चरम मोक्ष

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    अप्रैल - 2016
श्रेणी कहानी
संस्करण अप्रैल - 2016
लेखक का नाम वंदना शुक्ल






27 अक्टूबर 2005
मैं अनब्याही मां की संतान हूं और मेरी बेटी भी। यद्यपि मेरी मां ताजिन्दगी लज्जा को औरत का गहना मानती रहीं पर बचा नहीं पाई जबकि मैंने पाखंडों को नकारते हुए मर्यादा की मिसाल कायम करना चाही, पर....। मैं और मां दोनों ही अपने अपने ''विश्वासों'' के हाथों पराजित हुए। राई बराबर फर्क के साथ हम दोनों मांओं में एक फासला रहा। मां परम्परा की ओट में मां बना दी गई और मैं परम्पराओं को तोडऩे की जिद में मां बनी। मेरे मन के भीतर जिद्द की कई गठानें हैं उन्हें एक एक कर खोलना ही अब मेरी ज़िंदगी का मकसद है। अपनी मां के लिए मैं दुनिया का सबसे खूबसूरत बोझ थी लेकिन मेरी बेटी मेरे लिए एक सतत चुनौती है।
मां को अग्नि के हवाले कर, मृत्यु के उस हवन कुंड में उनकी तमाम कुंठाओं, पीड़ाओं की आहुति दे और उस अभिशप्त धरती, जहां कहते हैं कि मैं पैदा हूई थी से अलविदा कहकर वापस अपने कुरुक्षेत्र बेंगलोर लोट रही हूं। उसी पीठ से मुंह फेरकर जो बुरे दिनों में मेरी एक मज़बूत टेक थी। मां निर्दोष होते हुए भी जीवन पर्यंत स्वयं को दोषी मानती रहीं, क्या इसलिए कि उन्होंने अपने भविष्य बल्कि समूचे जीवन को एक सुरक्षापूर्ण बंधन से मुक्त कर स्वयं को एक खुले युद्धक्षेत्र में झोंकने का दुस्साहस किया था लेकिन सामंतवाद की जड़ें उखाड़ फेंकने में असफल रहीं? मां जिन्हें मेरे संघर्ष समझती थी उस चुनौती और प्रतिशोध को देखने के लिए काश वो कुछ दिन और जिंदा रहतीं
अंतिम नमन मां...
किराए के मकान के उस फस्र्ट फ्लोर के कमरे में, जहां मैं नौकरी के शुरुवाती दिनों में रही थी और अभी दो दिनों से रह रही थी, ताकिये के नीचे मुझे ये पुर्जा मिला था
सुनो... मैंने झाडू बुहारू करने वाली बाई को टेरा जो छत की सफाई कर रही थी
हां जी...
मेरे बाद यहाँ कौन किरायेदार आया था?
कोई नहीं
मेरा मतलब इस कमरे में?
वो कुछ देर सोचती रही... फिर कुछ हिकारत से बोली... किरायेदार तो कोई नहीं आया मैडम जी। हां, वो बांदी की छोरी है न सुनीता... अपनी मां के खतम होने पर वो ही आई थी यहां... वो रही थी इसमें.... बस कुछ घंटे के लिए... फिर चली गयी हवाई जहाज से... अंतिम पंक्ति उसने कुछ आश्चर्य से कही।
रिसाल की बेटी?...
जी मैडम जी वही रिसाल... जो अम्मा जी के कने रहती थी। बांदी... जैसी महतारी वैसी बेटी... ऐसी औरतें तो...
जस्ट शटअप... जाओ यहां से... मैं अचानक जैसे फट पड़ी। वो घबरा गयी और वहां से भाग गयी
वो कागज का टुकड़ा उलटते पुलटते हुए न जाने कितने दृश्य कितनी कहानियां आँखों से होकर गुज़रने लगे। मैंने वो चिट्ठी अपने सिरहाने तकिये के नीचे रखी और आंखें मींचकर लेट गयी।

1
''रिसाल कंवर खत्म हो गयी'' ...खबर क्या थी एक ज़लज़ला था।
रिसाल अकेली खत्म नहीं हुई। न जाने कितनी त्रासदियां, कितनी परम्पराएं, कितनी जर्जर हवेलियों के भीतर के सच, कितने रस्मो रिवाज और तहजीब उसके साथ दफन हो गई। एक पूरा युग बनाव राजपूताना इतिहास हवा के झोंके की नाई आंखों के सामने से सहसा गुज़र गया...। सदाबहार मुस्कराहट, अदब कायदे, तीखे नाकनक्श, बोलती आंखें, तराशी हुये देह। इस रूखे सूखे प्रदेश में रिसाल की उस मनमोहक मुस्कान के साथ स्वागत की नर्म बौछारों का सुखद अहसास यहीं हुआ था। मकान नंबर 134ब शिव कॉलोनी, नूतन बाजार की गली नंबर तीन की इस कोठी में। ये तब का वाकया है जब मैं अपनी तमाम स्मृतियों, आगाहों व हिदायतों को अपने साथ बटोरे मध्यप्रदेश से आठ सौ किलोमीटर की यात्रा कर राजस्थान के इस सूखे कट्ट इलाके में शिक्षिका की नौकरी के लिए बज़िद आई थी न जाने कितना खोकर... न जाने क्या पाने। राजस्थान और राजस्थानियों से ये पहला ही तार्रुफ था नहीं तो अभी तक तो बस फिल्मों में ही यहां के रेतीले टीले, राजे रजवाड़े, महल, हवेलियां, ठकुराई और बोली बानी सुनी थी।
भारत के नक्शे में राजस्थान का ये हिस्सा डेज़र्ट एरिया में आता था। ट्रेन में आंखें मींचे यहां के जो काल्पनिक दृश्य बना कर आई थी वो तो दूर तक रेत का समुद्र, ऊंट गाड़ी, सूखे लम्बे बबूल के दरख्त और तपती धूप से दूर दराज़ से पानी ले जाती हुई सर पर मटकी रखी औरतें थीं। देश के उस मशहूर एजुकेशनल इंस्टीट्युट की उस विशाल कैम्पस बाउंड्री के बाहर का कस्बा बिलकुल वैसा ही था जैसा राजस्थान के किसी आम कस्बे को होना चाहिए। झुलसे हुए पेड़े पौधे, कंधे पर पड़े अंगोछे से पसीना पोंछते रिक्शा खींचते आदमी, सड़कों पर डोलते बैचेन गाय, बैल और कुत्ते, सूखे से अघाए खेत, लेकिन जब रिक्शा बस स्टेंड से निकलकर कैम्पस में प्रविष्ट हुआ तो उसकी हरियाली और सुन्दरता देखकर मन प्रफ्फुल्लित हो गया। राहत मिली कि हमारी दुनिया तो यहां बसेगी वहां नहीं, लेकिन ये खुशी ज्यादा देर नहीं टिक पाई जब पता चला कि परिसर के अन्दर अभी एक भी स्टाफ क्वार्टर खाली नहीं है। अभी आपको स्कूल कैम्पस के बाहर कस्बे में ही किसी किराए के घर में ही रहना होगा। यद्यपि हाउस रेंट स्कूल दे रहा था और ये भी कहा गया था कि जैसे ही कोई क्वार्टर खाली होगा सबसे पहले आप को ही देंगे। बहुत बुझे मन से मैं अपना सीमित सामान लेकर स्कूल द्वारा मेरे साथ भेजे गए उस बूढ़े मारवाड़ी चपरासी के साथ ऑटो रिक्शा में बैठ गयी जिसने रास्ते में मुझे उस घर, जिसमें मैं किराए पर रहने जा रही थी, के संक्षिप्त इतिहास और उसकी वर्तमान स्थिति के बारे में यथासंभव पर्याप्त से ज्यादा ही बता दिया। उन कस्बाई खूसट सड़कों पर उछलते, कूदते ये चलते ऑटो की खड़ खड़ में मैं जितना सुन पाई उसका सार संक्षेप ये था कि ये घर यहां के पुराने 'सेठ' स्वर्गीय दीनानाथ जी शर्मा का है जो एक बड़े ठेकेदार थे। अब उस कोठी में उनकी पत्नी एक सेविका के साथ अकेली रहती हैं। कहां कॉलेज कैम्पस की वो सा$फ चमकती लम्बी चौड़ी कोलतार पुती सड़कें, स्कूल व कॉलेज की भव्य इमारतें, व्यवस्थित स्टाफ क्वार्टर और बड़े-बड़े पार्क और कहां स्कूल गेट के बाहर का ये ठेठ राजस्थानी कस्बा। सामने से हिचकोले खाती ऊँट गाड़ी जिस पर ऊँघता हुआ एक आदमी सवार था और निश्चिन्त खरामा-खरामा चलता वो ऊंट जिसके चेहरे पर सुस्ती, बेफिक्री और जीवन की निस्सारता टंगी थी मस्त जुगाली करता हुआ चला आ रहा था। उधर एक छकड़ा जिसमें गधा जुता हुआ था सवार लड़के के चाबुक से पिटता बहराया भागा जा रहा था। लाल मटीली कच्ची सड़क के आसपास मिट्टी की चिनाई पर चूने की पुतानी हुई ऊबड़-खाबड़ सी दीवारों वाली छोटी-छोटी कपड़े, नाई, बढ़ई, सब्जी आदि की दुकानें। दूकान पर बैठे अलसाए से, टाईम पास करते दुकानदार। कुछ दुकानदार ज़मीन पर दरी बिछाकर आसपास की गतिविधियों से बेखबर बिंदास ताश खेलते हुए। उस किराए के घर के भी मेरे मन में अजीबोगरीब बल्कि डरावने से बिम्ब बन बिगड़ रहे थे लेकिन जब मकान मालकिन शर्मा आंटी को और घर देखा तो नितांत संतोष हुआ कि वैसा बिलकुल भी नहीं है ये जैसा सोचा था।
वो एक अपेक्षाकृत साफ सुथरी कॉलोनी में एक बड़ा मकान था जिसे यहां कोठी कहते थे। मकान के बाहर नेमप्लेट थी जिस पर अंग्रेजी में ''शर्माज'' लिखा था।
जब मैं अपना सूटकेस लेकर ऑटो रिक्शा से उस ''कोठी'' पर पहुंची तो आंटी जी बाहर दालान में ही बैठी ''राजस्थान पत्रिका'' पढ़ रही थीं।
''या मैडम जी अपके घयां रहण खातर आयां से जी। स्कूल से थारे कन्ने कोय मेसेज आयो होगो'' साथ आये मारवाड़ी पियून ने मेरा परिचय दिया। उन्होंने घूरकर मुझे देखा फिर अपनी भारी आवाज में बोलीं ''हां हां आया था फोन हमारे पास... वो देख लो ऊपर का कोने वाला कमरा ...वही है किरायेदारों का। लेट बाथ उसी में अटेच्ड है।'' उन्होंने कुछ रूखेपन से कहा और फिर सहज भाव से पेपर पढऩे लगीं। वो वृद्ध स्त्री जो इस दुमंजिली कोठी की मालकिन थी यानी आंटी जी पहली मुलाकात में मुझे कुछ रूखी, तटस्थ और मतलब से मतलब रखने वाली स्त्री लगीं थीं।
'जी थेंक्यु' मैंने कहा और सीढिय़ां चढ़कर कमरे की चटखनी खोलकर अन्दर चली गयी। पियून ने मेरा सामान कमरे में रखा और कहा ''मैडम जी, माता जी घणी भली औरत हैं। संकोच मत करना। जो ज़रूरत हो उनसे कह देना'' कहकर चला गया। शर्मा आंटी के पति का देहांत हो चुका था। एक बेटी अंजू थी जो विवाहित थी व बेंगलोर की एक कम्पनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर थीं। आंटी एक तरक्कीपसंद, सहृदय और समझदार महिला थी। उनका परिवार यहां का पुराना रसूखदार और रईस परिवार था जो झरते झरते अब बस आंटीजी पर टिका था।
मेरा कमरा छत पर एकांत में, खुला, हवादार और शांत था। बड़ी बड़ी दो तरफा खिड़कियां जिसमें मोटे परदे झूल रहे थे। मैंने पर्दा खिसका दिया और सूटकेस एक ओर टेबल पर रख दिया और बैड पर बैठकर चारों और देखने लगी। तभी एक औरत ने कमरे में प्रवेश किया। पीला लाल छींटदार लहंगा लाल छापे की लूंगड़ी, पीली ओढऩी हाथ भर भर पहने चूड़ले, बोडले को ढंकता माथे तक पल्लू और बेहद खूबसूरत उस औरत ने जब हाथ जोड़कर मुस्कुराकर ''राम राम से मड्डम जी'' कहा तो मैं एक पल के लिए ठिठकी उसे देखती रह गयी। किसी अनजान शहर में जहां कोई हमको नहीं पहचानता वहां कोई इतने अपनापे से स्वागत करे तो एक सुखद सी अनुभूति होती है। लम्बे सफर की थकान और अपरिचित जगह की शंकाएं दोनों ने मिलकर मन को बड़ा बेचैन कर रखा था। गर्मी और थकान से बुरा हाल था।
नमस्ते... मैंने उसका ज़वाब दिया...। कहना चाहती थी कि राम राम से बेहतर था कि एक ग्लास ठंडा पानी पिला देती। औरत कमरे से बाहर जा चुकी थी। मैं खड़की के पास खड़ी होकर बाहर झांकने लगी। गर्मी की उस मरुस्थलीय दोपहर में इक्का दुक्का लोग उस गली में आते जाते दिखाई दे रहे थे। कुछ देर पहले बारिश के कुछ छींटे पड़े थे और अब धूप खिल आई थी। उसम और बढ़ गयी थी। नई जगह और नए लोगों को देखकर थोड़ा असहज सा महसूस करना स्वाभाविक था। जैसा शुष्क प्रदेश है वैसे ही लोग... मैं सोच रही थी।
गला अलग प्यास से तड़क रहा था लेकिन वहां कोई ऐसा दिखाई नहीं दे रहा था जिससे पानी मांगूं। वो औरत भी न जाने कहां गायब हो गयी थी। कोठी क्या है कोई पुरानी हवेली सी है। भूल भूलैया...। इतने सारे कमरे जैसे ज़मीन के नीचे खोहें हों। ''क्यूं बनाते थे पहले के लोग इतने बड़े बड़े घर? क्या उन्हें लगता था कि वो सब अमृत पीकर आये हैं? हज़ारों साल इन मज़बूत और नक्काशीदार कमरों में राज करेंगे?... इतने विशाल सन्नाटेदार घर में दो खंडहर सी औरतें। एक तन से एक मन से। इनके बीच में ये कहां आ गयी मैं...। सब ने कितना समझाया था कि यहीं भोपाल में और अच्छी नौकरी मिल जायेगी लेकिन मेरी जिद्द को टालना भला किसी के वश का रहा है? और जिद्द जब फितूर में तब्दील हो गयी हो? अब पछताए होत क्या... भोपाल की पिछली नौकरी भी अब भूतकाल हो चुकी थी।
मद्दम जी लो पाणी पियो... वही 'वेश' वाली औरत मेरे पास मुस्कुराती हुई ट्रे में पानी का गिलास लिए खड़ी थी।
'ओह थेंक्यु... धन्यवाद...' दरअसल मुझे समझ में ही नहीं आ रहा था कि इस औरत का किन लफ्जों में शुक्रिया अदा करूं? इसके ठेठ राजस्थानी वेशभूषा से लगता तो नहीं था कि ये कोई और भाषा समझती होगी।
एक बात कहूं मैडम जी?
हां हां कहो... लेकिन मुझे मैडम नहीं कुछ और कहो।
वो कुछ और जोर से हंसी। गोया ताजगी के कई सुगन्धित फूल एकसाथ कमरे भर में बिखर गए हो। ''क्या कहूं आप ही बताइए''...
कुछ भी... मैंने कहा
अच्छा ठीक है... दीदी जी कहती हूं
हां ठीक है... दीदी से भी काम चल जाएगा... मैंने मुस्कुराते हुए कहा
दीदी खाणा तो नहीं खाया होगा आपने। बताइये क्या खायेंगी? कुछ हलका फुल्का बना दूं या फिर दाल रोटी सब्जी सब?
अरे नहीं मुझे बिलकुल भूख नहीं है... बना सको तो थोड़ी चाय बना दो
ठीक है जी... लेकिन थोड़ा तो कुछ खा लीजिये। खाली पेट चाय मत पीजिये... बाय करती है जी...
नहीं नहीं... बस चाय.. मैंने कहा
खाना बनाने में तो अभी देर है। मेरे पास रोटी और लहसुन का अचार पड़ा है... घर का बना.. आपको कोई एतराज न हो तो ले आती हूं
''अरे नहीं नहीं... बस चाय बना सको तो बना दो'' मेरे स्वर में कुछ खीज थी। ...क्या चेंट औरत है भाई? यहां तो थकान से बुरा हाल हो रहा है और ये खाने की जिद कर रही है। हालांकि मैं कल की भूखी थी लेकिन थकान और नींद ने भूख को पीछे खदेड़ दिया था।
मैं कहती ही रही और वो जाकर एक स्टील की तश्तरी में लहसन का अचार और मोटी मोटी दो रोटी ले आई। ''खायेंगी तो भूख खुल जायेगी'' हंसते हुए उसने बहुत ही प्रेम से मेरे सामने रख दिया।
अरे दो रोटी? नहीं नहीं ...इतना नहीं बस एक दो कौर
ठीक है जी एक रोटी खा लीजिए। परदेश में आकर ऐसे भूखे नहीं रहते...
उसके इस आत्मीय अनुरोध में न जाने कैसा सम्मोहन था मैं मना नहीं कर पाई और मैंने एक दो गस्से उसके कहने पर खा लिए।
और खाओ न जी... वो खुश दिखाई दे रही थी...
मैंने हाथ से 'बस' का इशारा किया... ''बहुत टेस्टी बनाया है'' मैंने कहा। मेरे इस कहने से कहीं कोई बनावटीपन नहीं था... वाकई लाज़वाब था।
क्या नाम है तुम्हारा? मैंने पानी पीकर गिलास ट्रे में रखते हुए कहा।
रिसाल है जी... उसने मुस्कुराते हुए कहा।
यहां काम करती हो?
हां जी... माताजी भोत अच्छी हैं... उन्होंने मुझे अपने घर में एक कमरा रसोई दे रखी है। यहीं रहती हूं। नौकरानी नहीं हूं बस समझ लीजिये सेवा करती हूं माताजी की... बिचारी वो भी अकेली हैं जी... हम दोनों एक दूसरे का सहारा हैं।
ठेठ राजपूताना पोशाक और कितनी साफ हिन्दी... कितनी मीठी बोली... मैं उसकी तहजीब पर िफदा थी।
''कोई काम हो तो बुला लेना दीदी जी... बस यही रहती हूं वो कमरा देख रही हैं न नीचे... रसोई के बाजू, उसमें
...आप बहुत अच्छी हैं... मैंने कहा वो हंसने लगी।
''दीदी जी जानती हूं न नए शहर में आये लोगों की दिक्कतें?'' उसने तश्तरी उठाते हुए कहा
एक बार जब वो ऊपर चाय देने आई मैंने उससे पूछा ''तुम्हारे बच्चे हैं''?
हां जी एक बेटी है... माताजी की बेटी अंजू जी के साथ बंगलोर में रहती है। वो ही उसे पढ़ा रही हैं।
तुम्हारे पति भी यहीं काम करते हैं?
दीदीजी... आपका स्कूल का टाईम क्या होगा। मैं आपको नाश्ता बनाकर दे दूंगी। लंच आप आकर खा ही लेंगी... उसने बात पलट दी
ये तो सही सही कल पता पड़ेगा जब ज्वाइन करूंगी। लेकिन नाश्ते के लिए परेशान मत होना। मुझे वैसे भी नाश्ता करने की आदत नहीं है। और लंच मैं वहीं स्कूल मैस में ले लूंगी
अरे दीदी... रहेंगी यहां हमारे घर में और लंच वहां खायेंगी... ऐसा नहीं चलेगा उसने हंसते हुआ कहा। माताजी के लिए तो बनाना ही पड़ता है न... आप जिस टाईम पर कहेंगी आपको भी बना दूंगी।
मुझे दो हफ्ते हो चुके थे यहां रहते हुए। मैं कमरे से बाहर कम ही निकलती। स्कूल से आकर सीधे कमरे में। अब धीरे धीरे यहां के माहौल में रच बस रही थी। स्कूल जाने का समय निश्चित था लेकिन आने का अनिश्चित। वजह मीटिंग, एक्स्ट्रा क्लास वगैरह होना। लेकिन रविवार को हम लोग साथ बैठकर खाना खाते। मैं और आंटी जी उन्हीं की डायनिंग टेबल पर। रिसाल गर्मागर्म फुल्के सेंककर देती जाती। खूब अपनापे से खिलाती। कमाल का स्वाद था उसके हाथ में। आंटी जी अब मुझसे थोड़ा घुल मिल रही थीं। अपनी व्यक्तिगत बातें भी शेयर करतीं। छुट्टी वाले दिनों में हम दोनों बाहर आंगन में बैठते और दुनिया जहां की बातें करे। साथ बैठकर टीवी देखते और धारावाहिकों पर चर्चा करते। कभी कभी हम दोनों सामने वाले मार्केट में सब्जी वगैरह लेने भी चले जाते।
कस्बा छोटा था। आधुनिक मॉल संस्कृति वाले बड़े शहरों जैसी यहां फितरत नहीं थी। टुच्ची टुच्ची बेइमानी, चोर उचक्के, धोखाधड़ी के बावजूद यहां के लोग सहृदय, सहयोगी व आपस में सरोकार रखने वाले थे।
रिसाल जब कमरे में चाय वगैरह देने आती तब कुछ अनौपचारिक वार्तालाप भी हो जाता। एक सोंधी सी गंध वाला पौराणिक सौन्दर्य और आत्मीय स्वभाव के बेजोड़ मेल का अनूठा व्यक्तित्व था उसका अ रेयर ब्यूटी। मैं उसे ''बनी ठनी'' (राजस्थानी कलाकृति) कहती थी और वो खिलखिलाकर हंस देती
''आप भी जी...''
''तुम हो ही इतनी खूबसूरत... कहे बिना रहा ही नहीं जाता। शहरी औरतें तो इस रूप सौन्दर्य के लिए जाने क्या क्या करतीं... मेरी इस तारीफ पर उसे खुश होना चाहिए था... लजाना चाहिए था लेकिन वो अचानक बुझ सी जाती... क्या उमर है तुम्हारी?
जी ठेठ तो पता नहीं... यही पैंतालीस पचास के आसपास...
माशाल्लाह... इस उमर में इतना रूप तो फिर...
अच्छा मैडम... जाणा है... कहकर वो चली जाती...
यहां कुछ दिन रहने के बाद मुझे ये अहसास हो गया कि रिसाल में कुछ विरोधाभासी गुण हैं। जैसे वो जन्मजात गरीब और अपढ़ है लेकिन उसकी बोलचाल निहायत पढ़े लिखे लोगों जैसी और रहन सहन सुसंस्कारित है। बेटी का ज़िक्र वो कभी नहीं करती न ही उसकी बेटी यहां आती। पति का नाम लेते ही वो उदास हो जाती और बात पलट देती। मुझे उसके अतीत को जानने का एक अजीब सा जूनून पैदा हो गया। रिसाल के कुछ चारित्रिक रहस्य मुझे उसके बारे में जानने को उकसा रहे थे। सायकोलोजी की टीचर जो ठहरी... लेकिन ये ''केस हिस्ट्री'' इस कदर अजीबोगरीब होगी, वाकई मुझे इल्म न था।
धीरे धीरे रिसाल की उस तहजीब और उसकी अजीबोगरीब ज़िंदगी से पर्दाफाश होने लगा निस्संदेह उसका मुख्य निमित्त आंटीजी थीं। और फिर सामने खड़ी थी हिन्दुस्तान की एक बेबस, बहादुर और ज़िंदगी से बाकायदा मुठभेड़ करती वो निपट राजपूताना स्त्री... जिसके नसीब पर बड़े बड़े हर्फों में खुदा था ''बांदी''।
कहानी कुछ यूँ थी...
रिसाल चौदह बरस की उम्र में पास के ही एक छोटे और पौराणिक शहर में एक राजशाही राजपूत खानदान जिनका ताल्लुक छोटी मोटी रियासत से था के परिवार में ठाकुर साहब के बेटे की पत्नी के साथ बांदी बनकर दहेज़ आई थी। तात्कालीन रिवाज के मुताबिक बांदी सदा के लिए उस घर की सेविका बनाकर भेजी जाती थीं। इस तबके की औरतें ब्याही नहीं जातीं थीं। वो फकत एक खानदान की ''बांदी'' बनकर जीवन गुजारती थीं। उनकी देह भर उनकी अपनी होती थी, लेकिन उनके तन और मन पर उसके मालिकों का हक होता था। ये बुराई नहीं रवायत थी। राजपूताना शान मानी जाती थी। इन औरतों की इस तन मन की कुर्बानी के एवज में उन्हें ताजिन्दगी हवेली के भीतर रहने, भोजन, पहनने ओढऩे और सुरक्षा की सुविधा मुहैया थीं। ये लड़कियां उन गरीब घरों से ताल्लुक रखती थीं जो पैदा होते ही ''अफीम चटा कर मार दिए जाने'' के चलन से भाग्य (?) से बच जाती थीं। तब उन्हें जीवन सुरक्षा और संघर्ष हीन गुजारने की गर्ज़ से बचपन से बांदी बनने की ट्रेनिंग दी जाती थी। घरवालों को उसकी अच्छी खासी रकम भी दी जाती थी। लड़कियों को किसी रईस औरत के साथ दहेज में भेजने के साथ ही उसकी याद पर मिट्टी डाल दी जाती।
रिसाल को भी तहजीब, सहनशीलता और सेविका का पूरा प्रशिक्षण उसी के घर की औरतों द्वारा देकर भेजा गया था ताकि शिकायत का कोई मौका न आये। जितनी खूबसूरत और हुनरमंद बांदी उतना रसूखदार ठकुराइन का खानदान माना जाता और उतनी ही ससुराल में उनकी इज्जत यानी वाह वाही। ठाकुर विश्राम सिंह की नई हवेली पत्नी ठकुराइन सुदर्शना कंवर रुआब दार, भरे बदन, गेहुएं रंग और सामान्य नाक नक्शे की स्त्री थीं लेकिन उसके साथ दहेज़ में आई बांदी कमसिन रिसाल ने अपनी खूबसूरती व हुनरमंदी से उनकी हर कमज़दी को ढँक लिया था। फिलहाल रिसाल कंवर का काम ''बींदणी'' की सेवा करना था। उन्हें वो ''रानी सा'' कहती थी। उनको उबटन लगाना, स्नान कराना, उनकी केशसज्जा, साज श्रंगार और उनकी हर ज़रुरत को पूरा करना ही बांदी का काम था। यहां रिसाल को राजपूती सुहागिन स्त्री की पोशाक यानी ''वेस'' पहनना पड़ता और माथे तक पल्लू रहता जो ताजिन्दगी उसके ज़ख्मों को छिपाता रहा।
वो जब शुरू में हवेली में आई तो उसे कुछ दिन अच्छा लगा। रिसाल छोटी ठकुराइन यानी अपनी मालकिन का खूब ख्याल रखती। ठकुराइन भी उससे सखी की तरह पेश आतीं। उन्हें तनिक भी मायके की याद आती तो वो उदास हो जातीं। तब रिसाल उन्हें चुटकुले सुनाती, गाने गाकर उनका मन बहलाती। रिसाल गाती बहुत अच्छा थी। उसे गाने का शौक भी था। शौक तो िफल्मी गानों पर नाचने का भी था लेकिन नाचना वहां अच्छा नहीं माना जाता था। ठकुराइन सा कभी मूड में आतीं तो उससे अलबत्ता नाचने की फरमाइश कर बैठतीं और वो द्वार बंद कर ग्रामोफोन की आवाज़ पर खूब नाचती। रानी सा के आराम के वक्त रिसाल कांसे की कटोरी से रानी सा के तलवे सहलाती। बाज बख्त चांदी के पानदान के नक्काश्दार ढकने से उनकी नंगी पीठ भी हौले हौले खुजलाती। ठकुराइन अतीव आनंद में आंखें बंद कर लेती। ठकुराइन के इस अनजान और आभिजात्य ससुराल में रिसाल एकमात्र उनका भावनात्मक सहारा थी जो मायके की याद को धूमिल भी कर देती।
छोटी ठकुराइन पूरे दिन खूब सजी धजी और स्वर्ण आभूषणों से लदी रहतीं लेकिन रंग बिरंगे लहरिया छापे के गंवई सूती 'वेस' और माथे तक परदे में भी लम्बी नाज़ुक टहनी सी रिसाल उनसे कई गुना आकर्षक लगती। ठकुराइन को इस बात का फख्र भी था और खौफ भी। फख्र इसका कि रिसाल उनके मायके से आई बांदी थी और भय पुरुषों का क्यूं कि वो ये भी जानती थीं कि खानदान के पुरुषों को कोई बंदिश नहीं है। वो जिसके साथ चाहे रह सकते हैं अपना मन बहला सकते हैं। कई बार उन्होंने बातों बातों में रिसाल से अपनी घुटन और उसे यथासंभव सतर्क रहने को कहना भी चाहा लेकिन रिसाल उस वक्त इतनी छोटी और भोली थी वो ये बातें समझ नहीं पायेगी, उन्होंने सोचा और चुप रहीं। फिलहाल उन्होंने रिसाल को हवेली के मर्दों के सामने ठोडी तक पर्दा करने की हिदायत दे रखी थी। रिसाल ने इस हिदायत को बाखुशी कुबूला।
छोटे ठाकुर सा यानी ठुकराइन सुदर्शना देवी के पति विश्राम सिंह खूब ऊँचे पूरे और दिखनौट नवयुवक थे। शिकार के शौ$कीन और अपनी मौज़ में रहने वाले। कई एकड़ में $फैली उस पुश्तैनी हवेली के इकलौते वारिस। हवेली के एक हिस्से में शानदार रिजोर्ट था। स्वीमिंग पूल, बार, जिम और मनोरंजन के लिए एक बड़ा हॉल भी था। इनमें विदेशी सैलानियों के अतिरिक्त कुंवर विश्राम सिंह के अपने खास मेहमानों के मनोरंजन के लिए व्यवस्था थी।
अभी छोटी ठकुराइन सुदर्शना कंवर को ब्याहकर आये एक महीना ही हुआ था। हवेली में कोई जश्न था। ठकुराइन सुदर्शना गहनों से लदी फदी औरतों से घिरी बैठी थीं। खूब रंगीन माहौल था। उस दिन बड़े ठाकुर सा यानी ठाकुर विश्राम सिंह के पिता का फरमान था कि मेहमानों को खाना और शराब बांदियां और नौकरानियां ही परोसेंगी। सुदर्शना का मन रिसाल में ही रखा था जो सामने के कक्ष में पुरुष मेहमानों का मुस्कुराकर मदिरा पेश कर रही थी। हालांकि रिसाल ने पर्दा कर रखा था लेकिन घूंघट से झांकती उसकी वो दिलकश और भोली मुस्कुराहट देखने वालों के दिलों में एक दूफान सा पैदा कर रही थी। ठुकराइन को याद आया और अपनी गलती का अहसास भी हुआ कि उन्होंने रिसाल को मुस्कुराने के लिए मना नहीं किया। रिसाल के सुन्दर चेहरे पर मुस्कुराहट देह के हज़ार कौंधते आभूषणों को मात देती थी। बीच में बड़े झीने परदे में से रानी सुदर्शना देख रही थी और कुढ़ रही थीं। ठाकुर विश्राम सिंह ने भी पहली बार रिसाल को इतने निकट व उसके पारदर्शी घुंघट में से गौर से देखा था और देखते ही उस पर रीझ गए।
इधर आओ... उन्होंने शराब का ग्लास हाथ में लिए उसे बुलाया
हुकम सा... रिसाल ने आँखें नीची करके कहा
हमने सुना है तुम गाती बहुत अच्छा हो... तुम्हारे गुणों में बताया गया था हमें... जरा कुछ सुनाओ मेहमानों को
उस हवेली में ''ना' कहने का रिवाज नहीं था ये रिसाल एक माह में जान चुकी थी। वे उसके जीवन का पहला मौका था जब इतने मर्दों के बीच उससे गाने की फरमाइश की गयी थी। रिसाल ने कनखियों से ठकुराइन की ओर देखा जैसे अनुमति मांग रही हो। घूंघट ज़रा सा और ओढ़ लिया और सकुचाई सी जाकर तख्त पर बैठ गयी। ''म्हारो छैल छबीलो नाख्राडो'' उसने गाया तो मेहमान वाह वाह कर उठे। जश्न खत्म हो चूका था और ठाकर सा का चैन भी। उधर शराब की खुमारी अलग। तभी रानी सा का बुलावा आ गया और रिसाल उनके साथ रानी सा के कक्ष में आ गयी।
... लाइए आपके गहने उतार दूं... कहकर रिसाल ने उनका हाथ पकड़ लिया और चूडा उतरने लगी
रहने दो ... कर लूंगी मैं...
रिसाल के चेहरे से मुस्कराहट गायब हो गयी। समझ गयी कि रानी सा उससे नाराज़ हैं लेकिन उससे क्या खता हुई... ये न समझ पाई। वो चुपचाप उनके कपड़े तहाने लगी।
''किवाड़ बंद करो'' ठकुराइन ने रिसाल को हुक्म दिया।
उसने किवाड़ बंद कर दिए।
यहां आओ... रिसाल ठकुराइन सा के निकट गयी। ठकुराइन सा कुछ पल उसकी और एकटक देखती रहीं।
''और पास आओ'' उन्होंने रिसाल से कहा। वो डरी हिरनी सी और निकट आ गई। ठकुराइन सा ने एक भरपूर तमाचा रिसाल के गाल पर जड़ दिया। दुबली पतली छरहरी काया दूर छिटककर गिरी। वो रोने लगी।
सुण... बांदियों को यहां रोने की इज़ाज़त नहीं समझी?... तेरी बर्बादी को अब मैं टाल न पाउंगी... चल जा अब यहां से उन्होंने गुस्से में कहा
आधी रात बीच चुकी थी। मेहमान जा चुके थे। ठकुराइन पति का इंतजार करती रही मगर ठाकुर सा तो किसी और ही दुनिया में थे। रिसाल को ठाकुर साहब ने कमरे में बुलवाया था।
खम्भा घणी हुकम... रिसाल ने कमरे में जाकर नज़रें झुका अदब से कहा
घणी खम्भा... द्वार बंद करो। उन्होंने कहा। रिसाल ने वैसा ही किया
अब मेरे पास आओ और ये पर्दा हटाओ सर से
कुछ देर रिसाल मौन खड़ी रही। उसे ठकुराइन की हिदायत याद आई ''किसी मर्द को तुम्हारा चेहरा नहीं दिखना चाहिए।''
मैंने कहा पर्दा हटाओ... ठाकुर सा ने कुछ कड़क आवाज में कहा। रिसाल डर के मारे सिहर गयी। उसने घूंघट हटा दिया। ठाकुर विश्राम सिंह देखते रह गए उसे अपलक।
... इधर आओ हमारे पास बैठो
डर से कांपती-सिहरती रिसाल ठाकुर सा की बगल में बैठ गयी। लम्बे चौड़े ठाकुर सा की मज़बूत छाती में अब एक निरीह गौरैया सी रिसाल दुबकी हुई थी। ठाकुर साहब के दिल की धड़कन उसे किसी तोप की गरज जैसी लग रही थी ...तालबद्ध...तालबद्ध गर्जना...। ठाकुर विश्राम सिंह ने रिसाल की ठुड्डी उठाकर उसे निराहा।
...माशाल्लाह... उनके मुंह से बेसाख्ता निकल गया
उसने अपनी आंखें बंद कर लीं।
''मुंदे पलक देखें बस उर में''
ठाकुर साहब ने उसे अपने सीने से लगा लिया और उसके घने लम्बे बालों में उंगलियां फिराने लगे। रिसाल को मदहोशी आने लगी। और उस दिन रिसाल पूरी तरह बांदी बन गयी थी। उसे याद आया वो पल जब रिसाल की मां ने आते वक्त उसे समझाया था ''बेटी अब थारा ठौर ठिकाना ठाकर सा का घर ही है... उणका हुकुम ही इब धारा मण है... बांदी बनकर जा रही है... राणी णा समझणा... सबका खैर ख्याल रखियो री छोरी।'' पहला ''भोग'' रवायत के हिसाब से ठाकर सा ने लगा दिया था। एक पुरानी वृद्ध बांदी गुलाब कंवर जो बड़ी ठकुराइन के साथ ज़हेज़ में आई थी और बुढ़ापे में हवेली के ही एक छोटे से कमर में रहती मुफलिसी के दिन गुज़ार रही थी ने रिसाल को समझाया। ''री छोरी, रोण धोण से कुछ कोणी फायदा... बांदी अइयां ही नसबी लेके पैदा होवे छे रे बापरी..।''
रोज रात में रिसाल को ठाकुर सा के कक्ष में जाना होता। एक अजीबोगरीब स्थिति से गुज़र रही थी वो। इधर रानी सा उससे सौतनों जैसा सुलूक करतीं और उधर उसे दिन भर ठाकर सा की याद आती। उनका प्रेम करना याद आता। उसकी आंखें विरह से बोझिल रहतीं। आखिर उसकी कमसिन उम्र और जीवन का पहला प्रेम था वो। उस कड़क युवावस्था में ठाकुर सा ने उससे दिल से मुहब्बत की और रिसाल ने भी, पर बिना प्रेम की परिणति जाने अकूत प्रेम करने का परिणाम क्या होगा इस सत्य से वो अनभिज्ञ थे। उधर ठाकुराइन भी नई नई ब्याहता ही थीं लेकिन ठाकुर साहब तो रिसाल बांदी के दीवाने हो चुके थे। रात भर ठाकुराइन अकेले मीन सी तड़पती और दिन में रिसाल को खोई खोई देखकर ठकुराइन की छाती पर सांप लोटते। तभी रिसाल गर्भवती हो गयी। मानो ज़लज़ला ही आ गया।
छोरी... या तो भोत गल्त हो गया... इसे सपा करा दे... पुरानी बांदी गुलाब ने हिदायत दी
सपा के होबे है बड़ी अम्मा?
सपा यानी गरभ गिरया दे... राणी सा थारे से ज्यूं ही चिढ़ती से... पता चल गया ते मारकर जंगल में गडवा देगी पता भी ना चलेगा किसी ने...
रिसाल बुरी तरह डर गयी। उसे कुछ समझ में न आया कि ये क्या हो गया। वो रोने लगी।
गुलाब ने उसे समझाया ''मरद की फितरत अण बांदी की किस्मत अईया ही होबे है छोरी। ठकुराइन थारी कोख से हुकम (ठाकुर सा) का टाबर कइयां बर्दास्त कार्या सी? ने तू हवेली में रहण की बचेगी री छोरी ने बाहर...''
गुलाब ने सोचा तो ये ता कि रानी सा को खबर भी नहीं होगी और वो चुपचाप उसे ''कड़ा'' खिलाकर उसका गर्भ गिरा देगी लेकिन समय ज्यादा बीत चूका था... खतरा था सो ठकुराइन को खबर देनी पड़ी।
ठकुराइन ने सुना तो जैसे काठ मार गया उन्हें। वो खामोश रहीं और गुलाब से कहा
इसका ख्याल रखो... खाने पीने का ध्यान और इसका काम तुम करोगी अब जब तक इसकी जचकी हो नहीं जाती। हवेली के अन्य नौकर चाकरों से ये खबर छुपा कर रखने की सख्त हिदायत दी। ठाकुर विश्राम सिंह अपनी पत्नी ठकुराइन सुदर्शना का आदर करते थे। और उनकी रसूखदार खानदान का लिहाज भी। जब ठकुराइन ने रिसाल से सम्बन्ध रखने पर पति से नाराजगी प्रकट की तो उन्हें पश्चाताप हुआ और उन्होंने रिसाल से कोई सम्बन्ध न रखने का वचन दे डाला।
रिसाल को बेटा हुआ था। हवेली में कानो कान किसी को खबर न लगी सिवाय ठाकुर साब, ठकुराइन और गुलाब के। गुलाब को उसे पालने का जिम्मा सौंपा गया। जचकी के बाद तो रिसाल और भी सुन्दर दिखने लगी थी। ठाकुर साब वचन बद्ध थे लेकिन ठकुराइन को ये भांपते देर न लगी कि ठाकुर सा का शरीर भले ही उनके पास रहता है लेकिन तड़पते वो अब भी रिसाल के लिए ही हैं।
ठाकुर साहब दो दिनों के लिए कस्बे से बाहर गए हुए थे। ठकुराइन ने एक चाल चली...
हवेली में काम करने वाले माली मलखान सिंह को बुलाया।
तुमने बाग बहुत खूबसूरत कर रखा है तुम्हें इनाम देना चाहते हैं
मेहरबानी ठकुरानी... उसने नज़रें झुकाकर बड़े अदब से कहा
लेकिन इनाम ये होगा वो तो मलखान ने सपने भी ना सोचा था।
''रिसाल बांदी को ले जाओ अपने साथ... दो दिन की तुम्हारी छुट्टी मौज मनाओ... जाओ''
... रिसाल रोती रही ...अपने दुधमुहे बच्चे से बिछुडऩे की टीस से वो दु:ख में डूब गयी... खूब तड़पी लेकिन ठकुराइन का दिल न पसीजा। थारा टाबर तो गुलाब संभालेगी ना। फिकर की के बात... जा मौज करे...।
ना रानी सा ...रहम ...रिसाल गिड़गिड़ाई
अरे तो थाणे हवेली के बाहर थोड़ा ही भेज रहे हैं...? अपणा आदमी ही तो है विश्वास का... ''ठकुराइन ने लाड़ का नाटक करते हुए दलील दी। मलखान सिंह हवेली में ही नौकरों को दिए गए घरों में रहता था। रिसाल को जबरन उसके साथ जाना पड़ा। ठाकुर साब जब लौटे तो ठकुरानि ने उन्हें रिसाल का माली के साथ रात गुजारना बताया। विश्राम सिंह दुखी तो हुए लेकिन कुछ कहा नहीं... बांदी थी... क्या और किससे कहते।
अभी जवान लड़की है.. उसे भी तो हक है मौज मस्ती करने का... उसकी अपनी हैसियत के लोग उसे मिल गए...। ठाकुराइन ने कहा। ठाकुराइन जानती थी हवेली के कायदे कानून। एक बार बांदी का उपभोग कोई और निम्न वर्गीय कर्मचारी कर ले तो ठाकुर खानदान के मर्द उसकी ओर देखते तक नहीं।
उस दिन के बाद रिसाल की ज़िंदगी नरक बन गयी।
न सिर्फ हवेली के मेहमान बल्कि हवेली के किसी भी कर्मचारी, सेवक आदि जैसे लोगों के हाथ का खिलौना बन गयी वो। मेहमानों के सामने उसे नजराने और हवेली के नौकरों के लिए बतौर इनाम इकराम पेश किया जाता। ठकुराइन को फिक्र और कुढऩ से निजात मिल गयी।
तब रिसाल उन्नीस बरस की थी जब उसका पहला प्रेम ठाकुर साहब के कार ड्राइवर लाखन सिंह ने हुआ। लाखन सिंह अच्छे खानदान का और थोड़ा बहुत पढ़ा लिखा युवक था। वो हवेली से बाहर कसबे में रहता था। वो रिसाल को मन ही मन जाने कबसे प्रेम करता था लेकिन कहने का न कभी मौका मिला न हिम्मत ही हुई। हवेली की मज़बूत दीवारों के भीतर रिसाल के साथ क्या हो रहा है इसका ज़रा भी इल्म न था। लाखन चाहता तो ठाकुर साहब से विनती करके रिसाल को ले जा सकता था। वो बांदी थी। बांदी का काम ही हवेली से ताल्लुक रखने वाले लोगों का मन बहलाना था। लेकिन लाखन सिंह रिसाल को दिल से प्यार करता था। मन के किसी कोने में उससे ब्याह करने का सपना भी संजो रखा था।
एक दिन बाग के घने नीम के पेड़ के पीछे उसने रिसाल को बुलाया। रिसाल के हाथ को चूमकर उसने मुहब्बत का इज़हार किया।
''मुझे यहाँ से ले जाओ लाखन... ये लोग मुझे नोंच खायेंगे... सब गिद्ध हैं
मतलब? मैं समझा नहीं
बस इतना ही समझ लो कि मैं बांदी हूं इंसान नहीं...
ठीक है... कल तू मुझे यहीं मिलना... मैं तुझे इस नरक से निकालूंगा... कहकर लाखन चला गया। जैसे तैसे मौका देखकर रिसाल पोटली में अपने कुछ कपड़े लत्ते रखकर अंधेरे में पेड़ के नीचे खड़ी हो गयी। लाखन उसका इंतज़ार कर रहा था। वो दोनों जैसे ही वहां से धीरे धीरे बाहर जाने को हुए ठकुराइन की कार की लाईट उनके चेहरों पर चमकी। वो कहीं से लौट रही थीं
''कौन है वहां इधर आओ
लाखन और रिसाल डरे हुए से उनके पास खड़े थे
कहां जा रहे हो दोनों... और ये क्या है? उन्होंने रिसाल की पोटली की और इशारा किया।
कपड़े है राणी सा...
भागने की तैयारी थी?
रिसाल डरकर कांपने लगी।
जा भीतर जा... हमारे लिए खस का शरबत बनाकर रख...
रिसाल को तो लग रहा था कि रानी सा उसे भयानक सजा देंगी ... बांदी होकर भागने की जुर्रत? लेकिन वो तो बिलकुल ही सामान्य थीं। ...उसे खुशी हुई...
जी रानी सा... नीची निगाह कर उसने कहा और हवेली के भीतर चली गयी। लेकिन उसके बाद लाखन सिंह ऐसा गायब हुआ कि फिर न मिला। रिसाल विक्षिप्त सी हो गयी। न खाना खाती थी न सोती थी। रात रात भर पूरी हवेली में घूमती रहती। सूखकर कांटा हो गयी। लेकिन ठकुराइन को उसमें इसके अलावा कुछ और भी बदलाव दिख रहे थे।
पेट से है क्या? उन्होंने रिसाल से पूछा
पता नहीं... रिसाल ने अनमने मन से कहा... मेरा शरीर मेरा रहा है क्या... ये तो वो लोग बताएंगे जिनका मेरे शरीर पर अधिकार रहा है
बहुत बोलने लगी है... बांदी को इतना बोलने की इजाजत नहीं, जानती नहीं क्या? ठकुराइन के स्वर में तल्खी थी
बोलने दीजिए मुझे रानी सा... रिसाल अप्रत्याशित रूप से चीखी। ''बांदी की सिर्फ देह नहीं मुंह में जबान भी होती है... उसके सिर्फ छातियां नहीं उसके भीतर एक दिल भी होता है'' तमाम तहजीब धूप में बर्फ सी गलने लगी। अनर्गल विलाप... चीखने का सिलसिला बड़बड़ाने और फिर निढाल हो जाने पर टूटा।
ठकुराइन अचम्भे से सिर्फ देखती रह गयी। आज पहली दफा उस नखरीली, रोबदार, नकचढी ठकुराइन की हिम्मत ने थकान महसूस की थी।
परे जाणं दें हुकुम ...या छोरी बाबली हो गयी सैय... घबराई हुई गुलाब बांदी ने घिघियाकर कहा और अधमरी सी रिसाल को घसीटती हुई भीतर कोठरी में ले जाने लगी।
अभी इसे कड़ा खिला। जानती नहीं क्या बांदी मां नहीं बन सकती? ठुकराइन गुस्से में बोली
''माफी चाहूं रानी सा... मां तो मैं पहले ही बन चुकी हूं ...सुमेर की मां...'' रिसाल अपने ही वश में नहीं थी।
हां लेकिन वो तो ठाकुर सा का... अचानक बोलते बोलते ठकुराइन रुक गयी। ठकुराइन के ज़ख्म हरे हो गए। पांच सालों में वो मां नहीं बन पाई थीं
ठाकुर सा ने सुना तो उन्होंने रिसाल को बुलाया
क्या चाहती है?
बच्चा... बच्चा चाहती हूं हुकम...
लेकिन तू जानती है यहां बांदियां सिर्फ सेवा के लिये होती हैं बच्चे जनने के लिये नहीं। सोच ले... यदि बच्चा होगा तो तुझे हवेली छोडऩी पड़ेगी। और यदि बच्चे का मोह छोड़ देती है तो तुझे यहां कोई तकलीफ नहीं होगी। ज़िंदगी भर बेहतर खाना कपड़ा, रहना सब हमारी जिम्मेदारी।
माफी हुकुम... पर मैं भी मां कहलाना चाहती हूं।
ठीक है... तूने इन पांच वर्षों में हमारी खूब सेवा की है। हम तेरी हिफाजत से जचकी कराएंगे... लेकिन उसके बाद तुझे यहां से कहीं और ठौर देखना होगा।
मंजूर हुकम
रिसाल ने बेटी को जन्मा। वो दिन उसकी ज़िंदगी का सबसे खूबसूरत दिन था। एक तो अपनी संतान का सुख और दूसरे अब इस कैद से बाहर जाने का रास्ता साफ था।
जब रिसाल हवेली के उस विशाल, मज़बूत और नक्काशीदार द्वार से बाहर सदा के लिए निकली उसके पास एक टीन का बक्सा था, गोद में दूधमुही बेटी सुनीता और थीं बेहद कड़वी व डरावनी स्मृतियां। सुमेर को तो ठकुराइन ने देखने भी ना दिया। सुमेर खुद नहीं जानता था कि उसकी असल में मां कौन हैं। कुछ दिन कस्बे के मुहल्लों गलियों में इधर उधर भटकने के बाद ठाकुर साहब के किसी दयालु कारिंदे के मार्फत ही वो इस 'कोठी' में आई। कस्बा छोटा था और लोग पुराने। सो बदनामी ने उसका दामन यहां भी न छोड़ा। कभी कभार ठाकुर साहब भी आंटी (शर्माइन) के फोन पर उससे बातचीत करते और हालचाल पूछते। बेटी की पढ़ाई लिखाने के लिए पैसा भी देते लेकिन रिसाल के जीवन में सुकून अब भी न आया था। वहां उसका तन उसका बैरी बना हुआ था और हवेली के बाहर आने पर उसके मन पर आघात होते थे। उसे देखकर लोग नफरत से मुंह फेर लेते। जो लोग रिसाल का अतीत जानते थे वो उसकी बेटी को अजीब सी नज़रों से घूरते। ''न जाने किसी बेटी है? बाप का भी पता ठिकाना किसी को नहीं पता'' लोग कहते। ''सच तो कहते हैं... लोग।'' ...फिर वो क्यूं दुखी होती है लोगों की बात पर? क्या सच्चाई से उसे डर लगता है? जो हुआ वो क्या उसकी मर्जी थी? नहीं वो राजपूतनी है किसी से नहीं डरती। और डरे भी क्यूं? अपने अतीत को तो वो हवेली की उन दमघोंट परम्पराओं की ज़मीन से बहुत गहरे दबा आई है जो उसकी खामोश चीखों और उसके वुजूद की न जाने कितनी बार हुई हत्या की गवाह थीं। ...अपनी बेटी सुनीता को खूब पढ़ायेगी लिखायेगी। उसके साथ बाकायदा एक पति का नाम होगा। रिसाल के $ख्वाबों का साथ आंटी ने दिया। रिसाल की बेटी सुनीता को स्कूल की पढ़ाई करवाई। आंटी एक रसूखदार खानदान की महिला थीं जिनकी सामाजिक छवि व सहृदयता ने रिसाल के अतीत और सुनीता के भविष्य की काली परतों को ढँक दिया था। अब सुनीता बंगलोर में माताजी की बेटी अंजू के पास रहकर कॉलेज में पढ़ाई कर रही थी और उसका रहन सहन किसी सभ्रांत सुसंस्कारित परिवार की तरह था। वो अंजू को दीदी कहती। व$क्त गुजर रहा था मंथर और सुनियत गति से। बंगलौर में सुनीता का प्रेम उसी के साथ पढऩे वाले एक मराठी लड़के से चल रहा था। उसने ये बात मां रिसाल को भी फोन पर बताई थी लेकिन उसकी इस खबर से रिसाल बहुत विचलित हो गयी थी। उसे हमेशा ये भय सताता कि कहीं उसका वो काला अतीत सुनीता व लड़के पता चल गया तो? जब लड़के के माता पिता सुनीता के पिता के बारे में पूछेंगे तो वो क्या ज़वाब देगी? लेकिन जब अंजू ने फोन पर बताया कि सुनीता अपने उस दोस्त के साथ अलग रहने लगी है। ये इस जमाने बुरी बात नहीं समझी जाती। ये एक आधुनिक व्यवस्था है बिना किसी रस्मो रिवाज के साथ रहने की इसे यहां लिव इन रिलेशनशिप कहते हैं। माता जी ये खबर सुनकर सन्न रह गईं। हालांकि  उन्होंने ये अप्रत्याशित खबर रिसाल को बहुत सामान्य तरीके से बताई लेकिन रिसाल दुखी हो गयी। वो रोने लगी।
माताजी, एक ही तो सहारा था मेरे जीवन का वो ही... आप लोगों जैसे इज्ज़तदार घर में उसकी शादी करना चाहती थी मैं।
अरे बड़े शहरों में ये आम बात है... चिंता की कोई बात नहीं। तू ये तो सोच यदि समाज के भय से किसी गंवार दारूखोर आदमी से बचपन में ही ब्याह दी होती तूने अपनी छोरी तो अब तक तो तीन चार बच्चों की मां बन गयी होती वो। सुनीता और उसका वो दोस्त दोनों समझदार और पढ़े लिखे हैं। कम से कम उस बात की नौबत तो नहीं आई जिससे तूर डर रही थी। बाप का नाम...
रिसाल ने अपने जीवन में कई चोटें सही थी सो इसका ज़ख्म भी वो हमेशा की तरह उसे भूलकर या अपने को समझाकर भरने की कोशिश करने लगी। ठाकुर विश्रामसिंह के इंतकाल की जब रिसाल को खबर मिली वो कमरा बंद करके बेतहाशा रोई। आंटीजी ने उसे नहीं रोका। रिसाल जब कमरे के बाहर निकली तो वो पूरी तरह बदल चुकी थी। उसे स$फेद पोशाक पहन रखी थी। गले में तुलसी की माला। बदन पर कोई सुहाग का चिन्ह न था। उसकी आँखें सूजी और लाल थी।
मुझे स्कूल परिसर में क्र्वाटर मिल चुका था और मैं आंटी और रिसाल से विदा लेकर भारी मन से उससे पहले ही शिफ्ट हो चुकी थी। शुरू में आंटी और रिसाल से मिलने मैं हर छुट्टी में ''शिव कॉलोनी'' उनके घर आती। फोन से उनसे तारतम्य बना हुआ था।
दिन बीतते गए। रिसाल का पहले वाला स्वभाव न जाने कहां लुप्त हो गया था। वो अचानक से बूढ़ी हो गयी थी। देह और मन दोनों से। जैसे नसीब और उसके वुजूद की लड़ाई में जूझते जूझते अचानक वो थक गयी हो। उसने हार मान ली हो। कुछ चिड़चिड़ी भी हो गयी थी। बेटी सुनीता ने कई बार यहां आना चाहा या उसे बंगलौर बुलाना तो रिसाल ने इनकार कर दिया। कहा ''जहां रह रही हो खुश रहो बस...।''
उस दिन सुबह आंटी जी दूध लाने के लिए आवाज लगाती रहीं लेकिन रिसाल सोकर उठी ही नहीं। उन्हें आश्चर्य हो रहा था। रिसाल को तो उन्होंने सिवाय तबीयत खराब के कभी इतनी देर तक सोते देखा ही नहीं था। आंटी जी खुद उसके पलंग के पास गईं लेकिन तब तक रिसाल इस निष्ठुर, स्वार्थी संसार से बहुत दूर जा चुकी थी हमेशा के लिए। उन्होंने मेरे स्कूल में फोन लगाया लेकिन उस वक्त मैं एक सेमीनार के सिलसिले में जोधपुर गयी हुई थी। उन्होंने तुरंत पड़ोसियों को बुलाया। अपनी बेटी अंजू को बंगलौर में फोन किया। करीब साढ़े चार बजे अंजू फ्लाईट से सुनीता को लेकर आ गयी। सुनीता मां की मृत देह को देर तक अपलक देखती रही। जब रिसाल को ले जाने लगे सुनीता ने कहा वो भी जायेगी सबके साथ और मां की चिता को अग्नि वो देगी। वहां मौजूद ठाकुरों के बीच सुगबुगाहट शुरू हो गयी। सुनीता को समझाने की कोशिशें भी हुईं लेकिन वो माहौल किसी बहस का न था सो सब चुप्पी लगा गए। गोधुरी बेला होने को थी। श्मशान घाट पर पहले से ही एक गाड़ी एक पेड़ के नीचे खड़ी हुई थी। जिसके पास एक औरत और एक जवान लड़का खड़े हुए थे। जब रिसाल की देह को चिता पर रखा गया, और जैसे ही उसे उसकी बेटी सुनीता ने अग्नि देने के लिए एक हाथ बढ़ाया अचानक एक बूढ़ा दुबला पतला सा आदमी आया और उसने सुनीता के हाथ से वो लकड़ी ले ली।
ला छोरी... अभी मैं ज़िंदा हूं... या कारज मैं ही करूंगा और चिता को आग दी। वो लाखनसिंह था। रिसाल का गुमशुदा प्रेमी।
सारे लोग आंखें फाड़े कभी उस बूढ़े को देख रहे थे और कभी उस कार में आयी ठकुराइन और उस लम्बे चौड़े युवक को... रिसाल और ठाकुर साहब की नाजायज़ औलाद। सबके चेहरे पर एक अजीब सी तटस्थता थी। ठकुराइन अब भी निर्भाव खड़ी थी। कुछ देर वो रिसाल की धू धू जलती हुई चिता को अपलक देखती रहीं और फिर अपने सौतेले बेटे सुमेर सिंह के साथ गाड़ी में बैठकर चली गई। कुछ देर उनकी कार के पीछे उड़ता धूल का गुबार और चिता की लपटों से निकला धुंआ इस कद्र आपस में घुल मिल गए मानो एक दूसरे को अंतिम बिदाई दे रहे हों। वो एक फकत एक आम औरत नहीं थी जिसे अग्नि के सुपुर्द कर वो लोग वापस लौट रहे थे, बल्कि वो धूल मिट्टी की कई तहों के नीचे लिपटा हुआ एक काल था जो सदा के लिए ज़मींदोज़ हुआ था।
रिसाल मुक्त हो चुकी थी अपनी हैसियत, रूप, देह, मन, पीड़ा, मुहब्बत और संसार सब से...। मुक्त वो भी हो चुके हैं जिन्होंने उस पर राज किया। उसे तोहमतें व दु:ख दिए। जिन्होंने उसे सहारा दिया, मुहब्बत की... सब समय की खोह में विलीन हो गए।
सुनीता की बेटी अपनी सिंगल पेरेंट के साथ बड़ी हो रही है... नन्हें पांव... और रास्ता मीलों लंबा...

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