विडम्बना और अमूर्तन की त्रासदियाँ

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    जनवरी 2016
श्रेणी विडम्बना और अमूर्तन की त्रासदियाँ
संस्करण जनवरी 2016
लेखक का नाम अमिताभ राय





पुस्तक वार्ता/पाठ्यालोचन

भारत में बसते यहूदियों की कहानी न गौरवपूर्ण है और न बहुत आशावादी। वह उदास करती है। परेशान करती है वह, कि अपने देश से निर्वासित होकर दूसरे देशों में बसे हुए उनके जाति बंधुओं या इसी देश में बसते दूसरे धर्मों के लोगों से उनकी कहानी भिन्न क्यों है?
करीब दो हजार वर्ष पूर्व किसी सुख स्वप्न को आंखों में बसाये और अपनी संस्कृति, परंपरा, जीवन और पहचान को बचाकर रखने की जद्दोजहद में सन 70 में टूटे या टूटते हुए महान सोलोमन मंदिर को इसराइल में पीछे छोड़ते हुए कुछ यहूदी कुनबों ने उस बेड़े में बैठ मातृभूमि को विदा देते और भारत की ओर प्रस्थान करते सोचा भी नहीं होगा कि उनकी धरोहर ही नहीं अपितु उनकी पहचान भी खोकर वे उस आश्रित भूमि से ऐसे विलीन हो जायेंगे कि अपनी अस्मिता पाने में सदियों गुज़र जायेंगी।



'मिठो पानी खारो पानी' (जया जादवानी) की अगली कड़ी



शीला रोहेकर का तीसरा उपन्यास 'मिस सैम्युएल: एक यहूदी गाथा' विडम्बना और अमूर्तन की त्रासदियों का प्रत्यक्ष संदर्भ है। विडम्बना जीवन की सच्चाई है। जीवन जो मिस सैम्युएल एक यहूदी के रूप में जीती है, एक स्त्री के रूप में जीती है, एक मध्यम वर्गीय परिवार के सदस्य और सामाजिक के रूप में जीती है, एक वृत्त के रूप में समाज के हाशिए पर जीती है, वृद्धाश्रम में। सामाजिकों का दर्द, पीड़ा, उपेक्षा, संघर्ष-जब समाज की विभिन्न संस्थाओं द्वारा और अन्य सामाजिकों अथवा सामाजिक समूहों द्वारा-अन्यान्य कारणों और प्रवृत्तियों के कारण अकारण बढ़े, तो विडम्बनाएँ सामाजिक स्तर पर जन्म लेती हैं। यह पीड़ा, दर्द उसके अपने कार्यों के कारण नहीं होती। जब यह समाज और उसकी विभिन्न अंतक्र्रियाओं के कारण उपजे हों, तो उसे सामाजिक के कर्मों का फल नहीं कहा जा सकता और न ही उसकी मध्ययुगीन भाग्यवादी व्याख्या की जा सकती है। ज्योंही हम ऐसा करते हैं मानव समाज की विडम्बनात्मक स्थितियों से बाहर निकलकर एक ऐसी सुविधाजनक स्थिति का निर्माण करते हैं, जिसमें सामाजिक, इतिहास के तनावों से मुक्त हो जाता है। दूसरी ओर अमूर्तन की समस्या समाज से ज्यादा कला रूपों की समस्या है। सामाजिक संदर्भ में यह अध्यात्म और धार्मिक सरणियों में पाया जाता है क्योंकि अध्यात्म और धर्म दोनों ही तथ्यों, संदर्भों, स्थितियों, जगत-व्यवहारों को कार्य-कारण संदर्भ में देखने का आग्रही नहीं होता। वहाँ घटनाएं घटती हैं। परंतु इस उपन्यास में अमूर्तन की समस्या का संबंध उसके कलात्मक संगठन से है।
कलात्मक अमूर्तन इस उपन्यास में हमारा ध्यान अतिरिक्त रूप से आकृष्ट करता है, क्योंकि इस उपन्यास का विषय अत्यंत ठोस है। वह समाज के अछूते पहलू को उठाता है। अमूमन अमूर्तन की समस्या वहाँ होती है, जहाँ विषय भी ठोस नहीं अमूर्त होते हैं, रचनाकार को विषय की समुचित और प्रामाणिक जानकारी नहीं होती, वह आध्यात्मिक अथवा गूढ़ विषयों को उठाता है। परंतु इस उपन्यास में तो ऐसा कुछ भी नहीं दिखाई देता। शीला रोहेकर के संदर्भ में इसमें से कोई भी बात सटीक नहीं बैठती। वे ठोस, गैर आध्यात्मिक और सामाजिक विषय उठाती हैं। उनका अध्ययन, अनुभव और अनुसंधान भी पर्याप्त परिपक्व दिखाई देता है। फिर क्या यह अमूर्तन भी किन्हीं खास सामाजिक विडम्बनात्मक स्थितियों का परिणाम है। इसका उत्तर तो उपन्यास से ही मिल सकता है। उपन्यास के आखिर में शीला जी ने मिस सैम्युएल की मृत्यु का एक अमूर्त चित्र खींचा है। लगभग आखिर के डेढ़ पन्ने के दृश्य को मैं एक पंक्ति में कह सकता हूँ कि मिस सैम्युएल मर रही हैं। मृत्यु एक ठोस जैविक यथार्थ है। एक ऐसा यथार्थ जिससे किसी की मुक्ति नहीं। किन्तु इस ठोस जैविक यथार्थ के पहले भी कुछ है। पहला मृत्यु के पहले मिस सीमा सैम्युएल, सीमा और मिस सैम्युएल दो व्यक्तित्वों में बंट जाती हैं। वह पूछती हैं- ''क्या मैं भी किनारे खड़ी रहकर सीमा को मिस सैम्युएल में तब्दील होते देखने लगी हूँ? सीमा कहाँ गयी?'' यह 'मिस सैम्युएल: एक यहूदी गाथा' है, पर खो सीमा रही है। सीमा के खो जाने से मिस सैम्युएल की धार्मिक अस्मिता पर कोई फर्क नहीं पड़ता। फिर भी सीमा के खोने को अतिरिक्त रूप से रेखांकित किया गया है। दूसरा उसके स्मृति लोक में अमीना आती है। पहली मुलाकात का संदर्भ है। कॉपी में लिखकर पूछती है- 'मैं अमीना और तू?' उत्तर वह दे नहीं पाती। वह खुद ही पूछती है- 'मैं?' और उत्तर देती है- 'मैं अमीना?' पहले सीमा खोती है, फिर सीमा और मिस सैम्युएल दोनों खो जाते हैं, आखिर में सिर्फ  धुंधलका रह जाता है। परंतु इस धुंधलके के ठीक पहले मिली और सारा का एक वक्तव्य है- 'पता है सीमा मैंने और सारा ने भी अपनी अंतिम इच्छा दफन होने की नहीं...दाह-संस्कार के लिए जाहिर की है। मैं तो अपने लिए छह फीट जमीन का मोह भी छोड़ देना चाहती हूँ।' सीमा से वैसी यहूदी पहचान नहीं झलकती है, जैसी मिस सैम्युएल से। एक तरफ  समाज सामाजिकों के जाति, धर्मगत पहचान को बनाए रखना चाहता है, तो दूसरी ओर अल्पसंख्यक समुदाय की धर्म के साथ जुड़ी उनकी स्पृहाएँ नोच लेना चाहता है। वह सामाजिकों को ऐसी स्थिति में पहुँचा देता है कि वह प्रतिक्रिया स्वरूप अपनी धार्मिक इच्छाएँ एवं स्वायत्तता खुद ही छोड़ दे। मिली कहती है- ''उसे कैसे मालूम होगा कि किसी को आहिस्ता-आहिस्ता अपनी सोच, समाज, संस्कार, स्वभाव, परंपराओं और धर्म से कैसे अलगाया जाता है?'' प्रेम विवाह करने के बावजूद, अंतर्धार्मिक विवाह करने के बावजूद श्रीकांत मिली को आहिस्ता-आहिस्ता उसके संस्कारों से अलगाता है। जब मिली इसको पहचानती है और रेखांकित करती है तब स्पष्ट है कि उसमें यहूदी धर्म और उसकी परंपराओं और संस्कारों में विश्वास बचा है। अगर विश्वास न होता, तो मनोवैज्ञानिक स्तर पर वह इस बात का नोटिस भी नहीं लेती। अर्थात् अपनी परंपरा छोडऩा एक किस्म की प्रतिक्रिया है, खीझ है, अन्य बहुसंख्यक धर्मों के लोगों के अपने प्रति असंवेदनशील और असहिष्णु व्यवहार के प्रति। यह संभावनाहीनता, विकल्पहीनता सामाजिकों को अक्सर अमूर्तन की ओर ले जाता है। मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि यह जो कलात्मक अमूर्तन दिख रहा है, वह भी ठोस सामाजिक प्रक्रियाओं का परिणाम है।
इस प्रक्रिया का ही दूसरा पहलू है- तथ्यों, स्थितियों, विचारों, भाषाओं को दार्शनिकीकृत करने की प्रवृत्ति। पूरे उपन्यास में तथ्यों, स्थितियों, विचारों, भावों को जितनी ज्यादा मात्रा में फिलोसोफाइज किया गया है वह हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। दर्शन सदैव आत्मा के चरमोत्कर्ष को ही नहीं दृश्यमान करता। कई बार या अधिकांशत: वह असहायता की उपज होती है, असहाय मनुष्यों के लिए सहारे का कार्य करती है। एक संदर्भ दृष्टव्य है- 'ऐसे अचानक घिरे अवसादों, त्रासदियों अथवा अंधेरे से गुजर कर लोग खुद को कितना बचा ले जाते हैं? &&& क्या बच जाने के लिए बाहरी आधारों के बजाय भीतरी साहस की जरूरत नहीं होती है? इसलिए शायद माँ जहाँ खड़ी थी उसी कोने में ढसरा गयीं।' यह विवादास्पद स्थिति है। जीवन को मात्र दर्शन के सहारे देखने की अनिवार्य नियति है। भीतरी अहसासों को देखने वाले मानसिक असंतुलन के ज्यादा शिकार होते हैं। वास्तव में जीवन का दायरा बर्हिमुखी होता है। संबंधों की दुनिया भी बर्हिमुखी होती है क्योंकि संबंध दो या दो से अधिक सामाजिकों का होता है। अत: जीवन और संबंध को अंतर्मुखी बनाकर (अपने दुखों के कारण ही सही) जीने की कोशिश की जाएगी, उसे जीवन का स्थायी भाव बनाया जाएगा, तो निश्चितरूपेण सामाजिक के हाथ कुछ खास नहीं लगेगा। यह बहुत हद तक संभव है कि दुख के आधिक्य में कोई सामाजिक थोड़ी देर के लिए अंतर्मुखी हो जाए। पर मानव समाज के वृहद्त्तर आयामों में ही सामाजिक के दुख भी समाप्त हो सकते हैं, पराजित हो सकते हैं। वास्तव में आज का भूमंडलीकृत उत्तर आधुनिक पूंजीवादी समाज वैयक्तिकता, व्यक्तिगत सुख-दुख को, अहमन्यता को, इतना तरजीह देता है कि व्यापक मानवता का कैनन छूट जाता है। यह सन् 1990 के बाद उभरी स्थितियों की अनिवार्य परिणति है। इस एकांतिक, विकल्पहीन, संभावनाहीन दुनिया में ठोस सामाजिक जीवन की सच्चाइयों को भी सामाजिक धरातल पर सुलझा पाने में अक्षम मनुष्य मुक्ति तक को एकांतिक, दार्शनिक सारणियों में खोजता है। वह मुक्ति का अर्थ लेते हैं- एक उन्नत सुविधापूर्ण जीवन, बढ़ते पूँजीवादी व्यवस्था और उसकी चमक-दमक में शामिल हो जाना, आर्थिक संघर्षों से मुक्त हो जाना। यह मुक्ति नहीं निजी उन्नति है। ऐसी निजी उन्नति के लिए आज हमारी लोकतांत्रिक सरकारें उतनी चिंतित नहीं हैं, जितनी पूंजीवादी ताकतें और उनके चिंतक और दार्शनिक।  वास्तव में मिस सैम्युएल की यह गाथा दार्शनिक तो होती है, पर मुक्ति की आकांक्षा, उसके लिए संघर्ष प्रस्तावित नहीं करती। इसलिए मिस सैम्युएल की मृत्यु के सांकेतिक संदर्भ के साथ यह उपन्यास समाप्त हो जाता है।
शीला जी का यह उपन्यास ही नहीं, अपितु आज का अधिकांश साहित्य मुक्ति अथवा प्रतिरोध को छोड़ते जा रहे हैं। वर्णन और संरचना की दृष्टि से उत्कृष्ट से उत्कृष्ट साहित्य परिवर्तन की कामना, प्रतिरोध और मुक्ति की आकांक्षा की अंतर्वर्ती धाराओं के बिना सारहीन, संवेदनहीन मनुष्य की तरह है। प्रतिरोधहीनता की भी ठोस सामाजिक वजहें हैं। लेखक उसमें हस्तक्षेप के बजाय उन स्थितियों में बह जा रहा है। यह सन् 1990 के बाद एक प्रवृत्ति के रूप में उभरा है, जो श्लाघ्य नहीं है।
उपर्युक्त बात कहने और मानने के बावजूद यह दिखाई पड़ता है कि मिस सैम्युएल की गाथा मुक्ति की गाथा नहीं है। यह एक जाति, धर्म के रूप में यहूदियों की कमजोरी, पिछड़ेपन के कारण की खोज करता है। पूरा उपन्यास मिस सैम्युएल के इर्द-गिर्द घूमता है। गौर से न देखने पर यह एक सामाजिक एकक की दुरावस्था दिखाई पड़ती है। परंतु जैसा कि उपन्यास के नाम से ही स्पष्ट है कि मिस सैम्युएल की अथवा मिस सैम्युएल के माध्यम से यहूदियों की गाथा है। मिस सैम्युएल की जो दुरावस्था दिखाई पड़ती है, उसका जो क्रमश: क्षरण होता है, उसमें अधिकांश का संबंध यहूदी धर्म की अल्पसंख्यकता से है। जब उनके पिछड़ेपन के कारणों की खोज लेखिका करती है, तो क्या परिवर्तन की इच्छा ही अंतवर्ती धारा के रूप में कार्य नहीं कर रही होती? परंतु यह प्रच्छन्न अर्थ है। इसे पाठक को खोजना पड़ता है। एक क्षण को मान भी लिया जाए कि ऐसा नहीं, तो भी शीला रोहेकर और जया जादवानी (मिठो पानी खारो पानी) जैसी लेखिकाओं ने भारतीय समाज में अल्पसंख्यक समाज की दुरावस्था का जो संदर्भ प्रस्तुत किया है, वह गैर साम्प्रदायिक और संवेदनशील पाठकों के मन में अनेक प्रश्न छोड़ता है। उन्हें बेचैन और व्याकुल करता है। समाज की तथाकथित धर्मनिरपेक्षता और गैर साम्प्रदायिकता को प्रश्नों के घेरे में खड़ा करता है।  बॉबी के लेख के माध्यम से कहा गया है- ''शायद यही कारण होगा कि भारत में बसते ईसाई, मुस्लिम और पारसी अ_ारहवीं, उन्नीसवीं सदी तक इन अति अल्पसंख्यकों को अपने पड़ोसियों की दयादृष्टि पर अवलम्बित, भाग्याधीन, कनफ्यूज़ड (उलझे व्यक्तित्व वाले) प्राणी समझने की हिमाकत करते रहे। किन्तु वे या भारतीय समाज ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि इस अल्पसंख्यक कौम की पूरी शक्ति विभिन्न सामाजिक ताकतों की प्रखरता से बचाव के उपायों में और कमजोर आर्थिक परिस्थितियों से जूझने में ही रिसती रही। ऐसे में उनका अंतर्मुखी व आत्मकेन्द्रित होकर सिमटना तर्क संगत था।''
ऐसा आत्मकेन्द्रित समाज और उसके सदस्य इतिहास के निर्णयात्मक क्षणों में अकसर असमंजस की स्थिति में दिखाई देते हैं। डेविड रूबिन और सैम्युएल डेविड दोनों के साथ ही यह संदर्भ आया है। डेविड रूबेन जब अपने मित्र डॉ. शाह को मनाने गए कि गांधी जी के आह्वान पर अपनी सरकारी नौकरी न छोड़े। भारत आजादी की लड़ाई के चरम दौर से गुजर रहा था। देश में पढ़े-लिखे, अनपढ़, गरीब-अमीर, स्त्री-पुरुष सबसे अपेक्षा की जा रही थी कि वे लड़ाई में सक्रिय रूप से भाग लें। सभी अपने तमगे, उपाधियों और पदवियों का त्याग करें, विरोध स्वरूप। डॉ. शाह कहते हैं- ''साहस पैदा कीजिए परिस्थितियों से जूझने के लिए। खड़े हो जाइए हमारे साथ और हमारा बल बढ़ाइए।'' यहाँ साफ  है कि जो डॉ. शाह (बहुसंख्यक) हैं, उनके हम में जेलर और उनका मित्र सम्मिलित नहीं है, क्योंकि उसका समाज, धर्म आदि पृथक है। बहुसंख्यक समाज जिस अविश्वास की नजर से इन्हें देखता है उसकी चरम परिणति यही होगी कि अल्पसंख्यक समाज आत्मकेन्द्रित ओर अनिर्णय की स्थिति में पहुँच जाए। इस अनिर्णय की स्थिति में डेविड रूबेन अपने पद का त्याग भी नहीं करते। अल्पसंख्यक समुदाय को हमारा समाज मलेच्छ या परदेसी की श्रेणी में धकेल देता है। डेविड रूबेन कहता है- ''आपके साथ खड़े हो जाने भर से आप हमें वह सब कुछ दे देंगे जिसे पाने के लिए हम पिछले दो हजार वर्षों से संघर्षशील हैं? क्या आप नहीं जानते कि आपके हाथ में सत्ता आते ही आप भी हमारा उपयोग उन्हीं की तरह करेंगे?''
डेविड रूबेन के लाख समझाने के बावजूद उनका बेटा सैम्युएल डेविड आजादी की लड़ाई में सम्मिलित होने की कोशिश करता है- ''पापा के डर, गुस्से और हिदायतों के बावजूद सैम के भीतर एक जज्बा कुनमुनाता। &&& उसको पता था कि पप्पा उसकी गैरहा•िारी में उसके कमरे की पूरी पड़ताल करते हैं। इसके बावजूद वह, दिनेश और प्रकाश के साथ किशोर भाई के यहाँ चुपके से जाने लगा।'' वह इतिहास की वृहद्तर धारा में शामिल होने की कोशिश करता है, पर यहाँ भी अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति बहुसंख्यक समाज का अविश्वास उसे मुख्यधारा के बाहर फेंक देता है। वह महसूस करता है कि ''उसके ही मित्र उसे दूर रखना चाहते हैं और उसके पास पहुँचते ही हल्की-फुल्की बातों पर आ जाते हैं, मानो वह कोई भेदिया हो!''
इन अल्पसंख्यकों के पास न कोई पैतृक सम्पत्ति है, न जमीन जायदाद है, न आय का कोई स्रोत। डेविड सैम्युएल कहता भी है- ''उस वय में भी वह जानता था कि उसके पापा के पास एक अदद नौकरी के अलावा कुछ भी नहीं था। न पुश्तैनी जमीन जायदाद, न रिश्ते नातेदारों की रहम दृष्टि और सरोकार और न ऊँचे रुतबेदार व्यक्तियों से संबंध।'' यह पूरी यहूदी कौम रोज कुंआ खोदती है, रोज पानी पीती है- ''बहुत गरीब हैं हमारे लोग। गरीब और अदूरदर्शी। रोज कुंआ खोदते हैं।'' ऐसा भी नहीं है कि सारे यहूदी गरीब और अभावग्रस्त ही हैं। जो यहूदी पढ़-लिखकर ऊँचे, ओहदेदार और सम्पन्न हो गए हैं वे भी अपनी कौम की ओर से मुँह मोड़ लेते हैं। बॉबी अपने लेख में कहता है- ''तब ऐसा वर्ग दूसरे और अपनी ही कौम के साथ चलने में पिछड़ गया और समाज के एक बड़ा वर्ग 'गरीब' में समाहित हो गया।'' गरीबी, यंत्रणा, अविश्वास झेलते इस कौम की त्रासदी की चरमावस्था डेविड सैम्युएल के इस कथन में दिखलाई पड़ती है ''सैम हड़बड़ाकर कुर्सी से उठे और लडख़ड़ाते कदमों से मोजस की पट्टिका के पास पहुँचे। उन्होंने पट्टिका को कसकर पकड़ा और आँखें भींच कर दिल की गहराई से बुदबुदाए। ईश्वर, मुझे सम्मानपूर्ण मौत देना।'' सामाजिक की इच्छा का एक रूप यह भी है। यह न सिर्फ  त्रासद है, अपितु विचारणीय भी है। एक समाज के रूप में हमने किस तरह का समाज बनाया है, किस तरह की सामाजिक संस्थाओं का निर्माण किया है, जिसमें हमारे समाज का एक सदस्य किसी खास धर्म, समुदाय, जाति, लिंग, वर्ण, वर्ग का सदस्य होने के कारण ऐसी इच्छा प्रदर्शित करता है। मरना तो सबको है और मृत्यु के बाद की क्रियाएँ अंतत: धार्मिक ही होती हैं। आज के आधुनिक समाज में धर्म मनुष्य की चिंता और चिंतन का केन्द्रीय संदर्भ तो नहीं है परंतु समाज का बहुलांश धार्मिकता से मुक्त भी नहीं है। अत: आधुनिक लोकतांत्रिक देश में हम धर्म के आधार पर मनुष्यों में भेद नहीं कर सकते। इस सैद्धांतिक ज्ञान के बावजूद धर्म के नाम पर भेदभाव है और इस भेदभाव के कारण ही तो किसी सामाजिक को सम्मानपूर्ण मृत्यु की आकांक्षा व्यक्त करनी पड़ती है। इसके बावजूद अगर बहुसंख्यक समाज ने इनका विश्वास अर्जित किया होता, या इन्हें विश्वास दिलाता कि तुम भी हममें से ही एक हो, तो भी गनीमत थी।
विश्वास अर्जित करने की बात तो बहुत दूर है, वह उन्हें अपनी मुख्यधारा में अमूमन शामिल भी नहीं करता। ऐसा नहीं है कि डेविड का परिवार इस धारा में शामिल होने का प्रयत्न ही नहीं करता। गीतांजलि सोसाइटी में बस गए सैम्युएल डेविड को पता नहीं था कि बहुत जल्द ही उन्हें सारी धर्मनिरपेक्षता, दोस्तियाँ, भाईचारे का व्यवहार समझ में आ जाएगा। यह परिवार उस हिन्दू बहुल मुहल्ले में उनके पर्वों- होली, दीपावली में सम्मिलित होता, पर बहुसंख्यक समाज अपनी बारी आने पर यह कहते हुए हाथ सिकोड़ लेता है ''जी हम आप लोगों के धर्म-कर्म को कहाँ जानते हैं।'' गोया यहूदी समाज ताउम्र हिन्दू समाज के रीति रिवाज ही अपनाता आया है। या एक बहुसंख्यक आबादी के रूप में व्यवस्था के स्तर पर यह व्यवहार सामंती व्यवस्था का मानसिक प्रतिफल है कि कमजोर है, उसे तो ताकतवरों की इच्छा-अनिच्छा, व्यवहार का ध्यान रखना है परंतु ताकतवरों को कमजोरों का ख्याल रखने की क्या जरूरत है? यह मानसिक सामंती व्यवहार सामाजिकों को हीन दिखाकर अपने अहं को तुष्ट करता है। इससे एक व्यवस्था के भीतर अव्यवस्था का जन्म होता है। इस अव्यवस्था में अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद डेविड परिवार अपने लिए जगह नहीं बना पाता। क्रमवार रूप में यह परिवार और पूरा यहूदी समाज पहले व्यवस्था से एलिनिएट होता है। इस व्यवस्थागत एलिनिएशन की अंतिम परिणति व्यक्तित्व के टूटन के रूप में उभरती है। इस टूटन का ही परिणाम है कि दो हजार साल से साथ रहने के बावजूद यहूदियों में वापस अपने वतन जाने की इच्छा कुनमुनाती है- ''सदियों भटकते रहने से, त्रासदियाँ व अपमान झेलने भर से क्या अपनी जमीन के लिए दबा रहा खिंचाव शेष हो जाता है? अब तो हमारा हक बनता है कि हम हमारी कही जाने वाली जमीन पर लौटें।''
एक जाति के रूप में भटकाव, त्रासदी और अपमान झेलने से यह खिंचाव कम नहीं होता, अपितु बढ़ता जाता है। इस कारण वे भारत को अपनी जमीन नहीं मान पाते। इस कोढ़ में खाज का काम करती हैं शिवसेना जैसी पार्टियों की विचारधारा। ''सामना में ऐसा प्रश्न उठाया जाता है कि बौने इस्राइलों के एक शहर में दो सिनेगॉग्स की क्या जरूरत है जबकि वे पहले के मुकाबले चौथाई रह गए हैं।'' इस तर्क पद्धति को मैं आगे बढ़ाऊं, तो क्या मैं यह नहीं कह सकता कि देश में मंदिरों की संख्या क्यों बढ़ रही है, जबकि आजादी के बाद से हिन्दू जनसंख्या का प्रतिशत घटा है? क्या यह असहिष्णुता नहीं है? यह बात पूना की संगठित, धर्मपरायण जनता के लिए है, तो दूसरे कोनों में बसे यहूदियों के... की स्थिति का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है! जब नैरेटर पूछती है कि 'अल्पसंख्यकों की धूसर होती मानसिकता पर क्या यह एक और वार नहीं है?' तो इसे झुठलाया नहीं जा सकता। पर क्या इस्राइल जाने के रास्ते आसान हैं। सीमा को सैम्युएल डेविस के इस कहे से इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है- जब तक तुम और डेविड जैसे यंग ब्लड न हों, तब तक बूढ़े लोगों को घास नहीं डालती वहाँ की सरकार। पहले बात और थी। तब देश निर्माण हो रहा था। अब उनको युवा शक्ति चाहिए।'' अजीब विडम्बना है कि जिस देश में यह जाति दो हजार वर्षों से रह रही है, न वह अपना मान रहा है और जिस देश पहुँचने का सपना अन्यान्य कारणों से ये तमाम उम्र देखते रहे, न वह उन्हें अपनाने को तैयार है।
यह बहुसंख्यक राजनीति बॉबी और सीमा सैम्युएल जैसे बने अल्पसंख्यकों के बीच भी अल्पसंख्यक बना देते हैं। बॉबी अपने और सीमा के लिए इस्राइल जाने का प्रस्ताव ठुकरा देता है। बॉबी कहता है- ''मिट्टी है... भारत या येरुशलेम की... एक सी। दोनों में वही कीटाणु है जो इस शरीर को ढाँचा बना देंगे। हमारे लिए तो यहाँ की मिट्टी ही दो हजार वर्षों से परिचित, सोंधी, अपनी है।'' दो हजार वर्षों से जो समुदाय यहाँ रह रहा हो और अगर वह फिर भी इस मिट्टी को अपना नहीं मान रहा तो यह अत्यंत चिंता का विषय है। यह देश के, मानव सभ्यता के विकास को प्रश्नांकित करता है। अतिवादी बहुसंख्यक आबादी इस समस्या को और उसके कारणों को समझने की बजाए उन्हें देश छोडऩे की नसीहत देता है- ''आप दूसरी अल्पसंख्यक जातियों की तरह ही हमारे देश की मिट्टी का दोहन कर रहे हो जबकि आप लोगों की निष्ठा अपने वतन के लिए रहेगी। वापस लौटिए अपने देश और जमीं पर, ताकि यहाँ किसी जरूरतमंद हिन्दू नागरिक के लिए जगह निकल आए।'' यह असंवेदनशीलता और क्रूरता की सीमा है। यह क्रूरता हमारे समाज में दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है। यह सामाजिक और राजनैतिक दोनों स्तरों पर घटित हो रहा है क्योंकि समाज और राजनीति, अत्यधिक रूप से एक-दूसरे को प्रभावित और निर्देशित करते हैं। यह कहना तो मुश्किल ही है कि समाज में यह प्रवृत्ति पहले से मौजूद थी और राजनीति इसका फायदा उठाती है या राजनीतिक दल अपने निहित स्वार्थ में इस प्रवृत्ति को समझते हैं और समाज फिर उसी लीक पर चल देता है। परंतु इतना तय है कि ऐसे लोग और दल न भारतीय संस्कृति को पहचानते हैं, न हिन्दू धर्म को और न ही इनकी निष्ठा भारतीय संविधान के प्रति की है। भारतीय संविधान प्रत्येक धर्म, जाति के लोगों को समान अधिकार देता है बिना किसी भेदभाव के। सैद्धांतिक धरातल पर न वह लिंग और जाति के आधार पर भेदभाव करता है और न ही धर्म के आधार पर। पर व्यावहारिक धरातल पर समाज और राजनीति दोनों ही आय, प्रांत, लिंग, संख्या आदि अनेक आधारों पर विभेद करती हैं। शिवसेना जैसी पार्टियों का विश्वास इसी तथ्य को दर्शाता है। उपन्यास में यहूदी को विदेश जाने की सलाह देता है तो भाजपा के लोग मुसलमानों को पाकिस्तान जाने की। भाजपा की सहयोगी शिवसेना महाराष्ट्र को मराठियों के लिए आरक्षित करना चाहती है। इसके लिए वह बिहार और उत्तर प्रदेश सरीखे राज्य के लोगों को चुनकर उनके साथ हिंसा करते हैं, राज्य छोडऩे पर विवश करते हैं। क्या यह विडम्बना नहीं है? भारतीय समाज के विकास की विडम्बनात्मक स्थिति है और सारी संस्थाएँ मूकदर्शक बनी देखती रहती हैं!!
ये स्थितियाँ किसी भी समाज के लिए उसके आंतरिक स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त नहीं हैं। ऐसी स्थिति में समाज के साम्प्रदायिक सौहाद्र्र के बिगडऩे का खतरा खूब रहता है। साम्प्रदायिकता का सीधा अर्थ है धर्म और धार्मिक भावनाओं के कारण अन्य पंथ के लोगों के साथ भेदभाव। साम्प्रदायिकता की सबसे बड़ी वजह धर्म और धर्म की वैचारिक अवधारणा के प्रति श्रेष्ठता ग्रंथि। इतिहास का सामान्य ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी जानता है कि दुनिया में ऐसी कोई जाति, धर्म अथवा रेस नहीं है जो सामाजिक धार्मिक सम्मिश्रण से अछूता हो। जब सैम्युएल डेविड कहते हैं कि उनका पक्का विश्वास है कि बाइबिल धर्म की संस्कृति, विकास, सभ्यता व परंपरा का अमिश्रित, सत्य व ईमानदार निरूपण है' तो बॉबी इसका खंडन करता है। अमीना भी परिष्कृत संस्कृति की मुखालफत करती है। वह कहती है- ''पॉलिटिकल साइंस की लेक्चरर मैं कहाँ बता पाई उनको इस देश में कोई भी संस्कृति साबुत नहीं बची है।'' इस पवित्रतावादी संस्कृति अथवा धर्म और संस्कृति के अमिश्रण की परिकल्पना दुनिया में कैसा आतंक मचा सकती है, हिटलर इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
अमीना गोधरा के दंगे में अपने सारे परिवार के सदस्यों को खो देती है। अमीना अकेली नहीं थी। यह रचना की सीमा होती है। अमीना का जीवन त्रासदी और विडम्बना का कैसा सान्द्र चित्र है, उसके इस कथन से समझा जा सकता है- ''सबके जाने को नहीं, अपने बचे रहने को बर्दाश्त नहीं कर पाती हूँ सीमा!'' जिसके सामने उसके पूरे परिवार को कत्ल कर दिया जाए, उसके लिए ऐसी सोच असंभव नहीं। यह स्थिति साम्प्रदायिक अमानवीयता के कारण उभरी है। उस देश में जिसका संविधान और जिसके नेता, अपने भाषणों में उसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बताते थकते नहीं, उसकी धर्मनिरपेक्षता को बताते थकते नहीं, उसी देश के हजारों-लाखों नागरिक साम्प्रदायिक विद्वेष के कारण अपनी जान गंवा चुके हैं। जिनकी जिंदगियाँ बच गईं हैं, उनका जीवन तो और भी नारकीय है। संविधान और सैद्धांतिक कथन के विपरीत समाज का आचरण जातिवादी और साम्प्रदायिक है। कुछ बुद्धिजीवी और नेता पाकिस्तान से भारत की तुलना करते हैं तो उनके विवेक पर दाँतों तले ऊंगली स्वयंपि दब जाती है। क्या पाकिस्तान खुद को धर्मनिरपेक्ष बताता है? वह तो धार्मिक राष्ट्र है। पर भारत का संविधान तो भारत को धर्मनिरपेक्ष घोषित करता है, तो फिर नागरिक और सामाजिक जीवन में धर्मनिरपेक्षता के स्थान पर यह साम्प्रदायिकता कैसे प्रवेश कर जाती है। कई बार तो एक सामाजिक के परिचय में उसके इंसान होने के अलावा सबकुछ बताया जाता है। मिली का परिचय द्रष्टव्य है- ''गुरु, पंडित या उस्तादों के बहुत से शिष्य थे अपने लिए। हिन्दू के लिए विजातीय थी और मुसलमानों के लिए यहूदी... फेनेलिक, फिलिस्तीन को बर्बादी दिखाने वाले!'' मिली के सारे गुणों पर उसका यहूदी होना भारी पड़ जाता है।
भारतीय समाज विभिन्न धर्मों, संस्कारों, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, विश्वासों, भाषाओं का समुच्चय है। सभी के मिलने से भारत का निर्माण होता है। अमीना सीमा से पूछती है- ''तुम या मैं क्या कभी लगे हैं यहूदी या मुसलमान?'' नहीं लगती है, तभी तो दंगे में अमीना बच जाती है- ''गुजराती साड़ी पहने हुए मैं... और गुजराती जुबान बोलती यह अमीना 'गुजराती बेन दे... एमनेजवादो' कहते उस भीड़ के सिरों पर से बाहर कर दी गई थी... बचे रह जाने के लिए!'' जब ये मुसलमान और यहूदी नहीं लगती तो इन्हें मुसलमान और यहूदी में कौन परिवर्तित कर रहा है? साम्प्रदायिकता के लिहाज से यह अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न है।
इस देश में साम्प्रदायिकता का संदर्भ अकारण हिन्दू मुस्लिम तक ही सीमित रहा है। इसका सीधा संबंध बहुसंख्यक अल्पसंख्यक राजनीति से है। वास्तव में साम्प्रदायिकता को लेकर जो अध्ययन हुए हैं, उसमें अल्पसंख्यक होने के नाते मुस्लिम समुदाय के प्रति सहानुभूति रखी गई है। साम्प्रदायिकता को लेकर ज्यादा ठोस और तटस्थ-अध्ययन की जरूरत है क्योंकि जब सहानुभूति रखी जा रही है, तो निरपेक्षता क्षरित होगी। अल्पसंख्यक होने के नाते साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने में मुसलमानों की कोई भूमिका नहीं होगी-यह तथ्यपरक नहीं है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं, जिसमें साम्प्रदायिक तनाव के पीछे मुसलमान कारण रूप में रहे हैं। मेरा कहना मात्र इतना है कि विद्वान जिस तरह हिन्दू असहिष्णुता की मुखालफत करते हैं, उन्हें निष्पक्ष रूप से मुस्लिम असहिष्णुता की भी बात करनी चाहिए। साम्प्रदायिक विद्वेष को खत्म करने का एकमात्र उपाय तटस्थता और दूसरों के प्रति सम्मान की भावना ही है। अन्यथा क्रिया-प्रतिक्रिया रूप में यह साम्प्रदायिक विद्वेष फैलता ही रहेगा। इस पुस्तक में हिन्दू मुस्लिम साम्प्रदायिकता के समानान्तर मुस्लिम-यहूदी विवाद भी दिखाया गया है।
साम्प्रदायिक उन्माद केवल साम्प्रदायिक घटनाओं का सामना करने वालों को ही नहीं डराता है, अपितु जो साम्प्रदायिक उन्माद फैला रहे हैं उनके अपने धर्म के सहिष्णु लोगों को भी डराता है। मिस भरूचा कहती हैं- ''उस मुस्लिम मुहल्ले में एक भी घर तबाही के बिना नहीं बच पाया है। मैं डर गई थी। मेरे धर्म ने मुझे असुरक्षित कर दिया और बढ़ती उम्र ने हरा दिया।'' साम्प्रदायिक रंग चाहे जिस धर्म से, सम्प्रदाय से आ रहा हो, वह भयभीत करता है। वह अपने धर्म और मान को उच्चतर और श्रेष्ठ दिखाने के लिए दूसरों को हीन और बौड़म समझता है। यह वैसे तो दार्शनिक धरातल पर मूर्खता और अज्ञान ही है, परंतु अभिधात्मक अर्थों में भी साम्प्रदायिकता का आवृतता से गहरा संबंध है। हिन्दू आबादी नहीं जानती कि यहूदियों में भी खतना होता है। अत: जिनका खतना हो वो सब मुसलमान हों यह -जरूरी नहीं है। वैसे तो किसी भी प्रकार से किसी की हत्या जायज नहीं है, पर यदि हिन्दू इस तथ्य को जानते तो बॉबी जिंदा होता। सीमा की माँ का यह प्रश्न इसी संदर्भ में है-''अपना बॉबी तो यहूदी था, है ना?'' ये यहूदी हिन्दूओं की नकल करते, उनमें घुलने-मिलने का प्रयास करने के बावजूद भी हिन्दू साम्प्रदायिकता से अछूते न रहे-''हिन्दू जनसंख्या की बहुतायत के कारण सुरक्षा भी सबसे मुकम्मल उसी में थी कि वे हिन्दुओं के नामों की नकल करें और घुलमिल जाएँ।''
वास्तव में अस्मिता और साम्प्रदायिकता का फर्क भी बहुत झीना होता है। एक धर्मनिरपेक्ष या अन्य बहुसंख्यक धर्मों के साथ दूसरे धर्म की पहचान एक दोधारी तलवार की तरह है। एक धार पर अस्मिता और पहचान है, तो दूसरी ओर धर्म आधारित साम्प्रदायिक विद्वेष है। अस्मिता कब और कहाँ साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता में बदल जाती है, इसे जान और पहचान पाना अत्यंत मुश्किल है। क्योंकि दोनों की विभाजक रेखा अत्यंत महीन होती है। अस्मिताओं की पहचान एक ओर दलित और स्त्री विमर्शों के रूप में दिखाई पड़ती है, तो दूसरी ओर इन अस्मितामूलक संघर्षों की चरमपंथी परिणतियाँ भी दिखाई पड़ती हैं। इतिहास के गलियारों में झाँककर देखें तो बहुत बात स्पष्ट हो जाती है। माक्र्सवादी आलोचना बताती है कि जिस सामाजिक इकाई में जनजागरण कार्य सम्पन्न हो जाए, वह जाति है। भारत जैसे विशाल और बहुसंख्यक सभ्यता संस्कृति वाले देश में इसलिए अनेक जातियों का गठन हुआ और इसी कारण नवजागरण भी अनेक चरणों में आया। बंगला नवजागरण, मराठी नवजागरण, हिन्दी नवजागरण आदि। ये जातियाँ आजादी के बाद अपनी अस्मिता राष्ट्र के आधार पर नहीं खोजतीं। भाषा, धर्म आदि उसके आधार बनते हैं। जैसे ही ऐसा होता है, जाति की राष्ट्रवादी अवधारणा खंडित हो जाती है। इसका राजनैतिक इस्तेमाल प्रारम्भ होता है। मराठी नवजागरण से बाल ठाकरे तक की विकास यात्रा से इसे आसानी से पहचाना जा सकता है। इस उपन्यास में इसे लेखिका ने दर्शाने की कोशिश की है, भले ही वह साफ  और स्पष्ट न हो और न ही वह उपन्यास का मुख्य मुद्दा है। उन्होंने हिन्दू नामों को स्वीकार किया, परिवेश को स्वीकार किया, दूसरे धर्मों के धर्म परिवर्तन की नीतियों से खुद की रक्षा की, ''किन्तु, जातीय लक्षण खोने के बावजूद इन अल्पसंख्यकों की स्मृति में कहीं जड़ीभूत था कि उनके पुरखों ने अपना वतन, धर्म व जाति को बचाने के लिए छोड़ा था...'' ये गरीबी, अल्पसंख्यकता झेलते रहे, पर खुद को नहीं बदला। यह आग्रह कई बार दुराग्रह की सीमा तक भी पहुँचाता और इस क्रम में वह संवेदनहीन भी हो जाता है। यह द्वैत उसी श्रेणी का है, जिसके ऊपर मैंने जिक्र किया। सीमा कहती है-''एक ही परिवार में नकलों पर उभरे अक्षरों की रंगत भिन्न होते ही वह दबंग, आततायी या संवेदनशील क्यों हो जाती है?''
एक ओर 1990 के बाद भारत में एक ओर मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था का निर्माण हुआ तो दूसरी ओर सामाजिक-राजनैतिक स्तर पर भी एक बड़ा परिवर्तन हुआ। भारतीय संविधान का ढाँचा संघात्मक है। इसमें केन्द्र और राज्यों में सत्ता विभाजित है, परंतु केन्द्र शक्ति का बड़ा स्रोत है। 1990 के बाद इस देश में व्यवहारिक स्तर पर कॉनफेडरल सिस्टम का विकास हुआ। इसमें केन्द्र की सत्ता कमजोर हुई राज्य अथवा प्रांतीय सरकारें मजबूत हुईं। शक्ति केन्द्र के इस स्थानांतरण ने समाज के भीतर गंभीर सामाजिक और मानसिक परिवर्तन किया है। इसने हाशिये पर पड़े समाजों के भीतर अपनी पहचान की छटपटाहट उत्पन्न की, हाशिये के समाज में मुख्यधारा में सम्मिलित होने की लालसा उत्पन्न की है। और नई राजनीतिक स्थितियों को गौर से देखने पर यह परिवर्तन हुआ भी प्रतीत होता है। इस मानसिक सामाजिक परिवर्तन ने 'मिस सैम्युएल: एक यहूदी गाथा', 'मिठो पानी खारो पानी' जैसी अनेक पुस्तकों को संभव बनाया है।
इसी बिन्दु पर इस प्रकार की रचनाओं की उपादेयता समझ आती है। बॉबी कहता है-''भारत में बसते यहूदियों की कहानी न गौरवपूर्ण है और न बहुत आशावादी। वह उदास करती है कि अपने देश से निर्वासित होकर दूसरे देश में बसे हुए उनके जाति बंधुओं या इसी देश में बसते दूसरे धर्मों के लोगों से उनकी कहानी इतनी भिन्न क्यों है?'' इस उपन्यास की कहानी भारत में बसे यहूदियों की कहानी है, जो न आशावादी है, न गौरवपूर्ण, बल्कि उदास करती है। फिर हम ऐसी रचना क्यों पढ़ें? प्राथमिक रूप से इसको पढऩा जरूरी है- मानवता के विकास की असंगतियों को समझने के लिए साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता, असहिष्णुता समाज को कैसे ध्वस्त करते हैं और सामाजिकों को बाँटते हैं- इसे हम जानते हैं। इन असंगतियों को जानकर उन्हें समझकर ही एक ज्यादा मानवीय समाज की परिकल्पना को साकार कर सकते हैं। दूसरे ऐसी पुस्तकें इतिहास की बुनियादी समझ को बदलती हैं। लिखित इतिहास मुख्यत: और मूलत: सत्ताधारी वर्ग और बहुसंख्यक आबादी के दृष्टिकोण से लिखा जाता है, लिखा गया है। इस बहुसंख्यक दृष्टिकोण से समाज और इतिहास को देखने का ही तो परिणाम है कि 2000 वर्ष से इस देश में रहते एक धर्म के नागरिकों को पूछना पड़ता है कि 'इसी देश में बसते दूसरे धर्मों के लोगों से कहानी इतनी भिन्न क्यों है?' 90 के बाद बदलता समाज और लगातार आती ऐसी रचनाएँ इतिहास की इस अवधारणा को तोड़ती है। चूँकि साहित्य ही सामाजिक ऐतिहासिक परिवर्तनों का प्राथमिक दस्तावेज होता है, अत: इतिहास की प्राथमिक समझ भी साहित्य ही प्रस्तावित करता है। ये प्राथमिक स्रोत बाद में इतिहास के लिए कच्ची सामग्री का कार्य करते हैं खासतौर से इतिहास दर्शन के निर्माण में।
इसके साथ ही इतिहास के कालानुक्रमिक अनुशासन पर भी यह किताब खरी उतरती है। यह यहूदी जाति का प्रामाणिक इतिहास प्रस्तुत करने की कोशिश करती है। बॉबी के लेख के अतिरिक्त भी यह जहाँ-तहाँ इतिहास और उसके दैनंदिन जीवन पर पडऩे वाले असर को प्रस्तुत करती है। इतिहास पर अपनी दृष्टि रखते हुए भी लेखिका ने उसे कहीं-कहीं खंडित भी किया है-''तो इतिहास की जानकारी ही तुम्हारी नजर में अंतिम ज्ञान है?'' ज्ञान के अनेक स्रोत हैं, जिसमें इतिहास भी एक है। परंतु ज्ञान के सारे स्रोत मानवीय जीवन को उन्नत बनाने के लिए हैं। परंतु अगर हम किसी जाति के बारे में नहीं जानते अथवा उस देश के इतिहास में किसी जाति का जिक्र नहीं है, तो वह नहीं है- ऐसा नहीं कहा जा सकता। हमारी अज्ञानता मानवीयता के लिए खतरनाक है। उससे भी खतरनाक है ज्ञान के स्रोतों से व्यवस्थित रूप से पहले किसी या किन्हीं समूहों को गायब करना और फिर उस अज्ञानता की जिम्मेवारी उन्हीं समूहों पर डालते दिखाई पडऩा।
बहरहाल, इस उपन्यास में इतिहास की अवधारणा मुख्यत: अस्मिता मूलक है। यहूदी अस्मिता की खोज और एक यहूदी के रूप में सामाजिकों को किन कष्टों से, मुसीबतों से सामना करना पड़ता है, उसकी पड़ताल की गई है। इसमें उपभोक्तावादी संस्कृति इस स्थिति को और बिगाड़ देती है- ''दिनोंदिन विकास के पथ पर उन्नति करते अमदावादियों को पैसे को दाँत से पकडऩा और दोनों हाथों से उड़ाना आ गया था। साइकिलों और बसों में चलने वाले लोगों के फ्लैटों के सामने दो-दो स्कूटर और एकाध फिएट खड़े होने लगे थे। लोग सैम्युएल डेविड के जिन रैक्जीन के सोफे और चीड़ के बने साधारण से डायनिंग टेबल को पहले, जब वे इस कॉलोनी में बसने आए थे तब, प्रशंसात्मक दृष्टि से देखते थे उनके घरों में सोने के मन्दिर और चाँदी के झूमर स्थापित हो गये थे। घर में बजती दो-दो टेलिफोन की घंटियाँ सुनते वे अपने घरों को बड़ा ही नहीं किन्तु नायाब भी बनवा रहे थे। सीमा ने पापा को कई बार अपने मैले पायजामे में नए बनते फ्लैट के सामने मुँह खोले, भौंचक्के होकर देखते पाया है।'' उपभोक्तावादी संस्कृति, सामाजिक विकास की एकांगी विकास पद्धतियों और व्यवस्था के भीतर बढ़ती अनुदारता एक ऐसी संस्कृति को जन्म देते हैं, जिसमें वृद्ध होते ही सामाजिक अप्रासंगिक हो जाता है। एक नौजवान के रूप में जिस परिवार को वह बनाता है, उस परिवार के इर्दगिर्द ही उसका जीवन होता है। (खासतौर से स्त्रियों का जीवन) और जब उनके बच्चों की शादी होती, नई गृहस्थी की शुरुआत होती है, ये लोग पुराने पड़ जाते हैं। इसमें युवाओं के पक्ष में खड़े होना अथवा वृद्धों के पक्ष में खड़े होना किसी महत्व का नहीं है। यह भी हमारे समाज के विकास की अंतर्संगति है। भूमंडलीकरण के दौर से या उससे भी पहले सन् 1970-75 के दौर में एकल परिवार की अवधारणा जोर पकडऩे लगती है। 1990 के बाद में बढ़ती उपभोक्तावादी पूंजीवादी व्यवस्था के कारण एकल परिवार की अवधारणा और जोर पकड़ती है। कई बार तो माँ-बाप के प्रति सम्मान के बावजूद अथवा बच्चों के प्रति स्नेह के बावजूद आर्थिक जरूरतों की रगड़ में परिवार फट जाता है। कई बार व्यक्तित्व की आजादी की इच्छा में परिवार फट जाते हैं। और ऊपर की तरह मैं फिर कहूँगा कि शुरू से ही उन्हें माता-पिता अवचेतन रूप से इस स्थिति की ओर धकेलते रहते हैं। शिक्षा, परिवेश, परवरिश से आधे भारतीय, आधे अमेरिकी हम न समाज और परिवार की कद्र कर पाते हैं और न अति आत्मकेन्द्रित हो पाते हैं। भारत में अधिकांश परिवार इतने साधन सम्पन्न भी नहीं होते कि बच्चों का विवाह कर उन्हें अलग जीवन जीने के लिए प्रेरित करें। मानसिकता भी नहीं है। बच्चों को वृद्धावस्था का सहारा माना जाता है, वहीं बच्चे एकलवादी मानसिकता के तहत नई गृहस्थी में, कामकाज में व्यस्त होते, अपने बुजुर्गों से कटते चले जाते हैं। वृद्धावस्था की समस्या भी भारतीय के विकास के अंतर्विरोध से उपज रही है और दिनोंदिन इस समस्या में इजाफा हो रहा है।
ऊपर जिस तटस्थता की बात मैंने की उसका तात्पर्य यह नहीं है कि इन वृद्धों का दुख हमें करुण नहीं बनाता। हमें दुखी नहीं करता। सामाजिक अगर जन्म लेगा तो वृद्ध तो होगा ही। इस वृद्धावस्था को ज्यादा गरिमापूर्ण बनाने के दिशा में समाज का, शासन का, सरकार का सहयोग होना चाहिए अन्यथा मल्टीप्लैक्स, मॉल्स तथा मल्टीनेशनल्स की आधुनिक कूदती फाँदती संस्कृति के कारण अपजे असंतोष, बेरोजगारी, दबंगई और उदासीनता तथा दिन-ब-दिन अरबपति-खरबपति होने की दौड़ में भागते इस विश्व में बूढ़ों के लिए कितना समय बचा है? और इसकी अनिवार्य परिणति है उनके जीवन के बदरंग होने में- यहाँ से वहाँ सफेद रंग का साम्राज्य फैला पड़ा है। दीवारें, छत, चद्दर और बचा हुआ उत्स!  एक स्तर पर तो यह परिसर की भौतिक स्थिति है। दूसरे स्तर पर मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के सारे रंग समाप्त होकर आगे के अपेक्षाकृत सरल, सपाट जीवन का संकेत भी है। यहाँ विस्मयादिबोधक चिन्ह विस्मय के साथ विडम्बना को भी प्रस्तावित करता है। यह विस्मय अपने पिछले जीवन की विडम्बना से ही उभरा है। विडम्बना यह है कि भारतीय समाज में स्त्रियों की जिंदगी, परिवार और बच्चों के इर्द-गिर्द घूमती है। ये पत्नि बच्चों की सेवा में, उनके लिए श्रम और संघर्ष करती हुई जीती हैं। इन्होंने शायद अपने लिए कभी जिया ही नहीं। मैं इस तथ्य को सिर्फ  वृद्धावस्था की समस्या के रूप में न देखकर स्त्री जीवन मात्र की समस्या के रूप में देखता हूँ, जो वृद्धावस्था के साथ और जटिल हो जाती है। जिनका सारा जीवन बच्चों और पति के लिए श्रम और संघर्ष करते बीता हो, स्त्री अपने बच्चों के लालन-पालन में अपने सुख-सुविधाओं, लालसाओं, आकांक्षाओं को त्यागती हैं या स्थगित करती हैं, वे ही अशक्त होने पर समाज द्वारा त्याग दी जाती हैं। तो यह विडम्बनात्मक स्थिति ही है। परिवार के साथ ही जब जीवन का रंग है, तो परिवार के जाते ही जीवन का वह रंग भी चला जाता है। इसलिए महिलाओं के जीवन में भी सफेदी का रंग फैल गया है।
मैंने ऊपर भी कहा कि वृद्धावस्था की समस्या को मैं स्त्री जीवन की समस्या के साथ मिलाकर देख रहा हूँ। स्त्री अस्मिता के तलाश का इतिहास मादा से एक एकल सामाजिक एकल बनने का इतिहास है। परंतु रमा आज्जी कहती है- मनुष्य योनी को छोड़ दो तो संसार की कौन-सी मादा याद रखती है ताउम्र अपने जायों को और भूलती है? फिर अपनों ने याद रखा या भुला दिया... इसे लेकर ऐसा बावेला क्यों? यह स्त्री की दृष्टि से मनुष्य के विकास की विसंगतियाँ हैं। स्त्री तो विकास की मात्र द्रष्टा है। यह कैसा विसंगतिमूलक विकास है कि जिसमें स्त्री खुद ही स्त्री को मात्र मादा समझे। 'मादा' जैविकता में जानवर की श्रेणी में चला जाता है। जबकि मनुष्यता जैविकता के सामान्य सिद्धांतों का अतिक्रमण करती है।
सीमा की भतीजी सारा सीमा के संदर्भ में कहती है- विरोधाभासी जीवन जटिल ही नहीं अपितु असाध्य बन जाता है। दुनिया की आधी आबादी इसी दुष्चक्र में फंसी हुई दिखती है। और सारा की बहन मिली उसके लिए कहती है- सारा बेबाक है। उसके बेबाक होने में कोई खतरा भी नहीं क्योंकि उसने जीवन को गृहस्थी से जोड़कर कभी देखा ही नहीं है इसलिए दुष्कर परिस्थितियों से उपजते संताप, अवसाद, पश्चात् या निष्क्रियता का अर्थ वह कैसे जान सकती है? कहने का तात्पर्य यह है कि स्त्री जीवन विरोधाभासी है, संताप, अवसाद, पश्चाताप और निष्क्रियता से भरा है, तो इसकी जिम्मेवारी सामाजिक प्रक्रियाओं पर है, न कि स्त्रियों के व्यक्तित्व में। शताब्दियों से घर में दबी, कुचली, सिमटी स्त्रियाँ बाहर निकलती भी हैं, तो उनके सभी निर्णय सटीक और ठीक हों, यह अनिवार्य नहीं है। बाहर निकली स्वावलंबी तथा आत्मलंबी स्त्रियों का भी पुरुष शोषण करता है। कभी प्रेम के नाम पर, कभी भावना से खेल कर। मिस मैरी वर्गीज अथवा सीमा के अनुभव इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। एक बिम्ब शीला रोहेकर ने कई स्थलों पर खींचा है- खिड़की के सलाखों से चन्द्र की शीतल कोर मुझे देखकर मुस्कुराती है! क्यों? मैं पूछती हूँ। देखती हूँ कि उसकी मुस्कुराहट बिल्कुल तहमीना की मुस्कुराहट हो गई है जब वह किसी पुरुष को देखती थी। और पापा उसे एकटक देखे जा रहे हैं। अँधेरे में आंखें खोल मैं अभ्यस्त होती हूँ तो पाती हूँ कि पापा खिड़की की पट्टी से कुछ उठाकर फेंक रहे हैं। तभी चम्पा रबारन घर का काम करके नीचे सीढिय़ाँ उतर रही है तो पापा उसका हाथ पकड़कर उसे खींच रहे हैं। पापा की बुढ़ाती उंगलियाँ चम्पा के वक्ष की ओर सरक रही हैं। चम्पा खिलखिलाकर हँसती है तो पापा जेब से निकालकर कुछ देते हैं। वह आंख मारती है! अरे! यह तो मैरी है... मैं अचम्भित होती सोचती हूँ और पाती हूँ कि जोएल गैरशोन मेरी ओर बढ़ रहा है। उसके हाथ मेरे कपड़े नोच देते हैं, वह मेरी देह को, मेरे फूले पेट को देख ठठा कर हँसता है। सिगरेट का आखिरी कश पीकर वह मेरी दोनों जांघों पर टिमटिमाता बिन्दु मसल देता है और मेरे पर टूट पड़ता है। मैं छटपटाती चीखना चाहती हूँ किंतु मेरे मुँह पर जोएल की खुरदुरी, बलिष्ठ हथेली दबी है।
स्त्री जीवन की त्रासदी की एकरूपता ने इस बिम्ब का निर्माण किया।
इस उपन्यास के निर्माण में संरचना के स्तर पर सीमा जी ने एक खास तकनीक का इस्तेमाल किया है। उन्होंने एक संदर्भ में लिखा है- स्मृति विचित्र है। यादों की आवाजाही तरतीब से नहीं चलती। यादों की यह आवाजाही संदर्भानुकूल होती है। वैसे तो लगभग 50 वर्षों का इतिहास अथवा समय है इस उपन्यास में, किन्तु लेखिका ने इसी तकनीक से इसे दो हजार वर्षों में फैला दिया है। जैसे मन की स्मृतियों में तारतम्य नहीं होता, वैसे ही इस उपन्यास की घटनाओं में तारतम्यता नहीं है। घटनाएँ सीधी रेखा में नहीं बढ़ती। चरित्र भी एक साथ जीवन कथा के रूप में नहीं आए हैं। मसलन एक जगह पता चलता है बॉबी मर गया है, रेचल मर गई है। परंतु मरने का कारण तत्काल नहीं पता चलता। वह आगे जाकर पता चलता है किसी अन्य संदर्भ में। यह कठिन साधना जैसी है। ऊपर से देखने पर पूरी कहानी चरित्रों के माध्यम से विकसित होती है। परंतु इस विन्यास के कारण यह बात स्वयंपि खंडित हो जाती है। यह चरित्र जीवन के संदर्भों और घटनात्मकता में अपना अर्थ ग्रहण करते हैं। अर्थात् ये समय, समाज और इतिहास के प्रवाह में अपनी गति और सम्भाव्यता प्रकट करते हैं। इस प्रवाहपूर्ण सम्भाव्यता के कारण ही ये मात्र व्यक्ति चरित्र बनकर नहीं रह जाते अपितु समाज के उत्थान पतन, उसकी विभिन्न दशाओं को ध्वनित करने लगते हैं। इस संरचना के कारण ही चरित्र संयोजक की भूमिका में आ जाते हैं और कथा समाज के आंतरिक संरचनाओं की हो जाती है।
पूरी पुस्तक बाहर और भीतर के द्वंद्व में ही पूरी होती है। कभी बाहर भीतर का कोई दृश्य उकेर देता है, कभी भीतर की दुनिया बाहर आ जाती है और इसके समानांतर बाहर की दुनिया की निर्बाध गति तो है ही। साथ ही कथाकार ने एक विशिष्ट तकनीक अपनाई है इसमें। वह यह कि इस कथा का कोई एक नैरेटर नहीं। कथा सीमा, सारा, मिली आदि द्वारा नैरेट होती है। एक ही घटना, विवरण पर अलग लोगों की अलग राय हो सकती है अथवा एक ही घटना के कई सामाजिक संदर्भ हो सकते हैं, उसे कई कोणों से देखा जा सकता है, इस तथ्य को इस तकनीक के द्वारा कुशलतापूर्वक साधा है। कहीं-कहीं इसकी भाषा अस्पष्टता का शिकार हो जाती है। इस कारण पठनीयता भी क्षरित होती है। ये छोटे लूपहोल्स न होते तो यह नई सहस्राब्दी की उत्कृष्टम पुस्तक होती। इनके बावजूद यह बेहतर उपन्यास तो है ही।
मिस सैम्युएल की यहूदी गाथा की लेखिका ने धार्मिक; यहूदी, आर्थिक; मध्यवर्गीय और अस्मिता के त्रिक पर साधा है। एक स्वप्न में सीमा कहती है- खुशी से मैं चिल्लाती हूँ... अरे! मैं तो मर गई हूँ! कैसी त्रासद व्यवस्था का निर्माण किया हमने कि मरने वाला खुश हो जाए। ऐसे त्रासद समाज और समय में मनुष्य बनने की और बने रहने की कथा है- 'मिस सैम्युएल: एक यहूदी गाथा...।'

शीला रोहेकर स्वयं यहूदी हैं। वे उपन्यास के अनूठे शिल्प में अपनी गहरी प्रामाणिक अन्तर्दृष्टि के साथ भारतीय समाज में यहूदियों की उस नियति को रेखांकित करती हैं जिसमें यह जाति अपनी जगह खोजती हुई स्वयं खो गई है। शीला ने 1968 में कहानियां लिखना, प्रकाशित करवाना शुरू किया। 'दिनांत' और 'ताबीज़' दो उपन्यास प्रकाशित। लखनऊ में रहती हैं। मो. 09696368671




अमिताभ राय पहल में प्राय: लिख रहे हैं। परिचित है। पाठ आलोचना में उनक दिलचस्पी और कोशिश है। दिल्ली में अध्यापक है। मो. 09582502101

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