समाज - तकनीकी और आंदोलन

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    जनवरी 2016
श्रेणी समाज - तकनीकी और आंदोलन
संस्करण जनवरी 2016
लेखक का नाम गोपाल नायडू





विमर्श/तीन

(यह लेख विज्ञान/तकनीकी के संस्थागत इतिहास पर नहीं है)


प्रचलित तौर पर विज्ञान और तकनीकी को आधुनिक समय की एक शक्तिशाली ताकत के रूप में देखा जाता है। दुनिया ने इसका स्वागत भूख और गरीबी मिटाने के एक उम्मीद के तहत किया। पर इनकी अपनी सीमाएं थी/हैं। इनके नकारात्मक पक्ष थे/हैं। बावजूद भविष्य में एक बेहतर दुनिया के निर्माण और वर्तमान की समस्याओं को हल करने के लिए इसको सबसे संभावित विकल्प के तौर पर देखा जाता है। दुनिया के स्तर पर यह स्वीकृत तथ्य है कि विज्ञान और तकनीकी ने दुनिया के चेहरे को बदल दिया है। और अक्सर इसी विश्वास पर लोग-बाग एक नई दुनिया के निर्माण की बात करते हैं।  इसी बिना पर कह सकते हैं, एक नया समाज लगातार बन रहा है। इतिहास का यह एक नया दौर है।
हम सभी विज्ञान की उपलब्धियों के बारे में जानते हैं। इसके हर युग से हम परिचित हैं। धरती-सूरज के घूमने की लड़ाई का युग हो, स्टीम इंजिन का युग हो, अणु बमों के शुरूआत का, आटोमोबाइल का, या सूचना तंत्र का, इसने हमें  हर बार हतप्रभ किया है। पर यह भी उतना ही बड़ा सच है कि विज्ञान और तकनीक के जादू में खोकर हम इनको विशिष्ट अर्थों में परखने में विफल रहे  हैं। प्रचलित समझ में विज्ञान और तकनीकी में एक अजीब-सा घालमेल है। तकनीकी विज्ञान और उसके सिद्धांतों पर आधारित है। यह अपने विकास के लिए विज्ञान के सिद्धांतों का ही इस्तेमाल करता है। पर विडम्बना कि जहाँ विज्ञान के मूल शोध ठहराव के शिकार हैं, वहीं तकनीकी की दुनिया में रोज कुछ न कुछ नया जोड़ा जा रहा है। विज्ञान के नियमों-सिद्धांतों को आधार बनाकर नए-नए उत्पाद तैयार किये जा रहे हैं। जैसे टेलीफोन से होते हुए हम स्मार्टफोन तक पहुँच जाते हैं और श्वेत-श्याम टेलीविजन 'कर्व एल.इ.डी.' हो जाता है। पर विज्ञान की नई खोजों के सन्दर्भ में हम इसी अनुपात में तेजी नहीं देखते। हकीकत तो यह कि विज्ञान की पढ़ाई-लिखाई उद्योगों को विकसित करने की जाती है।  विज्ञान का इस्तेमाल जब तक मुनाफे के लिए है तब तक इसे छूट दी जाती है।  लेकिन जैसे ही समाज के हित में विज्ञान का स्वर उठता है तो दुनिया भर के हथकंडे अपनाए जाते हैं।  यह संकट वास्तव में विज्ञान का नहीं है।  यह वर्गीय संकट है जो विज्ञान के संकट में नजर आता है? 
ऐसे कई अनसुलझे ऐतिहासिक और दार्शनिक सवाल हैं, जो बड़ी बहसों की माँग करते हैं। तकनीकियों के इस दौर में एक बड़ा सवाल हमारे सामने आता है कि तकनीकी का सामाजिक व्यवहार पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। इसके आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक-सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक पहलु क्या हैं? इस बुनियादी सवाल के  बिना विज्ञान और तकनीकी को किसी भी समाज के सन्दर्भ में पूरी तौर से समझना मुश्किल है।
इसमें किसी किस्म का कोई भ्रम नहीं होना चाहिए कि विज्ञान और तकनीकी में पर्याप्त अंतर है। विज्ञान के आधार पर ही तकनीकी का विकास किया गया है।  अभी तक तकनीकी और समाज के बीच के संबंद्धों को समझने की आवश्यकता है।  जरूरी है समाज के परिवर्तन के लिए हमें विज्ञान और प्रौधोगिकी की  'सामग्री' और 'फॉर्म' के बारे में जानकारी लेना। अन्यथा इसके वास्तविक उपयोग के संदर्भ में जानकारी हासिल नहीं कर पाएंगे। और यह एक बौद्धिक अनिश्चतता ही नहीं है, यह सामाजिक व्यवहार भी है।  ये कोई अमूर्त प्रश्न नहीं हैं। इसकी व्याख्या करने की गरज है।  इसका सीधा संबंध हमारे आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक-सांस्कृतिक विचार-विमर्शों से है। वह इसीलिए है कि समाज-व्यवस्था की स्थितियां विज्ञान को अभिवयक्त करती हैं। विज्ञान का अपना अस्तित्व होने के बावजूद पिछड़े सामाजिक सम्बंध की वजह से विज्ञान के विकास की गति भी बौनी होती जाती है। इस संकट से उबरने के लिए विज्ञान को सामाजिक परिवर्तन के लिए मानवद्रोही व्यवस्था से मुक्त करने के लिए पहल कदमी करनी पड़ेगी।  
इस संदर्भ में वैज्ञानिक फ्रांसिस बेकन ने कहा है, 'मनुष्य प्रकृति का सहायक और व्याख्याकार है। वह जिस हद तक उसके साथ क्रिया करता है उसी हद तक सक्रियता और समझदारी हासिल कर सकता है। उसका अवलोकन करके उसने प्रकृति की व्यवस्था का ज्ञान पाया है। इससे परे उसे न तो कोई ज्ञान होता है, न ही शक्ति।' मनुष्य की यह समझदारी उसके अनुभव से अर्जित ज्ञान पर आधारित होती है और भौतिक जगत की समझ के आधार पर प्रकृति को नियंत्रित उस हद तक ही कर पाता है, जितना वह विश्लेषित कर सकता है। मनुष्य की परिकल्पना की कसौटी तथ्यों के आधार पर होती है।  वह एक अनुमान है जिसके आधार पर परिणाम सामने आते हैं। 'मार्क्स ने फ्रांसिस बेकन के बारे में कहा है कि वह समस्त आधुनिक प्रायोगिक विज्ञान का वास्तविक संस्थापक था।  प्रायोगिक विज्ञान की महत्वपूर्ण विशेषता है कि यह सिद्धान्त व्यवहार के आधार पर आगे बढ़ता रहता है। इस तरह यह अपने निरीक्षित तत्वों की कसौटी पर होता है। किन्तु धर्मशास्त्रियों के लिए ईश्वरीय ज्ञान को स्थापित करने तक ठोस वस्तुओं का महत्व है और यह रास्ता सनातनी मूल्यों की ओर खुलता है। आदिम मनुष्य ने भी कल्पना के आधार पर चीजों को सोचा और उसे अपने अनुभवों से आकार में ढाला था।  इस आधार पर वैज्ञानिक चिंतन धारा की जड़ें श्रम की प्रक्रिया में ही हैं। यह श्रम की प्रक्रिया आदिम मनुष्य के इर्द-गिर्द उपलब्ध वस्तुओं की कल्पित धारणा से आज तक सचेत रूप से परिभाषित की जा रही हैं।
मार्क्स  ने बेकन की इस खोज को प्राचीन कृति और आधुनिक भौतिकवाद के रिश्ते के रूप में देखा और रखा और इसी आधार पर आदिम साम्यवाद से सचेत साम्यवाद के वैज्ञानिक सोच का खाका दुनिया के नक्शे पर उकेरा है।  इस यात्रा में मार्क्स  ने आदिम समय में मौजूद प्यार-मोहब्बत, भाई-चारा में रची-बसी  जीवन पद्धति आदि के किसानी, सामंतवाद और पूंजीवाद के काल-खंड में टूटने के कारणों की मीमांसा को प्रतिपादित किया।  मार्क्स  ने इन मूल्यों के टूटने की वजह को केन्द्रित कर वैज्ञानिक साम्यवादी विचारधारा को स्थापित करने की   व्याख्या की है।  इस विकास यात्रा में मार्क्स  के लिए विज्ञान की प्रगति की  गति भी शामिल थी।  तभी तो वे कहते थे - 'विज्ञान और तकनीकी के उपयोग और उन्हें लागू करने का प्रश्न बहुत ही महत्वपूर्ण और जटिल भी है।' विज्ञान का इस्तेमाल पूंजीवादी दुनिया के हाथो में कैद है। बढ़ई, मिस्त्री, बुनकर, किसान आदि के श्रम को उत्पाद के तहत ही देखते हैं।  इस पर विचार करना ही छोड़ देते हैं।  या इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि पूंजीवादी दुनिया में विज्ञान का महत्व केवल मुनाफा कमाना है और श्रम केवल एक वस्तु है।  जिसे जैसा चाहे खरीदा-बेचा जा सकता है।  इस बाज़ार में मनुष्य अमूर्तन की तरह खड़ा रहता है। किन्तु वैज्ञानिक भी अपनी खोज की शुरुआत अमूर्तन शैली से करता है।  लेकिन उसके नतीजे को व्यवहार से जांचा-परखा जाता है।  इसीलिए 'मार्क्स कहते हैं, 'अगर समस्त वास्तविक विश्व को अमूर्तन के जगत में, तार्किक श्रेणियों के जगत में इस तरह डुबो दिया जा सकता है तो इस पर किसे आश्चर्य होगा?' इसीलिए विज्ञान और सामाजिक विज्ञान के अंतर्विरोध को व्यक्त करने वाली उत्पादन की ताकतों और इसके बीच के अंतर्विरोध को विशेषकर किसी आंदोलन  के संचालन के सन्दर्भ में सजग होकर देखने की जरुरत है।
विज्ञान के क्षेत्र में मनुष्य ने जो तरक्की की है वह निश्चित ही लाजवाब है।  इस तरक्की की वजह से मानव जाति ऐसे मुकाम पर खड़ी है, जहाँ से यह सवाल जरुरी हो जाता है कि विज्ञान और तकनीकी की जरूरत समाज के लिए  कितनी  है और क्या मानव समाज ने अपने अनुभव जगत से हजारों वर्षों में जिन सभ्यता के मूल्यों को स्थापित किया है उस सभ्यता पर विज्ञान और तकनीकी के हावी होने को कितना गौर किया गया है?
हम देख रहे हैं कि डिजिटल दुनिया के अस्तित्व में आने के बाद एक ऐसी ही 'आभासी' दुनिया की दीवार हमारे सामने खड़ी है।  इस दीवार पर कई मनुष्य के  चेहरे लटके हैं।  हर चेहरा एक-दूसरे से काफी दूर है, लेकिन फेसबुक, ट्वीटर, मेल, व्हाट्स-एप्प, टेलीविजन आदि के जरिये सब एक दूसरे के करीब हैं। पर क्या यह करीब होना सचमुच एक दूसरे को करीब से महसूस करना है। इस बहस पर हम जैसे ही सहमत/असहमत होते हैं, 'निर्भया आंदोलन' से लेकर दूसरे अन्य जागरूक करने वाले मुद्दे पर मीडिया/नए मीडिया की भूमिका हमें सवाल के दुसरे पहलू की ओर ले जाता है। पर सम्पूर्णता में इनके विस्तृत प्रभावों का आकलन करने बैठे तो यह बात उतनी ही आसानी से समझ में आती है कि कैसे इन माध्यमों ने समाज को भीतर ही भीतर खोखला कर दिया है और  समाज को टूटन के कई रूप देखने पड़े हैं। पर तकनीकी की दुनिया का भी एक अजीब समीकरण है। आंदोलन, विरोध, विद्रोह आदि में इनकी भूमिका अचानक से बदल जाती है। इनकी ताकत और अहमियत का अंदाज़ इससे चलता है कि आन्दोलन वाले इलाकों में इन पर कभी-कभी स्थायी सेंसर लगा होता है। कश्मीर के सन्दर्भ में इसे समझा जा सकता है। गुजरात में आरक्षण के सवाल पर चले आंदोलनों को देखते हुए सूरत शहर में तमाम संचार के माध्यमों को ठप्प कर दिया गया था। डिजिटल दुनिया के जरिये लोगों को जोडऩे और अभिव्यक्ति की एक नयी किस्म की आज़ादी का दंभ भरने वाली दो 'महान' शक्तियाँ 'फेसबुक' और 'गूगल' भी गुजरात में इन माध्यमों को ठप्प करने देने के सामने विवश थी।  राज्य द्वारा इतनी बड़ी पाबंदी को देखते हुए लोगों की निजता की चिंता भी लाजिमी है, क्योंकि फेसबुक और गूगल के सर्वर में इन माध्यमों का इस्तेमाल करने वालों का पूरा 'डाटा' एकत्रित होता है।  डिजिटल दुनिया का सबसे चिंताजनक पहलू  यही है कि जैसे ही आप इससे जुड़ते हैं, आपकी सारी निजता खत्म हो जाती है। आपकी निजी जिन्दगी आपकी नहीं रह जाती है। आपके एक-एक ब्योरे इन कम्पनियों के पास आ जाते हैं। इन ब्योरों का इस्तेमाल पूंजीवादी दुनिया अपने तरीके से करती है।  हालांकि इसके लिए कागजों पर कई तरह के नियम-कानून हैं, पर यह उतनी ही खुली बात है कि परदे के पीछे से सब कुछ किया जा सकता है। चिंता का दुसरा पहलू 'सत्ता' के साथ इन ब्योरों को साझा करने का है। कानूनों के परे यह संभव भी है। यह एक सचमुच $खराब स्थिति हो सकती है।
ऐसी उम्मीद थी कि यूरोप के पुनर्जागरण आंदोलन के दौर में समाज मानव केन्द्रित बनेगा।  सामंतवाद की पकड़ ढीली होगी।  इस संदर्भ में मार्क्स कहते हैं  कि 'मनुष्य के भौतिक जीवन में उत्पादन प्रणाली सामाजिक राजनीतिक और 'स्पिरिचुयल' प्रक्रिया को निर्धारित करती है  और उस  सरंचना में परिवर्तन से अधिरचना में भी परिवर्तन हो जाते हैं।  यह अधिरचना का मुद्दा चेतना से जुड़ा है और बेहद जटिल है; अपनी विविधता के कारण ही नहीं, इसीलिए भी कि वह हमेशा ऐतिहासिक होता है।' 
तभी तो यह प्रश्न उठता है कि 'संस्कृति' की  तरह 'तकनीकी' को भी क्या  'अधिरचना' के दायरे के तहत देखा जाय? तो हम संस्कृति के बारे में उठाए गए उसी बहस में उलझकर रह जाते हैं कि उसका रिश्ता आधार (स्ट्रक्चर) या  अधिरचना (सुपर-स्ट्रक्चर) से है? मार्क्स  यूरोप के पुनर्जागरण आंदोलन को महत्वपूर्ण मानते थे। इसीलिए उन्होंने इसे मानव इतिहास की महान उपलब्धि करार दिया और कहा, 'इस आंदोलन में उपजे मानवीय मूल्य केवल साम्यवाद में ही संभव है।  क्योंकि मानवीय मूल्य भी मौजूदा समाज-व्यवस्था में दो हिस्सों में विभक्त है।' इस परिपे्रक्ष्य में विज्ञान/तकनीकी का भी आकलन होना चाहिए।
पिछले सौ वर्षों में विज्ञान/तकनीकी के रुतबे के असर को आसानी से देखा जा सकता है।  आज की तारीख में एक पूरी आभासी दुनिया को समाज के सामने खड़ा कर दिया गया है। 'संस्कृति, समानता, भाई-चारा और आज़ादी' बुर्जुआ लोगों के बीच सिमट कर रह गई है और आम-मनुष्य भीड़ का हिस्सा बनकर रह गया।  कुछ इसी तरह तकनीकी का भी प्रभाव आम लोगों पर नजर आ रहा है।  आज वह बहुत ही सक्षम और समर्थ है फिर भी तकनीकी के इस दौर में वह आत्मघाती और आत्मकेंद्रित होता जा रहा है।  आज वह क्यों इतना असहाय और असमर्थ है, यह परिदृश्य चिंतनीय है। ज़ाहिर है कि विज्ञान के आधार पर विकसित की गई तकनीकी ने मनुष्य के देखने, सुनने, सूँघने, स्वाद लेने, सोचने, निरीक्षण करने, अनुभव करने, इच्छा करने, काम करने, प्रेम करने आदि को संकुचित कर दिया है। कहा जा सकता है कि यह आभासी दुनिया हजारों वर्षों के अनुभव से अर्जित ज्ञान, संस्कृति और सभ्यता पर हावी हो गई है। इसका असर भाषा, रहन-सहन और समाज के रिश्तों पर पड़ा है। समाज में विज्ञान की पैठ का वैज्ञानिक दृष्टिकोण नजर नहीं आता है।  यह एक दुखांत स्थिति है।  विज्ञान का दुरुपयोग शासक वर्ग अक्सर करता रहता है।  यह एक विडम्बना है।  इसीलिए वैज्ञानिक जे. डी. बरनाल ने चेतावनी दी है कि 'विज्ञान इतना महत्वपूर्ण है कि उसे वैज्ञानिकों और राजनीतिज्ञों के ऊपर नहीं छोड़ा जा सकता?' विज्ञान को समाज विज्ञान के साथ रखकर एक गहन विमर्श से ही किसी सार्थक निष्कर्ष की ओर पहुंचा जा सकता है।    
डिजिटल दुनिया के वर्चस्व से भाषा पर हो रहे प्रभाव और आक्रमण को दुनिया ने देखा व अनुभव किया है।  सांस्कृतिक वर्चस्व का रास्ता भाषा से होकर गुजरता है।  भाषाओं को  आभासी दुनिया के आक्रमण से बचाने के दो रास्ते हैं। एक तो तमाम भाषाओं के साथ साझेपन के रिश्ते को लगातार मजबूत करें और दूसरा वर्चस्व कि होड़ में जब थक जाएँ  तो आत्म समर्पण की स्थिति में खुद को खड़ी कर दें।  आभासी दुनिया के वर्चस्व की होड़ भाषाओं के सामने कई तरह के खतरे पैदा करती है।  एक बड़ा खतरा ये होता है कि भाषाएं आभासी भाषा के रूप में परिवर्तित हो जाती है। उदाहरण के लिए ' 4शह्व के लिए ह्व, ड्डह्म्द्ग – ह्म्, ह्लद्धड्डठ्ठद्मह्य – ह्लद्ध3' आदि का उपयोग करना।   राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्तर पर वर्चस्व के लिए जो भाषा काम कर सकती है, वह प्रगतिशील आंदोलन के दौरान भी सुनने को मिलती है  - जैसे किसी आंदोलन में अगर कोई दलित समाज से आया हुआ कार्यकर्ता हो तो कहा जाता था की 'दलित समाज से, ठीक से हैंडल करना, बस लाल-किला दूर नहीं है, जल्द ही लाल झण्डा फहराया जाएगा, आदि।  इसे क्या कहा जाय सिवाय सामाजिक संरचना में जाति, धर्म के बारे में समझ की कमी या कार्यकर्ताओं के समक्ष एक आभासी दुनिया खड़ी करना। तो उस भाषा को वर्चस्ववादी वर्ग दूसरी तमाम भाषाओं के भीतर उतार देता है।  यानी आभासी  भाषा दूसरी भाषा में अपने को संप्रेषित करने लगती है।  मसलन, भाषा का अपभ्रंश रूप, एकरूपी नजर आता  है।   और भाषा  की शब्दावली, शैली, वाक्य संरचना आभासी दुनिया से ग्रस्त दिखती है।  इसे दूसरे शब्दों में कहें कि भाषा गली-कूँचों, गावों, शहर के घर-घर में कई रूपों और कई शब्दों के जरिये उपस्थित होती है। लेकिन तब भी भाषाओं के बीच इतनी दूरी क्यों बनी हुई है? क्या डिजिटल दुनिया की हर जगह दखलदांजी बढऩे के कारण। क्या उसमें  अनुभव का साझापन  नहीं  है? हम ये कोशिश करना चाहते हैं कि इस आभासी दुनिया की नजरों से जो दुनिया बन रही है और उसमें सामाजिक, राजनीतिक जद्दोजहद मौजूद है। तो फिर इस आभासी दुनिया को समाज के पूरक बनाने के लिए सचेत आंदोलन की गरज है।
यह एक खतरनाक स्थिति है जहाँ समाज का एक बड़ा तबका डिजिटल दुनिया का सार्थक उपयोग नहीं कर रहा है। उसकी यह नई जरूरत हो गई है।  आज़ादी के नाम पर यह एक नई छद्म दुनिया उपहार की तरह है। वह सक्रिय नागरिक की जगह निष्क्रिय 'सेलफी' में,  अपने में ही मगन और सार्वजनिक जागरूकता और नागरिक चेतना से दूर होता जा रहा है।  इसीलिए एक दिखावे की सामूहिकता का विकास हो रहा है।  और वहीं डिजिटल दुनिया से जुड़े मानसिक श्रमिक तमाम शोषण के बावजूद खुश हैं।  वे जानकर भी अंजान हैं कि इस दुनिया के आधुनिक सॉफ्टवेयर ने उत्पादन के साधन को भी बदल दिया है।  इसका असर संगठित मजदूर क्षेत्र में दिखाई दे रहा है।  संगठित मजदूर आंदोलनों में जबर्दस्त टूटन है। और वहीं  इस बौद्धिक श्रमिकों के बीच संगठन नहीं है।  लेनिन ने ट्रेड यूनियन के बारे में कहा था, 'हर देश का इतिहास दिखाता है कि मेहनतकश वर्ग केवल अपने प्रयास से, ट्रेड-यूनियन चेतना का विकास कर सकता है।' अगर इस डिजिटल दुनिया से जुड़े  बौद्धिक-वर्ग का ट्रेड-यूनियन ही नहीं है तो वह असंगठित मजदूरों की तरह ही असहाय है। अगर वे भी इस व्यवस्था के गुलाम हैं तो कैसे संगठित और असंगठित मजदूरों के अस्तित्व और चेतना के बीच सम्बन्धों को जोड़कर आंदोलन को एक नई शक्ल में रूपांतरित कर सकते हैं।  इस श्रम विभाजन के  पूरे यंत्र-तंत्र की डोर साम्राज्यवाद के हाथों में है। वह इस यंत्र के माध्यम से युवा तबकों को आदिम बर्बरता की ओर ले जा रहा है।  उसका मोर्चा घर-आँगन में खुल गया है? और यह रास्ता हिटलर के घृणा के संसार के लिए फासीवाद के  दरवाजे  खोल देगा। यह अब केवल अवधारणा नहीं है।   न ही केवल चेतावनी है।  यह एक खतरा है। इस माध्यम से फैल रही जहरीली हवा को रोकने के लिए नए विकसित आंदोलनों की जरूरत है। वरना समाज में नई तरह की बर्बरता आएगी।  इस माध्यम को  सही और उचित ढंग से आंदोलन का हिस्सा बनाना होगा।  और साथ ही आंदोलन के पुराने हथियार याने सड़क से लेकर घर तक वाले अभियान को आजमाना होगा।  इस माध्यम के प्रति पूर्वाग्रह नहीं रखना चाहिए।  इसे एक चुनौती के रूप में शोषित-उत्पीडि़तों की मुक्ति से जोड़ते हुए एक ऐसे आंदोलन का सूत्रपात करना होगा जो  विज्ञान/तकनीकी सामाजिक विज्ञान और दूसरे राजनीतिक आंदोलनों का सहचर बन सके।


गोपाल नायडू - सक्रिय वामपंथी और यायावर गोपाल नायडू मुख्यत: शिल्पी हैं और इनके मृण-शिल्पों को व्यापक सराहना मिली है। कुछ पहल में भी प्रकाशित। रिजर्व बैंक की चाकरी करते हुए समय से पूर्व सेवा निवृत्त हुए। नागपुर में रहते हैं। मराठी, अंग्रेजी से प्राय: उस तरह की रचनाओं का अनुवाद करते हैं जो हाशिये से बाहर हैं और जिनका महत्वपूर्ण तीसरा पक्ष होता है।

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