, केवल खेती है और खेती भी प्रमुख रूप से कपास की। कहना न होगा कि '2012 तक 2,84,649 किसानों ने आत्महत्या की, जिसमें 68 प्रतिशत कपास की खेती से जुड़े थे।' जहां बहुतायत में कपास होता है वहां कपड़ा मिलें भी होनी चाहिये लेकिन विदर्भ इनसे वंचित है। सारा कपास मंडियों के माध्यम से बाहर जाता है। उन्नीसवीं सदी में अंग्रे•ाों ने यहां की काली मिट्टी को देखकर कपास की खेती पर बल दिया था, जो आज तक चल रहा है। अंग्रेजों ने कपास खरीदने की सरकारी स्तर पर व्यवस्था की थी, जिनसे ढाका के हथकरघों को उजाड़कर मैनचेस्टर को आबाद किया गया था। पर हमारी स्वाधीन भारत की सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। संजीव ने एक प्रश्न उठाया है कि आदिवासी विदर्भ के किसानों से अधिक सुविधाहीन है लेकिन वे तो आत्महत्या नहीं करते। फिर क्या कारण है कि इसी वर्ष मराठावाड़ में औसतन रोज नौ आत्महत्याएं हुईं। विदर्भ भी इससे अछूता नहीं था। आदिवासियों के 'यहां किसी को भी भीख मांगते नहीं देखा। खेत में काम करते हैं सभी - क्या आदिवासी गोंड या गैर आदिवासी। इन आदिवासी मुलगियों का हेल्थ देखा? देखो घास-पात खाकर के... मांड पी करके... ये ऐसी है... जंगल से लकड़ी ला रही हैं। किसी से कोई शिकायत नहीं। न अपनी तकदीर से, न जमाने से और आत्महत्या! वह तो जैसे जानते ही नहीं किस चिडिय़ा का नाम है।' इसी तरह यदि मैं कहूं कि पश्चिमी राजस्थान में हर तीसरे साल अकाल पड़ता है, बाड़मेर और जैसलमेर की अंतहीन रेत में पानी और पेड़ों का नाम तक नहीं है, पर वहां किसी किसान को आत्महत्या करते नहीं सुना। खेती भी वहां बरसात के आधार पर ही होती है। बरसात हुई और बाजरा बो दिया, दूसरी तीसरी बरसात समय पर हो गयी तो बाजरा घर में आ गया। कहना न होगा कि अकेला बाड़मेर और जैसलमेर का लोकसभा क्षेत्र हमारे केरल प्रांत से भी बड़ा है। चारों ओर अनंत रेत का समुंदर है, मीलों चलने पर कोई एक ढाणी देखने को मिलती है, सड़कें खाली और रेत से ढंकी हुई। फिर भी मनुष्य की जिजीविषा उन्हें आत्महत्या नहीं करने देती। क्या कारण है कि आदिवासी क्षेत्रों और थार की रेत में भी आदमी जीने के लिये संघर्ष में अधिक विश्वास करता है न कि आत्महत्या करने में। पर विदर्भ में आदमी इतना थका-हारा क्यों है? स्वयं को मारना आसान काम नहीं है, लोग भले ही कह लें कि यह कायरों का काम है पर आदमी को कायर बनाता कौन है? जो कायरता के कारण बनते हैं वे तो शेर बने फिरते हैं और शेर को कायर बनाकर मरने के लिये छोड़ दिया जाता है। विदर्भ क्या पूरे महाराष्ट्र में जिस प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था है, उसमें नव जागरण और दलित चेतना की बात भले ही कर लें लेकिन इससे कर्ज के जुये के नीचे दबे आदमी को कोई लाभ नहीं हुआ। आजादी के बाद और विशेषरूप से उदारीकरण के बाद जहां जहां नव-धनाढ्यों की बाढ़ आई है, वहां अकूत संपत्तियों के चमचमाते द्वीप बन गये हैं। अकूत संपत्तियों की बाढ़ में आम आदमी मरने के लिये छोड़ दिया गया है। उसका अंतिम विश्वास जिन राजनेताओं पर था, वे भी उससे किनारा कर गये हैं। अब राजनेताओं की संपत्तियों की जो सूची हर साल अखबारों में प्रकाशित होती है, उसे देखकर शर्म आती है। जिस देश में सत्तर प्रतिशत लोक बीस रुपये से भी कम आमदनी वाले हों, वहां अरबों की संपत्ति हमारे जन-नायकों के पास है। और दुर्भाग्य से वे ही काले धन की समाप्ति की दुहाई भी दे रहे हैं। कल तक योग के माध्यम से विदेशी धन और विदेशी वस्तुओं का विरोध करने वाले रामदेव के पास कितनी संपत्ति है, किसी को नहीं मालूम। यह जरूर मालूम है कि हर टीवी चैनल पर हर दो मिनट में वे अपना कोई उत्पाद लेकर उपस्थित हो जाते हैं। यही कारण है कि इस वर्ष आरंभ के तीन-चार महीनों में उन्होंने विज्ञापनों पर लगभग 360 करोड़ रुपये खर्च किये। यह धन कहां से आया? जिस चेरिटी का वे बार-बार नाम लेते हैं, वह चेरिटी जीवन में तो कहीं दिखाई नहीं देती, वह धन कहां से आ रहा है और कहां जा रहा है? एक संन्यासी को व्यापार की चालाकियां किसने सिखाई, राजनीति और राजनेताओं से उनके संबंधों का खुलासा क्यों नहीं होता? किसान की आत्महत्या इन्हीं षड्यन्त्रों के कारण हो रही है। अमेरिका जो अब पूरी दुनिया का माई-बाप बना हुआ है, वह अपने किसानों को दिल खोलकर सबसिडी देता है लेकिन भारत जैसे देश में विश्व बैंक के माध्यम से सबसिडी देने पर रोक लगाने की वकालत करता है।
संजीव ने 'फांस' में एक और बड़ा प्रयोग किया है, वह है उपन्यास के प्रमुख पात्र शिबू की पत्नी शकुन का सारी समस्याओं से मुक्ति के लिए बौद्ध धर्म स्वीकार करना। वह देखती है कि हिंदू उनकी कोई सहायता नहीं करते, उनकी जवान होती बेटी को मंदिर का पुजारी निरंतर ताकता रहता है, साहूकार उनकी विवशता का लाभ उठाते हैं, जमींदार छोटी जोत वाले किसान को कुछ मानते ही नहीं, कुनबी और बड़ी जाति के लोग उन्हें अपने कुएं पर नहीं चढऩे देते तथा बैंक के अधिकारी हीरो होंडा मोटर साइकिल पर तो ऋण देने को तैयार हैं लेकिन बीज और खाद के लिए किसान को नहीं। इन स्थितियों का समाधान शकुन को बौद्ध धर्म स्वीकार करने में लगा। और वह अपनी नारकीय स्थितियों से उबरने के लिए बाध्य हो गई। 'राम, सीता, गणेश, शिव, विष्णु, दुर्गा कचरे की तरह एक-एक कर फेंके जा चुके थे। काली का एक फोटो भी फेंका गया। योग-क्षेम वहन करने के लिए उसने हिंदू देवी-देवताओं की फौज खड़ी कर रखी थी-सब भरम! सब बेकार! अब इनकी जगह भगवान बुद्ध, अंबेडकर, फुले, सावित्रीबाई फुले। शकुन ने कुछ सोचा, जाने क्या सोचा, फिर मां काली की प्रतिमा भी वापस लाकर आंचल से पोंछा, सिर नवाया और इनमें सजादी। छोटी ने एक और भी फ्रेम लाकर बीचोंबीच जड़ दिया। पति-पत्नी ने आश्चर्य से देखा-बाबा साहब की वाणी-शिक्षित हो, संगठित हो, संघर्ष करो।' शकुन को यह विश्वास था कि बौद्ध धर्म अपनाने के बाद उसके सारे संकट स्वत: ही समाप्त हो जायेंगे। हिंदू लड़के बेटी की शादी में दहेज मांगते हैं लेकिन बौद्ध लड़के ऐसा नहीं करेंगे। बौद्ध हो जाने के बाद मंदिर का पुजारी उसकी बेटी को गलत दृष्टि से नहीं देखेगा, बैंक का अफसर उसे कर्ज दे देगा, साहूकार उसके प्रति नरमी बरतेगा और उसके खेत में पकी फसल से सोना उसके घर में बरसने लगेगा। पर ऐसा नहीं हुआ। यह बौद्ध धर्म की पराजय नहीं है बल्कि यह व्यवस्था की पराजय है, जिसमें किसान जीने को विवश है। किसान की परेशानियों की ओर किसी का ध्यान नहीं है, यदि उनके पूरे परिवार के श्रम का मूल्य देखा जाये तो उसे फसल से मिलता क्या है? चारों ओर से घिरे शिबू ने अपने ही बनवाये कुयें में कूद कर आत्महत्या कर ली। शकुन की पड़ौसन शुभा बोली 'पड़ोसी होने के नाते मैं जानती हूं इस परिवार को। इसी कुएं में सरकारी कर्ज के चलते तीन साल से इस परिवार ने त्योहार के दिन भी कभी पूड़ी-पकवान नहीं बनते देखा। पूड़ी-पकवान  तो दूर, भर पेट कभी दोनों जून जेवण भी नसीब हुआ हो- मुझे संदेह है।' रात-दिन खेत में खपने वाले किसान परिवार की यह स्थिति है और कहा जाता है कि फाइव स्टार होटलों में जितनी झूठन फेंकी या बर्बाद की जाती है उससे दुनिया की भूख समाप्त हो सकती है। पर अन्न उगाने वाले किसान को तीज-त्योहार भोजन नसीब नहीं है। छोटी जाति और छोटी जोत के किसान की समस्या धर्म नहीं है, धर्म के पाखंड बड़े लोगों के लिए हैं, गरीब आदमी को न इस धरती पर कोई सहारा देता है और न ऊपर। धार्मिक आदमी विश्वास के सहारे जीता है लेकिन जिस दिन परिस्थितियां उसके विश्वास को तोड़ती हैं, उस दिन आत्महत्या करने के अलावा और कोई रास्ता उसे दिखाई नहीं देता। 'फांस' में ही एक और महत्वपूर्ण प्रसंग है। पुजारी शिबू की लड़कियों को ताकता है तो शिबू और शकुन आपस में चिंता करते हैं। शकुन दोनों लड़कियों की शादी की बात करती है तो शिबू अपनी विवशता व्यक्त करता है 'अगर लाख-लाख रुपयों की डिमांड न होती। कहां से लाऊं? अब इस खेती में और बरक्कत तो होने से रही।' लड़कियों के शादी की चिंता के साथ दूसरी चिंता अब खेती में कोई बरक्कत नहीं है। खेती जो किसान के जीवन का आधार है, यदि उसमें कोई फायदा नहीं, गुजारा भी हो सकना मुश्किल हो तो ऐसी खेती का क्या लाभ? यह बड़ा प्रश्न है तो शिबू अपनी पत्नी शकुन से करता है। शकुन को भी कोई रास्ता दिखाई नहीं देता इसलिए वह बौद्ध धर्म स्वीकार करने के लिये कहती है 'हमने लाख समझाया, बौद्ध हो जाओ, बौद्ध हो जाओ। महार सारे ही बौद्ध हो गये, बाकी हमारे जैसे ही मुक्त नहीं हो पाये अभी तक उस मोह से-जाएं, न जाएं। एक कीच भरे गड्ढे से बड़े तालाब में आ जाने जैसा-जैसा चाहो मुलगा पाओ, जैसा चाहो मुलगी...। मैं पूछती हूं तुम इन हिंदुओं के पास जाते ही क्यों हो? ...तुम चुन-चुनकर हिंदुओं के पास ही जाते हो। हिंदु ठहरे न! तुम्हारी जाति मोह तो तुम्हें खींचेगा ही। तुम कैसे भूल जाते हो कि हमारे पुरखे कभी पीछे झाडू बांधकर और हाथ में डब्बा लेकर चलते थे, ताकि पीछे की अपनी छुई जमीन अपवित्र न हो जाये। बाबा साहब के लाख बुलाने पर भी जो न आ पाये, उन्हें तुम आदमी कहते हो? केंचुए हैं, केंचुए! बड़ी जात के हिंदुओं की संक्रामक दहेज की बीमारी से बीमार... अपने बगल के गांव में नील और चंदा के बाप को किसने मारा, फसल की बर्बादी ने? नहीं... इन्हीं हिंदुओं की इसी संक्रामक बीमारी ने!... मैंने कितनी बार समझाया दीक्षा ले लो, दीक्षा ले लो, मगर तुम...? आज भी उसी मंदिर में मत्था टेकने जाते हो, जिसका पुजारी पहले बाग के संतरों की लालच दे-देकर मुझे पटाने की कोशिश करता था। और अब बगुला भगत की तरह मंदिर के ऊंचे चबूतरे पर बैठकर नहाती औरतों और स्कूल जाती मुलगियों को घूरता रहता है।' यह पति पत्नी का आत्मीय संवाद है, जिसमें जीवन अनुभवों की कड़वाहट साफ दिखाई दे रही है। शिबू के पास कोई उत्तर नहीं है, वह न केवल निरुत्तर है बल्कि विफलताओं ने उसे तपते यथार्थ से परिचित करा दिया है। इसलिये पत्नी के तर्कों के सामने पराजित होकर वह घोषणा करता हैं 'आज से मैंने भी मंदिर को छोड़ दिया।' पर सनातन प्रश्न फिर सामने है कि क्या मंदिर जाना छोडऩे से उसकी समस्याओं का समाधान हो जायेगा? यदि समाधान इतना आसान होता तो शिबू को अपने द्वारा निर्मित कुएं में कूदकर आत्महत्या क्यों करनी पड़ती।
पिछले कई वर्षों से महाराष्ट्र में बढ़ती किसान आत्महत्याओं से दुखी होकर हिंदी और मराठी के चर्चित अभिनेता नाना पाटेकर ने एक एनजीओ 'नाम' शीर्षक से बनाया, जो किसान समस्याओं के लिए जमीनी स्तर पर महत्वपूर्ण काम कर रहा है। एक नाना सदियों से लंबित किसानों की समस्याओं का कितना समाधान कर पायेंगे, यह बाद की बात है। लेकिन बड़ी बात यह है कि उनके मन में उन्हें आत्महत्या करने वाले किसान परिवारों के बीच आने के लिए द्रवित किया। वे आये और लगातार अपने लिये नहीं बल्कि गरीब किसान और अनाथ हुये कृषक बच्चों के लिए लोगों को सहायता करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। नाना जैसे लोग इस भयंकर त्रासदी से जुड़ेंगे तो समाधान की ओर कुछ तो बढ़ेंगे। संजीव ने भी 'फांस' में ऐसे ही एक नाना को रचा है जो अपने ही किसान से कहता है 'सोचते हो, तुम्हारे दुखों से दुखी और द्रवित हो जायेगी सरकार! दान, दया की बरसात करेगी। है न? कीड़े-मकौड़े की तरह मर जाने वाले डरपोकों! तुम क्या समझते हो, तुम्हारे आत्महत्या कर लेने से शासन बदल जायेगा? प्रशासन बदल जायेगा? सिस्टम बदल जायेगा? कोच्छ नहीं बदलेगा! तुम समझते हो, तुम्हारे नेता लोगों का पत्थर दिल पसीज जायेगा। कभी नहीं। मइ देख के आता चंद्रपुर में, उधिर तुम मर रहे थे, इधिर सब नंगा नाच देख रहे थे।' नाना का यह दुख है जो अब आक्रोश हो गया है। वे अपने ही किसानों की रोज-रोज की आत्महत्याओं से चिंतित हैं, वे सरकार और अपने ही नेताओं की उपेक्षा से दुखी हैं। लेकिन वे यह स्पष्ट करते हैं कि आत्महत्या कोई विकल्प नहीं है, इससे समस्याएं सुलझने की अपेक्षा बढ़ती अधिक हैं।
संजीव जैसे वरिष्ठ कथाकार अपने उपन्यास 'फांस' के माध्यम से विदर्भ के किसानों की दयनीय अवस्था से परिचित कराते हैं। वे यह भी बताते हैं कि इस काली मिट्टी में उर्वर शक्ति बहुत है लेकिन साधनों के अभाव में किसान स्वयं अनुर्वर हो गया है। गांव का मुखिया, पटवारी, नेता, धार्मिक विश्वास, साहूकार और बैंक सब मिलकर उसे लूट रहे हैं। डॉ. अंबेडकर की निर्वाण स्थली नागपुर, महात्मा गांधी की कर्मस्थली वर्धा, विनोबा भावे की साधना स्थली पवनार तथा संत गाडगे बाबा और तुकड़ोजी महाराज की इस कथित पवित्र भूमि पर आज भी किसान आत्महत्या कर रहे हैं, यह तथ्य दिन के उजाले की तरह सबके सामने है पर इसके समाधान के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किये जा रहे हैं, यह चिंता 'फांस' के मूल में है।






सूरज पालीवाल अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हैं। प्रमुख आलोचकों में हैं और पहल में पहली बार अपनी भूमिका दे रहे हैं। आगे वे ममता कालिया और चित्रा मुद्गल के नये उपन्यासों पर क्रमश: लिखेंगे।

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