तकनीक का अर्द्धसत्य और समयहीन संस्कृतियाँ

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    जुलाई 2016
श्रेणी तकनीक का अर्द्धसत्य और समयहीन संस्कृतियाँ
संस्करण जुलाई 2016
लेखक का नाम सुबोध शुक्ल





दूसरी कड़ी







'जब तक एक व्यक्ति भी यकीन करने के लिए मौजूद है तब तक ऐसी कोई कहानी नहीं है जो सच न हो सके।'
- पॉल ऑस्टर
'वह बात कभी मत बोलो जो दुनिया तुमसे सुनना चाहती है'
एक्सडस: गॉड्स एंड किंग्स फिल्म से एक संवाद
 
नुक्ते: पुर्ज़े: हासिल                      
उत्तर-आधुनिकता को रेखांकित करने वाला बिंदु, संस्कृति के चरित्र और उसके पैमाने के बुनियादी बदलावों की प्रकृति और मौजूदगी पर निर्भर होता है। संस्कृति लगातार अपनी द्वंद्वात्मकता को श्रेणीबद्ध करती है जिससे द्वंद्व का तर्क, अपनी आलोचनात्मक असहमति और वैज्ञानिक व्यवहारवाद के मद्देनज़र संस्कृति को किसी एब्सोल्यूट तक नहीं पहुंचने देता। जो द्वंद्वात्मक होगा वह सम्पूर्ण होगा भी नहीं। संस्कृति निर्विवादित और निरंकुश के विपक्ष में खड़ी होती है। इस तर्क से वह व्यक्ति और निजता के प्रतिपक्ष में भी होती है। हम परम्पराओं और रीतियों को संस्कृति कहने के आदी हो गए हैं। परम्परा, यथास्थितिवाद को बनाए रखने का एक बर्बर प्रस्तुतिकरण है और संस्कृति सामाजिक अंतरालों के वर्गीय मनोजगत  की प्रक्रियाओं को उद्घाटित करने वाला एक अनुभव-तंत्र। यह परम्परा-संचालित पूंजी की उस छद्म-तकनीक का प्रतिघात भी है जिसमें उपस्थित इतिहासगत प्रतिगामी शक्तियों को, विकास और वर्तमान का स्थानापन्न बनाकर मानवीय-चेतना के बदले चलाया जाने लगता है। यह एक ऐसी विकासगामी प्रक्रिया है जो उत्तर-आधुनिक विचार-जगत की विषय-वस्तु को, व्यापकता के साथ सांस्कृतिक अध्ययन के क्षेत्र में आधारभूत स्थापनाओं की ज़मीन बनाने के लिये तैयार करती है। वस्तुपरक और पदार्थवादी ढाँचे से सीधे जुड़कर ये बदलाव, पहचान की निर्माण- प्रक्रिया को रूपांतरित मात्र ही नहीं करते बल्कि महत्वपूर्ण रूप से उसे संदिग्धता और अनिश्चय की प्रविधि में भी ढालते जाते हैं।
इसे विभिन्न कोणों और आयामों के साथ देखा जा सकता है। लेकिन गौर-तलब बात यह है कि कैसे पदार्थ संस्कृति को बेहद अराजक रूप से बिखरे प्रतीकधर्मी लेन-देन के बाज़ार आधारित व्यवस्था के अधीन कर देता है। ज्ञान और शक्ति का विशाल प्रसार, तकनीक के ज़रिये, हमारे यथार्थ-बोध की मंशाओं और उसकी जिरह कर सकने की सामथ्र्य को धता बताते हुए, संस्कृति के भीतर उत्पादित छवियों तथा सूचनाओं की एक रणनीतिक व्यवस्था तैयार करता है। इससे पहचान के एकीकरण और केन्द्रीयकरण का बोध, सांस्कृतिक अनुभवों के ठोस और तात्कालिक अनुभवों की बनावट को कमतर करना शुरू कर देता है। यहाँ इस बात का इल्म रहना चाहिए कि एकीकरण की प्रक्रिया, अनुभव को अमूर्त बनाती है फिर उसे अतिरेकपूर्ण दुविधाओं के मसीहाई अनुशासन में बदल देती है जिससे अनुभव किसी विचार से ज़्यादा एक शैली लगने लगता है।
परिवारों की सामाजिकता, धार्मिक अनुष्ठान, लोक-उत्सव, कार्यक्षेत्र, संस्थाएं, पड़ोस और सम्प्रदायगत तथा सांस्थानिक जीवन के अन्य प्रारूप, तकनीक की सार्वदेशिक वर्गीयता के द्वारा विभिन्न उप-संस्कृतियों में बदल दिए जाते हैं जिससे सामाजिक व्यवस्थाओं के बीच निरंकुश सापेक्षिकताओं का अन्त:विवाद शुरू हो जाता है और समग्रता का एक छायाभासी (आधुनिकता से अलग) रूपक आकार लेने लगता है। यह ध्यान रखना चाहिए कि समग्रता एक इतिहास-निरपेक्ष बोध है। यह पूर्णता का यूटोपिया है। अस्पष्टता और आकस्मिकता इसकी राजनीति है।
यह देखना उल्लेखनीय होगा कि कैसे यह तकनीक, सांस्कृतिक जीवन-शैलियों को मशीनी छवियों या मौ$िखक संस्कृति में विस्थापित कर देने की चालाकी रचती है? कैसे बहुलतावादी सभ्यताओं की जन-व्यवस्था, इतिहास की वैचारिक अस्मिता को आख्यानों के उपनिवेशवादी सौन्दर्यबोध में अपदस्थ कर देती है? ऐसे में संवाद की कार्यक्षमता और विमर्श की प्रतिनिधित्वकारी भूमिकाएं, एक दूसरे से ही टकराव की मुद्रा में आ जाती हैं। लोकाचार, क्षेत्रीयता और विरूपता के मुद्दे तथा अभिरुचियां ज़्यादा से ज़्यादा अवचेतन का हिस्सा बनने लगते हैं। इस तरह से रोजमर्रापन एक वर्चुअल इंजीनियरिंग का उत्पाद होकर सामने आने लगता है जिसमें जहां चेतना, देशकाल के रैखिक एजेंडे के बतौर काम करने लगती है वहीं विचार स्वयं को ही एक नस्ल में बदलना शुरू कर देता है जिससे कि अवधारणाओं और संरचनाओं के आत्म निर्णय, दर्शन की प्रौद्योगिक भ्रांतियों में तब्दील किये जाने लगते हैं। ऐसी स्थिति में सूचना और सम्प्रेषण के माध्यम, ज्ञान को व्यक्तिगत आस्वाद का विषय बनाकर समय को एक तरह के भावुक नियतिवाद में झोंक देते हैं जिससे कि प्रगति, विवेक और आधुनिकता की अभिव्यक्तियाँ, किसी पराभौतिक आशावाद और परिकल्पनात्मक ध्वंस की भविष्यवाणियों की तरह सामने आने लगती हैं। इस तरह से ज्ञान, सूचना में और मीमांसाएँ विज्ञापनों में रूपान्तरित कर दी जाती हैं और विश्व को अपना निजी स्पेस बनाने के जोखिम सामने आने लगते हैं - भय, भ्रम और भ्रंश के रूप में। यह संस्कृति, मनुष्यता का एक प्रति-दमन तैयार करती है जिसमें हम अधिक सर्वसत्तावादी, मताग्रही और धर्मांध समाज के मिथक का सामना करते हैं।
आश्चर्यजनक रूप से यह तकनीक, सांस्कृतिक उत्पादन और उपभोग के स्तर पर सामाजिक तथा भौतिक अंतराल को नष्ट कर देती है। अगर ध्यान से देखें तो हमें पता चलेगा की यह नए किस्म का प्रतीकधर्मी सूचनात्मक तंत्र अशिक्षित, प्रकृतिवादी, रहस्यवादी और इतिहास-शून्य संस्कृति का उत्तर-आधुनिक पुनर्जन्म है। यह एक तरह से मान्यताओं के रैंडम द्वंद्व की स्थिति है जहां एक केन्द्रीय और उतनी ही अनुमानित रह जाने वाली  संस्कृति अपनी स्वायत्त संरचना में मानवीय अनुभवों, प्रामाणिकताओं और संघर्षों पर कब्जा करने की कोशिश करती है। उन्हें कचरे में बदलने का प्रयास किया जाता है और साथ ही पूंजी की समग्रतावादी सैद्धांतिकी में रिसाइकिल करने की कोशिश की जाती रहती है।
संचार के दृश्य-माध्यम, लोक-व्यवहार को स्थगित कर देते हैं और उनकी जगह प्रकृति-विहीन उपभोक्तावादी संवेगों को संचालित करने लगते हैं। इस तरह से संवाद और सम्प्रेषण के रवैये एक तात्कालिक भावावेश भर बन कर रह जाते हैं। मीडिया, व्यवस्था की तर्क-योजना को शक्ति के अंतर्जगत और सरोकारों के जन-अनुशासनों के बीच खड़ा करती है और इस तरह से वह समग्रता और सार्वजनिकता के बीच एक दलाल की भूमिका अपनाने को तैयार हो जाती है। और इस तरह से सूचना ही हमारे दौर की संस्कृति बन कर खड़ी होती है जो सन्दर्भहीन है, जो अनौपचारिक है, प्रतिनिधित्वहीन है।
मार्शल मैक्लुहन के द्वारा दिए गए दिलचस्प जुमले 'ग्लोबल विलेज' से हम सांस्कृतिक सत्ता-संघर्ष और अस्तित्वगत निर्मितियों के सामूहिक एकत्रीकरण को ऐतिहासिक संरचनाओं के विपर्यय के तौर पर देख सकते हैं। विरोधाभासी रूप में जहां उच्च तकनीकवादी जन-संस्कृति, अस्तित्व और पहचान का निजीकरण या व्यक्तिकरण करती है तो साथ ही निर्मितियों के रूप, स्रोत और चारित्रिक संपदा का सामूहिकीकरण भी करती है। परिणामस्वरूप, मशीनी या यांत्रिक बिरादरी की एक वैश्विक अकादमीयता जन्म लेती है (सूचना, मनोरंजन, व्यापार, राजनीति) और इस तरह से ऐतिहासिक रूप से विकसित और स्थापित एक निजी और सार्वजनिक अवकाश पूरी तरह से तितर-बितर हो जाता है।
उत्तर-आधुनिकता को सांस्कृतिक रूपांतरण और अतिक्रमण के रूप में समझने के लिए हमें और गहराई से आधुनिकता से उत्तर-आधुनिकता के संक्रमण को समझने की आवश्यकता है। इन सांस्कृतिक किस्मों के अंदरूनी ताल्लुकातों की छानबीन, उत्तर-आधुनिकता की पूर्ण-विकसित परिभाषा, आधुनिकता के साथ उसके विस्तृत सांस्कृतिक अवचेतन और आलोचनातमक चरित्र की तुलना करके ही हो सकेगी। यह तुलना सामाजिक संबंधों और अनुभवों की आधुनिकता के कुछ बड़े सवालों से शुरू होती है जिससे आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता का पारस्परिक विपर्यस्त ढांचा जितने राजनीतिक हस्तक्षेप के साथ सामने आता है उतने ही समय के त्रासद पोट्र्रेट के रूप में भी। और यही ढांचा उत्तर आधुनिकता की अवधारणा को, पहचान-बोध की समस्या को रेखांकित करने वाली सांस्कृतिक अवस्था के रूप में प्रतिपादित करता है।
जुमले: अटकल: ख़याल
कुछ समाज-वैज्ञानिकों और मानव-शास्त्रियों ने आधुनिकता को मान्यताओं, दार्शनिक और नैतिक संभावनाओं की एक व्यवस्था के रूप में रेखांकित किया और साथ ही बौद्धिक, कलाधर्मी प्रकल्पों और परम्पराओं के तौर पर चिन्हित करने का भी प्रयास किया है। जबकि अधिकाँश लेखकों और इतिहासकारों ने आधुनिकता को अवस्थाओं के एक विशेष समुच्चय के रूप में स्वीकार किया है जो विभिन्न ऐतिहासिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं के वैचारिक-संघर्ष से जुड़ी हुई थी जिसमें सांस्थानिक मानसिकताओं और मनुष्यगत सत्ता के पुनर्निर्माण को वरीयता दिए जाने पर जोर रहा।
आधुनिकता के सम्बन्ध में इन दोनों तरह की धारणाओं के बीच में जितना आपसी संयोजन और सादृश्यता तलाशने का काम किया जाता है, विचारधारा, भौतिकता और विवाद-जनित ढाँचे के बीच का तनाव इस कदर बढ़ता जाता है कि वह आधुनिकता की मूल भावना को ही चोट पहुंचाने का काम करने लगता है। किसी तरह की सर्वसमावेशी नियति जो असम्बद्ध मानकों और अविकसित मंतव्यों के ज़रिये आधुनिकता के सांस्कृतिक अभियान को विभाजित करने वाली है वह विचार, व्यवसाय और व्यवहार  के बीच पनपने वाली धारणाओं की अंतक्र्रिया को एक गैर-आलोचनात्मक पूर्वाग्रह में तब्दील करने लगती है।
यदि ठीक से रुक कर देखा जाय तो पायेंगे की उन्नीसवीं शताब्दी से आधुनिकता ने ऊर्जा और शक्ति के तमाम प्रारूपों और दिशाओं को स्वायत्त किया है जिससे कि संस्कृति ने अपनी 'डायलेक्टिक्स' को 'बाइनरी' में विकेन्द्रित कर लिया है और प्रकाशमान तथा अन्धकारपूर्ण, प्रगतिशीलता और कट्टरपंथ, स्वतन्त्रता और दमन के मिश्रित तथा समानांतर रास्ते खोल दिए हैं।
आधुनिकता के भीतरी इलाकों के प्रतिरोध, अलगाव और आपसी विरोधाभास; ज्ञानोदय की प्रतिज्ञाओं के साथ मिलकर ऐसी संकटकालीन परिस्थिति का निर्माण करते हैं जिसके कारण उत्तर-आधुनिकता किसी चिंतन से अधिक एक प्रतिक्रिया के तौर पर सामने आती है और एक मनोभाव का आकार लेने लगती है जिसे कुछ लेखक 'आधुनिकता का नकारवादी सत्य' भी कहते हैं। यह ध्यान देने वाली बात है की उत्तर-आधुनिकता एक सैद्धांतिक आन्दोलन के बतौर जैसा कि हेबरमा कहते हैं की 'आधुनिकता के अंतर्गत ही पैदा होने वाली एक प्रति-आधुनिकता है' जिसे कि नीत्शे और हेडेगर ने उत्तर-आधुनिक संदेहवाद के बहुत पहले ही वैज्ञानिक तर्क और विकास के प्रतिमानों के तौर पर स्वीकृत करना शुरू कर दिया था।
बीसवीं शताब्दी की दर्दनाक घटनाएं, प्रति-ज्ञानोदयी दार्शनिकता की बड़े स्तर पर की गयी भविष्यवाणियों को सच साबित कर रही थी। जिसके साथ विकास के आधुनिकतावादी बोध की समीक्षा प्रारम्भ हो रही थी जो साथ ही अधिक दकियानूसी और निषेधात्मक झुकावों वाली चेतना (उत्तर-आधुनिक) के बीच अधिक चर्चा पाती चली गयी। हालांकि इस फैसले पर पहुँच जाना भी एक तरह का विचारधारात्मक शोषण है कि उत्तर-आधुनिकतावाद मौलिक रूप से आधुनिक विचार-तंत्र का दमन है। यह भी देखने में आया है कि आधुनिकता की आतंरिक विभक्तियों के साथ उत्तर-आधुनिकता का सम्बन्ध बड़ा कम पहचाना गया है और यह भी सच है कि उत्तर-आधुनिकतावाद और उत्तर-आधुनिकता के फर्क को समझे बिना ही कुछ लेखक उत्तर-आधुनिकता को एक मानसिक स्थिति कह देते हैं और यह मानते हैं कि उत्तर-आधुनिकता, आधुनिकता को उसके गुणात्मक और विरोधभासी आयामों को सैद्धांतिक रूप से आत्मसात करने की एक कोशिश है।
रिचर्ड रॉर्टी ने उत्तर-आधुनिकता को आधुनिकता को स्वयं को समझने की प्रक्रिया कहा है। ऐसी ही मिलती जुलती बात और कही गई है कि उत्तर-आधुनिकता एक पूर्ण विकसित आधुनिकता है जो अपने ऐतिहासिक काम के संभावित परिणामों का लेखा-जोखा भर है। तो कुल मिलाकर अधिकांश सिद्धांतकारों की खेप ने मिलकर उत्तर-आधुनिकता को आधुनिकता की ही एक आलोचना-पद्धति या अनुशासन माना है जो लगातार स्वयं को पुनर्परिभाषित, पुर्नस्थापित और पुनर्निर्धारित करती रहती है। और यही वह बिंदु है जो आधुनिकता के अतीतजीवी और पौराणिक स्वरुप वाले अनुभवों तथा ज्ञान से उसे अलग करता है।
ल्योतार ने उत्तर-आधुनिकता को आधुनिकता का एक 'सामरिक अभियान' कहा है जो आधुनिक इतिहास और प्रौद्योगिकी का एक श्वेत-पत्र प्रस्तुत करता है। वे इसे कोई विलग, उखड़ी हुई या विभक्त स्थिति नहीं मानते हैं और उत्तर-आधुनिकता को एक 'आवर्ती क्षण' कहते हैं जो लगातार पुरानी और नई आधुनिकता के बीच घूमता रहता है। इन अवधारणाओं में उत्तर-आधुनिकता को आधुनिकता के अंदरूनी कैऑस और रायट के साथ पैदा हुए वैकल्पिक क्षयकारी पुनरुत्थानवादी प्रभावों का हिस्सा मान लिया गया है। अपवाद रूप में कुछ सिद्धांतकारों को अलग कर दें तो इन तमाम लेखकों के लिए उत्तर-आधुनिकता एक संस्था है। न कोई अलग दौर और न ही कोई विलग सैद्धान्तिकता।
इसके उलट कुछ दूसरे मीमांसकों का भी अपना वर्ग है जिसमें बौद्रिया, हार्वी, जेमेसन और स्कॉट लैश जैसे सिद्धांतकार हैं जो नमूने के तौर पर उत्तर-आधुनिकता और आधुनिकता के काल-विभाजन के लिए पूंजीवादी समाज के रूपांतरण के परिप्रेक्ष्य में एक संभावित ज़मीन को तलाशते हैं और उसे दो तरह की अकादमीय तकनीक में तोड़ते हैं- उत्तर-आधुनिकता एक सैद्धांतिक और ज्ञान-मीमांसीय स्थिति के रूप में एवं उत्तर-आधुनिकता एक सांस्कृतिक दशा के रूप में जो कि आर्थिक संरचनाओं और औद्योगिक कला-रूपों की शिनाख्त के साथ जुडी हुई है। यहीं से दोनों स्थितियों में एक आवयविक विभाजन दिखाई देने लगता है।
बौद्रिया ने सबसे पहले आधुनिकता के विकेन्द्रित और घटकीय चरित्र का प्रतिपादन किया - आधुनिकता की क्षणिकता, अनित्यता और आकस्मिकता उसके व्यक्तित्व का आधा हिस्सा है और बाकी हिस्सा शाश्वत तथा अचल है। (जैसे- औद्योगिकता और तकनीक उसका पहला हिस्सा है और दूसरा हिस्सा है- वैज्ञानिकता)। हार्वी इसी विभाजक-रेखा के साथ आगे बढ़ते हैं और लिखते हैं कि आधुनिकता 'वाद' एक सौंदर्यबोधी आन्दोलन के रूप में आधुनिक'ता' के इन दोनों विपरीत ध्रुवों से टकराता है, सामयिकता (तात्कालिकता, क्षणिकता) आधुनिक अस्तित्व को नियंत्रित करती है और शाश्वतता, सार-तत्व तथा जागतिक सत्य की खोज में तात्कालिक अनुभवों की अल्पकालिकता को अतिक्रमित करती है। इस पूरी प्रक्रिया में जिस एक बात को नज़रंदाज़ नहीं करना है वह है दोनों अवस्थाओं के बीच में काम करने वाला ऐतिहासिक तनाव।
आधुनिकता एक समाज-वैज्ञानिक कार्रवाई के तौर पर उस आकांक्षा से अपनी बौद्धिक शक्ति को संचालित करती है जो अबाध विकास और प्रगति के प्रभावों को निर्देशित, नियंत्रित और रैश्नलाइज़ कर सके। जबकि ज्ञानोदय प्रकल्प ने आधुनिकता को गति तो दी पर बुर्जुआ तर्क, विचार के आरोपण और सार्वभौमिकतावादी उत्पात पर प्रबंधन के ज़रिये इसके निष्कर्षों के लिए एक िफल्टर का काम भी किया। ज्ञानोदय, विकास के भरोसे, मानवीय प्रेरणा तथा इच्छाओं के अनुमानों के द्वारा जो स्व-संचालित विषयों पर आधारित थे, प्रयोग में लाया जाता रहा। खुल कर कहा जाय तो आधुनिकता ने स्वयं को दार्शनिक, नैतिक और राजनीतिक तौर पर एक दूसरे में मिलाना शुरू कर दिया जिसे ल्योतार 'महावृत्तांत' कहते हैं अर्थात वैश्विक दावों के प्रबंधन के द्वारा महान ऐतिहासिक शक्ति-पाठ का निर्माण जो आधुनिकता के संकट-काल को चालू और भरती की छवियों से ढंकने को तैयार होता रहा।
मिक्सचर: कन्फेशन: मैकेनिज्म 
अक्सर समूह व्यक्तिवाची हो जाता है. नायकत्व से भरे आन्दोलन, विकास के आदर्श को खोजने के लिए भौतिक पक्षधरताओं को पौराणिक आत्म-संतुष्टि का रूप देने लगते हैं और अपने इस आदर्श की पूर्ति के लिए नए मानव और सामूहिक अस्तित्व की पहचानों के साथ स्वयं को जोड़ लेते हैं ('नागरिक' और 'श्रमिक'). इस तरह से आधुनिकता टूट, जीर्णोद्धार और मसीहाई आविष्कारों की लम्बी कहानी है जहां समाज और परम्परा के विघटन और औद्योगिक तथा शहरी उपस्थितियों की जडग़्रस्तता को तर्क और विज्ञान के जरिये, विकास के मिथक को बौद्धिक उदारवाद के ज़रिये, मानवीय वस्तुनिष्ठता के एकीकरण और सामूहिकतावाद को वैश्विक मानकीकरण के ज़रिये आंकलित किया जाता है।
आधुनिकता की सनद के तौर पर, बौद्लेयर बेशुमार शहरी और औद्योगिक छवियों को आधुनिक परिस्थितियों में देखते-समझते हैं और उनकी क्षणिक आवेगमयता को प्रदर्शित करने के लिए - विकास, नवीनता, बदलाव, गति, विखंडन, अनित्यता जैसे शब्दो को जो आधुनिकीकरण की संचालक शक्ति हैं बारबार सामने लाते रहते हैं। यही संचालक शक्ति आधुनिकता की सर्वकालिक गति, पृथक्करण और परिवर्तन का निर्माण करती रहती है। यह ध्यान रहना चाहिए की बिना आर्थिक-संयोजनों के आधुनिकता-निर्माण की कसौटी पूरी भी नहीं होती।
अपनी पूरी शक्ति के साथ पूंजीवादी-व्यवस्था एक ताकतवर सत्ता-समुच्चय के रूप में व्यक्ति, समुदाय और समाज को अधीन करती है; दोनों तरह से- भरोसा दिलाने वाले और भयग्रस्त करने वाले रूप में, अलगाने वाले और उलझा देने वाली अवस्था में, जिसमें अर्थ और पहचान नियमित भौतिक और सामजिक परिवर्तन की दशा के भीतर स्वयं को लगातार तोड़ते और बनाते रहते है। इसीलिये एक कंस्ट्रक्ट के रूप में उत्तर-आधुनिकता इन तमाम अवस्थाओं के परिणामों और निष्पत्तियों के भीतर एक नई जागरूकता और पुनर्विचार की प्रक्रिया को  सामने लाती है। बुनियादी तौर पर बौमन, गिडिन्स और ल्योतार की उत्तर-आधुनिक स्थापनाओं को आधुनिकता के समापन के बतौर देखा जाता है जिसमें उत्तर-आधुनिकता, आधुनिक जीवन-शैली की उभयवृत्ति (जो एक साथ कट्टर और प्रगतिशील है) को सामने लाने की कोशिश करती है।
संबंधों की मिश्रित टकराहटों के बीच बौद्रिया और कुछ अन्य सिद्धांतकारों ने यह बहस की है की उत्तर-आधुनिकता, एक सामाजिक और सांस्कृतिक उत्पाद के रूप में आधुनिकता से एक गुणात्मक निष्कासन सुनिश्चित करती है जहां अर्थ और पहचानों को संकट के स्रोत और प्रकृति को बुनियादी तौर पर जन-संचारों की निरंकुश सांकेतिकता में रूपांतरित कर दिया जाता है। बौद्रिया के परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है की उत्तर-आधुनिकता वायदों और धमकियों का एक आवश्यक संचयन है जो तकनीक को अतियथार्थवादी लिप्साओं और मरीचिकाओं के अर्थशास्त्र में लोकेट करता है और इनसे पैदा होने वाले सार्वजनिक समय के पाखण्ड को अन्योक्तिपरक बना देता है जिससे वैयक्तिकता अनुभव के आघात को तेजी से सोख ले और अनुभव, स्मृति में तब्दील न हो पाए।
इस तरह से संस्कृतियों के आभासी संस्करण और विचारों की प्रतिलिपियों का समयांतराल में रूपांतरण होता रहता है। उन्नीसवीं सदी में और बीसवीं सदी की शुरुआत में यह सोचना बड़ा मुश्किल था। आर्थिक और तकनीकी प्रगति के परिणामों के रूप में विश्वयुद्धोत्तर सांस्कृतिक अवस्थाओं ने एक नाटकीय बदलाव की तरह अपनी मौजूदगी ज़ाहिर की है। इन अर्थों में उत्तर-आधुनिकता हमारे समय की पहचान के संकट, उसकी उपादेयता और चुनौती को व्यापक स्तर पर प्रभावित करती है।
यदि हम यह समझना चाहते हैं कि उत्तर-आधुनिकता अकादमीयता है या समाज-व्यवहार, कोई वैचारिक रणनीति है या फिर सांस्थानिक दावेदारी, कोई दार्शनिक चौधराहट है अथवा सौन्दर्यशास्त्रीय ख़ुशफ़हमी या कि वह कहाँ से चलकर कहाँ को जा रही है तो हमें अपनी संस्कृति के प्रत्येक क्षेत्र में उसकी उपस्थिति और दखलंदाज़ी के ताने-बाने को ठीक से समझना होगा -

  • यह उत्तर-आधुनिकता ही है जो संस्कृति को बेसरोकार, उदासीन और लगभग विरक्त स्थिति मानती है जिसका कोई भी नैतिक लक्ष्यार्थ नहीं है (आधुनिकता के उलट)। उत्तर-आधुनिकता नैतिकता को सामाजिक-इतिहास का 'बंद अनुभव' मानती है जो एक वर्चस्ववादी टेक्नोलॉजी की तरह, घटनाओं और पूंजी के गठजोड़ को, व्यक्तिगत संपत्ति की तरह संचालित करने के लिए उद्यत रहती है। नैतिकता के सापेक्ष सांस्कृतिक तटस्थता  का उत्तर-आधुनिक मंतव्य इतना भर ही है की वह नैतिकता को लौकिक मनोलोक में अनूदित नहीं करती। नैतिकता एक आत्मलिप्त, निरुद्देश्य और साम्राज्यवादी हस्तांतरण के अलावा और कुछ नहीं है। यह परम्पराओं, विश्वासों और मान्यताओं का स्थानिक प्रभुतावादी समूहों में कारपोरेटीकरण है।
  • यदि देखा जाय तो तो उत्तर-आधुनिकता का सबसे उत्तेजक और विवादास्पद बिंदु सत्य की संभावना का पूरी तरह से नकार है। अस्तित्ववाद से अपने सूत्रों और निशानों को उठाती हुई, उत्तर-आधुनिकता यह तय करती है कि सत्य सामाजिक समूहों द्वारा किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए निर्मित किये जाते हैं और फिर दूसरों पर उन्हें दमन और उत्पीडन के अस्त्र के बतौर प्रयोग में लाया जाता है। इसलिए इसका मूल उद्देश्य भाषा और समाज की संगतियों (संस्कृति) का विकेंद्रीकरण है। उत्तर-आधुनिक मीमांसक के लिए सत्य और तथ्य सिर्फ सूक्तियों और सुभाषितों में ही शेष रह गए हैं और वस्तुनिष्ठ सत्य के दावे, शक्ति के खेल को छिपाने के अलावा और कुछ नहीं हैं। जो सभी के लिए सत्य को सर्वांगीण, प्रामाणिक और प्रासंगिक औद्योगिकता की तरह उपलब्ध कराने का दावा कर रहे हैं वे केवल अपने समुदाय के दूसरे समुदाय पर वर्चस्व और कब्जे को ही सुरक्षित रखना चाहते हैं। आधुनिकता ने ईसाइयत के मुकाबले वैज्ञानिकता को खड़ा किया था पर सत्य की समग्रता और एकत्व को बनाए रखा था। उत्तर-आधुनिक, सत्य के एकाधिकारवाद और कुलीनतंत्र को चुनौती देता है और उसके एकत्व तथा अधिनायकत्व को तोड़ता है।
  • अगर आधुनिकता ने ईश्वर की मृत्यु घोषित की है तो उत्तर-आधुनिकता 'स्व' की धारणा को खारिज करता है। आधुनिकता ईश्वर के अवसान पर व्यक्ति और मानव को स्थापित करती है पर उत्तर-आधुनिक, पहचान-बोध को हिंसक और प्रवंचनापूर्ण कार्रवाई मानता है। निश्चित ही मानव और व्यक्तित्व-बोध पर उत्तर-आधुनिक ज्ञान-व्यवस्था ने विनाशकारी प्रभाव डाला है। अगर कुछ भी समग्र नहीं है, सत्य सापेक्षिक है तो कुछ भी निश्चित और स्थिर नहीं है। साथ ही जीवन को भी किसी चरणबद्ध और आत्म-निर्भर कारोबार का हिस्सा नहीं माना जा सकता और वह सिर्फ अंदेशों और रुझानों का ही एक बंदोबस्त है। यदि यथार्थ सामाजिक निर्मिति है तो नैतिक निर्देश, उत्पीड़क शक्ति के नकाब की तरह काम करने लगते हैं और व्यक्तिगत पहचान धुंधलाने लगती है।
  • ऐसी संस्कृतियों में नायक और मसीहाई विचारों की संभ्रांत तथा अधिकारवादी नस्लीयता का नैरेटिव टूटता है और उनकी जगह संघर्ष करते बेरोजगार, सड़क पर जीने को मजबूर बेघर, 'चरित्र' के रूप में उभरने लगते हैं। एक कानून-विहीन उप-संस्कृति, जो वास्तविक न होते हुए एक तरह के आभासी सत्य को निर्देशित और क्रियान्वित करती है जो सिर्फ एक चिन्ह, शिल्प और आंकड़ा भर है, आकार लेने लगती है। शहरी गिरोहों का उभार होने लगता है जहां पहचान-शून्यता है और सामाजिक कायदे समाप्त हो गए हैं। अपनी-अपनी संस्थाओं, समुदाय और कार्यक्रमों की सामूहिक और प्रतीकात्मक पहचान के ज़रिये अपनी निजी और एकान्तिक पहचान को खोने का सिलसिला तेजी से बढऩे लगता है। इस तरह से एक उत्तर-आधुनिक व्यक्ति उस आधारशिला को खारिज करता है जो उसे पहचान देती है। यह बोध धीरे-धीरे लैंगिक-व्यवहारों के स्टीरियोटाइप को भी बाधित करने लगता है।
  • पहचान का अवसान समानांतर रूप से मनुष्य के इस ब्रह्मांड में भी उसके स्थान को अपदस्थ करता है. आधुनिकता ने ब्रह्मांड के केंद्र से ईश्वर को विस्थापित किया था और मनुष्य को इसकी बागडोर दी थी पर उत्तर-आधुनिकता मनुष्यता को भी अपदस्थ करती है। मनुष्यता को एक निरुद्देश्य जैविकता की तरह देखे जाने की शुरुआत है ये जिसे एक उत्तर-आधुनिक जुमले में 'सूर्य के बाद का तीसरा पत्थर' कहा जाने लगा है। मनुष्य को परमाणु-समुच्चय मानना और तमाम ब्रह्मांडीय वस्तुओं की तरह उसे भी एक वस्तु जैसा मानने ने यह बतलाने की कोशिश की है कि वैश्विक केंद्रपरकता का सिद्धांत, शून्य हो गया है जिसने पर्यावरणवाद और प्रकृतिवाद को अस्तित्व में लाने की कोशिश की है। इस तरह से यह समझा जा सकता है कि जब इच्छाएं, लक्ष्य, उम्मीद और स्वप्न अर्थहीन घोषित कर दिए जाते हैं तो साथ ही व्यवहार, क्रिया, संघर्ष, प्रतिरोध और प्रतिकार के तर्क भी निराधार हो जाते हैं। यह एक तरह से परोक्षत: नियतिवाद का पुनर्सृजन है।
  • उत्तर-आधुनिक सिद्धांतकार 'महा'(Meta) उपसर्ग का इस्तेमाल उत्तर-आधुनिक उपकरणों के सांस्कृतिक इस्तेमाल को व्याख्यायित करने के लिए करते हैं। महाख्यान बयानों का बयान है या यह कहा जा सकता है कि आधुनिक मनुष्य की अपने ही पूर्ववर्ती विचारों पर अपने समकालीन विचारों की निर्मिति से इतिहास को लिखने की क्षमता है। महाख्यान एक उत्तर-आधुनिक सांस्कृतिक अभियान है जो यह बताता है कि जो कुछ मौजूद है वह छवि है और इन कल्पनाओं और छवियों के छायाभास से ही यथार्थ को छानना है। इस तरह से टेलीवीज़न और रंगमंच, महा-कथानकों को इस्तेमाल करने वाला श्रेष्ठ उत्तर-आधुनिक कला रूप है जो अराजक, कार्य-कारणहीन, अतार्किक और आवारा पूंजी द्वारा संचालित संभ्रमित यथार्थ का प्रस्तुतिकरण है (नरसंहार और बलात्कार के दृश्य के बीच एक खिलाड़ी का हंसता हुआ चेहरा)। यह स्थिति यथार्थ और अयथार्थ के बीच एक दुविधा पैदा करती है। खबर, इतिहास और जीवन को मिलाकर सभ्यता और अतीत का एक परिकल्पनात्मक और अनुमानित ज्ञान वास्तविकता की तरह परोसा जाने लगता है। वस्तु-संदर्भित सत्य को अधिक से अधिक धुंधला बनाए जाने का प्रयास किया जाने लगता है और इस तरह से प्रयोग, अध्ययन और शोध, लोक-रुचियों पर आधारित होकर कला को निवेश की तरह इस्तेमाल करने लगते हैं।
  • भाषा उत्तर-आधुनिक मनुष्य का सबसे महत्वपूर्ण टूल है। यथार्थ वस्तुओं की सतह में बसता है और भाषा एक सतही उपकरण है घटनाओं को वैसा 'घुमाव' देने के लिए जैसा वह परिस्थिति के लिए सबसे लाभप्रद हो। ध्यान रहे कि उत्तर आधुनिक मानता है कि सारे मंतव्य, सामजिक शिल्प हैं और उन्हें विकेन्द्रित किया जाना चाहिए। मंतव्यों और निहितार्थों को पाठ के भीतर गुप्त रखना लेखक का एजेंडा है। यह एजेंडा आधुनिकतापूर्व दौर से ही मनुष्य और व्यक्ति पर थोपा जाता रहा है। यह मनुष्य की सोच और उसकी क्रियाशक्ति पर सत्ता-तंत्र का चालाक और महीन नियंत्रण है. उत्तर-आधुनिक आलोचना की आम धारणा है 'स्व का विलयन' - इस बात का दावा करते हुए कि व्यक्ति एक फैंटसी है और बुर्जुआ विचारधारा की निर्मिति है। उत्तर-आधुनिक कर्ता को विकेन्द्रित करते हैं यह दिखलाकर कि मानवीय चेतना अपने आप में सामाजिक शक्तियों और सत्ता-संरचना की भाषा की ही निर्मिति है। 'स्व' भाषा की कैद से निकल नहीं सकता जिसके ज़रिये संस्कृति स्वयं को सांकेतिक बना लेती है और स्थापत्य को सुरखित रखती है जिसके कारण हमें पता चलता है कि हमें क्या सोचना है, हालांकि उत्तर-आधुनिक यह मानते हैं कि विश्व एक पाठ है और हमारे तमाम सांस्कृतिक प्रतिरूप प्रभुतावादी शक्तियों द्वारा हमारे लिए गठित किये गए हैं। लिखित दस्तावेज़, नियम, $कानून, उपदेश और शब्दकोष सब 'अन्य' द्वारा संचालित हैं और इस अन्य की कोई प्रत्यक्ष सत्ता नहीं है। विभिन्न संगठित मत और सत्ताएं ही शब्दों को उनका अर्थ और लक्ष्य देती हैं।
  • उत्तर-आधुनिक उद्देश्य, भाषा को विखंडित करने का यही है कि शब्दकोशों और भाषा की नियत संस्कृति को खारिज करके वर्चस्वशाली सत्ता-तंत्र के पूर्वाग्रहों और लक्ष्यार्थ को समझने की कोशिश की जाय। 'विखंडनवादी, वैज्ञानिक भाषा में अन्तर्निहित रूपक को विश्लेषित करने का प्रयास करता है। जब वह प्राकृतिक नियम (Natural Laws) के विषय में बोलता है तो राजनीतिक बिम्ब का इस्तेमाल कर रहा होता है। वैज्ञानिक जिस 'नियम' या 'कानून' का निर्माता होता है वह प्राकृतिक व्यवस्था पर मानवीय और राजनीतिक शक्ति को थोपने की कोशिश करता है। यहाँ तक कि तकनीकी सिद्धांतों में जैसे की 'DNA कार्यपद्धति का प्रतिनिधि (Master) आणविक सिद्धांत' में भी एक लैंगिक पक्षपात या विभेद छिपा रहता है (Master - नर सत्ता)। जब वैज्ञानिक कहता है कि वह समुद्र के रहस्य को उघाड़ (unveil) रहा है या फिर प्रकृति के रहस्य को भेद(Penetration) रहा है तो ऐसे में वह यौन-बिम्बों का इस्तेमाल करता है। सूक्ष्मता से देखें तो निर्वस्त्र करना, छेड़-छाड़ करना सारे विषय स्त्री-तत्व से जुड़े हुए हैं। अत: तथाकथित वैज्ञानिक वस्तुनिष्ठा और तमाम पश्चिमी विज्ञान की तकनीकी उपलब्धियां वे पाठ है जो प्रकृति (स्त्री) को अधीन, शोषित और उसके साथ यौन दुराचार करने की पुरुष इच्छा के लिये न$काब का काम करती हैं।'  इस तरह से भाषा, सत्ता-तंत्र के व्याकरण में घुली-मिली है और यथार्थ की भाषा तथा भाषा के यथार्थ में लगातार एक दूरी बनी रहती है जो विचारधाराओं को अपने सीमांतों से अलग नहीं करती।
  • कला के सन्दर्भ में भी कमोवेश भाषा का यही स्वरुप दिखाई पड़ता है। मध्ययुगीन कला, प्रतिनिधिवादी थी मतलब जैसा देखा जाता था वही कलाकार द्वारा उकेरा जाता था। आधुनिकतावादी कला अमूर्त थी जहां कलाकार प्रत्यक्ष साधनों के साथ अपने आतंरिक आनुभविक गठन को भी जोड़ता था और दिख रही वस्तु को तमाम आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक समीकरणों में तोड़ देता था। उत्तर-आधुनिक कला स्फुरणवादी है। यहाँ वस्तु या कलाकार से अधिक उपभोक्ता महत्वपूर्ण हो जाता है। चूंकि दुनिया एक पाठ है और हम हमारा यथार्थ रचते हैं तो कलाकार के काम की मूल्यवत्ता उपभोक्ता की प्रतिक्रिया पर निर्भर रहने लगती है। इस तरह के फैसले चौंकाने वाले हैं - अप्रत्याशित या आघात के मानक ने सौन्दर्य के मानक को स्थानापन्न कर दिया है। सौन्दर्य, अनुशासन और मंतव्य जैसी अवधारणाओं को नए किस्म के व्यापारिक सौन्दर्य-बोध के द्वारा लगातार चुनौती मिल रही है, जैसे- विरूपता, असम्भाव्यता, ध्वंस और शून्यता। अब उपभोक्ता को आनंद देना उद्देश्य नहीं बल्कि उस पर विकेन्द्रित अनुभवों के द्वारा हमला करना लक्ष्य है।
  • इस ज्ञानानुशासन में देह का मानकीकरण भी शामिल है। उत्तर-आधुनिकता देह को ज्ञान की सांस्कृतिक राजनीति का ऐन्द्रिक मॉडल मानती है जिसे वह बहुलतावादी समाजशास्त्र की सामूहिक तकनीक के बतौर इस्तेमाल करती है। इस तरह से भाषा की ट्रिक में देह एक फार्मूले की तरह जुडती है। इसे भी उत्तर-आधुनिक परियोजना की एक ज़रूरी कड़ी के तौर पर देखा जाना चाहिए।

इस तरह से हम देखते हैं कि कैसे उत्तर आधुनिकता औदात्य की प्रतिक्रिया में, कलात्मक नेतृत्व की चेतना को एक भयमिश्रित जटिलता की ओर ढकेलना शुरू कर देती है। मनोदशाओं को स्वायत्त करने वाली छवियों का एक समूचा बहुराष्ट्रीय रहस्यवाद हमें किस तरह वैश्विक पूंजी के अपरिभाषेय आश्चर्यलोक में खड़ा कर देता है। वस्तुस्थितियां संघर्ष की संज्ञानात्मक प्रणाली से दूर होकर आत्मपरक अनुसंधानों के पॉलिमिकल विवेचन में तब्दील होने लगती हैं। और यह भी कि किस तरह से दर्शन और ज्ञान के विभिन्न अनुशासन, सत्य के आधिकारिक और संस्थागत अर्थ को हमारे अंत:करण में लगातार पहुंचा रहे हैं।

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