पत्र/तीन

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    अप्रैल - 2016
श्रेणी पत्र/तीन
संस्करण अप्रैल - 2016
लेखक का नाम देवेन्द्र चौबे





आदरणीय ज्ञानरंजन जी,

आपका पत्र पाकर बहुत अच्छा लगा। पिछला पत्र आपका 2000 ई. में आया था। तब 'पहल' में आपने मेरे द्वारा भेजी गई आई छिड. की कविता 'सुनो अफ्रीका' का प्रकाशन किया था।
मेरी शुरुआत कहानी लेखन से ही हुई थी तथा प्रारंभ में 'धर्मयुग' (1991), हंस, सारिका, इंडिया टुडे, नया ज्ञानोदय आदि में कहानियां प्रकाशित हुई लेकिन जेएनयू ने मुझे आलोचक बनाया। मेरी समझ और विचारधारा का विस्तार किया। यह मेरे जीवन की बड़ी उपलब्धि है। अब तो यहां पढ़ा रहा हूं। लेकिन लगता है, कल की ही बात है। देखते-देखते जेएनयू में 26 वर्ष बीत गए। पिछले दिनों, 9 फरवरी के संदर्भ में जो कुछ भी हुआ, प्रारंभ में हमलोग विचलित हुए, पर अब सब ठीक है, समझ में नहीं आता कोई क्यों आपकी आवाज को दबाना चाहता है? आपको अपने अधीन रखना चाहता है। और कोई व्यक्ति गुलाम कैसे हो सकता है। कैसे कोई व्यवस्था किसी बौद्धिक संस्थान को गुलाम बनाये रख सकती है। यह सोच ही अपने आप में खतरनाक है। पर इन प्रक्रियाओं का फल यह हुआ कि जेएनयू को भी अपने बारे में सोचने का मौका मिला। लेकिन अब भी हमें लगता है कि चाहे कुछ भी क्यों न हो जाए - जिसे लोग जेएनयू कहते है, वह उस तरह का 'चतुर' नहीं हो सकता है। यह एक सरल और प्रतिबद्ध वैचारिक संस्थान है जो अकादमिक बहसों को वृहत सामाजिक समुदायों से जोडऩे की कोशिश करता है। उनके जीवन, उत्पीडऩ को अपने अकादमिक बहसों का हिस्सा मानता है। शायद  ऐसे ही संस्थान मौलिक चिंतन को विस्तार देते है, यहां पर जगह-जगह से छात्र आते है और देखते-देखते जेएनयू बन जाते है। कुछ नहीं भी बन पाते है। शायद वे जेएनयू बनना भी नहीं चाहते है। परंतु जो बन जाते है, उनके लिए, जेएनयू सिर्फ पढ़ाई का केंद्र नहीं रह जाता है, सामाजिक-राजनीतिक गतिशीलता का पर्याय हो जाता है। वे उसके जीने का पर्याय हो जाता है। वे उसको जीने लगते है और जब जेएनयू छोड़कर जाते है वो अपने साथ एक छोटा जेएनयू लेकर बाहर जाते है।
शायद हम ऐसे ही वृहत्तर समाज का हिस्सा बनते है।
सादर
देवेन्द्र चौबे
जेएनयू

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