समाजवाद का संकट : सभ्यता का संकट

  • 160x120
    जनवरी 2016
श्रेणी समाजवाद का संकट : सभ्यता का संकट
संस्करण जनवरी 2016
लेखक का नाम अमिय कुमार बागची, बंगला से अनुवाद : प्रमोद बेडिय़ा





'अनुष्टुप' की पुरानी फाइल से/विमर्श चार




सारे यूरोप, मध्य और उत्तर एशिया के सभी देशों में कम्युनिस्ट पार्टियां सत्ता से बेदखल हो चुकी हैं या फिर वे अपना चोला बदलकर गणतांत्रिक या समाजवादी गणतांत्रिक वगैरह के पहचान पत्र लटका चुकी हैं। पृथ्वी के इतिहास में इतना बड़ा परिवर्तन, इतना त्वरित, इतने कम अस्त्रों के प्रयोग से तथा उतने ही कम रक्त क्षय के कभी नहीं हुआ है। इस परिवर्तन से दुनिया के अधिकांश लोग चकित हैं, फिर भी हर देश में इसकी प्रतिक्रिया भिन्न-भिन्न हैं।
पहली प्रतिक्रिया जो अख़बारों में सर्वाधिक प्रचारित हुई कि पूर्वी यूरोप में सत्ता परिवर्तन से मार्क्सवाद-लेनिनवाद की अन्त्येष्टि सम्पन्न हो चुकी है, परिणामत: गणतंत्र और धनतंत्र (पूंजीवाद) की हर ओर जय-जय है।
दूसरे प्रकार के लोग मानते हैं कि पूरे घटनाक्रम के पीछे साम्राज्यवाद तथा समाजवाद के विरूद्ध गोर्वोचोव-एलेत्सिन गोष्ठी की दुरभिसंधियां हैं। साम्राज्यवादी और राजनैतिक दुरभिसंधियों के तुलनामूलक महत्व पर कुछ मतान्तर हो सकता है, लेकिन ये दोनों शक्तियाँ इस युगांतकारी परिवर्तन के पीछे हैं, इसमें इन्हें कोई संदेह नहीं है।
तीसरी राय है कि पीठ में छुरा भौंकने की प्रक्रिया नई नहीं है, यह तो स्तालिन की मृत्यु के बाद ही शुरु हो गयी थी। ख्रुशचेव ने ही नव-संशोधनवाद की गंदी नाली अपने घर में घुसाई थी, जो धीरे-धीरे बाढ़ के रूप में सारे देश में बहने लगी।
चौथा मत है कि समाजवाद ख़त्म हो गया। यह युक्ति ही व्यर्थ है क्योंकि सोवियत यूनियन में कभी समाजवाद प्रतिष्ठित हुआ ही नहीं। इसके भी एकाधिक प्रकार हैं। एक मत यह है कि ज़ार शासित अनुन्नत देश में समाजवाद का गठन ही ग़लती थी। दूसरा मत यह कि कोशिश तो महत्त्वपूर्ण थी, लेकिन जब पश्चिमी-यूरोप के देशों में श्रमिक आंदोलनों के फलस्वरूप समाजवाद के आविर्भाव की कोई उम्मीद नहीं बची थी, तो ऐसे समय में पूंजीवादी देश में समाजवाद के गठन की कोशिश मूर्खता ही कही जाएगी।
तीसरी तरह के लोग सोचते हैं कि लेनिन के जीवित रहते हुए भी भिन्न मतावलंबियों पर वोल्सेविकों ने जिस दमन नीति का प्रयोग किया था उसमें ही स्तालिनवादी तानाशाही के बीज छुपे थे। एक वर्ग यह भी मानता है कि रूस में Collectivization या संयुक्त-भंडार के नाम पर किसानों पर अत्याचार हुए तथा अतिकेन्द्रीभूत परिकल्पित अर्थ-व्यवस्था का गठन हुआ, जो सोवियत रूस में समाजवाद के विघटन का कारण बने।
मेरी व्यक्तिगत राय उपरोक्त मतों से अलग है। सुनने में आपको उद्धतपूर्ण लग सकता है तथा उसकी सच्चाई पर भी संदेह हो सकता है। घटनावली के पर्यायक्रम में थोड़ी सच्चाई तो लगती है। पूर्वी-यूरोप के वस्तुत: अस्तित्वमय समाजवाद (really existing socialism) के पतन के कारण साम्राज्यवादी षड्यंत्रों में ही मिलेंगे, यह तो सत्य है। लेकिन यह सफल कैसे हुआ? अमेरिका की तो बात अलग है, क्यों के.जी.बी., फ्रांस, इटली, यहाँ तक कि स्पेन-पुर्तगाल को मार्क्सवादी-लेनिनवादी समाजवाद से जर्रा भर भी नहीं जोड़ पाये? और दीर्घ संग्राम के बाद भी, शत-प्रतिशत साक्षर सोवियत जनता क्यों साम्राज्यवादी षड्यंत्र का शिकार हुई? षड्यंत्र और विश्वासघात के तर्क-मानसिक आलस्य ही प्रमाणित होंगे - जब हम इन प्रश्नों के उत्तर खोजने लगेंगे।
जो विश्वासघात के सोच को मुद्दा मानते हैं, उनका निश्चित मत है कि सोवियत रूस में स्तालिन के समय से ही समाजवाद की प्रतिष्ठा हो चुकी थी और भविष्य भी स्तालिनवादी नीतियों में ही था। दूसरी ओर ऐसे लोग भी हैं जो यह मानते हैं कि सोवियत रूस में यथार्थ में कभी समाजवाद प्रतिष्ठित ही नहीं हो पाया, सो वह रहा या गया यह सोचना ही ग़लत है। अब इनमें कुछ लोग ऐसे भी मिलेंगे जो मार्क्सवाद-लेनिनवाद को राजनैतिक युद्ध का हथियार नहीं समझते। उनसे मैं तुरंत उलझना नहीं चाहता, फिर भी कभी इनके बारे में बात करेंगे। जो मार्क्सवाद-लेनिनवाद में यकीन रखते हैं और इससे भी एक कदम आगे जाकर माओ-त्से-तुंग के विचारों को मानते हैं, उनकी समाजवादी-धारणाओं को चुटकी में उड़ा देना, पलायन ही समझा जायेगा। बोल्सेविक क्रांति, चीन का कम्युनिस्ट विप्लव और वियतनाम की लड़ाई और क्रांति- ये सभी मार्क्सवादी-लेनिनवादी नेतृत्व पर ही आधारित थे। हर बार ही लेनिन के democratic centralism के सूत्र पर आधारित पार्टी का गठन हुआ, हर जगह जनता को बताना पड़ा है कि सर्वहारा की तानाशाही अथवा नये गणतंत्र का अर्थ सिर्फ व्यक्तिगत पूंजी का अवसान नहीं है बल्कि कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा परिचालित एक राष्ट्रीय, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था है। मार्क्सवाद-लेनिनवाद के नाम से ही अफ्रीका के कई देशों में राज्य बने हैं, जिनमें कांगो-ब्राजील, यूथोपिया, यहाँ तक कि अंगोला-मोजाम्बिक भी - समाजवाद के पूर्व जिनका - यूरोपीय या चीन-वियतनाम के राष्ट्रीय ढाँचे के साथ पूरा साम्य नहीं है। लेकिन अफ्रीका में ऐसे विघटनों को ऐतिहासिक जटिलताओं से पैदा हुआ ही मानते हैं। वोल्सेविक या चीन की क्रांति को यदि विघटन ही मान लिया जाये तो मार्क्सवादी-लेनिनवादी इंक़लाबों को किसी मािफया द्वारा प्रवर्तित विशाल मसखरी के अलावा क्या कहेंगे? मार्क्सवादी-लेनिनवादी मतों को मानते हुए इस इंकलाब की निरंतरता को कूड़े की तरह फेंक नहीं दिया जा सकता है।
अगर कोई अपने को मार्क्सवादी-लेनिनवादी नहीं मानते हुए भी समाजवाद में यकीन रखता है तो रूस और चीन की क्रांतियों की परंपराओं को नकारना सहज नहीं होगा। किसी दूसरे मतादर्श का अनुसरण कर दुनिया का कोई भी समाजवादी देश समाजवाद की परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर पाया है। ब्रिटेन, स्वीडन और नार्वे जैसे देशों में पूँजीवादी व्यवस्था में कुछ हेरफेर कर समाजवादी गणतंत्र के नाम पर व्यक्तिगत स्वामित्व की सहमति है, सहमति है वर्तमान विश्व में अजस्र गैरबराबर पूँजी वितरण की व्यवस्था की। कहा जा सकता है कि अभी तक उन्नत पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के बग़ैर समाजवादी स्वरूप जरा-सा भी सफल नहीं हुआ है। और विश्वव्यापी असमानता की प्रचंड आँधी और चंचला पूँजी की माँग जिस तरह से बढ़ती जा रही है, उसी तरह साम्यवादी राष्ट्र और समाज व्यवस्था, चाहे वह कोई भी हो, विपन्न होती जा रही है। साम्यवाद पर विश्वास रखने वाले किसी भी मनुष्य को इस परिस्थिति से पैदा हुए सतत् परिवर्तनशील उत्पादन के संपर्कों से मुकाबला करना  होगा। उत्पादन के नये संबंधों और सामाजिक आदर्शों के विश्लेषण में द्वंद्व-मूलक वस्तुवाद और यथार्थ पर आधारित ऐतिहासिक दर्शन अपनी उपस्थिति दर्ज कराता ही जाएगा। मार्क्सवाद-लेनिनवाद के सम्पूर्ण अस्वीकार से समानता पर आधारित कोई भी समाज संभव नहीं हो सकता, यह मेरी पक्की धारणा है।
अगर यही धारणा रही तो पूँजीवादी आघातों से विपन्न विश्व के दो-तिहाई मनुष्य एवं विश्व के एक-तिहाई गरीब, और भी प्रसारित पूँजीवाद का कैसा स्वप्न देखेंगे? विश्व के कुछ गिने-चुने पूँजीवादी देश, विश्व-राजनीति में, विश्व-दमन नीति में और युद्ध-शास्त्र की क्षमता में चोटी पर विराजमान हैं। यह क्षमता कितनी सूदूर-प्रवासी है उसका प्रत्यक्ष और हिंस्र प्रमाण 1990/91 के उपसागरीय युद्ध में मिला था। उस युद्ध में अमेरिका तथा उसके मित्र देशों की सरकारों ने आज़ादी की रक्षा के नाम पर, कई लाख ज़िंदगियों के बदले तथा कई हज़ार करोड़ डॉलर का नुकसान दूसरे देशों के मत्थे मढ़ कर कुवैत की अमीरशाही को वापस प्रतिष्ठित किया था। जिस सद्दाम हुसैन के विरुद्ध उनका अभियान था, उसे और भी हिंसक रूप में ईराक पर शोषण करने दिया गया। वास्तविक तथाकथित समाजवादी देशों ने या तो मौन सहमति से या सक्रिय सहायता देकर आज़ादी के इस अमानवीय प्रहसन को अभिनीत होने दिया। फिर 1991 के अगस्त महीने में इस साम्राज्यवादी पूँजीतंत्र का और भी परिचय मिला, जब बोरिस येलेत्सिन ने अमेरिकी राष्ट्रपति और ब्रिटिश प्रधानमंत्री से फ़ोन पर बात कर गार्वाचोव की बंदी दशा का अवसान किया और उसके साथ कतिपय भंडुए-अभ्युत्थानकारियों की कोशिशों को परास्त किया। इन घटनाओं की अफ्रीका में उन्नीसवीं शताब्दी में अमेरिकी तानाशाही अथवा दक्षिण या मध्य अमेरिका में, संयुक्त राष्ट्र संघ के नौ-सेना अथवा वायुसेना के अभियान से तुलना की जा सकती है।
जिस पूँजीवादी व्यवस्था में सर्वोन्नत देशों में भी बेकार लोगों की संख्या नौकरी के आकांक्षी लोगों का दस प्रतिशत से भी ज़्यादा है जिनकी छत्रछाया में अविकसित देशों में करोड़ों मनुष्य भूखे रहते हुए अद्र्धमृत-से रहते हैं, जिनके आशीर्वाद से फले-फूले अस्त्र-वणिक जब-जब सारी पृथ्वी को मारणास्त्रों से भरने की तैयारी में लगे रहते हैं, जिनके कार्यकलापों की प्रतिक्रिया स्वरूप पृथ्वी से वृक्ष, प्राणी, भूमीय जल, प्राण योग्य वायु गायब होती जा रही है, जिनके मरणोन्मुखी आक्रमण से समस्त मानवीय मूल्यबोध सामूहिक रूप से पतित होते जा रहे हैं, उस पूँजीवादी व्यवस्था का स्वप्न मानव जाति को क्या बचा पायेगा? पूरी मानव जाति अगर ये स्वप्न देखने लगे तो मेरा विश्वास है कि मानव नाम का जंतु ही नहीं, किसी भी तरह के अन्य जीव जन्तुओं का अस्तित्व ही पृथ्वी से लुप्त हो जायेगा। जापान के हिरोशिमा-नागासाकी से शुरु कर वियतनाम युद्ध में मार्किन युक्तराष्ट्र का भयावह हरितिमा निर्मूलन-अभियान के इतिहास से तथा अभी कुछ दिन पहले ही हुए हादसे, जिसमें नृशंसता-पूर्वक हजारों नारी-शिशुओं के आश्रय-स्थल अस्पतालों में, यहाँ तक कि गर्भस्थ शिशुओं पर बमों के विध्वंसक आक्रमण से यह साफ है कि पूँजीवादी शासकों के इसी विवेक पर मानव जाति को निर्भर होना पड़ा तो उनका कोई भविष्य नहीं होगा। किसी भी समय कोई भी दो क्षमतावान पूँजीवादी देशों के युद्ध से मनुष्य मात्र का भविष्य दांव पर लग सकता है। परमाण्विक बमों के अलावा भी ध्वंस की निरंतर क्षमता वाले इतने अस्त्र निर्माणों की कुशलता तथा सुविधाएं अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस एवं नये रूस के पास हैं, कि उनका सही हिसाब विश्व के सारे लोगों को आतंकित करने के लिए काफी है। जर्मनी और जापान के पास अभी कम से कम बहुत ज़्यादा अस्त्र-शस्त्र तो नहीं हैं लेकिन परमाण्विक अस्त्र अथवा दूर की मार करने वाले क्षेपणास्त्र वग़ैरह वे छह महीनों में बना सकते हैं। इस बीच जापान अपनी सेनाओं के पुनर्गठन में व्यस्त हो चुका है एवं अमेरिका को सितारा-युद्ध (स्टार-वार) की तैयारी के लिए कई युद्धास्त्र भी बेच चुका है। अब यदि जर्मनी और जापान के साथ अमेरिका का युद्ध होता है तो मनुष्य जाति का सामूहिक भविष्य ही नष्ट हो जायेगा। मनुष्य के अस्तित्व और सभ्यता के इस संकट से वह समाज-व्यवस्था ही निजात दिला सकती है, जहां यथार्थ में एक मंगल सामूहिक मंगल से जुड़ा होगा। जहाँ किसी दूसरे आदमी या औरत का शोषण कर दूसरे आदमी या औरत का कोई स्वार्थ सिद्ध नहीं हो सकता। सामाजिक समाजवाद ही मनुष्य की मुक्ति और आदमी और औरत के व्यक्तित्व के विकास का पथ दिखा सकता है। अपने स्वार्थ से ही सामूहिक स्वार्थ को मान कर चलने का दबाव बनाना मैं कोई विवेकसंगत राय नहीं मानता; बल्कि समाज तंत्र ही ऐसा बनाना चाहिये, जिसमें स्वाभाविक ही व्यक्तिगत स्वार्थ का अतिक्रमण कर सामूहिक मंगल तथा जीवन के प्रति संतोष का भाव बना रहे। विभिन्न देशों में विभिन्न काल में सामूहिक मंगल से व्यक्ति मंगल का यह जुड़ाव भी विभिन्न रूप लेता रहेगा। लेकिन यह भिन्न रुचियों वाली समाज केन्द्रित व्यवस्थाएं किसी हिंसक संघातों में लिप्त न हो पायें, यह कोशिश भी करते रहना होगी तथा उपयुक्त आदर्शों से जनता को प्रेरित करते रहना इस सामाजिक समाजवादी संग्राम का प्रधान लक्ष्य होगा।
साम्राज्यवादी, पूँजीवादी समाज मनुष्य का दीर्घस्थायी तो क्या, ज़्यादातर लोगों का क्षणिक भला भी नहीं कर सकता, यह बोध अगर मनुष्य संस्कार में शामिल हो जाये तो समाजवाद की लड़ाई की धारावाहिकता बनी रहेगी। पूर्वी यूरोप की घटनावली का विमर्श ज़रूर ही उस लड़ाई का हिस्सा रहेगा। बिना किसी पूर्वग्रह के लेनिन, ट्राटस्की, बुखारिन, स्तालिन से वालेसा, हेवल तथा गोरवोचोव के समय का पुनर्मूल्यांकन करना होगा। यह मूल्यांकन सिर्फ अतीत को खंगालने से नहीं होगा, बल्कि उसका वर्तमान में मनुष्य के मन पर क्या प्रभाव पड़ा है, वह भी देखना होगा। अगर किसी वस्तुवादी नज़रिये से ऐसा लगे कि स्तालिन के समय खेतों को राष्ट्र के अधीन और फ़सल को सामूहिक भंडारण के अन्तर्गत लाना ही एकमात्र उपाय था, तथा लाखों किसानों की मौत या निर्वासन, साम्राज्यवादी शक्तियों के विरुद्ध सोवियत रूस के अदम्य प्रतिरोध को मज़बूत कर पाया था, तब भी हमें यह तो पूछना ही होगा कि क्यों 1970/80 के दशक में लाखों वीरों के बलिदान को एक सत्तालोभी शासक के अहंकार का प्रतिफलन समझा गया? और यह भी तो पूछना होगा कि क्यों सोलझेनित्सिन जैसे लगभग पागल लेकिन ताकतवर लेखक को ब्रेजनेव के दल ने निर्वासन में भेजना ज़रूरी समझा, और यह भी कि इतिहास के दूसरे ही अंक में उसे ही क्यों दुबारा स्थापित किया?
आदिम इतिहास का अस्वीकार या उसकी प्रचलित कथाओं की उपेक्षा से उस इतिहास के समाज को नहीं बदला जा सकता है। कुख्यात हॉलवेल मानुमेंट्स के ध्वंस से शुरू कर माय कर्ज़न और आउटरमा की मूर्तियों के ध्वंस का आंदोलन तो तीन पीढिय़ों से होते हुए सफल भी रहा; लेकिन उससे बंगाली मध्यवित्त तथा कुलीन लोगों  में अंग्रेज़ों के प्रति तथा पाश्चात्य सभ्यता की रंगीनियों के प्रति आकर्षण भी बढ़ता रहा (उस सभ्यता का सारतत्व गोरी संस्कृति के उपासकों के लिये भी गुहा में समाए रहस्य-सा है)। उसी तरह स्तालिन के प्रति क्रोध और घृणा  से स्तालिन के बाद के रूस की जनता के समाजवाद के प्रति विद्रोह और घृणा की व्याख्या नहीं की जा सकती।
स्तालिन युग-खासकर 1970 के समाज को गठिया हो गया था, सो प्रगति अत्यंत थकी-सी अथवा रुकी-सी रह गयी थी। ऐसा किन कारणों से हुआ, इसकी व्याख्या अन्यत्र चल रही है, एवं उन गलतियों का खतियान हमारे जीवन में तो होने  से रहा। सोवियत राष्ट्र-व्यवस्था में अंतर्निहित प्रवणताएँ, नौकरशाही का अतिकेन्द्रीभूतीकरण, कई मामलों में राजनैतिक गणतंत्र का अभाव, उत्पादन व्यवस्था और वैज्ञानिक प्रयुक्तियों में व्यवधान, कृषि में दीर्घस्थायी गतिशीलता का अभाव तथा विश्व के, खासकर पूँजीवादी देशों के दबाव में सेना और युद्धास्त्रों में अनाप-शनाप विनियोग, जनता और शासन में समझदारी का अभाव और बाहर के शत्रुओं में डर से पैदा हुई खुली आलोचना से वातावरण का दूषित होते जाना, प्रयोगों के विभिन्न विभागों में पश्चिम की तुलना में पिछड़ते जाना- ये सारे विमर्श ही उस इतिहास के पन्नों में आलोचित होंगे। मैं यहाँ कुछ खास तरह की विफलताओं और जनता पर उन विफलताओं के प्रभाव की व्याख्या करूँगा।
सोवियत और पूर्वी यूरोप के सभी देशों में भौतिक उन्नति 1950/60 के दशक में दुनिया के बाकी देशों से ज्यादा थी। उस समय कुछ ज़रूरी सामग्रियों का अभाव तो था, लेकिन युद्ध के बाद पुनर्गठन की सफलता से वह अभाव घटता जा रहा था। खाद्य, वास-स्थान, शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी सामग्रियों तथा सेवा उत्पादनों की उन्नति हो रही थी। 1970 से आर्थिक विकास अवरुद्ध होने लगा। साथ ही ज़रूरी सामानों  का अभाव भी होने लगा। पूँजीवादी देशों में भी आर्थिक संकट आरंभ हो चुका था - द्रव्य-मूल्य और बेकारी दोनों बढ़ते जा रहे थे। लेकिन तब भी जापान और जर्मनी की उन्नति लगभग धारावाहिक थी, साथ ही नई-नई भोग्य सामग्रियों से सभी विकसित पूँजीवादी देशों के बाज़ार भरे रहते थे। रंगीन टी.वी., संगीत के नये उपकरण, व्यक्तिगत कम्प्यूटर, तरह-तरह के लोक-लुभावन कपड़े और नए मनमोहक दूरदर्शन-माध्यम सोवियत जनता को लुभाते जा रहे थे। 1971 में एरोफ्लाइट के विमान से दिल्ली से मॉस्को की यात्रा याद है। यह जहाज हाँगकाँग से छूटा था। यात्री केबिन में जाते ही देखा, पहली कतार की कुछ सीटों पर कुछ कार्टून पड़े थे। जाँच करने से पता चला कि ये कार्टून हाँगकाँग से विमान के कर्मियों के निजी सामान के रूप में लाये गये हैं। मेरे विमान यात्रा के अनुभवों में यह विरल दृश्य ही था।
विमान के लगेज बॉक्स में सामान रखने के बाद यात्री-सीटों में कमी ला, विमान की सुरक्षा को नज़रअंदाज़ कर केबिन में ही उनकी आकांक्षित वस्तुओं को रखने दिया जाता था। मनुष्य में लालच और कालाबाज़ारी की प्रवृत्ति किस कदर बढ़ गई है, उसका यह प्रत्यक्ष प्रमाण था। लेकिन रूस पहुँच कर पाश्चात्य और जापानी वस्तुओं के प्रति अदम्य लोभ और सापेक्षिक कालाबाज़ारी मेरी ही नहीं और भी बहुत सारे पर्यटकों की नज़र में तो आयी ही थी। साथ ही, काम की इच्छा के घटते जाने से, खदानों में, खेतों में, कारखानों में संकट घनीभूत होता जा रहा था। सोवियत यूनियन में हर सक्षम आदमी औरत के लिए काम की गारंटी थी। लेकिन यह काम उनके लिए अर्थहीन होता जा रहा था, क्योंकि इसके एवज़ में उन्हें न तो विप्लव का संगीत सुनाई दे रहा था और न ही आवश्यक सामान मिल पा रहे थे। सो अनेक जगहों पर काम बेकारी में बदलता जा रहा था।
प्रतिश्रुति, प्रचार और वास्तविकता में यह फ़र्क आवश्यक वस्तुओं में या कार्य-स्थलों में मज़दूर और व्यवस्थापक-मजदूर में नहीं बढ़ा था, अन्य कई मामलों में भी समाज की प्रगति जैसे बंध गई हो, ऐसा प्रतीत होने लगा था। रूस किसी समय आम आदमी की शिक्षा, संस्कृति और चिकित्सा का स्वर्ग समझा जाने लगा था। 1965 में रूस की औसत आयु (65 साल) विश्व में ईष्र्या का विषय थी। लेकिन यह भी यहाँ पर जैसे थम सी गई थी। 1980 में जापानियों की औसत आयु 78 तक पहुंच गई तथा समाजवादी चिकित्सा प्रयोगों की सफलताओं से क्यूबा जैसे गरीब देश में 73 छू गयी, तब रूस में वह 70 पर अटक गयी थी। 1987 में पाँच साल के नीचे के शिशुओं की मृत्यु दर वहाँ प्रति-हजार 32 थी, तो अमेरिका में 13, हाँगकाँग में 10 और जापान में सिर्फ 8 (भारत में उस समय -149, पाकिस्तान में - 166, और बांग्लादेश में - 188 थी)। कारण कई हो सकते हैं, जैसे रूसी पुरुषों में अत्यधिक मद्यपान की आदतें और उनकी महिलाओं पर नौकरी और घरेलू काम का अमानविक दबाव। डॉक्टरों के पास उपयुक्त दवाओं और जरूरी तकनीक का अभाव। आम अस्पतालों में सामान्य कामों में गिरावट; आदि बहुत से कारण बताये जा सकते हैं। सोवियत यूनियन के स्वास्थ्य की पाश्र्व गति पूर्वी यूरोप के सभी देशों में समान रूप से पिछड़ी नहीं थी - पूर्वी जर्मनी की औसत आयु 1987 में 74 और शिशु मृत्यु दर 12 थी। पोलैण्ड के बारे में अफवाहों की कमी नहीं रही, लेकिन उसी समय वहाँ की औसत आयु 72 थी और शिशु मृत्यु दर थी - 18 (UNDP : Human Development Report 1990 NewYork, Oxford University, 1990, pp. 134-135)। समाजवाद से हर जगह एक तरह से निराशा पैदा हुई। उम्मीद के प्रकार भी अलग-अलग थे: पूर्वी जर्मनी के लोग अपनी तुलना पश्चिमी जर्मनी से करते थे। पोलैण्ड में रोमन कैथोलिक पादरियों और पूंजीवादियों के चमचों ने बहुत मिथ्या प्रचार किये, सो वे अपने को अमेरिका के पोलिश लोगों से जोडऩे लगे। बहरहाल, उम्मीद कुछ भी कर लें, लेकिन आम आदमी जब देखता है कि स्वास्थ्य सम्बन्धी मानदण्डों पर सर्व शक्तिशाली समाजवादी देश कई पूँजीवादी देशों से पिछड़ते जा रहे हैं तो समाजवाद में उसकी आस्था कमजोर तो होती ही है।
* * *
समाजवादी शासन के पक्ष में यह भी कहा जाता है कि पूँजीवादी व्यवस्था की तुलना में सामाजिक परिवेश वहाँ बेहतर होता है। मुनाफ़े के लोभ और प्रतियोगिता के दबाव में उत्पादन संस्थाएँ जलवायु को दूषित करती हैं तथा सारी नैसर्गिक सम्पदा का आपात् विनाश करती हैं। इस दूषण का फल सामयिक और भविष्य की पीढिय़ों को भोगना होता है। यह प्रमाणित ही है कि पूर्वी यूरोप के कई देश- जैसे पोलैण्ड, पूर्वी जर्मनी तथा सोवियत यूनियन के बहुत से उत्पादक - पूँजीवादी देश के किसी भी उत्पादक की तरह ही, परिवेश के दूषण के उतने ही दोषी हैं जितने वे। पूर्वी जर्मनी और पौलेण्ड की बहुत सी नदियों का जल प्रदूषण की वजह से पीने के क़ाबिल नहीं रह गया। रूस के ऊड़ाल तालाब का पानी, उसमें मिलती नदियों और दूसरे स्रोतों से आते रसायनिक प्रभावों के कारण पूर्णतया दूषित हो चुका है। इन अवांछित पदार्थों के जमाव की वजह से तालाब का आयतन भी सिकुड़ गया है। स्वभावत: इस दूषण से कई पुराने रोग वापस लौट रहे हैं और नये रोगों की उत्पत्ति से शिशु मृत्यु-दर भी बढ़ती ही जा रही है। मनुष्य की कार्य-क्षमता में भी निरंतर कमी आती जा रही है।
इस तालिका का विस्तार नहीं करूंगा। अगर राष्ट्र केन्द्रित समाजवाद ही इसका कारण होता है तो सोवियत रूस के गठन से 1960 तक आम आदमी की दरिद्रता घटती जाती है तथा शिक्षा, स्वास्थ्य और सांस्कृतिक संस्कारों में उन्नति नज़र नहीं आती। जबकि चीन, विएतनाम, क्यूबा जैसे अपेक्षाकृत ग़रीब देशों में शिक्षा, स्वास्थ्य और औसत आयु की उन्नति, समाज परिवर्तन में राज्य के हस्तक्षेप के बिना संभव ही नहीं थी।
लेकिन पहले ही कहा था कि रूस की इस राज्याश्रयी समाजवाद की चाल 1970 तक स्फीत होने लगी। सिर्फ ब्रेज़नेव या 'विश्वासघातक' गोर्वोचव पर सारा दोष मढ़ देना तिरछी नजर से देखना होगा। यहाँ अपर फ्लोर के लोगों के मुनाफे की और 'तू मुझे धो मैं तुझे धोऊँ' की निरंतरता बनी। लेकिन यह भी ठीक है कि उसी समय सोवियत राज्य ने तीसरी दुनिया के अनेक देशों को समाजवादी मदद का हाथ भी बढ़ाया था। वातग्रस्त प्रशासन और विश्वव्यापी महत्वाकांक्षा का अंतद्र्वद्व गोर्वोचव के समय साफ़ था। आवश्यक चीज़ों की कमी को सुधारने के लिए विनियोग के अनुपात को बदल कर सेना के ख़र्चों से समझौता किया गया। उत्पादन प्रणाली के ढुलमुल रवैये से वह संभव नहीं हो सका। कई मामलों में आवश्यक वस्तुओं पर अतिरिक्त उत्पादन सामग्री लगाने के बावजूद उपयुक्त प्रयुक्ति के अभाव में अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाये। उत्पादन के परिणाम और अनुपात को अंदर से बदलने की लगातार व्यर्थता के कारण सत्तासीन लोगों से लेकर जनता तक का मनोबल टूटता गया।
आर्थिक संस्कारों की कोशिशों की असफलता के अनेक कारण हैं। एक तो यह कि बाज़ार आधारित अर्थनीति को देश में आने तो दिया था, लेकिन उसके लिए न्यूनतम दक्षता और जो बाज़ारू संस्थागत आधार चाहिये, वह वहाँ उपस्थित ही नहीं हो पायी। अगर चीन से रूस की तुलना करें तो फर्क समझ में आ जायेगा। समाजवादी चीन के साथ पूँजीवादियों के सम्बंध बने हुये थे और हाँगकाँग और मकाऊ के जरिये चीन बहिर्जगत से सम्पर्क बनाये हुए था। 1970 के आरंभ तक यह सब गुरुत्वपूर्ण इसलिए भी रहा, कि अमेरिका और उसके मित्र देशों ने चीन के विरुद्ध आर्थिक अवरोध चला रखा था। तेंगयिाओ पेंग के काल में जब खुले दरवाजे की नीति अपनायी गयी तो नये उपायों से वस्तु वितरण को सजाने में खास मुश्किलें नहीं आयीं; क्योंकि छोटी दूकानों और कारखानों के व्यक्तिगत उपाय जीवित रखे गये थे। जब बाहर से पूँजी विनियोग की नीति घोषित हुई, तो सबसे ज़्यादा खुशी अनिवासी चीनी पूँजीपतियों को हुई। हाँगकाँग, मकाऊ, फिलिपीन्स, सिंगापुर, ताइवान से आकर उन लोगों ने नये कारखाने और कार्यालय यहाँ खोले।
रूस में दक्षता-सम्पन्न निजी पूँजी के पूँजीपति सत्तर सालों में विलुप्त हो चुके थे। जिनमें दक्षता थी याने सोवियत यहूदी, उन्हें देश-द्रोही करार दिया गया था। और ऐसे कोई बड़े पूँजीपति नज़र नहीं आ रहे हैं, जिन्हें अनिवासी रूस का निवासी समझा जाये।
इन जटिलताओं के अलावा एक जातिगत समस्या भी थी। सोवियत यूनियन और पूर्वी यूरोप में कई भाषाएँ बोलने वाले तथा भिन्न-भिन्न धर्मावलंबियों का रहवास था। राज्य पार्टी की नीतियों और आदेशों में इनमें सामग्रियों का आदान-प्रदान होता था। बाकू से बुल्गारिया, पोलैण्ड और पूर्वी जर्मनी में तेल जाता। पूर्वी जर्मनी और चेकोस्लोवाकिया से मशीनें सुदूर साइबेरिया तक जातीं। साइबेरिया से वन-सम्पदा का निर्यात यूक्रेन और हंगरी को होता। जब इस राज्य निर्मित व्यवस्था के बदले, बाजार की व्यवस्था आरंभ हुई तब समझ में आया कि चादर तो छोटी है। पैर ढंकते हैं तो सर उघड़ता है और सर...। अजरबइजान की जनता के मन में आया कि बाकू का तेल बुल्गारिया क्यों जायेगा? उस तेल के बदले ईरान से कार्पेट लाया जा सकता है। भेड़ का स्वादिष्ट मांस लाया जा सकता है। या फिर कज़ाकिस्तान से सस्ते में गेहूँ खरीदा जा सकता है। यह सारे उदाहरण तो दृष्टांत मात्र हैं। सोवियत राज्य द्वारा निर्धारित वितरण व्यवस्था का विशाल प्रसार आर्थिक संस्कार के लिये बाधक होने लगा था।
अभी सारे यूरोप और सोवियत यूनियन की कोशिशें है कि संस्कारों की तरफ न जाकर, सीधे इज़ारेदारों को मालिकाना हक सौंप कर पूँजीवाद की जड़े जमने दी जायें। राष्ट्र की मशीनरी से जुड़े कुछ पटु कर्णधारों को पहले ही आँच लग चुकी थी और महत्वपूर्ण जगहों पर ख़ास लोगों को पहले ही बैठा दिया गया था। मार्क्सवादी भाषा में जिसे primitive accumulation  कहते हैं वह सोवियत यूनियन और पूर्वी यूरोप में पहले ही शुरू हो चुका था। उसकी पद्धति लगभग यह है -
(1) Nomenklatura अर्थात् नौकरशाही और पार्टी-तंत्र के लोग कई मामलों में विदेशी व्यापार के माध्यम से विदेशी बैंकों में रुपया जमा करते हैं या विदेशी मुद्रा के रूप में देश में ही रखते हैं।
(2) समवाय संस्था बनाकर  बहुत लोगों ने राष्ट्र की सम्पत्ति कम मूल्य में खरीद कर अधिक दामों में बेचकर प्रचुर लाभ कमाया है।
(3) कुछ लोगों ने विदेशियों के साथ साझेदारी में व्यवसाय किया और राष्ट्र से अवैध सुविधाएं लेकर एकाधिकार जमा कर बहुत सा मुनाफा कमाया है।
(4) देशभर में काला बाजार का प्रभाव होने से दैनंन्दिन की चीजें गायब होती चली गयी हैं, इसलिए उन्हें ऊँचे दामों में खरीदना होता है, आलू-प्याज से शुरु कर, चॉकलेट, घर के सामान, टॉयोटा गाड़ी-सब की एक ही हालत है।
सोवियत राज्याश्रयी समाजवाद के विलोप के कारणों का निर्णय करना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये विस्तार में न जाकर अन्य प्रसंग पर लिखा जाये। यह जो परिवर्तन हुआ था उसमें समाजवाद के समय लोगों में जो मानसिक परिवर्तन आया उसकी बड़ी भूमिका रही। रोमानिया या अजरबइजान जैसी एकाध जगहों के अलावा जो युगांतकारी परिवर्तन हुआ वह बहुत ही कम रक्तपात से हुआ। राष्ट्रतंत्र और पार्टी के कामों से गणतंत्र जितना भी बाधित हुआ हो, लेकिन कम्युनिस्ट शासित देशों में सामाजिकता में अद्भुत रूप से यह गणतंत्र मौजूद था। सामंतवाद और पूँजीवाद का विलोप प्राय: हर देश में हो चुका था। पोलैण्ड जैसे देश के अलावा समाज में पंडितों का प्रभाव नगण्य था। जाति और धर्म के आधार पर सोवियत यूनियन में मनुष्यों में आपस में फ$र्क नहीं था। मर्दों और औरतों में साम्य और गणतंत्र का आदर्श जड़ें जमा चुका था। इसीलिए गोर्वोचेव विरोधियों के लिये सिर्फ फतवे जारी कर व्यवस्था बदलना संभव नहीं हुआ।
सोवियत यूनियन में कम्युनिस्ट सत्ता के पतन के लिये लेनिन-स्तालिन को जातीयतावाद और बहुजातीय आधार पर राष्ट्र के गठन के लिये ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। क्या इसलिए यह पतन हुआ था? बल्कि कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण राजनैतिक गणतंत्र पर आधारित बहुजातीय-समन्वित राष्ट्र नहीं बना पाने की वजह से ही संकट बढ़ा और इसी से जातिद्वंद्व का अभ्युदय हुआ। यहाँ भी सामाजिक साम्य और राजनैतिक गणतंत्र में विरोध, राष्ट्र-व्यवस्था के ध्वंस के दावानल में चिनगारी का काम करता दिखा। सोवियत यूनियन में हर भाषा, साहित्य और संस्कृति की उन्नति की अनवरत कोशिशें हुई। सोवियत-मध्य एशिया के देशों में जिस तरह शिक्षा और चेतना का प्रसार हुआ था उसकी तुलना पड़ौसी गैर-समाजवादी देशों से नहीं की जा सकती। इन देशों में भौतिक विषयों पर ध्यान दिया गया है। कुछ तह में उतरने पर पता चलेगा कि कई छोटे अंग-राज्यों को यूरोपीय रशिया और यूक्रेन से खुली सहायता मिली है। लेकिन इन क्षुद्र जातीय समूहों में जातीय चेतना और आर्थिक गतिशीलता के साथ राजनैतिक गणतंत्र का प्रसार नहीं हो सका। दरअसल यूरोपीय रशिया की कम्युनिस्ट पार्टी ने दूसरे राज्यों की पार्टी पर अंकुश रखते हुए अपना नायकत्व जाहिर किया है। सोवियत राष्ट्र व्यवस्था के अवसान के अंतिम अध्याय में विभिन्न जातियों में जो अभ्युत्थान छुपा था, उसकी वज़ह यह थी कि सोवियत व्यवस्था में सद्गति सच में ही हुई थी। बाद में, खासकर गोर्वोचोव के ज़माने में आर्थिक संस्कारों की लगातार व्यर्थता से उन्हें लगा कि यूरोपीय रशिया की नेतृत्व क्षमता लुप्त हो चुकी है।
सोवियत रशिया के इस पतन का परिणाम क्या होगा? अभी कुछ दिनों पहले तक रूसी नेताओं और जनता की बातों से लग रहा था कि देश में मुक्त बाज़ार की खुली हवाएं चलने लगेंगी और जिसका जो मन होगा खायेगा, जैसी पहनने की इच्छा होगी वही पहनेगा ओढ़ेगा। जैसा संगीत सुनना है वह डिस्को पर बजेगा और उसके पैर उसी धुन पर थिरकते रहेंगे। लेकिन कुछ लोगों की सोच यह भी थी कि मुक्त आर्थिक नीति होने से पश्चिम यूरोप, अमेरिका और जापान के अनगिनत धन-कुबेर, पूर्वी यूरोप के देशों एवं सोवियत यूनियन में अपनी पूँजी का निवेश करेंगे। पोलैण्ड और पूर्वी जर्मनी के अनुभव से उनकी यह धारणाएँ गलत साबित हुईं। पौलेण्ड में मुद्रास्फीति और बेकारों की बढ़ती संख्या उनके दुखद इतिहास की सारी सीमाओं को पछाड़ चुकी है। वैसा ही बेकारों का हाल पूर्वी जर्मनी में है। हालांकि पूर्वी यूरोप में पश्चिमी जर्मनी के पूँजीपतिगण वहाँ की दूकानें और कारखाने पानी के भाव में खरीदकर लेशमात्र पूँजी का विनियोग भी कर रहे हैं। लेकिन पौलेण्ड, बुल्गारिया और रोमानिया में तो यह भी नहीं हुआ है। सोवियत यूनियन में पूँजीपति विनियोग के लिये उत्सुक होंगे भी क्यों? जहाँ का श्रमिक शिक्षित है, दक्ष है - वहाँ की प्रयुक्ति पश्चिम यूरोप, अमरीका और जापान के अलावा और देशों से उन्नत हैं। लेकिन विदेशी पूँजीपति को चाहिये तुरंत मुनाफा तथा अपनी पूँजी के भविष्य की सुरक्षा। रूस के राज्यों में जो ढुलमुल परिस्थिति है, वैसी अवस्था में उन सरकारों पर ये पूँजीपति कैसे विश्वास करें? और रूस देश में जिन कामगारों ने कल तक मार्क्सवाद-लेनिनवाद के गुण गाये हैं, क्या वे बच्चों की तरह सब कुछ देखते रहेंगे और विरोध ही नहीं करेंगे - यह उम्मीद तो उनसे की ही नहीं जा सकती। हालांकि बोरिस येलेत्सीन-पंथियों जैसे अद्र्ध-फासिस्ट सरकार ने वैसा ही करने की कोशिशें की है। लेकिन वे कितनी सफल होंगी, कहना मुश्किल है। यहाँ यह याद आना स्वाभाविक ही है कि पोलैण्ड में पूँजीवादी और गिर्जामुखी मगज धुलाई 1981 से चल रही है, फिर भी श्रमिक वर्ग उनके प्रभाव की जद में कैसे आया? कहना मुश्किल है। निजी पूँजी के अलावा गोर्वोचोव समर्थक लोगों को उम्मीद थी कि द्वितीय विश्व युद्ध की मार्शल योजनाओं की तरह, पश्चिमी देश अगर मुक्त-हस्त से रशिया राज्य समूह की भौतिक सहायता करें तो समाजवाद को पूँजीवाद की ओर मोडऩे में आसानी होगी। लेकिन इस 'अभ्युत्थान' के परिणामस्वरूप सारी आशाओं पर पानी फिर गया। बिना एक भी गोली चलाये अमरीका, ब्रिटिश और फ्रांस ने सोवियत यूनियन को टुकड़े-टुकड़े कर दिया है। धनी पूँजीवादी देशों में भी संकट काल चल रहा है। ऐसे में वे रूसी राज्यों के प्रति सदाशय क्यों होंगे? अभी तो लगता है कि आगामी दस वर्षों में रूस के राज्यों की जो हालत होगी, उसकी तुलना सिर्फ लैटिन अमेरिका के ब्राजील, अर्जेंटिना आदि देशों से की जा सकती है - ऊँची मुद्रास्फीति, क्रमश: बढ़ती जा रही बेकारी, साथ ही अपराध वृद्धि और अमीर-गरीब के बीच की बढ़ती खाई। इनसे बचने के उपाय रशिया और मध्य-पश्चिम-एशियन प्राक-सोवियत राज्यों के पास नहीं - ऐसी बात नहीं है। उनके पास प्राकृतिक सम्पदा है, दक्ष और शिक्षित श्रमिक श्रेणी है और प्रचुर उत्पादन सामग्री भी। अगर वे राजनैतिक साम्य के आधार पर एक आर्थिक समन्वय व्यवस्था का गठन करें तथा वितरण प्रणाली को निजी हाथों में सौंप कर, ज़्यादातर में योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था के पुनर्गठन कर पायें तो लगातार बढ़ती बेकारी और घटती आमदनी से उन्हें कुछ निजात तो मिल ही सकती है। लेकिन जातिवाद प्रबल होने लगे और धर्म-वर्ण की राजनीति प्रबल हो जाये तथा उसके साथ जुआड़ी देशी पूँजी और मतलबी विदेशी पूंजी का प्रभाव जुड़ जाये तो रूस विश्व के अपेक्षाकृत उन्नत देशों के समकक्ष आ जायेगा। समाजवाद का ध्वंस तो होगा ही, लेकिन उन्नत पूँजीवाद भी नहीं आयेगा - इतिहास की इस भयानक आँधी में रूस के करोड़ों लोग ध्वस्त होंगे ही, जब तक कि समता और गणतंत्र की लड़ाई फिर से शुरू होकर सफल नहीं होती। पूर्वी यूरोप और रूस महादेश में कौन सी विदेशी-पूँजी पैर जमाती है, कहा नहीं जा सकता। फिर भी ऐसा लगता है कि जर्मन पूँजी का सिक्का चलेगा। पहले विश्व युद्ध के पूर्व रूस में और द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले रूस के अलावा सारे पूर्व यूरोप में जर्मन पूँजी का ही दबदबा था। इन देशों के बहुत से शिक्षित लोग अभी भी जर्मन जानते हैं। जर्मन तकनीक के प्रति उत्सुक हैं तथा पूर्व जर्मनी के मार्फत उस तकनीक से परिचित भी हैं। लेकिन जर्मन पूँजी के यूरोप में तंबू गाडऩे पर फ्रांस, ब्रिटिश और खुद मार्किन साहब लोग चैन की सांस नहीं ले सकेंगे।
इतिहास की इस आपात विपरीत गति का परिणाम पृथ्वी के अन्य देशों पर कैसा होगा...? हम कोई भविष्य-वक्ता तो हैं नहीं, फिर भी कुछ संभावनाओं, आशाओं और प्रत्याशाओं पर बात हो सकती है। तृतीय विश्व के अधिकांश लोगों  पर समाजवाद की विफलता का परिणाम बहुत ही निराशाजनक पड़ा है। अफ्रीका के जिन देशों में साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई खत्म नहीं हुई है- जैसे मोजाम्बिक, अंगोला, दक्षिण अफ्रीका, सूडान, इथियोपिया - वहाँ साम्राज्यवाद के विरुद्ध खड़े होने के लिये दुनिया में कोई दूसरी ताकत ही नहीं बची है। इसके अलावा भी विश्वव्यापी मंदी और विश्वबैंक द्वारा आरोपित नीतियों के कारण तृतीय विश्व के बहुत से देशों में भूख, गरीबी और शिशु मृत्यु-दर लगातार बढ़ती ही जा रही है। बहुत सारे कारखाने अकाल-मृत्यु का शिकार हुए हैं। अपनी आर्थिक व्यवस्थाओं पर वहाँ की सरकार और जनता का कोई नियंत्रण नहीं रहा है। अभी भारत या थाईलैण्ड जैसे देश धनी पूँजीवादी देशों की भौतिक दादागिरी के विरुद्ध बोलना चाहें तो उन्हें आर्थिक अवरोध तो झेलना ही होगा - सामरिक वाहिनियों के आक्रमण की संभावनाओं से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
सोवियत समाजवाद के पतन के साथ ही उग्र जातीयतावाद और धार्मिक उन्माद को भी छूट मिल गयी है। ऐसा भी कहा जा रहा है कि अनेक वामपंथी परोक्ष रूप में कठमुल्लाओं का और उग्र जातीयतावाद का समर्थन करते हैं। जिस इतिहास की दुहाई देते वे थकते नहीं हैं, वही इतिहास बताता है कि इस्लाम की नाना धाराओं में, एक प्रचंड युक्तिवादी, रुढि़वाद विरोधी शक्ति शताब्दियों से चली आ रही है। भारत के सनातन धर्म के विरुद्ध अवैदिक युक्तिवाद की धारा, चार्वाक-पंथी निरीश्वरवाद की धारा, ढाई हजार सालों से टिकी है। अनुष्ठानिक और ब्राह्मण-धर्म की धारा के बाहर लोकायत दर्शन और साधारण मनुष्य के धर्माचरण की परंपराएं जीवित हैं। रुढि़वादी इस्लाम और हिन्दू दोनों ही में धर्मों की यही कोशिश रही है कि इस प्रतिवादी धर्म और दर्शन को ख़त्म कर दिया जाये अथवा उनके प्रतिवादी गुणों को दूर करके उसे आत्मसात कर लिया जाये। यूरोपीय साम्राज्यवाद के पहले से ही महादेशों में बहुजातीय राष्ट्र तो टिके हुए थे ही। विशाल आटोमान तुर्की साम्राज्यवाद के पहले से ही माली और संघ में बहुजातीय साम्राज्य भी था। भारत में तो सैकड़ों नहीं हजारों वर्षों से बहुजातीय राज्य ही था - अशोक के समय से लेकर औरंग•ोब के राज्यकाल तक। रूढि़वाद और जाति-विद्वेष के विरुद्ध जब तक विजय नहीं होती, तब तक आम-आदमी का जीवन विषमय होता ही रहेगा। याद रखना होगा कि जाति-द्वेष सि$र्फ समाजवाद और राजनैतिक गणतंत्र के ही शत्रु नहीं हैं, वरन ये देशी पूँजीवाद को भी पंगु बनाते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जहाँ कुछ ही देशों में पूँजीवाद सफल हुआ था, वे सब ही पूर्व एशिया में स्थित थे। वहाँ आम लोगों और शासक-गणों पर धर्म का प्रभाव मुस्लिम, हिन्दू, कैथोलिक शासकों के राज्यों से बहुत ही कम था। ताइवान, दक्षिण कोरिया, हाँगकाँग तथा सिंगापुर में एक-भाषी लोगों प्रधानता थी। थाईलैण्ड के प्रधान पूँजीपति वर्ग मूलत: चीन के हैं, परन्तु वे चीनी थाईलैण्ड से जुड़कर, उनमें रच-बसकर देशी पूँजी के अंश हो चुके हैं। थाईलैण्ड प्राय: पश्चिम एशिया के चार भागों में शामिल हो चुका है। दूसरी ओर मलेशिया, युगांडा, आधुनिक तुर्किस्तान तथा और भी देशो में धर्मान्धता या जाति-विद्वेष के कारण पूँजीवाद और अपेक्षाकृत स्वनिर्भर पूँजीवादी व्यवस्था की उन्नति, बार बार बाधित हुई है।
सोवियत समाजवाद के पतन के बाद भी उम्मीद है कि इतिहास इस बात की गवाही देगा कि कितनी विशाल और महान कोशिशें हुईं थीं। मनुष्यों का एक विशाल समुदाय किस तरह शिक्षा, कारीगरी और सामाजिक साम्य में अपने को अग्रणी जाति समुदाय के रूप में प्रतिष्ठित कर पाया? किस तरह उनमें सारे विश्व के श्रेष्ठ सांस्कृतिक इतिहास का प्रसार हुआ? किन वजहों से आम लोगों ने उस महत्वपूर्ण परम्परा को नकारा? उसकी आलोचना होनी चाहिए। पार्टी और राज्य का नियंत्रण ही इस आदर्शगत संग्राम की अंतिम कसौटी नहीं हो सकती है - सोवियत रूस का तीखा अनुभव जुझारू लोगों को यह तो बताता ही है। सामाजिक और गणतंत्रमुखी समाजवाद का निर्माण और उसकी सुरक्षा की बुनियाद ही आदर्शों की लड़ाई और उसके मूल विश्वास को बचाये रखने की है। यह दुर्भाग्यपूर्ण लगता है कि आधुनिक विश्व के बारे में सोवियत समाजशास्त्रियों का लेखन - जो अंग्रेजी में पढ़ा है - उससे यह विश्वास तो पक्का होता ही है कि उनमें से अधिकांश मार्क्सवादी नहीं थे; वे तात्कालिक थे - जो पार्टी की राय थी उसके अंधे अनुयायी थे। समाजशास्त्र की और शाखाओं में भी ऐसा ही था।
राज्याश्रित समाजवाद के पतन के बाद क्या कोई दूसरा समाजवाद सर उठा सकता है? यहाँ हम उम्मीद के अलावा कोई और वैज्ञानिक आधार नहीं खोज पायेंगे। लेकिन फ्रांस की क्रांति के बाद की घटनाओं के बाद से कुछ समझ में आता दिखता है। हम भूल जाते हैं कि फ्रांस की क्रांति सात-आठ सालों में ही विफल हो गयी थी; सबसे पहले तो संचालकों का, फिर नेपोलियन का शासन और अंतत: 1885 से राजतंत्र के प्रवर्तन से क्रांतिकारी गणतंत्र कई गज पानी के अंदर समा गया। उस क्रांति ने सामंतवाद की कब्र तो खोदी ही थी, लेकिन फिर भी उससे कोई लजारस पैदा नहीं हुआ। फ्रांस की क्रांति के बाद सम्पूर्ण पश्चिम यूरोप में प्रतिक्रियाओं का दौर शुरू हो गया था। प्रतिक्रियाओं का यह युग 1948 तक बरकरार रहा। इसके बाद भी बुर्जुआ गणतंत्र पूरे यूरोप में नहीं फैल पाया। अनेक वामपंथी नीतिशास्त्री बुर्जुआ गणतंत्र के उत्थान के पहले ही उसकी जयगाथा गाने लगे थे और उसे स्थायित्व प्रदान करने में व्यस्त-न्यस्त थे।
सोवियत क्रांति का फल तो उस तुलना में कहीं दीर्घस्थायी था। उस क्रांति का सुदूरव्यापी परिणाम आने वाली या उसके बाद वाली पीढ़ी को ही मिलेगा। पूँजीवाद के विश्वव्यापी प्रसार और पैर जमाकर आगे बढ़ते जाने के साथ ही साथ जातिगत द्वेष तो बढऩा ही था, लेकिन उससे पैदा हुई भयावह स्थिति का मुक़ाबला करने के जाति-निर्भर आदर्श भी शक्तिशाली होंगे यह भी तय था। निजी स्वार्थ जितने मज़बूत होंगे, मनुष्य का अस्तित्व उतना ही विपन्न होगा और उस अस्तित्व की सुरक्षा के लिये सामाजिक मंगल कामना के माध्यम निरंतर मजबूत होते जायेंगे। ये सारे परिवर्तन तत्काल होने वाले नहीं हैं। इनके विरुद्ध इंगो-अमेरिकी शासक श्रेणी का बलशाली और मुखर प्रचार मनुष्य को लम्बे समय तक धोखे में रखेगा। माओ ने काफी पहले ही कहा था कि पूँजीवाद के विरुद्ध संग्राम हजारों साल तक चलेगा। लेकिन ज़रूरी तो यह जानना है कि इस पूँजीवाद के तले मनुष्य नामक प्राणी का अस्तित्व बना रहेगा या नहीं? मनुष्य के जीवन की आशा को रोशन करने के लिये हमें राज्याश्रयी गणतांत्रिक समाजवाद की लड़ाई शुरू करनी होगी। यों तो कई रूपों में यह लड़ाई चल रही है; लेकिन हम उनकी प्रकृति के अनुकूल दिशा निर्देश के लिये अंधेरे में कुछ दीपक तो जला ही सकते हैं।

बांग्ला की प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका 'अनुष्टुप' की पुरानी फाइल से यह लेख लिया गया है। 1991 में यह लिखा गया और प्रकाशित हुआ। 'पहल' ने सोवियत यूनियन में सत्ता परिवर्तन के बाद तत्काल एक पुस्तिका पैरेस्त्रोइका और ग्लास्तनोस्त छापी थी। लेकिन सारी दुनिया में अनेक विश्लेषण हुये हैं। अमिय कुमार बागची की गवेषणा महत्वपूर्ण है, वह एक आयने की तरह है।
अमिय कुमार बागची का जन्म मुर्शिदाबाद में हुआ था और उनकी उच्च शिक्षा सुप्रसिद्ध प्रेसीडेंसी कॉलेज, कोलकाता, ब्रिटेन के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में हुई। केंब्रिज में फेलो होने के बावजूद वे कोलकाता वापस आ गये और अध्यापन शुरु किया। वैश्विक स्तर पर प्रसिद्ध कोलकाता के समाज विज्ञान केन्द्र से 1974 में जुड़े। अनेक विश्व प्रसिद्ध सम्मानों से नवाजे गये और 2008 में त्रिपुरा विश्वविद्यालय के पहले चांसलर बने। अमिय कुमार बागची अंग्रेजी और बांग्ला में सक्रिय लेखन करते रहे। सोवियत इतिहास और समाज के गहरे ज्ञाता।

Login