पहली बार
1. अनंतिम मौन के बीच दृश्य-1 (बात जहां शुरु होती है एक भंवर पड़ता है वहाँ, दलीलें घूमती हुई जाने किस पाताल तक ले जाती हैं)
मैं कहती हूँ बात अभी पूरी नहीं हुई जवाब में तुम बुझा देते हो बत्ती बंद होता है दरवाज़ा उखड़ती हुई सांस में सुनती हूँ शब्द - अब भी तुम्हें प्यार करता हूँ स्मृतियाँ पुनव्र्यवस्थित होती हैं बीज की जगहों में भरता है मौन किसी झाड़ी मे तलाशती हूँ अर्थ कपड़े पहनते हुए कहती हूँ - एक बात अब भी रह गई है उधर सन्नाटा है नींद का!
दृश्य-2 तुम नहीं जानती यह निपट अकेलापन वीरानियाँ फैली हुई इस झील की तरह और दूर एक टिमटिमाती सी बत्ती है तुम्हारी स्मृति जाने दो खैर तुम नहीं समझोगी!
(एक वाक्य दरवाज़े की तरह बंद होता है मेरे मुंह पर अपने थैले में टटोलती हूँ हरसिंगार के फूल जो बीने थे रात तुम्हें देने को...नहीं मिलते... मुझे झेंप होती है... कैसे खाली हाथ आ गई हूं... इस सम्वाद में मुझे मौन से काम लेना होगा, बंद दरवाज़े फिर खुलने से पहले एक ग्रीन रूम चाहिए, पुनव्र्यवस्थित होती हूँ, समझने के लिए क्या करना होगा? मेरी उम्र अब 40 होने चली है।)
- कैसे गटगटा जाती हो! पियो आराम से थामे रहो गिलास जैसे थमती है सांस पहली बार कहते हुए - प्रेम! और फिर एक घूँट आवेग का ज़बान पर जलता और उतरता गले से सुलगता हुआ
नाराज हो? हर बात का अर्थ निकालती हो तुम (झील पर घने कोहरे जैसा पसरा है सन्नाटा, उस पार जलती बत्तियाँ बुझ गई हैं, मुझे अभी सुरूर आने लगा है)
दृश्य बदलते हैं जल्दी-जल्दी, पटाक्षेप के लिए भी वक्त नहीं इस झील को यहां से हटाना होगा मंच पर लौटना होता है आखिर हर नाटक को कोई विराट एकांतिक अंधकार साझा अंधेरों से मिले बिना नहीं लाता रोशनी
दृश्य-3 बहस के बीच कोई कह गया है- जो मंदिर नहीं जाती पब जाती होंगी ऐसी ये समाजवादी भिन्नाटी औरतें! तुम कहते हो - बीच का रास्ता क्यों नहीं लेती परिवार का बचना ज़रूरी है स्त्री की मुक्ति इसी के भीतर है मैं समझता हूँ तुम्हें सारा तर्क आयातित दर्शन हो जाता है कोई उपहास करता है- है आपके दर्शन में सृष्टि की उत्पत्ति से जुड़ी व्याखाएं? मैं कहती हूँ तुमने मेरी गर्दन पर पांव रखे कोख को बनाया गुलाम ऐसे हुई सृष्टि की उत्पत्ति
- कैसे बात करती हो मुझसे भी!
तुम्हारा रुआँसा चेहरा देख पिघल जाती हूँ तुम देखते हो अवाक और चूमती हूँ तुम्हें पागलों सा मेरे बच्चे! (उमस भरी चुप्पी है। प्यार के सन्नाटे असह्य हैं!)
2- प्रतिरोध मैंने सर झुकाया और भीगने दिया बालों को उंगलियों के बीच से ठंडे तेज़ पानी को खुशी से इजाज़त दी भागने की गोल पत्थर को उठाकर रख दिया वापस शरमाकर सिकुड़ गए जीव से मांगी क्षमा जीभ दबाकर दांत में हंसी शरारत पर फिर पांव रखे नदी में और एक ठंडी सिहरन के साथ किसी जादू से मानो हो गयी सुनहरी मछली मेरा होना है अब इसी जल में मैंने पा लिया है इसे जैसे पा लेता है कोई बीज नाखून भर मिट्टी अंखुआने के लिए जैसे पा लेती है गिरती चट्टान एक ठौर नदी के रास्ते में और भरने लगता है संगीत ऊबे पानी में
बनाती हूँ रास्ता मांगती हूँ श्वास देखना आता होगा अभी कोई जाल मेरी टोह में
छूटती है चींख जैसे टूटता है कांच चूरा चूरा स्तब्ध जल विकल मन उहापोह में
मैं जल 'में' हूँ? या मैं विरुद्ध जल के?
किसी खाड़ी में खोने से पहले नदी को लौटानी होंगी कम से कम मेरी स्मृतियाँ अपनी पहचान में स्वीकारना होगा उसे मेरा होना ठीक ऐसे जैसे उसकी मोहक कलकल में चट्टानों का होना भरता है मानी
निरर्थक है पूछना - चट्टान धारा में है या खिलाफ धारा के!
3- एक दु:स्वप्न घर एक दु:स्वप्न दूर तक फैली है रेत मैं खोदती हूँ देर तक नहीं बना पाती एक गड्ढा भी अपने लिए खोदने के लिए ज़रा सी जगह डालती हूँ हाथ और भर जाती है उसमें भी रेत!
मैं ज़िंदा हूँ मरीचिकाओं के लिए? या खाद के लिए? इश्क के छिलके भी तो नहीं हैं बायोडिग्रेडेबल!
सिर्फ प्यार के लिए जीना रेत हा जाना है एक दिन कुछ नहीं बचता उस दिन तक बचा रहता है घर रेत के ऊपर भी
प्रेम! तुम्हें आना था पांवों के नीचे साझा मंज़िल की ओर जाती राहों में हो जाना था कभी सर पर सवार सांस लेने के लिए रुकते ही होंठो पर पिघलना था पहले कौर से पहले विचारों के उलझ जाने के बाद आँखों में उगना था सूरजमुखी जैसा... रात से पहले तुम्हें आना था भटकती शामों की तरह आना था कई रतजगों के बाद पाए साझा सपनों की तरह तुम्हें नहीं आना था बवण्डर जैसे नहीं होना था शाश्वत रेत!
कपड़े फटकारती हूँ तो मिलती है वह जींस के मुड़े हुए पायचे खोलने से झरती है किताबों के पन्नों के बीच दिखती है महीन पंक्ति सी मैं आवाज़ लगाती हूँ और भर जाती है गले में रेत रेत के नीचे दबे हैं सारे नक्शे उन पुलों के जिन्हें साथ पार करने से पहले हमीं को बनाना था चलती हूँ तो धंस जाती हूं हथेलियों से दिन भर हटाती हूँ रेत बनाती हूँ जगह बनाती जाती हूँ जगह और भरती जाती है रेत!
4-जैसे रह जाती है गूंज तुम्हारे जाने के बाद
अधूरे चेहरे वाले मुखौटे के सामने इंतज़ार में सूखते रंग अधूरी नींद में जागे होने का भ्रम पाले घिसटती देह गाफिल आिखरी चार पन्नों के पढ़ लिए जाने से पहले सीने पर औंधी किताब सी रह गई हूँ मैं
तुम्हारी नींद में होती हूँ तो नहीं होती कहीं भी और बेनींद दिन भी मेरे तपते हैं लू की थपेड़ में सोचती हूँ तुम्हें तो घिर आते हैं मेघ आषाढ़ के बंद आंखों में उगते हैं इंद्रधनुष धुंधले से एक अबाबील चीखती हुई गुज़र जाती है आसपास पर इस साल खूब बारिश के आसार हैं और बाढ़ के लिए नहीं कोई इंतज़ाम
तुम्हारे साथ देखने लगती हूं सफेद, गहराते बादलों में काले पहाड़ बर्फ सने जहाँ शहर में नहीं दिखी कभी क्षितिज रेखा कितने घने सब ओर देवदार और कोहरे के बीच टापू सा पहाड़ का यह टुकड़ा समुद्री लुटेरों के आने से पहले चूम लेना चाहती हूँ तुम्हें निद्र्वंद्व तीखे मोड़ कर लिखी चेतावनियाँ मिटा आना चाहती हूँ
मैं सुनना चाहती हूँ तुम्हें सबसे अंधेरे कोनों में सबसे बहरे समय के हारे हुए मौन में जैसे खोया हुआ यात्री सुनता है नदी को आस के अंतिम छोर पर। मुझे सुनते रहना है तुम्हें कत्ल के आखिरी मंसूबे के बनाए जाने से पहले और बंद होती हुई बहत्तरवीं धड़कन तक
अभी रह गई हूँ मैं आखिरी दाना चुगने से पहले 'खट' की आवाज़ में रह जाती है जैसे बची हुई भूख।
सुजाता का जन्म 9 फरवरी 1978 को दिल्ली में हुआ। वहीं श्यामलाल कॉलेज में अध्यापन। पिछले सात सालों से 'चोखेर बाली' ब्लॉग का संचालन। मो. 09911869977 1-सी, पॉकेट-1, मयूर विहार फेज-1, नई दिल्ली |