आप अपने आप में अनुपम और अद्भुत हैं

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    जुलाई 2016
श्रेणी आप अपने आप में अनुपम और अद्भुत हैं
संस्करण जुलाई 2016
लेखक का नाम सुषमा मुनीन्द्र





लंबी कहानी







औसत दर्जे का शहर हनुमान गंज विकास और फैशन के आ जाने से अब वैसा औसत नहीं लगता जैसा लगता था। तमाम छोटे-बड़े नगरों की तरह यहाँ भी एक राष्ट्रव्यापी कंपनी ने बहुमंजिला इमारतों वाली सर्व सुविधा युक्त सोसायटी बना दी है - नीलाम्बर सिटी। बिजली, पानी के निर्बाध वितरण वाले सुंदर फ्लैट, पार्क, हरियाली, सुरक्षा गार्ड। सोसायटी के निर्माण काल में हनुमान गंज के लोग कहते थे शहर से आठ किलोमीटर दूर निवेश करना बेवकूफी है। जिसने फ्लैट खरीदने की बेवकूफी कर ली आज बुद्धिमान कहा रहे हैं। सिम्पल के पति निर्वाण ने जब नीलाम्बर सिटी की बिल्डिंग नम्बर एक के तीसरे तल्ले का फ्लैट नम्बर बारह किश्तों में खरीदा था कुल कीमत साढ़े सात लाख थी जो आज चालीस लाख के आस-पास आंकी जाती है। फ्लैट कल्चर में एक दूसरे को जानने-पहचानने, पहुंच बनाने, दखल देने का दस्तूर नहीं है लेकिन बिना मर्द वाले घर को लेकर संदेह बनना लाजिमी है। निर्वाण के साथ फ्लैट में रह चुकी सिम्पल को लोग थोड़ा-बहुत जानते हैं। फिर सड़क दुर्घटना में निर्वाण को खोकर, फ्लैट को अशुभ करार दे, फ्लैट बंद कर सिम्पल मायके चली गयी थी। अशुभ होने के समाचार ने ऐसा जोर पकड़ा कि फ्लैट को किरायेदार नसीब न हुये। एक दिन लोगों ने देखा फ्लैट में रौशनी है। सोसायटी वाले तब से शोध में रत हैं। सिम्पल दिनों बाद जिन दो अधेड़ बल्कि बूढ़ी स्त्रियों के साथ वापस आई है, वे दो कौन हैं। वैसे लोग इन्हें प्रामाणिक तौर पर बूढ़ी नहीं कह पाते हैं। इतनी चुस्त-दुरुस्त हैं कि इनकी त्वचा से उम्र का पता नहीं चलता।
तीन आयु, तीन तरह के व्यवहार, तीन तरह के अनुभवों, तीन तरह के तौर तरीकों से गुजरी तीन स्त्रियां। सेवा निवृत्त स्कूल व्याख्याता नूतन, घर-बार का चक्कलस छोड़ आई ललिता, फ्लैट की मालकिन सिम्पल। अपने में एकाग्र, बाकी लोगों से जुदा-जुदा तीनों इस तरह रहती हैं कि सोसायटी वाले कभी मुखर होकर कभी फुसफुसा कर एक-दूसरे से पूछते हैं - इनकी हिस्ट्री क्या है? लोगों की प्रश्नाकुलता का अंदाजा लगा नूतन, ललिता और सिम्पल से कहती है -
''हिस्ट्री में बताने लायक कुछ हो तब न बतायें। मैं कन्या कुंवारी, सिम्पल विडो, ललिता तुम्हारा जरूर वाजिब डेजिगनेशन नहीं बन पा रहा है। परित्यक्ता हो, क्या हो?''
''नूतन, मैंने अपनी मर्जी से घर छोड़ा है। परित्यक्त वे हैं जिन्हें तुम बड़े अदब से स्वदेश जी कहती थीं।''
''मैं बेवकूफ थी ललिता। इस आदमी को इतना अदब नहीं देना था।''
सिम्पल ने टीप दी ''नूतन दीदी, छोड़ो कल की बातें। खुश रहिये और मेरी तरह स्वास्थ्य लाभ लीजिये।''
ललिता ने सिम्पल की मेदबहुल देह को देखा। इसे बनाने - खाने, बल्कि बनाने से अधिक खाने का ऐसा शौक रहा है कि देह में जोड़ लिया गया मेद आपदा-विपदा के बाद भी छटाक भर कम नहीं हुआ है।
''ठीक कहती हो सिम्पल। अब जाकर लगता है मेरा एक वजूद है। मैं पूरा शरीर हूँ जिसमें एपेन्डिक्स के अलावा कुछ भी अनुपयोगी नहीं हैं। स्वदेश ने तो मुझे सिर्फ बिस्तर...। पुरुष ऐसे क्यों होते हैं? इन्हें स्त्री का न वजूद दिखाई देता है, न दिमाग, न पूरा शरीर। शरीर के कुछ हिस्से दिखाई देते हैं, बस।''
नूतन ने ललिता के कथन को दुरुस्त किया ''शरीर के वे हिस्से भी दिखाई देते हैं ललिता, जो अविकसित या विकृत होते हैं। मेरे दाहिने पैर के कारण कोई मुझसे शादी करने को राजी न हुआ। तब मुझे अफसोस होता था या नहीं होता था। अब यह पैर वरदान लगता है। अच्छा हुआ इसके कारण शादी के लफड़े से बच गई। आज की तारीख में मैं खुद को तुम दोनों से कम मजबूर पाती हूँ। ललिता तुम डरी रहती हो स्वदेश आकर हंगामा करें तो हिस्ट्री बचाते न बनेगी और सिम्पल तुम्हें बेचैनी सताती है, फ्लैट प्रमाण या तुम्हारा भाई हड़प लेगा।''
पुराना वक्त होता तो टप-टप आंसू ढारने में उस्ताद रही सिम्पल तत्काल प्रभाव से आंखें भर लेती कि नूतन दीदी मुझ पर इस तरह तक-तक कर तीर चलाओगी तो मुझे फूटी आंख न सुहाओगी। पर इस फ्लैट में डेरा जमाते हुये तीनों में अघोषित अनुबंध हो गया है- हम लोग खुदसे बहुत लड़े, वक्त से बहुत खफा हुये, अब बिना लड़े, बिना खफा हुये जीवन को जीवन की तरह जियेंगे और रक्त चाप नहीं बढ़ायेंगे। अनुबंध पर अमल पर सिम्पल सहयोगी स्वर में बोली ''हां, नूतन दीदी आप हम दोनों से बेहतर हैं। अच्छी खासी पेंशन कबाड़ रही हैं। अपनी पेंशन उड़ाने के लिये ही मैं और ललिता दीदी आपके साथ नत्थी हुये हैं।''
नूतन ने आशीर्वाद की मुद्रा में दाहिनी हथेली फैलाई -
''तुम दोनों इसी तरह मुझे व्हील चेयर पर बैठा कर निस दिन पार्क ले जाया करो। गुजर-बसर होती रहेगी।''
ललिता बोली ''व्हील चेयर लाने के लिये मेरे बेटे मनोजय को दाद दो नूतन। यह न होती तो हम दो कनीज तुम्हें उठा कर पार्क ले जाते हुये न सोहते। सोसायटी वाले हिस्ट्री बना लेते चलते नहीं बनता है लेकिन पार्क आने का बड़ा शौक है।''
गुनाहों के लिये जमाने को माफ कर चुकी नूतन के चेहरे पर अब आहत होने जैसे भाव नहीं आते लेकिन मनोजय की चर्चा सुन चेहरे में जान आ जाती है ''मनोजय नेक लड़का है। मोबाइल पर कॉल कर खैर-खबर लेता रहता है।''
सिम्पल बोली ''माह दो माह में जब भी मिलने आता है घर गुलजार हो जाता है। दिद्दा के नाती के व्रतबंध में जायेगा ही। हो सकता है लौटते समय हम लोगों से मिलने आये।''
''अच्छा याद दिलाया सिम्पल। ललिता, मनोजय को कह देना हम लोगों की ओर से इक्कीस सौ रुपये दिद्दा के नाती को दे देगा। जब यहां आयेगा, उसके पैसे लौटा देंगे।''
ललिता ने निषेध किया ''हमें किसी से व्यवहार नहीं रखना है नूतन। इक्कीस सौ रुपये का कबाड़ा न करो।''
''व्यवहार नहीं रखना है इसीलिये तो हम आयोजन में नहीं जा रहे हैं। दिद्दा ने निमंत्रण पत्र भेज औपचारिकता की है। हमें भी करना चाहिये।''
सोसायटी वालों को जिज्ञासा है, ये तीनों किसी से व्यवहार क्यों नहीं बनाना चाहतीं? जरूरत मुताबिक फ्लैट से निकलती हैं। बाकी समय कपाट बंद किये पता नहीं किस बिल में घुसी रहती हैं। तीनों में सिम्पल अधिक सक्रिय है। एक्टिवा में आरूढ़ हो बैंक, बाजार आदि का काम कर आती है। सब्जी वाले की टेर पर सब्जी खरीदने नीचे उतरती है। ठेला घेर कर खड़ी स्त्रियों ने जब भी पूछा ''वे दो कौन हैं?'' इतने कूट जवाब दिया ''दीदी हैं।'' बहनें हैं, ननदें हैं, बड़ी उम्र वाली मित्र हैं या परिचित हैं जैसा सम्यक अर्थ पूछने का स्त्रियां उपक्रम करें तब तक सिम्पल तेजी से सीढिय़ां चढ़ गायब हो जाती है। स्त्रियां फिक्रजदा- सिम्पल पहले काफी बोलती थीं। निर्वाण के न रहने से लगता है बेचारी की वाणी क्षीण हो गई है।
सोसायटी वाले सम्यक अर्थ जानने के लिये कड़े प्रयास करते हैं। किराने की दुकान वाला यह जो लड़का बड़ा कार्टन कंधे पर लादे प्रति माह फ्लैट नम्बर बारह में दस्तक देता है से जब भी पूछा, हाथ की पांचों ऊँगलियां फैला कर कह देता
है -
''मैडम, फोन पर लिस्ट लिखा देती हैं। मैं सामान देता हूं, पइसा लेता हूं, बाकी दरवाजे के भीतर नहीं जाता।''
''क्या-क्या मंगाती हैं?''
''सूखा मेवा, शक्कर, गुड़, दालें, चना, मुरमुरा, तेल। लम्बी लिस्ट रहती है।''
- हर महीने इतनी सामग्री चट कर जाती हैं? तभी तीनों की सेहत मुक्कमल है।
दूधिया भी सम्यक जानकारी नहीं दे पाता ''डेली डेढ़ किलो दूध लेती हैं जी। नहीं, घर में मर्द तो कोई नहीं दिखता।''
- डेढ़ किलो दूध की दैनिक खपत? तभी सेहत मुक्कमल है।
अखबार और कूड़े वाले सम्यक जानकारी पूछने के लिये उपयुक्त पात्र नहीं हैं। अखबार वाला दरवाजे की दरार से अखबार भीतर सरका देता है। कूड़े वाला बाहर रखी टोकरी से कूड़ा समेट ले जाता है। सूत्र जानने के लिये काम वाली बाईयां उपयुक्त होती हैं पर शोभा जी (शोभा को अपने नाम के साथ जी लगवाना खास पसंद है। फ्लैट मालकिनें जी लगाती हैं कि शोभा जी बंक कम मारा करें) को नूतन ने प्राथमिकता न दी। ललिता ने शोभा जी की सेवा लेने का ध्येय बनाया तो नूतन ने डरा दिया -
''फिर हिस्ट्री न बचा पाओगी ललिता। शोभा जी हमारी दिनचर्या को विविध भारती के पंचरंगी कार्यक्रम की तरह नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे प्रसारित कर देंगी। सोसायटी वाले शोध करेंगे हम तीन कौन हैं, कहां से आये हैं, कहाँ जायेंगे। हमें कहीं जाना नहीं है, जब तक सिम्पल भगा न दें।''
सिम्पल अब बात का बतंगड़ इस तरह नहीं बनाती कि घर फोड़ी वह नहीं सामने वाला समझा जाये ''विविध भारती? यह कौन सा कार्यक्रम है?''
नूतन को विशाल साइज थ्री डी प्लाज्मा टी वी से खास लगाव है। दीवान पर आराम फरमाते हुये टी वी देखती और अखबार बांचती हैं।
सिम्पल ने नूतन का घेराव किया ''ठीक बात ललिता दीदी। मैं खाना बनाने में, आप कपड़ा फींचने-पखारने में दुबला रही हैं। शान तो नूतन दीदी की है।''
नूतन ने शान गालिब करते हुये दोनों को विलोका ''तभी कहती हूं यह पैर मेरे लिए वरदान है। काम से बची रहती हूं और तुम लोग मुझे काम चोर नहीं कह पाती हो।''
ललिता, नूतन की मुद्रा देख हंसी ''हमारे भाग्य में मेहनत करना ही बदा है नूतन। तुम्हारी खिदमत करते हैं। व्हील चेयर पर पार्क ले जाने से अलग दम फूलता है।''
ललिता और सिम्पल नित्य शाम को व्हील चेयर पर बैठा कर नूतन को लिफ्ट से नीचे ले जाती हैं। पार्क की दूर वाली बेंच पर नूतन बैठती है। व्हील चेयर जैसी दारुण दशा के मद्दे नजर सोसायटी वाले इस तरह से यह बेंच नूतन के लिये खाली रखते हैं। सिम्पल और ललिता तेज गति से पार्क से फेरे लगाते हुये जब बेंच के पास से गुजरती हैं, नूतन छेडख़ानी करती है ''तुम दोनों पसीना बहा रही हो, मैं मौसम को महसूस कर रही हूँ।''
ललिता तेज साँस लेती है ''कैलोरी बर्न कर रहे हैं ताकि खीर अधिक खा सकें। तुमकों सिर्फ एक स्पून मिलेगी।'' वॉक के बहाने बेंच के आस-पास डोलती महिलायें निराश होती हैं। ये तीनों ऐसी बात क्यों नहीं करतीं जिससे कुछ जानकारी हस्तगत हो। व्यक्तियों से कुछ उगलवाना सम्भव नहीं हो रहा है। घर के भीतर थोड़ा झांकने ही मिले तो साजो-सामान से रहन-सहन का कुछ पता चले। लिबास से जरूर तीनों की शौकीन जान पड़ती हैं। नूतन अब ढीले गाउन पहनती है। जब एक्टिवा में सवार होकर पाठशाला जाती थी शिक्षिकायें कहती थीं ''तुम्हारा ड्रेसिंग सेंस बहुत अच्छा है।''
नूतन गदगद हो जाती ''कपड़ों को लेकर मैं क्रेजी हूँ। अपने कपड़े मुझे जागीर लगते हैं।''
नूतन की जागीर को सिम्पल ने हथिया लिया है। मन मुताबिक साड़ी और सलवार सूट पहनती है। ललिता सदा साड़ी पहनती है। घर छोड़ते हुये साडिय़ों के लिये गमजदा थी। मनोजय किश्तों में साडिय़ां पहुँचा गया तब ललिता के प्राण बहुरे। नूतन ने मनोजय के सम्मुख ही कह दिया था -
''ललिता, तुम रोज कहती थी अपाला (मनोजय की पत्नी) ने मेरी दोनों अलमारियों का लॉक तोड़ लिया होगा और मेरी साडिय़ां पहन कर मटकती होगी। लो आ गई तुम्हारी साडिय़ां। ललिता ने मनोजय को स्नेह से देखा ''अपनी पसंद की साडिय़ां पहन कर मुझे तसल्ली मिलती है मनोजय। मैंने इतना ही तो चाहा था छोटी-छोटी हसरतें पूरी होती रहें। बड़ी हसरतें कभी-कभी पूरी होती हैं लेकिन छोटी हसरतों को रोज पूरा किया जा सकता है। इसीलिये मुझे बड़ी हसरतों से छोटी हसरतें अधिक अच्छी लगती हैं।''
सपने... हसरतें.... सोचना-विचारना... जिंदगी....
आम किस्म की लड़कियों की तरह कभी तीनों  समान रूप से एक जैसे सपने देखती थीं। छोटी-छोटी हसरतें रखती थीं। खुद को निर्दोष मानते हुये अपने पक्ष में सोचना-विचारना चाहती थीं। जिंदगी को जिंदगी की तरह जीना चाहती थीं। कुछ सपने अपनों ने तोड़े, कुछ इन्होंने खुद तोड़ लिये। कुछ हसरतें अपनों ने पूरी नहीं होने दीं, कुछ इन्होंने छोड़ दीं कि हसरतें रखने की अब उम्र नहीं रही। अपने पक्ष में सोचने-विचारने की तब आजादी न मिली, अब सोचने-विचारने की जहमत नहीं लेतीं कि तब न हुआ, अब पक्ष में कुछ हो जायेगा तो भी फर्क नहीं आयेगा। कभी अपनों ने जीने न दिया, कभी खुद खुलकर जीने का साहस न कर पाई। अब सपने नहीं देखतीं इसलिए नयन शीतल रहते हैं। हसरतें नहीं रखतीं इसलिये दिल, जिगर, दिमाग, आमाशय ठीक रहता है। दिल में दखल नहीं, जिगर में जलन नहीं, दिमाग में दबाव नहीं, आमाशय में अम्लता नहीं। सोचती-विचारती नहीं इसलिए वजूद, जमीर, औकात जैसे दबाव से दूर रहती हैं। राग-द्वेष से मुक्त रहकर जी रही हैं। इसलिए स्वत्रंत चेता होने का गौरव अर्जित कर लिया है।
नूतन की हिस्ट्री -
दो साल की उम्र में जैसे ही मोती झीरा (टाइफाइड) की चपेट में आई दाहिना पैर पोलियोग्रस्त हो गया। अब घुटने की हड्डी इतनी घिस गई है कि घुटना लैट-बाथ जाने लायक बना रहे इसलिए व्हील चेयर पर आवागमन करती है। चिकित्सकों की सलाह पर नी रिप्लेसमेन्ट करा लेती तो शायद पहले की तरह आज भी जरूरत भर को चल-रेंग पाती। कुछ यह सहमी रही कि बड़ी भाभी दीप्ति, छोटी सिम्पल उसे दो जून खाना देने में उदासी दिखाती हैं तो नैतिक होकर बिस्तर में उसका सेवा सप्ताह भर भी नहीं करेंगी। कुछ बड़ा भाई प्रमाण, छोटा निर्वाण मखौल उड़ाता रहा, नी रिप्लेसमेन्ट के बाद धाविका नहीं बन जायेगी। अभी तो किसी तरह एक्टिवा पर सवार हो पाठशाला चली जाती है। यदि ऑपरेशन विफल हुआ, चलने योग्य न रही तो बिस्तर पर दाना-पानी पहुँचाते हुये दीप्ति और सिम्पल को बदहजमी होगी। जायदाद के नाम पर बाबू जी की छोटी नौकरी और हनुमान गंज का अनगढ़-कच्चा पुश्तैनी मकान। बाबू जी यूं तो बेटे-बेटी में फर्क रखते थे पर बेटियों को, बेटों की तरह शिक्षा-दीक्षा का पूरा अवसर दिया। उनके लेखे सुंदर, स्वस्थ बेटियां यदि उच्च शिक्षित हो जायें, मुनासिब दहेज के बिना भी मुनासिब वर से हस्त मिलाप होना सम्भव हो सकता है। नूतन का हस्त मिलाप जो न हो पायेगा छोटी-मोटी शिक्षिका बन अपनी नैया पार लगा लेगी। पढ़ाया यूं भी कि तब शिक्षा में खास व्यय न करना पड़ता था। सरकारी स्कूल-कॉलेज में सस्ते में अध्ययन हो जाता था। बस, भेजा अच्छा होना चाहिए जो चारों बेटियों का दोनों बेटों से शर्तिया तौर पर अच्छा था। बड़ी बेटी दिद्दा (भाई-बहन इसे दिद्दा कहते थे) फिर नूतन से तीन वर्ष छोटी ललिता फिर सबसे छोटी बेटी जिसे छोटी ही कहा जाता है अपनी नियति के अनुसार ब्याह कर चली गई। हस्त मिलाप की जद से दूर कर दी गई नूतन सरकारी स्कूल में यूडीटी के व्याख्याता होते हुये सेवा निवृत्त हुई। छोटी से छोटे प्रमाण, प्रमाण से छोटे निर्वाण ने बिसरा दिया लेकिन नूतन को याद है जब दोनों कानून की पढ़ाई कर रहे थे उसने दोनों की कितनी बार फीस भरी और कॉपी-किताब खरीदी। दोनों धुरंधर जानते थे उनका भेजा ऐसा प्रभावी नहीं है कि नौकरी के लिए पर्याप्त प्रयास कर सकेंगे। कानून की पढ़ाई इसीलिए की थी कि नौकरी न मिली तो वकालात में नाम-दाम कमायेंगे। न नाम मिल रहा था न दाम। दोनों की नजर नूतन के वेतन पर। उन दिनों वेतन अल्प था। अब बढ़ते हुये अप्रत्याशित रूप से ऐसा खूबसूरत हो गया है कि नूतन पच्चीस हजार से अधिक पेंशन पा रही है। एक वक्त आता है जब घर तेज बदलाव से गुजरता है। बहनें एक-एक कर पराई हो गई। दीप्ति फिर सिम्पल ने आकर घर को पराया कर दिया। इतना पराया कि नूतन को स्कूल में बिताये छ:-आठ घंटे और अपने कमरे के अलावा कुछ भी अपना न लगता। इधर उसका घुटना निकम्मा हो रहा था उधर भाई-भाभी बेरूखी दिखा रहे थे। भाई उसके अच्छे परिधान को अपव्यय कहते। भाभियां मुंह बर्रातीं - शादी हुई नहीं। नूतन दीदी पता नहीं किसके लिये इतना सजती हैं। जैसे वे दोनों अपने लिये नहीं पति के लिये सजती थीं। स्कूल से लौटने में विलम्ब होना, तफरीह करना माना जाता। शिक्षिकाओं के साथ मूवी या किसी सामाजिक आयोजनों में जाना आवारागर्दी होती। प्रमाण की बेटियां सौम्यता और नम्रता जब छोटी थीं कभी-कभी नूतन के साथ बाजार जाती थीं। युवा हुई, अपंग बुआ के साथ धीमी चाल चलने में उन्हें लज्जा आने लगी। माता-पिता के निर्देश मान नूतन से उतना ही प्रयोजन रखतीं, जो जरूरी होता। भतीजियों ने बिसरा दिया है लेकिन नूतन को याद है घुटना जब जरूरत भर को चलने-फिरने लायक था दोनों की फरमाइश पर उसके लिये ड्रेस खरीदने उन्हें लेकर बाजार जाती थी। बेसन का हलवा ऐसा स्वादिष्ट बनाती थी कि घर के लोग स्वाद भूले न होंगे। घुटना अधिक चलने और देर तक खड़े रहने के योग्य न रह गया। रसोई उसके लिये एक तरह से प्रतिबंधित क्षेत्र हो गई। खुशबू से आभास मिलता रसोई में कुछ स्पेशल पक रहा है। अपनी थाली में खुशबू वाला व्यंजन न देख पूछती-
''कुछ बना था न?''
दीप्ति का जवाब ''सौम्यता और नम्रता को बहुत पसंद है। दोनों ने अधिक खा लिया। नहीं बचा।''
सिम्पल का जवाब ''निर्वाण के मित्र आ गये थे। देना पड़ा। नहीं बचा।''
फरेब देख बुढ़ौती सम्पन्न कर रही अम्मा का दिल भर आता। बाबू जी रहे नहीं। वे कै दिन की मेहमान? नूतन को उनके बाद भी आसरा मिलता रहे इसलिए प्रमाण और निर्वाण का घालमेल सह जाती हैं। दो जून का खाना मिलता रहे इसलिए बहुओं की गुलाम बन कर रहती है। लड़के, अम्मा को साजिश नहीं बताते पर अम्मा जानती थीं निर्वाण ने किश्तों में घर बुक किया है। प्रमाण अपने आक्रामक स्वभाव के कारण वैसे भी बगावत पर उतरा रहता है ''कायदे का न मोहल्ला है न माहौल। यहां रहते हुये हम लोग कितने पिछड़े दिखाई देते हैं। अजीब घर है। कमरे कम है। आंगन इतना बड़ा जैसे खेल का मैदान! लीपने लगो तो सुबह से शाम हो जाये।''
अम्मा यथार्थ न कह पातीं - इस अजीब घर में रह कर ही तुमने और निर्वाण ने थोड़ा-बहुत पैसा जोड़ लिया है। अलग रहते तो वकालत ने नोन-तेल के लायक तो कमाते हो मकान का किराया, बिजली, पानी का बिल भरने में चला जाता।
पूतों के बागी तेवर देख अम्मा की चिंता बढ़ गई। नूतन को समझाने लगीं -
''नूतन हम आज हैं, कल नहीं रहेंगे। निर्वाण ने घर ले लिया है। प्रमाण भी कोशिश में है। भाईयों के भरोसे ही न रहना। बहनों से मोबाइल पर बात करती रहा करो। कमाती हो। जिसे अपना खाना-खर्चा दोगी, वही तुम्हें रख लेगी।''
''सैलरी मिलते ही घर खर्च के लिये पाँच हजार यहां भी देती हूं अम्मा। देख ही रहे हो दो रोटी देते इन कर्कशाओं के प्राण जाते हैं।''
''बहनें नरम दिल हैं।''
अम्मा की चिंता ने नूतन को चिंतित कर दिया - अम्मा ठीक कहती है। बहनों से सम्पर्क बनाये रखना चाहिये। बहनें सामाजिकता समझती हैं। अम्मा आज हैं, कल सचमुच नहीं रहेंगी। अम्मा के सामने वह उपेक्षित की जाती है, फिर तो अपमानित की जायेगी। अम्मा कमरे में थाली पहुँचा देती हैं, उसके तमाम काम कर देती हैं कि चलने-फिरने से घुटने पर जोर पड़ता है। अम्मा न रहेंगी तो कठिनाइयां बढ़ जाएगी।
अलग-अलग शहरों में रह रही बहनों से नूतन मोबाइल पर अक्सर बात करने लगी। बहनों ने लगभग एक जैसे शब्दों में आश्वस्त किया ''रिटायरमेन्ट में वक्त है न। अभी से परेशान क्यों हुई जाती हो। हम हैं तुम्हारे साथ। खुद को अकेला मत समझो।'' भरोसा और आश्वासन जैसे शब्दों से वह निश्चिन्तता पा रही थी एक रात अम्मा पंच तत्व में विलीन हो गई। सिम्पल को लेकर साल भर पहले निर्वाण नीलाम्बर सिटी में कूच कर चुका था। घर में अम्मा की हैसियत नहीं रह गई थी फिर भी एक लिहाज था। अब दीप्ति ने घुमा-फिरा कर कह दिया ''नूतन दीदी के सारे काम अम्मा करती थीं। मैं हाई बीपी की मरीज। मुझसे न होगा।''
प्रमाण ने घुमा फिरा कर नहीं सीधे कहा ''अम्मा लीप-पोत कर आंगन को चमकाये रखती थीं। अब वीरान लगता है। सच कहूं तो मुझे इतने बड़े घर में रहना बेवकूफी लगती है। छोटे फ्लैट ठीक होते हैं। न साफ-सफाई की अधिक झंझट, न मोहल्ले का प्रपंच।''
नूतन ने अभिप्राय ग्रहण किया। प्रमाण, निर्वाण का रुख अख्तियार कर मकान खरीद चुका है। निर्वाण ने छूंछे नहीं कहा दीदी कभी आ जाया करो। प्रमाण ने भी न पूछा तो बड़ी तौहीन होगी।
''प्रमाण, मेरे रिटायरमेन्ट को दो-तीन साल ही बचे हैं। तब तक यहीं रहो। स्कूल नजदीक है। एक्टिवा से चली जाती हूं। उतनी दूर से दिक्कत होगी।''
प्रमाण प्रणबद्ध।
''दिक्कत दूरी की नहीं सीढिय़ों की है। घर दूसरी मंजिल में है। तुम सीढिय़ा नहीं चढ़ पाती हो।''
निसहाय नूतन।
भाइयों ने सीढिय़ों वाले घर शायद लिये ही इसलिए हैं कि नूतन का टंटा नहीं रखना है। निर्वाण और सिम्पल पहले ही भाग निकले। प्रमाण भागना चाहता है। घर बेचने का विज्ञापन अखबारों में दे रखा है। घर कभी भी बिक सकता है। मकान में उसका भी हिस्सा है लेकिन न स्वेच्छा से रह सकती है न विक्रय को रोक सकती है। यहां अकेले रह कर इतने बड़े घर की सार-सम्भाल नहीं कर पायेगी। पैर में इतनी क्षमता अब नहीं रही जो अपने लिये दो टिक्कड़ सेंक ले। प्रबंध करना पड़ेगा। स्कूल के समीप वाले निजी कन्या छात्रावास में उसे शिफ्ट होते देख प्रमाण और दीप्ति को लगा उन्होंने बाजी मार ली है। पिंड छूटा। रही पैसे की बात तो इसका पैसा देर-सबेर कब्जे में आना ही है। निर्वाण नि:संतान। पैदा उसके किस उपयोग का। नूतन का परिवार है नहीं जो पैसे पर दावेदारी दिखाये। शादी के बाद बनने वाला परिवार बना नहीं। प्रमाण, नूतन को अपने परिवार का मानता नहीं। परिवार विहीन नूतन अपना पैसा मूड़ में बाँध कर नहीं ले जायेगी। पैसा सौम्यता, नम्रता का जीवन सुधारेगा।
समीप आती सेवा निवृत्ति।
चित्त विचलित।
नूतन सहोदराओं से आश्वासन चाहती थीं। दिद्दा ने परोक्ष-अपरोक्ष समझा दिया उसके दर पर बसर न हो सकेगी-
''... नूतन, मैं तुम्हें रख लूं पर तुम्हारे जीजा जी तैयार न होंगे। ....नहीं खर्च देने वाली बात नहीं... जानती हूं तुम स्वाभिमानी हो, मुफ्त में खाना-रहना मंजूर नहीं करोगी... बात ये है मैं तुम्हारे जीजा जी की छोटी बहन को रखने को तैयार न हुई थी। उसने ससुराल में आत्महत्या कर ली थी। अब किस मुंह से इन्हें तुम्हारे लिये राजी करूं...''
''दिद्दा मैं तुम्हारी द्विविधा समझ सकती हूं। मलाल न रखना।''
संयुक्त परिवार में रह रही छोटी से बात करना नूतन को अनुकूल न लगा। छोटी सदैव दु:ख से भरी रहती है ''इतने बड़े कुटुम्ब और रोज पधारने वाले नातेदारों को बना-लिखा कर मेरी रीढ़ कमजोर हो गई है।''
निसहाय नूतन। तभी नूतन ने तीन साल छोटी ललिता खुल कर सामने आई -
''... नूतन, तुमने दिद्दा से इतनी अरज-विनती की। पहले मुझसे बात करती न। मेरे साथ रहोगी ...दोनों बहनें मिल-बैठ कर बुढ़ापा बितायेंगे।''
''सेवा बहुत कराऊँगी। होमियोपैथी की किलो भर गोलियां निगलीं, लीटरों सिरप गटका, गैलन भर तेल घुटने में चुपड़ा फिर भी घुटना बागी बनता जा रहा है।''
''मैं हूं न।''

ललिता की हिस्ट्री -
ललिता नूतन के हमउम्र अपने पति स्वदेश की आशिकमिजाजी से आजिज आ चुकी है। मौका पाते ही महिलाओं के आगे-पीछे भंवरे की तरह डोलने लगते हैं। हनुमान गंज में पूरी छूट लेते हुए छोटी, दीप्ति, सिम्पल के साथ ऐसी बैठक जमाते थे कि ललिता का चेहरा सूख जाता था। दीप्ति परिहास करती -
''लगता है जीजा जी, ललिता दीदी आपको कब्जे में रखती हैं। ह्यूमर बिखेरने से पहले आप दीदी से इजाजत ले लिया करें।''
स्वदेश का अट्टहास ''बिना इजाजत के पलक नहीं झपकाता हूं। जोरू का गुलाम हूं।''
स्वदेश की षष्ठी पूर्ति हो गई पर आशिकमिजाजी नहीं गई। नूतन रोज मुफ्त का मनोरंजन देखेगी कि किस तरह स्वदेश कभी मेड कभी तीन साल पूर्व आई अपाला के पीछे विभोर हुये रहते हैं। स्वदेश, नूतन को लेकर भी विभोर हो गये। स्वयं कार चला कर ललिता के साथ नूतन को लेने पहुंचे। नूतन को इस सत्कार की उम्मीद न थी -
''सोच लीजिये स्वदेश जी। मैं जिंदगी भर का बोझ हूं।''
''मेरे भाग्य का सितारा बुलंद है नूतन जी। इतने साल घर वाली के साथ रहा अब डेढ़ सास (बड़ी साली) के साथ संगत जमाऊंगा।''
ललिता को अनुमान नहीं था नूतन को सहारा देने के लिए आई है लेकिन खुद उसका सहारा लेगी। जबकि नूतन ने कुल जमा छ: महीनों में अनुमान लगा लिया ललिता इतनी चुप और चेहरे से परेशान क्यों लगती है। पहले सोचती थी स्वदेश जैसे प्रसन्नचित्त पति के साथ ललिता यदि क्षुब्ध है तो यह ललिता का दोष है। अब देख रही थी मेड और अपाला की तरह उसके भी आगे-पीछे डोलते हैं। रात को मेडिकल शॉप से लौट कर नूतन के कमरे में घुसपैठ करते। बिस्तर में उसके समीप बैठ ललिता से कहते ''ललिता, मेरा खाना यहीं ले आओ। डेढ़ सास के साथ टीवी देखते हुये खाऊंगा।''
और जब ललिता, नूतन को थाम कर स्नान गृह की ओर ले जाती स्वदेश आंगन में इस तरह प्रकट होते मानो प्रतीक्षा में थे ''नूतन जी मदद करूं?''
''ललिता है न। स्वदेश जी आपको कष्ट नहीं दूंगी।''
नूतन असमंजस में।
स्वदेश जी चेष्टा बढ़ाते रहे तो ललिता मुझे रफा-दफा करने में वक्त न लगायेगी कि सताने को मेड और अपाला काफी हैं, नूतन तुम रास्ता नापो। यह ठौर छूट गई तो न स्वाभिमान बचेगा, न औकात, न जमीर। स्वदेश जी से कुछ कहना अशोभन होगा। ललिता से बात की।
''ललिता तुम तो जानती हो मुझे जल्दी सोने और जल्दी जागने की आदत है। स्कूल छूट गया, आदत नहीं छूटी।''
''अच्छी आदत है नूतन।''
''हां, लेकिन स्वदेश जी शॉप से देर से लौटते हैं फिर मेरे कमरे में टीवी देखते हैं। मैं झपकने लगती हूं। उन्हें भी एम्बरेसमेन्ट होती होगी। बैठक में रखा टीवी देखें। उन्हें सुविधा होगी, मैं अपने समय पर सो सकूंगी। थोड़ा अपनी तरह से स्वदेश जी को समझा देना।''
नूतन ने भरसक अपने स्वर को सम्भाल रखा था कि स्वदेश पर कोई आरोप सिद्ध नहीं कर रही है। निरंतर ललिता का चेहरा देख रही थी कि चेहरे में हस्तक्षेप के भाव देखेंगे तो बात खत्म कर देगी लेकिन ललिता के भाव ऐसे हो रहे थे मानो ऐसा कुछ सुनना चाहती है।
ऐसा कुछ कहना चाहती है - नूतन मैंने जब भी कहा 'मेड को दबी नजर से देखना, मजाक करना अश्लील लगता है। आज कल महिलायें बात-बेताब थाने चली जाती हैं कि अमुक ने छेडख़ानी की।' स्वदेश की हाजिर जवाबी 'ललिता तुम्हारा नजरिया घटिया है। थोड़ा अपनापन दिखा कर मेड को खुश रखता हूं कि काम न छोड़ दे। मैं, मनोजय और अपाला दिन भर मेडिकल शॉप में रहते हैं। मेड न रहेगी तो तुम गुड्डो (साल भर की पोती) को सम्भालोगी या घर?'
और जब कहा -
'तुम बाबू जी के बल्कि अम्मा के सामने भी मुझसे बात नहीं करते थे कि मर्यादा का ध्यान रखना पड़ता है। अब मर्यादा पुरुषोत्तम बने अपाला की गोद से गुड्डो को जिस तरह बार-बार लेते हो साफ लगता है अपाला को छूने की कोशिश करते हो। अपाला क्या सोचती होगी?'
स्वदेश की हाजिर जवाबी- ललिता तुम्हारा नजरिया घटिया है। हमारे बेटी नहीं है। 'मैं अपाला को बेटी की तरह मानता हूं।'
'बेटी और बेटी की तरह में अंतर है। सामाजिक रिश्तों में मर्यादा का ध्यान रखना चाहिये।'
'तुम आज कल यह क्या बकवास ले बैठती हो?'
और जब कहा -
'नूतन के कमरे में बैठक क्यों जमाते हो? उसे एकांत में रहने की आदत है। हंसी-ठठ्टा पसंद नहीं करती।'
स्वदेश की हाजिर जवाबी-
'मुझ पर शक, मेड पर शक, अपाला पर शक, अब नूतन जी पर शक। ललिता तुम्हारा नजरिया घटिया है।'
ऐसे छिछोरे के लिये नूतन कह रही है, अपनी तरह से समझा देना। ललिता का स्वर बुझा हुआ था।
''समझा कर अब चुप हो गई हूं नूतन। स्वदेश के व्यवहार से तुम्हें बुरा लगा हो तो मैं शर्मिन्दा हूँ।''
''तुम्हें बुरा नहीं लगता?''
''अब नहीं लगता। हनुमान गंज में जब सब इकट्ठा होते थे, जीजा जी और छोटी के पति बैठक में बैठते थे। स्वदेश भीतर घुस महिलाओं के साथ महफिल लगा लेते थे। मैं स्वदेश को बैठक में बैठने के लिये बार-बार कहती थी लेकिन सब लोग, नूतन तुम भी एक जैसी बात करती थी कि ऐसे हंसमुख आदमी के साथ मैं खुश नहीं हूं यह मेरी बेवकूफी है।''
''अब समझ रही हूं तुम चुप और परेशान क्यों रहने लगी हो।''
''परिस्थिति ऐसी मिली। आज तक नहीं बताया कम दहेज के लिये सास और तीनों ननदों ने मुझे कितना प्रताडि़त किया। सास तो छुट्टा बोलती थीं बाप के पास दहेज देने को धन नहीं था तो लड़कियों को कुयें में फेंक देते। यानि सीधे-सीधे मेरे मरने की कामना की जाती थी। एक बार मैं सास से लड़ पड़ी थी।''
''तुम?''
''नूतन वह उपद्रव मैं याद करती हूं तो आज भी दिमाग में सुईयां चुभने लगती हैं। किसी को नहीं बताया, आज तुम्हें बता रही हूं। अम्मा-बाबू जी को मेरी सास इतना श्राप देती थी। मैंने कह दिया मेरे मां-बाप को मत कोसो। जो कहना हो मुझे कहो। सास एकदम आपे से बाहर हो गई। स्वदेश ने मेरी पीठ पर इतने मुक्के मारे थे... मैं ठीक-ठाक कुछ कर नहीं पा रही हूं। मां-बाप के भरोसे हूं। तुम नहीं सह सकती तो हनुमानगंज चली जाओ। नहीं जाना चाहती तो अभी इसी वक्त अम्मा से मांफी मांगो। नूतन आज ही बता रही हूं, स्वदेश ने मेरी गर्दन पकड़ कर मेरी सिर अम्मा के पैरों में झुका दिया था और उनके पैरों में मेरा माथा रगड़वाते रहे थे। अम्मा ने अपने पैर खींच लिये वरना स्वदेश वहशी हो गये थे। बाद में जब मेडिकल शॉप डाली गई मुझे सांस लेने का मौका मिला। दुकान चल निकली। आज शहर की सबसे अधिक भरोसेमंद दुकान मानी जाती है। भीड़ लगी रहती है लेकिन पैसा क्या आया मद आ गया। एक डिवोर्सी लेडी से संबंध रखने के कारण स्वदेश की बहुत बदनामी हो चुकी है। और भी संबंध हों तो मैं ब्योरा नहीं जानती। बाकी तो तुम देख ही रही हो खुशमिजाजी का डंका पीटते हुये मेरे सामने फ्लर्ट करते रहते हैं। गजब बात है नूतन। सबके सामने खास कर पत्नी के सामने की जाने वाली चरित्रहीनता को लोग लाइन मारना नहीं मानते कि लाइन छिपकर मारी जाती है। और मुझ पर इल्जाम यह कि मैं स्वदेश पर बेवजह शक करती हूं।''
नूतन ने थरथरा रही ललिता को देखा। छ: भाई-बहिनों में स्र्वाधिक भौतिक उन्नति इसके घर में दिखती है। आज पहली बार पता चला इसका जीवन कैसा दबावपूर्ण रहा है।
''ललिता यही दिखाने के लिए मुझे ले आई हो?''
''लगा था तुम भी मुफ्त का मनोरंजन देखोगी पर एक इस वजह से तुम्हें अकेले घिसटने के लिये नहीं छोड़ सकती थी। सच कहूं नूतन मैं तुम्हें सहारा देने के लिये नहीं अपना अकेलापन कम करने के लिये लाई हूं। पहले भी अकेलापन लगता था पर जब से यह रंगीली बहू आ गई है खुद को इतना अकेला और असहाय पाती हूं जितना तुम खुद को न पाती होगी। मेडिकल शॉप में अपाला बैठे यह कोई बात में बात है? स्वदेश से कहा तो कहते हैं दुकान में काम बहुत बढ़ गया है। बाहरी आदमी रखूं इससे अपाला बेहतर है। शादी से पहले नौकरी करती थी। घर में रहने की उसे आदत नहीं है। जब से शॉप में बैठने लगी है बरक्कत हो रही है। वह दुकान को बरक्कत दे मैं इस उम्र में गुड्डों को पालूं।''
''अपाला को कहो मेरी उम्र ऐसी नहीं है जब मैं दिन भर गुड्डों के पीछे भागूं।''
''नहीं सुनती। समझ गई है स्वदेश मुझे महत्व नहीं देते हैं। स्वदेश के साथ ठहाके लगा अपना महत्व बढ़ा रही है।''
''मनोजय कुछ नहीं कहता?''
''स्वदेश की आशिकमिजाजी उससे छिपी नहीं है। स्वदेश को खुलकर कह नहीं पाता कि उमर हो रही है पापा अब तो संयम में रहो। रात में उसके कमरे से आती आवाज एक-दो बार मैंने सुनी है। अपाला को मर्यादा बनाये रखने के लिये कह रहा था। यह बराबर से लड़ रही थी आज के समय में कोई बहु, ससुर की परछाई से दूर नहीं भागती।''
''कैसे सहती हो ललिता?''
''जैसे तमाम महिलायें सहती हैं। आज भी हर घर में किसी न किसी पैमाने पर घरेलू हिंसा होती है। महिलायें बाधाओं से घिरी हुई हैं। मैंने कई बार मरने का इरादा किया। सोचती थी कौन सा तरीका आसान होगा। फांसी लगाना, नदी तालाब में डूबना, आग लगाना, जहर खाना या नस काटना। नस काटना आसान लगता था। नूतन डर तो नहीं रही हो?''
''क्यों?''
''एक साइको के सामने बैठी हो।''
''पागल। तमाम लोग एक या एक से अधिक बार मरने का विचार करते हैं। मैंने भी किया लेकिन ललिता मांगने से मौत नहीं मिलती। मृत्यु अपना दिन खुद तय करती है।''
''शायद इसीलिए मैं आत्महत्या करने की हिम्मत नहीं कर पाई।''
''आत्महत्या से अच्छा होता हनुमान गंज आ जाती।''
''भाई रहने देते?''
''मैं थी न। तुम्हारा खर्च उठा लेती।''
''तुम दीप्ति और सिम्पल के रहमो करम पर थी। अम्मा के बाद तो शरणार्थी हो गई।''
''इस पैर के कारण। तुम आ जाती तो दो जून की रोटी के लिए उन कर्कशाओं का मुंह न देखना पड़ता।''
''मैंने कहा था नी रिप्लेसमेन्ट करा लो। जरूरत भर को चल फिर लोगी।''
''गलती की। तुम्हारे घर आकर दूसरी गलती की।''
''पछता रही हो?''
''नहीं जानती थी तुमने इतनी परेशानी में समय बिताया है। अब जान रही हूं स्वदेश जी के दिमाग के पेंच ढीले हैं। यहां से जाना चाहती हूं।''
''तुम्हें देखकर लगता है, कोई है जो मेरे फेवर की बात करता है। हर बात के लिये मुझे दोषी नहीं मानता।''
''चलना चाहो तो मेरे साथ चल सकती हो।''
''कहां जायेंगे? हनुमान गंज का घर तो बिक गया।''
''हनुमान गंज ही जायेंगे। जाना-पहचाना है। प्रमाण वहीं रहता है। शायद कभी सुख-दुख पूछ लेगा। किराये से मकान लेकर रहेंगे। तुम मेरा पैर बनना, मैं तुम्हारा गुजारा भत्ता।''
''तुम्हें सहारा देने के लिये लाई हूं। तुम पर बोझ नहीं बनूंगी।''
''मत बनो। तुम्हारे पास कुछ हो तो बांध लो। लगेगा अपना खा रही हो। वैसे मेरे पास बैंक में पर्याप्त पैसा और पेंशन है।''
''मेरे पास सेविंग बैंक एकाउन्ट और गहनें हैं।'' ''एटीएम कार्ड और गहने बांध लो।''
''इस उम्र में एटीएम कार्ड और गहने लेकर भागूं।''
''नस काटने से कम शर्मनाक होगा।''
''हिम्मत नहीं कर पाऊंगी।''
''कि स्वदेश जी को छोडऩे का इरादा नहीं है।''
''अपनी साडिय़ों को छोड़ कर जाने का मन नहीं करता। साडिय़ां मैंने बड़े मन से खरीदी हैं।''
''सचमुच साइको हो। इतनी साडिय़ां किस खुशी में खरीदती रही?''
''साडिय़ां खरीद कर खुशी मिलती है। स्वदेश में एक गुण जरूर है। मुझसे पैसे का हिसाब नहीं मांगते-पूछते। खेती-बाड़ी का हिसाब भी मैं ही देखती हूं।''
''बंदे में कुछ तो नैतिक है।''
''कभी नहीं कहा इतनी साडिय़ां क्यों खरीदती हो।''
''साडिय़ों से बड़ा मोह है। गहने के साथ साडिय़ां भी बांध लो।''
''इतनी साडिय़ों के लिये कम से कम पांच बड़े बैग चाहिये। स्वदेश कहेंगे पांच भारी बैग लेकर कहां जा रही हो?''
''उतनी लो जो एक बैग में समा जायें''
''मैं नहीं चाहती मेरी साडिय़ा अपाला पहनें। अपनी दोनों अलमारियों को लॉक कर दूंगी। लॉक तोड़े बिना नहीं पहन पायेगी। मनोजय लॉक तोडऩे नहीं देगा।''
''माया-मोह छोड़ो और चलो।''
''तुम तो सीरियस हो रही हो नूतन। सोचने दो। गांव में फसल तैयार है। रबी और खरीफ फसल की कटाई के समय मुझे माह-पखवाड़े गांव में रहना पड़ता है।''
''मैं भी तुम्हारे साथ गांव चलूंगी। वहां से हनुमान गंज। साथ चल सको तो ठीक वरना मुझे हनुमान गंज पहुंचा देना। दीप्ति के दिये टुकड़े खाती रहूंगी। यहां पहले ही तमाशा हो रहा है। बिल्कुल नहीं चाहती मेरी वजह से तुम एक तमाशा और देखो।''
''नूतन। ऐसी बात कर देती हो। तुम्हें दीप्ति के टुकड़ों पर जीवन बिताने के लिये नहीं छोड़ सकती। मुझे थोड़ा वक्त दो। सोचती हूं कुछ।''
कार से दोनों को गांव पहुंचा कर लौटते हुए मनोजय को कल्पना नहीं थी मां और मौसी घर नहीं लौटेंगी। नूतन, मोबाइल पर अपनी पाठशाला के शिक्षक को किराये का मकान ढूँढऩे के लिये कहेगी। फसल का हिसाब किताब कर दोनों हनुमान गंज चली जायेंगी।


नई स्थिति ने दोनों को अशांत-अस्थिर किया लेकिन उन्होंने एक-दूसरे को सम्भाल लिया।
''नूतन कैसे रहेंगे?''
''बेमकसद रहेंगे।''
''मजाक मत करो।''
''तुम प्रश्न मत करो। मुझे शांति अच्छी लग रही है। स्कूल में शोर था घर में फसाद। ऐसा कभी नहीं हुआ जब कहीं से कोई आहट न आती हो।''
ललिता ने नूतन को देखा। नूतन तसल्ली में है। इसकी तसल्ली के लिये यहां रहने का उपक्रम करना होगा।
''और मैं स्वदेश के खर्राटे में अपनी नींद जाया करती रही।''
''यदि मैं खर्राटे लूं, बुरा न मानना।''
''लेती हो?''
''अपने खर्राटे कोई खुद सुन पाता है? नम्रता कहती थी।''
''मेरे करम में खर्राटे ही बदे हैं।''
''सबसे पहले मेरे सोने के लिये एक दीवान खरीदो। न जमीन पर बैठ सकती हूं न सो सकती हूं। तुम बैठने और उठने में मदद करती हो। पैर ही तो मनुष्य को जमीन से जोड़ते हैं। इस पैर ने जमीन से मेरा नाता तोड़ दिया।''
''दीवान खरीदना ही पड़ेगा। वरना तुम्हें बिस्तर पर बैठाने, फिर उठाने में मेरा वजन काफी कम हो जायेगा। पहले ही कनक छड़ी हूं।''
''मेरी कनीज बन कर रहो वरना गुजारा भत्ता कैंसिल।''
नूतन खुद को सुदृढ़ कर चुकी है - न उम्मीद न अपेक्षा, न दायित्व न अधिकार, न आशा न निराशा, न भय न ग्लानि, न क्रोध न परिताप। एक-दूसरे की जरूरत बन कर रहना है।
ललिता खुद को सुदृढ़ कर रही है - अब किसी का मूड नहीं भांपना। जी हुजूरी नहीं करनी। तनाव और दबाव में नहीं रहना, योजना बना कर दिन नहीं बिताना। अतीत को याद नहीं करना, भविष्य नहीं सुधारना, आपात काल की फिक्र नहीं करना। जो होगा उतना बुरा नहीं होगा जितना हो चुका है। एक-दूसरे की जरूरत बन कर रहना है।
घर को व्यवस्था देने जैसी गृहस्थी जुड़ गई। जीवन को व्यवस्था देने जैसी दिनचर्या बन गई। नूतन ने खुद को जमाने से निर्लिप्त कर लिया है। ललिता कथित परिवार से आई है। स्वदेश नफरत से याद आते, अपाला क्रोध से, मनोजय स्नेह से, गुड्डो वात्सल्य से। घर याद आता। घर को शून्य से शिखर तक खींच लाने में उसकी आयु व्यय हुई अब अपाला आधिपत्य जमा रही होगी। बगीचे को हरा-भरा बनाने में कौशल झोंक दिया अब अपाला शीतल हो रही होगी। अलमारियों का लॉक यदि तोड़ लिया होगा, साडिय़ां पहन रही होगी। नूतन ने उसकी आकुलता भांप ली-
''घर की याद आती है ललिता?''
''मनोजय की।''
''मुझे एक्टिवा की। बाजार और बैंक के काम से तुम रिक्शे में जाती हो। एक्टिवा होती तो फर्राटा मारते हुए जाती। यदि ठीक समझो तो मनोजय को कॉल करो। एक्टिवा पहुंचा दे।''
''हां। मनोजय मेरे लिये परेशान होगा। उसे देखने की इच्छा होती है। नूतन पर स्वदेश आकर हंगामा करने लगे तो मकान मालकिन कान पकड़ कर निकाल देगी। वैसे भी पूछती रहती है आप दोनों का और कोई नहीं है क्या?''
''मनोजय को साफ कह देना हमारा पता, लापता रखेगा।''
''हां। मनोजय से बात होती रहे तो भरोसा बना रहेगा आपता-विपदा में साथ देने वाला कोई है।''
एक्टिवा से पचहत्तर किलोमीटर की कुल दूरी तय कर मनोजय सचमुच आ पहुंचा। मां-बेटे कुछ देर एक-दूसरे को देखते रहे।
- पिता और पत्नी के बीच पिसता बच्चा कुम्हला गया है।
- बड़े घर की मालकिन दो छोटे कमरों में रह रही है।
ललिता ने घर का समाज शास्त्र न पूछ यह कहा -
''बेटा, दुबले हो गये हो।''
मनोजय ने ललिता के घर छोडऩे पर हुये ध्वंस को न बता यह कहा-
''तुम भी मां।''
''गूड्डो कैसी है?''
''तुम्हें मिस करती है।''
''मैं भी तुम्हें मिस करती हूं।''
''जब मिलना चाहो, कॉल करना। आऊंगा।''
नूतन ने दोनों को भावुक देख प्रसंग बदल दिया ''मनोजय, किसी ने पूछा एक्टिवा कहां ले जा रहे हो?''
''कह दिया प्रमाण मामा ने मंगाई है, पहुंचाने जा रहा हूं।''
''व्हील चेयर कहां मिलेगी मनोजय? मिले तो खरीद लूं। ललिता कहां तक मेरी ड्यूटी बजाये।''
''पता करता हूं मौसी।''
व्हील चेयर के कारण नूतन और ललिता को आसानी हो गई। मनोजय माह, दो माह में आ जाता। दो-चार दिन में कॉल कर लेता। ललिता उसके कॉल की प्रतीक्षा करती। इस बार उसके काल पर ललिता और नूतन चौंक गई -
''मां, सिम्पल मामी का कॉल आया था।''
''सिम्पल का कॉल...
सिम्पल का नाम सुनते ही नूतन ने ललिता से सेल छीन लिया।
''सिम्पल ने तुम्हें कॉल क्यों किया मनोजय?''
''आपको पूछ रही थी मौसी।''
''कोई प्रतिशोध अभी बाकी है?''
''आप कहां हैं जानने के लिये उन्होंने दीप्ति मामी को कॉल किया। दीप्ति मामी ने बताया आप हमारे साथ रहने लगी हैं। तब सिम्पल मामी ने मुझे कॉल किया।''
''अम्मा ने उसका घर फोड़ी नाम यूं ही नहीं रख दिया था। कह देना मेरी जासूसी न करें।''
''वे परेशान लग रही थीं। बोली मेरा, फ्लैट बंद पड़ा है। यदि नूतन दीदी तैयार हों तो उनके साथ मैं फ्लैट में रहना चाहती हूं।''
''सिम्पल एहसान न करे। मैं और ललिता आराम से हैं।''
पुराने मोहल्ले के छोटे घर में आम परेशानियों से जूझती ललिता और नूतन को देख कर मनोजय बेचैन था। मामी के फ्लैट में रहें तो तरीके से जी सकती हैं। मौसी ने जिस तरह तेजी दिखाई है सम्भव है सहमत न हों पर कोशिश करनी चाहिये। उसने सिम्पल को उनका ठिकाना बता दिया।
सिम्पल की हिस्ट्री -
बनाने-खाने, बल्कि बनाने से अधिक खाने और टप-टप आंसू टपकाने में उस्ताद रही सिम्पल ने पति गृह का समीकरण समझने में भी तत्परता दिखाई थी। बाबूजी का टंटा खत्म था। डोक्कर अम्मा कितने दिन की मेहमान। यह पोलियो ग्रस्त अनब्याही ननदिया जरूर जीवन भर गले पड़ी रहेगी। पति के दिल का रास्ता पेट से होकर जाता है जैसी स्थापित कहावत पर अमल कर सिम्पल ठीक पहले दिन से निर्वाण पर एकाधिकार बनाने में दत्त हो गई। निर्वाण के दिल का रास्ता सचमुच पेट से होकर गया था। गदगद होकर कहता जिसमें हाथ लगा दे, स्वाद ला देती है। चार वर्ष हो चले पर वह स्वाद की बनाती रह गई, संतानवती न हो पाई। मेडिकल रिपोर्ट में निर्वाण साफ-साफ कुसूरवार। कुसूर स्वीकार करते हुये निर्वाण ने सिम्पल को मूड में बैठने का खुला ऑफर दिया। ऑफर का भरपूर लाभ ले सिम्पल ने झंझटें शुरू कर दीं। सावधानी बरतते हुये निर्वाण के सम्मुख टप-टप आंसू टपकाते हुये इस तरह प्रस्तुति देती जो सिद्ध करती वह, अम्मा खास कर नूतन को फूटी आंख नहीं सुहा रही है। संतानहीनता के लिये करुणा देते, पाक शास्त्र के लिये सराहते, टपकते आंसुओं से पसीजते हुये निर्वाण, यदि सिम्पल का अंध भक्त न बन जाता तो परख लेता नूतन, सिम्पल को फूटी आंख नहीं सुहा रही है। निर्वाण ने अपने विवेक को तेजी से जागृत किया - नूतन को ठोना वस्तुत: अपने जीवन को नरक बनाना है। एक्टिवा से जैसे-तैसे शाला चली जाती है, बाकी गजब का एहतियात बरतते हुये दीवार का सहारा लेकर चरण रखती है कि घुटने पर अधिक जोर न पड़े। अम्मा ने अलग सिर चढ़ा रखा है।  बिस्तर पर थाली पहुंचाती हैं। आदत खराब कर अम्मा कूच कर जायेंगी। ये जमी रहेगी पीपल की तरह छाती पर। अच्छी योजना बनाते हुये निर्वाण ने निर्माण काल में नीलाम्बर सिटी में फ्लैट बुक कर लिया। स्वामित्व मिलते ही सपत्नीक रुखसत होते हुये अम्मा को साफ तौर पर आरोपी बना गया -
''अम्मा, सिम्पल घर फोडऩी है तो अलग हो जाता हूं। बचा लो अपना घर।''
सदमा खाई अम्मा कह न पाई सुकुमारी जब से ड्योढ़ी चढ़ी है पैंतरेबाजी दिखा रही है। हम आरोपी कैसे हो गये? नूतन उच्चाटन में - बाबू जी मुझे किसी कोने खोरे कुबड़े से ब्याह देते तो घर न टूटता।
प्रमाण ने प्रकरण को धोखाधड़ी माना - यह जिम्मेदारी से बच निकलने की निर्वाण की चाल है।
दीप्ति मंगल मनाती हुई - निर्वाण का कमरा युवा हो रही सौम्यता और नम्रता के लिये उपयुक्त है। अम्मा के कमरे में सोने वाली सौम्यता, अम्मा के खर्राटों से अनिद्रा की रोगी बन रही है। सुबह सात बजे शाला पहुँचने के लिये पाँच बजे से सजती, नूतन, नम्रता के कारण नूतन को क्या अड़चन होती है। सौम्यता और नम्रता निर्वाण के कमरे में आजादी महसूस कर रही थीं। नूतन को दिनों बाद अपने कमरे में अपना आधिपत्य महसूस हुआ। उधर नीलाम्बर सिटी पहुंच कर सिम्पल को लगा उसने वह आजादी हासिल कर ली है जो मायके में प्राप्त थी। अम्मा के पंच तत्व में विलीन होने को उसने मुक्ति पर्व की तरह देखा थ। ख्यालों में नहीं था अम्मा की बरसी होते न होते निर्वाण सड़क दुर्घटना में चल बसेगा। सिम्पल के गिर्द स्याह अंधेरे। संतान नहीं। पति नहीं। पुश्तैनी मकान में जाती है तो फिर वही दास्तान। वह बनायेगी, नूतन दीदी हपक लेंगी। मायके में अच्छे दिन बिताये हैं। पराई हो जाने पर भी उम्मीद जुड़ी हुई है। फ्लैट बंद कर सिम्पल मायके आ गई।
मायके में वही समीकरण जो ससुराल में।
वहां प्रमाण और निर्वाण सर्वेसर्वा थे, यहां भाई। वहां उसकी और दीप्ति की तूती  बोलती थी यहां भाभी की। यहां मां वैसी ही मजबूर जैसी अम्मा। वहां अम्मा ने नूतन को सिर चढ़ा रखा था यहां तीन बेटियों के बीच इकलौते पूत को पापा, प्रमुखत: मां ने जन्म से ऐसा सिर चढ़ा रखा है कि हरदम मोर्चा खोले रहता है। वहां सौम्यता और नम्रता उसके साथ महफिल सजाती थी यहां भाभी अपने तीनों बच्चों को उसके पास नहीं फटकने देती है कि नि:संतान की छाया पडऩे से बच्चों का अमंगल होगा। वहां नूतन को दो जून का खाना देने में इसे उदासी आती थी यहां चालबाज भाभी ने रसोई में झोंक रखा है ''सिम्पल दीदी आपके भाई कहते हैं आप अच्छा खाना बनाती हैं, वे मेरा बनाया गोबर नहीं खायेंगे।'' वहां प्रमाण और निर्वाण, नूतन के वेतन पर नजर गड़ाये रहते थे यहां पैसा निकाला तो भाई खुश वरना संगीन तान लेता है। काफी समय तक सिम्पल ने रसोई में हुनर दिखाया। पैसा लुटाया। आखिर समझ गई भाई कंगाल करके विश्राम पायेगा। लाचारी यह, हनुमान गंज के कारण -अकारण ताल ठोंक कर लड़ती रही, यहां लडऩे का साहस न कर पाती। कभी किया तो भाभी की गिरी हरकत-
''ससुराल में निभाते न बना, यहां कैसे बनेगा? जरूरत है इसलिए मांग रहे हैं। इतने पैसे का क्या करोगी सिम्पल दीदी? लड़के-बच्चे हैं नहीं...
सिम्पल को नूतन बहुत याद आई। यहां वह उतनी ही अकेली है जितनी वहां नूतन दीदी थी। उसके दोनों पैर सलामत हैं पर स्थिति नूतन दीदी से अलग नहीं है। अब भी यहां रही तो भाई फ्लैट भी हड़प लेगा। दीप्ति को कॉल किया। मालूम हुआ नूतन, ललिता के साथ रहती है। ललिता को कॉल करने का साहस न हुआ। मनोजय को कॉल किया। मालूम हुआ नूतन और ललिता अलग रहती हैं। सिम्पल शर्मिन्दा हुई और मंतव्य कहा - वह अपने फ्लैट में दोनों दीदी के साथ रहना चाहती है।

ललिता की तरह सिम्पल ने भी नहीं सोचा था नूतन को सहारा नहीं देगी वरन उसका सहारा लेगी। सिम्पल ने किराये का छोटा घर ढूंढ लिया। चेहरा ऐसा हो गया था मानो बुद्धि कहीं गुमा आई है। साथ लाये तीन-चार बैग दर्शाते थे वापस जाने के लिये नहीं आई है। प्रथम दृष्टया नूतन और ललिता क्षुब्ध हुई - मनोजय ने पता, लापता नहीं रहने दिया।
''सॉरी नूतन दीदी।'' आंसू टपकाने में उस्ताद सिम्पल के आंसू प्रवाहमान होने लगे।
आंसू देख नूतन की क्षुब्धता क्षीण हो गई ''सिम्पल, तुम अब भी उतना ही रोती हो।''
''सॉरी नूतन दीदी।''
सिम्पल की दीन अवस्था का जब मनोजय ने संकेत दिया था नूतन ने तभी खुद को मानसिक रूप से तैयार कर लिया था। सिम्पल यदि मदद चाहती है तो अधिक सवाल-जवाब नहीं करेगी। सिम्पल इस वक्त इतनी दीन लग रही है कि लगता नहीं वही सिम्पल है जो हर किसी की बात इस तरह काटती थी कि प्रतिस्पर्धा दिखाई दे।
''सॉरी पहले बोल देती तो ठीक रहता न। यही होता है। जब बात काबू से निकल जाती है, सॉरी बोलने की याद आती है।''
''सॉरी दीदी।''
''रो कर नहीं खुश होकर रहना चाहो तो घर छोटा है पर तुम्हारे लिये जगह बन जायेगी।''
ललिता खदबदा रही थी लेकिन देखना चाहती थी प्रहसन किस अंजाम पर पहुंचता है।
''रहने आई हू्ं। नीलाम्बर सिटी में रहेंगे।''
नूतन इस तरह उद्धत हो उठी जैसे प्रस्ताव की प्रतीक्षा में दिन बिता रही थी -
''फ्लैट में रखना चाहती हो तब तो हम दोनों दोड़ कर चलेंगे। किराये के पैसे बचेंगे। मकान मालकिन की जासूसी से प्राण छूटेंगे। बंद जगह में दम घुटता है। खुली जगह में रहना चाहती हूं। सच कहूं तो अपने घर का आँगन इन दिनों बहुत याद आता है।''
नूतन आडम्बर फैला रही है। ललिता ने दखल दिया -
''नूतन, तुम सीढिय़ां नहीं चढ़ पाती हो। मेरे इतना हाड़-मांस नहीं है जो तुम्हें सहारा देकर चढ़ाती-उतारती रहूंगी।''
सिम्पल, ललिता की स्तुति पर उतारू ''ललिता दीदी, अब लिफ्ट बन गई है।''
ललिता नूतन को संकेत देना चाहती थी यह वही सिम्पल है जिसे तुम फूटी आंख नहीं सुहाती थी, बोली, ''नूतन, तुम्हारे स्वाभिमान को क्या हो गया है?''
नूतन आहत करने जैसा कोई तथ्य याद नहीं रखना चाहती ''ललिता स्वाभिमान न रहेगा तो हम बाकी बची जिंदगी का फालूदा करने से बच सकते हैं।''
सिम्पल शर्म और पश्चाताप से तब तक रोती रही, जब तक ललिता अग्रसर न हो गई ''चुप हो जाओ सिम्पल। नूतन ने क्लीन चिट दे दी है। अब न हम तुम्हारी ननदें हैं, न तुम हमारी छोटी भाभी। रिश्ते दर्द देते हैं। हम तीन स्त्रियां हैं जिन्हें एक-दूसरे का सहारा लेना है।''
नूतन ने ललिता की हथेली दबाई ''आ गई लाइन पर। हम न स्वाभिमान की बात करेंगे न औकात की। काफी लड़ाई औकात के कारण होती है।''

नीलाम्बर सिटी की बिल्डिंग नम्बर एक का फ्लैट बारह। बुरे दिन बिता कर आई सिम्पल इतनी चुप रहती थी जैसे फ्लैट की मालकिन नहीं है। नूतन समरसता देती -
''अच्छा लग रहा है सिम्पल?''
''अचानक कोई मेहमान नहीं आयेगा सोच कर अच्छा लग रहा है। वहां कभी भाभी के मायके वाले, कभी बहनों के ससुराल वाले, कभी पापा के गांव वाले पहुंचते रहते थे। मैं रसोई में झोंक दी जाती थी कि जिसके वाले आये हैं वे उन्हें इंटरटेन कर रही हैं।''
ललिता ने अनुमोदन किया ''यही झंझट करते मैंने जीवन बर्बाद कर दिया। फिर भी यश नहीं मिला।''
नूतन बोली ''दु:ख ही बताना है तो तबियत हलकान कर नहीं, चपल होकर बताओ। सुनने में कुछ मजा आये।''
सिम्पल सचेत हो गई ''ठीक बात नूतन दीदी। अब हम लोग दिमाग पच्ची नहीं करेंगे। खुश रहेंगे। सोचती हूं खुश रहने की शुरूआत आलू पराठा बना कर करूं। आलू पराठा और दही मेरी कमजोरी है। देखिये न मोटाती जा रही हैं।''
आपदा-विपदा के बावजूद सिम्पल का बनाने-खाने का शौक नहीं गया है।
ललिता ने सिम्पल को सम्बल दिया ''सिम्पल तुम मोटापे में सुंदर लगती हो। पतली हो जाओगी, कम सुंदर लगोगी।''
तीन स्त्रियों ने मिल कर अपना संसार खड़ा कर लिया।
दिनचर्या में ऐसी नियमितता है कि हर काम ठीक वक्त पर ठीक तरह होता है। सिम्पल रसोई सम्भालती है, ललिता दीगर काम। नूतन, मुखिया बनी टीवी देखती है अथवा अखबार बांचती है। अखबार बांचते हुए नजर एक खबर पर पड़ी। सिम्पल और ललिता को पुकारा। पुकार में चौंक भरी थी। दोनों काम रोक कर नूतन के अगल-बगल बैठ गईं।
''सुनो तुम दोनों। डरावनी खबर है। पड़ोसियों पर नजर रखें। हो सकता है कोई आतंकवादी, अपराधी, शातिर, लुटेरा आपके पड़ोस में रहता हो और आपको मालूम न हो। आजकल आतंकवादी वारदात में महिलाओं का इस्तेमाल किया जा रहा है...
सिम्पल के चेहरे में सफेदी-
''नूतन दीदी, सोसायटी वाले हमारी हिस्ट्री जानना चाहते हैं। यदि यह खबर पढ़ेंगे हमें आतंकवादी मानेंगे।''
ललिता ने खण्डन किया ''हमारे पास ऐसा कुछ नहीं है। जरूरी सामान भी ठीक से नहीं है। हम आतंकवादी नहीं लगते।''
नूतन ने डरा दिया ''बिना मर्दों वाला घर है। संदेह बनता है जी।''
ललिता ने नूतन को घेरा ''तुम्हें क्यों लगता है संदेह बनना चाहिये? मुझे बरगला कर घर-दुआर छुड़वाया। सिम्पल भी लपेटे में आ गई। अब तुम डरा रही हो नूतन।''
नूतन ने निर्बाध कहा ''यह खबर बड़े मौके पर छपी है ललिता। हम बेमकसद बेफिक्र होकर जी रहे हैं लेकिन थोड़ा सोचना चाहिए। खबर पढ़कर मुझे चिंता होने लगी है। हम दोनों की उम्र हो रही है लेकिन सिम्पल छोटी है। हमारा राम नाम सत्य हो गया तो यह बेचारी अकेली हो जायेगी। फ्लैट प्रमाण हड़प लेगा या इसका भाई।''
सिम्पल के उदर में खलबली ''काले चोर को दे दूंगी पर इन दोनों से तौबा। ये लोग कब पूछने आये हम लोग जिंदा हैं या मर गये?''
ललिता ने कारण कहा ''पता मालूम हो तो पूछने आयें।''
''मालूम है ललिता दीदी। कुछ दिन हुये मैं एटीएम से पैसे निकाल रही थी। वहीं प्रमाण दादा और नम्रता मिल गये। दादा कुछ न बोले पर नम्रता ने पूछा था चाची, नीलाम्बर सिटी में रहने लगी हो? मैं नहीं बताना चाहती थी पर बता दिया। दादा ने दिद्दा को बताया होगा तभी न दिद्दा ने निमंत्रण पत्र हमारे पते पर भेजा। और दीदी मेरे भाई का नाम न लो। आप दोनों की नजर बचा कर मैं कभी-कभी मां से बात करती हूं। वे मेरे लिये परेशान रहती हैं। मुझे बताना पड़ता है आप लोगों के साथ हूं। खुश हूं। भाई जानता है, मैं यहां रहती हूं। कभी झांकने न आया।''
नूतन सिम्पल की बेचारगी को समझ रही है ''कुछ सोचना होगा सिम्पल। आज मैं  सचमुच चिंतित हूं।''
''जो होगा देखा जायेगा। अभी मरने की बात मत करो नूतन दीदी। आप दोनों के बिना रहने का ख्याल डराता है।''
ललिता ने गम्भीरता कम की ''अमर होने की वटी कहीं मिले तो मैं और नूतन तुम्हारे लिये खा लें।''
सिम्पल के चेहरे में खिंचाव बना रहा ''ललिता दीदी, मौत से उम्र का क्या संबंध? क्या पता पहले मैं ही हलाल हो जाऊं।''
नूतन बोली ''पहले मरने की होड़ हम बेकार कर रहे हैं। खबर सुना कर मैंने तुम दोनों की खास कर सिम्पल तुम्हारी हालत बिगाड़ दी।''
''नूतन दीदी, आपने तो सतर्क किया है। हम मरने का न भी सोचें पर फ्लैट के लिये कुछ सोचना पड़ेगा। मैं अपना फ्लैट मनोजय के नाम करूंगी। इस बार आयेगा तो उसे बात करना है।''
ललिता ने आवेश दिखाया ''मनोजय के नाम नहीं। मनोजय से मुझे बैर नहीं है पर मैं बिल्कुल नहीं चाहती स्वदेश और अपाला को किसी तरह का फायदा मिले।''
''यदि दादा या भाई ने कब्जा जमा लिया मेरी आत्मा जार-जार रोयेगी।''
नूतन ने माना खबर का बुरा असर हुआ है। असर को कम करने की कोशिश की ''मैं फिर कहूंगी मेरा पैर वरदान है। इसके कारण मैं परिवार जैसे पचड़े से बची हूं। ललिता तुम्हें स्वदेश से खतरा है, सिम्पल तुम्हें भाई से। अरे यार आत्मा होती होगी तब न रोयेगी। आज ही तो हम तीनों सामूहिक रूप से मर नहीं जा रहे हैं। सोचते हैं। रास्ता निकलेगा।''
तीनों दोपहर का खाना खाकर सुस्ता रही थीं तभी नूतन के मोबाइल पर दिद्दा का कॉल आ गया। पूछ रही थीं निमंत्रण पत्र कोरियर से भेजा था, मिला कि नहीं? तीनों को आना है। अकेले आने में अड़चन हो तो मनोजय को कह दो तुम्हारी तरफ से होता हुआ आये। उसके साथ आ जाना।
आम तौर पर मनोजय का ही कॉल आता है। दिद्दा के काल ने हतप्रभ किया।
ललिता भड़क गई ''नूतन, तुम्हें दिद्दा रखने को तैयार न हुई, अब काहे संबंध जोड़ रही हैं?''
नूतन परम हंस जैसे भाव में ''व्रतबंध में सभी भाई-बहनों के परिवार जमा होंगे। हम लोगों का खूब चर्चा होगा कि हम तीन महिलाओं ने मिलकर कुल बोर दिया।''
सिम्पल ने टिप्पणी दी ''परिवार में थोड़ा मान-सम्मान मिल जाता तो न बोरते।''
ललिता बोली ''कभी मनोजय आयेगा तो पूछूंगी दिद्दा के घर में हम लोगों को कितनी गालियां पड़ी।''
नूतन लोकाचार कभी नहीं भूलती ''ललिता, मनोजय को कह देना, हमारी तरफ से इक्कीस सौ रुपये व्यवहार में दे देगा। जब यहां आयेगा हम उसके पैसे लौटा देंगे।''

आयोजन सम्पन्न हो गया।
ललिता को उम्मीद थी आयोजन से लौट कर मनोजय नीलाम्बर सिटी आयेगा। नहीं आया। क्यों नहीं आया, दिद्दा के फनफनाते कॉल से जाहिर हुआ। दिद्दा गरम तेल में पड़ती पानी की बूंदों की तरह छनक रही थी। नूतन ने कहा -
''दिद्दा हम लोग न आ सके।''
कुछ क्षण दिद्दा की तेज सांसे सुनाई दीं ''मेहरबानी की जो नहीं आ सकी।''
''क्या हुआ?''
''क्या नहीं हुआ। मुझे नहीं मालूम था इतना तमाशा होगा। मेरे ससुराल वाले जान लेंगे मेरे मायके वाले कितने असामाजिक हैं।''
''क्या हुआ?''
''तुम तीनों तो अवारा हो ही गई हो। यहां मेरे घर में स्वदेश और प्रमाण ने रंग में भंग कर दिया।''
''स्वदेश जी तो हर कहीं हर दिल अजीज बने रहते हैं।''
''खाक। प्रमाण को देखते ही तमतमा गये। बोले 'मनोजय से एक्टिवा मंगा ली। नूतन जी की जरा फिक्र नहीं है।' प्रमाण को तो जानती हो। भांग खाये हो ऐसा व्यवहार करता है। बोला 'मनोजय से पूछिये एक्टिवा किसे दे आया।' और आप दीदी की फिक्र क्यों करते हैं? नीलाम्बर सिटी में सिम्पल और ललिता दीदी के साथ फरारी काट रही हैं।''
नूतन चकित ''ओ गॉड।''
''स्वदेश बमके 'तुम्हें बताने आई थी हम कहां फरारी काट रहे हैं?' प्रमाण भड़क गया 'दिद्दा से पूछिये। दिद्दा ने बड़े आदर से तीनों को न्योता है।' स्वदेश को तो हर कहीं बाजी मारने की आदत है, प्रमाण तौहीन किये दे रहा था। बोले 'सबको जानकारी है, एक मुझे ही नहीं है।''
''ओ गॉड।''
''अरे, स्वदेश ने भरे समाज में मनोजय का पानी उतार दिया। बोले 'मनोजय मुझे लगता है तुम्हारी मदद से ललिता फरार हुई है। इतने बड़े जासूस हो तुम। एक्टिवा दे आये मुझे हवा न लगने दी। बड़ा गुण गाते हो जब से मां गई हैं घर काटने को दौड़ता है। कभी तुम्हें याद करती है?''
''मनोजय को हम लोगों के कारण जलील होना पड़ा।''
''बेचारे का मुंह फक्क हो गया था। बोला 'एक मुझे ही तो याद करती हैं। जब बुलाती हैं, मिल आता हूं।' स्वदेश का चेहरा देखने जैसा हो गया। बोले 'हनुमान की तरह उड़ कर जाते हो कि कब गये, कब आये, पता नहीं चलता।''
''फिर?''
''बोला हनुमानगंज पचहत्तर किलोमीटर दूर है। सुबह बस पकड़ता हूं। रात तक लौट आता हूं।'' मैंने कहा भी यहां लोग हैं। आपसी मामला है। बाद में सुलझाना। नहीं माने। इतनी किरकिरी हुई।''
''हम लोगों के कारण किरकिरी हुई। दिद्दा माफ करना।''
''सोच लो आगे तुम लोगों को क्या करना है। स्वदेश ने मनोजय को कहा है ललिता का शौक पूरा हो गया हो तो घर ले आओ।''
''ललिता की इतनी याद सताने लगी?''
''मुझे लगता है जब से ललिता ने घर छोड़ा है, स्वदेश मुंह दिखाने लायक नहीं रह गये हैं।''
''ललिता के कारण मुंह दिखाने लायक बने हुये थे? फिर भी उसकी कदर न की।''
''जो हुआ, मैंने बता दिया। देख लो, कैसे क्या करना है।''

घर में सन्नाटा।
तीनों स्तब्ध।
दिल तोडऩे वाली बातों का असर नूतन के हाव-भाव में स्पष्ट था।
''ललिता, मैं और सिम्पल इतने मजबूर नहीं है कि जोर मार कर हमें कोई ले जा सकता है। तुम्हारी फिक्र हो रही है। यदि मनोजय तुम्हें ले गया, हम दोनों तुम्हें बहुत याद करेंगे।''
''मौका ही नहीं दूंगी। तुम्हारी छाती में मूंग दलूंगी।''
इस बार मनोजय बस से नहीं कार से आया। स्पष्ट था ललिता को ले जाने जैसी बाध्यता में आया है। चेहरा अब भी फक्क, दिद्दा के आयोजन में कितना रहा होगा। मुस्कुराता हुआ आता था, आज खामोश पद चाप से आया है। ललिता और मनोजय कुछ देर एक-दूसरे को देखते रहे।
- यदि मनोजय ने चलने का दबाव बनाया तो मुश्किल होगी।
- यदि मां चलना न चाहें तो दबाव बना कर ले जाना सही नहीं होगा।
नूतन समझ रही थी ललिता भावुक है। मनोजय दबाव में हैं। सिम्पल से बोली ''ललिता पता नहीं क्यों चेहरा लटकाये हुये हैं। सिम्पल, मनोजय को कुछ खिलाओ-पिलाओ।''
मनोजय ने माहौल बनाने की चेष्टा की ''हां, मामी। आपका आलू पराठा और दही खाने के लिये इतनी दूर से आया हूं।''
''वही बनाया है।''
''भूख से अधिक खाऊंगा।''
''सबकी थाली लगा लाती हूं।''
खाना खाते हुये मनोजय ने ललिता को गौर से देखा ''मां, किस फिक्र में डूबी हो?''
''दिद्दा ने बताया व्रत बंध में रंग में भंग हो गया था।''
''बता दिया? दिद्दा मौसी खुद को कन्ट्रोल नहीं कर पाती हैं।''
''मुझे लेने आये हो?''
''पापा ने बुलाया है।''
''नूतन को अकेले छोडऩा होता तो मैं घर न छोड़ती। अब तो सिम्पल के लिये भी सोचना पड़ता है बेटा।''
नूतन और सिम्पल ने हठात ललिता को देखा। जैसे चाहती थीं ललिता ऐसा कुछ कहे लेकिन सोचती थीं नहीं कहेगी। मोह में न आ जाये अत: नूतन ने प्रसंग बदल दिया ''मनोजय तुम्हें कुछ काम सौपनें हैं।''
''हां, मौसी।''
''हम लोग ट्रस्ट बनाना चाहते हैं। ट्रस्टी तुम्हें बनना है। हम तीनों के न रहने पर फ्लैट में निराश्रित वृद्धों को रखना है। हम तीनों का जो भी पैसा-गहना है उसके ब्याज से वृद्धाश्रम का खर्च चलेगा।''
''मौसी अचानक...
सिम्पल से स्पष्ट किया ''अखबार में छपी एक खबर पढ़ कर हम लोगों ने प्रारूप तैयार किया है।''
''ऐसी क्या खबर है मामी?''
''डरावनी खबर है। पड़ोसियों पर नजर रखें। हो सकता है कोई आतंकवादी, अपराधी, शातिर आपके पड़ोस में रहता हो और आप न जानते हों। आजकल अपराध के लिये महिलाओं का इस्तेमाल खूब हो रहा है। मनोजय हम तीनों अकेले रहते हैं इसलिए सोसायटी वाले हमारी हिस्ट्री जानने के लिये बेताब हैं। डर लगता है कोई परेशानी न आ जाये।''
''किसी ने कुछ कहा मामी? मैं बात करूं?''
नूतन ने ध्येय बताया 'किसी ने कुछ नहीं कहा। हम लोग कुछ सोच रहे हैं। हम तीनों एक-दूसरे का सहारा बन गये। बहुत से लोग हैं जिन्हें सहारा कहीं से नहीं मिलता। ऐसे लोग इस फ्लैट में रहें तो एक-दूसरे का सहारा बन जायेंगे।''
''मौसी आप लोग अचानक क्या सोचने लगीं?''
उत्तर ललिता ने दिया ''मनोजय, ललिता का दिमाग बड़ा सक्रिय है। आगे का सोचती है। अच्छा सोचती है।''
दिनों बाद नूतन के चेहरे में कुछ भाव उदित हुये। जैसे चर-अचर सभी को समान रूप से करूणा देना चाहती है-
''मनोजय हम नहीं जानते हम तीनों में कौन पहले राम को प्यारा होगा, कौन बाद में। बेटा, जो अंत में बचा रहे उसकी खैर-खबर लेते रहना। हो सके तो शव दाह गृह में हमारा अंतिम संस्कार करा देना। हम लावारिस न समझे जायें। फिर वहां वृद्धाश्रम शुरू करना।''
मनोजय विगलित होने लगा। अलग-अलग कारणों से अपने परिवारों को त्याग आई ये तीन स्त्रियां एक-दूसरे का मजबूत सम्बल हैं पर अब खुद को असुरक्षित पा रही हैं। सम्पत्ति और दाह संस्कार जैसी फिक्र सताने लगी है। बोला -
''मौसी मैं हूं न। मेरे लिए तो आप तीनों मिसाल बन गई हैं।''
ललिता के स्वर में कातरता ''बेटा, मिसाल बनने लायक होते तो परिवार में महत्व मिलता।''
मनोजय ने ललिता को कंधे से थाम लिया ''मां, यह तुम्हारी नहीं, उनकी कमी है जो महत्व न समझ सके।''
चलते समय मनोजय ने फिर पूछा ''चलोगी मां?''
''बगावत कर आई। पलायन नहीं करूंगी।''

ललिता को न देख स्वदेश को भड़कना ही था -
''तुम्हारी मां नहीं आई?''
''नहीं।''
''कहा नहीं अपाला को दिक्कत होती है?''
''अपाला घर में रहे, दिक्कत नहीं होगी। मेडिकल शॉप में उसका काम नहीं है।''
''ललिता ने आने से साफ मना किया?''
''और क्या करतीं? पापा कोई स्त्री यूं ही अपना घर नहीं छोड़ती। घर, घर न रह जाये तब छोड़ती है। मैंने मां के चेहरे में जो सुकून देखा है, पहले नहीं देखा। यहां लाकर मैं उनका सुकून नहीं छीन सकता।''
''मेरी जो चारों तरफ तौहीन हो रही है।''
''मां के कारण नहीं। आपके कारण। मां, बल्कि मामी, मौसी जिस साहस से रह रही हैं, मुझे मिसाल की तरह लगती हैं।''
स्वदेश को निर्वाक छोड़ मनोजय आंगन में आ गया। बेसिन का नल खोल मुंह धोने लगा।
ललिता के चेहरे का सुकून वह अपने भीतर उतरते पा रहा था।

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