इसके पूर्व कवि की लम्बी कविता ‘पुरातत्ववेत्ता’ पहल पुस्तिका के रूप में छपी और मराठी तथा अंग्रेजी में सम्पूर्ण अनुवाद हुई।
दिन जैसा दिन नहीं था न रात जैसी थी रात धरती की तरह धरती नहीं थी वह न आसमान की तरह दिखाई देता था आसमान ब्रह्मांड में गूँज रही थी कुछ बच्चों के रोने की आवाज सूर्य की देह से गल कर गिर रही थी आग और नए ग्रहों की देह जन्म ले रही थी
अपने भाईयों के बीच अकेली बहन थी पृथ्वी जिसकी उर्वरा कोख में भविष्य के बीज थे और चांद उसका इकलौता बेटा जन्म से ही अपना घर अलग बसाने की तैयारी में था
इधर आसमान की आँखों में अपार विस्मय कि सद्यप्रसूता पृथ्वी की देह अपने मूल आकार में वापस आने के प्रयत्न में निरंतर नदी पहाड़ समंदर और चट्टानों में तब्दील हो रही है रसायनों से लबालब भर चुकी है उसकी छाती और मीथेन, नाइट्रोजन, ओषजन युक्त हवाओं में सांस ले रही है वो यह वह समय था देह के लिए जब देह जैसा कोई शब्द नहीं था अमीबा की शक्ल में पल रहा था देह का विचार अपने ही ईश्वरत्व में अपना देहकर्ता था वह जिसने हर देह में जीन्स पैदा किए डी ऑक्सी राइबो न्यूक्लिइक एसिड अपनी सघनता में रचते गए पाँव के नाखून से बालों तक हर अंग जो हर सजीव में एक जैसे होते हुए भी कभी एक जैसे नहीं हुए जो ठीक पिता की तरह उसकी संतानों में नहीं आए और न संतानों से कभी उनकी संतानों में
शिशिर की सर्द रातों में हमारी देह में सिहरन पैदा करती शीतल हवाएं कल कहाँ थी कल यही मिट्टी नहीं थी नहीं था यही आकाश आज नदी में बहता हुआ जल कल नहीं था उस तरह देह में भी नहीं था वह अपने वर्तमान में कहीं कुछ तय नहीं था कि उसका कौन सा अंश किस देह में किस रुप में समाएगा कौन सा अंश रक्त की बूंद बनेगा कौन सा माँस पृथ्वी की प्रयोगशाला में किस कोशिका के लिए कौन सा रसायन उत्तरदायी होगा कुछ तय नहीं था
पंछियों की चहचहाहट और मछलियों की गुडग़ुड़ाहट में देह के लिए जीवन की वह पहली पुकार थी कभी अंतरिक्ष से आती सुनाई देती जो कभी समुद्रतलों के छिछले पानी से आग्रह था जिसमें भविष्य की यात्राओं के लिए साथ का
देह और जीवन की सहयात्रा जो सहस्त्राब्दियों से जारी है जहाँ एकाकार हो चली मनुष्य की शक्लों में झिलमिलाता है किसी जाने पहचाने आदिम पुरखे का चेहरा आज के मनुष्य की देह तक पहुँचने से पहले जाने कितनी यंत्रणाओं से गुजरी होगी उसकी देह किस तरह अपनी क्षमता और आश्चर्यों से उबरकर दैहिक नियमों के सूत्र रचे होंगे उसने किस तरह सिद्ध की होगी देह में जीवन की उपयोगिता कैसे गढे गए होंगे स्त्री-पुरुष अंगों के अलग अलग आकार और जीवन में उनकी भूमिका तय की गई होगी
आइने में अपने चेहरे पर तिल देखते हुए क्या हम सोच सकते हैं हमारे किसी पूर्वज के चेहरे पर ठीक इसी जगह रहा होगा ऐसा ही तिल हमारे हँसने मुस्कराने खिलखिलाने में हमारी किसी दादी नानी की मुस्कुराहट छिपी होगी हमारे किसी परदादा के माथे पर ठीक उसी जगह बल पड़ते होगे जिस तरह हमारे माथे पर पड़ते हैं
समय के आंगन में अभी कल तक तो थीं हमारे विस्मृत पुरखों की परछाइयाँ जो उनकी देह के साथ ही अदृश्य हो गईं जानना तो क्या सोचना भी बहुत मुश्किल कि वे ठीक हमारी तरह दिखाई देते थे हमारे अवयवों की तरह हरकतें होती थीं जिनके अवयवों में हमारे देहलक्षणों की तरह थे जिनके देहलक्षण और उनका भी वही देहधर्म था जो आज हमारा है
एक पहेली है मनुष्य की यह देह संत-महात्माओं वैज्ञानिकों और विचारकों के लिए देह जो सदियों से स्वयं अपना हल ढूंढने की कोशिश में है जो सजीवों की तरह जन्म लेती है बढ़ती है अपने आसपास से आहार लेकर पुनरुत्पादन की प्रक्रिया से गुजरती निरंतर हर जिज्ञासु की आँख को आमंत्रित करती अपनी अंधेरी गुफाओं और रहस्यमय घाटियों में अपनी ओर खींचती है जो अपने अजनबीपन में समाप्त होते ही आकर्षण जो ऊब पैदा करती है
इधर प्रयोगशाला में शीशे के मर्तबानों से झांकती भ्रूण देह जिसे किसी देह ने ही दान किया होता है अपने जन्म से पूर्व की कथा का बयान करती है माइक्रोस्कोप के नीचे प्लेट में मुस्कराती हैं कोशिकाएँ हमसे है जीवन हमीं से है देह कोशिकाएँ जो सजीव है सजीव देह के भीतर और निर्जीव बाहर इस देह के फिर भी वे जन्म दे सकती हैं नई कोशिकाओं को किसी आत्मा के सहयोग के बगैर ही
मोटी मोटी किताबों और रपट के पन्नों की घुमावदार सीढिय़ों से उतरती हैं कुछ शोधकथाएँ कि देह का न जन्म संभव है एक बार में न मरण जन्म के साथ जन्म लेती हैं कुछ कोशिकाएँ बढ़ते अंगों के अनुपात में बढ़ती हैं चांद बढ़ता है जैसे धूप बढ़ती है देह बढ़ती है अपने चरम में होती है जो देह के चरम में फिर पहाड़ की चोटी से उतरती देह की थकान में धीरे धीरे दम तोड़ती हैं देह की कोशिकाएँ अंगों के साथ छोडऩे की उम्र के साथ छोड़ती हैं और एक दिन उसी देह के साथ मर जाती हैं मस्तिष्क के घोंसले में बैठी इच्छाएँ भावनाएँ देह के साथ मर जाती वासनाएँ मनुष्य की और दोबारा कभी जन्म नहीं लेती हैं फिर भी डरती है हर देह मरने से और इस भय के चलते हर रोज़ मरती है
अजूबों का संसार है यह देहकोष के भीतर अपनी आदिमाता पृथ्वी की तरह गर्भ में लिए कई रहस्य आँख जिसे देखती है और बयान करती है जिव्हा आँसुओं के अथाह समंदर लहराते हैं जिसमें इसकी किलकारियों में झरने का शोर सुनाई देता है माँसपेशियों से उभरती हैं चट्टानें और पिघलती हैं हवाओं से दुलराते हैं हाथ त्वचा महसूस करती है पाँवों से परिक्रमा करती यह अपनी दुनिया की और वे इसमें होते हुए भी इसका बोझ उठाते हैं अंकुरों से ऊगते रोम केश घने जंगलों में बदलते बीहड़ से होते रास्ते अनजान दुनिया में ले जाने वाले नदियों सी उमड़ती यह अपनी तरुणाई में पहाड़ों की तरह उग आते उरोज स्वेदग्रंथियों से उपजती महक से होता समुद्र का खारापन होंठों पर व्याप्त होती वर्षावनों की नमी संवेदना एक नाव लेकर उतरती रक्त की नदियों में और शिराओं के जाल में उलझती भी नहीं असंख्य ज्वालामुखी धधकते इसके दिमाग़ में हृदय में निरंतर स्पंदन और पेट में आग लिए प्रकृति के शाप और वरदान के द्वंद्व में यह ऋतुओं के आलिंगन से मस्त होती जहाँ वहीं प्रकोपों के तोड़ देने वाले आघात भी सहती है
सिर्फ देह नहीं मनुष्य की यह वसुंधरा है और इसका बाहरी सौंदर्य दरअसल इसके भीतर की वजह से है पृथ्वी की भीतरी सुरंगों में जब खदबदाता है लावा मचल उठता है किसी क्षण फूट पडऩे के लिए करोड़ों प्राणों का शोर लिए उठता है वह अपने साथ जिसे अपने तल की गहराइयों में जगह देता है सागर जिसके शांत जल से संयोग कर वह देह रचता है
अर्थ के भीतर छुपे अनेक अर्थों की तरह अनगिनत अर्थ छुपे हैं देह के इस संसार में यह वही आँखें हैं व्यथा के बयान से भर आने वाली जो फिर जाती हैं यक व यक स्वार्थ पूरा होते ही जीवन भर ज़मीन पर जमने की कोशिश करते पाँव ज़मीन पर ही नहीं पड़ते अपने अहंकार में यही वे हाथ हैं उठ उठ कर दुआ करने वाले जो अक्सर छूट जाते हैं किसी मज़लूम पर खुद को काटकर देह को जिंदा रखने वाला पेट अपने लिए शर्मनाक समझौते करने पर विवश कर देता है ज़रा सी आहट के लिए खुले रहने वाले कान उत्पीडि़तों की चीखों के लिए बंद हो जाते हैं दुनिया की बेहतरी की चिंता करने वाला दिमाग़ ऊँचे आसमान पर पहुँच जाता है अपने ग़ुरुर में अपनी पीठ में हरदम तनी रहने वाली रीढ़ झुक जाती है आततायियों की देहरी पर
सिर्फ इतना ही नहीं है देह में देह होने का अर्थ अपने द्वंद्व में भी उपस्थित है हर अंग की स्वायत्तता इसलिए कि देह इनसे अलग नहीं है अपनी सम्पूर्णता में जैसे कि देह से अलग हाथ नहीं हैं देह ना ही देह से जुदा पावों को हक़ है देह कहलाने का अपनी सामुदायिक व्यवस्था में ही है देह की उपयोगिता जहाँ पेट के लिए रोटी कमाते हैं हाथ कान सुनते हैं कहीं कराह पाँव दौड़ जाते हैं ग़ैरों के दुख में किनारे तोडक़र आँखों से बहते है आँसू बेज़ुबाँ की ज़ुबाँ बनकर होंठो से बोल फूट जाते हैं एक देह की जिम्मेदारी में शामिल होती हैं अन्य देहों की ज़रुरतें इस देह की उम्मीदों में उस देह के स्वप्न झिलमिलाते हैं यह देह फले फूले इसलिए वह देह मुरझाती है अपनी और अपने आश्रितों की देह के संवर्धन के लिए जिन्स की तरह एक देह बाज़ार में बिक जाती है करुणा जब अपनी सीमा तोडक़र कर्तव्य में प्रवेश करती है कहीं कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगता देह की सार्थकता पर
पेड़ों सी झूमती है यह अपने होने की खुशी में पहाड़ों पर चढ़ जाती अपनी क्षमता से परे हवाओं सी लरजती नदियों सी उफनती गरजती बादलों सी झरनों सी मचलती आग सी दहकती महकती फूल सी मदिरा सी बहकती सुनती किसी कवि की कविता और अपने भीतर जीवन का होना महसूसती लजाती नहीं मधुर एकांत में कि सुख ना पहचाने और लज्जाहीन भी नहीं इतनी कि दुख के पहलू में रहकर सुख महसूस करे इतनी भावुक भी नहीं कि दुख से द्रवित होकर व्यर्थ पिघल जाए भूल जाए अपना देह धर्म अपनी विलगता के बावजूद अपनी जैविक इच्छाओं की पृष्ठभूमि में मूल रागों के साथ अर्जित सामाजिक सरोकार लिए मनुष्य की देह है यह जिसकी हज़ारों हज़ार कोशिकाओं में दर्ज है एक अकथ गाथा जो हर घटना के अतीत में है उसका प्रभाव लिए
वो ठंड से लरजती देह थी जिसे पहली दफा सूर्य की रश्मियों ने दुलार की उष्मा दी होगी और देह ने सूर्य के प्रति ज्ञापित की होती कृतज्ञता सूर्य की तपिश से झुलसती देह को फिर राहत पहुँचाई होगी शीतल हवाओं ने देह ने हवाओं का शुक्रिया अदा किया होगा अपनी अगन में बारिश के संग नाची होगी फिर देह बूँदों के संग उछली होगी उल्लास के आंगन में और बरखा से कहा होगा मैं तुम्हारी आभारी हूँ पुलकित हुई होगी वह किसी कोमल स्पर्श से रोम रोम खिला होगा जब अधरों पर अंकित हुआ होगा चुम्बन देह के भीतर देह के प्रवेश करते ही फिर बज उठे होंगे तंत्रिकाओं में बादलों के असंख्य नगाड़े देहबोध से मुक्त होकर फिर देह ने देह से कहा होगा धन्यवाद
यूँ सृजन के सुख से अभिभूत होती रही यह खेत की तरह बीजों के लिए बिछती रही उड़ती रही धुआँ बनकर कारखानों की चिमनियों से धूप में जलती रही पलती रही दिमाग़ों में जननी का दुलार जनक का प्यार लिए मित्रों की शुभकामनाओं बुज़ुर्गों के आशीष की रोशनी में अनवरत जारी रही उसकी यात्रा
जिसके हर पड़ाव पर अलग अलग आख्यानों में इस देह की ही गाथा दर्ज है नाना रुपों में घटनाओं में इतिहास के पन्नों पर इसलिए कि जो कुछ भी घट चुका है दुनिया में वह इस देह पर ही घटा है सृजन से विनाश तक अनंत कथाएँ उत्कीर्ण हैं इसकी त्वचा पर पत्थर की किसी आदिम कब्र के नीचे दबी है यह उसकी पसलियों में भाले के निशान हैं करोड़ों चीखें अटकी हैं इसके कंठ में अपने असमय विनाश के विरोध में बाहर आने को व्यग्र बेबीलोन के किले से कुरुश का सर पुकारता है मुक्त करो मुझे रक्त से भरे चमड़े के इस थैले से हवांगहो के तट पर खुदी कब्र से एक दास की आवाज़ आती है ट्राय के जले खण्डहरों से बाहर आती है इसकी दुर्गंध आल्प्स पर्वत की ढलानों से लुढक़ती है इसकी कराह पानीपत हो करबला हो सिकंदरिया या समरकंद दुनिया के तमाम युद्धक्षेत्रों में जब रात होती है अंधकार की पृष्ठभूमि में दिखाई देता है इसका अक्स जिसके हाथ पांव और सर कटे हुए होते हैं
जिस रास्ते से गुज़रती है अंतहीन साम्राज्य की भूख उस रास्ते के पेड़ों पर लटकी हुई है यह अपनी शहादत में राहगीरों की संवेदना समेटती हुई विद्रोह की आवाज़ में झूल रही है फाँसी के फंदे पर हिरोशिमा और नागासाकी के पूजनीय स्मारकों में पीढिय़ों में विकिरण के अंदेशे से ग्रस्त इसकी ही अथक पीड़ा है गैसचेम्बरों से निकलकर इसकी घुटन फैल रही है दुनिया में उपनिवेशवादी गिद्धों की निगाह से बचती हुई जालियाँवाला बाग के सूखे कुयें में मौजूद है यह
जाने कितनी तोपों के मुंह पर बंधी रस्सियों में अभी चिपके हैं माँस के कुछ लोथड़े कितने हाथियों के पावों में इसका खून लगा है जिसकी ताज़ी चमकती सतह पर अन्याय का अक्स दिखाई देता है वहीं तुर्कमान गेट पर पिचके हुए बर्तनों के बीच धोखा छल फरेब और अधूरे वादों के ज़ख़्म लिए एक देह पड़ी है बुलडोज़र से कुचली हुई एक देह ज़हरीली हवाओं में सांस लेती भागती हाँफती दम तोड़ चुकी है यूनियन कार्बाईड के दरवाज़े पर अपनी क्षत-विक्षत आँखों में आश्चर्य लिए नरोड़ा पाटिया की नूरानी मस्जिद के सामने पड़ी है यह इसकी बेबसी का सौंदर्य दिखाई देता है कश्मीर की वादियों में मंदिर की घंटियों और अज़ानों में इसी का आर्तनाद सुनाई देता है
अब भी इस अग्निदग्धा की बू आती है हवस के तंदूर पर सिंकी रोटियों में जंगलों में पेड़ों पर लटक रही है यह पड़ती है पटरियों के किनारे क्षत-विक्षत फेंक दी गई है किसी चलती बस से नीचे संवेदना का सर्वस्व लुट जाने की व्यथा लिए किसी खूनी दरवाज़े के पास अपनी जड़ता में कमोबेश निर्जीव सी पड़ी है एक सजीव देह अपने पौरुष में अहंकार की बुलंदियाँ छूती एक देह जिसे भोगकर कब की जा चुकी है
अपनी असीमित आकांक्षाओं में निर्बंध हो चुकी देह के लिए कहीं कोई बाड़ नहीं नैतिकताओं की चांद की धरती पर इसके पांवों के निशान हैं मंगल की धूल अपने माथे पर लगाने को यह बेताब है तमाम ग्रहों पर है इसकी साम्राज्यवादी नज़र बेलगाम हवा सी विचरती है यह वायुमंडल में अंतरिक्ष का कोना कोना इसकी निगाह में है सूर्य से मुठभेड़ के लिए यह आतुर है अपने सामथ्र्य के सर्वोच्च शिखर से गूँजता है इसका अट्टहास
देह हूँ मैं अपनी परिभाषाओं में निर्बंध पृथ्वी हूँ मैं आकाश हूँ अंतरिक्ष हूँ सूरज चांद सितारे ग्रह-नक्षत्र सब कुछ मैं ही हूँ मीलों लंबे हैं मेरे हाथ पांवों से नाप सकती हूँ मैं तीनों लोक शक्ति का पुंज हूँ मैं मैं ही हूँ विधि का विधान मैं ही हूँ सर्व शक्तिमान आगत अतीत वर्तमान मेरे होने से है यह दुनिया मेरे जन्म के साथ ही जन्मी है यह दुनिया मेरे अस्तित्व में ही है इस दुनिया का अस्तित्व इस दुनिया का अंत भी मेरे साथ ही होगा अपने पूरे होशोहवास में समस्त कायनात में करती हूँ मैं यह ऐलान अन अल हक़, अन अल हक़, अन अल हक़
भयावह विचारों के निविड़ अंधकार में हर रात सर उठाता है एक डरावना सच स्वप्न में दिखाई देती यह चार कांधों पर जाती हुई मोह के पथ पर दौड़ती है अमरत्व की इच्छाएँ रोक नहीं पाती अपनी ही लाश का महाप्रयाण देह की अंतिम परिणति देखती हैं जीवित लाशें करोड़ों कंठों से उठता है आर्तनाद
असंभव असंभव, हमने नहीं सोचा था शरीर का यह हश्र हम तो मृत्यु के दुर्ग पर अपनी विजय पताका गाड़ आए थे हम पहुँच चुके थे ज्ञान के चरमोत्कर्ष पर भयमुक्त हो ब्रह्माण्ड में बांट रहे थे अर्जित ज्ञान हमारी चेरी है प्रकृति हमारा चाकर है विज्ञान नहीं नहीं हमें हर्गिज़ नहीं स्वीकार यह हार
अपने ही शोर से उपजे सूनेपन में डूबती है आवाज़ नींद में फूटती है रुलाई और श्लोकों में बदल जाती है शरीर माद्यम् खलु धर्म साधनम् खलु धर्म साधनम् शरीर माद्यम् कुमारसंभव के रचयिता कालिदास कहाँ हो तुम कहाँ तुम्हारी देहसम्बन्धों की व्याख्या कहाँ हो वात्सायन देह के कोणों में जीवन का सार देखने वाले कहाँ हो चार्वाक कष्ट सहती देह के लिए इसी जहान में समस्त सुखों की कामना करने वाले अपने अनात्मवाद में देह को ही आदिम और अंतिम मानने वाले बुद्ध कहाँ हो तुम कहाँ हो डार्विन कहाँ हो फाक्स, हॉल्डेन, ओपेरिन सर हरगोविंद खुराना तुम कहाँ हो
कोई उत्तर नहीं आता देहातीत हो चुकी वाणी से कोई जवाब नहीं आता दर्शन की गुफाओं से विज्ञान की अट्टालिकाओं से कोई आवाज़ नहीं आती सुनाई देती है श्मशान की निस्तब्धता में जलती हुई लकडिय़ों की तिड़ तिड़ करती आवाज़ एक गंध पसरती है जलते हुए कपाल की धुएँ में उड़ जाता है एक अनुत्तरित प्रश्न मिट्टी में दफ़्न हो जाता है एक सनातन सवाल मन रब्ब का, मा दीनो का, मा कुनता तक़ोलो फ़ी हाज़ल रजूल कौन तेरा रब, क्या तेरा दीन जब तलक ज़िन्दा था ऐ आदमज़ाद क्या कहता था तू इनके बारे में
यह कैसा अवसाद है जो देह के जन्म के साथ ही अंत के विचार में बदलने लगा है धर्मग्रंथों के पन्नों पर जिसकी काली छाया है उसी के इर्द-गिर्द मंडरा रही हैं वेदों की ऋचाएँ आख़िरत में इसके ही कल्याण की कामनाएँ इंजील में इसके स्वर्ग से निष्कासित किए जाने का बयान तोरैत में इसके समर्थन में पुकारता आसमान शब्दों में शब्दातीत होने का भ्रम लिए यह दृश्य पर अदृश्य के स्वामित्व का साहित्य है और इसे उस देह ने रचा है जो दृश्य है
यह वर्चस्व का शंखनाद है दर्शन की रणभूमि में जहाँ भौतिक और प्रत्यय के उद्घोष आपस में इतने गडमड कि पहचानना मुश्किल मूल की प्रतिध्वनि देह तो नश्वर है वत्स इसकी चिंता बेमानी है क्षणभंगुर जग में माया है काया, यह तो आनी जानी है पाप से उपजी है मानव देह इसे नष्ट होना है आत्मा का चोला है यह जिसका मैल हमें धोना है रूह की फ़िक्र कर इंसा बाकी तो सब मिट्टी है देह के साथ ही सब कुछ ख़त्म होना है
हवाओं में अट्टहास करते हैं आवाजों के दैत्य टी वी और मोबाइल के पर्दों से झरते हैं देह को मीठी नींद में सुला दने वाले रस अवचेतन की बेसुधी में लगातार चलते हैं शब्दों के हथौड़े अलग कर देते हैं कानों और आँखों से दिमाग
नींद खुलने पर देह से एक पुकार उठती है भूख अपने चरम में पेट टटोलती है झोपड़ी की छत से दिखाई देता है जब आसमान बंद कर दिया गया मुंह भी सवाल करता है उस देह के लिए क्यों बड़े बड़े भवन पूजाघर कीमती वस्त्र और छप्पन भोग जबकि वह निर्गुण और निराकार है क्यों दुनिया में दु:ख, चिंताएँ और निर्धनता जबकि धन ही सारे सुख का आधार है क्यों सब कुछ है कुछ लोगों के पास बाक़ी सारी जनता बेरोजगार है बेकार है
मंजीरों, नगाड़ों, गिटारों के शोर में कुचल दी जाती हर आवाज सिर्फ सुनाई देती अट्टालिकाओं से आती आकाशवाणी अमृत के कैप्सूल में छुपा विष निगलती यह देह देवताओं के भेष में रहने वाले मनुष्यों की ज़बानी नश्वर और विनाशी देह के लिए इस लोक में सुख की कामना मत कर ऐ इंसान तू तो विधाता के हाथों का बस एक खिलौना है तेरे लिए तो अंतत: माटी और राख ही बिछौना है तेरे लिए खुल जाएँ स्वर्ग के समस्त दरवाज़े जन्नत नसीब हो तुझे मे गॉड ब्लेस यू माई चाइल्ड मे दाय सोल रेस्ट इन पीस
भीतर के गहन अंधकार में सुनाई आती है सिर्फ आवागमन करती आवाज़ों की पदचाप जिन्हें छूने या विरत होने के द्वंद्व में सचल हो उठती है यह सजीव देह उनके साथ और यथार्थ के पत्थरों से ठोकर खाकर दर्द की घाटियों में दम तोड़ देती है
कई लुभावने दृश्य हैं इन आवाज़ों के पर्दे में सिर्फ इस लोक के नहीं तथाकथित अन्य लोक के भी जहाँ हर पुण्यवान देह के लिए आरक्षित हैं सुविधाएँ अहा! मधु के झरने, अहा! मखमली बिछौने हूरो गिलमाँत, अप्सराएँ, सुख के स्वाद सलोने वहीं पापी देह के लिए सुनिश्चित नर्क की यातनाएँ उफ़ झुलसाती आग उफ़ दहकती चिताएँ
धर्मग्रंथों के फडफ़ड़ाते पन्नों और उपदेशों में स्वर्ग के आधिपत्य में नर्क साँस ले रहा है जहाँ पुलसिरात पर कामयाबी से गुज़रती देह का छूट चुकी देह पर शासन है जहाँ सुनिश्चित है इस लोक और उस लोक में एक अपराध के लिए दो बार दंडित किया जाना शासक का स्वर्ग यहाँ भी है वहाँ भी शासित का सिर्फ नर्क यहाँ भी है वहाँ भी जीते जी स्वर्ग की यात्रा करने वालों के लिए टिकटें उपलब्ध हैं इस नई सहस्त्राब्दि में स्वर्ग जाने को इच्छुक देहें कृपापूर्वक इस आधुनिक यान में बैठ जाएँ कैरेबियन और हवाई द्वीप की ओर हैं इसकी उड़ाने यह यान लॉस बेगास और बैंकाक को जाता है नर्क में जाने को विवश समस्त उपेक्षित वंचित पापी देहें अपने ज़ख्मी पांव घसीटते इस ओर निकल जाएँ यह नालियाँ धारावी की स्लम की ओर जाती है
विशाल साम्राज्य है यहाँ झूठ और पाखंड का जिसे सदियों की मेहनत से खड़ा किया है कुछ देहों ने जहाँ इस जन्म के एक दुख के ऐवज में अनेक कल्पित जनमों तक सुख के विकल्प है देह मोह में अंधी हो चुकी इच्छाओं में फिर उसी देह में जन्म लेने की चाहत है महात्माओं के ख़ज़ानों में चाहत की पूर्णता के उपाय या चाहत से मुक्ति के रेडिमेड नुस्खे स्त्रियों की चाहत में सात जन्मों तक उसी पति की देह इसलिए कि पति बगैर मोक्ष सम्भव नहीं पुरुषों की चाहत में इसी जन्म में नई स्त्री देह इसलिए कि उसने ही रचे हैं नियम अपने चरम पर है चाहत का यह बाज़ार जहाँ एक ओर देह का देह से मिलन ही जीवन की सबसे नायाब तफ़रीह है वहीं सर्वोत्कृष्ट मनोरंजन है देह से देह का युद्ध क्रूरता के इस साम्राज्य के विनाश के लिए जब भी सर उठाता है कोई स्पार्टकस या वेलेंटाइन सलीब पर लटका दी जाती है उसकी देह फिंकवा दी जाती है भूखे कुत्तों के सामने डुबो दी जाती है ज़हर के प्याले में हाथी के पावों तले कुचल दी जाती है
देह के अनदेखे भविष्य की यह आग है मनुष्य के मानस में धधकती हुई जिसकी न महसूस होने वाली आँच में झुलस रहा है संवेदनाहीन देह का वर्तमान वहीं अपने अकाट्य तर्क लिए आत्मा के पक्षधर देहात्मवादियों और अनात्मवादियों की शाब्दिक रिक्तता में आत्मा की अभौतिक उपस्थिति के पाठ में लीन हैं
यह अनस्तित्व के अस्तित्व की चाकचौंध है जहाँ गुम है पल पल साबित होता यथार्थ कि मरने के बाद कुछ शेष नहीं रहता आदमी का कि यह देह आत्मा से संचालित नहीं है और इस देह का अवसान ही है आत्मा का अवसान आश्चर्य आत्मा की अनुपस्थिति में यह देह उनके लिए इतनी उपेक्षित कि मिट्टी
हर बात पर आत्मा की दुहाई देने वालों पहचानो सिर्फ देह के लिए सजा है यह संसार वह दिन दूर नहीं जब दुनिया के धनाढ्य लोग बाज़ार से खरीद सकेंगे अपनी पसंद के जींन्स उन्हें अपनी पसंद की देह में प्रत्यारोपित कर सकेंगे एक अलग संसार होगा ऐसी देहों का जहाँ मौत की दहलीज़ पर असमय दम तोड़ देने जैसी अनहोनी नहीं होगी जहाँ चलने की विवशता में घिसटते पांव नहीं होंगे आँखों के मोतियाबिंद में अतीत के धुंधले चित्र नहीं होंगे दुख से दरकती ज़मीन नहीं होगी त्वचा की झुर्रियों में एक भयावह संसार जन्म ले चुका होगा समय की कोख से जहाँ सारे सुख होगें सिर्फ कुछ देहों के लिए देह एक ही नस्ल के दो वर्गों के बीच बँट चुकी होगी
घनघोर निराशा से ढंका हुआ है अभी देह का आकाश जहाँ विज्ञान की चमकदार रोशनी अपने खेल दिखा रही है फिर भी संभव नही हुआ है अभी दैहिक सहयोग के बगैर देह का उत्पादन हालाँकि लोहे की देह बना चुका है मनुष्य और उसमें जान भी डाल चुका है झाड़ू लगा सकती है जो देह हमारे घरों में बिस्तर बिछा सकती है, लोरी सुना सकती है बस प्रेम नहीं कर सकती जो अन्य की देह से
अपने अहं के शिखर पर पहुँची देह के वश में नहीं है देहकोष की मर्यादा में प्राणों को सीमित रखना भविष्य के हाथों में अतीत के ख़ंजर हैं और सामने अपनी ही मासूम देह है अनेक प्रतिरुपों में उपजता है देह का यह अहं कभी आत्मदया कभी आत्मरति कभी आत्मवंचना जिनसे गुजरकर यह आत्मघात तक पहुँचती है
परपीड़ा के प्रखर उन्माद में यह लोहा बनकर प्रवेश करना चाहती है अन्य की देह में समाप्त कर देना चाहती है उसका देहत्व और कई बार उसके पास अपनी देह के अलावा कोई हथियार नहीं होता यह प्रारब्ध के विलोम में अंत का सम्मोहन है जहाँ देह ही देहपात के लिए उत्तरदायी है
लेकिन यही अंतिम परिणति नहीं है देह की अपनी ही देह से प्रेम और अपनी ही देह से घृणा की असमाप्त संभावनाओं में एक देह पड़ी है चीरघर में अपने अपमान के लिए प्रस्तुत एक चील कौव्वों का ग्रास बन रही है एक जिसे मछलियों ने खा लिया है एक टुकड़े टुकड़े होकर हवाओं में बिखर गई है एक आग की लपटों के हवाले कर दी गई है एक फुटपाथ पर अपने देहमल में लिपटी पड़ी है नियति के इस वीभत्स चित्र के बरअक्स एक देह रखी है चिकित्सा विज्ञान के छात्रों के मध्य देहदान की गरिमा से स्वयं को मंडित करती हुई मनुष्य के आत्मावलोकन का मार्ग प्रशस्त कर रही है
मनुष्य की जिज्ञासा के मंच पर पड़ी देह से आती हैं आवाजें करुणा अपने परिभाषा से बाहर फूट फूट कर रो रही है आसमान से उठ रहा है आर्तनाद हवाओं में गूँज रहा है चीत्कार बचाओ बचाओ बचाओ बिजली बचाओ उर्जा बचाओ पेड़ हवा पानी जंगल शेर चिडिय़ा सब बचाओ हो सके तो पवित्र मानवता के पक्ष में इस देह को बचाओ
मस्तिष्क के तरल में तैर रहा है चिंतन प्रमुख है जिसमें शाश्वत-अशाश्वत की अवधारणाएँ जहाँ लोग-परलोक, आत्मा-परमात्मा जैसे शब्द डूब उतरा रहे हैं यज्ञकुण्ड से उठते धुयें में आकार ले रहे मोक्ष के स्वप्न देह बचाने के लिए चल रहे हैं महामृत्युंजय मंत्र के जाप अज़ानों और घंटियों में बुदबुदा रही हैं प्रार्थनाएँ देह के इस अपरिभाषित व्यापार के बीच नित्य की तरह उग रहा है सूरज जो डूबता हुआ दिखाई देते भी डूब नहीं रहा शेष-नि:शेष अपना भ्रम बनाए रखने में सफल हैं
वे हवाएँ अब भी बह रही हैं नील की घाटियों में देह की प्रथम वर्षगांठ पर जिन्होंने दुलराया था उसे रेत के अमरत्व में जन्म ले रहा है देह की अजरता का विचार और देवताओं के वरदान की अपेक्षा में जीवन के फिर लौट आने की आस लिए पिरामिडों में सुरक्षित ममियों पर अनुसंधान जारी है
हर माँ की गोद में खेल रहा है यह ख्याल जीवित रहे और मुसीबतों से बचा रहे उसका देहांश इसके माथे पर लगा रही वह शुभांशसा का काला टीका उसके आशीष में तिरोहित हो रही है उसकी करुणा पिता अपनी संतान में देख रहे हैं अपना पुनर्जन्म इस तरह देह का वंश चल रहा है अनवरत
और अपनी देहभान की उम्र में जहाँ देह को बनाए रखने के लिए बहुत मुश्किल है दो वक्त की रोटी का जुगाड़ वहीं देह को नष्ट करने के लिए ढेरों प्रलोभन हैं वहीं है देहानुपात की चिंता में सक्रिय बाजार कायाकल्प करने वाले रसायन और बूटियाँ टूट फूट और मरम्मत के लिए चिकित्सा की महंगी दुकानें जिनके लिए विश्व की सबसे बड़ी समस्या है पेट पर धीरे धीरे जमा होती चर्बी उनके लिए योग और व्यायाम के उपकरणों के विज्ञापन हैं यह देह की ही है आकांक्षा न केवल खुद को बनाये रखना बचाये रखना खुद को अपने देहस्वामियों के लिए
अभी भविष्यवाणियों की शक्ल में मंडरा रहे हैं खतरे देह को मशीनों में बदलने के प्रयास ज़ारी हैं निर्माण से पहले ही पल रहा है विध्वंस का विचार देह ही देह के विरुद्ध षडय़ंत्र रच रही है धर्म के भयानक विस्फोटक मस्तिष्क में धारण कर कटे हाथ पांव और सिरों का ढेर बन रही है देह देह ही उकसा रही है अन्य देह को अपने विनाश के लिए जिसे आत्मोत्सर्ग का नाम दिया जा रहा है
लम्बी कविता ‘देह’ में आए नामों, व्यक्तियों, स्थानों और घटनाओं की सन्दर्भ सूची- 1. डी ऑक्सी राइबो न्यूक्लिइक एसिड - देह की जीवित कोशिकाओं के गुण सूत्रों में पाए जाने वाले तंतुनुमा अणु या डी एन ए। 2. बेबीलोन - प्राचीन मेसोपोटामिया सभ्यता का एक प्रसिद्ध शहर। 3. कुरुश - ई.पू. 576 में पर्शिया का सम्राट सायरस द ग्रेट, ईरान की सम्राज्ञी टामरिस ने प्रतिशोध में जिसका सर काटकर खून से भरे मर्तबान या चमड़े के थैले में डुबो दिया था। 4. ह्वांगहो - चीन की पीली नदी जिसके किनारे अनेक कब्रें मिली हैं। 5. ट्राय - होमर के महाकाव्य ‘इलियड’ में वर्णित यूनान का प्रसिद्ध नगर जहाँ के राजकुमार पैरिस द्वारा स्पार्टा की रानी हेलेन का अपहरण किया गया फलस्वरूप भयंकर युद्ध हुआ। 6. आल्प्स - यूरोप की बारह सौ किलोमीटर लम्बी पर्वत श्रृंखला जो फ्रांस, जर्मनी, इटली, स्विटजरलैंड जैसे देशों से होकर गुजरती है। 7. कर्बला - इराक की राजधानी बगदाद से 100 कि.मी. उत्तर पूर्व में एक कस्बा जहाँ 680 ईसवी में हजरत पैगम्बर के नवासे इमाम हुसैन और उसके परिवार की शहादत हुई। 8. सिकंदरिया - ई.पू. 331 में सिकंदर द्वारा मिस्त्र में बसाया शहर। 9. समरकंद - तुर्की मंगोल बादशाह तैमूर द्वारा स्थापित शहर। 10. गैस चेंबर - हिटलर के प्रसिद्ध गैस चेंबर। 11. तुर्कमान गेट - दिल्ली की वह मशहूर जगह जहाँ अप्रेल 1976 में इमरजेंसी के दौरान झुग्गियों को हटाने के लिए बुलडोज़र चलाये गए थे और विरोध करने वालों की हत्या कर दी गई थी। 12. नरोड़ा पाटिया - अहमदाबाद की वह जगह जहाँ 2002 के दंगों में हज़ारों लोग मारे गए। 13. तंदूर कांड - दिल्ली का नैना साहनी हत्याकांड जिसमें उसे मारकर उसकी देह के टुकड़े टुकड़े कर उसे तंदूर में जला दिया गया था। 14. खूनी दरवाजा - हत्याओं के लिए प्रसिद्ध दिल्ली का वह ऐतिहासिक स्थल जहाँ शाह ज़फर के बेटों को मारा गया, अभी दिसम्बर 2002 में तीन युवकों द्वारा एक मेडिकल छात्रा के बलात्कार के बाद इसे बंद किया गया। 15. अन अल हक़- अर्थात ‘मैं ही परम सत्य हूँ’। ईरान के सूफी संत मंसूर अलज हल्लाज़ को इन शब्दों को कहने के जुर्म में ईश्वर को सत्य का पर्याय मानने वालों द्वारा 922 ईसवी में सलीब पर लटका दिया गया था। 16. शरीर माद्यम खलु धर्म साधनम - शरीर धर्म पालन का सर्वश्रेष्ठ साधन है। 17. जे बी एस हाल्डेन - पृथ्वी पर निर्जीव रसायनों की पारस्परिक क्रिया से जीवन में उद्भव का सिद्धांत प्रतिपादित करने वाले ब्रिटिश भारतीय वैज्ञानिक। 18. ओपेरिन - प्रथम जीव की उत्पति निर्जीव से तथा बाद के जीव की उत्पत्ति जीव से हुई, इस सिद्धांत के जनक रुसी वैज्ञानिक। 19. हरगोविन्द खुराना - कोशिकाओं में जेनेटिक कोड की खोज व शोध सिंथेसिस ऑफ़ डी एन ए के लिए वर्ष 1968 में नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक। 20. मन रब्ब का, मा दीनो का- अरबी का एक वाक्य। एक मान्यता के अनुसार मृत देह को जब कब्र में उतारा जाता है तो माना जाता है कि फ़रिश्ते उससे दीन और ईमान के बारे में सवाल करेंगे जिसके अनुसार उसे जन्नत में स्थान प्राप्त होगा। 21. आख़िरत - कुरान शरीफ के अनुसार आख़िरत (कयामत) के दिन जब दुनिया नष्ट हो जाएगी कब्र में दफनाई गई देहों की आत्माओं को न्याय प्रक्रिया से गुजरते हुए उनके कर्मों के अनुसार जन्नत या जहन्नुम में स्थान दिया जायेगा। 22. इंजील- ईसाइयों के धर्मग्रन्थ बाइबिल के लिए प्रयुक्त शब्द। आदम और हव्वा को दैहिक सुख की सज़ा के बतौर स्वर्ग से निष्कासित किया गया था। 23. तोरैत - हज़रत मूसा को ईश्वर द्वारा प्रदत्त यहूदियों का धर्मग्रन्थ। 24. हूरो गिलमाँत - इस्लामिक मान्यता के अनुसार परियाँ और वे बालक जो बहिश्त में धर्मात्माओं की सेवा और भोग के लिए रहते हैं। 25. पुल सिरात - इस्लामिक मान्यता के अनुसार जन्नत और दोज़ख के बीच बाल से भी बारीक एक पुल जिसे सफलतापूर्वक पर कर लेने पर ही देह जन्नत में पहुँचती है। 26. लास वेगास, बैंकाक - जुआ, खानपान, दैहिक सुख के लिए प्रसिद्ध शहर। 27. धारावी - एक लाख से ज़्यादा आबादी वाली मुंबई की प्रसिद्ध झोपड़पट्टी। 28. स्पार्टकस - ग्रीस का प्रसिद्ध दास योद्धा जिसने 71 ई.पू. में दासता के विरुद्ध संघर्ष किया। 29. वेलेंटाइन- प्रारम्भिक इसाई संतों के नाम जिनका सम्बन्ध प्रेस और शहादत से है। |