लंबी कविता
मेरी लम्बी कविता 'नागकेसर का देश यह' पुस्तकाकार 104 पृष्ठों की 'पहल' के अंक 89 में प्रकाशित हुई थी। इसके बाद 'कन्हार' और 'डूब' हैं जो 15-15 पृष्ठों की हैं। 'कन्हार' भी 'पहल' में प्रकाशित हुई थी। 'सेल्युलर जेल' मेरी चौथी लम्बी कविता है। सेल्युलर जेल के गलियारों में घूमते हुए, तेरह बाइ सात की काल कोठरियों में साँस लेते हुए मैं वही नहीं रह गया था; जैसा गया था। मेरी साँसों में कितनी उखड़ी हुई साँसों की गर्म महक घुलने लगी। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान काला पानी बना पोर्टब्लेयर और इसमें बनाई गई सेल्युलर जेल की कहानी ऐतिहासिक और रक्तरंजित है। गुलामियाँ खत्म होती हैं और पुन: आरम्भ भी होती हैं। कितनी आज़ादियाँ गुलामी की अदृश्य बेडिय़ों में आज भी जकड़ी हुई हैं। इक्कीसवीं सदी में पहुँची हुई इस उत्तर आधुनिक सभ्यता में, उत्तर पूँजीवाद में देखते-देखते सेल्युलर जेल एक प्रतीक में बदलने लगती है। इतिहास का रक्त वर्तमान की चौखट तक बहता चला आता है। अपनी तरफ से बस इतना ही; कि पूर्व की तीनों लम्बी कविताएँ - 'कन्हार', 'डूब', 'नागकेसर का देश यह' - समकालीन यातना की अनुगूँजों के बीच भारतीय गाँव, विस्थापन, डूब, कृषकों की त्रासदी आदि से संबंधित हैं। जबकि इस कविता में कविता-वस्तु सर्वथा नए अनुभव-खण्ड में आती है। -एकान्त श्रीवास्तव (मो. 09433135365)
मैं जेल की नींव का पत्थर बोल रहा हूँ मैं-जो समुद्र तट का पत्थर था
तब लहरें मुझे नहलाती थीं और बुलबुल मुझ पर बैठकर ऋतु का गीत गाती थी तब मैं प्यासा पत्थर नहीं था
जेल का पत्थर और समुद्र तट का पत्थर दो बिछुड़े हुए भाई हैं एक पानी में भीगता है दूसरा खून में
मैं पत्थर हूँ फिर भी किसी चीज़ के लिए ललकता हूँ और वह चीज़ जो भादों की भीगी-काली रात में जुगनू की तरह चमकती है; आज़ादी है मैं पत्थर हूँ लेकिन लहरों ने मुझे भी एक दिल बख्शा है जो धड़कता है समुद्र के लिए आजाद हवा के लिए और बुलबुल के गीत के लिए
मैं गुजरे कल का रक्त हूँ वर्तमान की धमनियों में उछाल मारता हुआ मुझे तोड़ो ताकि हीरे की तरह चमकदार मेरा कोई टुकड़ा भविष्य के मुकुट में सज सके
झेंपते हुए मैं इस जेल की कोठरी को ताकता हूँ तेरह बाइ सात की कोठरी
जहाँ मात्र एक खिड़की छोटी-सी सलाखों वाला दरवाजा स्वतंत्रता सेनानियों के घावों और दर्द का मैं गवाह हूँ 'इंकलाब ज़िंदाबाद' के नारे जो मुझे हिला देते थे उनके हौसले जो मुझसे भी मजबूत थे पत्थर टूट जाते थे मगर उनके हौसले टूटते न थे घोड़ों की टापों ज़ंजीरों की आवाजों और कोड़ों की मार के बीच भूख और घाव और रक्त और दर्द के बीच उनके हौसले जो कभी टूटते न थे
इन हौसलों के पंखों पर आज़ादी सवार थी तो यह सपना था सपना आज़ादी का और यह कैसे अंट सकता था तेरह बाइ सात की काल कोठरी में जिसकी जड़ें मैंग्रोव और केवड़ा की जड़ों की तरह हज़ार-हज़ार थीं
और क्या थी यह आज़ादी क्या यह समुद्र में उडऩे वाली मछली थी नीले रंग की या तट का मूंगा लाल? क्या थी ये आज़ादी जिसके लिये ये लोग अपना सब कुछ छोड़कर कूद पड़े थे आग में आग जो बस जलती थी एक बार कभी न बुझने के लिए
यातनाओं के कई प्रकार हैं यातनाओं के कई प्रकार थे यहाँ कोई भी मर सकता है यातना से फाँसी पर लटकाया जा सकता है पागल हो सकता है कोई भी शेर अली तुम कैसे फटकार कर गरजती आवाज में हाजिरी देते थे - 'हाजिर वीर सावरकर की पचास साल कैद की सज़ा मियाद के पूरी होने के पहले पूरी हुई गुलामी की लम्बी उम्र जेलर! तुम भी तो स्ट्रेचर पर ले जाए गए अपने अंतिम दिनों में तुम भी तो मरे कलकत्ता में अपने भी स्वदेश से बहुत-बहुत दूर जो दूसरों का देश छीनता है चाँद की तरह असंभव हो जाता है उसका भी स्वदेश
ओ सच्चे साथी भगत सिंह के मेरे सिंह! मेरे महावीर तुम भी तो झुके नहीं अंत तक तोडऩे तुम्हारी भूख हड़ताल आतताई जेलर ने डाली जबर्दस्ती नली तुम्हारे मुंह में पिलाने दूध जो पेट की जगह चला गया फेफड़ों में जो कारण बना तुम्हारी मृत्यु का उखड़ गया दम लेकिन वे तोड़ न पाए तुम्हारी हड़ताल भूख की विजयी रहे तुम तुम्हारी उखड़ी हुई साँसों के रास्ते ही आई आज़ादी कितने सुनसान और भयावह से रास्ते कितनी उखड़ी हुई साँसों से बने हुए
जेल की हवा ऊपर उठती है तो आकाश का आईना चटख जाता है आज़ादी तारे की तरह टूटकर गिरती है नीचे धरती पर एक चमकीली लकीर खींचती हुई
मंज़र हर रोज़ एक जैसा गर्मी और पसीना घुटन और प्यास ये वो धरती है जहां हम मरते हैं और बार-बार पैदा होते हैं जी हाँ! और हमारी गिनती करने का कोई अर्थ नहीं हमने बस अपने हाथ उठाये किसी के आगे फैलाये नहीं
और ये आवाज़ें चोट खाई हुई आवाज़ें क्या तुम इन्हें सुन सकते हो यहाँ के पहाड़ों में अब भी जिनकी प्रतिध्वनियाँ भटक रही हैं क्या तुमने कभी सोचा है- कैसे बनी अंदमान में समुद्र की आवाज़!
और क्या कभी बन सकती है आदमी की आवाज़ के बिना समुद्र की आवाज़?
हमें घर लौटना चाहिए हर कोई सोचता था यहाँ परदेश में देश भी घर हो जाता है
तुम जो अपने पीछे छोड़ गए अपने गमज़दा माँ-बाप भाई-बहन, दोस्त-प्रियजन और एक डगमगाती हुई खाली नाव समुद्र में नाव जो तट का स्वप्न देखती है
और देखो; अभी भी कितनी गीली है रेत और समुद्र वापस लौट चुका है
लेबनान को जलते देखो या इराक को वियतनाम को जलते देखो या फिलिस्तीन को देश क्या वन की तरह होते हैं जिनका जलना एक जैसा होता है! लेकिन तसल्ली बस इतनी कि इस आग में रोटी की तरह सिंकती है आज़ादी
बनफशे बाहर मैदान में फूलते थे और भीतर जेल में आती थी उनकी खुशबू कि खुशबुओं की कोई जेल नहीं होती वे लाती हैं अपने साथ धरती की महक भी
'कैसे तोड़ेंगे हम दीवार सेल्युलर की कैसे लाघेंगे समन्दर हम परिंदे तो नहीं'
'तब हम गायेंगे ज़ोर-ज़ोर हम गायेंगे और हमारे गाने की आवाज़ परिन्दों की तरह उड़कर पार करेगी समन्दर..'
'कल तुम्हारी फाँसी है क्या करोगे तुम दिनभर आज?'
'मैं घड़ी नहीं देखूँगा भाई मैं पेड़ों को देखूँगा परिन्दों को दिन भर और रातभर चाँद को अगर जीने को मिले एक मुकम्मल दिन... मैं समुद्र में उडऩे वाली नीली मछली के गीत गाऊँगा... और दो समुन्दरों के बीच एक नन्हें द्वीप जितनी नींद लूँगा मेरे सपनों की खुशबू फैल जाएगी पूरे महाद्वीप में जैसे वन तुलसी की गंध कोई रोक नहीं पायेगा उसे नहीं; कोई सलाख नहीं कोई सेल्युलर जेल नहीं...'
बाहर घरों में कैलेण्डर फडफ़ड़ाते हैं मगर जेल में तारीखें कोई नहीं गिनता तारीखें रक्त में सनी हुईं लिखी हुईं यातना की स्याही से घायल परिन्दों-सी फडफ़ड़ाती तारीखें पछाड़ खाते समन्दर-सी साहूकार रुपए गिनता है दुकान बढ़ाने से पहले गड़ेरिया भेड़ों को गोधूलि बेला में मगर तारीखें कोई नहीं गिनता जेल में
जैसे नरगिस और सूरजमुखी में फर्क है फर्क है 'हाँ' और 'ना' में जब तुम कहते हो - हाँ तब केंचुए में बदल जाते हो वह केवल 'ना' है जो तुम्हें आदमी बनाए रखता है कोई दीवार पर लिखता है-ना कोई पत्थर पर कोई चीखता है भरी सभा में हुकूमत के आगे-ना और लहू लाल से सुर्ख हो जाता है
संसार से जो चीज गायब हो रही है वह 'ना' है जो आदमी की आत्मा है
तुम जब प्रतिरोध करते हो तो कई पगडंडियाँ फूटती हैं सफर के लिए और घास में फूल आने लगते हैं वसंत की पहली चिट्ठियों की तरह
प्रतिरोध भी एक आईना है जिसमें आदमी अपना चेहरा देखता है
लेकिन '47 तो बीत गया बीत गया '47 कभी का अगस्त का सूर्य था लाल हमारे खून की तरह और वह बँधा नहीं था बेडिय़ों में ओ मेरे देश! मेरे भारत! लेकिन देखो तो अब भी हाँ; अब भी हवा में ये कैसी गंध है गरजता है अब भी समुद्र पछाड़ खाता है तट के पत्थरों पर और यह बहुत अज़ीब है कि हवा में अब भी सेल्युलर जेल की गंध है तेरह बाइ सात की काल-कोठरी की फिंटी हुई गंध और उड़ते हुए सफेद कबूतरों के पंखों पर रक्त के धब्बे
बस दीवार खत्म होती है यहाँ सेल्युलर जेल की सेल्युलर जेल खत्म नहीं होती। |