अनूदित सभ्यताओं के बीच मनुष्यता की टेस्ट ड्राइव

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    नवम्बर 2016
श्रेणी विमर्श
संस्करण नवम्बर 2016
लेखक का नाम सुबोध शुक्ल





उत्तर आधुनिक विमर्श/तीसरी कड़ी





आज के दौर का मीडिया-परिदृश्य,असीमित इलाकों की खोज का एक नक्शा है। सनसनीखेज़ और अक्सर ज़हरीले दृश्यों का अम्बार हमारे दिमागों में लगातार भरा जा रहा है, जो अपनी अंतर्वस्तु में ज़्यादातर मनगढ़ंत भी है। हम कैसे प्रचार, विज्ञापनों, खबरों और तमाशों की अंतहीन बाढ़ में किसी तरह की समझदारी खोज सकते हैं जहां राष्ट्रपति चुनावों के अभियान या चन्द्र-अभियान का मुद्दा, बाज़ार में आई नई टॉफीया डीयो से बिलकुल भी अलग नहीं है। हमारे अवचेतन पर उस व$क्त क्या बीतता है जब एक ही टेलीवीज़न स्क्रीन पर मिनट भर के अन्दर हम एक साथ प्रधानमंत्री की हत्या, अभिनेत्री के यौन-सम्बन्ध और एक कार-दुर्घटना में चोटिल बच्चे को देख रहे होते हैं?
(जे.जी.बलार्ड,द एट्रो सिटी एग्जीबिशन)
हम एक ऐसी दुनिया से घिरे हैं जहां फसादों की ज़रुरत के हिसाब से हमें खुद को ढालना है।
(कर्टवॉनगट, ब्रेकफास्ट ऑव चैम्पियंस)

विचार के सापेक्ष, मनुष्यता के पक्ष न तो आतुरता से तय होते हैं न ही अनौपचारिकता से। मनुष्यता एक पद्धति है और विचार उस पद्धति की अंतर्योजना। यह दोनों मिलकर, जिन जीवन-आस्थाओं और जैविक सह-अस्तित्व का बोध निर्मित करते हैं, वही संस्कृति कहलाती है। संस्कृति, दृष्टि और व्यवहार की आवयविक संगति भी है और उनकी ऐन्द्रिक सक्रांति भी। यही वजह है कि किसी सैद्धांतिक सामंजस्य या परियोजनात्मक बहसों से, संस्कृति को आंकड़ा बनाकर विचार की दुनिया में सूचीबद्ध तो किया जा सकता है पर उसके सीमान्त संवेग और अतिक्रमित अवचेतन को मनुष्यता का दीर्घकालिक वर्तमान नहीं बनाया जा सकता। इसलिए संस्कृतियों के सवाल जब अमूर्त होने लगें तो मनुष्यता और विचार की इकाइयां भी भुलावों से भरी एक विस्मयकारी गुमनामी में खोने लग जाती हैं। उत्तर-आधुनिकता को यदि इस परिप्रेक्ष्य में देखें-सुनें तो पायेंगे कि यह संस्कृतियों को संदिग्ध और मनुष्यता को स्मारक बना डालने की व्यवस्थागत साजिश का जितना पर्दाफाश करती लगती है, उस व्यवस्था की कार्य-प्रणाली की भी नकाबपोश हिस्सेदार बनी दिखती रहती है।
हम देख आये हैं कि उत्तरवादी संवादों ने बड़े उग्र रूप से हमारे खुद को, दूसरों को और आस-पास पसरी समूची सामाजिक विडंबना को संबोधित करने के नज़रिये को बदला है। आज जन-संचार और बाज़ार के माध्यमों के द्वारा वैश्विक उपभोक्तावाद के खोल और ढाँचे, स्थानिकपूंजी के नव-साम्राज्य को गढ़ रहे हैं जो अपना तात्कालिक यथार्थ तो स्वयंनिर्मित कर ही रहे हैं बल्कि एक अनश्वर पाखण्ड भी रच रहे हैं, साथ ही प्रतिरोध और प्रतिक्रिया के इतिहास-सम्मत सत्य को सांस्कृतिक कुचक्र की तरह पेश करने के लिए भी तत्पर हैं। यह जाली यथार्थ, जीवन और विचार में पोर्टेबल सरोकारों और संसाधनों की तरह प्रवेश करता है और यथार्थ के प्रति तैयार एक समूची मूल्य-व्यवस्था को ठगने लगता है, उन्हें संशोधित करता है और आग्रहों को शोषित करता है। क्योंकि जो हम देखते, सुनते और महसूस करते हैं उसमें अपनी दैनंदिन स्मृति के साथ, अपनी उपस्थिति के पाठ को व्याख्यायित और विवेचित भी करते चलते हैं। इसलिए यह अवांतर केंद्रीयताओं और एकीकृत अतिरेकों का विश्व है जिसमें छवियाँ, समाजगत और सभ्यतागत सत्य का मूलाधार होती जा रही हैं। आज न तो किसी किस्म की कोई पारिवारिक परम्परा है और न ही कोई राष्ट्रीय संस्कृति जो हमारे मत और आचार को प्रभावित करती है बल्कि हर ओर ऐसी उजाड़ और विवादास्पद आवश्यकता मौजूद है जो मीडिया और उपभोक्ता-संस्कृति के द्वारा तय,अस्थिर और आधारहीन मानकों द्वारा नियंत्रित है। ऐसा लगने लगा है कि उपभोक्तावाद का वैश्विक चरित्र हर तरह की स्थानिकता में, एक किस्म की सर्वग्रासी निगरानी को आरोपित करता जा रहा है जिससे कि स्थानिकता,उपभोक्ता के पहचान-बोध में ढलकर परम्परागत संस्कृति को बाज़ार लायक पदार्थ-बोध में तब्दील कर देती है। ऐसे में भाषा और छवियों की भूमिका, सभ्यताओं के मैकेनिज्म को बनाए रखने में जुगाड़ की तरह प्रयुक्त की जाती हैं। अर्थ, सत्य एवं यथार्थ की अस्थिरता, व्यापारिक सैन्यवाद द्वारा बढ़ाई जाने लगती है तथा मीडिया-छवियों तथा भाषाओं के ज़रिये अभिव्यक्त की जाती है।
पहचान-निर्माण में ऐतिहासिक बदलाव, संस्कृति के द्रुत पदार्थीकरण से सीधे जोड़े जा सकते हैं - वह संस्कृति जो उपभोग के प्रयोजन के रूप में, संचार-माध्यमों के विकास और प्रभाव में कहीं गहरे अन्तर्निहित है। व्यापक तौर पर उत्तर-आधुनिकता को परिभाषित करने वाले सांस्कृतिक बदलाव, समाज के वृहत्तर आर्थिक और राजनीतिक परिक्षेत्र में विकास के विस्तीर्ण जत्थे का हिस्सा होते हैं। पूंजी और संचार का वैश्वीकरण; सर्वसत्तापरक पूंजीवादी पुनर्गठन, और कारपोरेट संचार माध्यमों की सघनता से मिलकर बनता है जिससे नए और बहुस्तरीय सांस्कृतिक इलाके की हदबंदी और बनावट का निर्माण होता है। जो इस सांस्कृतिक इलाके को सबसे ज़्यादा विशिष्ट बनाता है वह है संस्कृति-सत्ता-बोध का विस्तृत क्षरण और सांस्कृतिक श्रेणी-क्रम का विनष्टीकरण जो आमतौर पर आधुनिकतावादी समाज का मजबूत रूपक माना जाता रहा है। इस किस्म के बदलाव इस बात का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं कि पुराने सांस्कृतिक बिम्ब और आकार (आभिजात्य[Elite]और साधारण [Popular] संस्कृति) कमज़ोर हुए हैं और सांस्कृतिक सार्वजनीनता का बढ़ता हुआ लोकाचार, एक विभिन्न किस्म की इतिहास-चेतना को विकसित कर रहा है।
उत्तर-विमर्शों की और मुडऩे पर, हम संस्कृति के अधिकार-क्षेत्र में हो रहे रूपांतरण के पीछे छिपे बदलावों की असल प्रक्रिया को देख सकते हैं। लम्बवत सन्दर्भों में, ये सभी बदलाव की मूर्त और ऐन्द्रिक प्रक्रियाएं हैं जो कि अपने स्वभाव में बेहद आर्थिक, सांस्थानिक और तकनीकी हैं। निस्संदेह उत्तर-आधुनिकतावाद के सन्दर्भ में उत्तर-आधुनिकता और आधुनिकता के आपसी फर्क की समस्या को भी समान धरातल पर देखने-समझने का प्रयास है कि किस आधार पर हम विकास के 'उत्तर' पक्ष को न्याय संगत ठहरा सकते हैं? इन दोनों सिलसिलेवार विकासगामी अवस्थाओं के बीच की विच्छिन्नताएं और निरंतरताएं क्या हैं? उत्तरकालीन-विमर्श, आधुनिकता के नतीजे के तौर पर, विकास के एक रैखिक नमूने में टूटन की श्रृंखलाओं के तौर पर चित्रित किये जाते हैं जो कि सामान्यत या उन समाजों से जुड़े होते हैं जो आधुनिकतावादी व्यवस्था के प्रतिस्पर्धी टकरावों से गुज़र रहे होते हैं। तफ्सील से कहा जाय तो यह प्रक्रिया पूंजीवाद के सर्वाधिक उन्नत कार्यक्षेत्र में, अनगिन नवीनीकरण तथा एकीकरण के साथ संयुक्त रहती है और साथ-साथ दुनियावी स्तर पर पूंजी के प्रधान प्रसारण तथा समानुरूपता को भी समझने में मदद देती है। कुछ विशेष सन्दर्भों में उत्तर-विमर्श, पूंजीवादी व्यवस्था के भूमंडलीकरण के एक नए दौर में प्रवेश को चिन्हित करता है। इस दौर के सहयोगी रहे संरचनात्मक और सांस्कृतिक स्थानांतरणों को, सामुदायिक समरूपताओं की विभिन्न दशाओं के बीच एक कठोर तनाव के रूप में देखा जा सकता है (नस्ली, धार्मिक, वर्गीय और लैंगिक) जो कि आधुनिकतावादी दौर की निर्णायक एवं टिकाऊ रूपरेखा बनाने का दावा करते थे।
इसलिए उत्तर-विमर्शों के सम्बन्ध में यह पूर्वधारणा गलत नहीं मानी जायेगी कि यह मिश्रित स्थानिकता और वैश्विक आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक समबन्धों का एक दस्ता है। अमेरिका में आंतरिक और घरेलू बदलाव, जहां उत्तर-आधुनिकता के लक्षण संभवत: सर्वाधिक तीव्र और मारक हैं, वृहत्तर आर्थिक और तकनीकी शक्तियों के गुटों के साथ एक समुच्चय की स्थिति में घटित होते हैं जो 'दूसरे' और 'तीसरे' विश्व को लगातार अपनी सुविधाओं के अनुसार पुनर्गठित करते हैं और स्वेच्छाचार से नियंत्रित करते हैं। सचमुच ही यह रूपांतरण इतने गहरे और प्रभावी हैं जिनके कारण विभिन्न किस्म के भाषागत विपर्यय और संकल्पनात्मक विरचनाएं जन्म लेती हैं जिनसे अर्थगत विरोधाभासी नाम-पद्धतियों का विकास होता है (जैसे-प्रभुता [Centre] और हाशिया [Periphery]) जिन्हें कि कालक्रमानुसार अप्रचलित हो जाना चाहिए था। थोड़ा आगे बढऩे पर ही वैश्विक परिदृश्य में एक नज़र मार लेने पर यह दिख सकता है कि भूमंडलीय विसंगठनीकरण की बड़ी चालाक और अस्थिर गति, दो तरह से राष्ट्रों की संप्रभुता के बीच गतिमान रहती है - वृहत्तररूप से अन्योन्याश्रित और क्षैतिज रूप से वियोजित। विकासगामी बदलावों के चलते, साधारण अग्रगामी सामाजिक ढाँचे का बेतरतीब हो जाना या उलट-पलट जाना बेहिसाब बढ़ा है, और अंतिम रूप से समाजों के भीतर और आपस में पुराने सांस्थानिक ढांचों में व्यक्तिवादी परिवर्तनों ने, एक पहचान योग्य संरचना तथा संबंधों के नियमित अनुशासन के रूप में, चिन्हित और सीमाबद्ध समाज की सिंथेटिक अवधारणा को खतरे में डाल दिया है।
इसलिए पश्चिम समाजों में पहचान की अस्थिरता, सांस्कृतिक सांचे के रूपांतरण और वाणिज्यिक लिप्साओं के दायरे में बढ़ते अस्थायित्व में अपने होने की हकीकत तलाशती है जो कि दुनियावी स्तर पर विशाल आर्थिक और तकनीकी पुनर्संरचना के साथ जुडी हुई है। इस पुनर्संरचनाके केंद्र में नई आर्थिक वरीयताओं, समझौतों और प्रबंधनों के सूचनात्मक घेराव और मनोरंजनकामी परिदृश्य हैं। ये सभी व्यापक रूप से प्रसारित उपभोक्ता-पूंजीवाद की सेवा में कार्यरत हैं। यह बदली हुई पूंजी का साम्राज्य, वर्चस्व और प्रभुता की एकाधिकारवादी राजनीतिक प्रौद्योगिकी को, जो कि आधुनिकतावादी चिंतन-पद्धति की देन है, क्षीण करता है; इसके सांस्थानिक ढाँचे को अस्थिर करता है तथा सांस्कृतिक उत्पादन एवं उपभोग के पुराने 'सामाजिक स्वायत्तशासी मैकेनिज्म' को संस्कृति के  वैश्विक बाज़ार के सम्बन्ध में अधिक उपयोगितावादी, गुस्ता$ख और तरल प्रबंधनों वाला बताते हुए भंग करता है।
हम यह जान चुके हैं कि आधुनिकतावाद का प्रयोग, पश्चिम की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विकासशीलता को व्याख्यायित करने के साथ-साथ गैर-पश्चिमी देशों में पश्चिमी अनुभवों के अनुकूलन के प्रसार के लिए होता रहा है। विशेषतया यह पद, विज्ञान और तकनीक के उत्पादन की सामर्थय के रूप में एक सत्ता के अभ्युदय, उद्योग, बाज़ार और नौकरशाही के उदय, राष्ट्र-राज्यों के जन्म एवं जन-संचार के द्वारा विचार को साक्षरता के रूप में सामने लाने का उपक्रम रहा है। समाज वैज्ञानिक रूप से देखने पर भी यह कहा जा सकता है कि आधुनिकता को सामान्यतया सामाजिक ताने-बाने के रूपांतरण के ज़रिये, नगरीकरण की प्रक्रिया के साथ सामने लाया जाता है जो नए वर्ग-तंत्र के निर्माण के साथ आगे बढ़ता है।
मार्शल बर्मन ने आधुनिकतावाद की केन्द्रीय विचारधारा 'वृद्धि और विस्तार' बताते हुए उसकी पूरी प्रक्रिया को 'रचनाशील ध्वंस' नाम से पुकारा है - एक ऐसी अनिवार्य दशा जिसमें आर्थिक और सामाजिक प्रगति में  पडऩे वाले हर तथाकथित 'रोड़े' का विनाश ज़रूरी करार दिया गया। इससे जीवनचर्याओं के पारंपरिक रास्तों पर पडऩे वाले पूंजीवादी विकास के विघटनशील प्रभावों का जायजा लिया जा सकता है। ध्यान रहे कि आधुनिकता,पूंजी के आभ्यंतरिक गतिशील और खर्चीले तंत्र को अधिकमारक और बेध्य बनाती है। आधुनिकतावाद को इन अर्थों में पूंजी के समानांतर प्रयोगों (रचनात्मक और विध्वंसक) पर आधारित आर्थिक प्रक्रिया के रूप में समझा जा सकता है जिसकी संचालक शक्ति, असबाबों के उत्पादन और वितरण के ज़रिये बाज़ार का उन्नयन है। अपनी हर बदलती हुई दशा और दिशा की क्रमिक गतिशीलता के द्वारा आधुनिकता, हस्तक्षेप करने वाली और लगातार बिफरी रहने वाली एक प्रणाली की तरह सामने आती है और यही वजह है कि उत्तर-आधुनिकता को आधुनिकता की तदनुरूप वर्गीयता के सापेक्ष विवेचित और विश्लेषित किया जाने लगता है। यह विस्तारवादी प्रक्रिया आधुनिकता की संरचना के अंतर्गत ही पैदा होती है और कुछ  विशेष मामलों में उसके फैलाव और विन्यास में भी मौजूद रहती है। यह ध्यान रहे कि ऐसी दशा में आधुनिकता, पूंजी और विज्ञान की ताकत का प्रयोग पुराने तौर-तरीकों और जीवन-शैलियों को विनष्ट करने के लिए तथा यथोचित रूप से पूरी निर्दयता और हठ के साथ 'पारंपरिक' (जिसे आधुनिकता; आदिम, बर्बर और असभ्य समाज कहती है) समाज से 'आधुनिक' (तर्कसम्मत, वैज्ञानिक, वर्गीय) समाज के बीच कालगत संक्रामकता दिखलाने के लिए करती है। वहीं उत्तर-विमर्श, पूंजीवादी विस्तार की प्रक्रिया में सामाजिक नियंत्रण और साम्राज्यवादी प्रतिहिंसा के नए रूपों के साथ, कुछ मौलिक और अभिनव घुमावों तथा संशोधनों के प्रस्तुतीकरण के रूप में सामने आते हैं।
आगे चलते हुए इस बात का स्मरण रखना आवश्यक है कि उत्तरकालीन विचारधाराएं, उत्पादन एवं खपत की बदलती हुई प्रकृति और प्रतिमानों के लिए; जन-संचार के इर्द-गिर्द समाज और संस्कृति के पुनर्वास के लिए; भूमंडलीकरण के नए उपक्रमों के ज़रिये पूंजी और संस्कृति के आत्मलिप्त अर्थतंत्र को जानने के लिए एवं पहचान आधारित सामाजिक आन्दोलनों के उभार के लिए जानी जाती हैं. सबको एक साथ समेटते हुए ये बदलावों के चार आयाम, सामाजिक-सांस्कृतिक अस्थिरता की परिस्थितियों की शिनाख्त करते हैं। इस तरह से आधुनिकता के बुनियादी ढाँचों का विलोप प्रारम्भ होता है और हम बड़े पैमाने पर स्थानीय और वैश्विकशक्ति-केन्द्रों के नए सिरे से पुनर्गठन के गवाह बनते हैं. आधुनिकता का पराभव इन सन्दर्भों में शब्दकोशीय मंतव्यों में विनाश [Destruction] तथा सृजन [ Creation] से संरचना-ध्वंस [Destructuration] और विकेंद्रण [Decentralisation] की ओर होता है। ऐसे स्थानापन्न शब्दकोष, रैखिक विकास के सुपरिचित नमूनों के चरणबद्ध टूट के संकेत भी हैं। जैसा पहले इतिहास और प्रगति के ज्ञानोदयी इरादों में प्रकट किया गया था वही बदलाव की नई मध्यवर्गीय अस्मिताओं तथा निरंकुश जातीयताओं की प्रक्रिया में भी प्रदर्शित होता है।
अमेरिका के सन्दर्भ में, यद्यपि आधुनिकता के प्रभावशाली ऐतिहासिक प्रतिमानों की उपनगरीय, उपभोक्तावादी तथा नौकरशाही वृद्धि की, विश्वयुद्धों के दौरान क्षयकारी परिणतियाँ दिखाई देने लगी थीं, उत्तर-आधुनिकता का परिवृत्त सत्तर के दौर से ही ज़्यादा स्पष्ट रूप से रेखांकित किया जा सका। इस दशक के आर्थिक संकट,आर्थिक नीतियों, संरचनाबद्ध क्षेत्रीयताओं,संस्थाओं तथा बहुलतावादी आख्यानों के स्पष्ट स्थानान्तरण, पूंजीवादी सौन्दर्यबोध में एक नई दिशा का संकेत करते हैं। विश्व युद्धोत्तर समृद्धि के पतन और साठ के दशक की संस्कृति एवं राजनीति के सत्तरवें दशक तक के क्रमिक क्षरण और कुछ आर्थिक, सामाजिक, और राजनीतिक मुसीबतों तथा संभावनाओं की श्रृंखला के साथ, जिसे आधुनिकता नहीं कहा जा सकता था, पश्चिमी आधुनिकता का महा-आख्यान दरकने लगा था।
उत्तर-आधुनिकता,वस्तु-उत्पादन तथा विपणन की उसी समान गतिकी के सिद्धांत का प्रतिफलन है जिसने आधुनिकता की प्रक्रिया को भी निर्देशित किया था। यदि हम इसे आधुनिकता के सन्दर्भ में कोई निर्णायक पाठ अथवा अंतराल न मानें तो उत्तर-विमर्श आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक नियंत्रण की आधुनिक शासन-पद्धतियों का पराभव और 'आधुनिक सांस्कृतिक निगमों एवं नमूनों' का बिखराव है। इसलिए उत्तर-आधुनिकता को लक्षित करने का जो सबसे हुनरमंद तरीका है वह सामाजिक और सांस्कृतिक संबंधों पर पडऩे वाले विसंरचनात्मक प्रभाव और इसके श्रेणी-क्रम के आधुनिक प्रतिरूपों के पारस्परिक क्षरण में है। इसके  साथ ही विसंरचना की प्रक्रिया और इसके पहचान-बोध पर पडऩे वाले अस्थिरतावादी प्रभाव, विशेषरूप से वस्तु-उत्पादन एवं खपत के चरित्र-व्यवहारों में बदलावों के ज़रिये और आर्थिक जीवन में नए वैश्वीकरण तथा नए सामाजिक आंदोलनों के उभार के ज़रिये परिलक्षित किये जाते हैं।
सामाजिक भूमिकाएं, पहचानें,नज़रिए, मूल्य और रोजमर्रा के जीवन-विन्यास, आधारभूत विभाजनों से गुज़र रहे हैं। जिसकी वजह है जीवन-शैली के रूप में उत्पादन के कार्यक्रमों और उपभोग के उदय में पारस्परिक उथल-पुथल और अस्त-व्यस्तता का होना। पारंपरिक ऐतिहासिक वृत्तांत, आधुनिक दौर में उपभोग के महत्व कोनव-मानव और अधुनातन समूहों की आवश्यकता के बरअक्स, एक अस्मितामूलक उपलब्धि मानता रहा जो कि परम्परागत समाजों की टूट के बाद जन्म लेता है। इस रूप में उपभोग का उदय दोनों रूपों में अन्तर्निहित है- निजी आस्वाद के रूप में और चुनाव के सर्वाधिकार में। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि व्यक्तिनिष्ठ एकायामी संस्कृति; 'अन्यथा' और 'अपरिमित' की संस्कृति तथा सामाजिक विशिष्टीकरण की स्थापना की आवश्यकता में, भौतिक संसाधनों के पूर्णतावादी या शुद्धतावादी तंत्र का हिस्साबन कर काम करती है. खपत की ओर आर्थिक जीवन का सर्वतोन्मुखपाठ, पूंजीवाद की अपने को बाज़ार की निरंतरता में सक्रिय करते रहने की ही एक प्रक्रिया है। यह धारणा पश्चिम के विभिन्न उन्नतिशील विभागों में सत्य बनकर पैठी हुई है कि खपत एक गहरे मोर्चाबंद प्रतिमान के बतौर संस्कृतियों को सरलीकृत करने की एक विधि है।
जो सदी के शुरुआती सालों में एक विशेष सांस्कृतिक तनाव या अभिवृत्ति के रूप में थी, वही खपत विश्वयुद्धोत्तर दौर में आर्थिक पुरोहितवाद को परिभाषित करने वाला वर्चस्ववादी मानदंड बनकर सामने आ गई और उन्नतिशील पूंजीवादी समाजों में भंडारण और नियंत्रण का केन्द्रीय साधन बन गयी। यह संभव हो सका खपत के बहुस्तरीय निजीकरण के माध्यम और उपभोक्ता-संस्कार के सहवर्ती उदय से, जिसने स्वयं को विचारधारात्मक रूप से आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन की निजी खरीद और पदार्थ के इस्तेमाल तक सीमित कर दिया। उपभोग आधारित अर्थव्यवस्था की तंग मांगों ने, रोजमर्रापन के हस्तक्षेप से बिंधकर मोटिफ, ड्यूज़ और डंप के कट्टर हिसाबी साधनों के द्वारा उस हदबंदी को धुंधला दिया है जो समाज के आर्थिक और सांस्कृतिक दायरे को रेखांकित करती थी और सामाजिक तथा सांस्कृतिक अनुभवों को वैचारिक विश्वास की तरह देखती थी। उत्तर-आधुनिकता का समूचा वृत्तांत, सत्तर के दशक  के  दौरान, वैश्विक अर्थतंत्र की रणनीतिक कार्रवाही और संरचनापरक स्थानान्तरण पर केन्द्रित है और इसी अवधि के दरमियान, उपभोग की प्रकृति और सांचों में बदलाव की अनुवर्ती मांगों पर भी।
हम यह जान चुके हैं कि  उत्तर-विमर्शों और उपभोक्ता-संस्कृति, दोनों को नाटकीय और आकस्मिक कश्मकश से भरे संकेतों के रूप में लिया जाता है क्योंकि ये दोनों ही दोहरे सापेक्षीकरण (परम्परा और अधुनातन की परम्परा)के फलस्वरूप, सामाजिक बुनावट की प्रकृति को बदलने का काम करते हैं। जब हम यह कहते हैं कि आधुनिकता ने सभी बुनियादी मूल्यों पर सवाल खड़े किये और उन मूल्यों को स्थापित किया जिन्होंने नैतिक सामंजस्य और अनुकूलताओं के निर्माण की संभावना के परे मनुष्यता को ढकेला और यह देखने की क्षमता के लायक बनाया कि व्यक्तिनिष्ठ पहचान, निर्माण के सभी स्वरूपों को उनके  प्रतिरूपों के साथ धता बता सकती है तो ऐसे में हम एक किस्म के अतिरंजित एकरूपीकरण और पूर्वाग्रही वैकल्पिकता का सामना करते हैं। और ऐसे व$क्त पर यह सवाल बड़ा सामान्य है कि ये बदलाव इतने सर्वव्यापक कैसे हैं?
सामाजिक पहचानों के बदलाव की आम फहम प्रकृति के ऐसे प्रबंधन को सुलझाना कठिन है जिसकी ओर उत्तर-विमर्श इशारा करते हैं। क्योंकि बदलावों की पहचान, सामाजिक अनुभवों और संबंधों के आलोचनात्मक समन्वय और संभावनाओं पर निर्भर करती है। इस पहलू से देखने पर क्या यह नहीं कहा जा सकता कि नई अवधारणायें ऐसी नई आशंकाओं और उपेक्षाओं को भी मुहैया कराती हैं जो हमारे देखे गए यथार्थ या यथार्थ के अनदेखे पहलुओं की ओर ध्यान ही आकर्षित नहीं करातीं बल्कि एक नए किस्म के इलहामी और अनैतिहासिक यथार्थ के निर्माण में भी मदद करती हैं।
इसलिए बुनियादी मूल्यों की पड़ताल करने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि सामाजिक -चेतना की पैमाइश में अमूर्तता का इस्तेमाल न्यूनतम हो और विभिन्न मूल्यों की विचार-पद्धति की बहुलता का समर्थन, एक स्वीकृत मूल्य परिवृत्त में सह-अस्तित्व के तौर पर किया जाय जो सामूहिक चेतना के पक्ष में,सशक्त अर्थपूर्ण विकल्पों के बीच चुनावों की यातनादायी नियति के साथ खड़ी हो सके। मूल्य तभी प्रभावशाली रूप से मौजूद हो सकते हैं जब वे विभिन्न मानवीय समूहों के द्वारा व्यावहारिक और चलायमान तरीके से इस्तेमाल हों। जब हम व्यक्ति और उसकी आस्था परबात करते हैं तो यह पूछना आवश्यक हो जाता है कि कैसे विमर्श, विचारधाराएं और छवियाँ, समुदाय विशेष के द्वारा प्रयोग में लाई जाती हैं? और मनुष्यों के बीच विश्वासों के हस्तांतरण और ज्ञान के व्यवहार के साधन क्या हैं? अकादमिकों, बौद्धिकों और कलाधर्मियों के द्वारा संस्कृति के उत्पादन की प्रणाली को ठीक से समझे बगैर किस तरह से सांस्कृतिक असबाब की पैकेजिंग होती है? और कैसे यह विभिन्न बिचौलिया सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा संप्रेषित होकर जन-समूहों तक पहुंचती है? इस विभाजन को समझना कठिन हो जाता है कि संस्कृति विवेचकों द्वारा विवेचित संकटकाल, वस्तुत:सामाजिक और राजनीतिक संकटकाल ही है।
बहुतेरे टिप्पणीकारों ने उत्तर-आधुनिकता के उदय को,उपभोक्ता-संस्कृति से जोड़कर देखा है क्योंकि दोनों के संवाद का मूल विषय संस्कृति ही है। यहाँ एक $खास तरह का विस्थापन देखने को मिलता है -उपभोक्ता संस्कृति, उत्पादन के अनैच्छिक रूप में उपभोग की विचार-पद्धति से, एक सामाजिक पुनरुत्पादन के रूप में  उपभोग की भौतिक अनिवार्यताओं में स्थानान्तरित होती रहती है। यह प्रवृत्ति मात्र उत्पादन की वृद्धि एवं पदार्थ के रूप में सांस्कृतिक माल की खासियत की ओर ही इशारा नहीं करती बल्कि उस रास्ते को भी बताती है जिसमें सांस्कृतिक क्रियाकलापों की बहुसंख्यकता और प्रत्यक्ष कार्य-प्रणालियाँ, उपभोग के ज़रिये मध्यस्थ की भूमिका में आ जाती हैं और उपभोग का अर्थ, उत्तरोत्तर रूप से चिन्ह और छवियों की खपत मात्र रह जाता है। लिहाजा उपभोक्ता-संस्कृति वे रास्ते चिन्हित करती है जिसमें उपभोग, उपादेयताओं और लाभ के साधारण स्वयात्तीकरण द्वारा जीवन-नैसर्गिकताओं और आनुभविक प्रतिनिधित्व को बाधित कर देता है और चिन्ह तथा छवियों की खपत में बदलने लगता लगता है जिसमें पदार्थ के सांकेतिक पहलू के अंतहीनरूप से स्वयं को पुनर्रचित करने की क्षमता पर जोर रहता है। उपभोक्ता-समाज की संस्कृति इसलिए खंडित-चिन्ह और छवियों की जटिल यांत्रिकी है जो अंतहीन संकेत-क्रीड़ाओं को उत्पादित करती है और लम्बे समय से अक्षुण्ण सांस्कृतिक मंतव्यों और अनुशासनों को अस्थिर करती रहती है।
उपभोक्ता-संस्कृति के केन्द्रीयलक्षण - विघटन और अत्युत्पादन; आमतौर पर उत्तर-आधुनिकता के भी केन्द्रीय लक्षण माने जाते हैं। हम समय के विखंडन को एक शाश्वत वर्तमान की श्रृंखला में इतिहास-बोध के क्षरण एवं खात्मे के तौर पर देखते हैं। पूंजीवादी सौन्दर्यबोध के लिए, एक विखंडित और विघटित संस्कृति को एकजुट कर सकने की अक्षमता, संकेतों और दृश्यों को एक अर्थवान नैरेटिव में एक जुट कर सकने की अक्षमता से प्रेरित होती है। संकेतों और छवियों का अबाध प्रवाह, बिखरे और तात्कालिक अनुभव-बोधों के बीच एक अनोखा सान्निध्य पैदाकर देता है। कला और बौद्धिक जीवन के अंतर्गत साठ के दशक में इस खंडित और उथली संस्कृति की विषय-वस्तुने नए तरह के पावर-पैराडाइम पैदा किये जो दूरगामी नैतिक क्षोभ और साधनहीन जन-संस्कृतियों की निंदा के उच्च सांस्कृतिक धरातल से लोकप्रिय और जन-सांस्कृतिक सौन्दर्य-बोध की ओर उत्सवधर्मी रूप से बढ़े। इन स्थितियों ने सांस्थानिक प्रतिमानीकरण और कला के कुलीनतावादी सामंती बोध को तोड़ा और कला; प्रचार, प्रसारण और मनोरंजन के पर्यावरण में बदलने लगी। यहाँ यह ध्यान रखने वाली बात है कि उत्तर-विमर्शों के अंतर्गत होने वाले सांस्कृतिक बदलाव, विश्वयुद्धोत्तर पूंजी के स्थानान्तरण, जिसे उत्तर पूंजीवादी व्यवस्था कहते हैं, से पनपे हैं जिसमें पूंजी केन्द्रीयकरण के उच्च मानक हैं। व्यापारियों की पारस्परिक प्रतियोगिताएं कम हुई हैं और पूंजीपतियों के बीच सहकार्यता बढ़ी है जिससे कि सांस्कृतिक प्रयोजनों में देश-काल के दबाव, उपभोग की सामाजिक चेतना को पूर्णवादी वर्चस्व में ढकेल सकने की सामथ्र्य रखने लगे हैं। उत्तर-आधुनिक अनुभव-बोध को उपभोक्ता-चेतना के सापेक्ष निम्न स्तरों पर समझा जा सकता है- दृश्यों और कूटों की आत्म विस्मृत भीड़-भाड़, कूट-भाषाओं की आपसी मिलावट, प्रति-यथार्थ और परा-यथार्थ का आक्रामक भाषा-शास्त्र, चेतना का अनासक्त, निरंकुश और उपाधिहीन मूल्यांकन, इतिहास, परम्पराओं और वर्तमान का आपस में गुंथजाना। पहली बात जो ध्यान में लानी है वह यह है  कि ये सभी अनुभव-बोध, उपभोक्ता-संस्कृति में अवकाश अथवा रिक्ति की संप्रभु इयत्ता के रूप में देखे-परखे जाते हैं (जैसे कि पार्क, पर्यटन-स्थल, आदि)। मीडिया ने सामूहिकता का अंत इस हद तक कर दिया है कि सामाजिक समागम स्वांग बन कर रह गए हैं और एक विशेष निर्वासित यथार्थ की भूमिका जैसे कि 'सब कुछ पहले ही घट चुका है' की भावना के साथ मीडिया, सूचनाओं और दृश्यों की बमबारी करने लगता है जिससे स्मृतियाँ और स्वप्न एक झटके से उड़ जाते हैं।
फ्रेडरिक जेमेसन ने उत्तर-आधुनिकता को एक ज्ञान-मीमांसा के रूप में प्रचलित किया यह बात अलग है कि वही हमारे दौर के उत्तर-आधुनिकता के सबसे कटुआलोचकों में से भी हैं। जेमेसन के लिए उत्तर-आधुनिकता, उपभोक्ता पूंजीवाद का सांस्कृतिक तर्क  है। यहाँ जेमेसन मैंडेल की माक्र्सवादी प्रणाली को उत्तर-आधुनिकता के सम्बन्ध में एक ऐसे नए सांस्कृतिक निर्माण की तरह देखते हैं जिसने द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर दौर में उत्तर अथवा बहुराष्ट्रीय पूंजीवाद के संक्रमण के साथ अपनी राह बनाई। जिसने अपनी सांस्कृतिक आधुनिकता के साथ एकाधिकारवादी पूंजीवाद के शुरुआती दौर को विस्थापित कर दिया है। जेमेसन की उत्तर-आधुनिकता की उपभोक्ता-संस्कृति का वर्णन, बॉद्रिया से प्रभावित रहा है जिसमें मीडिया अनुकूलित पेशेवर संकेतों और छवियों से पैदा एक उपनिवेशवादी ऊब और अतिरेक को रेखांकित किया गया है जहां संस्कृति का बाहुल्य उथली भ्रमपूर्ण पाखंडी दुनिया को पैदा करता है जो वास्तविक और काल्पनिक के बीच के फर्क को मिटा देती है। एक तरफ जहां बॉद्रिया इस किस्म के पदार्थबोधी चिन्ह को उसकी सर्वोच्चता में एक शून्यवादी तर्क के साथ टकराकर संतुष्ट हो जाते हैं वहीं जेमेसन नव-माक्र्सवादी सुरक्षित घेरे में अपनी ही विचारधारा की व्याख्या और आलोचना सुनिश्चित करना शुरु करते हैं।
उत्तर-आधुनिकता की व्याख्या करने में हम विचारधाराओं के न्यूनीकरण और उनकी सांयोगिकता के सांस्कृतिक बदलावों को,आर्थिक बदलावों की यौगिक संगति में ढालने वाले तत्व की तरह देखते हैं। डेविड हार्वी के प्रभावशाली ग्रन्थ The Condition Of Postmodernity (1989) में इसे सुविचारित रूप से विवेचित किया गया है। हार्वी, उत्तर-विमर्शों को सांस्कृतिक जिम्मेदारियों में आ रहे बदलावों के गुट के रूप में रेखांकित करता है जो फोर्डवाद से लेकर अराजकभंडारण (fle & ibleaccumulation) तक की यात्रा तय करता है। जेमेसन की तरह हार्वी भी,उत्तर-आधुनिकता को एक नकारात्मक सांस्कृतिक वृद्धि के रूप में देखता है जो अधीनस्थ सौन्दर्यबोध के द्वारा आचारशास्त्र के खंडन और स्थापन को निर्धारित करती है, जिसमें आलोचनात्मक तीव्रताओं और राजनीतिक हस्तक्षेप की उत्तरोत्तर कमी महसूस होती रहती है, जिसे हार्वी एक तरह से कलाधर्मी आधुनिकता का बढ़ाव मानता है।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सामाजिक सिद्धांतों के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि वह ऐसी विचारधारा को सामने लाये जिसमें विवेचनात्मक और संश्लेषणवादी धक्के लगा सकने की योग्यता हो। यह बात जान लेनी चाहिए कि संस्कृति और सौन्दर्य बोध के रूप न तो अटल हैं और न ही उनकी कोई स्थाई कार्यप्रणाली है। उनकी मौजूदगी के अर्थ उनको इस्तेमाल करने वाले लोगों द्वारा ही तय होते हैं। अर्थशास्त्र स्वयं एक कार्यप्रणाली है जो स्वयं संस्कृति के ज़रिये प्रतिनिधित्व और आवश्यकता के सिद्धांत पर निर्भर रहती है। जब यह बात सामने आई कि उत्तर-विमर्श; 'इतर', 'अन्य' तथा  'स्थानिकता' (स्त्री, समलैंगिक, अश्वेत, धार्मिक विभिन्नताएं) की वृद्धि पर जोर दे रहा है तो हार्वी इस बात को लेकर चिंतित थे कि बहुलता और अन्य आवाजों को स्वीकार कर लेने से हम सम्पूर्णता में चीज़ों को देखने की क्षमता खो देंगे और बिना एक किस्म के प्रतिनिधि परक और विवेचनात्मकढाँचे के हमदुनिया को बदलने की क्षमता भीखो देंगे। इस उदासीनता, बेपरवाही और अन्यथा-बोध की विभिन्न प्रणालियों का परिणाम यह होगा कि वे एकजुट होंगी और स्थान-बाधित परम्परावाद को खारिज कर देंगी। उत्तर-आधुनिकता, 'पूंजीवाद के एक नए दौर का सांस्कृतिक छायाभास है' - इस बात की पुरजोर वकालत करने वाले विमर्शकारों के बीच,जेमेसन और हार्वी के लिए यह अभी भी पूंजीवाद का पुरातात्विक उत्खनन ही है।
यह 'स्व' और 'निज' के लिए संदर्भच्युत होने का समय है। निस्संदेह ही यह भाषा और दृश्य की ताकत है कि उपभोक्ता-संस्कृति के प्रस्तावक, उपभोक्तावाद को एक क्रमिक निगरानी का सवाल बनाए रखते हैं। भाषा की ताकत इस दौर में प्रचार-तंत्र द्वारा महसूसी और प्रयास में लाई जाती है जो कि विशेष रूप से डिजायन की जाती है इस वृत्ति के साथ कि वस्तु-तुष्टि के झूठे दार्शनिक मानक तैयार किये जा सकें। यह मात्र ग्राहक को चीज़ों के लिए फुसलाना नहीं है पर यह शुरू से लेकर अंत तक निर्माण और प्रतीक की पूरी प्रक्रिया को निर्देशित करना भी है। किसी वस्तु को लेकर शब्दों के लगातार दुहराव,चेतना के स्तर पर एकजड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि पैदा करते हैं। यह भाषा, असिद्ध एवं त्रुटिपूर्ण बेतरतीब छवियों की पूंजी के साथ चलती है जो विभिन्न किस्म के स्वत्व निर्माण का संकेत देती है और अनजाने में धोखे से उपभोक्ता के आस्वाद को छलती रहती है। इसलिए प्रचार, मात्र आवश्यकता को तुष्ट करने वाले उत्पाद का प्रदर्शन नहीं है बल्कि वह ऐसी छवियों का जमघट है जो आवश्यकता, चाहना और तृष्णा को अंतहीन रूप से जन्म देता रहता है।
स्वतंत्रता के मायने यह हैं कि चुनाव की स्वतन्त्रता हो। पर उत्तर-विमर्शों में चुनाव का विकल्प, मूल्य, अधिकारों और राय को शामिल नहीं करता बल्कि जीवन-शैली को खरीद सकने की आज़ादी और संचयन की अपरिमित ताकत का बायस बनने लगता है। यहाँ तक कि शरीर भी बाजारीकरण के वस्तु-बोध में एक स्पेस की तरह मौजूद होता है- एक बड़ी मजबूत व्यापारिक रणनीति के साथ। देह को, दृश्यगत धारणा के औज़ार के रूप में अधिक स्वीकारणीय और प्रस्तुति योग्य बनाया जाता है। इस माध्यम से देह एक व्यापक बिम्ब में तब्दील हो जाती है। मानव शरीर माल तथा उत्पाद में बदल जाता है। शारीरिक यौनाचरण में अपराध-बोध, दमन और निहित वासनाओं का कोई मोल नहीं रह जाता और समूची देह, व्यापारिक संस्कृति की मुनाफाखोर मोहर में बदल जाने को अभिशप्त हो जाती है। ध्यान रहे कि देह मात्र उपभोक्तावाद का उपकरण नहीं है उसका शिकार भी है।
वैश्विक सभ्यता, उपभोग और भंडारण के ऐसे तंत्र में बदल चुकी है जो आभास और अनुमान पर आधारित है। ऐसी स्थिति में मानव-शरीर,आसानी से बड़े ही तरल और लचीले उत्पाद में बदला जा सकता है जिसे सुविधानुसार ताज़े रुझानों में बदले जा सकने की संभावना बनी रहती है। पहचान का निरूपण इन प्रचार-तंत्रों के लिये बहुराष्ट्रीय निगमों के द्वारा किसी भी राष्ट्र की राजनीतिक अस्मिता के खिलाफ जा सकता है क्योंकि ये अस्मिताएं राष्ट्रीय बिरादरी के अंतर्गत उपलब्ध नागरिक-बोधपर आधारित होती है। इसलिए समकालीन सांस्कृतिक पहचानें; संकर,जटिल और अंतर्विरोधी होने लग पड़ी हैं और जन-संचार इनके बनाव-संवार में महती भूमिका निभाने लग गया है। पहचानों का आधार,आर्थिक रूप से तय होता है जिसे कि वैश्विक उपभोक्ता बाज़ार में सहभागी होने के औद्योगिक आधारों पर व्यक्त किया जाता है। उदाहरण के तौर पर जन-संचार के माध्यम, दर्शक-समूह को राष्ट्रीय पहचान के भागीदार के रूप में नहीं देखते या राष्ट्र की सांस्कृतिक विरासत को सामने नहीं लाते, वे दर्शकों की वैश्विक उपभोक्तावाली पहचान को शिकार बनाते हैं। मध्यस्थ अनुभवों पर बल, पहचान के संकट काल को पैदा करते हैं, उस पहचान को सामने रखकर जो छवियों के सामने मौजूद हो रहे हैं। क्योंकि भाषा और छवि मिलकर दर्शक को उस स्थान पर ले आते हैं जहां वह अदायगी और वास्तविकता में फर्क नहीं कर पाता। एक उत्तर-आधुनिक, उपभोक्ता समाज में अपने लिए किसी भी तरह की कोई पहचान ढूंढ सकता है-प्रचार छवियों के द्वारा परोसी जा रही व्यक्ति प्रधानपूंजी और अंतहीन पहचानों के कारण। यह एक किस्म की प्लास्टिक निजताया फिर अनश्वर जालसाजी है।
उपभोग,स्व-निर्माण और स्व-अभिव्यक्ति का बुनियादी प्रकार है। उत्तर-आधुनिक उपभोक्ता समाज में स्व की अस्थिरता, सामाजिक स्तरीकरण की प्रक्रिया को अलगाव की प्रणाली के रूप में उपभोग के ज़रिये सामने लाती है। ऐसे में स्वत्व की वैधता, विलासिता के विभिन्न साधनों के उपभोक्ताओं के रूप में उत्पादों के सफल इंतजाम पर निर्भर होती है। परिणामस्वरूप समाज, उथले और अस्थायी अक्षवाली तरल छवियों का जमघट बन जाता है। यह एक फर्ज़ी दुनिया है जहां सब कुछ एक उपभोक्ता बनाने की दौड़ में संलग्न है जो स्व-केन्द्रित अपनी इच्छाओं के घेरे में कैद है। बॉद्रिया ने 'मीडिया संतृप्त चेतना' की बात The Ecstasy Of Communication में कही है जो आन्तरिकता के अंत की बात करती है। स्वायत्त व्यक्तिनिष्ठाओं की बात करने वाली मीडिया और कुछ नहीं बस सत्य और यथार्थ को अस्थिर करने का संयंत्र है,साथ ही सारे ऐतिहासिक और राजनैतिक सत्य को भी। ऐसे में व्यापारिक स्पेस, करतब, तमाशे और बाजारी रणनीति के तौर पर देखे जाने लगते हैं, छल-कपट की तरह नहीं।
इस वैश्विक अर्थतंत्र की उच्च व्यापारिक संस्कृति में,जो सभी राजनीतिक हदबंदियों को अतिक्रमित कर चुकी है एक संगठित राष्ट्रीय संस्कृति का मिलना अब मुश्किल है। राष्ट्रीय संस्कृति, ठोस सामूहिक स्व-छवि के साथ इस पदार्थ में बदलती जाती प्रक्रिया का सबसे अधिक शिकार हुई है। यह अनुभवों को एकक्रमिक षडयंत्र की तरह थोपने जैसा है कि अर्थगम्यता तात्कालिकता में है, न अतीत में है न भविष्य में। जबकि अतीत के बगैर परम्परा नहीं होगी और  परम्परा के बगैर भविष्य का कोई  नक्शा भी नहीं। परपरम्परा का पदार्थीकरण कर, उसे वर्तमान के जीवाश्म में रूपांतरित कर दिया जा रहा है। हमारी जड़े, डिब्बा बंद संग्रहण के ज़रिये उत्पाद के तौर पर हमें ही बेची जा रही है।
अंत में, वे विषय जो उत्तर-आधुनिक समाजों के अंतर्गत तय होते हैं बेहद संवेदनशील हैं  एवं  बड़े पैमाने पर मीडिया संचालित छवि और भाषा द्वारा निर्मित हैं। भाषा एवं छवियाँ, वाष्पशील पहचानों को निर्मित करती हैं जो कि उपभोक्ता बाज़ार के अंतर्गत, राष्ट्रीय पहचानों को अराजक, अस्त-व्यस्त उत्सवधर्मिता में ढाल देती हैं जिससे परम्पराएं भी पदार्थ में ढलने लगती हैं।
एक कबाड़ व्यापारी, ग्राहक को अपना माल नहीं बेचता वह अपने माल को ग्राहक बेचता है। वह अपने माल को बेहतर नहीं बनाता बल्कि ग्राहक को कमतर कर देता है।
(विलियम एस. बरोज़,नेकेडलंच)

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