सात मराठी कवि

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    जुलाई 2016
श्रेणी सात मराठी कवि
संस्करण जुलाई 2016
लेखक का नाम अनुवाद : सरबजीत गर्चा





सलील वाघ/मंगेश नारायणराव काले/हेमंत दिवटे/मनोज सुरेन्द्र पाठक/
कविता महाजन/ अरुण काले/ ब्रजेश सोलंकी


सलील वाघ

सारा जमा-ख़र्च देखने के लिए
पुराने कैलेंडर लेकर बैठने पर
समझ में आता है कि कितना नाहक खुरचता है
निष्पत्र पेड़ों में सरकता जाता चांद
नदी में झिलमिलाते इमारतों के प्रतिबिंब
समंदर आकाश टीले बिजलियां सूरज तारे
गुड्डों जैसे दिखते लोग और बारिशों के मौसम
ये सब होते हैं बार-बार आने वाले
फिर भी क्षणों की चिमटी में पकडऩा नहीं आया
इसमें का सबकुछ हमें
उनके द्वारा एक-दूसरे को दी गई गालियों का ही
अध्ययन किया हमने ईमानदारी से
बेकार में जबड़े दुखाए सवालों की बड़बड़ में
और सरपट दौड़ गए सच्चे जवाब आए
तब दुबककर बैठ गए
कविता की टिकाऊ ओरी में
उदासीन

* * *
इस दिन
किसी न किसी बहाने
तुम आती हो
यह मुझे अब पक्का पता चल गया है
क्योंकि
प्रकाश का स्रोत
ज़मीन से जब
लगभग एक सौ अस्सी अंश का कोण बनाता है
तब
कोमलमुलायम मिट्टी पर
मामूली छोटे कंकड़ों की भी
परछाइयां पड़ती हैं
इस दिन
तुम बिना चूके आती हो
यह मैंने बिल्कुल जान लिया है
क्योंकि नया अस्फुट बौर
थोड़ा-थोड़ा कहीं एकदम प्रस्फुटित हो रहा होता है
और फिसलकर गिरने वाले पत्ते परस्पर
हवा में तैरते कहां से कहां चले जाते हैं
पेड़ों रास्तों ठिकानों
की देह से
एक बहुत उम्दा सुगंध आती है

* * *
दंतकथा वाले रास्ते हैं तुम्हारे
आंखें परिकथाओं वाली
लोककथा वाला अस्तित्व है तुम्हारा
    मेरे आर
    मेरे पार

लिपि है तुम्हारी अंग-अंग कविता तुम्हारी मातृभूमि
निरामय मितभाषी सहवास
आत्मसंकल्पना की छावनी

द्राविडी प्राणायाम

सशक्त
महानदी जैसी जांघें
मैं प्रवाह में उल्टा तैरते हुए
जा रहा हूं विरुद्ध सांप के समान
स्रोत की ओर

तुम्हारे पानी में खिंचाव है बहुत

मैं स्रोत में पहुंच रहा हूं
गंगोत्री

गुनगुने कुंड में पवित्र होता हूं

सारे प्रवेशद्वारों के पास
मैं कर रहा हूं भीड़ एकदम
चारों ही आठों ही गोपुरों से
मैं भीतर भागने की फ़िराक़ में हूं
एकाएक ही मचती है मेरे आसपास मेरी ख़ुद ही की भगदड़

कुंभ स्वस्तिक चक्र पुष्प पद्म
कूर्म वृक्ष और रत्न
सबको स्पर्श करते
शुरू की हुई
प्रदक्षिणा पूरी कर रहा हूं

अर्थविस्तार की लहरें
अर्थविस्तार की भाषा
अर्थविस्तार का धर्म
सांवली जांघों की झुरमुट में
बुझ गए मेरी बुद्धि के ठूंठ

क्लांत फेंक दिया गया हूं
रेत जैसी मिट्टी में
तलछट त्रिभुज प्रदेश में

गाढ़ी मलाई जमी है
लहकती सांसों पर

* * *
एरिक गिल सत्यजित रे
शमशेर और साल्वादोर दाली
पीछे छूट जाते हैं
क्वाड्रा एवी पावर पीसी
जब सामने
होता है
बिंदुमानी रेखामानी
भेद
बिसर जाते हैं
रिश्तों के चर्मवाद्य की गूंजें कानों की ओट में
ठंडी पड़ जाती हैं
जागृति के पहाड़ के पीछे
अस्त हो जाता है संदर्भ
हज़ारों रंगों के रण-कोलाहल में
फ़ोटोशॉप कलर स्टूडियो के
खांचों-पैतामों में
अतिवास्तव रिस जाता है
ब्लर हो जाती हैं प्रतिमाएं
ब्लर हो जाते हैं पिछले दस बरस
भाषा के जाल के नीचे
धधकती है पिछले
दस बरसों की चांदनी
परायापन उगाता है परस्पर पराया होता जा रहा मॉनसून
सुनहरे बालों वाली राजकन्या बेख़बर

अपनी मिट्टीमोल मराठी
भाषा की मिट्टी मैं उड़ाता हूं
नुक्कड़-नुक्कड़ पर गांव-देहात में
हटती जा रही मराठी बंजर
यथार्थ को मैं बिल्कुल संबोधित नहीं करता
किसी और चीज़ को ही उल्टा मैं यथार्थ नाम देता हूं
कविता में जगह-जगह मिटाए हुए शब्द
इच्छा लेकर मर जाते हैं उनकी अतृप्त आत्मा
बाद में आगे के शब्दों में आती है
तब से लेकर अब तक मैं एक ही कविता लिख रहा हूं
अपनी भाषा का शायद मैं कवि हूं आख़री

* * *

मंगेश नारायणराव काले

यह आकार है

यह सन्नाटा है अब साथ
और हमने तो कुछ भी नहीं लिया था
सच कहें तो लेने के लिए थी ही नहीं जेब
दर्ज़ी ने सिली

सिर्फ आकार था पतलून में जेब का
और जेब के आकार में सिला
एक नोट का आकार
हमारे साथ आया हुआ
जो ख़र्च नहीं किया जाने वाला था कभी
ऐसा शाश्वत नोट है हमारे पास
जेब के आकार में सिला हुआ
सच कहें तो थी ही नहीं जेब पतलून में

सिर्फ आकार ही तो सिला है
दर्ज़ी ने पतलून में
और बस जेब के आकार में
एक नोट का आकार है जड़ा

नोट के आकार में एक क़ीमत
न ली जा सकने वाली चीज़ों की
सि$र्फ एक आकार है क़ीमत का
नोट के आकार में छिपा

उदाहरण के लिए : एक नई कोरी साइकिल
होती है नोट के आकार में खड़ी
जो हमने कभी नहीं ली होती है
और चलाई भी नहीं होती है कभी

सिर्फ साइकिल चलाने का आकार
हू-ब-हू छिपा होता है नोट में
और उस आकार में खड़ी होती है मुट्ठी भर ख़ुशी
जो कभी नहीं मिली होती है हमें

मुट्ठी भर ख़ुशी के आकार में
डूबे होते हैं हमारे पच्चीस-छब्बीस साल
जो सच कहें तो फिसल चुके होते हैं
हमारे हाथों से अनजाने ही

पच्चीस-छब्बीस साल का यह सिर्फ आकार है
और हम अभी हैं वहीं खड़े
उम्र के अर्धव्यास पर
जहां हम कभी पहुंचे ही नहीं होते हैं

सच कहें तो सिर्फ आकार है यह हमारा
जो जा रहा है हमारे सामने ढुलकता...

2
सिर्फ सन्नाटा है साथ
और हाथ हैं और पैर

एक जोड़ी हाथों को
एक जोड़ी पैरों ने अगर चलाया तो
गांव पार कर सकता है आदमी

हमने तो साथ लिया ही नहीं था गांव
सिर्फ आकार था गांव का हाथ में
जो तोड़ दिया पैरों ने
दूसरा गांव आते-आते

3
एक गांव
अगर दूसरे गांव के आकार को निभा दे
तो बचता ही कहां है गांव आख़िर?

यानी दो गांव हो सकते हैं एक ही नाम के
या हो सकते हैं हू-ब-हू एक-दूसरे के जैसे
दोनों की परछाईं भी हो सकती है एक सी
फिर भी होता ही है अलग कुछ न कुछ दोनों गांवों में

यानी इस गांव का जामा
उस गांव को नहीं पहनाया जा सकता
4
मतलब घर तो
पीछे ही छोड़ आए होते हैं हम
और साथ होती है सिर्फ
तलाश एक नए घर की

घर छोटा होता है या बड़ा
छप्परों का टीन का खपरैलों का बीमों का कंक्रीट का
घर के पैर जनम के समय ही कर दिए जाते हैं कलम
इसलिए वह रहता है वहीं

कितने घर मिले पैरों को
पैरों को लगी कितनी घरघर
और घर को हमेशा दोनों हाथ जोड़कर भी
हमें मिला ही कहां है अपने घर का आकार

घर छोड़ते समय भी रोए कहां थे हम फूट-फूटकर?
और प्रथम प्रस्थान में भी कहां था फंसा पैर घर में?
पैर पुरज़ोर रेंगे होंगे  ज़्यादा से  ज़्यादा दो-चार साल
पर जाने की जल्दी में रहे हाथ

दो हाथों को या दो पैरों को
चाहिए ही होता है एक घर सच कहें तो
जो छूट जाता है बार-बार हाथ से
और आता ही नहीं है हमारे हाथ मरते दम तक

हेमंत दिवटे

तितलियां

कॉम्प्लेक्स के गार्डन में घूमते हुए
मैंने यों ही मित्र से कहा
अरे, गहरे पीले रंग की
छोटी तितलियां
नज़र ही नहीं आतीं आजकल
तो वो सहजता से बोला
वह ब्रैंड अब बंद हो चुका है


आज 1 जुलाई है 10 बज रहे हैं
आज एक जुलाई है
एक जुलाई को मुझे बच्चा होने वाला है
पत्नी को पंडित जी ने बताए हैं तीन मुहूर्त
डॉक्टर को सुबह का फ्रेश मुहूर्त अच्छा लगा
सुविधाजनक लगा सभी को

दस बजे नहीं होता
स्टेशन रोड पर ट्रैफ़िक जाम
दस बजे होता है हर अस्पताल में
किसी न किसी के बच्चे का जन्म

दस बजने से पहले
मेरे मन में दस लाख विचारों का
हो रहा है जन्म और मरण
विचार अमीबा की तरह जन्म ले रहे हैं
अमीबा की तरह मर रहे हैं
मेरे विचारों का ड्रेनेज सिस्टम
हो चुका है जाम

होने वाले बच्चे की सोनोग्राफ़ी में
गर्दन को बल डालती हुई नाड़ी
कस रही है फंदा मेरे गले पर
मेरा दम घुट रहा है
एक सीज़ेरियन ब्लेड मुझे चीर-चीर चीर रहा है
ख़ून की एक पिचकारी
फूट पड़ी है मेरे मन में
ब्लेड मेरे मन में सरक रहा है
आड़े-तिरछे
एक खंजर खच् खच् फाड़ रहा है मेरा गला
आरपार
कोई म्यूज़िक किसी पुराने टेप रिकॉर्डर के
उजड़े हुए हेड को घिसकर
रगड़कर
खिसक रहा है मेरे मस्तिष्क में
रिस रहा है
सत्रह सौ साठ सुइयों से छिदे हुए रंध्रों से

बच्चा होने वाला है
जीवित या फिर शायद मृत
मन की हत्या करके
बच्चा होने वाला है या
होने वाला है मन की हत्या से छूटकर

बम विस्फोट हो रहे हैं सीरियली
मेरे सर में
मुझे रौंद-रौंदकर मार रही है भीड़
मैं पागलों की तरह कफ़्र्यू लगे रास्ते पर
दौड़ रहा हूं
मेरे पीछे लगा हुआ है हथियारबंद जमघट
दंगा शुरू होने वाला है
मुझसे
मुझसे शुरू होने वाली है
फांसी की शुरुआत
मुझसे शुरू होने वाला है युद्ध
ये एंबुलेन्स, फायर ब्रिगेड की गाडिय़ां
सफ़ेदपोश स्ट्रेचर वाले
सफ़ेद कपड़ों वाली थुलथुल नर्सें
सायरन बज रहे हैं भयावह
गोलियों, विस्फोटों की आवाज़ें
बरस रही है प्रेतों की धज्जियां
मेरे ही प्रेतों के परखचे
लाखों बीवियां छाती पीट-पीटकर
रो रही हैं
जड़ रही हैं ख़ुद को ही थप्पड़
सब मेरी ही पत्नी की हमशक़्ल हैं

एक विराट आईना गिर पड़ा है
टूटकर एक विशाल मैदान में
हर आईने में लहूलुहान
मेरी एक आंख तड़प रही है
सारी दुनिया में मेरी अनाथ आंखें
कर रही हैं इंतज़ार दस बजने का
दस बजे मैं कौन होऊंगा?
बच्चे का बाप? या फिर
मरे हुए मन का?
मेरे मन में दस बज रहे हैं
और दुनिया मेरी ओर मुंह किए खड़ी है
ठसाठस इकट्ठा होकर

देख रही है दुनिया मेरे चेहरे पर कैमरे ताने
लाइव टेलीकास्ट ऑफ़ बिकमिंग अ फादर
लाइव टेलीकास्ट ऑफ़ बिकमिंग मैड

दस बज रहे हैं
क्या दस बज रहे हैं?
क्यों बज रहे हैं?
दस बज रहे हैं
बज रहे हैं दस
बज रहे दस हैं दस रहे हैं बज रहे हैं बज दस

कहां बज रहे हैं?
या मैं दस बजने की कल्पना कर रहा हूं?
कल्पना कर रहा हूं या
जिस-तिस की घड़ी में, मोबाइल में
कंप्यूटर में, एफ.एम. पर, टीवी पर
स्टेशन पर, बस में, ऑफिस में, मरघट में, कार में
बार में, गली-कूचे में, सारी की सारी मुंबई में
दस बज रहे हैं

आओ दस बजे करें हम सेलिब्रेट
चलो दस बजे हो जाएं हम स्किट्ज़ोफ़्रीनिक
चलो दस बजे हो जाएं हम एक के दस या
दस के एक

किस भाषा में दस कैसे बजते हैं?
अलग-अलग भाषाओं में एक ही दस बजें
अलग-अलग रंगों में एक ही दस बजें
एक बार दस बज जाएं किसी भी तरह

कम से कम आज तो बज ही जाएं

मनोज सुरेंद्र पाठक

ईश्वर एक ऐसी चीज़ है उस्ताद

ईश्वर एक ऐसी चीज़ है उस्ताद
जो पहरेदार है तुम्हारे सद्विवेक के ख़ज़ाने का
या अभय का अड्डा
तुम्हारे किए-अनकिए पापों का
वह बिजूका है
तुम्हारी झुलसी हुई फसलों के
खेत में खड़ा
या पार्टनर
गोरखधंधे का

ईश्वर एक आसान उत्तर है
जब तुम थक जाते हो
या एक जम्हाई
तुम्हारे आलस्य की

वैसे वह एक अटल मोहर है
तुम्हारे ललाट पर मारी हुई
या एक कठपुतली
तुम नचाओगे वैसे नाचने वाली
या नाचोगे वैसे नचाने वाली

टुकड़े जोड़ते समय आ जाए मृत्यु
संदर्भ खो जाते हैं
हम असहाय हो जाते हैं
इतना कि कविता के पन्ने तक फाड़ देते हैं
मन की सपाट दीवार पर
छिपकली की तरह रेंगते रहते हैं विचार

जबसे गूढ़ कविताएं पढ़ी हैं
चूहे और कौए का
एक नया ही डर
मन की बस्ती में बस गया है
घर में और बाहर
शत्रुओं की संख्या एक-सी है
यह अभी पता चला
फिर भी कोई बिजली चमके
और दिखाई दें कुछ बिखरी पड़ी
आशावादी कविताएं
तमाम ज़िंदगी को रखा जाए
गिरवी इन कविताओं के लिए
और फाड़ी हुई कविताओं के
टुकड़े जोड़ते समय आ जाए मृत्यु

कविता महाजन

दोपहर

मैं उठाकर देखती हूं रिसीवर
एक बार फिर यह सुनिश्चित करने के लिए
कि फ़ोन चालू है...
पंखा घूम रहा है मतलब बिजली खेल रही है
वायर्स के भीतर, फिर भी एक मरतबा
मैं घंटी बजाकर देखती हूं...
निहारकर आती हूं लैटरबॉक्स,
बहुत-सी चिट्ठियां समा जाएंगी छोटी-बड़ी उसमें
एकाध पत्रिका भी....

खिड़की खोलकर बाहर देखते हुए लगता है
इतना भी नहीं चिलचिला रही है धूप
कि कोई भी न फटक पाए...
दूर से आवाज़ें आ रही हैं, सारी
लोकल ट्रेनें चल रही हैं, ऑटोरिक्शा
कर रहे हैं आवाजाही
किसी भी तरह का बंद वगैरह नहीं होगा
या कहीं दंगा-फ़साद भी नहीं...

मैं काट रही हूं चक्कर
बैठक से रसोई में
रसोई से बैडरूम में
बैडरूम से फिर बैठक में...

उठाकर देखती हूं रिसीवर...

जगह
जिसमें मृत्यु की भी इच्छा न बची हो
उस इंसान की तरह
कोरा कड़क कैनवस;
उस पर आकाश का एक रंगीन
अमूर्त निराकार टुकड़ा चिपकाना था...

आकाश की अभिलाषा मन में संजोते समय
ध्यान ही नहीं आया कि
हमें आकाश के साथ
अपनाने जितनी जगह
किसी भी घर में नहीं होती

अनुवाद
दूसरी भाषा में अनूदित की गई
अपनी कविता सुनते हुए
कुछ ऐसा लगता है :

पराये घर में किसी अनजान औरत को
मां कहकर पुकारते हुए
बोल रही है मेरी बिटिया कुछ-कुछ...
...ज़ोरों की भूख लगी है, जल्दी परोसो.
...कैसी लग रही हूं मैं यह फ्रॉक पहने हुए?
...बताओ न, चांदनी को आकाश किसने दिया?
...देखो, मैं चल सकती हूं तुम्हारी जूती पहनकर!

और मैं चुपचाप, मेहमान की तरह
देख रही हूं केवल प्रशंसा से, कुर्सी पर बैठे हुए;
क्योंकि जवाबों की जवाबदेही मेरी नहीं होती है...

अरुण काले

खेद
दोस्त! कीचड़-मिट्टी में खेलते-खेलते
हमने 'जय भीम' के नारे लगाना सीखा
ख़ूब आंच लेकर ही हम
रास्ते पर आए नंगे पांव
हमारे तलवे हो गए बड़े
वैसे ही एडिय़ों की दरारें भी

तुमने ख़ुद को झोंक दिया
पर मैं कामचोर ही बना रहा
रात में मैं पैरों पर तेल चुपड़ता रहा
तुम हवा की तरह घूमते ही रहे
ऐन उम्मीद के दिन तुमने कुरबान कर दिए
मैं फिर भी तुम्हारे हाथों में धरा झंडा लेने
आगे नहीं आया।

दोस्त! दुनिया की नज़रों में तुम बर्बाद हो गए
लेकिन मैं वैसा नहीं समझ सकता
तुम भी वैसा नहीं समझते
दोस्त! सच में आबाद तो तुम ही हो
बस्ती-बस्ती में तुम्हें मिलते 'जय भीम'
ही तुम्हारी मिलकियत हैं
दोस्त! तुम ऊंचाई में बढ़े मुक्त
मैं सिर्फ उम्र में बढ़ा गरारी में
तुमने कभी फ़िक्र ही नहीं की जमाख़र्च की
दोस्त! आज भी तुम रास्ते में खड़े हो
झंडा हाथ में लिए
इसलिए मैं शीतल हवा में बैठकर
कविता लिख रहा हूं
दोस्त, वैसे तुम दिलदार हो
लेकिन मेरी हिम्मत टालती है
तुम्हारे सामने आना
मैं यह भी समझता हूं कि मेरी
सहानुभूति की तुम चीरफाड़ करोगे
मैं पूरी तरह निरुपाय हूं
जैसे-जैसे मैं बहुत निस्तेज दिखने लगा हूं
वैसे-वैसे तुम रास्ते में, धूप में चमक रहे हो
दोस्त! तुम्हारे कारण निर्विघ्न छांव भोगने वाले
कृतघ्नता में तुम्हें बुरा-भला कहते हैं
मैं वैसी विदाई नहीं कर सकता
कोई कितनी भी टांगें ऊपर करे
मैं तो तुम्हें किसी भी दर्शन शास्त्र से
कम नहीं मानता, बस!

गुरु
तमसमयी भारी हो चुके हाथों को
सवेरे उसने धार प्रदान की
धार पर अंगूठा फेरते हुए
एकलव्य की याद आई
अब गुरुदक्षिणा का सवाल ही नहीं उठता
गुरु ख़ुद ही बाप है
शत्रु को भी उसने उघाड़ दिया
और दिखा दिया कि
सांप के साथ ही केंचुल है।

तुम कहते ही हो तो!
तुम कहते ही हो कि रोना है
हमारे लिए!
तो हम भी कहते हैं
एक बार तुम्हारी आंखें जांच ही लें
तुम कहते ही हो कि झडऩा है
हमारे लिए!
तो हम भी कहते हैं
एक बार तुम्हारे संबंध जान ही लें
तुम कहते ही हो कि लडऩा है
हमारे लिए!
तो हम भी कहते हैं
एक बार तुम्हारे दिमाग़ की धार
और हाथों के वार तौल ही लें
तुम कहते ही हो कि उडऩा है
हमारे लिए!
तो हम भी कहते हैं
एक बार तुम्हारे पंख देख ही लें!

स्कूल से लौटते हुए
धानाकुल खेल का गीत
पहली बार ही कानों से सुना
खेल के बारे में पता नहीं था
शब्द भी नया ही था
दोपहर भर खोखले हो चुके पेट से
भात सिर्फ पकड़ा हुआ था
चावल के दानों को धोती हुई
मां दिख रही थी
दो चूडिय़ों की
खनखन सुनाई दे रही थी
चूल्हे ने जान दबोच ली थी
धुंआ सारा सरक चुका था
डबडब गुडग़ुड़ आवाज़ आ रही थी
मन से भी आगे पेट दौड़ रहा था
स्कूल से लौटते हुए...

वर्जेश सोलंकी

स्टूल
लकड़ी के जिस स्टूल पर बैठकर आज तक कविता लिखते आया
उसी के आज पाये निकल गए।

बाबा ने कहा : तेरे जनम के बाद ही ख़रीदा था
इसका मतलब स्टूल और मैं समकालीन।

स्टूल फिर बढ़ई से रिपेयर करवा लिया जाए या
तोड़कर चूल्हे में डाल दिया जाए या
हाल ही में बाज़ार में आया नया फ़र्नीचर ख़रीद लिया जाए
इस तरह के फ़ालतू विचारों में ही कुछ दिन निकल गए
आजकल कविता में भी पहले जैसा धार नहीं आती
लिखना-पढऩा टाला जाए
घर के खिड़की-दरवाज़े बंद करके
अंधेरे के आलम में सुस्त होकर पड़ा रहा जाए
ऐसा भी कितने ही दिनों तक लगता रहा
स्टूल खड़ा नहीं रह सकता था
पायों के आधार के बिना
मैं भी
जी नहीं सकता था
शब्दों के बिना... इंसानों के बिना...
यह समझ में आते ही
हथौड़ी और कीलें लेकर
मुझसे जैसे बन पड़े वैसे
उखड़ा हुआ एक-एक पाया जोडऩे लगा हूं।

चूहा
चूहा मरा पड़ा है
घर में।

मैं-मां-बाबा-काका-बहन
नाक-मुंह पर रूमाल कसकर
युद्ध स्तर पर ढूंढ़ रहे हैं
चूहा कहां मरा पड़ा है
अटारी पर, अलमारी में, फ़र्नीचर के नीचे,
कोने में, कचरे की टोकरी में,
घर का चप्पा-चप्पा छान मारा फिर भी
फ़लाना एक जगह उसकी छोड़ी लेंडिय़ों के सिवा
हाथ नहीं लगा है
उसका कलेवर
हमारे सर चढ़कर भनभना रहा है
दुर्गंध का हिंस्र जमाव

इतने दिन
मेरा चमड़े का नया बटुआ, मां की साड़ी,
बहन के मेहनत से बनाए हुए नोट्स
बाबा का नींद में पैर
कुतरने वाले चूहे का
बाज़ार से ज़हर की गोलियां लाकर
सभी ने उसे मारकर ले लिया था प्रतिशोध

मैं-मां-बाबा-काका-बहन
शायद हम सभी के ख़ून में भी बहती गई होगी
चूहे की तरह
एक-दूसरे को नाहक कुतरने की पाशविक शक्ति
लड्डू में मिलाई ज़हर की गोलियों के जैसे
हम भी जी रहे होंगे
रिश्ते-नातों के नाज़ुक स्वांग
एक-दूसरे के आगे सिद्धहस्तता से फुदकते

घर में
चूहा मरा पड़ा है।

महादेवन
महादेवन
ऑफ़िस की दो मंजिलें चढ़कर आता
तो भी हांफने लगता
बॉस के सामने थर्राता
और हमारे बीच मंडराते हुए
बिगड़ता रहता
टेबल पर पेपरवेट की तरह

महादेवन
दुनिया इधर की उधर हो जाए
साढ़े नौ बजे मौजूद हो जाता
ऑफ़िस के काम में टेंशन क्रिएट होने पर
निकाल लेता जेब में रखा अय्यप्पा

महादेवन
तीस का है कहा जाने पर भी
देखने वाले को वह बात झूठ लगती
इतना वह उम्र में आगे सरक चुका था।
अंदर धंसे हुए गाल
पीछे से पड़ता आने वाला गंज
कमीज़ उतारने पर
लग जाता हड्डियों का हिसाब
यह था हाल
चेहरा
दस जगह जैसे पैबंद लगे हों।

महादेवन
सांताक्रूज की किसी परचून चाल में
मासी के यहां महीना दो हज़ार देकर रहता था
मां मर चुकी थी। बाप शराबख़ोर।
ज़रा भी पैदावार न देने वाली पड़ी हुई ज़मीन
पीछे दो बहनें ब्याहने वालीं
ऐसा था टेरिफ़िक फ़ैमिली बैकग्राउंड
पिस्सू जैसा

महादेवन
मैटिनी पर लगी गरम फ़िल्मों के बारे में बतियाता
कभी नहीं मिला या
ताव में आज की गांडू राजनीति की समीक्षा करता
वह कभी नहीं दिखा या
पैदल चलकर ऑटोरिक्शा का वाउचर पास करने के
फंदे में कभी नहीं पड़ा
इतना वह सोबर था।
पान बीड़ी तंबाकू सिगरेट दारू लड़की
इत्यादि व्यसनों से चार हाथ दूर रहने वाला महादेवन
नींद में ही चला गया यह पता चलते ही
धम्म से मेरे सामने आ गईं
सफ़ेद-चिट्टी इडली जैसी उसकी आंखें
खुन्नस-रहित

इसके आगे का महादेवन देखना
मुझे पक्के तौर पर भारी पडऩे वाला था।

सलील वाघ के मराठी में अब तक सात कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें से प्रमुख हैं निवडक कविता (चुनी हुई कविताएं) और सध्याच्ता कविता (हाल ही की कविताएं)। उन्होंने शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं का मराठी में पुस्तकाकार अनुवाद किया है और एक गद्य पुस्तक भी लिखी है। उनका पहला संग्रह 1996 में छपा, और उसने समकालीन मराठी कविता पर गहरा प्रभाव छोड़ा। सलील पुणे में रहते हैं और डिज़ाइन तथा विज्ञापन के क्षेत्र से जुड़े स्वतंत्र सलाहकार हैं।
                                                        * * *
मंगेश नारायणराव काले कवि होने के साथ-साथ चर्चित चित्रकार, अनुवादक,आलोचक और संपादक भी हैं। अपने लेखन के शुरुआती दौर में वे सुप्रसिद्ध मराठी अनियतकालीन लघुपत्रिका शब्दवेध से जुड़े रहे, लेकिन आगे चलकर स्वतंत्र रूप से लघुपत्रिका खेल निकालने लगे, जिसके पचास अंक जल्द ही पूरे होने वाले हैं। उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें से शक्तीपाताचे सूत्र (शक्तिपात के सूत्र) के लिए उन्हें 2007 में यशवंतराव चव्हाण खरड़ पुरस्कार और तृतीय पुरुषाचे आगमन (तृतीय पुरुष का आगमन) के लिए 2011 में महाराष्ट्र फाउंडेशन पुरस्कार मिला।
                                                        * * *
हेमंत दिवटे के मराठी में तीन कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें सबसे नया है ह्या रूममध्ये आले की लाइफ सुरू होते (इस कमरे में आते ही लाइफ़ शुरू होते है)। उनकी कविताओं का बहुत-सी भारतीय तथा अंतरराष्ट्रीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। वे पंद्रह साल तक छपने व प्रसार में रहने वाली चर्चित मराठी लघुपत्रिका अभिदनंतर के संस्थापक तथा संपादक थे और भारतीय भाषा परिषद पुरस्कार एवं महाराष्ट्र फाउंडेशन पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं।
                                                        * * *
मनोज सुरेंद्र पाठक को अपने पहले मराठी कविता संग्रह, अधिसत्ता, के लिे 2008 में कवि वसंत सावरकर पुरस्कार प्राप्त हुआहै। वे 1986 से 2003 तक, शेगाव (महाराष्ट्र) से निकलने वाली बहु-चर्चित लघुपत्रिक शब्दवेध के संपादकीय मंडल में कार्यरत रहे और संप्रति बुलढाणा से छपने वाले लघुपत्रिक ऐवजी के संपादक मंडल में हैं। उनका मार्कोस के प्रसिद्ध उपन्यास गुंटेर की सर्दियां का मराठी अनुवाद 2015 में प्रकाशित हुआ, जो प्रभाती नौटियाल के हिंदी अनुवाद पर आधारित है।
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कविता महाजन के मराठी में चार कविता संग्रह, चार उपन्यास, एक निबंध पुस्तक और एक बालोपयोगी कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनक उर्दू और हिंदी से मराठी में किए गए अनुवाद छह पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हैं। उन्हें अब तक पच्चीस से  ज़्यादा पुरस्कार प्राप्त हुए हैं, जिनमें साहित्य अकादमी पुरस्कार, बहिनाबई चौधरी पुरस्कार, अनंत काणेकर पुरस्कार और यशवंतराव चव्हाण पुरस्कार प्रमुख हैं। कविता का उपन्यास कुहू भारत का प्रथम मल्टीमीडिया उपन्यास है, जो मराठी और अंग्रेज़ी में एक साथ उपलब्ध है।
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अरुण काले 1990 के बाद की मराठी दलित कविता में एक प्रमुख हस्ताक्षर हैं। नामदेव ढसाल के बाद वे एक मात्र कवि थे जो मराठी दलित कविता में आमूल-चूल परिवर्तन लाए। चार संग्रहों में संकलित अपनी कविताओं द्वारा उन्होंने भूमंडलीकरण के बाद बदले हुए सामाजिक परिदृश्य का यथार्थ चित्रण किया। उनके कविता संग्रह सायरानाचे शहर (सायरन का शहर) का हिंदी अनुवाद ओमप्रकाश वाल्मीकि ने किया। उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। अरुण नासिक के निवासी थे और 2007 में मात्र 55 साल की उम्र में चल बसे।
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वर्जेश सोलंकी के दो कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिनके लिए उन्हें कुसुमाग्रज प्रतिष्ठान का विशाखा पुरस्कार तथा वसंत सावरकर पुरस्कार जैसे महत्वपूर्ण सम्मान प्राप्त हुए हैं। हाल ही में छपी उनकी आत्मकथात्मक पुरस्क दीड दमडीना (डेढ़ दमड़ीया) बहुत चर्चित है। वर्जेश मुंबई में रहते हैं, जहां उनका स्वतंत्र व्यवसाय है।

सरबजीत गरचा के तीन कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें दो अंग्रेज़ी में और एक हिंदी में है। उनकी रचनाएं विभिन्न अंग्रेज़ी प्रिंट एवं ऑनलाइन पत्रिकाओं में छपी हैं। अमेरिका में प्रकाशित किए गए प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी व्याकरण संदर्भ ग्रंथ गारनर्स मॉडर्न अमेरिकन यूसेज (ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, 2009) के तीसरे संस्करण के आलोचकीय पाठक मंडल में उन्हें सम्मिलित किया गया। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय की ओर से उन्हें 2013-14 की कनिष्ठ फ़ैलोशिप प्राप्त हुई, जिसके तहत उन्होंने 1990 के बाद की मराठी एवं हिंदी कविता का तुलनात्मक अध्ययन किया। सरबजीत वैज्ञानिक, तकनीकी और चिकित्सकीय पुस्तकों के एक अंतरराष्ट्रीय प्रकाशक के संपादकीय विभाग के प्रमुख संपादक हैं और कॉपर कॉइन पब्लिशिंग (www.coppercoin.co.in) नामक बहुभाषी प्रकाशन कंपनी के सह-संस्थापक एवं निदेशक हैं।

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