द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद से यथार्थ के चतुर्भुज सिद्धान्त तक

  • 160x120
    नवम्बर 2016
श्रेणी विमर्श
संस्करण नवम्बर 2016
लेखक का नाम विनोद शाही





भूरी खाक़ धूल में दबी चिंगारियां/दो





वहीं के वहीं हैं राजमार्ग
विभाजित हैं प्रस्थान और मंजिल के बीच
कब्जा है सत्ता की लाल हरी बत्तियों का जिन पर
आते ही करीब मंजिल के जहां
'आगे कामचल रहा हैं' - की तख्तियां
रोक लेती हैं हमारा रास्ता
जिन के तीर की नोक के संकेत पर
मुड़ते हैं हम जिधर
होते हैं वे 'यू टर्न'
छोड़ते हैं हमें वे ऐसी जगहों पर
जहां प्रस्थान का भी कोई अता पता नहीं होता


वित्तीय पूंजी के इस दौर में अनेक वाम चिंतक उस 'इतिहास' को याद करते हैं, जब दुनियां भले ही दो ध्रुवों में विभाजित थी, परन्तु हमें पता था कि हमें किधर जाना है। हम चुनाव कर सकते थे और यातव्य की अपनी रुपरेखाओं वाले सपने भी देख सकते थे। रुसी रूपवाद के पितामह माने जाने वाले विक्टर रलोव्स्की ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि जब वे लेनिन के समर्थन में वोल्शेविक क्रांतिधारा का हिस्सा हुए थे तो उन्हें लगता था कि रूस के पीछे-पीछे अब यह पूरी दुनियां ही 'लाल' होने जा रही थी। लेकिन जैसे ही रूस में क्रांति हुई, विक्टर को लगा कि 'क्रांति के नये पहरेदारों' ने उनके समेत सभी लोगों को 'क्रांति के जनधर्मी माल' में बदल दिया था, जिस पर उनकी 'मोहर', स्वयं 'यथार्थ के मुकाबले में अधिक महत्वपूर्ण' मालूम पडऩे लगी थी। तो विक्टर अलहदा हो गए। 'जन की मुक्ति' के समानांतर वे कला में 'मनुष्य के अपनी तरह से देख सकते की मुक्ति' के लिए जद्दोजहद करने लगे। जल्द ही ट्राटस्की के कोप का शिकार हो कर उन्हें 'जनविरोधी प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ' की तरह शेष जीवन 'एक अजनबी' की तरह बिताना पड़ा।
इस घटना को यहां इसलिए प्रस्तुत किया गया है, ताकि हम 'इधर' या 'उधर' हो सकने की उस दौर की आजादी और चुनाव की संभावनाओं वाले पक्ष से वाकिफ हो सकें। आज हम यह भी देख सकते हैं कि क्रांति को किसी न किसी अर्थ में सभी बचाना चाह रहे थे, वे भी जो उनके रुसी मॉडल से सहमत थे और वे भी जो  'कुछ और भी' चाहते थे। प्रश्न 'पूंजीवादी उत्पादन पद्धति' के विकल्प को खोजने का नहीं था, प्रश्न था कि इस उत्पादन पद्धति के द्वारा त्वरित हो गई मुनाफों की रफ्तार को 'जनपक्षीय' कैसे बनाया जाये? कैसे उसे हृदयहीन और शोषक हो रहे पूंजीपतियों के एकाधिकार से बाहर निकाला जाये? और कैसे उसके भीतर से प्रकट होने वाले अमानवीय साम्राज्यवादी लिप्सावाद के हिंसक दुष्चक्र को तोड़ा जाए। तो, वे जो पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के 'निज़ी मुनाफावाद' के महामंत्र के उपासक थे, वे भी इससे परोक्षत: प्रभावित हुए बिना नहीं रह पा रहे थे और उन के लिए लगातार एक 'कल्याणकारी राज्य व्यवस्था' का अंतर्विकास करने का प्रजातांत्रिक कार्यक्रम, व्यावहारिक चुनौती बनता जाता था। लेकिन जैसे ही मानवजाति उतर-रूसी वित्तीय पूंजी वाले दौर में प्रवेश करती है, राजमार्गों के 'प्रस्थान और मंजिलों में विभाजित होने की स्थितियों' का भी अंत हो जाता है, साथ ही हम साक्षी होते हैं उत्तर-पूंजीवाद के बेशुमार अंतर्विरोधों के प्रकट होने के हालत का।
यहां स्लावोज़ ज़िजेक की यह चिंता झकझोरने वाली लगती है कि हमें अब क्या हो गया है? क्रांतिकारी दौर में हम कार्ल माक्र्स की इस धारणा को एक भविष्यवाणी की तरह ग्रहण करते थे कि जैसे ही पूंजीवाद अपने विकास के एक निश्चित चरण तक पहुंच जाएगा, उसके भीतर से प्रकट होने वाले उसके अंतर्विरोध ही उसके अंत का मुख्यकारक होंगे। वह दौर आ गया। अंतर्विरोधों की कोई कमी नहीं रही। लेकिन जिसे हम 'वाम-विकल्प' कह सकते थे - वह कहीं नजर नहीं आ रहा। चीन, वियतनाम, ब्राजील या क्यूबा जैसे देशों का लिबास भले ही समाजवाद की झाई से मेल खाता हो, पर देह पूंजीवादी मुनाफावाद के अपने अपने संस्करणों की निर्मिति हो चला है। श्रमिक को अब आप अमेेरिका में एक घंटे के काम के लिए तयशुदा आठ से पंद्रह डॉलर से कम का भुगतान नहीं कर सकते; पर इन देशों में श्रमिक के पास जो आ रहा है वह इस की तुलना में आधे से एक चौथाई तक कम है। चीन जैसे समाजवादी देशों को जो 'अतिशय मुनाफा' हो रहा है, उसकी मुख्य वजह है -सस्ता श्रम और हालात ऐसे हो गए हैं कि आप फिर भी न्यूयार्क के आसपास के कस्बों में रहने लायक जगह अपने जीवनकाल की कमाई के ज़रिए खरीद सकते हैं, लेकिन बीजिंग और उसके आसपास के इलाके आम आदमी के जीवन भर की कमाई के लिहाज से भी एक दु:स्वप्न जैसे हो गए हैं। स्लावोज ज़िजेक यहां एक और अंतदृष्टि देता है कि वित्तीय पूंजी का मुक्त बाज़ार, पूंजी और उत्पाद पर सरकारी प्रतिबंध हटाने की बात करता है, पर श्रमिक की 'बहुराष्ट्रीय आवाजाही' को उल्टे और अधिक कड़े नियमों से प्रतिबंधित करता जाता है। इसके पीछे एक वजह यह खोजी जा सकती हैं कि विकसित देशों में केंद्रित यह वित्तीय पूंजी-तंत्र, श्रम के दोहन के लिए खुद परोक्षत: ज़िम्मेवार हो कर भी, इसके लिए अन्य ही देशों को प्रत्यक्ष रूप से दोषी बनाए रखना चाहता है। इस का 'फायदा' वह उठाता है, परन्तु जब चाहता है, मानवाधिकार हनन का प्रश्न उठाकर, या बालश्रम के नाम पर दूसरे देशों की मंडियों में आने वाले उत्पादों को, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंधित कर देता है। यह वाणिज्यमूलक महायुद्धों को काल है, जिस की मार से लोगों को बचाने वाला कोई नहीं बचा, न कोई विचारधारा, न कोई क्रांतिदूत।
वित्तीय पूंजी का साम्राज्य स्थापित करने के लिए छेड़ा गया यह वाणिज्य-मूलक विश्वयुद्ध, मनुष्य की 'चेतना' को अपना 'गुलाम बनाने' का प्रयास कर रहा है।
कार्ल माक्र्स के द्वारा प्रस्तावित 'द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद' समाजार्थक यथार्थ के ऐतिहासिक वर्गीय विकास के द्वारा 'चेतना' के रुपांतर की दिशा पकड़ता है। 'पदार्थ के द्वारा चेतना के निर्मित' होने को सामाजिक वर्गीय इतिहासगत जटिलताओं की मार्फत व्याख्यायित करता है। और इस के पीछे 'उत्पादन पद्धतियों के नये रूपों' के प्रकट होने की विशिष्ट भूमिका को देखता है। यहां चेतना के परंपरागत रुपों का यानी मुख्यत: सामंतीय संरचनाओं का - 'निषेध' होता है और यों जो 'रूपांतरित आधुनिक चेतना' गठित होती है, उसकी प्रगतिशील व मानवीय भूमिका के द्वारा समाजार्थिक यथार्थ के नये अंतर्विरोधों का 'निषेध' कर, एक नये समाज व नये मनुष्य के जन्म की परिकल्पना करता है।
तथापि यह बात कार्ल माक्र्स के लिए अल्पनीय रही होगी कि ऐसा नया समाजिक यथार्थ भी प्रकट हो सकता है, जिस की नयी विकसित उत्पादन-पद्धतियां, 'चेतना के गैर-ऐतिहासिक रूपों का' निर्माण करने लग सकते हैं और इस प्रकार चेतना के मानवीय विकास को अवरुद्ध कर, 'चेतना की गुलामी' के दौर का प्रवत्र्तन भी कर सकती हैं जैसा कि हमारे दौर की वित्तीय पूंजी का अति जटिल यथार्थ करने का प्रयास कर रहा है। इसके नये वाणिज्य-मूलक विश्ववादी साम्राज्यवादी का आधार है - मानवचित्त का ऐसा 'उपभोक्ताकरण' - जो उसे 'स्वेच्छया गुलाम' होने के लिए राज़ी कर सके। इस उपभोक्ता-चित्त की जिन नई संरचनाओं को गढ़ा और मूत्र्त रूप दिया जा रहा है, वे 'ज़रूरतों पर आधारित वस्तुओं की खपत' से आगे निकल रही हैं। वे 'प्रतीक पदार्थों' और 'ब्राण्डों से जुड़ी सम्मोहकता' को ग्राह्य बनाती हैं और पदार्थों के 'विम्बमय अमूर्त संसार' को भावों, विचारों, संस्कारों व अन्य सांस्कृतिक धारणाओं के उद्बोधन का हेतु बना कर एक तरह की 'वैकल्पिक संस्कृति' का पर्याय हो जाती हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति-विकल्प 'स्टार वार्ज़' से लेकर 'वीडियो गेम्ज़' के 'आभासी संसार' को 'वास्तविक' बनाने का प्रयास करता है इनकी विषयवस्तु का संबंध 'विश्व विजेता' होने से होता है, जो 'अन्यों के प्रति हिंसक' मानसिकता से युक्त होकर अपनी 'उच्च तकनीकी' श्रेष्ठता का वर्चस्व स्थापित करते हैं। अन्यों के विनाश को उनके 'पिछड़ेपन के कारण' एक नैसर्गिक या प्राकृतिक तौर पर प्रकट होने वाली उनकी अनिवार्य नियति का पर्याय बनाती है। इस तरह एक 'उच्च-तकनीकी नैतिकता' वाली 'चेतना का निर्माण' किया जाता है, जो ऐसे बिम्बों प्रतीकों की छवियों को अपनी पृष्ठभूमि बनाती हैं - जो 'दैवी' और 'धार्मिक' बिम्बों-प्रतीकों में मेल खा जाने का भ्रम पैदा करते हैं। इस तरह उच्च-तकनीकी माध्यम और गैर-ऐतिहासिक तरीके से, मध्यकालीन या सामंतीय ज़मीन से उपजी धर्म-संस्कृति का ऐसा 'संस्कृति-विकल्प' निर्मित करते हैं, जो 'दैवी या ईश्वरीय सामूहिक-चेतन' का पर्याय होने का प्रयास करता है।
यहां विश्लेषण के लायक बात यह है कि उच्च-तकनीकी एक नयी उत्पादन-मूलक पद्धति है, जो विश्व की औद्योगिक क्रांति को उत्तर औद्योगिक इंटरनैट-मूलक परिदृश्य में ले जाती है। उद्योग केंद्रित पूंजी वाली जो दुनियां थी, वहां संसाधनों पर पूंजीपति का कब्जा था। इंटरनेट ने कंप्यूटर के रूप में नयी उत्पादन-पद्धति के एक मुख्य उपकरण को कम से कम मध्यवर्ग के लिए जनसुलभ बना दिया है। इससे पूंजीपति के 'निजी एकाधिकारों' की दुनियां का विकेंद्रीकरण 'कंपनियों के केंद्र में आ जाने' की स्थिति के रूप में हुआ है, जहां उच्च-तकनीकी विशेषज्ञता वाले नये 'प्रबंधकीय कोटि वाले शिक्षित श्रमिक वर्ग' का उदय हो गया है। दैहिक श्रमशीलता जिस 'सर्वहारा' को जन्म देती थी, बौद्धिक श्रमशीलता उसे मध्यवर्ग की पूंजी के मुनाफों में हिस्सेदार होने की स्थिति में ले गई है। कार्ल माक्र्स को लगता था कि 'मध्यवर्ग औद्योगिक क्रांति की संकट सतान' जैसा है जिसे अपनी 'ऐतिहासिक भूमिका निभा कर विदा हो जाना पड़ेगा।' और तब 'उच्च व निम्न वर्गों के बीच के अंतर्विरोध तीखे होकर मानव-समाजों को समाजवादी और साम्यवादी क्रांतियों तक ले जाएंगे। वह नहीं हुआ। उल्टे, वित्तीय किस्म की इस उत्तर औद्योगिक पूंजी ने सर्वहारा के एक खास समूह का 'मध्यवर्गीयकरण' कर लिया है। उपभोक्ताकरण की फैलती प्रवृत्ति निम्न वर्गों को 'खास तरह की मध्यवर्गीय मानसिकता' का हिस्सा बनाने में लगी है : और 'गैर-ऐतिहासिक' तरीके के संस्कृतिक चेतना - उत्पाद परंपरागत धर्मों व लोक-संस्कृतियों की दुनियां में दखल देकर, उनके प्रतीकों का अपने हित में बेशर्म इस्तेमाल करने में लगे हैं, विखण्डित होने से खुद को बचाने की कोशिश करते ये धर्म व लोक-संस्कृति-रूप, 'प्रतिक्रिया' में 'मूलवादी', 'शुद्धतावादी' और 'कट्टरतावादी' हो रहे हैं। सारी लड़ाई, समाजों के ऐतिहासिक वर्गीय विकास के भीतर से जन्म न लेकर, सीधे भौतिकवादी या पदार्थवादी उच्च-तकनीकी के चेतना-उत्पादों के आधार पर 'संस्कृति की दुनियां' को केंद्र बनाकर लड़ी जा रही है। चेतना के इस नये उपभोक्तावादी पदार्थीकरण की कोई 'ठोस समाजार्थिक जमीन या वर्गीय आधार' नहीं है। इस में छद्म तरीके से उपजाए गए वर्ग-विभेदों से उपजा 'सामाजिक समूहों की विविधता-धर्मी अस्मिताओं का कचरा' आधार का काम करता है। यानी 'आधार' है सामाजिक अस्मिताएं और 'अधिरचनागत चेतना उत्पाद' हैं - विविधता धर्मों अस्मिताएं निजात्य-बोध। (अंग्रेज़ी में 'सब्जेक्ट-ऑब्जेक्ट' के संबंध को हिंदी में ठीक से अनूदित करना कठिन लगता है। स्व का पर्याय है 'सेल्फ', व्यक्ति का 'इनदितिजुअल', अस्मिता 'आयडेंटिटी' है और आत्मा 'सोल' या 'सविटिट' है। 'सब्जेक्ट' नागरिक, प्रजा आदि के अर्थ में भी आता है और निजता, अंतरंगता आदि के अर्थ में भी। 'निजात्म' में इन अर्थों को समावेश मानें।)
यथार्थ की उत्तराधुनिक व्याख्याओं में बहिर्मुखी और अंतर्मुखी-दोनों तरह के यथार्थ की कोटियों को, 'भाषा-मूलक अर्थ-उत्पाद' माना जा रहा है। ऊपर जिन 'चेतना-मूलक उत्पादों' की चर्चा की गई है, वे इस नयी उच्च-तकनीकी उत्पादन-पद्धति के तहत, भाषा-मूलक हैं तथापि इस यथार्थ में, इसका एक पक्ष ऐसा भी है, जो भाषागत न होकर, सीधे प्रकृति और मनुष्य (या जीवन) के आपसी रिश्तों से ताल्लुक रखता है। ऊपर जिस नव-माक्र्सवादी चिंतक स्लावोज ज़िजेक का उल्लेख किया गया है, उन्होंने जैक लाकां के 'चार विमर्शों वाले सिद्धान्त का विस्तार करते हुए इस ओर इशारा किया है इसे मैं 'यथार्थ के चतुर्भुज सिद्धान्त' के रूप में देखता हूं और इस के भीतर एक ऐसी संभावना को पाता हूँ, जो हमें इस नये उच्च-तकनीकी यथार्थ-विभ्रम वाले आभासी संसार के उत्पादों की उपभोक्ता-मूलक पकड़ से बाहर निकालने तथा प्रकृति से सीधे रिश्ता बना सकने में मदद कर सकती है। जैक लांका चार तरह के 'निजात्म-मूलक चेतना-विमर्शों की बात करते हैं। पहला और मूल निजात्म वह है जो यथार्थ के मूल-नियमों के 'प्रतीकत्र्ता' (सिग्नीफायर) के रूप में काम करता है और यथार्थ की सभी व्याख्याओं का 'स्वमी' (मास्टर) होता है। जैसे परंपरागत रूप में पोप या सम्राट या आधुनिककाल में पूंजीपति या बाज़ार। फिर दूसरा विमर्श आता है। इसे विश्वविद्यालयी विमर्श कहा गया है। यह ज्ञान की सत्ता स्थापित करने के लिए 'वंशुकार का प्रतीकर्ताओं' को पैदा करता है, जो अपनी विशेषताओं के द्वारा यथार्थ की व्याख्या करते है और सार्वजनिक क्षेत्र में डॉक्टर, इंजीनियर आदि ज्ञान के प्रतिनिधियों के रूप में कार्य करते हैं। तीसरा विमर्श है - उत्पादित निजात्म चेतनाओं का। जैसे 'उपभोक्ताकरण' हो, जो सभी को उनकी इच्छाओं की पूर्ति के लिए उत्पादित वस्तुओं के अति-विविध लुभावने लोक में ले जाता है। फिर चौथा विमर्श है जो भोगवादी मानसिकता से युक्त निजात्म से जुड़ा है। उसका इच्छा-लोक, पूर्व-विमर्श के उत्पाद-लोक से भी कहीं अधिक विशद व व्यापक होता है। यहां ज़िजेक हस्तक्षेप करते हैं। वे कहते हैं कि इच्छा-लोक के दुष्पूर होने के कारण वह उपभोक्ता को ऐसी ताकत देता है कि वह स्वयं को इस नये यथार्थ के नये 'नियामक' या स्वामी के रूप में प्रस्तुत कर सकता है। कार्ल माक्र्स ने पूंजी की दुनियां की व्याख्या करते हुए मुनाफों को 'अतिरिक्त पूंजी' की तरह देखा था। लाकां और ज़िजेक का मनोविश्लेषणवादी माक्र्सवाद, इस 'अतिरिक्त पूंजी' से उपभोक्ता की 'अतिरिक्त इच्छाओं' तक चला आता है, जिन्हें उत्तर-औद्योगिक पूंजी की अति-विविध उत्पादों की दुनियां भी स्वयं में समाहित नहीं कर पाती। मनुष्य का प्रकृति से सीधा रिश्ता उसे अपने मौलिक व वैकल्पिक लोक के अतरंग बोध तक ले सकने वाली आत्मघाती प्राकृतिक प्रदूषण वाली स्थितियों के पार ले जाने वाली 'प्रकृति से समस्वरित चेतना' की तरह भी देखा जा सकता है। वह 'अभाषिक' है और सभी अन्य विमर्शों का 'परम नियमन' करने में समर्थ भी। प्रकृति और संस्कृति के प्रदूषण में प्रकट हुए सामूहिक आत्मघात और आतंकवादी फिदायीन इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि अब हमें मनुष्य-केन्द्रित प्रकृति-मूलक चेतना वाला अपनी जीवन- 'आधारित' ज़मीन की ओर, न भी उत्तराधुनिक संभावनाओं की तलाश करते हुए देखना होगा।
ऐसा करने के लिए यहां हम अपने शास्त्रीय दर्शनों में मौजूद कुछ ऐसे सूत्रों की ओर पुन: देख सकते हैं, जिनकी नव-व्याख्या या पुनव्र्याख्या हमें मौजूदा दौर के लगभग बंद हो गये रास्तों के बीहड़ के पार ले जाने में थोड़ी मदद कर सकते हैं। यहां कदिल के सांध्य दर्शन के उन सूत्रों की ओर देखा जा सकता है जो सृष्टि के संदर्भ को तीन गुणों में आबद्ध बताते हैं इन सूत्रों से हम सभी भली भांति परिचित हैं मेरी नजर में लाकां और ज़िजेक के 'चतुर्भुज विमर्श' में यथार्थ की इसी त्रिगुणात्मक सामथ्र्य को नये अर्थों में खंगाला गया है सत्व की यह नयी व्याख्या ज्ञान-विमर्शों की प्रतीकर्ता चेतना के रूप में की जा सकती है कदिल की दृष्टि में वही 'परम नियम व्यापार' चलाती है। उससे जन्म लेने वाली प्रयोजनधर्मी 'विधाएं' लाकां का दूसरा विमर्श है। जब साख्य-दर्शन का विकास हो रहा होगा, तब सामाजिक यथार्थ में ऐसी श्रम-विभाजक जटिलताएं देखने में नहीं आती होंगी कि दार्शनिकों और विद्या-विशारदों के बीच भेद किया जाता। यहीं लाकां कदिल से आगे निकल गए मालूम पड़ते है। परन्तु भिन्न कोटि की प्रवृति-मूलक उपस्थिति कदिल के यहां देखी जा सकती है। 'राजस' संसार उत्पादन-मूलक प्रक्रियाओं से जुड़ी चेतना का है, जिसे आज हम उत्तर-पूंजी के बाज़ारवादी प्रतीकत्र्ताओं की चेतना में पूर्व होता देख सकते हैं। 'तामस' संसार उपभोक्ता के इच्छा-बोझ की दुष्पुुर चेतना का है। उसके जितने अंश का उपभोक्ताकरण हो जाता है, उतना ही वह हमारे समय के विद्या-विभरहोंकी प्रतीकर्ता-योजनाओं की इबारत में बदलता जाता है। परन्तु उसके अंधकार-लोक का अधिकांश अभी तक अज्ञात है। जितना वह श्रम-संसार की उत्पादन मूलक गतिविधियों का हिस्सा होता है, उतना ही उसका 'राजसीकरण' होता जाता है। और जितना ही वह अपनी भोगवादी चेतना से उपजने वाले मोहाधकार को आनंद का स्रोत मान कर उसमें डूबा रहता है, उतनी ही उस का तामस-पक्ष मुखर रहता है। सत्व पर जिनका कब्जा है, वे उसके राजसीकरण का लाभ उठाते हैं और उसे तामसीकृत दशा में तल्लीन रखते हुए उस पर शासन करते हैं तथापि विकास के सभी विकल्पों का स्रोत उसकी 'शेष चेतना' ही है। उसके राजनीतिक अंतर्गठन से मुमकिन होता है कि समाज को एक नया, 'संकल्प' मिले। शास्त्रीय भाषा में इसे 'संकल्प-विकल्पात्मक द्वन्द्वात्मकता की तरह देखा गया है। विकल्प-चेतना को 'बांधने' की प्रक्रिया को पतंजलि ने 'सविल्यात्मक समाधि' कहा। संकल्पन, संस्थागत होता है, हैवरमास का उत्तराधुनिक चिंतन, वैकल्पिक चेतना के सामाजिक संस्थाओं की शक्ल में ढ़लकर सार्वजनिक हो जाने की स्थिति में परिवर्तन की संभावनाओं को देखता है। वर्ग चेतना से निर्धारित क्रांतियों के दौर के बीत जाने के बाद वह अब् ऐसे संस्थाकरणों की ज़रूरत की ओर आया है। हालांकि फूको का संकेत भी स्पष्ट है कि हमारे समय की तमाम सामाजिक संस्थाओं को सत्ता-ज्ञान की संरचनाएं किसी न किसी रुप में बांधे रहती हैं। तो जरूरत होगी विकल्प-चेतना के ही भीतर से उपजे संत्त्वोट्रेक की जो जन को 'स्वामी' या 'नियामक' होने की ओर ले जा सकेगा। हमें अपने ज्ञान के स्रोतों की 'आध्यात्मिक व्याख्याएं' भर करने की जो आदत पड़ चुकी है, अगर हम उससे मुक्ति पा सकेंगे, तो बहुत कुछ ऐसा है जो हमें अपने समय की व्याख्या करने में मदद कर सकता है।

परिशिष्ट
नीचे एक सूची के रूप में लाकां-ज़िजेक के 'चतुर्भुज विमर्श' के समांतर सांख्य-दर्शन के 'त्रिगुण-यथार्थ' का अंत:-विस्तार संकेतिक किया जा रहा है, जिसका भविष्य के विकास किया संभावित है:
1. सत्व का प्रतीकर्ता निजात्म :
दर्शन, धर्म, संस्कृति, शासन-सत्ता-मूलक व्यवस्थाएं
2. सत्व-राजस समवाय निजात्म :
विद्याविशारदों, विशेषज्ञों का निजात्म-लोक
3. राजस प्रतीकर्ता निजात्म :
उत्पादित चेतनाएं, अस्मिताएं, वैयक्तिकताएं, विश्व-नागरिकवादी निजात्म, मूलवादी या फिदायीनवादी निजात्म आदि
4. राजस-तामस समवाय से सम्बद्ध प्रतीकर्ता निजात्म :
उपभोक्तावादी निजात्म, धनल्पिस, ज्ञानलिप्सु-काम-ल्पिसु असामान्यताओं वाले निजात्म, समलिदी-दुभयलिदी मानसिकता वाली नव-अस्मिताएं, समकोडेलिक ड्रग्ज के नव-अनुभव-लोकों से सम्बद्ध उत्पादित अस्मिताएं
5. तामस प्रतीकर्ता निजात्म:
सुविधाभोगी मानसिकता, स्वप्न व यथार्थ के भेद को मिटा देने वाली छद्म व विभ्रम-मूलक अस्मिताएं नशों व हथियारों के माफिया-लोक में गर्क अस्मिताएं नैसर्गिक इच्छाओं के अंध-लोक की सत्वोद्रेक की अंत: संभावनाओं से युक्त निजात्म-चेतना, जिसे कुंडलिनी योग में 'ताए हुए सर्प या शक्ति-स्थल' के रूप में चिन्हित किया गया है।

Login