बाज़ार के अंतिम अरण्य में

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    जुलाई 2016
श्रेणी आलेख
संस्करण जुलाई 2016
लेखक का नाम अच्युतानंद मिश्र





आलेख



क्या बीसवीं सदी में किसी केंद्रीय विचारधारा की तलाश संभव है? हिंसा क्रूरता और चरम मानवीयता के विरोधी युग्मों से गुजरती हुयी सदी वर्तमान में हमारी स्मृति में क्या जोड़ती है। युद्ध और विकास के दो पहियों पर घूमती दुनिया इक्कीसवीं सदी में कहाँ पहुँचती है? इस तरह के प्रश्न पिछले तीस सालों से अलग अलग खेमों से लगातार पूछे गए। इन सवालों का कोई वस्तुनिष्ठ उत्तर न तो तब संभव था और न अब। लेकिन क्या ये सवाल जायज़ थे? इनके पीछे महज़ एक जिज्ञासा भर थी या गुजरी हुयी सदी को नकारने की कोशिश भी थी।
बीसवीं सदी केन्द्रीयता के निर्माण और विलोप की सदी थी। आस्था और चरम हताशा की सदी थी। मनुष्यता के चरम वैभव और उसके निर्मूल हो जाने की आशंकाओं से गुजरती हुई सदी थी। इसलिए बीसवीं सदी को किसी एक अवधारणा विचारधारा या राजनीति के दायरे में जब भी देखने की कोशिशें हुयी तो अक्सर ही कुछ न कुछ छूट गया और जो छूटा उसके संघर्ष ने हर बार नई अवधारणाओं को जन्म दिया। इस सबके बावजूद यह जरुर स्वीकार किया जाना चाहिए कि बीसवीं सदी के केंद्र में आलोचनात्मक विवेक सदैव मौजूद रहा। यही वजह है कि वर्चस्व की तमाम कोशिशों के बावजूद वैचारिक विकास कभी अवरुद्ध नहीं हुआ। लुकाच ने जहां राजनीति और संस्कृति की समान जमीन तलाशने की कोशिश की वहीं वाल्टर बेंजामिन, एडोर्नों और होर्खिमायर ने पूंजीवादी वर्चस्व की संस्कृति के फलने फूलने और उसके आमजन की संवेदना में रुपांतरित होने के खतरों की तरफ हमारा ध्यान आकृष्ट किया।
द्वितीय विश्व युद्ध तक पूंजीवाद के तमाम खतरे प्रकट रूप से मूलाधार के खतरे ही प्रतीत होते हैं या कम से कम पूंजीवाद से संघर्ष कर रही दुनिया के बड़े दायरे में पूंजीवाद के असल संकट को मूलाधार के परिवर्तन की चुनौती के रूप में ही स्वीकार किया गया। ऐसा इसलिए भी था क्योंकि बहुत सारे चिन्तक पूंजीवाद के विकास को एक रैखिकीय मान रहे थे। वे पूंजीवादी विकास को इतिहास की सरल रेखा के रूप में देख रहें थे और उसके खिलाफ उन्नीसवीं सदी के संघर्ष को बीसवीं सदी का यथार्थ बता रहे थे। सरल शब्दों में कहें तो बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों में हम जिसे मार्क्सवादी यथार्थबोध समझ रहे थे वह वास्तव में उन्नीसवीं सदी का यथार्थ बोध ही था, जो हकीकत में उस दौर तक एक अतीत मोह में बदल गया था।
द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत तक आते-आते दुनिया में सब कुछ मूर्त नहीं रह गया था और न ही उसकी व्याख्या ही मूर्त रह गयी थी। इस अमूर्त होती दुनिया को लेकर पहली बार फ्रैंकफर्ट स्कूल के चिंतकों ने ध्यान खींचा। पहली बार उन्हें फासीवाद के आसान्न संकट को व्याख्यायित करने के लिए राजनीतिक यथार्थ बोध की शब्दावली अपर्याप्त लगी। यह महसूस किया गया कि यथार्थ के निर्माण में एवं उसे व्याख्यायित करने में राजनीति, अर्थव्यवस्था के साथ-साथ मनोविज्ञान और साहित्य की भूमिका भी निर्णायक हो चली है। फ्रैंकफर्ट स्कूल के चिंतकों ने और खासकर दूसरे दौर के चिंतकों ने जिनमें हेबरमास और मारकूज शामिल थे का मानना था कि दुनिया की किसी अवधारणा की व्याख्या अब शास्त्रीय ढंग से नहीं की जा सकती। हर व्याख्या एक अंतर-अनुशासनीय पद्धति की मांग करती है, इसलिए यह जरुरी हो चला है कि देखने और समझने के पुराने तरीकों पर सवाल उठाया जाये।
इस दिशा में फ्रेंच समाजशास्त्री बौद्रिया बीसवीं सदी के उत्तरार्ध की ओर सामाजिक रूपाकारों में हुए परिवर्तन की एक विवादास्पद मगर दिलचस्प व्याख्या हमारे समक्ष रखते हैं। वे यथार्थ से अति यथार्थ तक, वर्ग से एक आक्रामक भीड़ तक, इतिहास से तत्काल तक और समाज से छवियों तक के रूपांतरण की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। बीसवीं सदी के तमाम चिंतकों की अपेक्षा बौद्रिया का महत्व इस बात में है कि वे आरम्भ मार्क्सवाद की आलोचना से नहीं करते बल्कि इस बात से करते हैं कि बीसवीं सदी में मार्क्सवाद का अर्थ क्या रह गया है। हर्बर्ट मार्कुज की तरह ही वे भी नव-मार्क्सवाद से आरम्भ करते हैं। बौद्रिया मार्क्सवाद को नकारने की बजाय इस प्रश्न का समाजशास्त्रीय उत्तर तलाशने की कोशिश करते हैं कि बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में मार्क्सवाद का अभिप्राय क्या रह गया है? शास्त्रीय मार्क्सवाद से मुठभेड़ को वे मार्क्सवाद के विरोध में नहीं देख रहे थे बल्कि वे उसे मार्क्सवाद की सतत आलोचनात्मक प्रवृत्ति का ही हिस्सा मान रहे थे।
बौद्रिया का जन्म 1929 में फ्रांस में हुआ। उनके दादा किसान थे और इसलिए घर पर पढऩे लिखने का कोई माहौल नहीं था। बौद्रिया के अनुसार वे अपने परिवार के पहले शख्स थे जो पढऩे लिखने की तरफ आये और ऐसा करने के लिए उन्हें अपने परिवार से खुद को अलगाना पड़ा। बौद्रिया विश्वविद्यालय की अकादमिक दुनिया का हिस्सा कभी नहीं हो सके। यही वजह है कि उनकी चिंतन पद्धति में शास्त्रीय आलोचना का जबरदस्त विरोध है। बौद्रिया के चिंतन में हर अवधारणा को नकारने की प्रवृत्ति देखी जा सकती है। बौद्रिया इसे चिंतन की क्रांतिकारिता के रूप में चिन्हित करते हैं। बावजूद इसके यह कहना गलत न होगा कि तमाम उत्तराधुनिक चिन्तक कहे जाने का अक्सर विरोध किया। आधुनिक से उत्तराधुनिकता के संक्रमण की वे समाजशास्त्रीय व्याख्या करते हैं। वे उन सामाजिक स्थितियों की पड़ताल करते हैं, जिसके अनुसार आधुनिकता का पटाक्षेप हो चुका है।
बौद्रिया इतिहास की चेतना से जुडऩे की परिपाटी को तोड़ते हुए नितांत वर्तमान से जुडऩे की कोशिश करते हैं। एक तरह से कह सकते हैं कि फ्रांस में पचास और साठ के दशक से बौद्रिया नई विरासत का निर्माण कर रहे थे। ऐसा नहीं है कि ऐसा करने वाले बौद्रिया अकेले शख्स थे बल्कि फ्रांस में इसकी शुरुआत बौद्रिया से पूर्व फूको और रोलां बार्थ कर चुके थे। बौद्रिया ने इनके प्रभाव को स्वीकार भी किया है। बौद्रिया के निर्माण में 68' के छात्र आन्दोलन की बड़ी भूमिका रही। यह भी कम दिलचस्प नहीं कि फूको और बौद्रिया दोनों एक दूसरे के विरोधी रहे लेकिन दोनों ने ही अपने चिंतन के प्रस्थान बिंदु को मई 68' के छात्र आन्दोलन से जोड़ा है। वह दशक फ्रांस में बेहद गतिशील दशक था। छात्रों द्वारा तमाम तरह की व्यवस्था का इतना व्यापक विरोध इससे पहले नहीं देखा गया। बौद्रिया इस समूचे परिवर्तन को बेहद निकट से देख रहे थे। वे महसूस कर रहे थे कि राजनीति और समाज के बीच एक बड़ी फांक निर्मित हो गयी है। ऐसा उन्नीसवीं सदी में नहीं था। समाज के समूचे ढांचे में कुछ बहुत तेज़ी से बदला है। बौद्रिया आंद्रे बैतेल की समाजशास्त्रीय अवधारणाओं से मार्क्सवाद के सम्बन्ध की तलाश करते हैं। बौद्रिया की आरंभिक दो पुस्तकें द कंज्यूमर सोसाइटी और द सिस्टम आफ ऑब्जेक्ट साठ के दशक में लिखी गयी थी। इन पुस्तकों में बौद्रिया मार्क्सवाद के नये परिप्रेक्ष्य और चुनौतियों की बात कते हैं। 70' के दशक के मध्य तक आते-आते बौद्रिया को उत्तराधुनिकता के व्याख्याता और मार्क्सवाद के कट्टर विरोधी की उपाधि दी जाने लगी। जबकि अपनी आरंभिक पुस्तकों में बौद्रिया नव-मार्क्सवाद को विकसित कर रहे थे। ऐसा क्यों हुआ? बौद्रिया की उपरोक्त दोनों पुस्तकों का अंग्रेज़ी अनुवाद बहुत देर से यानि 90' के दशक में हुआ जबकि सत्तर के दशक में लिखी उनकी पुस्तकें पहले अनुदित हो गयीं। इससे बौद्रिया की छवि मार्क्सवाद विरोधी की बनी। हालाँकि बौद्रिया का मार्क्सवाद के साथ सम्बन्ध प्रक्रियात्मक था न कि प्रतिक्रियात्मक। आरंभ में वे मार्क्सवाद के नये विस्तार की ओर गए, एक तरह से उनके साथ रचनात्मक संवाद का रिश्ता बनाया।
बौद्रिया समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से मार्क्सवाद के नये आयामों को रखते हैं। इस सन्दर्भ में बौद्रिया आंद्रे बैतेल की अवधारणाओं से मार्क्सवाद को परखते हैं। बैतेल का मानना था कि उपभोग को सीमित होना चाहिए। इसे व्याख्यायित करते हुए वे उपभोग के दो पहलुओं की तरफ ध्यान आकृष्ट करते हैं। पहला वह जो अनिवार्य है जिसके बगैर जीवन को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। दूसरे वह जो अतिरिक्त से पैदा होता है शोक, दु:ख, खुशी, विकृत कामुकता इत्यादि। बैतेल का मानना था कि इस दूसरे उपभोग की कोई सीमा तय नहीं की जा सकती। लेकिन इसका सबसे बड़ा दुर्गुण यह है कि यह अर्थशास्त्र के संरक्षणवादी नियमों से परे है। उदाहरण के तौर पर बैतेल विवाह समारोह में उपहार देने की परम्परा की तरफ ध्यान आकृष्ट करते हैं। उपहार देने के पीछे मूल्य यही है कि पाने वाला भविष्य में इससे बेहतर उपहार दे, लेकिन इस लेन-देन को अर्थशास्त्र के नियमों से नहीं समझा जा सकता। इसे सामाजिक नियमों के तहत ही समझा जा सकता है। एक तरह से यह स्थिति अर्थशास्त्र-गैर अर्थशास्त्र, उत्पादन-अनुत्पादन, और तर्क-आध्यात्म के बीज झूलती रहती है। उपहार देकर व्यक्ति के भीतर जो ताकत निर्मित होती है बैतेल के अनुसार वह भौतिक की बजाय गैर भौतिक प्रक्रिया बन जाती है। एक ऐसे आत्म का निर्माण होने लगता है जो अर्थशास्त्र से चालित होते हुए भी उसके दायरों से बाहर आने लगता है। बौद्रिया बैतेल की इस अवधारणा का इस्तेमाल अपनी पुस्तक द कंज्यूमर सोसाइटी में करते हैं।
बौद्रिया के अनुसार आज का मनुष्य दूसरे लोगों से घिरा नहीं है बल्कि वह वस्तुओं से घिरा हुआ है। अतीत में वह दूसरे लोगों से घिरा हुआ था। यही उसका समाज था और यहीं उसकी चेतना का निर्माण होता था। इस समाज में चेतना के निर्माण का परिणाम यह था कि उनका अंतिम लक्ष्य मानवीय होना ही था या यह कहें कि मानवीय चेतना की कसौटी ही मनुष्यता थी। लेकिन जब समाज का निर्माण वस्तुओं और मनुष्य के योग से होगा तो वह किस तरह की चेतना को निर्मित करेगा। व्यक्ति-व्यक्ति के बीच परस्परता के मूल में समाज की अवधारणा अंतर्निहित थी। समाज के अंतर्विरोधों से वर्ग का जन्म हुआ। लेकिन समाज के बगैर न तो वर्ग होता और न ही वर्ग संघर्ष। बौद्रिया कहते हैं कि जिस तरह भेडिय़ों के बीच रहकर भेडिय़े का बच्चा भेडिय़ा बनता है उसी तरह वस्तुओं के बीच रहकर हम भी उन्हीं के अनुरूप ढलते जाते हैं। उनकी गति, उनकी लय के अनुरूप ढलने का अर्थ है मानवीय संवेदना से विलग होना। आज के समय में हम इन वस्तुओं के जन्म उनका विकास और उनकी मृत्यु को देख रहे हैं। पहले के समय में वस्तुओं ने मनुष्य के जन्म विकास और मृत्यु को देखा होगा। लेकिन मनुष्यता के तमाम दौरों से वस्तुओं का संसार गुजरता हुआ चला आया। और वर्तमान में एक स्थिति आ गयी जहां मनुष्य की चेतना का ही वस्तुकरण हो गया यानि मनुष्य वस्तु समाज का एक अंग  बन गया। वस्तुओं से पटी पड़ी इस मनुष्यता को हम किस तरह व्याख्यायित करें? क्या इनके मूल में किसी सार्वभौमिक नियम या किसी परिकल्पना की तलाश संभव है? स्पष्ट रूप से प्रकृति से विच्छिन्नता के रूप में इसकी पहचान की जा सकती है।
प्रकृति के साथ मनुष्य का जो सम्बन्ध था, वह अपने मूल स्वरूप में द्वंद्वात्मक था। मनुष्य प्रकृति के साथ सहयोग और संघर्ष के द्वैत में जीता था। वह प्रकृति का हिस्सा था और उसे बदलने के लिए सतत संघर्षशील भी। उसका यह संघर्ष अंदर बाहर के द्वन्द्व-द्वैत में आकार लेता था, लेकिन सभ्यता और आधुनिक सभ्यता के विकास के साथ प्रकृति का स्थान तकनीक ने लेना आरंभ किया। तकनीक ने द्वंद्व को नियंत्रित करना शुरु किया क्योंकि तकनीक के मूल में गति का प्रश्न था। प्रकृति की गति मनुष्य के अनुकूल थी। यही वजह है कि प्रकृति के साथ मनुष्य का द्वंद्व किसी वर्चस्व में नहीं बदलता था लेकिन तकनीक की गति के सामने मनुष्य की चेतना हरदम तालमेल नहीं बिठा सकती। ऐसे में तकनीक वर्चस्व को रचती है। यह वर्चस्व वस्तुत: एक द्वंद्वहीन स्थिति को निर्मित करता है। संकट घनीभूत तब होता है जब तकनीक को मनुष्य के बौद्धिक चिन्तन कल्पनाशीलता और संवेदना जैसे मूलभूत गुणों का स्थानापन्न बनाने की कोशिशें होने लगती हैं। यह एक बंद गली के अंधे मोड़ तक जाती है। प्रकृति के साथ मनुष्य का विच्छेद न सिर्फ उसका बाह्य क्षरण है बल्कि वह एक आंतरिक क्षरण को भी जन्म देती है। ऐसे में मनुष्य एक चेतना विहीन जीवित इकाई बनाकर रह जाता है। वस्तुओं के संसार में एक विचित्र वस्तु।
लेफेब्रे का मानना था कि मनुष्य के क्रियाकलाप भौतिक और अमूर्त दोनों ही विलगाव का शिकार हुए हैं। औद्योगिकरण की प्रक्रिया ने मनुष्य को उसकी सामाजिकता से काट लिया। सामाजिकता से यह अलगाव मनुष्य के रूप में इसकी पहचान को भी विखंडित करता है। पूर्व औद्योगिक समाजों में मनुष्य की पहचान उसके कर्म यानि पेशे से होती थी। अगर वह लकड़ी का काम करता था तो वह बढ़ई था अगर वह सोने के आभूषण बनाता था तो वह सुनार था। घर बनाने वाला राजमिस्त्री था। यानि वह जिन औजारों से काम लेता था, वे औजार उसकी पहचान पुख्ता करते थे। औद्योगिकीकरण के परिणामस्वरूप उसकी यह पहचान नष्ट होने लगती है। अब न तो उसकी पहचान के साथ श्रम जुड़ता और न ही औज़ार उसकी पहचान को पुख्ता बनाते हैं। वह श्रम के यांत्रिकीकरण का शिकार बनता है। यह एक विलगाव है जहाँ श्रमिक अपने ही श्रम और उसके उत्पाद से अलग होता जाता है। लेफेब्रे के अनुसार बीसवीं सदी में सामाजिकता के नये परिप्रेक्ष्य को समझने और व्याख्यायित करने के लिए इस विलगाव को व्याख्यायित करना जरुरी है। जाहिर है कि इस प्रक्रिया में वह अन्य की भूमिका अदा नहीं कर सकता। ऐसे में समाज के बौद्धिक वर्ग की जिम्मेदारी बनती है कि वह इस स्थिति की पहचान करे और समाज का ध्यान इस ओर आकृष्ट करे।
बौद्रिया लेफेब्रे की इस व्याख्या को आगे बढ़ाते हैं। वे विलगाव के बाद के समाज की आलोचनात्मक व्याख्या हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं। वे इस विलगाव को समाज के विघटन और सामाजिक चेतना के ह्रास से जोड़ते हैं। समाजविहीनता की इस स्थिति के परिणामस्वरूप उपभोग की परिपाटी विकसित होने लगती है। वह तमाम तरह की सांस्कृतिक चेतना को उपभोग में बदल देती है। कंज्यूमर सोसाइटी में बौद्रिया उपभोग की संस्कृति का मूल संस्कृति में तब्दील हो जाने की बात करते हैं। बौद्रिया कहते हैं कि आधुनिक समाज के मूल में उत्पादन है, लेकिन उत्पादन के विकास के साथ उपभोग की चेतना भी विकसित होती है। वर्तमान समाज एक ऐसे मोड़ पर आ गया है जहाँ सिर्फ उत्पादन या उत्पादन प्रक्रिया के माध्यम से उसे पूरी तरह व्याख्यायित नहीं किया जा सकता। उत्पादन स्वयं में आधा-अधूरा तर्क बनकर रह जाता है। जरुरत इस बात की है कि उत्पादन के साथ-साथ उपभोग की चेतना को भी इसमें शामिल किया जाये।
शास्त्रीय मार्क्सवाद के अनुसार उपभोग की प्रक्रिया से उत्पादन की प्रक्रिया अलग होती जाती है। एक कारीगर जब किसी वस्तु को तैयार करता है तो वह उसकी हर क्रिया का आरंभ से लेकर अंत तक हिस्सा होता है लेकिन जब वस्तु बनकर तैयार होती है तो वह उसके उपभोग से वंचित रह जाता है। यहीं वंचना की स्थिति विलगाव को उत्पन्न करती है। यानि उत्पादन और उपभोग के बीच का विलगाव। आधुनिक श्रमिक का उत्पादन की प्रक्रिया से सम्बन्ध कुछ भिन्न स्तर का है। कारखाने में एक श्रमिक का काम कुछ इस तरह का हो सकता है कि वह किसी वस्तु को तैयार करने में बार-बार सिर्फ एक पुर्जे को कसता हो। अत: वस्तु के पूर्ण निर्माण में उसकी भूमिका बहुत नगण्य रह जाती है। इस तरह वस्तु के निर्माण का श्रेय श्रमिक की बजाय कारखाने की मशीनें और उसके मालिक को जाता है। श्रम का यह विकेंद्रीकरण श्रमिक के भीतर श्रम की चेतना को ही नष्ट कर देता है। स्थिति और बदतर तब हो जाती है जब उत्पादन की गति बढ़ जाती है और श्रमिक को अधिक से अधिक वस्तु तैयार करना पड़ता है। ऐसा करने के लिए वस्तु के खपत को बढ़ाया जाता है और कई बार खपत के मिथ को भी रचा जाता है। जिसके लिए विज्ञापन का सहारा लिया जाता है।
यहाँ बौद्रिया एक महत्वपूर्ण बात की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं। पहले जहाँ वस्तुओं के उत्पादन के साथ ही प्रक्रिया पूर्ण हो जाती थी, वहीं अब ऐसा नहीं रह गया था। उत्पादन के साथ-साथ उपभोग भी महत्वपूर्ण हो चुका था। बौद्रिया उपभोग के समाजशास्त्र को व्याख्यायित करते हैं। बौद्रिया के अनुसार यह विलगाव के बाद की स्थिति है। इसे स्पष्ट करते हुए बौद्रिया इसे मिलेनेशिया में प्रचलित दंतकथा से जोड़ते हैं। मिलेनेशिया के मूल निवासी अक्सर गोरे लोगों के यहाँ आसमान से कुछ उतरता हुआ देखते थे। वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि यह हवाई जहाज़ है। उन्हें लगता था कि आसमान से कोई दैवीय समृद्धि है जो गोरे लोगों के यहाँ बरस रही है। उनके समृद्ध और शक्तिशाली होने के पीछे इसी आसमानी ताकत की भूमिका है। यह समृद्धि कभी उनके यहाँ (मूल निवासियों के यहाँ) नहीं बरसती। इस तरह बौद्रिया कहते हैं कि मूल निवासियों ने हवाई जहाज़ का एक छद्म निर्मित किया। यह छद्म बताता है कि मिलेनेशिया के मूल निवासी उस खुशी और समृद्धि से बस एक हवाई जहाज़ की दूरी पर हैं। इस दंतकथा से बौद्रिया आधुनिक उपभोक्ता को जोड़ते हुए बताते हैं कि आधुनिक उपभोक्ता भी यही महसूस करता है। मूल निवासियों की तरह उसे भी यही लगता है कि वह $खुशी से बस उस वस्तु भर की दूरी पर है। इस तरह वस्तुओं के संसार का मिथक निर्मित किया जाता है। बौद्रिया इस प्रक्रिया का विस्तार से जिक्र करते हैं वे लिखते हैं ''एंटिक स्टोर की प्रदर्शन खिड़की बेहद सजावटी और कलापूर्ण होती है। उसे देखने से ऐसा नहीं लगता कि उसमें बहुत सा धन झोंक दिया गया है बल्कि उसमें सीमित और पूरक वस्तुओं को चयन के लिए रखा जाता है। लेकिन यह व्यवस्था एक उपभोक् ता के भीतर एक मनोवैज्ञानिक क्रमिक प्रतिक्रिया को जन्म देती है। वह इसे देखता है, जांचता है, परखता है और सम्पूर्णता में ग्रहण करता है। इधर कुछ वस्तुएं यूँ ही दी जा रही हैं, उनके पक्ष में बोलने वाली वस्तुओं के बगैर और इस तरह वस्तुओं के साथ उपभोक्ता का सम्बन्ध बदलने लगता है : अब वस्तुएं किसी विशेष उपयोगिता को प्रदर्शित नहीं करती, बल्कि वे एक श्रृंखला में अपना महत्व प्रदर्शित करती हैं। कपड़े धोने की मशीन, बर्तन धोने की मशीन और फ्रिज जब एक साथ प्रदर्शित की जाती हैं तो इनका अर्थ बदल जाता है। अकेले में ये कुछ और अर्थ रखती हैं। प्रदर्शन खिड़की, विज्ञापन, उत्पादक, ब्रांड आदि एक सुसंगत और महत्वपूर्ण अर्थ निर्मित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। इस कड़ी की तरह जो सिर्फ एक वस्तु को दूसरे से जोड़ता भर नहीं है बल्कि यह भी बताता है कि उस वस्तु के बगैर अगली वस्तु का महत्व रह नहीं जाता। इस तरह श्रृंखलाबद्ध होकर हर वस्तु अधिक जटिल और ताकतवर वस्तु की भूमिका का निर्वाह करने लगती है।1''  इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप वस्तुओं में आकर्षित करने का अतिरिक्त मूल्य निर्मित हो जाता है। उपभोक्ता उसे अधिक लालची नज़रों से देखता है। इस तरह वह उस मिथ का शिकार होने लगता है जिसके अनुसार उसे लगता है कि इस वस्तु को खरीदने से उस पर खुशी बरसेगी। उदाहरण के तौर पर आधुनिक उपभोक्ता यह महसूस करता है कि अगर वह सबसे बेहतर मॉडल की कार या फोन खरीदेगा तो उसे अपार $खुशी प्राप्त होगी। वास्तव में खुशी कभी आती नहीं। वह एक वस्तु से दूसरे वस्तु में रूपांतरित होती रहती है। किसी वस्तु को खरीदने के बाद उपभोक्ता खुशी के दूसरे स्तर की तरह आकर्षित होने लगता है। वह आत्म-आलोचना के माध्यम से अपनी आकाँक्षाओं को प्रदर्शित करता है। वह कहता है अगर मैंने थोड़ी प्रतीक्षा की होती, थोड़ा धैर्य दिखाया होता, थोड़ी राशि और खर्च की होती तो मैं इससे बेहतर और अधिक उपयोगी वस्तु को पा सकता था। इस तरह उस अप्राप्त खुशी को पाने के लिए प्रतीक्षा और खर्च का अट्टू सिलसिला चल पड़ता है। धीरे-धीरे उपभोक्ता का ही वस्तुकरण हो जाता है। वह लोगों की अपेक्षा वस्तुओं के साथ खुद को अधिक सुरक्षित और उन्मुक्त महसूस करता है। उसकी सामाजिकता इन्हीं वस्तुओं के मध्य निर्मित होने लगती है। इस तरह उपभोग की प्रक्रिया एक जादू में बदलने लगती है। खुशियाँ वास्तव की बजाय संकेत और चिन्हों में बदलने लगती हैं। वस्तुएं इन चिन्हों को प्रदर्शित करती हैं। बौद्रिया कहते हैं, यह जादू टी वी के स्क्रीन पर रोज़ दिखाया जाता है। इस तरह उत्पादन की प्रक्रिया से इतर उपभोग की प्रक्रिया का समाजशास्त्र निर्मित होने लगता है।
टी.वी. विज्ञापन के माध्यम से उपभोग के आनंद के छद्म को रचती है। विज्ञापन के माध्यम से उन वस्तुओं का इस्तेमाल कर सुखी हो चुके लोगों को हमारे सामने प्रस्तुत किया जाता हैं। उनके चेहरे से टपकती खुशी और उनकी वेशभूषा से झलकती सम्पन्नता हमें यह आश्वासन देती है कि इन वस्तुओं के इस्तेमाल के बाद हम भी इसी तरह के हो जायेंगे। बौद्रिया कहते हैं कि उनकी खुशी ही हमारी वांछित आकांक्षा है। यह एक जादू है। हम उन्हें टी वी पर खुश देखकर उत्पादन से अलग वस्तु को लालसा के रूप में देखते हैं। इस तरह उपभोग का मनोविज्ञान हमारे भीतर निर्मित होता है। बाहर मौजूद वस्तु हमारे भीतर पाने की आकांक्षा को बलवती बनाती है। बौद्रिया के अनुसार टी.वी. की भूमिका वही है जो मिलेनेशिया के मूल निवासियों के लिए आकाश से उतरते विमान की थी। यहाँ एक समाज दूसरे समुदाय को अधिक उपभोग करते देखता है। वह उसके भीतर उपभोग के बाद के आनंद का मूर्त स्वरुप देखता है। टी.वी. इस अर्थ में अमूर्त के मूर्त होने का स्वांग रचती है। वह यथार्थ को छद्म यथार्थ में बदलती है। लेकिन इस तरह कि वह हमारी चेतना में यथार्थ की तरह ही दािखल हो।
यह किसी अध्ययन द्वारा साबित नहीं किया जा सकता कि विज्ञापन से किसी उत्पाद के विक्रय में कितनी सहायता मिली। बावजूद इसके विज्ञापन का सहारा लिया जाता है। विओज्ञापन एक तरह का अनुकूलन है। बाज़ार की रस्मअदायगी की प्रक्रिया का अनिवार्य हिस्सा। इस अर्थ में विज्ञापन किसी भी चीज़ को वास्तव में प्रदर्शित नहीं करते। विज्ञापन के माध्यम से हम वास्तविक के साथ अवास्तविक का भी उपभोग करना सीखते हैं। यह अवास्तविक एक अर्थ में वस्तु से भिन्न एक नया उत्पाद है। उत्पादक को इस अर्थ में वास्तविक के साथ-साथ इस अवास्तविक को भी बेचना है। इस तरह इस नई प्रक्रिया में उत्पाद के साथ साथ उसका विज्ञापन भी बेचने की वस्तु बन जाती है। कीमत के सन्दर्भ में भी यह बात लागू होती है और इसलिए हमें हर वस्तु की वह कीमत अदा करनी पड़ती है जो वह विज्ञापन के साथ मिलकर बनाती है। एक तरह से कहें तो विज्ञापन वस्तु की चेतना बनकर हमारे भीतर घुसपैठ करती है। और इस तरह आकांक्षाओं का एक अटूट सिलसिला निर्मित होता है। क्योंकि विज्ञापन एक संसार को हमारे समक्ष रखता है। उसमें सामाजिक तर्क को बना जाता है।
टूथपेस्ट के अधिकांश विज्ञापनों में किसी चिकित्सक की वेशभूषा में तैयार एक व्यक्ति को पेश किया जाता है। वह मुस्कराहट और आत्मविश्वास के साथ लोगों को यकीन दिलता है कि यह 99 प्रतिशत चिकित्सकों द्वारा आजमाया जाने वाला टूथपेस्ट है और इसीलिए इसका इस्तेमाल करना दाँतों के लिहाज़ से बेहद जरुरी है। इसी तरह का दावा अन्य टूथपेस्ट भी करते नज़र आते हैं। तो क्या इस अर्थ में चिकित्सकों की संख्या वास्तव का अतिक्रमण नहीं कर जाती, लेकिन उन विज्ञापनों को देखते हुए हमारे मन में यह ख्याल नहीं आता कि अचानक हर ब्रांड के पास 99 प्रतिशत दंतचिकित्सक कहाँ से आ गए। किस प्रक्रिया के तहत दन्तचिकित्सकों की संख्या और प्रतिशत निर्धारित की गयी। धीरे-धीरे विज्ञापन की इस अतार्किक और छद्म शैली के हम अभ्यस्त होते जाते हैं। हमारे भीतर की तार्किक चेतना विनष्ट होने लगती है। हम उस छद्म के साथ ही उस विज्ञापन का उपभोग एक वस्तु के रूप में करने लगते हैं। इसी तरह किसी साबुन के विज्ञापन में हम सुसज्जित स्नानघर को देखते हैं। विज्ञापन के लिए एक स्नानघर का कृत्रिम सेट बनाया जाता है। उसमें एक सिने तारिका को नहाते हुए इस तरह प्रस्तुत किया जाता है जैसे उसकी खूबसूरती के मूल में यही विज्ञापन है। प्रकट तौर पर देखने से यह लग सकता है कि अमुक कम्पनी का उद्देश्य इतना ही है कि हम इस साबुन को अधिक से अधिक खरीदे लेकिन वास्तव में साबुन के साथ-साथ इसी तरह के स्नानघर, इस तरह की स्त्री आदि आदि की आकांक्षा भी बेची जा रही है। यह धीरे-धीरे हमारे अवचेतन को अपना शिकार बनाती जाती है। उपभोग की आकांक्षा का प्रतिरोपण एवं विस्तार उपभोक्ता निर्माण की केंद्रीय एवं अनिवार्य शर्त बनने लगती है। इसे पूरा करने के लिए एक पूरा अनुशासन विकसित किया जाता है। प्रबंधन और विज्ञापन को अध्ययन का विषय बनाया जाता है। उसकी सैद्धांतिकी निर्मित की जाती है। फील्ड ट्रेनिंग के द्वारा उन्हें इस प्रक्रिया के लिए अनुकूल बनाया जाता है।
यह मिथ भी रचा जाता है कि वस्तुओं की उपलब्धता असीम है। लोगों तक इस बात को तकनीक और विज्ञापन के माध्यम से पहुँचाया जाता है। वस्तुएं सामाजिक विकास के मिथ को भी रचती हैं। बौद्रिया बताते हैं कि चिन्हों और संकेतों के माध्यम से यह बताया जाता है कि उपयुक्त मूल्य चुकाकर कोई भी किसी वस्तु को खरीद सकता है और इसलिए हर कोई हर स्तर की $खुशी पाने का अधिकारी बन सकता है। उदाहरण के तौर पर हम आधुनिक बाज़ार के रूप में मॉल को देख सकते हैं। वहां कभी भी चीज़ें कम नहीं पड़ती। दुनिया की हर चीज़, हर आदमी के नाप की चीज़ वहां उपलब्ध है। चीज़ों की विविधता और 24 घंटे उनकी उपलब्धता उसका प्रस्थान बिंदु है। मॉल लोगों में प्रकट तौर पर कोई वर्गीय भेदभाव नहीं करता। उसमें यह संकेत निहित है कि अगर किसी के पास खरीदने के पैसे नहीं हैं तो भी वह चीज़ों को मुफ्त देखकर उन्हें छूकर उनका आनंद उठा सकता है। पूरी तरह भले सुखी न हो लेकिन सुखी होने का स्वप्न और उस स्वप्न के इतने करीब होने का यथार्थ मॉल रचता है। इस प्रक्रिया में वर्ग की मूर्त चेतना से बाहर आकर सभी को एक समान उपभोक्ता बनाने की प्रकट-अप्रकट कोशिश मौजूद रहती है।
बौद्रिया के अनुसार मार्क्स के यहाँ इस तरह की व्याख्या उपलब्ध नहीं है। बौद्रिया अपनी व्याख्या में उत्पादन के मार्क्सवादी सिद्धांतों को नकारते नहीं हैं। लेकिन उपभोग की सरलीकृत समाजशास्त्रीयता या उसे वर्ग की चेतना के सामान्यीकरण तक महदूद कर नहीं देखते। यहाँ यह महत्वपूर्ण बात की ओर बौद्रिया संकेत करते हैं कि पारम्परिक पूंजीवादी प्रणाली के तहत वर्गीय दायरे में लोगों की क्रय शक्ति को परिभाषित किया जाता है। क्रय शक्ति लोगों की उपभोग की चेतना को निर्मित करती थी। आज भी हम देखते हैं कि तमाम तरह की आर्थिक जनगणनाओं में चीज़ों के लिहाज़ से लोगों की क्रय शक्ति और उनके वर्ग का निर्धारण किया जाता है। बौद्रिया के अनुसार आधुनिक पूंजीवाद के क्रय और उपभोग के सम्बन्धों को तर्क के परे पहुंचा दिया है। इसमें सामाजिक मनोविज्ञान की भूमिका निर्णायक होने लगी है। इसे बनाने में सूचना माध्यमों की बड़ी भूमिका है, इस बात को नकारा नहीं जा सकता। बौद्रिया मार्क्स की वर्गीय व्याख्या को अस्वीकार करते हुए बताते हैं कि आकांक्षाओं की अटूट श्रृंखलायें उत्पादन के नियमों के तहत निर्मित किये जाते हैं, जो उत्तरोत्तर उत्पादन के नियमों से मुक्त होकर अपना एक स्वतंत्र दायरा विकसित कर लेते हैं। इस प्रक्रिया में लगातार मानवीय चेतना नष्ट होती जाती है। वस्तुओं का संसार एक समानांतर दुनिया की तरह बन जाता है, जिसमें मनुष्य होने का अर्थ वस्तुओं के साथ सम्बन्ध के अर्थ में विकसित होता है। इस सम्बन्ध के मूल में सिर्फ और सिर्फ लालच और आकांक्षा होती है। बौद्रिया पूछते हैं इस लालच में फँसने के अतिरिक्त उपभोक्ता के पास क्या विकल्प रह जाता है?
तकनीकी विकास की अवधारणा वास्तविक है या छद्म? बौद्रिला इस प्रश्न पर नये परिप्रेक्ष्य में विचार करते है। फूको ने इतिहास की विकासवादी अवधारणा को चुनौती दी थी। बौद्रिया वर्तमान के विकास को तकनीकी विकास के मिथक के रूप में व्याख्यायित करते हैं। विकास की अवधारणा के केंद्र में बौद्रिया उपभोग की चेतना को रखते हैं। तकनीकी विकास का अर्थ है स्वचालन की प्रक्रिया का तीव्र होना। इस अर्थ में वे गिज्मों की अवधारणा को सामने रखते हैं। गिज्मों क्या है? बौद्रिया के अनुसार गिज्मों उपयोगिता का मिथक रचता है। वह वस्तु की मूल चेतना यानि उसकी वस्तुपरकता को तरलता में बदलती है। जैसे अगर हम एक खुरपी की बात करें तो इसका इस्तेमाल हम एक नुकीले हथियार के रूप में कर सकते हैं लेकिन किसी भी स्थिति में उसका इस्तेमाल पहिये की तरह नहीं किया जा सकता। यही उसकी वस्तुपरकता है और वह ठोस है। इस तरह वस्तु-संसार अपनी गुणात्मकता की वजह से ठोसत्व की अवधारणा को निर्मित करता है। बौद्रिया इस संदर्भ में पूछते हैं कि अगर किसी वस्तु में कोई ठोस तत्व हो ही नहीं तो उसे हम किस तरह देखेंगे। वस्तु संसार में उसकी उपस्थिति का क्या अर्थ होगा। बौद्रिया के लिए गिज्मों वास्तव में इसी तरह की तरलता लिए वस्तु संसार में अपनी उपस्थिति दर्ज़ करता है। उसमें कोई विशेष गुण नहीं है फिर भी वह सबकुछ कर सकने में सक्षम है। यह एक नए तरह की वस्तुपरकता है। गिज्मों इस तरह वस्तु के केंद्रीय संसार से बाहर आकर नई वस्तुपरकता का मिथ रचता है। वह वास्तव में है क्या यह हम कभी नहीं जान पाते। बौद्रिया के अनुसार गिज्मों वर्तमान का मिथक है क्योंकि उसकी उपयोगिता को किसी सुसंगत तर्क के द्वारा व्याख्यायित नहीं किया जा सकता। विश्रृंखलित मान्यताओं के अनुरूप वह अनेकानेक रूपों द्वारा संचालित होता है। उसकी इस बहुआयामिता का मिथ केन्द्रीयता के तर्क को नष्ट करती है। बौद्रिया का मानना है कि इस अर्थ में वह धर्म से भी बदतर है। धर्म के साथ यह बात महत्वपूर्ण है कि वह वस्तुओं के गिर्द व्यवस्थित संरचना को निर्मित करती है। उसके कार्य करने की, प्रतिक्रिया देने की और व्याख्या की एक निश्चित प्रणाली है। तो क्या गिज्मों इस अर्थ में मशीन से कमतर एक निम्न-स्तरीय वस्तु है? बौद्रिया के अनुसार ऐसा हर्गिज़ नहीं है बल्कि इसके उलट यह यथार्थ को दूसरे स्तर तक ले जाती है, वह इसे यथार्थ से परे और अतियथार्थ के करीब लाती है। सूचना क्रांति में गिज्मों की भरमार हमारे सामने रख दी है। एक फोन का इस्तेमाल हम तस्वीरें खींचने गीत सुनने, फिल्म देखने या गूगल पर संवाद करने के रूप में कर सकते हैं लेकिन जिस क्षण हम यह सब कुछ कर रहे होते हैं इसी क्षण संचार माध्यम से हमारे पास एक सन्देश भेजा जाता है - आधुनिक और अति आधुनिक होने के लिए यह जरूरी है कि हम इस्तेमाल किये जा रहे पुराने फोन की जगह एक स्मार्ट फोन का इस्तेमाल शुरू करें, क्योंकि वह हर हाल में एक आगे की विकसित आधुनिक दुनिया को प्रतिबिम्बित करता है। ठीक इसी समय टी.वी. पर एक विज्ञापन द्वारा इस छद्म को अतियथार्थ में बदला जाता है। एक विज्ञापन में यह दिखाया जाता है कि अमुक लड़के की इस खुबसूरत लड़की से मित्रता और यहाँ तक कि प्रणय सिर्फ इसलिए हो सका क्योंकि उस लड़के ने समय रहते यह स्मार्ट फोन खरीद लिया था इसलिए यह जरूरी हो गया है कि अब हम भी देर न करें।
बौद्रिया बताते हैं कि गिज्मों तकनीकी वस्तु-संसार में वैश्विकता को प्रदर्शित करती है। वह इस तथ्य को हमारे भीतर आरोपित करती है कि जीवन की हर जरूरत (भौतिक-गैर भौतिक) के लिए गिज्मों उपलब्ध है। एक विज्ञापन यह दिखाता है कि अमुक बच्चे को नींद इसलिए आ गयी क्योंकि इस खिलोने में माँ का स्पर्श मौजूद था तो वहीं दूसरा विज्ञापन यह दिखाता है कि अमुक पुरुष को नींद इसलिए मयस्सर हुयी क्योंकि उसने स्त्री की तरह का साथ देने वाला यह खिलौना खरीद लिया था। बौद्रिया के अनुसार यह मानना कि तकनीक हमेशा प्रकृति को बदलती है से अभिप्राय यह भी निकलता है कि प्रकृति का तकनीकीकरण किया जाये। स्वचालन की प्रक्रिया में मनुष्य का वैश्वीकरण इस तरह होता है कि हर बार गिज्मों के माध्यम से ही खुद को अधिक संतुष्ट महसूस करता है। गिज्मों स्वयं में अति क्रियाशीलता की कल्पना है। इस तरह संतुष्टि को एक काल्पनिक संतुष्टि या अमूर्त संतुष्टि में बदल दिया जाता है। यहाँ बोद्रिया एक महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि तकनीक की इस अनुगामिता का परिणाम यह होता है कि मनुष्य स्वयं तकनीकी वस्तु में बदलता जाता है। रोबोट यंत्र के तौर पर उसका आदर्श होने लगता है। यह एक तरह से चेतना का तकनीकीकरण है जो यांत्रिकीकरण से आगे की स्थिति है। एक रोबोट वह सब कुछ कर सकता है जो एक विषय के रूप में मनुष्य। यहां तक कि प्रजनन भी। धीरे-धीरे रोबोट और मनुष्य हमारी चेतना में अलग अलग रूपाकार नहीं रह जाते। रोबोट और मनुष्य के एकमेक होने का परिणाम यह होता है कि हम रोबोट के प्रति मानवीय संवेदनाओं का प्रसार करने लगते हैं और उसके क्रियाकलापों को अतिमानवीय समझने लगते हैं। यानि हमारे आदर्श के रूप में मनुष्य की जगह रोबोट की परिकल्पना स्थापित हो जाती है।
यह तो स्वचालन की प्रक्रिया है, क्या यह महज़ गति और गुणवत्ता तक ही सीमित है? वास्तव में ऐसा नहीं है। स्वचालन की प्रक्रिया द्वारा मानवीय श्रम का निषेध किया जाता है। बचे रहने के लिए मनुष्य को अपने श्रम का तकनीकीकरण करना होता है। उदाहरण के तौर पर संचार माध्यमों द्वारा विकसित ऐप प्रणाली को देखा जा सकता है। आरम्भ में ऐप को लोगों के मनोरंजन के रूप में प्रस्तुत किया गया। लेकिन भारत जैसे अर्ध विकसित देश में जिस तरह से ऐप को पिछले दो वर्षों से समाज का अनिवार्य और जरूरी हिस्सा बनाया जा रहा है, वह दिलचस्प है।
मानवीय श्रम में एक अंतर्भूत सामाजिकता होती थी। श्रम के द्वारा जो सामाजिकता निर्मित होती थी वह हमारे सौन्दर्यबोध का नियामक भी होता था। लेकिन ऐप प्रणाली मानवीय श्रम का निषेध करती है। कल तक हम टैक्सी को बुलाने के लिए जब किसी कॉल सेंटर में फोन करते थे तो हम एक सामाजिक-आर्थिक प्रणाली से जुड़ते थे। कॉल सेंटर में बैठा शख्स हमें टैक्सी के आने का समय बताता था। कई बार टैक्सी न भेजे जाने के कारणों की भी चर्चा करता था। हम उसे अपने गंतव्य के विषय में जानकारी देते थे। इस तरह तांत्रिक होते हुए भी दोतरफा संवाद संभव होता था। यह एक सामाजिक प्रक्रिया थी। लेकिन ऐप द्वारा जब मनुष्य का और मानवीय श्रम का हस्तानान्तरण होता है तो यह प्रक्रिया यांत्रिकीकरण से तकनीकीकरण के युग में प्रवेश करती है। इस प्रक्रिया में तमाम तरह के संवाद स्वचालित होते हैं। ऐप रिकॉर्ड किये गए संदेशों से हम किसी लड़की की आवाज़ सुनकर उसके होने की कल्पना कर सकते हैं, लेकिन वास्तव में वहाँ कोई होता नहीं है। इसलिए वे किसी भी तरह से हमारी सौंदर्य चेतना को उद्भुत नहीं करते। संवेदना का तकनीकीकरण हमे सामाजिक रूप में निरर्थक बना देता है। इस तरह की स्थिति में किसी किस्म की द्वंद्वात्मकता की भूमिका शेष नहीं रह जाती है। स्वचालन की प्रक्रिया पूरी दुनिया को अंतत: एक विशाल गिज्मों में बदल देगी। इसके पार रास्ता क्या है?
रास्ता तलाशने की कोशिश में बौद्रिया मार्क्सवाद से बाहर आते हैं। 60' के दशक में बौद्रिला मार्क्सवाद के साथ रचनात्मक संवाद जैसी स्थिति बनाते हैं। वे अपनी आरंभिक दोनों पुस्तकों में मार्क्सवाद के नये आयामों की बात करते हैं। हालाँकि इन पुस्तकों में भी शास्त्रीय मार्क्सवाद से बौद्रिया लगातार मुठभेड़ करते हुए नज़र आते हैं।
1920' से 1960' के बीच प्रतियोगी पूंजीवाद के एकाधिकारी पूंजीवाद में रूपांतरण होता है। इस दौरान आपूर्ति को बड़े पैमाने पर बढ़ाया गया। इसके लिए उत्पादन के फलक को विस्तृत किया गया और कीमतें घटाई गयी। इस दौर में पू्ंजी के संग्रहण के साथ साथ उत्पादन की नई तकनीकों को विकसित किया गया ताकि उत्पाद और खपत दोनों को बढ़ाया जा सकता। इस प्रक्रिया को सम्भव करने के लिए पुराने मूल्यों (मार्क्स के अनुसार वस्तु के उत्पादन में दो तरह के मूल्य होते हैं उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य) के साथ नये मूल्य - संकेत मूल्य को स्थापित  किया गया। संकेत मूल्य से बौद्रिया का तात्पर्य प्रस्तुतीकरण, सजावट, कामुकता, संचार माध्यम द्वारा प्रचार-प्रसार इत्यादि है। इन तमाम प्रक्रियाओं से गुजरकर वस्तु का संकेत मूल्य विकसित होता है, जो उत्तरोत्तर अधिक प्रभावी होता जाता है। इसी प्रक्रिया के तहत वस्तुओं को बाहरी रूप रंग उनमें प्रदर्शित होने वाला आराम आदि मूल्य बनने लगते हैं। समाज जब इस तरह के मूल्य के साथ वस्तुओं को स्वीकार करता है तो उसका रूपांतरण होने लगता है। वस्तुओं के प्रदर्शन से लोग सम्मानित और ताकतवर महसूस करने लगते हैं। उदाहरण के लिए घर कपड़े आदि से प्रदर्शित होने वाले सम्मान और ताकत को हम देख सकते हैं। आये दिन विज्ञापन इस बात को स्थापित कर रहे होते हैं कि अमुक इलाके के लोग इसलिए सभ्य सुसंस्कृत और समृद्ध हुए क्योंकि उन्होंने उस इलाके में अपना मकान ले लिया था। छटनी के दौरान अमुक कर्मचारी की नौकरी इसलिए बच गयी क्योंकि उसने अमुक ब्रांड का सूट पहन रखा था। स्पष्ट हैं कि इन विज्ञापनों में संकेत मूल्य की सामाजिकता को स्थापित किया जाता है। बौद्रिया कहते हैं कि यह विलगाव के बाद का समाज है। जब समाज में विलगाव की प्रक्रिया पूरी हो जाती है तो वहां हर चीज़ बिकाऊ माल की भूमिका में आ जाती है। लेकिन यह बिकाऊ माल महज़ भौतिक वस्तु ही नहीं है, बल्कि सम्मान, स्नेह, आदर्श, प्रेम और चरम घृणा ये सब भी बिकाऊ माल में बदल जाते हैं। 70' के मध्य तक आते-आते बौद्रिया मार्क्सवाद के प्रति एक आलोचनात्मक रुख अख्तियार करने लगते हैं। इस दौरान उनकी दो पुस्तकें प्रकाशित होती हैं द मिरर ऑफ प्रोडक्शन और डेथ ऑफ सिम्बोलिक एक्सचेंज। इन पुस्तकों से बौद्रिया मार्क्सवाद के कट्टर आलोचक साबित होते हैं। वे कहते हैं मार्क्सवाद वास्तव में बुर्जुआ समाज का आईना है। मार्क्सवाद ने उत्पादन को केंद्र में स्वीकार किया है। इस तरह वह पूंजीवाद को स्वाभाविकता प्रदान करती है। राजनीतिक अर्थशास्त्र के द्वारा पूंजीवाद को बार-बार  अपने को ठीक करने का मौका मिला। इस तरह राजनीतिक अर्थशास्त्र इस सामाजिक परिवर्तन की आलोचना करने में असमर्थ साबित हुई जिसके तहत समाज का विघटन बहुत तेज़ी से होता है और मनुष्य एक सामाजिक इकाई से घटकर वस्तुजगत का अंश बनने के लिए बाध्य हो जाता है। बौद्रिया के अनुसार आवश्यकता और उत्पादन मूल्य दोनों के मूल में समाज ही है। अत: पूंजीवाद द्वारा सामाजिक विघटन की प्रक्रिया की ठीक-ठीक पहचान उत्पादन और आवश्यकता के अनुसार संभव नहीं। इस तरह बौद्रिया मार्क्स की राजनीतिक अर्थशास्त्र की अवधारणा को नकारते हैं। वे कहते हैं वास्तव में मार्क्स ने आदिम समाज में विनिमय की पद्धतियों पर ध्यान नहीं दिया। सांकेतिक विनिमय का विघटन मात्र राजनीतिक आर्थिक प्रक्रिया नहीं थी जैसा कि मार्क्स ने समझा था, इससे बढ़कर वह सामाजिक रूपाकारों में आया परिवर्तन भी था।
बौद्रया मार्क्स की आलोचना करते हुए कई बार एकांगी दृष्टिकोण का शिकार होने लगते हैं और विरोध का एक छोर पकड़ लेते हैं। मार्क्स के यहाँ सामाजिक संरचनाओं का नकार नहीं है। मार्क्स ने हमेशा समाजैतिहासिक पद का इस्तेमाल किया है। यह जरुर है कि बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में सामाजिक रूपाकारों में आये विघटनकारी परिणामों का आकलन मार्क्स के समय में संभव नहीं था। बौद्रिया इस बात की अनदेखी कर जाते हैं कि मार्क्स उन्नीसवीं सदी के पूंजीवाद के विषय में जो कह रहे थे, उसे हूबहू बीसवीं सदी में लागू करने की बात मार्क्स ने नहीं कही थी और यह विश्लेषण की मार्क्सवादी परिकल्पना के भी विरुद्ध है। बौद्रिया मार्क्सवाद का विरोध करते हुए जब यह कहते हैं कि तमाम तरह की जरूरतों का और उत्पादन मूल्य का निर्धारण सिर्फ और सिर्फ समाज द्वारा होता है तो वास्तव में वह उस ऐतिहासिकता को भूल जाते हैं जो समाज के निर्माण में बड़ी भूमिका निभाता है। मार्क्स जिसे ऐतिहासिक द्वंद्ववाद कहते हैं। मार्क्सवाद की समस्याओं की व्याख्या करते हुए बौद्रिया मार्क्स की ऐतिहासिक उपलब्धियों को दरकिनार कर दते हैं। अपनी पुस्तक मिरर ऑफ प्रोडक्शन में बौद्रिया इस बात पर बहुत अधिक जोर देते हैं कि मार्क्स ने उपयोग मूल्य को ही उत्पादन के केन्द्र में स्वीकारा है। बौद्रिया कहते हैं कि मार्क्स विनिमय मूल्य की बात भी करते हैं लेकिन वे विनिमय मूल्य और उपयोग मूल्य के बीच द्वंद्वात्मकता को बखूबी स्पष्ट नहीं करते। बौद्रिया के अनुसार ऐसा इसलिए है क्योंकि मार्क्स की व्याख्या में उपयोगी मूल्य ही सर्वोपरि है। बौद्रिया अपने लेखन में बार-बार इस पर बल देते हैं कि मार्क्सवाद उत्पादन से परे कुछ भी देखने में असमर्थ है। बौद्रिया के अनुसार मार्क्स का स्पष्ट मानना था कि श्रम द्वारा उपयोग मूल्य निर्मित होता है जो विनिमय मूल्य को भी निर्मित करता है। लेकिन इसके विपरीत की परिकल्पना मार्क्स ने नहीं की थी। बौद्रिया इसे गुणात्मक और मात्रात्मक के द्वंद्व के रूप में व्याख्यायित करते हैं। मार्क्सवाद की आलोचना में बौद्रिया निश्चित रूप से नये बिन्दुओं की तलाश करते हैं। वे कहते हैं कि विनिमय मूल्य द्वारा उपयोग मूल्य का निर्माण हो रहा है। यह राजनीतिक अर्थशास्त्र के बाद की स्थिति है। ऐसे में समाज को व्याख्यायित करने में राजनीतिक अर्थशास्त्र की भूमिका अब रह नहीं गयी है। बौद्रिला लिखते है:- ''श्रम का अंत हो चुका है। उत्पादन का अंत हो चुका है। राजनीतिक अर्थशास्त्र का भी अंत हो चुका है। संकेतक-संकेतिक के बीच मौजूद द्वंद्वात्मकता भी नष्ट हो चुकी है। इसी द्वंद्वात्मकता के तहत ज्ञान और अर्थ का संचय और उसकी सम्पूर्ण व्याख्या का रैखिकीय निर्धारण संभव था। साथ ही विनिमय मूल्य/उपयोग मूल्य में मौजूद द्वंद्वात्मकता जो कि संचय और सामाजिक उत्पादन को संभव बनाती थी का भी अंत हो गया। विमर्श की सीधी पगडण्डी नष्ट हो चुकी है। वस्तुओं का सरल संसार नष्ट हो चुका है। चिन्हों का शास्त्रीय युग मिट चुका है। उत्पादन के युग का भी अंत हो गया।'' 2 बौद्रिया के अनुसार श्रम उत्पादन के केंद्र में था लेकिन अब वह उत्पादन को तय नहीं करता। स्वचालन की प्रक्रिया तकनीकी विकास ने उसे उत्पादन के तमाम उपकरणों से एक बना दिया है। श्रम मात्र एक चिन्ह बनकर रह गया है। तनख्वाह और श्रम के बीच का तार्किक संबंध भी नष्ट हो चुका है। अब लोग यथार्थ में नहीं बल्कि अतियथार्थ में जी रहे हैं।
70' के दशक में बौद्रिया का मार्क्सवाद से सम्बन्ध एक जटिल व्याख्या की मांग करता है। यह कहना बेहद कठिन है कि बौद्रिया मार्क्स को नकार रहे हैं या उसे समकालीन संदर्भ में नई व्याख्याओं से जोड़ रहे हैं। ऐसा इसलिए भी कि बौद्रिया को लगता है कि किसी समाधान की तरफ बढऩा संभव नहीं रह गया है। समाज एक बेहद क्रांतिकारी मोड़ से गुजर रहा है। उनके अनुसार यह उतना ही क्रांतिकारी है जितना प्राक-आधुनिक और आधुनिक समाज के मध्य घटा परिवर्तन।
बौद्रिया के लेखन का अंतिम पड़ाव यहीं से आरम्भ होता है, जहाँ वे यथार्थ के रूपांतरण की सूक्ष्म व्याख्या हमारे समक्ष रखते हैं। बौद्रिया बताते हैं कि इस यथार्थ के छद्म को सूचना क्रांति में निर्मित किया है। टी.वी. के पर्दे के रूप में वह हर वक्त हमारे साथ है। यथार्थ को तलाशना असंभव हो चुका है। हर चीज़ संचार माध्यम का हिस्सा हो चुकी है। ज्ञान को सूचना में बदल दिया गया है। बौद्रिया के अनुसार पहले हर घटना का ऐतिहासिक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य होता था। लेकिन सूचना माध्यमों ने घटनाओं को उनके इतिहास और राजनीति से अलग कर दिया है। टी.वी. के पर्दे पर जितनी देर के लिए वह प्रकट होता है मात्र उतना ही उसका इतिहास है। यह भी संभव है कि वास्तव में वह घटना घटी ही न हो लेकिन संचार माध्यमों के द्वारा उसका घटना संभव हो पाता है। इस अर्थ में किसी घटना को यथार्थ से अलग किया जाता है।
पिछले दो वर्ष की भारतीय राजनीति में भी हम इस तरह के अतियथार्थ को देखते हैं। राजनीतिक मंचों से एक झूठ को कहा जाता है, तमाम टी.वी. चैनल यह जानते हुए कि यह झूठ है, उसे दिखाते है। इस तरह यथार्थ से परे एक नया यथार्थ  या अति यथार्थ विकसित होता है। इस अति यथार्थ के साथ किसी किस्म की द्वंद्वात्मकता की संभावना नहीं बची रह जाती। हमें हर हाल में इस अति यथार्थ का उपभोग करना है, क्योंकि इस अतियथार्थ से न तो कोई मुक्ति है न इतर कोई संसार नज़र आता है।
बौद्रिया इस बात को हमारे समक्ष रखते हैं कि पिछली सदी ने तमाम तरह की संभावनाओं को नष्ट कर दिया है। उन सबके घुलने मिलने से दो ही चीजें बची रह गयी हैं। भाषा और बाज़ार। भाषा अमूर्त है और बाज़ार उसका मूर्त रूप। इसके परे अब न तो कोई इतिहास है न समाज न राजनीति। भाषा और बाज़ार के बीच अब कोई द्वंद्वात्मकता नहीं बची रह गयी है। मार्क्सवाद ने चीज़ों को देखने के द्वंद्वात्मक नज़रिए पर जोर दिया था। हर परिघटना के दो पहलू थे। अतियथार्थ ने इन पहलुओं को नष्ट कर दिया है। अब किसी किस्म का द्वंद्व-द्वैत बचा नहीं रह गया है। हर घटना महज़ एक भाषाई आवेग बनकर रह गयी है। भाषा के बाहर जो कुछ है वह बाज़ार है। लेकिन भाषा और बाज़ार किसी किस्म के द्वंद्व को निर्मित नहीं करते। उनके बीच किसी किस्म का बाइनरी सम्बन्ध अब नहीं बचा है।
अन्य उत्तरमार्क्सवादी चिंतकों की तरह बौद्रिया के पास भी इस स्थिति से निकलने का कोई समाधान नज़र नहीं आता। कई खण्डों में लिखी वैचारिक स्फूलिंग की पुस्तक वैचारिक स्फूलिंग में बौद्रिया स्मृतियों के धुंधले आईने में दुनिया को देखते हैं। वे एक वृहद् उदासी को रचते हैं। बौद्रिया यह मानते हैं कि समाज एक बड़े संक्रमण से गुजर रहा है। ऐसे में इस उदासी के पार किसी झिलमिल को देखना संभव नहीं। लेकिन अपने समय में ईमानदार होने की कोशिश यह भी है कि हम अपने वर्तमान के प्रति जवाबदेह बने। बौद्रिया का समस्त लेखन इसी वर्तमान की व्याख्या हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है। अपनी उदासी में मौजूद आशंकाओं के साथ बौद्रिया भविष्य का एक चिन्ह भर छोड़ जाते हैं।
अंतत: एक सच्चा पागल आदमी गली में दिखा, जिसे खुद से बात करने के लिए मोबाइल की जरुरत नहीं थी। 3

संदर्भ सूची
1. The Consumer Society: Myths and Structures, ‘s’age publication (English translation), 1998, page 31
2. Symbolic Exchange and Death, ‘s’age publication (Englishi translation), 1993. Page 8
3. Cool Memories V, Willey-2006, Page 14

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