पत्र/दो

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    अप्रैल - 2016
श्रेणी पत्र/दो
संस्करण अप्रैल - 2016
लेखक का नाम प्रभात त्रिपाठी





प्रिय ज्ञान,


'पहल' के दोनों अंकों की कुछेक रचनाएँ पढऩे के बाद ही मन में तुम्हें पत्र लिखने की विकलता तीव्र हो गयी थी। बहुत दिनों बाद कुछ ऐसी रचनाएँ पढऩे को मिली थीं, जिनके साथ अपने अनुभवों और विचारों की सहज और स्वत:स्फूर्त साझेदारी संभव हो सकी थी। इरादा तो यह था, कि इस 'प्रभाव' को महसूस कराने के लिए एक लम्बा खत लिखूं, लेकिन सांसारिकता और दीगर शारीरिक तकलीफों के चलते तत्काल ऐसा करना संभव नहीं हो पा रहा। सच तो यह है, कि आज के हालात में, केवल निजी जीवन समस्याओं में सिमट कर रह सकना संभव नहीं रह गया है, क्योंकि जिस तरह का वातावरण बन गया है, वहाँ 'निजी' कहीं भी सुरक्षित नहीं रह गया।
मैं जब यह लिख रहा हूँ, तो सबसे पहले मुझे प्रियंवद का संस्मरणात्मक आलेख याद आ रहा है। जब मैं यह पढ़ रहा था, तो अनायास ही मुझे रायगढ़ के अपने मुसलमानों और हिन्दुओं की याद आ रही थी। उनके बीच की लगातार बढ़ रही दूरी को महसूस करते हुए मैं सोच रहा था, कि अपनी भाषा में एक दूसरे के इतना करीब होते हुए भी, ये कितने दूर होते जा रहे हैं। एक दूसरे के एकदम करीब तो, मध्यवर्गीय सवर्ण हिन्दू के चलते, ये कभी नहीं रह पाए, पर पचीस तीस साल पहले हम अपने मुहल्ले में ही देखते थे, कि जब ताजिये आते थे, तो इस सँकरी गली के हर घर से हिन्दू औरतें बाहर आती थीं और ताजिये के नीचे पानी डालती थीं, नारियल चढ़ाती थीं, याने अपनी तरफ से उनके 'देव' की पूजा करती थीं। पर इधर पन्द्रह बीस वर्षों से यह रिवाज एकदम खत्म ही हो गया है। जिस तरह रामलीला या दुर्गा पूजा के जुलूस में, हिन्दू युवक अपने धन और शक्ति के प्रदर्शन में लगे हैं, वैसा ही प्रदर्शन मुसलमानों के जुलूस में भी देखने को मिलता है। जैसा कि प्रियंवद ने बताया है, कि अधिकांशत: इस तरह के कार्यक्रमों का नेतृत्व, उच्च मध्यवर्ग के हाथ में होता है। अपने रोजमर्रा के जीवन, रोज की रोज रोटी कमाने वाले लोग, इनके विवश अनुयायी भर होते हैं, फिर चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान।
प्रसंगवश ही नहीं, बल्कि सूक्ष्म निरीक्षण और संवेदनशीलता के साथ अपने इस संस्मरण में प्रियंवद ने यह भी दर्ज किया है, कि इस स्थिति की इस परिणति की प्रक्रिया में उच्च मध्यवर्गीय लोगों की भूमिका अहम रही है। निम्न वर्ग के हिन्दू और मुसलमान अपने को जिन्दा रखने की लड़ाई में ही इस कदर परेशान और बेचैन रहते हैं, कि उन्हें देश दुनिया में अपने होने का एहसास अपने संघर्ष और अपनी गरीबी, बदहाली के संदर्भ में ही हो पाता है। यह आकस्मिक ही नहीं है कि जिस तरह के अलगाव का व्यवहार उच्चवर्गीय सवर्ण हिन्दू, आज मुसलमानों के साथ कर रहे हैं, वैसा ही व्यवहार वे अन्य पिछड़ी जातियों और आदिवासियों के साथ भी करते रहे हैं। उच्चभ्रू लोगों के बीच, इनको दिए जाने वाले आरक्षण को लेकर जब भी बात होती है, तब इस समूचे वर्ग के प्रति उनकी घृणा की सहज अभिव्यक्ति कहीं भी देखने को मिल सकती है। यह और बात है, कि संघ परिवार ने, अपने अथक परिश्रम और इतिहास के भ्रामक ब्यौरों के माध्यम से, आज की तारीख में इस वर्ग के एक बड़े हिस्से को हिन्दुत्व के पक्ष में ले आने में सफलता प्राप्त कर ली। पर लोक व्यवहार में सवर्ण और दलितों, हरिजनों और आदिवासियों के बीच यह दूरी आज भी बनी हुई है। हिन्दू होने के गर्व में इन्हें भी शामिल करके, इनके मन में भी संघ परिवार ने मुसलमानों के प्रति एक निराधार घृणा का भाव भर दिया। इसी तबके के अधिकांश लोग, इनके 'आन्दोलनों' में इनके प्रमुख सहायक की भूमिका निभा रहे हैं।
प्रियंवद के संस्मरण में जिस पीड़ा के साथ और उसके बावजूद भी, आज की इस तकलीफदेह स्थिति पर विस्तृत टिप्पणी की गयी है, वैसी ही तकलीफ और बौद्धिक सतेजता जितेन्द्र भाटिया के दोनों आलेखों में देखने को मिलती है। पहल 100 में छपे आलेख का विषय तो सीधे सीधे, प्रियंवद के अनुभवों से जुड़ता है, पर जितेन्द्र उसे राज्य की असहिष्णुता और अकर्मठता या उसकी सोची समझी उदासीनता के सन्दर्भ में कुछ इस तरह पेश करते हैं, कि पिछले लगभग दो वर्षों से जारी संघ शासन का असली चेहरा बेनकाब होता है। पर मुझे लगता है, कि जितेन्द्र का यह लेख (पहल 100) मूलत: सांप्रतिक राज्यसत्ता की निरंकुशता, क्रूरता और असहिष्णुता को केन्द्र में रखकर लिखा गया है। बेशक राज्यसत्ता के हिन्दुत्व को समाज के जिस तबके के द्वारा समर्थन प्राप्त है, उसकी प्रासंगिक चर्चा इसमें है, लेकिन व्यापक मध्यवर्गीय समाज के अन्तर्मन में जो पत्थरदिली है, मुसलमानों के 'स्टिरियोटाइप' को सहज भाव से स्वीकार करने और अपने जीवन व्यवहार में उसका यथाशक्ति प्रचार करते रहने की जो त्रासद सचाई है, इस आलेख में उसकी ओर जितेन्द्र का ध्यान उतना नहीं गया है। प्रियंवद, जब दोस्तों के साथ बातचीत के हवाले से 'दूसरे पाकिस्तान' का जिक्र करते हैं, तब वे इसी तथ्य की ओर इशारा कर रहे होते हैं, कि भारत के खाते पीते मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा, 'मुसलमान समानार्थी पाकिस्तान' की भाषा में ही सोचता है। हिन्दू धर्म के विविधरंगी भड़कीले प्रदर्शनों को इसी वर्ग का सक्रिय सहयोग प्राप्त होता रहता है। यह जरूरी है, कि इसके पहले के 'पहल' में प्रकाशित 'पार्थिव और बौद्धिक कचरा' के विषय में जो गंभीर और अत्यंत ही प्रासंगिक आलेख जितेन्द्र भाटिया ने लिखा है, उसमें उसने अतिउत्पादन के सन्दर्भ में, थोड़े संकेतात्मक ढंग से इस बात पर भी उंगली रखी है, कि असीमित उत्पादन और उपभोग में गले तक डूबे उपभोक्ता मध्यवर्ग को दूसरी की क्या, खुद अपने भी भविष्य की कोई चिन्ता नहीं है। उसके लिए सारा मामला, 'नॉट इन माय बैकयार्ड' जैसा है।
वास्तव में पहल के दो अंकों में, इन दो आलेखों के साथ, जब हम अभय कुमार दुबे के व्याख्यान और रणेन्द्र के 'आदिवासियों' के विषय में लिखे गए आलेखों को पढ़ें, तो एक मुकम्मिल वैचारिक कोलाज की तरह हमारे समय का विशिष्ट देसी सन्दर्भ हमें विचलित करता है। पर दिक्कत यह है, कि आज के समय में 'साहित्य' उन शक्तियों में नहीं रह गया है, जो व्यापक समाज में परिवर्तनकामी उथलपुथल पैदा कर सके।
तुम्हें छेडऩे के लिए एक सवाल यह पूछूँ, कि क्या यह इसीलिए कि विशाल धार्मिक जनता से तो दूर, मध्यवर्ग के पढ़े लिखे लोगों की सरल, सहज 'धार्मिकता' से भी, आज का साहित्य संवादोन्मुख होने की कोशिश नहीं करता? प्रियंवद ने गीत गजल और छन्द के साहित्य की उपेक्षा की ओर जो इशारा अपने आलेख में किया है, उससे कहीं ज्यादा बड़ी उपेक्षा, विशाल जनसमुदाय की धार्मिकता की उपेक्षा है, खासकर इसलिए कि यह आज भी बहुसंख्यक लोगों के होने, जीने मरने की भाषा है, फिर चाहे वे किसी धर्म के अनुयायी हों।

- प्रभात त्रिपाठी

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