पत्र/एक

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    अप्रैल - 2016
श्रेणी पत्र
संस्करण अप्रैल - 2016
लेखक का नाम रवि भूषण पाठक





पहल 101 में प्रकाशित विमलेश त्रिपाठी की एक कविता की केदारनाथ सिंह की कविता से अद्भुत समानता एवं अनुकरण के संबंध में

मौलिकता का विवाद अलग है, प्रभाव देने और प्राप्त करने का भी अलग, परंतु काव्यशास्त्रियों ने सदैव ही 'नवनवोन्मेषशालिनी' (भट्टतौत) और 'अपूर्व वस्तु निर्माण' (अभिनव गुप्त) को ही काव्यप्रतिभा कहा है। इस मत पर पूर्व और पश्चिम में कोई भेद नहीं है, न ही आधुनिक और प्राचीन शास्त्रों में। क्लासिक काव्यों के ही नहीं, प्रसिद्ध घटनाओं एवं प्रसिद्ध चरित्रों के अनुकरण की प्रवृत्ति साहित्य में रही है, परंतु एक खास अनुपात में नवीनता मिलने के बाद ही किसी को मौलिक कहा जा सकता है। यही चीज किसी की मौलिकता ही नहीं, किसी की प्रतिभा का भी परिचायक है। पहल 101 में प्रकाशित विमलेश त्रिपाठी की कविता 'रहना' प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह की कविता से 'यह पृथ्वी रहेगी' कुछ ज्यादा ही प्रभावित है। समानता और संगति इतनी दूर तक स्थापित होती है कि उनकी कविता 'रहना' को मौलिक कहने में संकोच होता है। अज्ञेय ने 'तारसप्तक' के दूसरे संस्करण की भूमिका में कहा था - 'सृजनशील प्रतिभा का धर्म है कि वह व्यक्तित्व ओढ़ती है। सृष्टियां जितनी भिन्न होती है, स्रष्टा उससे कुछ कम विशिष्ट नहीं होते, बल्कि उनके व्यक्तित्व की विशिष्टताएं ही उनकी रचना में प्रतिबिम्बित होती है 'परन्तु विमलेश की इस कविता में सृजन, पुन:सृजन की बात करना और खोजना काफी कठिन है। यहां प्लेटो और अरस्तू वाला 'अनुकरण' नहीं, बल्कि हम जैसे पाठकों के द्वारा बहुप्रयुक्त अनुकरण ही दिख रहा है। इस कविता की तुलना 'केदारनाथ सिंह : प्रतिनिधि कविताएं' (राजकमल प्रकाशन पेपरबैक्स, आवृत्ति 2009, पृष्ठ 14 पर) में संकलित 'यह पृथ्वी रहेगी' से करनी चाहिए। न केवल शीर्षक में संगति है, बल्कि केदारनाथ सिंह की पहली और दूसरी पंक्ति है -

मुझे विश्वास है
यह पृथ्वी रहेगी
और विमलेश की पहली पंक्ति है -
रहना है जब तक रहूंगा
केदारनाथ सिंह पृथ्वी को खुद की हड्डी या फिर पेड़ के तने में रहने की बात करते है -
यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में
यह रहेगी जैसे पेड़ के तने में
विमलेश कहते हैं
पसीने में नमक और देह में आदिम गंध की तरह
हवा पानी पेड़ खेद पहाड़ नदी
काई-सैवाल और मछलियों से भरे तालाब की तरह
अपनी कविता में आगे केदारनाथ सिंह जोड़ते हैं-
जैसे दाने में रह लेता है धुन
विमलेश कहते हैं-
जैसे बुरे से बुरे देश में भी
रहती है उस देश की अभागी जनता
इस कविता का अंत केदारनाथ सिंह ऐसे करते हैं
और एक सुबह मैं उठूंगा
मैं उठूंगा पृथ्वी समेत
जल और कच्छप-समेत मैं उठूंगा
मैं उठूंंगा और चल दूंगा उससे मिलने
जिससे वादा है
कि मिलूंगा
और विमलेश अपने कविता के अंत की पृष्ठभूमि ऐसे बनाते हैं-
और एक दिन जब चुपचाप चला जाऊंगा
एक ऐसे समय में
जहां से वापिस लौटने के रास्ते नहीं
बना बना सका है विज्ञान

कविता के एप्रोच में अंतर बस इतना है कि केदारनाथ सिंह पृथ्वी के रहने की बात करते हैं, जबकि विमलेश खुद के रहने की बात। केदारनाथ सिंह की कविता 16 पंक्ति की है, जबकि विमलेश की कविता 35 पंक्ति की।
बढ़ी हुई पंक्तियों में कुछ उपमा, कुछ दृष्टान्त, कुछ रूपक, कुछ उदाहरण बढ़ गए हैं, परन्तु मूल कविता में कोई उल्लेखनीय अंतर उत्पन्न नहीं होता। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जिसने 1983 में लिखी केदारनाथ सिंह की कविता को पढ़ा है, उस पर 2015 में प्रकाशित विमलेश की इस कविता का क्या असर पड़ेगा। इसे अमौलिक या नकल या पैरोडी नहीं कहा जा रहा है, परंतु इस कविताभास या उपकविता (सबपोइट्री) से वह बात नहीं बनेगी, जिसे कविता कहा जाता है, और जिसके लिए लोग 'पहल' खरीदते हैं। निश्चित रूप से यहां जल्दबाजी है। प्रेरणा इतनी प्रबल है कि कवि का व्यक्तित्व छिप गया है।
प्रभाव को 'प्रतिकविता' में शालीनता से और चुपके से समाप्त किया जा सकता था, परन्तु तब पहले की कविता से वैचारिक आधार पर विरोध दिखाना अनिवार्य था। परंतु नई कविता के बाद पैरोडी के रूप में किसी कविता को आगे बढ़ाना संभव नहीं है, आगे बढ़ाने की बात तो दूर की बात है, पहली कविता का इस रूप में स्मरण भी कठिन है। इसमें कोई शक नहीं कि नई कविता आंदोलन ने कविता में व्यक्तित्व, सृजनशीलता और मौलिकता को खास तवज्जों दी है। अलंकारों की माला से कविता के रूप में वृद्धि का चलन भी गया। जमाने गए कि आप फलां कवि की मजमून छीन रहें हों, यदि आपने छीनना चाहा तब भी आप छीन नहीं पाए। आप इतने अभिनव भी नहीं रहे कि कहा जाएगा कि आपने तो उनको पढ़ा भी नहीं, और आपने तो बाकायदा 'संवेदन-1' के प्रवेशांक में अपने आत्मकथ्य में लिखा है कि-
'लेकिन सबसे ज्यादा निकट जो कवि लगा, वह थे केदारनाथ सिंह। उनकी जादुई भाषा और गांव से जुड़ी उनकी कविताएं बिल्कुल अपनी तरह की लगती थीं। पहली बार लिखने का साहस केदारनाथ सिंह को पढ़ते हुए ही हुआ।' और आप इतने वरिष्ठ भी नहीं कि आपकी अनदेखी की जाए कि अरे इनकी तो पुरानी आदत है। बात है सीखने की और संभलने की, और इतनी उम्मीद तो एक नए कवि से की ही जा सकती है, और आपके नाम कई तमगे भी हैं, भारतीय ज्ञानपीठ ने सर्वश्रेष्ठ युवाकवि के रूप में आपको छापा है, आदि आदि, तो ये जिम्मेवारी भी आपकी ही बनती है कि तमगों पर धूल-धुंआ न पड़े।
रवि भूषण पाठक
मीरजापुर

विमलेश त्रिपाठी... (कोलकाता) जी पढ़ा। पत्र अच्छा है। जहां तक कविता से प्रभावित होने की बात है तो मैं साफ साफ कहूं कि यह कविता लिखते समय कहीं भी मेरे जेहन में केदारनाथ सिंह या उनकी कविता नहीं थी। बहरहाल यदि अगर आपकी बात सही है तो यह एक संयोग ही है। आभार

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