नये कवि
पायथागोरस का प्रमेय
मैं कौन हूं? जिसका बाप, माँ को ले कर उसकी आत्मा बुन गया पर बोला नहीं उससे, न दिन, न रात, मेरी माँ ने कभी बाहर नहीं देखा, रसोई में जिंदा सब्जियों के बीच काट दी सिहरन अपनी, बीज सींच-सींच कर उन खरपतवार का, जिसने उससे पेड़ बनने का वादा छीन लिया
मैं कौन हूँ? जिसकी बहन रो-रो गयी उस गरीबी से, जो मेरा पेट भर गयी उसके हाथ से उगे बीजों से, वो हाथ जो अब तीन बच्चों के सर पर, पति की टांग के नीचे, भर रहा है पानी, उस खाली दिमाग में, जो बढ़ नहीं पाया मेरी किताबों के तले
मैं कौन हूँ? जिसका टीचर सोंटा पटक पटक कर, कंधे की आर्थराइटिस का शिकार हो गया, कोंच कोंच कर मेरी आँख, कान, ज़ुबान, कि भर जाएँ वो, पायथागोरस के प्रमेय से, कौटिल्य के अर्थशास्त्र से, कहने लगे पैदाइशी आवाज़ में, ''मिस मे आइ गो टॉइलेट? सॉरी मैम, थैंक्यू प्लीज़!''
मैं कौन हूँ? अरस्तु के सवाल-जवाब सा, जिसका बेनाम जूता माज गुडग़ाँव की धूल को मार रहा है लात, भाग रहा है उस हवा से, जिससे डीज़ल की भाप निकाल, दफ्तर की ए.सी. कैब ज़िंदा रखती है हाथ और पैर, छोड़ आती है उस ठंडे कमरे में जहाँ कोई सो नहीं पाती, जहां कोई सपना आ-आ कर नहीं जगाता
कौन हूँ मैं? जिसका बाप उसकी माँ को ले कर उसका दिन बुन गया, उसकी रात बुन गया, और बीच के सबकुछ में भर गया एक लम्बी छुट्टी, जिसे ले कर, न मैं घर जा सकूँ, न अपनी बहन की ससुराल, जहाँ वो घोंट रही है दलिया अपने पूर्व पति के नाम का, जिसका आँगन मेरे माँ बाप की शिकायती चिट्ठियों से भरा है, जिसकी बस्ता टांगे औलाद कोंची जा रही है आर्थराइटिस लगे कन्धों तले, पायथागोरस के प्रमेय से कौटिल्य के अर्थशास्त्र से ''प्लाज़ मिस, मे आई गो टॉयलेट? थैंक्यू, सॉरी...'' एक बार फिर!
अब भी है वहां?
औंधे पड़े हरसिंगार वाली पनीली सुबह अमरूदों वाली दोपहर, जो स्वेटर पहन कर शाम में बदल जाती थी, नीली, नीली सी, चुपचाप
वो घर के बाहर वाला लोहे का काला गेट, किनारे से धसका हुआ, अब भी है, चिकनी ठंडक उसकी? गाल ठहर जाता था जिस पर मेरा, न जाने कौन आ जाये जिसका इंतज़ार है, टन्न से खुलता था! चिंहुक जाती थी माँ ''कौन है?'' नीली हेड लाइट वाली साईकिल पर बूढ़ा, गीली आँखों वाला मास्टर पढ़ाने आता है अब भी? पीली रौशनी में, दीवार का चूना उसके भूरे कोट पर चिपक जाता था, हर बार, वो पीला रिपोर्टकार्ड साल में तीन बार आता था जो, अब भी है? बाबूजी के सिगनेचर के साथ नाराज़...
वो दुबला रिक्शे वाला, गुलाबी गमछा बांधता था सर पर, उसकी लाल रैक्सीन की सीट पर पसर के बैठ जाती थीं सक्सेना आंटी, गोरी सी, काजल लगाती थीं जो, उनकी सूती धोती कड़वे तेल के पसीने में सांस लेती थी, चांदगंज के कोहरे में गयीं एक शाम, वापस ही नहीं आयीं! उनके वाले अंकल हैं वहां, अब भी परेशान?
सब्जीवाला लगा रहा है दुकान सड़क किनारे, कैरोसीन की लालटेन में जल रही भड़भूजे की आग, कनस्तर भर भर पिघलते, चिपकते आपस में, लय्या के लड्डू, खा रही हैं तीन बहनें चाय के साथ, उनकी बातें धीरे-धीरे चुक कर बंद हो गयी अब
लगता है तुम्हें वो मोटा चाट वाला गुज़र रहा है गेट के सामने? मार कर तवे पर अकेली करछुल, हाथी सा निकलता था अँधेरे में, घुल जाती थी हरसिंगार में, भुने आलू की खुशबू, तुम डॉट खाती थीं, खांसी बुखार में भी दही डलवाती थीं, बूढ़ा था, मर गया होगा शायद, याद है एक बार अपने घर से मांग कर, पानी पिया था उसने...
सुनो ज़रा
पटकती रही काँपती खिड़कियों पर हथौड़े की आवाज़, चढ़ता रहा धरती के सर, हमारा पुराना मकान
एक पुरानी घड़ी पर चढ़ कर वो ड्योढ़ी, मोह के असंभव घेरे में गड्ड मड्ड कर गयी सुबह से शाम
कहीं नहीं गए हमारे पैर! कुछ कोस परदेस बना कर बैठ गए सियारों के साथ, सुनते रहे जंगल से पलटते झींगुर की आवाज़
खिड़कियों के भुरभुरे टुकड़ों ने बंद कर दी रात, खोल दिया पलस्तर ने दीवारों का मुँह, वह टूटता हुआ घर हमें तोड़ कर खा गया
वह लड़का और वह लड़की
1 समझते हो बच्ची हूँ? कभी तो उतरोगे पेड़ से, बताऊँगी तुम्हें, कैरम की सफेद गोटी के दस नंबर होते हैं की बीस! स्टापू के खेल में आठ घर बना कर, हारा कौन, जीता कौन! क्यों मेरी गुडिय़ा का एक हाथ तोड़़ कर पानी की टंकी में डाला तुमने? जब मैं क्वीन ले कर, कवर डाल रही थी क्यों मेरा पैर खरोंचा तुमने?
2. उतार लिया पेड़ से मुझे, शोर मचा दिया, कि छीन लिया मैंने वह जो बचपन था तुम्हारा! सच बोलो? जब तुम चहक रही थीं, 'लंगड़ी हूँ तो क्या? आठों घर हैं मेरे, स्टापू में तुम्हारे!' अटक अटक कर मेरा हाथ घुटने पर चल रहा था तुम्हारे, तुम रुक-रुक के कह रही थीं 'खंरोचो मेरी अकेली टांग, मेरे एक बाप, एक माँ, चार बहन और तीन भाइयों में से किसी ने भी, मुझे ऐसे नहीं छुआ!' तुमने एक बार भी नहीं सोचा तब, क्वीन का कवर तुम्हारे बस का नहीं था? तुम्हारी गुडिय़ा पहले से टूटी थी? तुम्हारी टांग को छूने वाला हाथ, तुम्हारे पूरे धड़ को खा जाना चाहता था?
3 तुमने कहा, मैं समझ सकता हूँ, उस भेडिय़े का आक्रोश!
अरे! तुम कैरम की गोटियां ले कर भाग गयीं उसकी कैसे ना कहता वह, 'ए लँगड़ी वापस कर वर्ना चबा डालूँगा पूरा का पूरा!'
लंगड़ी हूँ तो क्या? आठ घर बन गए हैं मेरे, स्टापू में तुम्हारे! तुम्हे रात में पेड़ से उतारूंगी, होठों से सहलाऊँगी, फिर खुश हो कर खाऊँगी
भेडिय़ा ढूंढ लेगा तुम्हें, हंसी से तुम्हारी
तो क्या, तब मैं सुबह उठूँगी, तुम पेड़ पर नहीं होगे?
तो क्या, जब मैं सो जाऊंगा, तुम भेडिय़े को मार डालोगी? 4. यह सारे जानवर, जो रुक गए हमें अँधेरे में खेलता पा कर, चबा गए आधा आधा धड़, हंसी सुन कर हमारी, छीन नहीं पाये हमसे, बचपन हमारा! एक रात की बात थी, हम छोड़ आये अपना शरीर उस पेड़ के नीचे, जहां भेडिय़े, कुत्ते और लकड़बग्घे अपनी दोस्ती में जगह नहीं दे पाये हमे, तो हमने नींद में उन्हें मार दिया, पहले तुम मुझे खा गए फिर मैंने तुम्हें खा लिया |