कहानी नहीं, कार्यशाला

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    अप्रैल - 2016
श्रेणी कहानी नहीं, कार्यशाला
संस्करण अप्रैल - 2016
लेखक का नाम शंभु गुप्त





आलेख/सत्यनारायण पटेल की कहानियां



लेखक और पाठक के बीच के नए रिश्ते

सत्यनारायण पटेल (1972) के पिछले सात-आठ सालों में तीन कहानी-संग्रह आ चुके हैं- 'भेम का भेरू माँगता कुल्हाड़ी ईमान' (अन्तिका, 2007), 'लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना' (अन्तिका, 2011) तथा 'काफ़िर बिजूका उर्फ इब्लीस' (आधार, 2014)। इन संग्रहों में कुल सोलह कहानियाँ फ़िलहाल हैं। कुछ छोटी लेकिन ज़्यादातर लम्बी। प्रतीत होता है कि नई पीढ़ी का झुकाव लम्बी कहानी की ओर है। यह अब लगभग एक सामान्यता बनती जा रही है। हर युवा लेखक के पास कुछ न कुछ लम्बी कहानियाँ ज़रूर हैं और वे ध्यान खींचती हैं। प्रतीत होता है कि लम्बी कहानियाँ लिखने में नए कहानीकारों को ज़्यादा आनन्द आता है। लेखकीय वैचारिकता, प्रतिबद्धता, सरोकार, इत्यादि का सम्बन्ध तो इससे है ही पर इन सबसे ज़्यादा कहानी की लम्बाई का सम्बन्ध लेखकीय रचनात्मक सुख से है। न जाने क्यों लेखकों को अब यह लगने लगा है कि छोटे या थोड़ में बात पूरी तरह नहीं कही जा सकती। बात को जितना हो सके, फैलाकर और उसके जितने भी सम्भव आयाम, उप-आयाम हो सकते हैं, सत्य के जितने पक्ष हो सकते हैं, उन सबको समेटते हुए एक मुकम्मलपन कथावस्तु और कथानक को दिया जाए। जैसा कि मैंने कहा, इस विस्तार के पीछे यह कारण ज़रूर से ज़रूर होता है कि मैं जो कहना चाहता हूँ, मेरा जो मन्तव्य है, वह कहानी में एकदम खुलकर और पूरी तरह आ जाए! सत्यनारायण पटेल अपनी एक लम्बी कहानी 'गम्मत' में लगभग प्रारम्भ में ही लिखते हैं कि - ''बहस का विषय बात कहने का ढंग नहीं, बात से निकलने वाला मर्म होना चाहिए। जो जैसा कहा जाए... वह वैसा ही समझ में आ जाए।'' (लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना; पृ. 72)। इसी कहानी में इससे पहले यह भी कह चुके हैं कि ''मैं अपने अनगढिय़ा और डामोरिया मिले जुले अंदाज़ में कुछ किस्से सुनाता हूँ। और एकदम फोकट में... बंसी...बंसी के बाप और उसके पुरखों के कुछ $िकस्से, क्योंकि इन किस्सों को सुनाये बगैर कहानी कही तो... कहानी समझना कम सरल होगा।'' (वही)।
यानी कि कहानी को समझने-समझाने के मकसद से यह जरूरी है कि उसमें कुछ ऐसा भी कहा जाए कि जो सन्दर्भों की पुष्टि, समय और इतिहास की निरन्तरता, कार्य-कारण-अन्तर्सम्बन्धों की अभिव्याख्या इत्यादि की दृष्टि से निहायत ही जरूरी हो।
इस मामले में सत्यनारायण पटेल के साथ एक दिक्कत और है। वे पाठक की लापरवाही, लहतलाली, अगम्भीरता, चीजों को चलताऊ ढंग से लेने इत्यादि की बात भी उठाते हैं बल्कि सबसे पहला काम वे यही करते हैं। जैसे कि 'न्याव' कहानी की शुरुआत में बहुत सारी चीजों के साथ-साथ वे यह भी कहते हैं- ''इस झूठ को सुनने-पढऩे वालों से मामूली-सी गुज़ारिश है कि पढ़ें और खा-पीकर सो जायें... जैसाकि चलन है। फालतू-बेफालतू कुछ भी न सोचें। जाति, समाज संप्रदाय, भेदभाव, आदि जैसा कुछ भी नहीं सोचें।'' (काफ़िर बिजूका उर्फ इब्लीस; पृ. 67)। यानी कि हमारे-तुम्हारे सभी के बारे में सोचने का ठेका ये जो कुछ लोग उठाए हुए हैं (और सोच रहे हैं तो हमारे बारे में फैसला भी कर रहे हैं, हमारी नियति भी तय कर रहे हैं; इत्यादि; जैसे कि इस कहानी में आमिर, मोहम्मद फहीम जैसे लोगों के बारे में कुछ लोगों ने ठेका ले रखा है जिनमें भारतीय पुलिस, राज्य-तन्त्र से लेकर और बहुत सारे लोग शामिल हैं या जैसे 'काफ़िर बिजूका उर्फ इब्लीस' कहानी में प्रोफेसर हमज़ा कुरैशी, उनका मुरीद यूनुस, शहर काज़ी डा. अब्दुल्ला अहमद अंसारी; इन लोगों में आते हैं या जैसे कि 'गम्मत' कहानी में सोमलाओं और मंगलियों के भाग्य का फैसला गैर सोमला लोगों ने अपने हाथ में ले रखा है और उन्हें नेस्तनाबूद करने में लगे हैं; इस तरह के वाकये और भी हैं), तो दरअसल इसे हमारी ही कमज़र्फी का उदाहरण माना जाना चाहिए कि हमने यह मैदान उनके लिए खुला और खाली छोड़ दिया है और सुर्खरू हो लिए हैं!
सत्यनारायण पटेल इस बात के लिये पाठक को एक तरह की खराद-सी पर चढ़ाए रखने के हिमायती प्रतीत होते हैं। पाठक कहानी पढ़ता है और खा-पीकर सो जाता है! तो वह क्या करे? लेखक शायद कहना चाह रहा है कि कहानी पढ़कर खा-पीकर सोना ही था तो कहानी पढऩे का कहा किसने था? कहानी पढऩे की ऐसी क्या खुजाल मची थी! हद तो यह है कि सत्यनारायण इस मामले में उन्हें पुरस्कृत करने वाली संस्था तक को नहीं बख़्शते। 26 जनवरी 2012 को बांदा में शबरी संस्थान द्वारा 'लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना' पर 'प्रेमचन्द स्मृति सम्मान' दिए जाने के अवसर पर बोलते हुए 'हमारी राहें चाहे जुदा हों... पर मंज़िल एक हो' शीर्षक अपने वक्तव्य में उन्होंने आिखर यह कह ही तो दिया कि ''मैंने कहानी कही और आपने पुरस्कार दे दिया। लेकिन कहानियों के पात्र आज भी अपने खेतों में जुते हुए हैं। उनकी गर्दन पर रखा है पूँजीवादी व्यवस्था का जुआ... जो लगातार उनकी रगों से सोखता है मुनाफा।'' (पृ. 02); हालाँकि यह संस्था इसके लिए उत्तरदायी नहीं है! बात दरअसल यहाँ किसी के उत्तरदायी होने या न होने की है भी नहीं। बात असल में कुछ और है। और वह बात यह है- ''मैं इस अव्यवस्था के िकले के उत्तरदायी होने या न होने की है भी नहीं। बात असल में कुछ और है। और वह बात यह है- ''मैं इस अव्यवस्था के िकले के कंगूरे पर चढ़कर इठलाने के लिए नहीं लिखता हूँ।'' ('मैं उस ख़ुशबू का दीवाना हूं, इसलिए लिखता हूँ' शीर्षक आत्मकथ्य, पृ. 02।) तो असल बात यह है कि बहुत सारा लेखन और बहुत सारे लेखक इसलिए भी हैं कि इस अव्यवस्था के कंगूरे पर चढ़कर इठलाया जा सके! अव्यवस्था का अर्थ है, यह ''पूँजीवादी व्यवस्था, जो कि अव्यवस्था का उत्कृष्ट उदाहरण है,'' (बांदा वक्तव्य, पृ. 01)। यानी कि हम इसलिए लिखें कि मौजूदा व्यवस्था में न केवल फ़िट हो सकें बल्कि इसके शीर्ष तक पहुंचकर श्रेष्ठ उपलब्धियाँ भी हासिल कर सकें। अब कौन नहीं जानता कि ऐसा करने के लिए क्या करना ज़रूरी है और किस रास्ते चलकर यह सब होता है! अपने बांदा वाले वक्तव्य में काफी विस्तार से सत्यनारायण पटेल इस पूरी प्रक्रिया को लेते हैं।
यह दरअसल कोई प्रक्रिया नहीं, सीधा-सीधा एक रास्ता है, जो हमें वहीं ले जाता है, जहाँ के लिए चलने का हमने तय किया था। यह ठीक है कि लेखक की रचना-प्रक्रिया और प्रविधि एक जटिल और यत्किंच अबूझ मामला है। यहाँ बहुत सारा कुछ अचानक और अवांछित और अप्रत्याशित भी हो सकता है। लेकिन बावजूद तमाम आकस्मिकताओं, अवांछितताओं, अप्रत्याशितताओं के एक चीज शुरू से लेकर अन्त तक सुनिश्चित और सुविचारित होती है कि हम किस तरफ हैं। तटस्थता और निष्पक्षता धोखे की टट्टी है और एक मुगालता है। अधिक से अधिक तटस्थता/निष्पक्षता अपनी असल प्रतिबद्धता को छुपाने या ढंके रखने की एक गैर-रचनात्मक रणनीति है कि लोग आसानी से और जल्दी पकड़ न पाएँ! ऐसे लोग धन्य हैं, इन्हें धिक्कार है! ऐसे लोग बाजार द्वारा बहुत ज़ल्दी और बेहतर तरीके से इस्तेमाल किए जाते हैं। बाजार ऐसे लोगों को बाक़ायदा प्रस्तावित और प्रोजेक्ट करता है और समय के लिए इन्हें अपरिहार्य बताता है। जबकि यह अपरिहार्यता वस्तुत: उसकी एक चाल होती है जिसके तहत वह इसका सत्व चूस इन्हें छूँछ बनाता रहता है। छूँछ बनने की यह प्रक्रिया इतनी बारीक और अन्तर्वर्ती होती है कि व्यक्ति को पता ही नहीं चल पाता। पता जब चलता है, तब तक चीजें हाथ से निकल चुकी होती हैं और हम व्यक्ति से एक उपकरण बन चुके होते हैं। हाँ, जिसे पीछे अव्यवस्था के कंगूरे पर चढ़कर इठलाना कहा गया, वह काम लगातार चलता रहता है आरै दूसरों को अँगूठा दिखाने और बिराने का भी क्योंकि दरअसल यही काम तो कराना होता है, नई पूँजी और नए बाज़ार को अपने उपकरण बन चुके इन लोगों से! यह शायद इन्हें दिखाई नहीं देता कि धीरे-धीरे वे एक गमले के पौधे बनते चले जाते हैं। सत्यनारायण पटेल का यह रूपक पिछले दिनों काफी चर्चा और विवाद का विषय बना रहा कि ''मैं समझता हूँ कि प्रकृति में संघर्ष की पथरीली ज़मीन की छाती चीरकर प्रस्फुटित हुए पौधे पर ही... अकल्पनीय सुगन्धित और ख़ूबसूरत फूल खिल सकते हैं, न कि किसी गमले में रोपे पौधे में। जैसे गमले में पौधे रोपे जाते हैं... वैसे इन दिनों हमारे बीच हर विधा के कलाकार भी रोपे जा रहे हैं। जैसे बाज़ार अनेकानेक गैर-ज़रूरी उत्पादनों की ख़ासियत बताता है। ताकि हम उसकी मीठी-मीठी भाषा के जाल में फँस कर... अपने ख़ून-पसीने से कमाई रकम उस उत्पाद को ख़रीदने में खर्च कर दें...।
किसी लेखक को यदि इस अव्यवस्था के किले के कंगूरे पर चढ़कर इठलाना नहीं है तो उसके लिए केवल एक रास्ता बचता है कि वह उस रास्ते पर चले, जिसे यह लेखक प्रस्तावित करता है। बात यहां सत्यनारायण पटेल नामधारी इस लेखक की नहीं है। यह रास्ता किसी और ने सुझाया होता तो वह भी उतना ही वरेण्य हमारे लिए होता। बात यहाँ व्यक्ति की नहीं, विचार की है। तो भला क्या है, वह रास्ता? निश्चय ही वह जो भी हो, आसान तो कम से कम नहीं ही है। यदि फिर एक और रूपक का सहारा लिया जाए और सत्यनारायण पटेल का ही साक्ष्य लिया जाए तो यह रास्ता ठीक वैसा ही है, जैसा कि उनकी '...पर पाज़ेब न भीगे' का यह अन्तिम परिच्छेद- ''बाँध तो दुनिया भर की नदियों पर अब भी ख़ूब बन रहे हैं, पर उन्हें प्रेमी बंजारे, कम्पनियाँ बना रही हैं। अब पाज़ेब और उसकी घूँघरी के न भीगने की बात छोड़ो, घर-खेत और गाँव तक बचाना मुश्किल हो रहा। वाकई समय बदल रहा। विकास की गंगा बह रही दिन रात। डूब रहा सुख-चैन।'' (काफ़िर बिजूका उर्फ इब्लीस, पृ. 17)। इसी तरह 'घट्टी वाली माई की पुलिया' कहानी का यह अन्तिम अंश- ''आज फिर घट्टी वाली माई की जरूरत है। बना सके जो ऐसी पुलिया, जो ले जाए उन मनहूस इमारत तक, जिसके भीतर से अनीतियों  की कई सुरंगें निकलती हैं। सुरंगों का मुँह सुरसा की तरह फैलता जाता है, और वह गाँव, जंगल, ज़मीन, नदी, पहाड़ और खाल निगलती जाती है। आज अनीतियों की सुरंगों के मुँह बंद करने की ज़रूरत है। घट्टी वाली माई की तलाश है।'' (वही, पृ. 26)।
ये दरअसल आप्तवाक्य नहीं हैं। आप्तवाक्य यहाँ एक युक्ति की तरह भी माना जा सकता है। असल समस्या है, वह प्रक्रिया और प्रविधि, वह उच्छलता और निरभ्रता, वह अपरिक्राम्यता और एकतानता, वह प्रतिश्रुति और प्रतिबद्धता, वह अहेतुकता और अविचलन; इत्यादि-इत्यादि; जो उस बंजारे और उस मनकामना उर्फ घट्टी वाली माई की सहजात वृत्तियाँ और पहचान मालूम पड़ती हैं, और निर्विवाद और नि:सन्देह जिनके चलते इतना बड़ा और ज़रूरी काम वे कर पाईं; इन वृत्तियों और पहचान को पुनस्र्थापित और पुनर्जीवित कैसे किया जाए! समस्या यह है कि आज जबकि राजा, राज्य के मन्त्री और अधिकारीगण (घट्टी वाली माई की पुलिया), मन और मोहन नामक दोनों ठग, व्यापारीगण (ठग), भारतीय पुलिस एवं न्याय-व्यवस्था (न्याय), प्रोफेसर हमज़ा कुरैशी, यूनुस, शहर काजी डा. अब्दुल्लाह अहमद अंसारी (काफिर बिजूका उर्फ इब्लीस), अजय, मि. महान, ऊँची चीज (सपने के ठूँठ का कोंपल), सीएमजी, स्थानीय विधायक जैसे राजनीतिक प्रतिनिधि (गम्मत), रामा बा, दायजी के भाइयों के बेटे, गाँव का सरपंच, पटवारी, थानेदार, टुल्लर, मदन (लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना), पटेल, छगन (पनही), चुन्नीलाल, चम्पा (बोंदा बा), रामसिंह चौधरी, महाराज, घासीराम, काशीराम, रामप्रसाद (गाँव और काँकड़ के बीच), पतराम, रामचरण, जग्गू, भग्गू (बिरादरी मदारी की बंदरिया), रतीनाथ, गजानाथ, सरपंच, कालूनाथ, जमनानाथ (भेम का भेरू माँगता कुल्हाड़ी ईमान) जैसे लोग किसी न किसी रूप में सकीना, सगुनी, रामकला, कला, गब्बू, जनाराम, बलवीर, माट्साब, बालू, पूरण, डूंगा, किशोर, बंसी, सोमला और मंगलियाँ, सतीश, पवन, मनकामना, रूपा, आमिर, मोहम्मद फहीम, बिजूका, प्रकृति, चाँदनी जैसे चरित्रों को नेस्तनाबूद करने में लगे हैं, तो इस परिपाटी पर कैसे विराम लगे? लेखक परेशान इस बात से है कि कहीं कुछ बदल नहीं रहा है! लोग पता नहीं किस मिट्टी के बने हैं कि लगभग तमाशबीन ही बने हुए हैं!
सत्यनारायण पटेल कहानी को वैचारिक प्रशिक्षण, बदलाव, समझ के विकास, विकल्प की तलाश की कार्यशाला जैसा प्ररूप देते चलते हैं तो इसका कारण दरअसल यही है कि वे चाहते हैं कि चीजें जितना जल्दी ठीक हों, उतना बेहतर! उनकी कहानी की संरचना का स्वरूप ही कुछ ऐसा है कि आप से आप यह बात ध्यान में आती है कि आज के राजनीतिक एवं सामाजिकार्थिक सवालों से टकराए बिना, न केवल उन पर विस्तृत विचार और बहस बल्कि इस प्रक्रिया से उन्हें पूरी तरह समझे बिना, व्यक्तिगत तौर पर भी तथा एक बुद्धिजीवी के तौर पर भी, इनमें शामिल हुए बिना और मौजूदा व्यवस्था का विरोध और प्रतिरोध और इसमें आमूलचूल बदलाव लाए बिना निज़ात नहीं! अपने बांदा वक्तव्य में लेखक ने बात शुरू ही यहीं से की है- ''मैं जिस दुनिया में रहता हूँ, उसमें होने वाली राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हलचल मेरे भीतर भी उथल-पुथल मचाती रहती है। बाहर से ज्यादा मेरे भीतर तरह-तरह से टूट-फूट होती रहती है। कभी खुद से तो कभी पूँजीवादी व्यवस्था, जो कि अव्यवस्था का उत्कृष्ट उदाहरण है, के प्रतिनिधियों से तमाम सवालों की दरकार रहती है। मैं अपने भीतर ज्वारभाटों की तरह उठती नुकीले सवालों की लहरों को चाहकर भी किसी रचनात्मक कौशल से कलात्मक कब्र में दफ्न नहीं कर सकता। सवालों के जवाब की खोज मुझे चैन से नहीं रहने देती है। अपने सवालों के जवाब में जब पूंजीवादी व्यवस्था के बूटों की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ठोकरों से ख़ुद को ज़ख्मी पाता हूँ, तो फिर मेरे कानों में प्रतिरोध का संगीत गूँजता है।''
सत्यनारायण पटेल ने एक राह और खोजी है। उनकी कई कहानियाँ प्रतिरोध की सत्यकथाएँ- जैसी प्रतीत होती हैं कि जैसे सचमुच में यह कहीं घटा हो और लेखक को चूँकि कुछ न कुछ कहने की खुजाल मची रहती है, सो वह ढूँढ-ढूँढ़कर ऐसी कहानियाँ निकाल के लाता है कि लगे कि दुनिया अब मरी कि अब मरी और अब ज़िन्दा हुई कि अब ज़िन्दा हुई! न जाने कहाँ से यह कहानी को गुज़ारता हुआ लाता है कि जब वह लगभग पूरी तरह हमारे सामने खुलती है तो लगता है कि हम यही तो चाहते थे कि ऐसा हो! हम नहीं जानते होते कि लेखक ने किसी युक्ति का सहारा लिया है या किसी कल्पना का कि किसी झूठ का या किसी और चीज का; लेकिन हम यह जरूर जान गए होते हैं कि यह कहानी इसी तरह आगे बढ़ सकती थी! जैसे कि उनकी बहुत ही महत्वकांक्षी कहानी 'भेम का भेरू मांगता कुल्हाड़ी ईमान' का यह लगभग अन्तिम परिच्छेद, जहां चीजें बदलीं तो फिर बदलती ही चली गईं- ''पर जो बदल रहा था, वह गजा का मन था और वह रामकला की बात, सगुनी के साथ किए बर्ताव के मलाल और अपनी आत्मा के ताप से पिघल रहा था।'' (भेम का भेरू माँगता कुल्हाड़ी ईमान, पृ. 144)। पता नहीं, लेखक ने जो यह कहा था कि ''इस घटना को कहानी में ढालते कथानक में आंशिक बदलाव किया है, बाकी पूर्ण सत्य है।'' (वही, पृ. 106); यह बदलाव यही है या नहीं क्योंकि खुद लेखक ने उससे थोड़ा पहले ही यह भी कहा था कि - ''यहाँ से आगे जो कहानी कही जा रही है, वह पीढिय़ों के अंतराल में किसी के जीवन में घटती है, और जिसके भी जीवन में घटती है, उसके जीवन से सारे रंग घटा देती है। जीवन और मौत के बीच का भेद मिटा देती है।'' (वही, पृ. 130)। यानी कि सकीना के साथ जो कुछ हुआ, वह वही था जिसे कालबेलियों की उस पंचायत ने तय पाया था। सगुनी, रामकला, वकीला, गजानाथ इत्यादि का हस्तक्षेप एक कलात्मक प्रस्तावना है जिसे लेखक एक विशेष अभिप्राय से संरचित करता है। लेकिन इस कहानी में इस सम्भावना के संकेत भी मिलते हैं कि हो न हो, सगुनी, रामकला, वकीला, गजानाथ इत्यादि का हस्तक्षेप कारगर साबित हुआ हो और सकीना की हथेली पर सुर्ख कुल्हाड़ी रखा जाना निरस्त हो गया हो! इस कहानी की ताकत यह है कि यह यथार्थ और यथातथ्यता के अँधेरे से निकलकर नई रोशनी के खुलेपन की ओर हमें ले जाती है। यह लेखक और यथार्थ के बीच की ही कहानी नहीं है, पाठक भी अनिवार्यत: यहाँ बीच में मौजूद है। यह मात्र लेखक का बूता नहीं है, जो यह कह सके कि ''अब डेरे के लोगों की रक्षा करना भोम्या महाराज के भी बस का नहीं रह गया है।'' (वही, पृ. 119) तथा यह कि ''अगर भोम्या महाराज होते, तो पंचायत के इस नाटक को रोक देते। भोम्या महाराज नहीं है...।'' (वही, पृ. 143)। हालाँकि यहाँ भी एक अतिशयता की स्थिति देखी ही तो जाती है जब कालूनाथ अपने भ्रम का ठीकरा भी भोम्या महाराज के सिर ही फोडऩा चाहता है- ''ङ्गङ्गङ्ग भोम्या महाराज होते, तो उस दिन मुझे बहकने ही नहीं देते। मन में भेम को दाखिल ही नहीं होने देते। सकीना को भरी पंचायत में ईमान जँचवाने लाने ही नहीं देते।'' (वही)। लेखक भी हाथ के हाथ यहां अपने नायक की ख़बर लेने से नहीं चूकता कि ''ङ्गङ्गङ्ग पंचायत भी तो उसी ने बुलवाई है। अब पंचों को किस मुँह से रोके? न हिम्मत हो रही थी, न उपाय सूझ रहा था। उसने अपने हाथों, अपने ही गले में ऐसा काँटा फँसा लिया था, जिसे न भीतर उतारा जा सकता था, न बाहर खींचा जा सकता था। (वही, पृ. 144)।
यह कहानी स्त्री की यौन-शुचिता की पुरुषवादी व्यवस्था पर सवाल उठाती है और उसे अमान्य घोषित करती है। कालबेलिया जैसे घुमन्तू समाज की अन्दरूनी संरचना इतनी पितृसत्तावादी और पुरुषवर्चस्ववादी हो सकती है, यह सामान्य सोच से बाहर की बात है क्योंकि सामान्यत: इस या इस तरह के दूसरे समाजों के बारे में यौन-शुचिता जैसी स्थितियों की कल्पना की ही नहीं जा सकती थी; क्योंकि ये समाज प्रारम्भ से ही इस तरह की वर्जनाओं से मुक्त रहे आए हैं। यह कथित सभ्य और सवर्ण जातियों की सामाजिकता का असर मालूम पड़ता है। जैसा कि इस कहानी में भी पंचायत बुलाकर सकीना का ईमान जँचवाने के विचार का बीज सरपंच द्वारा ही गजानाथ और रतीनाथ वाया जमनानाथ बोया गया था। और सरपंच, जैसा कि स्पष्ट है, पटेलों में से है और खुलेआम पक्षपात करता है। कालबेलियों को तो वह किसी गिनती में गिनता ही नहीं। लेखक ने सकीना में सहज प्रतिरोध के कुछ तत्व भरे हैं, जो पर्याप्त स्वाभाविक जान पड़ते हैं। दरअसल पंचायत के मार्फत सरपंच सकीना से अपनी यह पुरानी खुंस निकालना चाहता था- ''ङ्गङ्गङ्ग सकीना किसी न किसी बात को लेकर सरपंच से आए दिन भिड़ जाती थी। सरपंच चाहता था कि कालू अपनी लुगाई का मुँह बंद रखे, पर कालू इस मामले में कुछ नहीं बोलता था। उसे लगता था कि सकीना ठीक ही भिड़ती है और वह सरपंच से पुस भी पटक लेती है।'' (वही, पृ. 122)। सकीना का यह प्रतिरोध आगे अपने स्त्रीतत्व की रक्षा/आत्मसम्मान के काम भी आता है जब वह केवल स्त्री का ईमान जँचवाने का विरोध करती है और कहती है कि पुरुष को भी इस दायरे में लेना चाहिए- ''ईमान म्हारी इकली को नी, कालूनाथ को भी जाँचों। ङ्गङ्गङ्ग यो भी तो दो-दो, तीन-तीन महीना बाहेर रेवे है, किके मालम कि यो अपनो ईमान ख़राब नी करे।'' (वही, पृ. 137)।
सकीना का यह तर्क पंचायत की ठसता को हालाँकि नहीं तोड़ पाता पर और लोगों पर इसका असर जरूर पड़ता है। इनमें उसका बाप रामनाथ, सुगनी, कानानाथ, वकीला, रामकला इत्यादि शामिल हैं। कहानी में एक अवसर ऐसा आता है जब ये सारी आवाज़ें मिल जाती हैं और ईमान जाँचने का यह नाटक खत्म होता है। इनमें सबसे ज़्यादा साहस रामकला में हमें दिखाई देता है जब वह अपनी यौनिकता को दाँव पर लगाते हुए न केवल खुद आईने की तरह साफ हो जाती है बल्कि पंचायत में बैठे लोगों-कथित पंचों को भी तगड़ा आईना दिखा देती है- ''ईमान जाँचना है, तो इस मुच्छड़ पंच का जाँचो। इसने मेरा ईमान खराब किया। पूरा परगना में ठावी (बदनाम) की। डेरा की कितनी औरतों का ईमान बिगाड़ा। इनका ईमान जाँचों।'' (वही, पृ. 144)।
यह कोई आवश्यक नहीं कि लेखक इस प्रतिरोध के मार्फत अपना रचनात्मक संकल्प ही पूरा कर रहा है जैसा कि अपने वक्तव्यों में अनेकश: वह कहता देख जाता है कि प्रतिरोध मेरा लक्ष्य है- ''ज़रूरत पडऩे पर... मैं अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए... वैसा साहस दिखाना चाहता हूँ... जैसे कोई अपने प्राण की रक्षा के लिए दिखाता है। मेरे प्राण और मेरी लोक संस्कृति मुझे समान रूप से प्यारे हैं। इसलिए मैं ख़ुद को प्रतिरोध की लोक संस्कृति के करीब पाता हू्ं। किसी भी कलात्मक रचना में चेतना की चिन्गारियाँ.... जो पूंजीवादी व्यवस्था को झुलसाती हों। मैं पूँजीवादी व्यवस्था की राख देखने के सपने से भरा, आपके ही बीच का साधारण इंसान हूँ।'' (उक्तानुसार बांदा वक्तव्य, पृ. 01) निश्चय ही प्रतिरोध लोक-संस्कृति का एक सहजात अवयव है पर क्या यह कहना गलत होगा कि वस्तुत: प्रतिरोध मनुष्य मात्र की एक सहजात और स्वाभाविक प्रवृत्ति है, यह जन्मजात रूप से उसमें होती है, परिवर्तनशीलता चूँकि हमारा काम्य है और परिवर्तन चूँकि बिना प्रतिरोध के होता नहीं है, अत: प्रतिरोधी चेतना तो एक मनुष्य के रूप में हमारे ख़ून में है। अब यह अलग बात है कि हम उसका कितना उपयोग करते हैं और करते हैं कि नहीं करते हैं। जैसे कि यदि इसी कहानी (भेम का भेरू,) को लिया जाए तो जिन पात्रों के नाम ऊपर लिए गए; रामनाथ, सुगनी, कानानाथ, वकीला, रामकला इत्यादि; उनसे किसी ने कहा नहीं था कि पंचायत की इस व्यवस्था का विरोध किया जाए! सगुनी जो यह कहती है कि ''सकीना का हाथ पे कुल्हाड़ी मत धरो, ये अंधविश्वास है।'' (भेम का भेरू मांगता कुल्हाड़ी ईमान, पृ. 141) और रामकला अपनी यौनिकता को दाँव पर लगाकर ?अपने बारहे में जो कुछ स्वीकारती है, तो यह सब वे किसी के कहने पर नहीं बल्कि अपनी अन्त:प्रेरणा के वशीभूत होकर करती हैं। यहां तक कि कालूनाथ; जो कि अपनी पत्नी का ईमान जँचवाने पंचायत बुलवाता है; को भी कालान्तर में यह लगने लगता है कि कहीं उसने अपने पैरों में ही तो कुल्हाड़ी नहीं मार ली!- ''वह जैसे-जैसे सोच रहा ता, उसका मन ग्लानि से भर रहा था।'' ङ्गङ्गङ्ग ''जैसे-जैसे पंच सुर्ख कुल्हाड़ी लेकर सकीना की ओर बढ़ रहा था, कालू के भेजे में आरियाँ चल रही थीं।...'' (वही, पृ. 142 एवं 143)। देखने की असल बात यह है कि आिखर यह दूसरा विचार आ कैसे और कहां से रहा है? क्या यह नहीं माना जा सकता कि ये कथित लोक-समाज अब नई रोशनी से परिचित हो रहे हैं। इन लोक-समाजों का पुराना ढाँचा टूट रहा है और नया ढाँचा जो बन रहा है, वह कई ऐसी चीजों को लेकर चल रहा है, जो वैचारिक तौर पर इन्हें एक भिन्न मानसिकता में ढाल रहे हैं। इस कहानी में एक महिला है, जो स्वास्थ्य के क्षेत्र में सक्रिय किसी स्वयंसेवी संस्था में काम करने वाली प्रतीत होती है, जो कालबेलियों की इस बस्ती में बराबर आती दिखती है और सारी औरतें जिसे 'दीदी' पुकारती हैं; कहानी में सा$फ उल्लेख है कि इस महिला के सम्पर्क में आने के बाद सकीना बहुत समझदार और दृष्टिसम्पन्न हो गई थी- ''पैंतीस-चालीस की कालबेलनों में कभी सबसे कम बोलने वाली सकीना, दीदी के संपर्क में आकर काफी चंट और पटापट जवाब देने वाली हो गई थी। ङ्गङ्गङ्ग पढ़ी-लिखी दीदी की तमाम बातों ने सकीना की आँखें खोल दी थीं।'' (वही, पृ. 117-18)
सत्यनारायण पटेल की दूसरी कहानियों की बात करें तो वहाँ एक ऐसा केटेलिक एजेंट-जैसा पात्र कई जगह पाया जाता है, जो चेतना जगाने का काम लगातार करता जाता है और जो बहुत बेचैन और परेशान रहता है और जिसके मन में जनता की बहबूदी के अनन्त के अनन्त सपने हैं। 'भेम का भेरू मांगता कुल्हाड़ी ईमान' की एक महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता, 'गाँव और काँकड़ के बीच' का बालू, 'बिरादरी मदारी की बंदरिया' के माट्साब, 'सपने के ठूँठ का कोंपल' के सतीश और पवन, 'गम्मत' का बंसी, 'ठग' का होशियार और सबसे ऊपर 'काफ़िर बिजूका उर्फ इब्लीस' का वह हाड़-मांस का बिजूका। कहानी में इस तरह के एक सचेत/चेतना-प्रदाता पात्र की उपस्थिति सत्यनारायण पटेल की कहानियों का लगभग एक पैटर्न-सा दिखाई पड़ता है। यह पात्र कहानी में उनके अपने लेखकीय हस्तक्षेप का साधन या माध्यम तो बनता ही है, इसीके साथ यथार्थ के पर्यालोचन और वैकल्पिकता की तलाशका संस्रोत भी बनता चलता है। इसके अलावा भी सत्यनारायण पटेल की कहानियों में कुछ ऐसे पात्र ज़रूर पाए जाते हैं, जो आवश्यकता पडऩे पर तनकीदी तफसरे से क़तई चूकते नहीं हैं। ये पात्र कोई चेतना की खान नहीं होते, कोई बुद्धिजीवी या किसी संगठन के कार्यकर्ता नहीं होते। ये कहानी के प्रवाह में चलते सामान्य-सहज चरित्र होते हैं, जिन्हें यक़ायक़ कोई ऐसी बात सूझती है कि कथावस्तु का रास्ता यू-टर्न लेता हुआ सारी कहानी को एक कलात्मक वैचारिक ऊँचाई पर ले आता है। जैसे कि 'पनही' कहानी की पीराक जो अपने पति पूरण की बुज़दिली और पटेल से समझौतापरस्ती के शर्मिन्दा कर देने वाले आचरण पर भारी तंज़ कसते हुए कहती है- ''कहाँ हैं आदमी, यहाँ तो सब कीड़ी-मकौड़े हैं। इनकी औलादें भी ऐसी ही होंगी। कभी नहीं भणेंगे, कभी पनही नहीं पहनेंगे। जिनगीभर उबाणे पगे पटेलों की जी हुजूरी करेंगे।'' ङ्गङ्गङ्ग ''पटेल की पनही पर धरे माथे की क्या आरती उतारें, ऐसा माथा कट जाए तो भला'' (वही, पृ. 25)। ध्यान दिया जाए कि पूरण पीराक का पति है। पर इससे भी ज़्यादा ध्यान देन ेकी बात यह है कि पीराक की सहज प्रतिरोधी चेतना ऐसे पति को बख़्शती नहीं है जो अपने और अपने समाज के आत्मसम्मान की रक्षा के प्रति इतना $गैर-होश है!
इसी तरह 'गाँव और काँकड़ के बीच' का बालू है, जो धीरे-धीरे अपनी कहानी भूल काँकड़ की कहानी में उसे विन्यस्त कर देता है और सारी कहानी गाँव के जातिगत यथार्थ का मर्मभेदी आख्यान बन जाती है। यह कहानी एक व्यक्ति के 'डि-कास्ट' होने की एक सत्यकथा-सी प्रतीत होने लगती है। ऐसी कहानियों की हिंदी में लम्बी परम्परा है और एक तरह के जातिगत सद्भाव की स्थितियाँ वहाँ देखी गई हैं। पर अब स्थितियाँ बदली हैं और सद्भाव सिरे से गायब हो गया है। अब सारी चीजें लगभग सत्ता और सम्पत्ति के सम्बन्धों में रूपायित हो गई हैं। अब जातियों के बीच पुल का समय समाप्त है। अब या तो समर्पण और समानुकूलन है या फिर प्रतिरोध और संघर्ष। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि सत्यनारायण पटेल की कहानियाँ समानुकूलन को परखते हुए अनन्त: संघर्ष और प्रतिरोध की स्थितियों से दो-चार होती हैं। यह शायद बालू के डिकास्ट संघर्ष और प्रतिरोध का ही नतीज़ा था कि जिसके साथ दो आदमी नहीं थे, आज पूरा काँकड़ उसके साथ था- ''मुन्ना ने पीछे पलटकर देखा तो लगा कि पूरा काँकड़ ही उसके पीछे चल रहा था। ङ्गङ्गङ्ग 'आज कितना बड़ा कुनबा बनाया है बालू ने।' '' (वही, पृ. 82)। 'बिरादरी मदारी की बंदरिया' में यह क्रम और आगे बढ़ता है और जनाराम के मार्फत एक जातियुक्त समाज का सपना नमूदार होने लगता है। मज़े की बात यह है कि इस प्रक्रिया के पीछे और कोई आदर्शवाद नहीं है बल्कि ज़िन्दगी की ज़रूरत और असल सच्चाई निहित है। जनाराम को अपनी बेटी कला की शादी किसी उचित और योग्य लड़के से करनी है। यह लड़की की ज़िन्दगी का मामला है। वह लोभ या दबाववश किसी अयोग्य, लम्पट और बेमेल पुरुष से उसे नहीं बाँध सकता; जैसा कि पतराम लगातार तरह-तरह से अपने बेहूदा लड़के रामचरण से उसकी शादी कराना चाहता है। एक तरह से यह भी एक दबाव है कि आपके सामने प्रतिरोध और संघर्ष के अलावा कोई रास्ता ही नहीं बचता!
मैं यह बिल्कुल मानने को तैयार नहीं हूँ कि सत्यनारायण पटेल यहाँ किसी आदर्शवाद की गिर$फ्त में हैं। वे निहायत ही सहज भाव से ज़िन्दगी की एक अपरिहार्यता का बखान कर रहे हैं। अब यदि यह अपरिहार्यता किसी संघर्ष या प्रतिरोध के रास्ते पर ले चलती है तो यह मात्र एक संयोग ही तो कहा जाएगा! जिन्हें यहाँ किसी आदर्शवाद की बू आती है और इस तरह जो इन नई सामाजिकार्थिक स्थितियों से आँखें मँूदे रखना चाहते हैं, वे अपने वैचारिक शातिरपन से बाज़ आएँ और देखें कि समाज की केन्द्रीयता अब उनकी बपौती नहीं रही है। वैकल्पिक समाज के बनने के दिन अब आ गए हैं और उनकी पुरोहिती की अब किसी को ज़रूरत नहीं है- ''जात बिरादरी में क्या रखा है जो पतराम बार-बार जात बाहर करने की धौंस देता है? आदमी जात क्यों नहीं छोड़ पाता? मैं ख़ुद को जात की खोल से मुक़्त करता हूँ। आज से मैं बेजात हूँ और बेजात ही भला।'' (वही, पृ. 104)। और यह सब इसी मौजूदा समय में हो रहा है, जबकि, जैसा कि ऊपर कहा गया कि प्रतिगामी शक्तियाँ अपने शबाब पर हैं। उत्तरआधुनिकता किंवा उत्तरपूँजीवाद की अन्तर्वस्तु ही यह है कि एक हाथ इधर और दूसरा उधर! इधर ज़बर्दस्त पूंजी का प्रवाह, चाकचिक्य, चकाचौंध, रोशनी के रेल लेकिन उधर बेतहाशा दम तोड़ती हाशिए के समाजों की न्यूनतम आकांक्षाएँ और आवश्यकताएँ और आत्मसम्मान! स्त्री ('भेम का भेरू माँगे कुल्हाड़ी ईमान', 'एक था चिका एक थी चिकी', 'काफ़िर बिजूका उर्फ इब्लीस'), दलित ('पनही', 'गाँव और काँकड़ के बीच'), आदिवासी ('गम्मत'), अल्पसंख्यक ('न्याय') तथा और दूसरे ऐसे ही 'बाक़ी' तबक़े जहाँ चाहे, चले जाएँ, यह देश उनका नहीं है।
विकास के काम में सवाल-जवाब ठीक नहीं। रही बात आपकी भूख, जल-जंगल-ज़मीन पर आपके स्वत्वाधिकार और मनुष्य के रूप में आपके मानवाधिकारों, आत्मसम्मान, आत्मगौरव की बात, तो अब दोनों हाथों में तो लड्डू नहीं हो सकते न! एक न एक चीज तो आपको छोडऩी ही होगी। क्या कहा, विकास? आप विकास से निज़ात पाना चाहते हैं, विकास से, जिसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत आपको है! ठीक है। लेकिन विकास के इस पहिये को रोकना हमारे हाथ में नहीं है, यह किसी और रिमोट से चल रहा है! सत्यनारायण पटेल विकास के इस कथित दृश्यमान रूप के अन्दर के हिडिन एजेंडे और उसके अन्दर छिपी उत्तरपूँजीवादी, उत्तरआधुनिकतावादी, उत्तरजनतान्त्रिक दुरभिसन्धियों को कुछ ऐसी बेरहमी और पोलखोलू अन्दाज़ में सामने लाते हैं कि सारा परिदृश्य शीशे की मानिन्द आर-पार दिखाई देने लग जाता है। 'गम्मत' कहानी इस मामले में देखी जा सकती है जहां लेखक सा$फ तौर पर मौजूदा राज्य-तन्त्र/राष्ट्र-राज्य के खोखलेपन को उजागर करता है। यहाँ बंसी के रूप में वह कहानी में बाक़ायदा उपस्थित है और एक लेखक की ज़िम्मेदारी निभा रहा है। यह कहानी लेखकीय सृजन-प्रक्रिया का भी एक विश्वसनीय आख्यान है, जहाँ ऊपर-ऊपर दीखते दृश्य के भीतर के अन्तर्दृश्यों पर लेखक की अपेक्षाकृत ज़्यादा पैनी नज़र है। जैसा कि इसी कहानी के हवाले से ऊपर कहा गया, लेखक पच्चीकारी से सायास बचा है और उसका ध्यान केवल सत्यानुसन्धान पर है। वह वास्तविक सच्चाई की अन्दरूनी सतह तक पहुँचने की चेष्टा में कई जो$िखम भी उठाता है पर बिना रुके लगातार अपने काम में लगा रहता है जैसे कि हमारे यह 'गम्मतबाज' मुख्यमन्त्री (लाल छींट की लूगड़ी का सपना, प. 96) जो कि इस 'खोखलतंत्र की खाप पंचायत का' (वही, पृ. 68) एक पंच जैसा है; अपने 'आओ, बनाएँ अपना हृदय प्रदेश... यात्रा अभियान पर निकला है और कभी अपनी 'फर्राट हिंदी' (80), कभी 'लच्छेदार भाषा' (84/85), कभी 'संघीय हिंदी' (86), कभी सूत्र वाक्यों से, कभी तरह-तरह के 'पोज' (84)/मुद्राओं से लोगों को भेड़ों की तरह एक तर$फ जाने की नहीं, सड़क पर दौड़ते रहने को ही दौड़ा रहा है (92)। यहाँ तुलना इन दोनों की लगन, अपने कार्य के प्रति समर्पण, तत्परता, ईमानदारी इत्यादि के लिए की गई है। लेखक की तो जो ईमानदारी है, सो तो है ही; पर सीएमजी भी अपनी ईमानदारी में यहाँ किसी से कम नहीं पड़ते। गम्मतबाज़ी का ऐसा बेमिसाल उदाहरण मिलना मुश्किल है, जहाँ सरेआम लोगों को इस तरह चलाया जा रहा हो! जैसे किसी मन्दिर के पुजारी को यह पता होता है कि यह मूर्ति, जिसकी वह इतनी सेवा, पूजा कर-करवा रहा है; मात्र एक प्रस्तर-प्रतिमा है, बेजान है ठीक उसी तरह सीएमजी और उनके कार्यकर्ताओं, करीबियों, घरैतियों को पता है कि यह जो 'आओ, बनाएँ अपना हृदय प्रदेश...' का यात्रा-अभियान है, यह एक परले दरज़े की गम्मतबाज़ी से ज़्यादा कुछ नहीं! यह गम्मतबाज़ी इसलिए करनी पड़ रही है कि 'संसद में... व्हाइट हाउस के राक्षस के मन माफिक नीतियाँ पारित' (60) की जा सकें, 'धन्ना सेठों की औलादों की मनचाही शोहरत के शिकरों पर चढ़ाया जा सकें'/इसके एवज में एकलव्यों, अच्छे-अच्छे विद्याधरों को उनके मान-सम्मान से महरूम रखा जा सके (68), 'हृदय प्रदेश में सैकड़ों जगहों पर पं. फलाना किशोर नागर, फलाना रामबाबू, फलाने ठाकुरजी, फलानी चमकेश्वरी देवी आदि जैसे ढोंगी, लोगों का मगज बदलने में लगे' (72) रहें', बच्चों को पढ़ाने वाले 'जो पिंजरो मैकाले ने बना दिया है... उसी में चक्कर काटते रहे हैं... जो सिलेबस शिक्षा माफिया ने थोप दिया है... उसी का रट्टा लगवाते रहें' (73), 'सोमला की तंद्रा कभी न टूटे, उसका अशिक्षा का अँधेरा कभी न छँटे' (89), इस क्षेत्र को अनपढ़, पिछड़ा बनाये रखने की साज़िश करने वाली साम्राज्यवादी व्यवस्था की सी एम जी बना रहा जा सके और सबसे बड़ी बात यह कि वे जो चाहे घोटाला करें पर उससे बचकर साफ बेदाग निकल लें- ''डंपर घोटोले की अभी जाँच चल रही है। सी एम जी को भरोसा है कि वे सब कुछ मैनेज कर लेंगे, उन्होंने मैनेजमैण्ट के गुर आर एस एस की शाखाओं में सीखे हैं... और देखना एक दिन... जाँच में दूध का दूध और पानी का पानी साबित करवा देंगे।'' (वही, पृ. 80)। इस गम्मतबाज़ी का कुल मक़सद यही है कि यथास्थिति बनी रही आए! यथास्थिति ही नहीं, एक ऐसा घौच-पौच का माहौल बना रहे, लोग कुछ इस क़दर दिग्भ्रमित और संवेदनशून्य-से बने रहे आएँ कि उन्हें पता ही न चल सके कि सतह के नीचे क्या चल रहा है, हमारे राजनीतिक और सामाजिकार्थिक एजेंडे का वास्तविक अर्थ क्या है! इसके लिए सबसे ज़रूरी बात यह है कि लोगों को यह बताया और समझाया जाए कि वे किसी पचड़े में न पड़ें, राजनीति और सत्ता के मामलों से दूर रहें; सिर्फ अपने उस काम से काम रखें जो उनका कर्तव्य-कर्म है, जिसका कार्य-भार उनके पास है- ''मैं फिर आपको साफ-साफ कह रहा हूँ कि हृदय प्रदेश सभी का है। विकास भी सभी को मिलकर करना होगा। जिसको ईश्वर ने जो काम सौंपा है। यानी जो शिक्षक है, वह ईमानदारी से शाला में जाये और शिक्षा दे। जो पुलिस है, वह ईमानदारी से अपना कर्तव्य पूरा करे। जो किसान है, खेती करे, जो मजदूर हैं, मज़दूरी करें। नेता है जो जनता की सेवा करें, ङ्गङ्गङ्ग बेईमानी के काम न करें।'' (वही, पृ. 87)। यानी कि इस व्यवस्था में जो जहाँ जिस तरह फिट है, वह वैसा ही, उसी जगह बना रहे, और बस! लेखक की यह टीप यहाँ द्रष्टव्य है- ''बंसी के मगज को पं. फलाने किशोर नागर की बातें और सी एम जी की बातें एक-दूसरे का समर्थन करती लगीं। उसे इन बातों की जड़ मनु स्मृति से आती लगी।'' (वही) धर्म और राजनीति का यह मेल राजनीतिक गम्मत का एक नया उपक्रम है, जिससे जूझने के लिए नई रणनीति की दरकार होती है।
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प्रतीत ऐसा होता है कि सत्यनारायण पटेल कहानी लिखते ही नहीं, उसे जीते भी हैं। वह उनके अपने प्रत्यक्ष भौतिक जीवन में या तो लिखे जाने से पहले घट चुकी होती है या लिख जाने के बाद उसे घटना होता है। अलबत्ता उनके अपने जीवन से उनका कोई लेना-देना होता ज़रूर है। वे हो सकता है, उसमें शमिल भी हों। शामिल न हों तो उसके गवाह तो कम से कम होते ही हैं। शायद इसी के चलते ऐसा है कि उनकी कहानियाँ कहानियां कम गुफ्तगू ज़्यादा लगती हैं। लोक-शैली उन्हें प्रतिरोध के कारण ही नहीं इसलिए भी प्रिय है कि उसमें यह माद्दा है कि हम कहीं भी, कभी भी अनौपचारिक हो सकते हैं। अनौपचारिकता सत्यनारायण पटेल के व्यक्तिगत स्वभाव में भी है और उनकी कहानियों में भी। मैंने कहा कि सत्यनारायण की कहानियाँ वैचारिकता की कार्यशाला जैसी प्रतीत होती हैं तो जैसा कि हम जानते हैं; अनौपचारिकता किसी भी कार्यशाला का प्राणतत्व होती है। सत्यनारायण पटेल की लगभग सारी ही कहानियाँ इसी परिपाटी पर चलती हुई पाठक से राब्ता क़ायम करती हैं। वैसे तो मशीनी तरीके से कहानी कभी नहीं लिखी जा सकती लेकिन ऐसी कहानियाँ, जो बात को समझने-समझाने के मक़सद से लिखी जाएँ, उनका कोई एक ढाँचा न तो बनाया जा सकता है, न होता ही है। ऐसी कहानियाँ अपना ढाँचा आप होती हैं और इनका ढाँचा उनकी अन्तर्वस्तु में से ही फूटता चला जाता है। जैसे कि 'गम्मत' कहानी को जब हम पढऩा शुरू करते हैं तो बिल्कुल ही अन्दाज़ा नहीं हो पाता कि यह कहानी इतनी लम्बी भी बन सकती है। यह कहानी इतनी लम्बी क्यों हो गई; यह अपने-आप में एक ज़रूरी सवाल है क्योंकि इस सवाल का सम्बन्ध इस कहानी की अन्तर्वस्तु, इस अन्तर्वस्तु के प्रति लेखक के रवैये और सबसे ऊपर इसके पाठक; इन तीनों से है। अन्तर्वस्तु तो जो है, सो है ही, लेखक का रवैया भी लगभग स्पष्ट ही है। असल समस्या है, पाठक! पाठक को समझाते चलना है कि यह जो सी एम जी कर रहा है, वह गम्मत कैसे है! लेखक को यह बराबर लग रहा है कि हिन्दी का बहुत-सारा पाठक-वर्ग इन सोमलाओं की तरह ही ताड़ी/महुआ पीकर पड़ा रहता है, उसे होश ही नहं हबै कि उसकी भावनाओं और अपेक्षाओं के साथ कैसा खिलवाड़ लेखन की दुनिया में अरसे से होता आ रहा है! आज भी यह खिलवाड़ एक भिन्न रूपाकार से जारी है। पीछे सत्यनारायण पटेल के एक आत्मवक्तव्य के मा$र्फत गमले में रोपे गए और पथरीली ज़मीन की छाती को चीरकर प्रस्फुटित हुए पौधों के रूपक के मार्फत लेखन की दुनिया में बाज़ार की घुसपैठ का जो हवाला आया है, वह दरअसल एक प्रकार की गम्मतबाज़ी ही है, जो पूरे होशो-हवाश में की जा रही है। लेखक जैसे सोमलाओं के बहाने हमें ही चेता रहा है- ''सोमला की तंद्रा कब टूटेगी? अशिक्षा का अँधेरा कब छँटेगा?'' (लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना, पृ. 89)। इसके साथ ही 'मामा' की गम्मतबाज़ी का आन्तरिक सच उजागर करते हुए वह जैसे हमें हमारी ज़रूरतों के प्रति ही आगाह कर रहा है- ''सी एम जी ने रोज़गार, स्कूल, अस्पताल वाचनालय या ऐसी कोई घोषणा नहीं की, जिसकी जनता को सख़्त ज़रूरत है।
'गम्मत' कहानी के बंसी पर थोड़ा गौर किया जाए तो वह लेखकीय रचना-प्रक्रिया और प्रविधि की कई परतों को खोलता नज़र आएगा। मसलन यह कि उसके पास वैकल्पिकता की कमी नहीं है, दूसरा पक्ष/दूसरी परम्परा सदैव उसके पास है - ''बंसी विचलित हो रहा है, बंसी का एक कैमरा तो टूट गया था लेकिन दूसरा अभी साबुत था। इसी से वह अपना काम कर रहा था।'' (वही)। बंसी की जो-जो गतिविधियाँ कहानी में लेखक ने अंकित की हैं, उनसे साफ यह ज़ाहिर हो जाता है कि लेखक का ध्यान सिर्फ बंसी पर नहीं है, लगातार कहीं और भी है। इसीलिए बंसी में वह एक ऐसे दृष्टि-सम्पन्न रचनाकार, हस्तक्षेपकारी कार्यकर्ता, यथार्थ-विश्लेषक की छवि रुपायित करता चलता है कि लगता है कि अपने संकल्पानुसार 'संघर्ष की पथरीली ज़मीन की छाती चीरकर प्रस्फुटित हुए पौधे' का एक साकार उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हो! गमले में रोपे गए पौधे के बरअक्स प्राकृतिक रूप से पैदा हुए पौधे की अपनी संकल्पना को मूर्तिमान होता देख रहा हो! यथार्थ में सहभागिता ऐसे लेखक की एक अनिवार्य नियति है। वह 'दूर बैठे का दु:ख' के तहत नहीं बल्कि दु:ख के एकदम अन्दर घुसकर उसकी असल वज़हों की तहक़ीक़ात करता है। उसका कैमरा उसकी एक आँख है। लेकिन इस दृश्यमान आँख के अलावा और भी कई आँखें उसके पास हैं। वह अपनी इन सारी आँखों को एक साथ सक्रिय रखता है- ''वह केवल कैमरे से ही वीडियोग्राफ नहीं करता, बल्कि जैसे कैमरा ख़ामोशी से अपने भीतर, बाहर का शोर-गुल समेटता रहता है, वैसे ही बंसी भी नजरों से बाहर का नज़ारा अपने भीतर समेटता रहता।'' (वही, पृ. 73)। कैमरे से बाहर और चीजों को उनके अन्दर से अन्दर जाकर समेटने का यह सामथ्र्य बंसी का नहीं खुद लेखक सत्यनारायण का है- ''बंसी की आँखें समेट रही हैं वह सब, जो इतनी तेजी से उसका कैमरा भी नहीं समेटता।''(वही, पृ. 73)। ''बंसी सब कुछ को अपने कैमरे में और मगज में समेट रहा है। उसका काम ही समेटना है।'' (वही, पृ. 79)। ङ्गङ्गङ्ग ''हजारों आँखों में एक साथ एक ही हेलीकाप्टर उड़ रहा है। बंसी चाहता है आँखों में उड़ते हेलीकाप्टर को शूट करना,'' (वही)। ङ्गङ्गङ्ग बंसी समेट रहा है, न सिर्फ फूलों का सिसकना। बल्कि समेट रहा है- भीतर-बाहर के ठहाकों, भाषणों, भारत माता की...जै...वन्दे मारतम् के शोर में सोमलाओं और मंगलियों के पैरों में बँधे घुँघरूओं, गले में झूलते ढोल, माँदल और थाली की कर्कश ध्वनि, कुर्राटी... इन सबके बीच से रिसती बेबस सिसकी का झरना भी। वह महसूस कर रहा है- झरने का खारा और कसेला स्वाद।'' (वही, पृ. 91)। ङ्गङ्गङ्ग बंसी सुन रहा है- दोपहर की साँय...साँय में सायरन...बंसी सायरन और दोपहर की साँय...साँय समेट रहा अपने भीतर।'' (वही)। आदि-आदि।
अब शायद यह ज़रूरी है कि चीजें एकदम साफ-साफ सामने लाकर रख दी जाएँ, राजनीतिक और सामाजिकार्थिक स्थितियों की स्पष्ट आख्या प्रस्तुत की जाए, साफ-साफ बताया जाए कि माजरा क्या है, पेंच कहाँ फँसा है! इसका कारण सम्भवत: यह है कि पाठकों और दर्शकों को दिग्भ्रमित और दृष्टिहीन करने के बीस तरह के आयोजन इन दिनों चालू हैं। परदे पर जो दिखाया जा रहा है, परदे के पीछे की स्थिति उसके एकदम अनुरूप हो, यह आवश्यक नहीं। जैसे कि 'सपने के ठूँठ पर कोंपल' के ऊँची चीज, मि. महान, अजय इत्यादि चरित्र। एनजीओ'ज़ की कथित समाजसेवी का गम्मतबाजी की गूँज 'गम्मत' कहानी में भी सुनाई पड़ती है- ''व्यावसायिक राजधानी में तो इस वक़्त चकाचक और भूरी सड़क पर सज-धज कर चटोरी रात, किसी मालदार कंपनी की लोक कल्याणकारी योजना से फण्ड लेकर समाज सेवा करने वाले एन.जीओ. कर्मी की तरह मज़े मार रही होगी। बंसी ने ख़ुद से कहा- एन.जी.ओ. कर्मी/यौनकर्मी/जुमले दो अर्थ पर्याय।'' (वही, पृ. 76) (ऊँची चीज, मि. महान, अजय, राजा, राज्य के मन्त्री और अधिकारीगण, मन और मोहन नामक दोनों ठग, व्यापारीगण, भारतीय पुलिस एवं न्याय-व्यवस्था, प्रोफेसर हमज़ा कुरैशी, यूनूुस, शहर क़ाज़ी, डॉ. अब्दुल्लाह अहमद अंसारी, सीएमजी, स्थानीय विधायक जैसे राजनीतिक प्रतिनिधि, रामा बा, दायजी के भाइयों के बेटे, गाँव का सरपंच, पटवारी, थानेदार, टुल्लर, मदन, पटेल, छगन, चुन्नीलाल, चम्पा, रामसिंह चौधरी, महाराज, घासीराम, काशीराम, रामप्रसाद, पतराम, रामचरण, जग्गू, भग्गू, रतीनाथ, गजानाथ, सरपंच, कालूनाथ, जमनानाथ जैसे लोगों के बारे में अब लोगों को सा$फ-सा$फ बताना ज़रूरी है कि वस्तुत: ये लोग कर क्या रहे हैं! जैसे कि 'गाँव और काँकड़ के बीच' के मुखिया और उनके गुर्गे महाराज इत्यादि बालू से इसलिए अपमानजनक व्यवहार नहीं करते कि उसके शरीर पर धब्बे हैं, जिसके चलते कि सब लोग उसे 'काबर्या' पुकारते थे बल्कि यह उनकी बालू को मानसिक रूप से हतोत्साहित और हीन बनाने की सोची-समझी रणनीतिक चाल है ताकि उसका मनोबल तोड़कर उसके खेत और घर पर क़ब्ज़ा किया जा सके। (द्रष्टव्य; भेम का भेरू मांगता कुल्हाड़ी ईमान, पृ. 58)। या इसी तरह 'लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना' में डूँगा के साथ जो कुछ हो रहा है, वह सिर्फ उसका आत्मविश्वास और मनोबल तोडऩे के लिए है कि वह अपना खेत बेच दे और छुट्टी पाए! इस तरह के और भी उदाहरण इन कहानियों में भरे पड़े हैं। लेकिन लेखक केवल विडम्बना के हवाले कर इन पात्रों को अधर में नहीं छोड़ जाता, बल्कि साफ-साफ यह उल्लेख करता है कि ये सारे लोग किस क़दर संघर्षशील हैं। कि कैसे सकीना, सगुनी, रामकला, कला, गब्बू, जनाराम, बलवीर, माट्साब, बालू, पूरण, डूँगा, किशोर, बंसी, सोमला और मंगलियाँ, सतीश, पवन, मनकामना, रूपा, आमिर, मोहम्मद फहीम, बिजूका, प्रकृति, चाँदनी जैसे ये सभी लोग अपने-अपने मोर्चों पर लगातार संघर्षरत हैं! जैसे कि डूँगा के बारे में लेखक कहता है कि ''डूँगा है मरियल, पर है बड़ा चामठा।'' (लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना, पृ. 132)।
मेरा विचार है कि हिन्दी कहानी की शिल्प-विधि की परम्परा में यह एक नया प्रावधान है कि अब पाठक को यह साफ-साफ बताना होगा कि हर तरफ कैसी गम्मतबाज़ी उनके साथ की जा रही है कि कैसे सच्चाई को सात तहख़ानों में छुपाकर दफ्न कर दिया जाता है कि कैसे कोई इस बात का पता नहीं दे सकता कि इस देश में किसकी क़ीमत पर किसका क्या 'विकास' हुआ है- ''जैसे तीरसठ सालों से गुड़कती विकास की गाड़ी के पहियों को सोमलाओं की गर्दन पर से गुज़रते किसी ने नहीं देखा। कोई गवाह नहीं।'' (लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना, पृ. 93)। सत्यनारायण पटेल के मार्फत सम्भवत: हिन्दी की नई कथा-पीढ़ी का यह साफ-साफ प्रस्ताव है कि बहुत हो चुका। बाज़ार से लडऩा है तो उसकी असलियत, उसके पीछे सक्रिय लोगों, एजेंसियों के बारे में अब साफ-साफ बताना होगा! पाठक दिग्भ्रमित हो सकता है इसलिए अब लेखक को न केवल साफ-साफ अपना स्टैण्ड लेना होगा बल्कि उसे साफ-साफ बताना होगा! अपनी कहानियों तथा अन्य लेखक के मार्फत लेखक अब अपने पाठक को सचेत करना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि यह उनका एक ऐतिहासिक लेखकीय कार्यभार है, जिसे हर हाल में उन्हें पूरा करना है। यदि उन्हें गमले में रोपे गए पौधे की नियति से निज़ात पानी है तो यह दायित्व उन्हें निभाना ही होगा! लेखक और पाठक के बीच का यह रिश्ता ठीक वैसा है, जैसा 'सपने के ठूँठ पर कोंपल' में कथानायक सतीश और पवन के बीच है। यह मात्र संयोग या शौक नहीं है बल्कि एक पूरा विचाराग्रह और प्रतिरोध-चेतना इसके पीछे मौजूद है कि पवन ने सतीश द्वारा दिए गए पैसों से धीरे-धीरे एक वाचनालय की ही स्थापना कर दी- ''-भिया आप जितनी अर्थियों के सामान के पैसे देते थे, मैं उनके मुनाफे के पैसों से नई किताबें ख़रीदता था। उसने अपने सोच पर अमल किया, तो किताबें बढऩे लगीं। फिर किताबों को अपनी दुकान के पिछले हिस्से में जमा दी और एक पुस्टे पर चाक से लिख दिया- वाचनालय।'' (वही, पृ. 46)। लेखक और पाठक के बदलते रिश्तों का एक प्ररुप यह भी है कि लेखक अब इतना बेचैन रहने लगा है कि उसकी नींद तक महफूज़ नहीं है- ''बिजूका भी पलंग पर सोता। सोता तो क्या, करवटें बदला करता! क्योंकि बिजूका और नींद में जाने कितने जन्मों का बैर था। उसे अक्सर करवटें बदलते हुए रात सुबह की ओर धकानी पड़ती। कभी-कबी वह इतनी करवटें बदलता कि भीतर किताबों में सोये पात्रों की नींद उचट जाती। कभी बगल में रखी किताबें फिसलकर छाती पर आ गिरतीं। पन्नों के बीच से कोई बुदबुदाता- चैन नहीं पड़ रही क्या?'' (काफ़िर बिजूका उर्फ इब्लीस, पृ. 103)। शक की कोई गुंजाइश न रहे इसलिए लेखक के बांदा वक्तव्य का यह अंश दिया जाना भी यहाँ समीचीन होगा कि किस तरह वह अपने पात्रों/चरित्रों के साथ अविभाज्य रूप से एकमेक है- ''कभी अपने भीतर 'लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना' कहानी के पात्र डूँगा का प्रतिरोध स्वरूप खँजड़ी बजाना सुनता-महसूस करता हूँ। कभी 'पनही' कहानी के पूरण की तरह पत्थर पर छुरी की धार करते देखता हूं। कभी 'भेम का भेरू...' की सकीना की तरह आँखों में सवाल भर कर पूंजीवादी व्यवस्था की कोख से जन्मे सवालों और समस्याओं को धूरता हूँ। मैं अपने द्वारा कही कहानियों के पात्रों का भी ऋणी हूँ... जिन्हें जानते-समझते मैंने अपनी समझ का भी विस्तार किया है।'' (पृ. 02)।
शायद लेखक और पाठक के बीच के इन बदलते रिश्तों का ही यह परिणाम और सबूत है कि अब कहानियों में ऐसे मुद्दे सामने आ रहे हैं जो अब तक या तो कला की कथित मर्यादा के नाम पर अवगुण्ठन में थे या लेखक-लोगों को उन्हें उठाने की हिम्मत नहीं थी। लेखक और पाठक के बीच के बदलते रिश्तों को उनकी एक और महत्वाकांक्षी कहानी 'काफ़िर बिजूका उर्फ इब्लीस' में आए एक रुपक द्वारा भी समझा जा सकता है जिसमें दो तरह के बिजूकाओं का लम्बा चित्रण लेखक करता है और तय पाता है कि उनके लिए क्या वरेण्य है। इन दो बिजूकों में एक लकड़ी का है और दूसरा हाड़-मांस का चलता-फिरता बिजूका। इन दोनों का जो लम्बा रुपकात्मक कथांकन लेखक ने किया है, वह इतना विविधायामी है कि हमारे यहाँ का समकालीन परिदृश्य और उसमें उपस्थित लोग साफ-साफ नज़र आने लगते हैं। एक है, लकड़ी वाला बिजूक़ा, जिसकी विशेषता यह है- ''ङ्गङ्गङ्ग खेत में खड़ा बिजूका फसल को पक्षियों से, सूअरों से, मवेशियों से और चोरों से नहीं बचा सकता। वह एक चिडिय़ा, एक कव्वे को भी फसल चुगने से नहीं रोक सकता। रोकना या भगाना तो दूर, कोई कव्वा खोपड़ी पर भी आकर बैठ जाये, कांव-कांव करने लगे औरअपनी काँव-काँव से आसमान में उड़ते पक्षियों को भी फसल चुगने बुला ले, तब भी जस का तस खड़ा रहने के सिवा कुछ नहीं कर सकता।'' (काफ़िर बिजूका उर्फ इब्लीस, पृ. 98-99)। आगे लेखक लिखता है कि ऐसा इसलिए है कि चूँकि यह लकड़ी का होता है, मनुष्य जैसा नहीं होता इसलिए वह संवेदना और चेतना विहीन होता है - ''उसका सिर इंसान की तरह नहीं, किसी पुरानी गागर, चुड़ले, दोणी या मगर माटले का बना होता, जिसमें भेजा नहीं होता। लकड़ी पर औंधे टिके सिर में न$फा-नुक़सान कुछ महसूस नहीं करता। उसमें दुख की लहर उठने, क्रोध की आग भपकने जैसा कुछ नहीं होता। (वही, पृ. 99)।
आगे लकड़ी के बिजूका वाला यह रुपक और विस्तार पाता है और लेखक बहुत-सारी चीजों को उसमें समेटता चलता है। जैसे कि मीडिया, न्यायालय, पुलिस, राजस्व आदि-आदि; लेखक लिखता है कि यहां इतनी अधिक ठसता घर कर गई है कि अब इन पर किसी बात का कोई असर नहीं होता। ये लोग सब-कुछ को अपने हक़ में करने में बेखटके लगे हुए हैं- ''वह देखता दुनियाभर के टीवी चैनलों पर एक ही बिजूका एक ही समाचार पढ़ रहा है। जिस ओर उसकी नज़र जाती, न्यायालय, पुलिस, राजस्व, या फिर कहीं भी, उसे बिजूका ही नज़र आता। लकड़ी का बिजूका सदा की तरह खड़ा रहता। हाड़-मांस का बिजूका सवाल करता, उत्तर देता, पर उसके सारे सवाल-जवाब, जिरह, न्याय, विकास, संघर्ष खाने और हगने के लिये किये गये प्रयास ही जान पड़ते। देश-दुनिया को चरने-चुगने वाले चरते-जुगते... बिन्दास।'' (वही)। पाठक किसी भ्रम या दुविधा में न रहे और बात एकदम से सा$फ हो जाए इसलिए लेखक को यह भी बता देना आवश्यक प्रतीत होता है कि वस्तुत: ये जो लकड़ी के बिजूके हैं, वे अपने मालिकों के आदेशों के पालनकर्ता-भर हैं, उनकी अपनी कोई निजी, स्वतन्त्र हैसियत नहीं है, वे अपनी मर्ज़ी से कुछ कर नहीं सकते! मौजूदा व्यवस्था को, राज्य इत्यादि को दरअसल ऐसे ही अनात्मलम्बी और धुरीहीन लोगों की ज़रूरत है, जो आपने आक़ाओं की इच्छानुसार आचरण कर सकें। उनकी सार्थकता और सफलता सिर्फ इसमें हे कि वे अपना जीवन जिएँ, और सिर्फ वह करते रहें जो उन्हें करने को कहा जाए!- ''जन्म से मृत्यु तक गूंगा ही खड़ा रहने को अभिशप्त लकड़ी का बिजूका। खेत में उसका खड़ा होना-न होना मालिक की मर्ज़ी जब मालिक चाहेगा, खेत से बाहर फेंक देगा। कोई प्रतिरोध नहीं करेगा, कोई चूँ-चपड़ नहीं होगी। ङ्गङ्गङ्ग तो क्या देश और दुनिया की संसदें धरती पर सिर्फ लकड़ी के बिजूकाओं को ही देखना चाहती हैं? ङ्गङ्गङ्ग संसद वाले बिजूका शेष धरती पर बिजूका ही देखना चाहते हैं, पर हाड़-मांस के। ऑफ़िसों, फैक्ट्रियों, खेतों और खदानों में चुपचाप काम करते। काम के लिए ज़िन्दा रहना ज़रूरी है, इसलिए खायें, हगें और काम करें... बस!'' (वही, पृ. 99-ॅ100)। ज़िन्दा रहें; खाएँ, हगें और काम करें और ज़िन्दा रहें; नए बाज़ार का यह नया फण्डा है, जिसके तहत तुम्हें केवल उतना ही और उसी तरह जिन्दा रहना है जितना हमारे काम के लिए आवश्यक है। तुम्हें मरने नहीं देंगे क्योंकि तुम नहीं होगे तो हमारा काम कौन करेगा? तुम केवल हमारे लिए हो! सत्यनारायण पटेल की अनेक कहानियों में नए बाज़ार का यह नया फण्डा सन्दर्भित हुआ है।
सत्यनारायण पटेल लगातार इस प्रयास में रहते हैं कि वे कहीं ऐसा लकड़ी का बिजूका न बन जाएँ। सत्यनारायण पटेल में लगातार एक प्रवृत्ति मौजूद और बलवती होती दिखाई देती है; आत्मनिरीक्षण, आत्मसंशोधन, आत्मविकास, आत्मालोचन आदि। 'सपने के ठूँठ पर कोंपल' के सतीश का यह विवरण द्रष्टव्य है- ''पर सतीश की आदत इस हद तक बिगड़ी थी कि ख़ुद पर भी डाउट करने से नहीं चूकता। जब वह अपनी आलोचना करने पर आता, तो खुद को तार-तार कर देता। जब किसी और की करता, तो भी इसी निश्चल भाव से कि जैसे अपनी ही कर रहा हो।'' (लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना, पृ. 28-29)। यह आत्मालोचना व्यक्तित्व के विकास की कुंजी है। जो व्यक्ति इस तरह आत्मालोचन और आत्मनिरीक्षण के दौर से गुज़रता रहता है, वह और कुछ चाहे बने न बने, लकड़ी का बिजूका नहीं बना रह सकता! 'काफ़िर बिजूका उर्फ इब्लीस' का फ़िल्म क्लब वाला बिजूका अपने-आप से सवाल करता है कि- ''तो क्या मैं भी एक दिन ऐसा ही बिजूका बनकर रह जाऊँगा? सपने में ही उसने ख़ुद से सवाल किया और जवाब में वो चीख उठा- नहीं-नहीं, मैं काठ का नहीं... सिर्फ खाने और हगने वाला नहीं।'' (काफ़िर बिजूका उर्फ इब्लीस, पृ. 100)। हाड़-मांस के बिजूका में जो गुण होते हैं, वे वही हैं, जो एक प्रतिरोधी चेतना से सम्पन्न मनुष्य में होते हैं।
पर यहीं एक पेंच भी स्वभावत: मौजूद है। लेखक कुछ ऐतिहासिक/पौराणिक पात्रों का प्रतीकात्मक इस्तेमाल करते हुए वस्तुस्थिति से अवगत कराता है कि हाड़-मांस के बिजूका तो ठीक है लेकिन इसका क्या किया जाए कि ये बिजूके हनुमान की तरह अपनी ताक़त भूले हुए पड़े रहते हैं, इन्हें इनकी ताक़त का अहसास कराना पड़ता है, इस अहसास के बाद ही ये सक्रिय होते हैं- ''हाड़-मांस का बिजूका कभी भी सोचना शुरु कर सकता है। वह अपनी शक्ति भूला हुआ हनुमान है। अगर उसे जामवंत मिल गया तो फिर सिर्फ खाने और हगने वाला नहीं रहेगा।'' (वही)। लेखक फिर सवाल पूछता है- ''पर जामवंत कहां से आयेगा? क्या आसमान से उतरेगा? या बिजूकाओं से भरी दुनिया में से ही जन्मेगा?'' (वही)। जहां तक इस प्रश्न के उत्तर का सवाल है तो भला सत्यनारायण पटेल के यहां इसके अलावा इसका और क्या ज़वाब हो सकता था- ''मैं जामवंत बनूँगा और हनुमान को उसकी शक्ति याद दिलाऊँगा। नहीं-नहीं, मैं जामवंत और हनुमान दोनों बनूँगा। हाड़-मांस के बिजूकाओं को उनकी ताक़त से अवगत भी कराऊँगा और भ्रष्ट व्यवस्था की लंका में आग भी लगाऊँगा। मैं अपनी आत्मा को बचाऊँगा। नहीं, सिर्फ मैं नहीं, हम करोड़ों-अरबों बिजूका मिलकर सिर्फ अपनी नहीं, देश और दुनिया की आत्मा को बचायेंगे।'' (वही, पृ. 100)
निश्चय ही आज की तारीख़ में यह सपना ही है पर सपना देखना भी तो मनुष्य की ही फ़ितरत है। हिन्दी की नई पीढ़ी के प्राय: सभी लेखक-लेखिकाओं में एक $गज़ब की स्वप्नशीलता मिलती है। घनघोर अँधेरे के घटाटोप के बीच में न जाने कहाँ से सपनों को ये ले आते हैं। और सपने नहीं, सपनों की पूरी एक लम्बी कतार वहाँ दिखाई देती है। सत्यनारायण पटेल का सारा लेखन इस स्वप्नशीलता से भरा पड़ा है। यह स्वप्नशीलता ही शायद अब सबसे बड़ा सहारा है। यहाँ उल्लेखनीय तथ्य यह है कि यह सवप्नशीलता कोई ख़ामख़याली नहीं है। इसके पीछे पूरी वैचारिक अवधारणाशीलता अवस्थित है। इस स्वप्नशीलता को देखकर बराबर पाश की 'सबसे ख़तरनाक' कविता की ये कालजयी पंक्तियाँ याद आती चलती हैं कि सबसे ख़तरनाक होता है/मुर्दा शांति से भर जाना/न होना तड़प का सब सहन कर जाना/घर से निकलना काम पर/और काम से लौटकर घर आना/सबसे ख़तरनाक होता है/हमारे सपनों का मर जाना'' (संपूर्ण कविताएँ: पाश; संपादन एवं अनुवाद- चमनलाल; आधार-पंचकूला; प्रथम संस्करण 2002, पृ. 200)। इसी के साथ उनकी एक और अधूरी कविता 'सपने' की ये पंक्तियाँ भी हमारा ध्यान बार-बार खींचती चलती हैं- ''सपनों के लिए लाज़िमी है/झेलने वाले दिलों का होना/सपनों के लिए/नींद की नज़र लाज़िमी है'' (वही, पृ. 202)।

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