गणेश गनी की चार कविताएं

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    जुलाई 2016
श्रेणी गणेश गनी की चार कविताएं
संस्करण जुलाई 2016
लेखक का नाम गणेश गनी





कविता/नये कवि



यह उत्सव मनाने का समय है

अचानक नहीं हुआ यह सब
कि किताबों में रखे फूल
चुपके से खिल रहे हैं बाहर गमलों में
तितलियां सब रंग समेटे
किताबों से निकल कर
फडफ़ड़ा रही हैं शाखों पर
एक बादल का टुकड़ा
पेड़ की छाया में बैठकर
प्यासे कौव्वे को सुनाना चाहता है
कथा पानी की।

अचानक नहीं हुआ यह सब
कि कुछ अक्षर फल बांट रहे हैं
तो कुछ औजार युद्ध के दिनों में...
'अ' बांट रहा है अनार
और 'क' सफेद कबूतर
'द' बांट रहे है दराहियां
और 'ह' हल और हथोड़े
बस केवल 'ब' के पास नहीं है
बांटने को गेहूं की बालियां
पर 'स' नया सूरज उगाने की फिराक में है।
अचानक नहीं हुआ यह सब
कि उसकी छड़ी फिसल गई हाथ से
और बाहर मैदान में
पेड़ बनकर लहलहा रही है
वह हैरान है कि
ये बच्चे बदल गए हैं अक्षरों में
या अक्षर बच्चों में?
उसकी जीभ तालु से चिपक गई
हथेली से खारापन फर्श पर टपक रहा है
बच्चों की हंसी वाली मीठी फुहार
कानों से पेट तक पहुंच रही है
हां यह सिद्ध हो गया अचानक
कि बालक और अक्षर जब
दाँत काटी रोटी जैसे लगें
तो समझो कि यह उत्सव मनाने का समय है।

यह समय नारों का नहीं हो सकता

इन दिनों एक आदमी
नींद में बड़बड़ा रहा है
एक आदमी
हल चलाते हुए घनघना रहा है
एक आदमी
यात्रा करते हुए बुदबुदा रहा है
एक आदमी
कुएं में दरिया भर रहा है
एक आदमी
चिंगारी को हवा दे रहा है
और एक आदमी
नदी के किनारे ओस चाट रहा है
एक लकड़ी अकेले ही जल रही है
धारों पर एक गडरिया
ज़ोर की हांक लगा रहा है
और भेड़ें हैं कि
कर रही अनसुना
जब जीभ का हिलना बेमानी हो गया
और लगने भी लगा कि
बोलने के लिए
जीभ का होना जरूरी नहीं है
तब एक आदमी ने
काट दी जीभ अपने ही दांतों से
इन दिनों कुछ मूक-बधिर बालक
सड़कों पर घूम रहे हैं
यह समय नारों का नहीं हो सकता।

बस एक प्यास है

ऐसी क्या बात है कि
अन्धकार उजाले को पीठ पर लादे
घूमता रहता है निरन्तर
जब दोनों तरफ अन्धकार हो
दरवाज़े के मायने ही खत्म हो जाते हैं तब
ऐसे समय में चाहता है मुक्ति
दहलीज़ पर खड़ा दरवाज़ा कब्ज़ों से
यहां हत्थियों को नहीं आते
दरवाजे को खोलने और बन्द करने के तरीके भी
बस घुटता रहता है वह
दीवार में बने चौखटे के बीच।

कुछ चीज़ें केवल होने के लिए होती हैं
उनका होना दीवार पर टंगी बन्दूक जैसा है
और जिन्हें बहुत ज़रूरी समझा जाता है
उनका न होना भी महत्वपूर्ण होता है कभी-कभी
जैसे गुफाओं के नहीं होते
दरवाज़े और रोशनदान
पेड़ों के पास नहीं हैं अपनी बावडिय़ां
और जड़ों के पास कहां होती हैं आंखें
बस एक प्यार है पानी तक पहुंचने की।


समय की पीठ

एक हवा का टुकड़ा
सारी विपरीत परिस्थितियों में भी
अपने अन्दर की नमी बचाने की खातिर
टकराने भिडऩे को तैयार
समय ने आगे बढ़कर
उसे पीठ पर बिठाया
उसे बचाने एक मौसम आया
एक सुर आया, एक साज़ आया
एक गीत आया, एक रस आया
उसकी नमी बचाने -
एक आंसू आया
एक गेहुंवा रंग आया -
उसे स्नेह का स्पर्श देने
एक पपीते जैसी मिठास आई
खिली सुबह जैसी मुस्कान आई
शाम की चाय आई।
इन दिनों
यह हवा का टुकड़ा
धीरे-धीरे बदल रहा है-
हरे पौधों में
रंग-बिरंगी तितलियों में
किताब के पन्नों में छिपी
रहस्यमयी कहानियों में।

ठहरा हुआ वक्त
अब पीठ सीधी कर
फिर चलने लगा है
हवा की नमी आंखों से बह रही है
समुद्र को नमक मिला
और समय को नमी
किसी का कर्ज़ उतर गया
और कोई ऋणी हो गया
हवा और समय का यह सोचना
सरासर गलत भी हो सकता है।

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