रुखसत

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    अप्रैल - 2016
श्रेणी स्त्री कविताएं
संस्करण अप्रैल - 2016
लेखक का नाम अपर्णा मनोज








मैं चुप्पियों के कन्धों पर रुखसत नहीं होना चाहती
यात्राएं पैरों की समझ पर निर्भर करती हैं
हम करोड़ों जलधाराओं के भीतर तैरते हुए
एक बूंद को भी ठीक से पार नहीं कर पाते
मैं एक बूंद के कंधे पर प्यास की तरह जाना चाहती हूं

मैं ढाई के घर में
पांच की दुश्वारी हूं
स्थान
स्मृति
रोशनी
स्वप्न
शब्द

हम सब उच्चारण की गति से बेतहाशा दौड़ते हैं
फिर भी ऐसा यूँ है
कि जगहें विलंबित हो ही जाती हैं
ऐसा यूँ है कि स्मृतियां इतनी अलक्षित हैं
कि उनकी निस्बत हम अपने वक्त में ही विलंबित हो जाते हैं
दिन और रात की पेचीदगी में
विलंबित हो जाती हैं अस्ल में सच्ची रोशनियां
अक्सर हमारे शब्द विलंबित हो जाते हैं
शोक-सभा के बाद उनके अधूरे अर्थ तक पहुंचती हैं जीवन की सभाएं
कभी-कभी इतनी देर हो जाती है
कि जब तक आँख खुले
जीवन के जरूरी दृश्यों के सारे साथी कहीं और जा चुके होते हैं

हम सब कितने विलंबित हैं-
करोड़ों प्रकाशवर्ष से आती रोशनियों से भी अधिक विलंबित
और जैसे रोशनी मुड़ जाने पर
चीज़ें ठीक जगहों पर नहीं दीखतीं
वैसे ही हम अपनी उम्रें गलत बसाहटों और गलत पतों पर बिता देते हैं

मैं एक विलंबित भूगोल पर बैठी इतिहास को इस तरह बांचती हूं
जैसे नींद में बड़बड़ाती हैं अहमन्यताएं, निराशाएं
कुंठित इच्छाओं का ज़ुल्मी फ्रायड
न जाने किस अश्व पर बैठकर अपनी वल्गा खींचता है
सटाक सटाक कोड़े बरसाता है
एड़ लगाता है
मैं अहम् में फूलकर सल्तनत हो जाती हूं -
वे सब लोग जो अभी यहीं मेरे साथ आंच ताप रहे थे
मेरे ढाई घर में
चालों में बदल जाते हैं
वजीर और हुक्काम
रुक्ने सल्तनत
कौन चला आ रहा इस ओर... हर शहर जैसे किसी गश्त में बड़ा हो रहा
ये तो इसी ओर चली आ रही दिल्लियां
कलिंगें, मगधें और कई टापें
हाथी-घोड़ा-पालकी

करघे पर मेरे अस्थि-पंजर गिरते हैं
दु:ख की तारीखें गिरती हैं
अलग-अलग पोशाकों के ढेर लगे हैं
अभी उलझ जाएगा एक आदमी इनकी आस्तीनों में
सिर इन्हीं में उलझा रहेगा
और हम सब संग्राहलयों में बदल जायेंगे मय इसी पोशाक के
ठीक-ठाक अपनी जगहों पर तैनात -
अरे ये तो मिस्र की ममी है!
ये ढाल, ये नेजे, तीर बरछे
ये ताराइनें, ये बक्सर, ये पानीपत...
ये जंजीरें, ये बेगमातों के दु:ख की रुखाम कब्रें...

पूंगी, सिंगियां बजाने वाले और वे सारे मशकवादक कहां गए?
अभी-अभी उस धोरे पर नाचते-गाते चित्र किस कांटें में गड़ गए?
वे कारीगर, ये मिस्त्री
जो अभी-अभी कुछ बोलने को थे! क्या हुआ उनका?
किलेबंदियों से ऑक्सीजन का रिसाव! अब तो टूट ही जाने चाहिए किले
पर कहां हैं? वे सब कहां हैं?
कहां जा चुके? वे किले तोडऩे वाले
हम सब कितनी ऊंचाई पर पहुंच गए हैं कि हवा की वह सारी शक्ति चुक गई है-
न आग जलती है
न सांस को फटकने वाली फूंकनी काम करती है

पर मेरा ये नादां दिल धक-धक करता हुआ
पोशाक से बाहर आना चाहता है
जबकि बाहर की सारी चहचहाटें दुर्गों के बुर्ज में कैद हो गई हैं
पत्थर के सुनियोजित अम्बार ने
मेरे दिल को भी चीह्न दिया है
अब केवल खून बह रहा है
सुन रही हूं इसकी आवाज़
जैसे हज़ारों साल पहले अन्न-अन्न-धन-धान करती हुई बहती थी वह परम नदी सरस्वती
फिर खो गई एक दिन बिना कुछ कहे
उसी की जारी खोज में मैं उस गंगा की तरफ देख रही हूं
मटमैली, धूसरित... कांपती काली होती परछाईं
धीरे-धीरे अपने कछारों से दूर होती हुई
क्या तुम भी एक दिन लुप्त हो जाओगी?

मेरे खून के बहने की आवाज़ है... एक विलंबित आवाज़
मुझ पर इमरजेंसी बैठा दी गई है
और एक कारखाने में मुझे फिर से बनाया जा रहा है
सोची-समझी पैकिंगों में
मेरी आत्मा का कोई हिस्सा नहीं टूटेगा अब!

एक स्क्रू के सिर की तरह खांचेदार मेरा विवेक
खास पेचकस से खास दीवारों में कस दी गई हूं

असहिष्णु होने लगी है मेरी बेचैनी
दीवार की आस्था और यातना से बाहर
मैं अपने
स्थान
स्मृति
रोशनी
स्वप्न
शब्द के साथ होना चाहती हूं

वक्त के कंधों पर आंख खोलकर जाना चाहती हूं -
इस तरह कि नए का स्वागत हो
नयी गंध, बदले तो फिज़ा... अलविदा

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