लोक का जाल

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    जनवरी 2016
श्रेणी लोक का जाल
संस्करण जनवरी 2016
लेखक का नाम अविनाश मिश्र





आलोचना/अगली बार कुमार अंबुज
अष्टभुजा शुक्ल की कविता-सृष्टि पर एकाग्र



कहे जा चुके और कहे जा रहे दोनों ही तरह के मुहावरों से अष्टभुजा शुक्ल की कविता-सृष्टि जगर-मगर करती है। इस कथ्य का प्रारंभिक वाक्य इस कथ्य के प्रारंभिक वाक्य की तरह प्रतीत नहीं भी हो सकता है। इसे अपने आस-पास के बजबजाते हुए पर्याप्त विश्लेषण के साथ कहीं मध्य में आना चाहिए था। लेकिन यह प्रचलन यहां संभव नहीं हुआ क्योंकि इसमें नकारात्मकता भी पर्याप्त है, और उस सकारात्मकता का निषेध भी, जो प्राय: कुछ नकारात्मक कहने के लिए भूमिका की भांति ओढ़ी जाती है।
'पद-कुपद', 'चैत के बादल', 'दु:स्वप्न भी आते हैं', 'इसी हवा में अपनी भी दो चार सांस है' जैसे कविता-संग्रहों और 'पहल' के 93वें अंक में प्रकाशित कविताओं से गुजरकर अष्टभुजा शुक्ल के कवि के बारे में अब तक अंतिम, इस राय को प्रस्तावित किया जा सकता है कि अष्टभुजा की कविता उस ओर गतिशील है, जहां वह अपना विकासक्रम खो चुकी प्रतीत होती है। कहे जा चुके और कहे जा रहे दोनों ही तरह के मुहावरों में आवाजाही करते हुए, इस कविता-सृष्टि में उपस्थित बहुत-से विषय बहुत बार बहुत तात्कालिक दबावों से दबे हैं। संभवत: इस वजह से ही वे वर्तमान में विस्तृत और भविष्य में अप्रासंगिक हो जाने को अभिशप्त हैं। 
यह वाक्य बहुत ऊंचाई से बोला गया लग सकता है, लेकिन इसे कहना बेहद जरूरी है कि प्रत्येक रचनाकार के जीवन में विकासक्रम एक चुनौती की तरह है। एक उम्र के बाद कद का न बढऩा, केवल शारीरिक प्रक्रिया नहीं है, यह प्रक्रिया रचनाओं के साथ भी घटती है, तब जब उनके रचयिता एक मुकाम पर पहुंचते हैं। इस मुकाम पर उनके लिए अच्छी रचनाएं लिखना बहुत सरल-सहज हो जाता है। उनके हाथ जब चाहें तब अच्छाई को एक सीमित ऊंचाई से उतार लेते हैं। लेकिन साहित्य का काम और उसमें भी कविता का काम बहुत ज्यादा समय तक महज अच्छे से नहीं चल सकता। हिंदी की कविता इधर के लगभग पैंतीस वर्षों से अच्छे कवियों से आबाद और आजिज एक साथ है। ये अच्छे कवि बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि अच्छी कविता कैसे लिखी जाती है। इन अच्छे कवियों ने हिंदी कविता का बहुत बुरा किया है। आज हर अच्छी चीज का बाजार है, लेकिन अच्छी कविता के पूछनहार मुश्किल हैं। अष्टभुजा की कविता-पंक्तियों के आश्रय से कहें तो :

बिक जाता है बहुत सस्ते में पसीना
खून बिक जाता है उससे कुछ महंगे में
पानी बिक जाता है दूध के मोल
सरसों का तेल, डीजल और पेट्रोल
उससे भी महंगे बिक जाते हैं

दुनिया का हर द्रव बिक जाता है
लेकिन आंख
आंसुओं की ऐसी दूकान है
जो सूनी रहती है अक्सर
    [ पुरोहित की गाय ]
   
प्रस्तुत कविता-पंक्तियों में 'आंख' के स्थान पर हिंदी और 'आंसुओं' की जगह कविता रखने से 'हिंदीकविताबाजार' का हाल कुछ बयां हो सकता है। अष्टभुजा एक अच्छे कवि हैं। वह अच्छे कवि क्यों हैं इसकी पड़ताल यहां जरूरी है और इसके लिए उनके कवि के अतीत में जाना होगा। इससे ही उनका विकासक्रम कैसे बाधित, सीमित और लुप्त हुआ इसका पता चलेगा। 'सदाबहार' शीर्षक वाले अपने एक ललित निबंध में अष्टभुजा कहते हैं : ''अधिक से अधिक सच तभी कहा जा सकता है जब कम से कम बोला जाए।''  
अष्टभुजा को एक स्वर में हिंदी आलोचकों द्वारा भारतीय लोक-जीवन का कवि कहा जाता रहा है। उनकी कविताओं में गंवई और कस्बाई यथार्थ है जो सतत् संघर्षशील है, यह भी कहा जाता रहा है। वह सच्चे अर्थों में किसानी संवेदना के कवि हैं और उन्हें अपने जन-मन की समझ है, यह भी कहा जाता रहा है। त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन और ज्ञानेंद्रपति सरीखी जनपदीयता अष्टभुजा के यहां ही दृश्य होती है, यह भी कहा जाता रहा है। उन्होंने तुकांत और छंद की शक्ति का पुनराविष्कार किया है, यह भी कहा जाता रहा है। वह अछूते विषयों से अपनी कविता को वैविध्यवान् बनाते रहे हैं, यह भी कहा जाता रहा है। वह विचार, विचारधारा या विमर्श के अकादमिक शोर में शामिल कवियों में से नहीं हैं, यह भी कहा जाता रहा है।  
इस कहे जाने को अष्टभुजा ने अब तक के अपने काव्य-व्यवहार से गलत सिद्ध नहीं किया है, अपितु वह इसे बराबर पुष्ट करते रहे हैं :

वह कह दे तो कवियों के कवि, कह वह दे तो आलू
उसकी वाणी आप्तवाक्य है उसकी टीका चालू
अष्टभुजा तू चलता ही जा बदल न अपनी चाल
दिल्ली है कविता का नैहर तो बस्ती ससुराल
        [ पद-1 ]

अष्टभुजा के कवि की लोकोन्मुखता ने ही उसे एक विशिष्ट अस्मिता दी है। जब बहुत सारा काव्य लोक-विमुखता के मार्ग पर था, तब इसकी अनुक्रिया में अष्टभुजा ने अपने लोक को एक नैरंतर्य में थामे रखा। लोक एक जटिल अवधारणा है। अद्यतन लोक अपनी सरलता खोकर एक जाल सरीखा हो चुका है। बहुतेरे कवियों को इसमें फंसते, छटपटाते और नष्ट होते देखा गया और देखा जा रहा है। यह भी लगभग तय हो चुका है कि इस लोक को 'केदारियन' रूमानियत के साथ अब अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। यहां इशारा हिंदी के दोनों केदारों की तरफ है। केदारनाथ अग्रवाल तो रूमानियत हटाकर भी कभी-कभी बहुत काम के नजर आते हैं, लेकिन केदारनाथ सिंह का कृत्रिम लोक और उसके मूढ़ अनुगामी लोक से संदर्भित हिंदी की समकालीन कविता को सतत् संदिग्ध बनाते आए हैं। लोक को छोड़कर लोक को भुनाने का मुहावरा हिंदी कविता को केदारनाथ सिंह ने दिया और इस मुहावरे का प्रतिकारी मुहावरा अष्टभुजा शुक्ल ने रचा :

बिदबिदाएंगे
या पाथर छरछराकर
छिनगाएंगे पल्लव
बालियों से अन्न झारेंगे
या करेंगे कुदिन
    [ चैत के बादल ]
 
इन कविता-पंक्तियों के आस-पास ही अष्टभुजा ने 'तीन पानी तेरह गोड़' शीर्षक अपने एक और ललित निबंध में कहा : ''अब मैं गन्ने का खेत गोड़ चुका हूं। भीतर की गांठें भी कुछ ढीली हुई लगती हैं। तो मैं भी अब कर्म-जगत से उपराम होकर कुछ समय के लिए भाव-जगत में विचरण करना चाहता हूं। कुदाल रखकर कलम उठाना चाहता हूं। कुछ लिखना-पढऩा चाहता हूं। शुभचिंतकों का सुझाव है कि कुछ लिखना-पढऩा है तो यहां से नहीं हो सकता। महानगरों की शरण में जाना पड़ेगा। गांव छोड़ देना होगा। उनके इस सुझाव और सौजन्य का हृदय से आभार मानते हुए भी एक उद्वेग बराबर कचोटता रहता है कि गांवों को कैसे छोड़ दिया जाए? किसलिए छोड़ दिया जाए? वृद्ध पिताओं की हिलती मूड़ी पर गोबर का खेप उठाकर उन्हें तोड़ देने के लिए? भूसा बिकने पर सोने की झुलनी खरीदने का सपना देखने वाली नवेलियों की पीतल की भी नथ उतरवा देने के लिए? फाटक देकर हाटक मांगने वाले ठगों से गांव को लुटवा देने के लिए? धरती को परती बना देने के लिए? फिलहाल अभी तो ऐसा नहीं लगता कि गांव छूट भी सकता है। आगे न जाने क्या होगा?'' 
इस ललित निबंध के लगभग डेढ़ दशक से अधिक गुजरने के बाद भी अष्टभुजा का गांव अब तक उनसे नहीं छूटा है। इधर की नई कविताओं में भी उन्होंने अनंतता के अहंकार की तुच्छता को रेखांकित किया है। प्रदर्शन के भीतर भी प्रदर्शन करतीं कविताओं वाले आत्म-रत्यात्मकता से ग्रस्त छद्म लोकवादी कवियों और उनके समालोचकों के संकीर्ण संसार के बरअक्स अष्टभुजा शुक्ल के कवि के लिए लोक एक नदी की तरह है और महानगर एक समुद्र की तरह :

नदी की
सतह को
चीरती हैं नौकाएं
अंतस में
तैरती हैं मछलियां

नदी के
धरातल में
कचोटते हैं ककरहे और घोंघे और सीपियां

समुद्र की
सतह पर
घूमते हैं नौसैनिक, मछुआरे और जलदस्यु
अंतस में
हहराती है बाडवाग्नि
ऊभ-चूभ करते हैं कछुए और डॉल्फिन और तिमिंगल
जबकि धरातल में जमा रहते हैं रत्न
                             [ मुहाने पर नदी और समुद्र-4 ]

गांवों और महानगरों के बीच की प्रचंड असमानता दोनों के मध्य कोई संतुलन स्थापित नहीं होने देती। महानगरीय जीवन लोक को नीचे गिराता है। उसका स्वरूप बदलकर उसे विद्रूप करता है। महानगर की दिशाहीनता में लोक का वैभव बचाए रखने की कोशिशें प्राय: हास्यास्पदता या कृत्रिमता में ध्वस्त होती हैं। यह मूल में मौलिक न बने रह पाने का संकट है।

नदी, नदी थी
तो समुद्र, समुद्र
                        [ मुहाने पर नदी और समुद्र-6 ]

अष्टभुजा के कवि ने लोक में रहकर लोक को अभिव्यक्त किया है। उसके चरित्र की जीवंतता और भू-दृश्यों की महिमा गाई है और उसकी सीमाओं को भी जाना है। वह उन कवियों में से हैं जिनके लिए लोक उनकी देह का चाम है, उन कवियों में से नहीं लोक जिनके लिए जाल है। अष्टभुजा जैसे कवियों का लोक उनकी देह रहते उनसे नहीं छूटता और इस वजह ही वह देह के बाद भी लोक में बने रहते हैं, और गाए जाते हैं :
यह जीवन हमने भी ढोया
गूंथ-गूंथकर कच्ची मिट्टी, मोटी रोटी पोया 
उसमें नमक लगाकर चाटा, झूठे ही मुंह धोया
बालू जितना पानी पीकर, पाटी पकड़े सोया
रोते-रोते हँसा बीच में, हँसते-हँसते रोया
शत्रु मित्र को परख न पाया, पूरी हांडी टोया
बना रहा किरकिरी आंख की, सोने दिया न सोया
क ख ग इस अदा में लिक्खा, वेद लिख रहा गोया 
बीया भर न हुआ बीया से, ऐसा बीया बोया
लोहे के कुछ चने सुबह थे, सायं जिन्हें भिगोया
पाने वाले राज पा गए, अष्टभुजा सब खोया
        [ पद-3 ]

खिलाड़ी नहीं आलोचक कपिलदेव अष्टभुजा के कवि को समकालीन लोकवादी कवियों से अलगाते हुए कहते हैं : ''जन-जीवन के दैनिक प्रसंगों में शामिल होने का दावा करने वाले, लेकिन हकीकत में अभिजात काव्याभिरुचि की प्रतिष्ठा के लिए फिक्रमंद, तमाम रूप-विकल कवियों में लगभग विजातीय की तरह दिखने वाले अष्टभुजा शुक्ल की कविता का यथार्थ दरअसल भारतीय समाज के उस छोर का यथार्थ है, जिस पर 'बाजार' की नजर तो है, लेकिन जो बाजार की वस्तु बन चुकने के अभिशाप से अभी बचा हुआ है।''
इस उद्धरण के प्रकाश में देखें तो देख सकते हैं कि लोक के जाल में मौजूद कवियों की संख्या हिंदी में पर्याप्त है। इस प्रकार के सारे कवि महानगरों में बहुत सुख-सुविधासंपन्न और लगभग वातानुकूलित जीवन जीते हैं। उनकी दिलचस्पी ड्राइंग रूम में कुदाल, अकाल में सारस और सोन चिरई वगैरह में होती है। वे जब सभागारों में मुट्ठियां कसते हैं तो कई किसान शर्म से सल्फास खा लेते हैं। वे जब किसी मजदूर के चेहरे का बयान करते हैं तो उसके माथे पर दु:ख की एक लकीर और पड़ जाती है। और जब वे इस दु:ख को बकते हैं तो उसके सिर पर बोझ और बढ़ जाता है। वे जब लहलहाती फसलों को लिख रहे होते हैं, तब यथार्थ में फसलें तबाह हो रही होती हैं। वे जब सद्भाव को गा रहे होते हैं, तब सांप्रदायिकता, सामंती प्रवृत्तियां और जातिवादी शक्तियां जनसंहारों के बाद केंद्रोन्मुख हो रही होती हैं। वे जब इधर प्यार रचते हैं, तब उधर बलात्कार के बाद हत्याएं रोज का समाचार हो जाती हैं। ऐसे कवि जब राजधानी में बार-बार सम्मानित हो रहे होते हैं, तब अष्टभुजा जैसे कवि यह दर्ज कर रहे होते हैं :

काठ का घोड़, लगाम रेत की, नदी-पार तैयारी
घटिया कला, अछूती भाषा, बनते काव्य-शिकारी
        [ पद-43 ]

और :

अकेला होने पर
जब याद आती हैं वर्जनाएं
तो जन्म लेने लगता है डर
जितना ही बढ़ता जाता है पहचान का संकट
उतना ही बड़ा होता जाता है डर
                [ किसी साइकिल सवार का एक असंतुलित बयान ]

अष्टभुजा का कवि यह जानता है कि क्या लोक में है जो महानगर में नहीं है और क्या महानगर में है जो लोक में नहीं है। वह यह भी जानता है कि क्या है जो लोक और महानगर दोनों में नहीं है और वह क्या है जो लोक और महानगर दोनों में है। यह जानना ही अष्टभुजा के कवि को लोक के जाल से अलग करता है :

नदी की सभ्यता
आंकी गई
घाटियों के आधार पर

घाटियों के आधार पर ही
लिखा गया
उसका इतिहास

जबकि नदी का भूगोल
पानी से था बना
और समुद्र
का भी   
                                [ मुहाने पर नदी और समुद्र-10 ]

अष्टभुजा का लोक एक सक्रिय देह या नदी की तरह गत्यात्मक है। उनकी कविता-सृष्टि में इसका यथार्थ से पृथक या आभासीय महिमान्वयन नहीं है। इस अर्थ में यह कविता-सृष्टि प्रकटीकरण के उस वायवीय और प्रायोजित ढंग-ढर्रे का प्रतिरोध है जो लोक से दूर रहकर लोक को अभिव्यक्त करने का दावा करता है। लोक एक आचारिकता है और इसकी रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए इसे बरतना अपरिहार्य है। इस बर्ताव से दूर रहने की स्थिति में लोक-मंगल की कामना एक प्रकार के सौंदर्यवाद में पर्यवसित हो जाती है। यह सौंदर्यवाद जनपदीय और जातीय यथार्थ की वास्तविक विडंबनाओं पर हावी हो जाता है। युवा आलोचक आशीष मिश्र ने 'इसी हवा में अपनी भी दो चार सांस है' की समीक्षा करते हुए इस फर्क को कुछ आलोकित करने का प्रयत्न किया है। वह कहते हैं : ''अष्टभुजा शुक्ल के बोध का भूगोल गांव से लेकर बड़े कस्बों या छोटे शहरों तक फैला है। उनकी चेतना का इतिहास नब्बे के बाद गांवों पर तेजी से बढ़े उदारीकरण और बाजार के आर्थिक और सांस्कृतिक दबावों से निर्मित है। अष्टभुजा इन सारे दबावों के प्रति बेहद सजग कवि हैं। इस फेनामिना के तहत पैदा हो रहीं नई परिस्थितियों को, उसके पूरे संदर्भों के साथ पकडऩे में सक्षम हैं, जो सामान्यत: हमारी नजर की जद से बाहर होती हैं। अष्टभुजा के बोध का स्वरूप क्या है और कितना यथार्थ है, इसका पता चल जाएगा यदि उन्हीं के जातीय क्षेत्र के कवि केदारनाथ सिंह की कविता को उठाकर देखें। एक कवि के यहां चित्र बहुत विडंबनात्मक है तो दूसरे के यहां बहुत सौंदर्यपूर्ण। अब इसी बात को उलट दें— केदारनाथ सिंह के यहां विडंबनात्मक स्थितियां भी बहुत सौंदर्यपूर्ण ढंग से आती हैं और अष्टभुजा के यहां सौंदर्यपूर्ण स्थितियां भी बहुत विडंबनात्मक और व्यंग्य के रूप में।''   
विडंबनात्मक यथार्थ के वास्तविक प्रकटीकरण के लिए अष्टभुजा ने सर्वप्रियता और सौंदर्यवाद को उपेक्षा की आंखों से देखा है। एकदम यही बर्ताव सर्वप्रिय और सौंदर्यवादी चेतना ने अष्टभुजा की कविता-सृष्टि के साथ करने के प्रयास किए, लेकिन वह कामयाब नहीं रही तो इसकी मूल वजह अष्टभुजा के कवि का अपनी स्थानिकता से विलक्षण लगाव और सुदृढ़ व मौलिक लोक-चेतना है। इसी आचारिकता ने अष्टभुजा शुक्ल को हिंदी कविता में उपस्थित विभाजनकारी शक्तियों द्वारा संचालित 'मेढ़बंदी' के दायरे से भी दूर रखा। एक साक्षात्कार में एक प्रश्न — आपके काव्य में ग्राम्य-जीवन, कृषक-जीवन तथा लोक-जीवन की विविधतामयी रंगत देखने को मिलती है। मौजूदा समय में जब दुनिया सूचना-प्रौद्योगिकी की ओर तेजी से गतिशील है। ऐसे समय में आपके काव्य की क्या भूमिका है? — के उत्तर में अष्टभुजा कहते हैं : ''...बहुत पहले संस्कृत काव्य में भी ये सवाल उठते रहे हैं। ...संस्कृत में आचार्यों यानी आज की शब्दावली में आलोचकों ने कविता की कई कोटियां बनाई थीं— ग्राम्या, नागरिका, उपनागरिका। यानी जो ग्रामीण संवेदना की कविता थी उसे ग्राम्या, नागर संवेदना की कविता को नागरिका तथा कस्बाई या उपनगरों की कविताओं को उपनागरिका कहा जाता था। ...आज के सूचनातंत्र बहुल समय में, प्रौद्योगिकी के विस्फोट के दौर में लोक-जीवन की सार्थकता का सवाल तथाकथित मुख्यधारा के साहित्य में शामिल लोग उठाते हैं। वे ये सवाल इसलिए उठाते हैं कि लोक-जीवन, लोक-संवेदना को चित्रित करने वाले कवियों को यह कह दिया जाता है कि ये ग्राम्य-संवेदना या कृषक-संवेदना को चित्रित करते हैं और इस तरह एक मेढ़बंदी कर दी जाती है कि आप वहीं रहिए। प्रौद्योगिकी ने दुनिया को सहज-सुगम बनाया है, लेकिन इसे कविता से जोडऩे की जरूरत नहीं, क्योंकि कविता शर्तों पर नहीं चलती, उसकी अपनी आंतरिक शर्त होती है।''
कविता की आंतरिक शर्तों और जरूरतों का ख्याल रखते हुए अष्टभुजा के कवि ने लोक-संवेदना के साथ छंद जैसी लोकप्रिय शैली को भी बखूबी साधा है। बकौल परमानंद श्रीवास्तव :  ''छंद उनके समूचे काव्य-मुहावरे का अभिन्न तत्व है।'' यह तत्व अब तक बरकरार है :

खाकर फूले जैसे ढोल
जाने कैसे खुल गई पोल
बिल में कैसे घुसड़ें बोल
बढ़ई भइया पुट्ठे छोल
    [ चूहे ]

व्यापक हिंदी जनक्षेत्र में कविता की कोटियों में कैद न होते हुए अपनी मूल काव्य-आचारिकता की रक्षा करने में संप्रेषण के संकट भी प्राय: उत्पन्न होते रहते हैं। अष्टभुजा शुक्ल की कविता-सृष्टि की शब्दचर्या पर चर्चा करते हुए सहृदय आलोचक ओम निश्चल अपने एक आलेख में कहते हैं : ''अष्टभुजा के लिए खेती-किसानी के बिंब केवल सौंदर्यधायी भाषिक भंगिमा के लिए ही टांके नहीं गए हैं, बल्कि वे किसानी जन-जीवन की उपज हैं। मोहकड़े, दोरते, कुकुरोंधी, पेड़ी, करइल, भुइयांलोट, उखारबेंट, भोरहरी, पखुरे, घटतौली, अल्लाहट, पगहा, उदंता, हौदी, खुरकुच, खेताही, मजूरी, परसंतापी, पिंपियाने, हुड़कने, मुंहदूबर, कुलच्छिनी, चपरहा, पागुर, फेंचकुर, कोयलांसी, गोजई, सतंजा, निछान, भिन्नहीं, कइनों, छुच्छी, चिरकुट, धराऊं, उपराती, कलौंस और शितियाए — जैसे शब्दों के अलावा अनेकानेक तत्सम शब्द, यथा गुरुनितंबा, स्पर्शशील, पयस्विनी, निभृत, सशंक, दिक्सूचक, गणमैत्री आदि भी उनकी जिह्वा पर संस्कृतज्ञ होने के नाते टकराते हैं। इस तरह तद्भव और तत्सम का फ्यूजन उनके यहां देखते ही बनता है।'' 
यह फ्यूजन देखते भले ही बनता हो, लेकिन पढऩे में यह पाठकीय प्रविधि में बहुतों के लिए एक असंप्रेषणीय काव्य-व्यवहार की तरह है। जब उर्दू और फारसी के मुश्किल शब्दों के अर्थ हिंदी में लिखने या पेश किए जाने वाले शाइरों की हर गजल और नज्म के नीचे दिए जा सकते हैं, तो संस्कृतनिष्ठ और लोक से आए कठिन शब्दों के अर्थ हिंदी कवियों की कविताओं के अंत में क्यों नहीं दिए जा सकते? यह स्थिति पाठकीय सीमाओं के सम्मान और ख्याल का अनुशासन है।
अष्टभुजा की शब्दचर्या पर चर्चा करते हुए उनकी कविता-सृष्टि में बार-बार पाए जाने वाले जिन शब्दों को ओम निश्चल ने पूरी निश्चलता से एक क्रम में रखा है, उनके बारे ये कहने में कि उनके अर्थ नहीं पता, हिंदी कविता के सीमित लेकिन विभिन्न स्थानीयताओं में उपस्थित आस्वादकों/पाठकों को कोई शर्म नहीं आनी चाहिए... क्योंकि अष्टभुजा शुक्ल की कविता के पाठक बस्ती से बाहर भी हैं या हो सकते हैं, वैसे ही जैसे बांदा में कविता लिख रहे केशव तिवारी के पाठक बुंदेलखंड और अवध से बाहर भी हैं या हो सकते हैं, वैसे ही जैसे वैशाली-हाजीपुर में कविता लिख रहे राकेश रंजन के पाठक बिहार से बाहर भी हैं या हो सकते हैं, वैसे ही जैसे करौली में कविता लिख रहे प्रभात के पाठक राजस्थान से बाहर भी हैं या हो सकते हैं, वैसे ही जैसे दरभंगा में कविता लिख रहे मनोज कुमार झा के पाठक मिथिलांचल से बाहर भी हैं या हो सकते हैं, वैसे ही जैसे पिथौरागढ़ में कविता लिख रहे महेश चंद्र पुनेठा के पाठक उत्तराखंड से बाहर भी हैं या हो सकते हैं...। इस प्रकार के कुछ और उदाहरण भी प्रस्तुत किए जा सकते हैं, लेकिन विस्थापन के विवशता में बदल जाने के बाद कवियों की स्थानिकता और भाषा और उसमें प्रयुक्त शब्दचर्या भी बदल गई है। यह भी एक तथ्य है कि इस घटनाक्रम में संप्रेषण की समझ भी विकसित हुई और कई लोकवादी कवियों ने लोक-जीवन को दर्ज करने के लिए उसकी बोली/भाषा को अपने काव्य-व्यवहार के लिए अनिवार्य नहीं माना। इस प्रकार के सारे हिंदी कवि अपने मूल निवास या कहें लोक से भौतिक रूप से दूर थे। हालांकि इस प्रकार के कवियों के प्रसंग में इस तथ्य को भी एक विशिष्टता की तरह उकेरा जाना चाहिए कि इन कवियों ने छद्म लोकवादी कवियों की तरह — जिनका जिक्र यहां पूर्व में हो चुका है — खुद को अभिव्यक्त नहीं किया।
यहां आकर अष्टभुजा शुक्ल की शब्दचर्या पर चर्चा को थोड़ा और बढ़ाया जा सकता है और उस समस्या को भी जिसका जिक्र गए अनुच्छेद में हुआ। घेंचकड़ा, सरगपताली, लमगोड़ा, भुभुली, विखौधे, गोरसहा, छकरा, गुड़छार जैसे शब्दों से संपन्न अष्टभुजा शुक्ल की कविताओं को पढऩे वाले और दिल्ली, गाजियाबाद, फरीदाबाद, करनाल, कुरुक्षेत्र, चंडीगढ़, अंबाला, जालंधर, लुधियाना, मोहाली, शिमला, कुल्लू, श्रीनगर, हरिद्वार, देहरादून, नैनीताल, हैदराबाद, बेंगलुरु, भोपाल, इंदौर, जबलपुर, मुंबई, पुणे, नागपुर, जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, अजमेर, अहमदाबाद, सूरत, रांची, कोलकाता, गुवाहाटी जैसी स्थानीयताओं में जन्मने/पलने/बढऩे वाले हिंदी कविता प्रेमियों को इन शब्दों के अर्थ जानने के लिए क्या बस्ती या पूर्वांचल की यात्रा करनी होगी या यह एक प्रकाशकोचित, संपादकोचित, कवियोचित जिम्मेदारी है कि वह इन शब्दों के अर्थ कविताओं के साथ जारी करे? इस प्रश्न के उत्तरवंचित रहे आने के कई दु:खद पक्ष हैं, लेकिन उनमें से सबसे दु:खद यह है कि जब हिंदी कवि कविता लिख रहा होता है, तब दूर-दूर तक पाठक नाम की कोई व्यवस्था उसके मन-मस्तिष्क में नहीं होती। हिंदी कविता के संपादकों/प्रकाशकों के लिए भी पाठक एक जीवंत व्यक्ति नहीं एक अमूर्त बिंब की तरह है।
इस दृश्य में बोलियां आगे बढ़ नहीं सकीं और भाषा वह बन नहीं सकी जो बोली जा सके, यह मौजूदा हिंदी कविता का स्थायी दुर्भाग्य है। व्यापक हिंदीभाषी संसार में हिंदी कविता का 'अबूझमाड़' तैयार करने में इस दुर्भाग्य की महत्वपूर्ण भूमिका है। अष्टभुजा की एक कविता 'जवान हो चुकी है दुनिया' के अन्य पाठ भी संभव हैं, लेकिन अगर इसे हिंदी कविता के विकासक्रम की सूचनात्मक रपट के तौर पर पढ़ा जाए तो यह एक निहायत ही आशावादी पाठ होगा। इस पूरी कविता को यहां उद्धृत करना प्रसंग में ही बने रहने की प्रक्रिया का एक अंग है :

तीत मीठ खट्टा नमकीन कसैला चखकर
साग पात मूली गाजर कच्चा पक्का भक्ष्याभक्ष्य खाकर
पानी दूध पसावन काढ़ा छाछ पना रस पीकर
खाल छाल पत्ता बल्कल सूती फूती पहनकर
घाम बतास आंधी बौंखा जाड़ा पाला सहकर
रखाई है अपनी देह

घमौनी करके मजबूत की अपनी हड्डियां
मेहनत करके उन्नत की अपनी छाती
और पतली की अपनी कमर
जमीन पर सोकर कड़ा किया अपना शरीर
बिछिया झुककर
सूरज के किरणों की सुई अपनी पलकों से उठाती हुई
लचीले किए अपने अंग-प्रत्यंग
हल्दी लेपकर निखारी अपनी कांति

काजल और किरकिरी बनाने लगी लोगों को
प्रणय-निवेदन या अपशब्द सुनकर
जब-तब सुर्ख हो जाता है इसका मुखड़ा
अब पूरी जवान हो चुकी है दुनिया
बस, एक प्रसव की देर है
दूध अपने आप निकलने लगेगा इसके तन से
         
यहां तक आते-आते अष्टभुजा शुक्ल अच्छे कवि क्यों हैं, इसकी पड़ताल लगभग संपन्न हो जाती है। उनके कवि के अतीत में जाने और उसके विकासक्रम के बाधित, सीमित और लुप्त होने की वजहों का पता लगाने की प्रक्रिया में यह निष्कर्ष खुलता है कि लोक से किसी दूसरे ही लोक में ले जाने वाली मादकता अष्टभुजा शुक्ल पर अब तलक चढ़ नहीं पाई है। युवा अष्टभुजा ने अपनी एक कविता में लोक को एक रास्ता माना, एक ऐसा रास्ता जिस पर चलकर आगे की यात्राएं तय की जा सकें :

आकाश की ओर
चढ़ाई करने को उद्यत ताड़ीवान

हाथों का फंदा
डालता तो है अपने गले में
लेकिन समझता है
कि पैरों में डाल रहा है
    [ ताड़ीवान ]
 
आगे की यात्रा में अष्टभुजा बहुधा लोक-हित, राजनीतिक विषयों और प्रचलित विमर्शों को क्रमश: वाग्दंड, सरलीकरण और शोर के समीप ले गए :

एक हाथ में पेप्सी-कोला
दूजे में कंडोम
तीजे में रमपुरिया चाकू
चौथे में हरिओम
                               [ भारत घोड़े पर सवार है ]

और :

नीचा, दंभी, पतित, पातकी जैसा भी था भान रहा
अष्टभुजा को अपनी जड़ताओं पर भी अभिमान रहा
    [ पद-38 ]

यह जानते हुए भी कि लिखी हुई कविता से जीवन हमेशा आगे निकल जाता है, अष्टभुजा ने सूचनाग्रस्त होकर तात्कालिक हस्तक्षेप की कई कविताएं लिखीं। कविता जब खबरों के आतंक या दबाव में पूर्ण होती है, तब वह कविता कम किसी दैनिक अखबार के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित एक प्रतिबद्ध या प्रायोजित लेख की तरह ज्यादा लगती है... परवर्तित समकाल रोज यूं भी पकड़ से छूटता है :


परेशान उपभोक्ताओं की
परेशानी से परेशान हो गया है
भारत संचार निगम
अपने से जोड़े रहने के लिए
बनाने में मशगूल है नई-नई योजनाएं
कि कैसे कम से कम पैसों में
अधिक से अधिक बात कर सकें
देश के सम्मानित ग्राहक
कि कैसे घटे दर और कैसे बढ़े समय
[ भारत संचार निगम लिमिटेड ]

अष्टभुजा शुक्ल के कवि की आगे की यात्रा उनकी कविता-सृष्टि को कहां ले जाएगी यह समय और संसार की तरह ही अनिश्चित है, फिलहाल वह अपने विकासक्रम से वंचित होकर फतेह की जा चुकी ऊंचाइयों पर ही रुकी हुई है।

संदर्भ:
प्रस्तुत आलेख में अष्टभुजा शुक्ल के अब तक प्रकाशित चार कविता-संग्रहों— रामकृष्ण प्रकाशन, विदिशा से प्रकाशित 'चैत के बादल' और राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित 'दु:स्वप्न भी आते हैं', 'इसी हवा में अपनी भी दो चार सांस है', 'पद-कुपद' के साथ-साथ 'पहल' के 93वें अंक में प्रकाशित उनकी कविताएं, रामकृष्ण प्रकाशन, विदिशा से ही प्रकाशित उनके ललित निबंध-संग्रह 'मिठउवा', 'तहलका' में प्रकाशित अंकित अमलतास से उनकी बातचीत को आधार की तरह प्रयोग किया गया है। 'इसी हवा में अपनी भी दो चार सांस है' की आशीष मिश्र द्वारा की गई समीक्षा 'पक्षधर' के 16वें अंक में प्रकाशित हुई और ओम निश्चल का आलेख 'शब्दों से गपशप : अज्ञेय से अष्टभुजा शुक्ल' शीर्षक से प्रकाशित उनकी पुस्तक में शामिल है। परमानंद श्रीवास्तव और कपिलदेव को उद्धृत करने के लिए क्रमश: 'चैत के बादल' की भूमिका और 'इसी हवा में अपनी भी दो चार सांस है' के ब्लर्ब को ध्यान से पढ़ा गया है। 



'पाखी' के संपादकीय विभाग में। गहरे और मजबूत 'स्वाध्याय' से अपनी रचनाशीलता को आगे बढ़ाया। 'पहल' के लिये देवीप्रसाद मिश्र पर लिखा, इस बार अष्टभुजा शुक्ल पर और अगली बार कुमार अंबुज पर लिखेंगे। अष्टभुजा पर यहाँ लिखते हुए उन्होंने कड़वे और जरूरी सवाल उठाए हैं। अभी भरपूर युवा हैं।

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