स्वदेशी रेल

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    अप्रैल - 2016
श्रेणी पहल विशेष
संस्करण अप्रैल - 2016
लेखक का नाम शौकत थानवी / लिप्यांतर - राजकुमार केसवानी





उर्दू कहानी




दिन भर के थके-मांदे भी थे और रात को सफ़र भी दरपेश था मगर 'बंदे मातरम' (वंदे मातरम) के नारों पर कान खड़े कर लेना हमारी हमेशा की आदत है और इन नारों को भी ज़िद है कि हमारा चाहे जो हाल भी हो, बीमार हों, किसी ज़रूरी काम के लिए बाहर जा रहे हों या और कोई मजबूरी हो मगर कुछ नहीं देखते और अपनी तरफ़ हमको किशां-किशां खींचकर छोड़ते हैं। चुनांचे आज भी यही हुआ कि हुक़्क़े का नीचा और सुराहियां एक दुकान पर यह कहकर रख दीं कि ''भाई अभी आते हैं'' और सीधे पंडाल में घुस गए जहां एक साहब जो सूरत से लीडर मालूम होते थे यानी सिर पर गाढ़े की गांधी कैप, दाढ़ी-मूंछ से फारिग़-उल-बाल। एक लंबा सा खद्दर का कुर्ता, टांगो में वही खद्दर की धोती और चप्पल पहने हुए थे। एक हाथ को अपनी पुश्त पर रखे हुए और दूसरे हाथ को मजमे की तरफ़ उठाए हुए इस तरह हरकत दे रहे थे, जैसे बैंड मास्टर अपने बेद (बेंत, बेटन) को हरकत देता है। वह कुछ कह भी रहे थे मगर मालूम नहीं क्या। इसलिए कि कभी तो कहते-कहते मशरिक़ (पूरब) की तरफ़ घूम जाते थे कभी मग़रिब (पश्चिम) की तरफ़ और कभी-कभी एकदम से पीछे मुड़ जाते थे। बहरहाल यह फ़ैसला करना कि अब हम उसकी पुश्त (पीठ) की तरफ़ हैं या सामने इसलिए मुश्किल था कि उनको ख़ुद क़रार नहीं था। वह तख़्त जिस पर वह खड़े हुए घूम रहे थे, मजमे के वस्त में (बीच में) था और तमाम मजमे का रुख़ तख़्त की तरफ़। कभी किसी की तरफ़ मुंह कभी किसी तरफ़ पुश्त (पीठ) हो जाने का सिलसिला जारी था और इसी तरह उनके अल्फ़ाज़ कभी निहायत साफ़ और कभी दूर की आवाज़ की तरह और कभी बिल्कुल नहीं, हमारे कानो में पहुंच रहे थे। हां एक बात यह थी कि हमारी तरफ़ के लोग ग़ुल मचाने में उतर, दक्खन और पछम के लोगों से ज़्यादा माहिर मालूम होते थे। इसलिए हम तक़रीर सुनने के मामले में ज़रा घाटे में थे फिर भी जो कुछ सुना वह बहुत काफ़ी था। इसलिए कि शुरू से आख़िर तक अल्फ़ाज़ बदल-बदल कर कभी अंग्रेज़ी में, कभी उर्दू में, कभी नस्र में, कभी हंस कर, कभी चीख़ कर, कभी इधर मुड़कर, कभी उधर घूम कर, इधर घूम कर वही अल्फ़ाज़ कहे जा रहे थे जो हमने सुन लिए थे।
''भाइयों ! अब वह वक़्त नहीं है कि रिज़ोल्यूशन पास हों और रह जाएं। तजावीज़ मंज़ूर हों और अमल न बनें ... सरगर्मियां... अब तैयार हो जाओ... होशियार रहो... कि तुमको...  31 दिसम्बर 1929 के बाद अपना काम अपने हाथों अंजाम देना है... अपने पैरों पर खड़ा होना है... (दूसरी तरफ़ घूम गए) ख़्वाबे ग़फ़लत... से बेदारी का वक़्त... ये है... और वहां तुम... ब्रिटिश गवर्नमेंट.... स्वराज स्वदेशी.... चर्खा... खद्दर... (चीयर्स के बाद तक़रीर ख़त्म)
दो घंटे में हमने सि$र्फ यही सुना  और समझ लिया कि 31 दिसम्बर 1929 के बाद स्वराज ज़रूर मिल जाएगा। ग़ालिबा इससे ज़्यादा उन्होने कुछ कहा भी नहीं होगा और अगर कहा भी हो तो हम क्या करें। हमारे लिए यही बहुत था कि 31 दिसम्बर को स्वराज मिलेगा। हम इसी ख़्याल में ग़र्क मजमे को धकेलते, ख़ुद धक्के खाते, किसी न किसी तरह बाहर निकल आए. दुकान पर से हुक़्क़े का नीचा लिया, सुराहियां इक्के पर लादीं और घर पहुंच गए. असबाब बांधा, खाना खाया, हुक़्क़ा भरा आराम कुर्सी पर लेटकर शौक़ फ़रमाने लगे। गाड़ी के वक़्त में अभी पूरे दो घंटे थे इसलिए इत्मीनान भी था। मगर एहतियातन शेरवानी नहीं उतारी थी कि जैसे ही डेढ़ घंटा बाकी रह जाएगा, स्टेशन रवाना हो जाएंगे।
लेक्चर का ख़याल और 31 दिसम्बर के बाद स्वराज का मिल जाना दिमाग़ में चक्कर लगा रहा था। मगर हमारी समझ में किसी तरह यह बात नहीं आई थी कि आख़िर स्वराज के लिए 31 दिसम्बर क्यूं मुक़र्रर की गई है। अगर आज 31 दिसम्बर होती तो हम अपनी रेल पर सफ़र करते। न बिदेशी गार्ड होता। न फारेन ड्राईवर। न एंग्लो इंडियन का अलहदा दर्जा होता। हम खुद ही रेल के मालिक होते। चाहे थर्ड में बैठते, चाहे फस्र्ट में। हमसे कोई पूछने वाला न होता। हम ख़ुद फस्र्ट में बैठते और अंग्रेज़ों को थर्ड में बिठाकर खुश होते हुए सफ़र करते.... हम ये सोच रहे थे कि एकदम से कान में फिर वही ''बंदे मातरम'' की आवाज़ आई और हम एकदम से खड़े हो गए। घर से बाहर निकले। देखते क्या हैं कि एक बड़ा जुलूस झंडों और गैसों से सजा हुआ ''बंदे मातरम'' के नारों से आसमान और ज़मीन से टकराता हुआ, हमारे मकान से गुज़र रहा है।
हमने लोगों से पूछा कि ''भाई ! ये क्या है ?' जवाब मिला ''क्या सो रहे थे? ख़बर नहीं कि स्वराज मिल गया?'' हमने फिर बड़ा सा मुंह फाड़कर कहा कि ''वाह भई वाह, दुआ तो क़ुबूल हुई हमारी और स्वराज मिला इन लोगों को, अरे हमको मिलता तो एक बात भी थी। फिर सोचा हम और ये लोग ग़ैर थोड़ी हैं। उनको मिला या हमको, एक ही बात है। मगर वल्लाह, कमाल हुआ कि स्वराज मिल गया। दिल को किसी तरह यकीन ही नहीं आता था कि स्वराज मिल गया होगा। हालांकि अभी तक जुलूस नज़रों से ओझल नहीं हुआ था। जब जुलूस की तरफ़ नज़रें जाती तो यकीन होता कि स्वराज मिल गया। और जब स्वराज मिलने पर ग़ौर करना शुरू करते तो दिल कहता कि अभी नहीं मिला है। लेकिन आख़िर जब हर शख़्स ने स्वराज मिलने की ख़ुशख़बरी सुनाई तो शक़ दूर हुआ और एक आज़ादाना व ख़ुद-मुख़ि्तयाराना सांस लेकर हमने पहली मर्तबा अपने आपको आज़ाद समझा। अभी हम अपने आपको आज़ाद समझ ही रहे थे कि घंटे ने टन-टन करके दस बजा दिए यानी हमको ख़ुद स्टेशन चले जाने का हुकुम दिया।
हमारे ऐसे आदमी के लिए सफ़र शुरू करने का यक़ीन लोगों को उस वक़्त होता है जब हम टिकिट ख़रीद लें। और हमने भी अपनी यह आदत डाल रखी है कि सफ़र करने से पहले टिकिट ज़रूर ख़रीद लेते हैं। चुनांचे हमको जो सबसे पहला मरहला स्टेशन पहुंच कर दरपेश हुआ है वह बुकिंग आफ़िस की खिड़की में झांककर टिकट ख़रीदने की दरख़्वास्त पेश करना है। आज भी हमने बिल्कुल इसी प्रोग्राम पर अमल किया और बुकिंग आफ़िस की ख़िड़की में हाथ डालकर कहा - ''बाबूजी, कानपुर का सेकंड क्लास का टििकट दे दीजिए।''
बाबूजी ने बजाय इसके कि टिकिट दे देते, पहले तो हमको घूरा, फिर निहायत इत्मिनान से फ़रमाने लगे - ''एक बात कह दें, या मोल-तोल?''
मैं समझा बाबू मज़ाक़ कर रहे हैं। मैं हंस दिया। मेरे हंसने पर बाबूजी ने फिर कहा - ''जनाब सुनिए, तीन रुपए हुए। लाइये रुपए और टिकिट ले लीजिए।''
अब मुझे और ज़्यादा ताजुब हुआ और मैने कहा - ''जनाब तीन रुपए कैसे हुए? एक रुपए तेरह आने तो किराया है। आप कहते हैं तीन रुपए। मुझे कानपुर का टिकिट चाहिये है. कानपुर का सेकंड क्लास।''
बाबूजी ने ज़रा तुर्श-रू (तुर्ख अंदाज़) होकर जवाब दिया - ''जनाबे वाला, मैं बहरा नहीं हूं। सुन लिया है कि आपको कानपुर का सेकंड क्लास टिकिट चाहिये। मगर उसी के तीन रुपए हुए। कौड़ी कम न लूंगा। जी चाहे ले लीजिए, वरना रहने दीजिए।''
मैं - ''मगर बाबू साहब, अभी परसों तक तो एक रुपए तेरह आने किराया था। आज क्या हो गया जो एकदम बढ़ गया?''
बाबू - ''कल की बात कल के साथ। आज देश हमारा है। हम सबको स्वराज मिल गया है।''
मैं : ''ये कहिए कि स्वराज रेल को भी मिला। अच्छा ख़ैर टिकिट दीजिए, नहीं तो गाड़ी छूट जाएगी।''
बाबू : ''लाइये रुपए। अच्छा न आपकी बात न हमारी बात। ढाई रुपए दे दीजिए और टिकिट ले लीजिए।''
बाबू साहब की इन तमाम बातों पर कुछ तो हंसी आ रही थी और कुछ ग़ुस्सा भी आ रहा था कि फ़िज़ूल इन बातों में वक़्त ज़ाया हो रहा है। अगर गाड़ी छूट गई, और मुसीबत आएगी। टिकिट-विकिट सब धरा रह जाएगा। आख़िरकार मैने तय कर लिया कि मैं बग़ैर टिकिट के सफ़र करूंगा। यह सोचकर मैं बुकिंग आफ़िस से चलने लगा। मुझको जाता देख बाबू साहब ने आवाज़ दी - ''सुनिए तो जनाब, ठहरिए तो जनाब, देखिए तो जनाब। अच्छा दो रुपए दे दीजिए। आइये वही एक रुपए तेरह आने दे दीजिए। अब वो भी न दीजियेगा ? अच्छा, आप भी क्या कहेंगे। लाइये डेढ़ रुपया। अब इससे ज़्यादा हम कम नहीं कर सकते। हमारा नुक्सान हो रहा है।''
जब हमने टिकिट के बाज़ार का भाव इस तरह गिरते देखा तो और अकड़ गए और नाक-भों चढ़ाकर, ज़रा गर्दन तिरछी करके वहीं से कह दिया - एक रुपया देंगे, एक रुपए का देना है तो दे दो।''
हम समझे थे कि बाबू इस पर राज़ी न होंगे मगर अल्लाह कमाल किया उन्होने कि गर्दन लटकाकर, ज़रा धीमी आवाज़ में कहने लगे ' ''लाइये, बोहनी का वक़्त है। आप ही के हाथों बोहनी करना है।''
टिकिट तो हमने ले लिया लेकिन वो टिकिट रेल का मालूम नहीं होता था। न उस पर तारीख़ पड़ी हुई थी और न उस पर कुछ छपा हुआ था। बाबू साहब ने एक काग़ज़ के टुकड़े पर 'दर्जा दोम, कानपुर।' लिखकर एक टेढ़ी सी लकीर खींच दी थी, जो ग़ालिबन उनके दस्तख़्त थे। हमने टिकिट को इधर से देखा, उधर से देखा और दो-तीन मर्तबा ग़ौर से उलट-पुलट कर देखने के बाद बाबू साहब भी ज़रा कियाफ़ा-शनास (चेहरा पढ़ लेने वाला) थे। हमारी इस हरकत से वो हमारा मतलब समझ गए और मुतब्बुसुम (मुस्कराकर)होकर कहने लगे - ''जनाबे वाला, रात को स्वराज्य मिला है। अभी नए टिकिट नहीं छपे हैं। वो दो-तीन दिन में छप जाएंगे।
आपको टिकिट से क्या मतलब, आप तो सफ़र कीजिए। आपसे कोई कुछ न पूछेगा। आप इमत्मीनान रखिए।''
बाबू साहब ने तसल्ली तो दे दी मगर हम देख रहे थे कि टिकिट पर न तारीख़ है, न किराया, न फ़ासला। और फ़ासला होता तो कहां से, उन्होने तो यह न लिखा कि हम सफ़र आख़िर कहां से कर रहे हैं। बहरहाल, यह समझ कर कि या तो ये रुपया गया या हम तेरह आने के नफ़े में रहे, स्टेशन में दाख़िल हो गए।
स्टेशन में हालांकि सब कुछ वही था जो आज से क़ब्ल (पहले) हम देख चुके थे मगर इस सब कुछ के बावजूद बिल्कुल ये मालूम होता था गोया किसी ने स्टेशन को कलाबाज़ी खिला दी है। या उल्टा बांधकर टांक दिया है। वही घड़ी थी, वही घडिय़ाल, मगर दस बजने में हनूज़ (अभी) पचीस मिनट बाकी थे हालांकि अब ग्यारह का वक़्त था. असबाब के ठेले पर पान वाला अपनी दुकान लगाए बैठा था। कुलियों का कहीं पता न था। हमारी समझ में न आता था कि असबाब किस तरह रेल तक पहुंचाएं। बमुश्किल तमाम एक कुली मिला लेकिन जैसे ही उससे हमने असबाब उठाने को कहा, उसने चीं-ब-चीं (गुस्सा) होकर कहा - ''अंधे हो गए हो! दिखाई नहीं देता कि हम कुली हैं या असिस्टेंट स्टेशन मास्टर?''
हम - ''माफ़ कीजिए ग़लती हो गई।'' कहकर पूरे एक ग़ज़ पीछे हट गए। असिस्टेंट स्टेशन मास्टर साहब को सर से पैर तक बग़ौर देखकर सोचने लगे कि या अल्लाह, ये क्या इंक़लाब है, पहले तो इस सूरत के कुली हुआ करते थे। अब अगर इस सूरत के असिस्टेंट स्टेशन मास्टर होने लगे हैं तो कुली किस सूरत का होगा? मजबूरन हमने असबाब ख़ुद उठाया और दो मर्तबा करके सेकंड क्लास के डब्बे में रखा, जहां पहले से एक जेंटलमेन बैठे चिलम पी रहे थे। असबाब करीने से रखकर जब ज़रा इत्निनान हुआ तो हमने सोचा कि ये तहक़ीक़ात कर लेना चाहिए कि यही गाड़ी कानपुर जाएगी या कोई और? सबसे पहले तो हमने इन्हें हज़रत से पूछा जो हमारे डब्बे में तशरीफ़ फरमा थे लेकिन उन्होने सि$र्फ ये जवाब दिया कि - ''बानी भैया, हमका नहीं मालूम।'' ये ख़ाली स्वदेशी रेल के सेकंड क्लास के मुअज़िज़ पेसेंजर थे, उनसे भला क्या मालूम हो सकता था। मजबूरन हम प्लेटफार्म पर आए और दो-एक आदमियों से पूछने के बाद यह मालूम हुआ कि अगर मुसाफ़िर कानपुर के ज़्यादा हुए तो वहां चली जाएगी। इसीलिए अब तक इंजन नहीं लगाया गया है कि ख़ुदा मालूम कि ट्रेन को मशरिक़ की तरफ़ जाना पड़े या मग़रिब की तरफ़। हमने घबराकर पूछा - ''लेकिन ये फैसला कब होगा?'' जवाब मिला जब गाड़ी भर जाएगी, उस वक़्त फ़ैसला हो सकता है।
हमने फिर पूछा - ''लेकिन गाड़ी का वक़्त तो हो चुका?''
जवाब मिला कि हो जाया करे। जब तक रेल न भर जाएगी, किस तरह छोड़ी जा सकती है। क्या ख़ाली रेल छोड़ दी जाए?
अब हम बिल्कुल राज़ी ब रज़ा होकर ख़ामोश हो गए। इस इंतज़ाम को बुरा इसलिए नहीं कह सकते थे कि हमारी ही दुआ थी, अच्छा इसलिए नहीं कह सकते थे कि आज ही कानपुर पहुंचना था जिसकी अब कोई उम्मीद बज़ाहिर नहीं मालूम होती थी। ग़रज़ ये कि कभी अपने डब्बे में बैठकर, कभी लोटे में पानी डालकर, कभी इंजन को मशरिक़ और मग़रिब की सिम्त हद्दे-नज़र तक ढूंढकर, कभी मुसाफ़िरों की तादाद का अंदाज़ा लगाकर वक़्त काटने लगे। ग्यारह से बारह। बारह से एक। एक से दो बजे मगर न घड़ी की सूई हटी, न ट्रेन अपनी जगह से हिली। सिर्फ हम टहलते रहे। ख़ुदा-ख़ुदा करके एक आदमी ने बा-आवाज़ बुलंद चीख़ना शुरू किया - ''बैठने वाले मुसाफ़िरों बैठो। गाड़ी छूटती है।''
हमने जल्दी से पहले मशरिक़ की तरफ़ इंजन को ढूंढा फिर मग़रिब की तरफ़, मगर दोनो तरफ़ इंजन ग़ायब था और हमारी बिल्कुल समझ में न आया कि बग़ैैर इंजन के गाड़ी किस तरह छूट सकती है। इन अल्फ़ाज़ पर शक़ करना इसलिए कुफ़्र समझते थे कि उनका कहने वाला कोई ग़ैर-ज़िमेदार शख़्स न था बल्कि वही असिस्टेंट स्टेशन मास्टर था जिनको हम कुली समझते थे। बहरहाल बग़ैर कुछ सोचे-समझे हम अपने डब्बे में बैठ गए. हमारे बैठते ही दो-तीन दर्जन लठबंद गंवार हमारे दर्जे में घुस आए। उनसे हमने लाख कहा - ''अरे सेकंड क्लास है। अम्मा, सेकंड क्लास है। भाई सेकंड क्लास है।'' मगर उन्होने एक न सुनी और यही कहते रहे - हमहू जानत है ड्योढ़ा है...हम टिकस लिया है।
ख़ैर साहब हम चुप हो रहे और प्लेटफ़ार्म पर इस ग़रज़ से आए कि किसी से कह दें मगर गार्ड-वार्ड नज़र न आया, मजबूरन उन्हीं असिस्टेंट स्टेशन मास्टर से अर्ज़ कर दिया, जिसका जवाब उन्होने अपनी स्वदेशी कशां से सि$र्फ यह दिया - ''बैठिये जनाब, सब हिंदुस्तानी बराबर हैं। सब भाई हैं। सब भारत माता के सपूत हैं। कोई किसी से बड़ा या छोटा नहीं है। अब सेकंड क्लास और थर्ड क्लास के फ़र्क को भूल जाइये। सबको बराबर का समझिए। जाइये तशरीफ़ रखिए। नहीं तो थर्ड क्लास में भी जगह न मिलेगी।''
हम ये खरा जवाब सुनकर मुंह लटकाए हुए अपने दर्जे में आ गए जहां हमारी जगह पर कब्ज़ा हो चुका था। और हमको यह तय करना पड़ा कि खड़े-खड़े सफ़र होगा या ग़ुसलख़ाने में जगह मिलेगी। मजबूरन अपना ट्रंक घसीट कर उस पर बैठ गए और गाड़ी छूटने का इंतज़ार करने लगे।
हमको बैठे-बैठे भी एक घंटे के करीब हो गया। गाड़ी बदस्तूर खड़ी रही। घबराकर हम प्लेटफ़ार्म पर आए तो देखा कि इंजन गाड़ी में लगाया जा रहा है और ख़ुद का शुक्र है कि कानपुर ही की तरफ़ लगाया जा रहा है। लेकिन इंजन लगने के बाद गाड़ी जब देर तक भी न छोड़ी तो हमने उस ताख़ीर विलंब का सबब दरयाफ़्त किया। मालूम हुआ कि अभी सेक्रेटरी साहब टाऊन कांग्रेस कमेटी का इंतज़ार है। वो कानपुर जाएंगे। उन्होने कहला भेजा है कि बारह बजे आ जाएंगे लेकिन अभी तक नहीं आए। आदमी लाने के लिए गया हुआ है।
यह पहला मौका था कि हमारे ज़हन में यह सवाल पैदा हुआ कि हम कानपुर जाएं या एक रुपए से सबर करके इरादा मुल्तवी कर दें। काम अशद (बेहद) ज़रूरी था इसलिए जाना भी ज़रूरी था। मालूम नहीं कौन सा वक्त था जब मुंह हमारे मुंह से यह दुआ निकली थी अब तो उसको वापस करना भी मुश्किल था। इसलिए कि कुफ़्राने-नियामत ( कुदरत् से इंकार) का इल्ज़ाम भी तो हम पर लगा दिया जाता।
हम इसी फ़िक्र में पड़े थे कि मालूम हुआ कि सेक्रेटरी साहब टाऊन कांग्रेस कमेटी तशरीफ़ ले आए। हमने भी खिड़की में से झांककर देखा तो एक मजमे में वो लीडर साहब दिखाई दिए जिन्होने रात को तक़रीर करके स्वराज्य दिलवाया था। और अब हमको मालूम हुआ कि यही सेक्रेटरी टाऊन कांग्रेस कमेटी हैं। ग़रज़ उनके तशरीफ़ लाने के बाद हर शख़्स अपनी-अपनी जगह पर बैठ गया। और इंजन भी सन-सन करने लगा।
एक ख़द्दरपोश बुज़ुर्गवार लाल और सब्ज़ गाढ़े की झंडिया लिए हुए भी नमूदार हुए। और हमने अपनी जगह पर समझ लिया कि ये गार्ड हैं। गार्ड साहब ने कुर्ते की जेब से एक सीटी निकालकर बजाई और पहले सुर्ख और फ़िर जल्दी से सब्ज़ झंडी इस तरह से हिलाने लगे गोया पहले ग़लती से सुर्ख झंडी हिला दी हो। दो-तीन मर्तबा सीटी बजाकर और झंडी हिलाकर आख़िर ग़ुस्से में इंजन की तरफ़ झपटे और ड्राईवर को डांटना शुरू कर दिया। घंटा भर से सीटी बजा रहा हूं लेकिन तुम्हारे कान में आवाज़ ही नहीं आती। और आंखें भी फूट गई हैं कि झंडी भी नहीं देखते।
ड्राईवर ने भी उनके बेजा ग़ुस्से का जवाब कड़ककर दिया। ''आप आंखें मुझ पर क्यों निकाल रहे हैं? मेरा क्या क़ुसूर है? दो घंटे से लल्लू  फ़ायरमेन कोयला लेने गया हुआ है। कह दिया था कि जल्दी से ले आना। अभी तक ग़ायब है। मालूम  नहीं कहां गया। पता भी बता दिया था कि रक़ाबगंज के चौराहे से या एशबाग़ के फ़ाटक से ले आना। दो-चार पैसे कम-ज़्यादा का ख़्याल न करना। मगर वो जाकर मर रहा। अब बताइये मेरा क्या क़ुसूर है?''
गार्ड साहब भी ड्राईवर को बेक़ुसूर समझकर चुप हो गए और कोयले के इंतज़ार में गाड़ी रोकने पर मजबूर हो गए। इंजन में यह बड़ी बुरी बात है कि यह बग़ैर कोयला चलने का नाम नहीं लेता। घोड़ा बेचारा तो भूखा भी चल सकता है। मगर यह इतना भी काम नहीं दे सकता। अब बताइये कि रेल भी थी, इंजन भी, मुसाफ़िर भी थे, गाड़ी भी, सेक्रेटरी साहब टाऊन कांग्रेस कमेटी भी आ गए थे और ड्राईवर भी था मगर एक कोयले के न होने से। सबका होना न होना यकसां था। कामिल पूरे डेढ़ घंटे बाद लल्लू फायरमेन कोयले की गठरी लिए हुए यह कहता हुआ आ पहुंचा - ''आधी रात को कोयला मंगाने चले हैं। तमाम दुकानें बंद हो चुकी थीं। एक दुकान पर इतना सा कोयला था। वह भी बमुश्किल तमाम एक रुपया नौ आने में मिला है। भागता हुआ आ रहा हूं। रास्ते में गिर भी पड़ा था। तमाम घुटने छिल गए। कोयला वग़ैरह दिन से बुला लिया करो।
ड्राईवर ने जल्दी से कोयला डाला और सीटी बजाकर गाड़ी छोड़ दी। गाड़ी चली ही थी कि एक शोर मच गया - ''रोको, रोको, गार्ड साहब रह गए।'' गाड़ी रुकी और गार्ड साहब को सवार करके चली। अभी दो फ़र्लांग मुश्किल से चली होगी कि गाड़ी फिर रुकी और गार्ड साहब ने ड्राईवर से चिल्ला-चिल्लाकर पूछना शुरू किया -  ''अरे, लाईन क्लीयर भी ले लिया था?'' ड्राईवर ने भी चिल्लाकर जवाब दिया - ''ले लिया था, ले लिया था,'' गार्ड साहब ने जब इस तरफ़ से भी इत्मीनान कर लिया तो फिर फ़रमाया - ''अच्छा तो छोड़ो गाड़ी, मैं सीटी बजाता हूं।'' गाड़ी फिर चली अब गाड़ी की रफ़्तार के बारे में हमने सोचना शुरू किया कि यह मेल है या एक्सप्रेस। इसलिए कि इससे ज़्यादा तेज़ शायद हम ख़ुद चल लेते और अगर अभी भी शर्त लगाकर दौड़ें तो इस गाड़ी से पहले कानपुर पहुंचने का वायदा करते हैं। हमसे आख़िर न रहा गया और अपने एक हमसफ़र से पूछा - ''क्यों साहब, यह मेल है आ एक्सप्रेस? वे पहले से ही कुछ ख़फ़ा बैठे थे। ग़ालिबा गाड़ी पर होंगे, ग़ुस्सा हम पर उतारा और झिड़ककर फ़रमाने लगे - ''मियां ख़ुदा का शुक्र करो कि यह गाड़ी ही है तुम मेल-एक्सप्रेस लिए फिर रहे हो।''  उनका जवाब सुनकर हम खिड़की में गर्दन डालकर जंगल की सैर करना शुरू कर दी। मगर सैर से ज़्यादा दिलचस्प मंज़र यह था कि रास्ते के नए मुसफ़िर चलती गाड़ी पर सवार होते जाते थे।
गाड़ी छुक-छुक चल रही थी। इसी रफ़्तार से चलकर गाड़ी अमोसी के स्टेशन पर रुकी। अब वहां एक नया झगड़ा शुरू हो गया कि स्टेशन मास्टर अमोसी ने ड्राईवर पर ख़फ़ा होना शुरू किया कि -
''जब तक मैने सिग्नल नहीं दिया, तुमको स्टेशन पर गाड़ी लाने का हक़ कौन सा था ?''
ड्राईवर - ''जब आपने गाड़ी आते देख ली थी तो सिग्नल क्यों नहीं दिया?''
स्टेशन मास्टर - ''एक तो गाड़ी ले आया, ऊपर से ज़बान लड़ाता है। अभी निकलवा दूंगा। दूसरा ड्राईवर रख लूंगा जो मुझसे गुस्ताख़ी की। अगर गाड़ी लड़ जाती तो तुम्हारा क्या जाता। आई-गई सब हम पर आ जाती।''
ड्राईवर - ''देखिए, ज़बान संभालकर किसी शरीफ़ आदमी से बातें किया कीजिए। नौकरी की है इज़्ज़त नहीं बेची है। बड़े आए वहां से निकालने वाले। जैसे हम इन्हीं के तो नौकर हैं। अच्छा किया गाड़ी लाए। ख़ूब किया गाड़ी लाए। अब इस ज़िद पर तो हज़ार मर्तबा लाएंगे। देखें हमारा कोई क्या करता है।''
स्टेशन मास्टर - ''देखिए गार्ड  साहब, मना कर लीजिए इसको। कैसी कमीनेपन की बातें कर रहा है। अफ़सरी-मातहती का कुछ ख़याल नहीं। मैं छाती पर चढ़कर ख़ून पी लेता हूं।''
गार्ड - ''जाने भी दो, अमां जाने भी दो। हाय-हाय क्या करते हो। अमां तुम्ही हट जाओ। भाई तुम ही हट जाओ। अरे-अरे छोड़ो भी। हटो भी, सुनो तो सही। अरे यार सुनो तो।''
स्टेशन मास्टर ने ड्राईवर को और ड्राईवर ने स्टेशन मास्टर को घूंसे, लातें, थप्पड़, जूते रसीद करना शुरू कर दिए और तमाम मुसाफ़िर यह झगड़ा देखने खड़े हो गए। बमुश्किल तमाम गार्ड ने बीच-बचाव किया और समझा-बुझाकर ठंडा किया। अभी बेचारा समझा ही रहा था कि किसी ने आकर निहायत घबराई हुई आवाज़ में कहना शुरू किया - ''गार्ड साहब, ए गार्ड साहब! अजी वह माल गाड़ी सामने से आ रही है और इसी पटरी पर आ रही है। ग़ज़ब हो गया।''
गार्ड भी यह सुनते ही बदहवास हो गया और चीख़ना शुरू कर दिया - ''मुसफिरों जल्दी उतरो। जल्दी उतरो गाड़ी लड़ती है, गाड़ी लड़ती है। जल्दी उतरो।''
सब मुसाफ़िर हड़बड़ाकर अपना असबाब कुछ लेकर, कुछ छोड़कर गाड़ी से निकल आए और देखते ही देखते मालगाड़ी जिसका ड्राईवर सो गया था, इस गाड़ी से इस बुरी तरह टकराई कि खिड़की का एक शीशा टूटकर मेरे मुंह पर आ पड़ा। मैं एकदम से चौंक पड़ा। हुक्के की नै मेरे मुंह पर आकर गिरी थी। हुक्का जल चुका था। आराम कुर्सी भी शबनम से तर हो गई थी और घड़ी में भी दो बजने के करीब थे। मैं कुर्सी से उठकर चारपाई पर लेट गया। इसलिए कि अब गाड़ी तो सोने की वजह से छूट चुकी। अब हो ही क्या सकता था सिवाए आराम से सोने के।

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