शौकत थानवी

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    अप्रैल - 2016
श्रेणी पहल विशेष
संस्करण अप्रैल - 2016
लेखक का नाम राजकुमार केसवानी





पहल विशेष





उर्दू की अदबी तारीख़ में जिन लोगों ने तंज़-ओ-मज़ाह (हास्य-व्यंग) के फ़न को एक आला मकाम दिलाने में अहम रोल अदा किया है उनमे एक नाम हमेशा बड़ा नुमाया रहा है - शौकत थानवी। हिंदुस्तान की आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद तक के दो अलग-अलग वक़्फ़ों में शौकत थानवी अपने हम-उम्र और कम-उम्र तंज़-ओ-मज़ाह नवीसों; पितरस बुख़ारी, शफ़ीक़-उर-रहमान, चिराग़ हसन 'हसरत', अब्दुल मजीद 'सालिक़', कन्हैयालाल कपूर, फिक्र तौंसवी के साथ बाकायदा अपनी तेज़ रफ़्तारी के साथ लिखते रहे। इसी बाकायदगी और तेज़ रफ़्तारी का नतीजा है कि अपने मुख्तसिर से 59 साला दुनियावी सफ़र में पूरी साठ किताबों का सरमाया छोड़ गए।
हक़ीक़तन देखा जाए तो शौकत थानवी तंज़ से कहीं ज़्यादा मज़ाह के लेखक थे। लेकिन न जाने कब और कैसे तंज़-ओ-मज़ाह या हास्य-व्यंग के दो लफ़्ज़ आपस में इस क़दर जोड़कर रख दिए गए हैं कि 'फ़ेवीकाल' के इस मज़बूत जोड़ की वजह से दो अलग-अलग खानों में रखी जाने वाली चीज़ें भी रिवायतन एक साथ रखी जाती रही हैं।
इस सिलसिले में एक दिलचस्प बात यह भी है कि उर्दू में तंज़-ओ-मज़ाह की रिवायत बहुत पुरानी नहीं है। कदीमी दौर की दास्तानों में मिलने वाले उथले किस्म के हल्के वज़न के मज़ाहिया जुमलों को अदबी तौर पर ज़माना पहले ख़ारिज किया जा चुका है।
''उर्दू नस्र (गद्य) में तंज़-ओ-मज़ाह की तारीख़ ज़्यादा पुरानी नहीं, उसके अव्वलीन वाज़े और शऊरी नक़ूश (चिन्ह) ग़ालिब की नस्र में ही दिखाई देते हैं। गरचे बाज़ क़दीम दास्तानो में भी ज़राफ़त (हंसी-ठठोल्) और शोख़ियों के छींटे जा-बजा मिलते हैं, लेकिन इनकी हैसियत सतही फ़िकरेबाज़ी, मसख़रेपन, सस्ती नक़्ल और तान-ओ-तश्नीह (ताने मारना और बुरा भला कहना) से ज़्यादा नहीं।'' (डाक्टर अनवर पाशा - 'उर्दू अदब में तंज़-ओ-मज़ाह की रिवायत')
इसी बात की ताईद करते हुए डाक्टर मुश्ताक़ अहमद आज़मी कहते हैं; ''ग़ालिब के मिज़ाज की ख़ुसूसियत यही थी कि वो ज़बूं हाली (बदहाली) पर, ग़लत बात पर, इंसानी कमज़ोरियों पर, यहां तक कि अपने आप पर भी हंस सकें। उन्होने ख़ुद को 'ग़ालिब ख़स्ता' और 'बादा ख़्वार' जैसे अलक़ाब दे डाले हैं।''
ग़ालिब के ही दौर में लखनऊ से 'अवध पंच' जैसा तंज़ो-मज़ाह को पाएदारी देने वाला कारनामा अंजाम दिया गया। तंज़-ओ-मज़ाह को अवाम में जिस रफ़्तार से मक़बूलियत मिली उसी के बाइस मुंशी नवल किशोर जैसे उर्दू के बलंद पाया इंसान ने भी अपने कारनामे 'अवध अख़बार' को कामयाबी की अगली सीढ़ी पर पहुंचाने की गरज़ से पंडित रतन नाथ सरशार को अपने अख़बार का एडीटर मुकर्रर किया और 'फ़साना-ए-आज़ाद' जैसी दिलचस्प दास्तान को रोज़ाना छापकर अपने मक़सद में कामयाबी हासिल की। इसी कामयाबी को याद करते हुए ही मुंशी नवल किशोर ने बाद के सालों में शौकत थानवी को भी 'अवध अख़बार' में बाइज़्ज़त जगह दी।
असल में शौकत थानवी ने इतने सारे कारनामे अंजाम दिए हैं कि उन्हें महज़ एक मज़ाह नवीस मानकर पेश करना एक नामुनासिब सी बात होगी। असल में वे सबसे पहले बाकायदा एक संजीदा शायर, पत्रकार, ड्रामा निगार, कालमिस्ट, कहानीकार, नाविल निगार, फिल्म लेखक, अदाकार, रेडियो के फीचर निगार और न जाने क्या-क्या थे। ऐसा मालूम होता है कि उन्होने अदब का कोई डिसीप्लिन अपनी पहुंच से बाहर नहीं रहने दिया। वह भी उस हालत में जब स्कूली तालीम के नाम पर उनका नाम महज़ नवें दर्जे तक ही दर्ज पाया जाता है।
शौकत थानवी ने अपने शुरूआती दिनों के बारे में जानकारी अपने किताब 'मा बदौलत' में दी है, जिसे बाद के सालों लाहौर से प्रकाशित उर्दू के अज़ीम रिसाले 'नक़ूश' ने अपने 1964 के 'आप बीती' अंक में भी शाया किया है।
''...कितनी सच्ची बात कही है जिसने भी कही है कि हर ज़माने में और दुनिया के हर गोशे में एक क़ुत्ब (ऋषि - धुर्व तारा को उर्दू में क़ुत्ब तारा कहा जाता है) और एक अहमक साथ-साथ पैदा हुआ करता है। और अक्सर तो यह भी देखा गया है कि एक ही घर में एक भाई क़ुत्ब होता है तो दूसरा अहमक। अब ज़रा इस कुल्लिये (मिसाल) की सदाक़त मुलाहिज़ा हो कि कहां कृश्न मुरारी और कहां एक अदबी मदारी। ज़माना एक न सही मगर मुकाम एक ही है। कृश्न का स्थान बिंद्राबन ज़िला मथुरा जन्म भूमि बनता है, किसकी? ... शौकत थानवी की।
यह एक तारीख़ी लतीफ़ा नहीं बल्कि एक जीता-जागता वाक़्या है। बिंद्राबन के कोतवाल साहब मुंशी सिद्दीक़ अहमद मरहूम जो पहले तो औलाद की तरफ़ से मायूस हो चुके थे मगर शादी के बारह साल बाद औलाद हुई भी तो लड़की। अपने अरमान की तक्मील के लिए फिर चार साल तक बेचारे को इंतज़ार करना पड़ा। यहां तक कि 2 फरवरी 1904 को सुबह होने से क़ब्ल ही उनकी ये तमन्ना भी पूरी हो गई और औलाद नरेना (आशय नर से) से भी निस्फ़ बेहतर (बेटर हाफ़, पत्नी) की गोद पुर हो गई। सिपाहियों ने गोले दाग़े, भांडों ने ढोल बजाए। नटों ने करतब दिखाए। एक हफ़्ते तक चहल-पहल रही। अक़ीक़े के दिन नाम रखा गया - मुहम्मद उमर और तारीख़ी नाम निकला तस्ख़ीर अहमद। ये उन्हीं हज़रत का नाम और तारीख़ी नाम है जिनको अब शौकत थानवी कहा जाता है। थानवी इसलिए नहीं कहा जाता कि पैदाइश बिंद्राबन के थाने में हुई बल्कि इसलिए कि थाना भवन ज़िला मुज़फ्फर नगर इस ख़ानदान का वतन है।''
शौकत थानवी ने अगर समाजी हालात और समाज के लोगों को अपने तंज़ का निशाना बनाया तो पूरी ईमानदारी बरतते हुए ख़ुद को और अपने ख़ानदान को भी इससे बरी नहीं रखा। उन्होने अपने कोतवाल पिता के रिश्वतखोरी की लानत में मुब्तला होने को भी खुलकर कोसा है और उसका मज़ाक़ भी उड़ाया है। अपनी किताब 'मा बदौलत' में एक जगह लिखते हैं; ''वालिद साहब की रिश्वत की तमाम आमदनी डाक्टरों की फ़ीस और दवाइयों की कीमत में सर्फ (ख़र्च) हो जाती थी। हराम बजाए हराम क्योंकर सर्फ न होता?''
शौकत थानवी की इस दास्तान में मौजूद 'वालिद साहब' का यह किरदार, बाप होने के अलावा उस दौर का एक ऐसा नुमाइंदा चेहरा भी बनकर सामने आता है जो इस हक़ीक़त को पहचानने का मौका देता है कि उस दौर में भी किस तरह रिश्वतखोरी के कारोबार में लगे लोगों के लिए हर तरफ़ बहार थी। बीसवीं सदी की उस पहली दहाई में ही इन कोतवाल साहब मुंशी सिद्दीक़ अहमद तरक्की हासिल करके लखनऊ से भोपाल पहुंच गए। उन्हें यू.पी. पुलिस से डेपूटेशन पर भोपाल में डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल बना दिया गया।
''मैने अपनी होश की आंखें भोपाल के एक आलीशान मकान में खोलीं। बड़े लाड़-प्यार में ज़िंदगी के दिन गुज़र रहे थे कि मालूम नहीं किसने वालिद साहब को यह मश्विरा दिया कि लड़के की तालीम शुरू होना चाहिये। और आख़िरकार एक मास्टर साहब बुलाए गए। मालूम होता था बंदर का तमाशा शुरू करेंगे। इन हज़रत ने मौलवी मोहम्मद इस्माईल मेरठी की रीडरों को रटाना शुरू किया। मगर कुछ ही दिन पढ़ा सके थे कि एक दिन वालिद साहब ने उनको पढ़ाते हुए किसी लफ़्ज़ के ग़लत तलफ़्फ़ुज़ पर जो ग़ौर किया तो उसी दिन मास्टर साहब का हिसाब कर दिया गया। उसके बाद एक और मास्टर साहब आए जो चौथे दिन इसलिए निकाल दिए गए कि वो ज़रा सख़्त किस्म के आदमी थे। और मारपीट में हाथ खुला हुआ था।
अब एक और मास्टर साहब आए जिनका इस्म मुबारक मीर अमजद अली था। छोटा सा क़द। नाक की फुंगी पर रुपहली एनक। मुंह में कुछ दांत और बाकी पान। जेब में घड़ी और घड़ी की ज़ंजीर में लटका हुआ क़ुतुबनुमा। आलम यह था हमारे इन मास्टर साहब का कि तशरीफ़ लाए, अंदर से उनके लिए चाय आ गई। वो नोश फ़रमाई। पान आ गए, वो मुंह में रख लिए। और फ़िर किताब सामने रखकर हम लगे झूमने और वो लगे ऊंघने।
कभी-कभी ऊघते-ऊंघते एक नारा बुलंद किया - आर ए टी - रैट, रैट मायने चूहा और फिर ऊंघ गए। अगर वो बिल्कुल सो गए तो हमने उनके चेहरे पर रोशनाई से कुछ गुल-बूटे बना दिए। और अगर वो जागते रहे तो हम स्लेट पर मु$र्गे की तस्वीर बनाते रहे। और मुंह से बकते रहे। आर ए टी - रैट, रैट माने चूहा। मगर फ़लक कज रफ़्तार (ज़ालिम आसमान) को हमारा यह स्वराज्य पसंद न आया। और एक दिन वालिद साहब ने निहायत हैरत से यह मंज़र देखा कि साहबज़ादे आंख मूंची धप खेल रहे हैं। चुनांचे मास्टर साहब दूसरे दिन ही हटा दिए गए।
वालिद साहब ने लोगों के कहने-सुनने में आकर आख़िर हमारा दाख़िला एलेक्ज़ेंड्रा हाई स्कूल जमात अतफ़ाल (कच्ची पहली जो अब केजी कहलाता है) में करा दिया। अब हम सियाह शेरवानी और नीले साफ़े में एक सिपाही के साथ एलेक्जेंड्रा हाई स्कूल जाने लगे। (शौकत थानवी - पुस्तक 'मा बदौलत)
लेकिन अलेक्ज़ेंड्रा स्कूल जाने का यह सिलसिला भी ज़्यादा अरसे तक कायम न रह सका। मुंशी सिद्दीक़ अहमद वापस लखनऊ लौट गए। वहां पर भी पहली कोशिश घर पर ही तालीम दिलाने की हुई लेकिन काफ़ी वक़्त ज़ाया करने के बाद आख़िर एक स्कूल में दाख़िला दिलाया। छठी जमात के बाद दूसरे स्कूल में पहुंचा दिया गया, जहां तालीम का मैयार ज़रा बेहतर था।
ज़ाहिर है इन तमाम कोशिशों के पीछे मां-बाप की यह तमन्ना काम कर रही थी कि साहबज़ादे पढ़-लिख कर बाप से भी ऊंचे किसी ओहदे पर पहुंचे। कहते हैं कि आसमानों के राज़ ज़मीं पर भले ही ज़रा देर में खुलते हों लेकिन पालने से कूद निकले पूत अक्सर इन राज़दारियों के पर्दे अपने हाथ-पांव चलाकर और ज़रा-ज़रा इन पर्दों को हटाकर दे ही देते हैं। शौकत थानवी ने भी भरे-पूरे बचपन में ही अपनी हरकतों से आने वाले वक़्तों का नक्शा खेंच दिया था।
गवर्नमेंट हाई स्कूल, हुस्नाबाद के इन दिनों में ही पढ़ाई-लिखाई से भी ज़्यादा स्कूल में अपने उस्तादों की नकलें करना और सबको हंसाना उनका बेहद पसंदीदा मशग़ला था। ज़ाहिरा तौर पर उनके मास्टर और हेड मास्टर सैयद जीन अलाबाद अपनी नाराज़गी दिखाते लेकिन बाद को खुलकर हंसते और हूबहू नक़्ल करने की उमर की काबलियत की दाद भी देते। नतीजतन स्कूल के सालाना जलसे में ही उन्हें नकलों को दोहराने के लिए उसे बाकायदा मौका दिया जाता। लेकिन हंसी-ठठे का यह सिलसिला उमर के नवीं क्लास के बाद स्कूल छोड़ते ही ख़त्म हो गया।
अजब बात यह थी कि इसी उम्र में हंसी-ठठा, नक्काली के शौक के बीच में ही संजीदा शायरी की तरफ़ भी रुझान पैदा हो गया। अपनी इसी शायरी को बड़े शौक से स्कूल के अपने दोस्तों को सुना-सुना कर अपना रुतबा कायम कर लिया।
शौकत थानवी के रिश्ते के एक बड़े भाई थे अरशद थानवी जो ख़ुद भी एक अदीब थे। भोपाल वाले दिनों में उन्होने ही शौकत थानवी के लिए एक अदबी रिसाला 'फूल' का सालाना चंदा देकर पढऩे-लिखने का शौक़ पैदा किया था। जब वे लखनऊ पहुंचे और उन्हें पता लगा कि उनका छोटा भाई शायरी करने लगा है तो उन्हें एकदम यकीन न हुआ। लिहाज़ा उन्होने इम्तिहान की ग़रज़ से एक मिसरा देकर शेर पूरा कर दिखाने को कहा।
मिसरा यूं था;

 सब चांद सितारे मांद हुए ख़ुर्शीद का नूर ज़हूर हुआ
शौकत थानवी ने इस मिसरे को पूरा किया तो शेर कुछ यूं बना।
सब चांद सितारे मांद हुए ख़ुर्शीद का नूर ज़हूर हुआ
ग़मनाक स्याही रात की थी अब इसका अंधेरा दूर हुआ

ज़ाहिर है बड़े भाई को बेहद ख़ुशी हुई। उन्होने शौकत से ग़ज़ल पूरी करवा के उसे छपने भेज दिया। एक बार जो ग़ज़ल छपी तो चस्का सा लग गया। फिर तो एक के बाद एक धड़ाधड़ ग़ज़लें रिसाला 'तिरछी नज़र' में छपती चली गईं। तब उन्होने अपना शेरी तख़ल्लुस पसंद किया 'शौकत'। इस तरह पूरा नाम हो गया मोहम्मद उमर 'शौकत' थानवी।
इस तख़ल्लुस के चुनाव को लेकर भी थानवी जी ने अपनी एक पुस्तक 'कुछ यादें, कुछ बातें' में यूं बयान किया है।
''...मैने शौकत तख़ल्लुस क्यों रखा...बात ये कि जिस ज़माने में शायर बन रहा था, अली ब्रादरान और महात्मा गांधी का बड़ा नाम था। अब या तो मैं अपना तख़ल्लुस 'गांधी' रख सकता था, वरना अली ब्रादरान में से किसी का नाम अपने तख़ल्लुस के लिए मुंतख़िब (चुन) सकता था। मौलाना मुहम्मद अली के दोनो अजज़ा ( ) मुझे तख़ल्लुस के लिए मुनासिब नहीं मालूम हुए, अलबता मौलाना शौकत अली का शौकत मेरे दिल में उतर गया।''
शायरी के इस शुरूआती मरहले पर एक बेहद मज़ेदार किस्सा शौकत थानवी के दरपेश आया, जिसका बयान ख़ुद उन्होने किसी वक़्त रेडियो पर किया था। मेरे इल्म में यह किस्सा हाल ही में जारी हुई एक पुस्तक 'शीश महल' में जनाब मुश्ताक़ अहमद आज़मी के एक मज़मून की वजह से आया है।
''मेरी एक ग़ज़ल छप गई। कुछ न पूछिए मेरी ख़ुशी का आलम। मैंने वह रिसाला खोल कर एक मेज़ पर रख दिया था कि हर आने-जाने वाले की नज़र इस ग़ज़ल पर पड़ सके। मगर शामत एमाल कि सबसे पहले नज़र वालिद साहब की पड़ी। उन्होने यह ग़ज़ल पढ़ते ही ऐसा शोर मचाया कि गोया चोर पकड़ लिया हो। वालिदा मुहतरमा को बुलाकर कहा 'आपके साहबज़ादे फ़रमाते हैं कि -

हमेशा ग़ैर की इज़्ज़त तेरी महफ़िल में होती है
तेरे कूचे में हम जाकर ज़लीलो-ख़्वार होते हैं

मैं पूछता हूं कि ये जाते ही क्यों हैं। किससे पूछ कर जाते हैं। वालिदा बिचारी सहम कर रह गईं और ख़ौफ़ज़दा आवाज़ में कहा, 'ग़लती से चला गया होगा। मुख़्तसिर यह कि अब मैं शौकत थानवी बन चुका था। और अब कोई ताकत मुझे शौकत थानवी होने से बाज़ न रख सकती थी।'' 
1928 में वालिद साहब की मौत के बाद शौकत थानवी पर घर की ज़िम्मेदारी आन पड़ी। इसी ज़िम्मेदारी को निभाने के लिए उन्होने एक उर्दू अख़बार; रोज़नामा 'हमदम' में नौकरी हासिल कर ली। उस वक़्त के नामवर अदीब सैयद जालिब देहलवी अख़बार के एडीटर थे। इसी नौकरी के दौरान उमर को मज़मून लिखने का चस्का लगा। वो अक्सर ताज़ा तरीन हालात पर मज़ाहिया किस्म के मज़ामीन लिखकर सैयद जालिब देहलवी की नज़रसानी के लिए पेश कर देते। अक्सर ही नतीजे में उनकी नीली स्याही से लिखी तहरीर सैयद साहब की लाल स्याही की ज़द्द में आकर सुर्ख हो जाती। लेकिन शौकत थानवी बनने को बेताब उमर मियां भी कहां हिम्मत हारने वाले थे। वे रोज़ लिखते और रोज़ ही इस्लाह के लिए उसे सैयद साहब के सामने पेश कर देते।
आखिऱ आने वाला वह दिन भी एक दिन आ ही गया जिस दिन शौकत थानवी का नाम मज़ाहनिगारों के फहरिस्त में बाकायदा शामिल होना था। सैयद साहब ने हुकुम फ़रमाया कि 'हमदम' के लिए शौकत थानवी अब से एक मज़ाहिया कालम 'दो दो बातें' लिखा करेंगे।
शौकत थानवी के लिए 'दो दो बातें' असल में ज़माने से 'दो दो हाथ' कर लेने की एक मनचली ख़्वाहिश का हक़ीक़ी शक्ल लेने जैसा था। लिहाज़ा उसे ज़ाया करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था और वह हुआ भी नहीं। थोड़े ही अर्से में उनके कालम ने उन्हे अपने सबसे बड़े आलोचक-उस्ताद सैयद जालिब देहलवी की दाद भी दिला दी।
'दो दो बातें' लिखने के साथ ही साथ शौकत थानवी ने उन दिनो दीगर रिसालों के लिए भी लिखना शुरू कर दिया। इसी सिलसिले में उनका एक अफ़साना 'स्वदेशी रेल' लाहौर के मशहूरो-मारूफ़ रिसाले 'नैरंगे ख़याल' के 1930 के सालनामे (वार्षिकी) में छपा और छपते ही सारे हिंदुस्तान में घर-घर की बात बनकर छा गया। उसे जिस क़दर पसंद किया गया और सराहा गया उतना ही उसका चर्चा भी हुआ। हालत यह हुई कि हिंदी, गुजराती, मराठी, बंगाली बल्कि मुल्क की कमोबेश हर भाषा के अख़बारों और रिसालों ने उर्दू से इसका तर्जुमा करके एक लंबे अरसे तक इसे ख़ूब छापते रहे और शौकत थानवी के नाम और काम को घर-घर पहुंचाते रहे।
'स्वदेशी रेल' असल में मुल्क की असल आज़ादी से पूरे 17 साल पहले, आज़ादी के बाद बनने वाले हालात का खेंचा गया एक तसव्वुरी नक्शा है। इस नक्शे में हर चीज़ ग़फ़लत, बद-हवासी, बद-इंतिज़ामी और बेईमानी की ज़द्द में आकर आम आदमी (इस जगह रेल के मुसाफ़िर) किस तरह एक अफ़रा-तफ़री के माहौल में फ़ंसकर रह जाते हैं।
जैसा कि अक्सर होता है, वैसा इस मामले भी हुआ। 'स्वदेशी रेल' की इस हर बेमिसाल कामयाबी के बाद शौकत थानवी को दाद के साथ ही साथ कुछ मुश्किलों का सामना भी करना पड़ा। स्वराज की लड़ाई लडऩे वालों और उनके हमदर्दों में से एक तबके ने शौकत थानवी को अंग्रेज़ों का पिट्ठू कहकर उसकी निंदा की। इसके पीछे तर्क यह था कि शौकत थानवी इस तरह के ख़ाक़े पेश करके अवाम में अंग्रेज़ी सरकार के हक़ में और स्वराज के ख़िलाफ़ माहौल बना रहे हैं। बहरहाल, आज के हालात देखकर महसूस होता है कि गोया वक़्त ने शौकत थानवी की उस ख़ौफनाक तस्वीर के हक़ में ही फ़ैसला सुना दिया है।
शौकत थानवी को न जाने किस तरह आने वाले वक़्त का इल्हाम सो गया मालूम होता है, जिसके डर से वह ख़्वाबों के बहाने ज़हन में उगते ख़ौफ़नाक मंज़रों को अफ़सानों और शायरी की शक्ल में पेश करने में लगे थे। इसकी एक और मिसाल उनकी एक नज़्म है - ''ख़्वाबे-आज़ादी।'' इस नज़्म को पढ़कर ही आप अंदाज़ लगा सकते हैं कि शौकत थानवी असल आज़ादी से पहले ही आज़ादी के ख़याल ही से किस तरह ख़ौफ़ खाए हुए थे।

अपनी आज़ादी का देखा ख़्वाब मैने रात को
याद करता हूं मैं अपने ख़्वाब की हर बात को
मैने यह देखा कि मैं हर क़ैद से आज़ाद हूं
यह हुआ महसूस जैसे ख़ुद मैं ज़िंदाबाद हूं
जितनी थी पाबंदियां, वो ख़ुद मेरी पाबंद हैं
वह जो माई-बाप थे हाकिम, वो सब फ़र्ज़ंद हैं    (फ़र्ज़ंद-बेटा)
मुल्क अपना, क़ौम अपनी, और सब अपने ग़ुलाम
आज करना है मुझे आज़ादियों का एहतराम
जिस जगह लिखा है ''मत थूको'', मैं थूकूंगा ज़रूर
अब सज़ावार-ए-सज़ा होगा न कोई क़सूर
इक ट्रेफिक के पुलिस वाले की कब है यह मजाल
वो मुझे रोके, मैं रुक जाऊं, यही है ख़्वाबो-ख़याल
मेरी सड़कें हैं तो मैं जिस तरह से चाहूं, चलूं
जिस जगह चाहे रुकूं, और जिस जगह चाहे मरूं
साईकल में रात को बती जलाऊं किसलिए ?
नाज़ इस क़ानून का आख़िर उठाऊं किसलिए ?
रेल अपनी है तो आख़िर क्यों टिकिट लेता फिरूं
कोई तो समझाए मुझको यह तकक्लुफ़ उठाऊं किसलिए
क्यों न रिश्वत लूं कि जब हाकिम हूं मैं सरकार का
थानवी हरगिज़ नहीं हूं, अब मैं थानेदार हूं
घी में चर्बी के मिलाने की है आज़ादी मुझे
अब डरा सकती नहीं गाहक की बरबादी मुझे

'स्वदेशी रेल' की बेपनाह मक़बूलियत से दूसरी मुश्किल जो शौकत थानवी के दरपेश आई वह थी ख़ुद को दोहराने का कारोबारी दबाव। मुल्क भर के तमाम अखबारात और रिसालों ने शौकत थानवी से 'स्वदेशी रेल' की तर्ज़ पर दुनिया की हर चीज़ को 'स्वदेशी' के साथ जोड़कर पेश करें।
''स्वदेशी रेल की मक़बूलियत के बाद जिसको देखिए वह हमसे यही मुतालिबा करता की कोई स्वदेशी चीज़ लिख दो। और तो और खुद एडीटर 'नैरंगे खयाल' ने 'स्वदेशी रेल' का दूसरे हिस्से का मुतालिबा किया। हमने इन तमाम फरमाइशों की तामील कर दी। मगर इनमे किसी मे वह बात पैदा न हो सकी। दरअसल मज़ामीन का लिखना ही हमारी ग़लती थी मगर यह बात उस वक़्त न हम खुद समझ सके न कोई हमको समझा सका। अब पढऩे वाले हमसे 'स्वदेशी रेल' तलब नहीं कर रहे बल्कि उससे आगे कुछ मांग रहे हैं।'' (शौकत थानवी)
इसी कामयाबी के बीच 'हमदम' ने दम तोड़ दिया। शौकत थानवी को एक बार फिर रोज़गार की तलाश में भटकना पड़ा। इसी तलाश के नतीजे में इस बार वह जा पहुंचे मुंशी नवल किशोर के 'अवध अख़बार' के दफ़्तर। इस वक़्त वहां एक असिस्टेंट एडीटर की जगह ख़ाली थी। इस ख़ाली जगह को शौकत थानवी ने भर दिया। उनकी दीगर ज़िम्मेवारियों के साथ ही साथ 'हमदम' वाला उनका मशहूर कालम 'दो दो बातें' लिखना भी शामिल था।
इस मकाम तक आते-आते शौकत थानवी अपने दौर के बेपनाह मशहूर अदीबों में शुमार होने लगे थे। शायरी का रियाज़ उनके उस्ताद मौलाना अब्दुल बारी 'आसी' की निगहबानी में चल ही रहा था उस पर 'स्वदेशी रेल' जैसे कारनामों से उनका नाम एक नई ऊंचाई दे डाली थी। मुशायरों में बुलाए जाते तो अपनी पाएदार आवाज़ और पढऩे के एक ख़ास अंदाज़ की वजह से अक्सर महफ़िल लूट ले जाते।
इस क़दर बड़ी कामयाबी मिलने पर अक्सर इंसान के बहकने का ख़तरा बना रहता है। शौकत थानवी भी इस बला से पूरी तरह बच न सके। उन्होने नसीम अनहोनवी जैसे कुछ दोस्तों के साथ मिलकर ख़ुद का एक हफ़्तावार अख़बार शुरू किया। उस दौर के कामयाब तरीन 'अवध पंच' की  तर्ज़ पर नाम रखा 'सरपंच'। यह कोशिश काफ़ी हद तक कामयाब तो थी शायद उस क़दर नहीं जिस क़दर सोचा गया था। आख़िर एक साल के बाद 'सरपंच' भी बंद हो गया।
इससे भी दिल नहीं भरा तो 1936 में उत्तर प्रदेश के ब्रिटिश हुकूमत के तरफ़दार  ज़मींदारों की माली इमदाद लेकर एक बार फिर अख़बार शुरू किया। इस बार यह एक रोज़नामा था जिसका नाम था 'तूफ़ान'। नतीजा एक बार फिर वही निकला। एक साल बाद यह अख़बार भी बंद करना पड़ा।
हालांकि इन तमाम मिसएडवेंचर्स के बीच भी शौकत थानवी के लिखने की रफ़्तार बराबर कायम रही। धड़ाधड़ एक के बाद एक किताबें मंज़रे आम पर आती रहीं और बाकायदा कामयाब होती रहीं। मज़ाहिया अफ़सानों और मज़ामीन की किताबों की एक सीरीज़ 'मौजे तब्बसुम', 'सैलाबे तब्बसुम', 'तूफ़ाने तब्बसुम' और 'बहरे तब्बसुम' एक के बाद एक जिस रफ़्तार से बुक स्टाल्स तक पहुंच रही थीं उसी तेज़ रफ़्तारी से शेल्फ़ से ग़ायब भी होती जातीं।
शौकत थानवी की इस सीरीज़ के सिलसिले में उनके एक दोस्त प्रोफ़ेसर रशीद अहमद सिद्दीक़ी ने एक किस्सा बयान किया है। कहते हैं कि इस 'तब्बसुम' वाली सीरीज़ के दौर में ही शौकत थानवी ने उनसे फ़रमाइश की कि वो उनकी नई किताब का कोई नाम तजवीज़ करें। ''...इतिफ़ाक़ से उस ज़माने में मेरा गुज़र चांदनी चौक से देहली मेें हुआ. एक जगह साईन बोर्ड पर नज़र पड़ी 'चप्पल ही चप्पल', मैं उछल पड़ा.... मैने फ़ौरा ही शौकत साहब को लिखा कि 'तब्बसुम ही तब्बसुम' कैसा रहेगा लेकिन शौकत साहब ने 'दुनिया-ए-तब्बसुम' मौज़ूं समझा। मैं क्या करता अपना सा मुंह लेकर रह गया।''
शौकत थानवी के बारे में जानने लायक एक बेहद अहम बात यह है कि वो कमाल के लिखाड़ इंसान थे। लिखने बैठते तो उनकी रफ़्तार तूफ़ानों की रफ़्तार को ललकारती हुई सी होती। उस पर तुर्रा यह कि एक बार जो लिख दिया सो लिख दिया उसे दूसरी बार नज़र भर देखने की ज़हमत भी न उठाते। और कमाल यह कि इस रफ़्तार में भी उनके लिखे किसी भी पन्ने पर एक लफ़्ज़ की भी कांट-छांट न होती।
उनके स्कूली दौर के एक दोस्त ग़ुलाम अहमद 'फ़ुर्कत' ने एक दिलचस्प किस्सा बयान किया है। इससे पहले कि मैं उनका बयान पेश करूं, शौकत थानवी के किरदार की एक बेहद अहम बात बयान कर दूं। वह यह कि उन्हें ताश के खेल से बड़ा लगाव था। अपनी तमाम मसरूफ़ियात के बीच भी इस खेल के लिए वक़्त ज़रूर निकालते थे। 'फ़ुर्कत' साहब के इस बयान में भी ताश के खेल का ज़िक्र शामिल है।
''एक रोज़ शौकत मुस्तफ़ा मंज़िल (लखनऊ) में रमी खेल रहे थे कि लाहौर के एक बहुत बड़े पब्लिशर ने एक ख़ास नुमाइंदा भेजकर शौकत से फ़रमाइश की कि वह तीन रोज़ के भीतर-भीतर एक-डेढ़ सौ पेज का उपन्यास लिखकर भेज दें। शौकत ने खेलते ही में उनसे वादा कर लिया कि परसों शाम को रवानगी से पहले आपको सामग्री मिल जाएगी। जो लोग खेल रहे थे, उन्होने कहा कि क्या कोई उपन्यास लिख रखा है जो तुमने वादा कर लिया। बोले - नहीं, डेढ़ सौ पन्नों की ही तो बात है। कल का पूरा दिन पड़ा है। हो जाएंगे।'' जब वह साहब चले गए तो शौकत ने डाक्टर साहब से कहा - ''यार ! दूसरे कमरे में एक टेबल-लैंप रखवा दो।'' आप यकीन मानिए तीसरे दिन जब वह पब्लिशर का नुमाइंदा जाने को हुआ तो शौकत ने फुल-स्केप के 50 पेज दोनो तरफ़ बारीक से हरूफ़ में लिखे हुए उसके हवाले करते हुए पांच सौ रुपए का चेक उससे ले लिया।
यह एक हक़ीक़त है कि वह बला के ज़हीन और तेज़ दिमाग़ वाले थे कि जब कोई अफ़साना या मज़मून लिखने बैठते तो यों लगता जैसे उनकी कलम कोई लिखा-लिखाया सबक सुनाती जा रही है। फिर न वो अपने लिखे तो दुहराते और न उसमे किसी किस्म की तरमीम (संशोधन) करते।''
शौकत थानवी के सिलसिले में क़ाबिले-दाद बात यह है कि उनके अफ़साने में 'स्वदेशी रेल' की रफ़्तार चाहे जितनी बुरी रही हो उनके लिखने की रफ़्तार और उनका मैयार दोनो में बेमिसाल इज़ाफ़ा होता रहा। जहां शुरूआती तौर पर उनकी लेखनी में तंज़ का एक मद्धम सा रिसाव दिखाई देता है वहीं बाद के सालों में वह उबूर हासिल कर लिया कि यह कमोबेश हर जुमले में नज़र आने लगता है।
मसलन भोपाल से तालुक़ रखने वाले उर्दू के एक पुराने शायर सुहा मुजद्दिदी पर लिखा उनका लिखा ख़ाक़ा। ज़रा इस अंदाज़े बयां की सिफ़त देखिए, मालूम होता है कि एक इंसान हर लफ़्ज़ के साथ लगातार हमारी नज़रों के सामने जिस्मानी शक्ल में आ खड़ा हुआ है।
''हिंदुस्तान के जितने बड़े, उतने ही छोटे शायर।
बचपन से नाम सुनते आते थे। कलाम सुनकर झूमते थे और मिलने को दिल चाहता था। आख़िर अजीबो-ग़रीब तरीके पर मुलाक़ात हो गई। नाम बताने की ज़रूरत नहीं। बहरहाल हम एक जगह हम इसलिए बुलाए गए थे कि हमारी ग़ज़लों के दो रिकार्ड भर कर उनकी प्रूफ़ कापी आती होती थी और मक़सद यह था कि हम भी सुन लें। चुनांचे वह रिकार्ड सुनते रहे। रिकार्ड सुनने के बाद ग्रामोफ़ोन बंद जो किया गया तो ढकने के बंद होने के बाद पता चला कि उस तरफ़ एक साहब बैठे हुए थे, जो इतने मुख़्तसिर थे कि ग्रामोफ़ोन के ढकने की वजह से नज़र न आ सके। तारुफ़ कराया गया कि आप ही मौलाना सुहा हैं।''
अब ज़रा ग़ौर करें कि शौकत थानवी किस तरह इस शख़्स, जिसे वे बचपन से मिलना चाहते थे, के जिस्म से आगे बढ़कर उस जिस्म के अंदर मौजूद सलाहियतों का ज़िक्र किस तरह करते हैं।
''क़ुदरत ने इतने से जिस्म में सभी कुछ मुहैया कर दिया है। मगर दिमाग़ जिस्म की तनासुब से (तुलना में) बहुत बड़ा अता किया है। अदब उर्दू में मौलाना को बहुत बड़ा दर्जा हासिल है.... मौलाना की अदाएं बाज़ औक़ात इतनी दिलकश होती हैं कि इनसे खिलौने की तरह खेलने को दिल चाहता है। और कभी-कभी मौलाना ऐसे क़ाबू से बाहर हो जाते हैं कि समझ में नहीं आता कि इनको क्योंकर संभाला जाए।''
शौकत थानवी बड़े बाग़ो-बहार इंसान थे। ज़ाती ज़िंदगी में भी उनका अंदाज़े गुफ़्तगू पुर-कशिश और पुर-लुत्फ़ होता था। फिर वो महफ़िल दोस्तों की हो या कोई अदबी नशिस्त। और तो और अंजाने लोगों के बीच भी उनका यही किरदार बना रहता था। इस सिलसिले में उनके कई लतीफ़े मशहूर हैं।
एक मर्तबा शौकत थानवी एक किताब फ़रोश की दुकान पर उसके साथ बैठे थे। तभी एक ग्राहक ने शौकत थानवी की एक किताब पसंद करके ख़रीद ली। दुकानदार ने चुटकी लेते हुए ग्राहक से कहा - ''आपने जिस लेखक की किताब ख़रीदी है यह वही साहब हैं। सूरत से चाहे जितने बेवक़ूफ़ दिखते हों लेकिन उतने बिल्कुल भी नहीं हैं।
शौकत थानवी ने बिना परेशान हुए ग्राहक को समझाया - ''मुझमें और मेरी किताबें बेचने वालों में यही बुनियादी फ़र्क है। यह जितने बेवक़ूफ़ है, सूरत से उतने बिल्कुल नज़र नहीं आते।''
इसी तरह जब वो एक बार रेल में अपनी बीबी के साथ सफ़र कर रहे थे तो अपने कम्पार्टमेंट में पहुंच कर देखा कि ऊपर के बर्थ पर एक बेहद मोटा सा आदमी पहले से ही मौजूद था। वे अपनी सीट से उठकर खड़े हुए और उस मोटे शख़्स को बड़े ग़ौर से देखते रहे। फ़िर उसे देखते-देखते ही धीरे से कुछ बुदबुदाए।
मोटे मुसाफ़िर ने सवाल किया कि क्या वो उससे कुछ कह रहे थे? शौकत थानवी ने जवाब में फ़रमाया - 'जी आप ही से मुख़ातिब था। मैं पूछ रहा था कि आपकी नज़र में कोई लड़की है?
मोटे ने हैरत से पूछा - ''क्यों?''
जवाब मिला - ''जी मैं उससे शादी करना चाहूंगा।''
मोटे ने उनकी बीबी की तरफ़ देखते हुए कहा - ''मगर आपकी बीबी तो आपके साथ है।''
शौकत थानवी ने आख़िरी वार करते हुए जवाब दिया - ''फिलहाल तो है। लेकिन मेरा अंदाज़ है कि अगर आपने नीचे उतरने की कोशिश की तो गिरेंगे ज़रूर। और गिरेंगे भी मेरी बीबी के ऊपर। ऐसे में उसका शहीद होना तो यकीनी है। इसलिए सोचा आप ही से मदद लेकर पहले ही दूसरा इंतज़ाम कर लूं।
ज़ाहिर है जवाब पर मोटे मुसाफ़िर के अलावा तमाम मुसाफ़िर दिल खोलकर हंसे और उस वज़नदार मुसाफ़िर ने नीचे उतरने की कोई कोशिश ही नहीं की।
बात भले ही लतीफे के तौर पर कही गई हो लेकिन असल ज़िंदगी में शौकत थानवी ने दूसरी बीबी वाला कारनामा कर दिखाया था। उनकी पहली बीवी अर्शे मुनीर एक बड़े आला और मज़बूत किरदार की औरत थीं। रेडियो पाकिस्तान और पाकिस्तान टी.वी. की बेहद मशहूर सदाकारा और अदाकारा के तौर पर याद की जाती हैं। अपनी तलाक़शुदा ज़िंदगी में तमाम जद्दो-जहद के साथ अपने वक़ार को कायम रखा। बच्चों को अकेले दम पर पाला। उनका एक बेटा रशीद उमर थानवी टीवी का मशहूर अदाकर होने के साथ ही साथ पाकिस्तान टीवी के यादगार सीरियल 'ख़ुदा की बस्ती' के प्रोड्यूसर भी थे। यह सीरियल फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, जमीलुद्दीन आली और 'ख़ुदा की बस्ती' के लेखक शौक़त सिदीक़ी की निगरानी में बनाया गया था।
रेडियो और टीवी से इस ख़ानदान का असल रिश्ता शौकत थानवी की वजह से ही कायम हुआ था। अख़बारों और रिसालों में नौकरी और फ़िर मालकियत के तजुर्बों के बाद आल इंडिया रेडियो, लखनऊ में बाकायदा नौकरी कर ली। उनकी कलम के पैनेपन से यहां भी उनको कामयाबी मिली और उनकी शोहरत में इज़ाफ़ा किया। यहां रहते हुए उन्होने नवाबी रहन-सहन, शान-ओ-शौकत भरी ज़िंदगी और उनकी हास्यासपद हरकतों को निशाना बनाते हुए बाकायदा एक सीरीज़ कर डाली। इसके नतीजे में उन पर हमले भी हुए।
दूसरी बड़ी जंग के दौरान उत्तर प्रदेश में चीफ़ पब्लिसिटी आफ़ीसर भी रहे। लेकिन यह भी एक मुख़्तसिर से वक़्त के लिए। अब उनके लाहौर जाने की बारी थी। शौकत थानवी को इस तरह लाहौर खेंचकर ले जाने जाने वाले शख़्स का नाम था इम्तियाज़ अली 'ताज'। इम्तियाज़ अली 'ताज' उस दौर के बेहद मक़बूल अदीब, ड्रामानिगार और अदाकार थे। उर्दू में उनकी पहचान 'चचा छक्कन' से और बकाया दुनिया में 'अनारकली' के लेखक के तौर पर है। वे बंटवारे से पहले और बाद भी फ़िल्मी दुनिया से जुड़े रहे। 1943 में उन्होने अपने ही साथ शौकत थानवी को दलसुख पंचोली के पंचोली आर्ट पिक्चर्स में आने के लिए राज़ी किया।  
फिर 1947 में बंटवारा हुआ तो उन्होने पाकिस्तान में ही रहने का फ़ैसला किया। पाकिस्तान में रेडियो पाकिस्तान, लाहौर से वाबस्ता हो गए। इस जगह एक बार फ़िर इम्तियाज़ अली 'ताज' की सलाह पर उन्होने एक रेडियो प्रहसन की सीरीज़ 'क़ाज़ी जी' लिखा, जो बेहद मक़बूल हुआ। यह प्रहसन 1947-48 में प्रोग्राम 'पाकिस्तान हमारा है' के तहत हर रोज़ रात आठ बजे से साढ़े आठ बजे के बीच प्रसारित होता था।
पाकिस्तान में कुछ अर्से अख़बार रोज़नामा 'जंग' में नौकरी करने के बाद फ़िल्मों के लिए भी लिखते रहे। 1953 में 'ख़ानदान'(42), 'ज़ीनत'(45) और 'जुगनू' (47) जैसी फ़िल्मों के डायरेक्टर शौकत हुसैन रिज़वी ने शौकत थानवी की एक कहानी पर फिल्म 'गुलनार' प्रोड्यूस करने का ऐलान किया। इस फ़िल्म के डायरेक्टर के तौर पर शौकत थानवी के दोस्त इम्तियाज़ अली 'ताज' मौजूद थे। फ़िल्म में शौकत थानवी, जो रेडियाई ड्रामों में ज़माने से काम करते रहे थे, ने पहली बार ख़ुद भी एक किरदार अदा किया था। इससे पहले 1943 में पंचोली आर्ट के लिए बतौर लेखक और 1948 की फ़िल्म 'बरसात की एक रात' के लिए कुछ गीत ज़रूर लिखे थे।
'गुलनार' में हालांकि मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहां मौजूद थीं और मास्टर ग़ुलाम हैदर का संगीत था फिर भी फ़िल्म बहुत कामयाब न हो पाई। लेकिन शौकत थानवी इस मकाम तक आते-आते कामयाबियों और नाकामियों से मुतासिर होने वाले दौर से काफ़ी आगे निकल आए थे। लिहाज़ा उन्होने फिर से कलम का ज़ोर आज़माया और बड़ी कामयाबी से लिखते हुए 4 मई 1963 को इस दुनिया से कूच करने से पहले कोई 60 किताबों को अपनी नज़रों के ही सामने धड़ले से बिकते हुए देख गए।
पिछली पचास और साठ की दहाई में एक रुपए वाली पाकेट बुक्स के दौर में शौकत थानवी हिंदी में भी ख़ूब छपे और ख़ूब बिके। इसी दौर में उर्दू के अनेक लेखकों को हिंदी ने अपनी भाषा के लेखक की तरह पूरे अदब और एहतराम से एक इज़्ज़त का मकाम दिया।

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