कौन हमारे इतिहास से डरता है? आदिवासी इतिहास पर एक नजर

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    जनवरी 2016
श्रेणी कौन हमारे इतिहास से डरता है? आदिवासी इतिहास पर एक नजर
संस्करण जनवरी 2016
लेखक का नाम रणेन्द्र





धारावाहिक/आदिवासी विमर्श-एक


भारतीय इतिहास की पुस्तकों में आदिवासी इतिहास और इसके जननायक प्राय: अनुपस्थित हैं। अगर सरलीकृत रूप में कहें तो भारतीय इतिहास के पन्ने का अधिकांश हिस्सा पाटलिपुत्र-इन्द्रप्रस्थ, आगरा-दिल्ली और कलकत्ता-बम्बई-मद्रास प्रेसीडेन्सियाँ घेरे रहती हैं। कहा जा सकता है कि यह शासकों और अभिजात्यों के इर्द-गिर्द गणेश-परिक्रमा करता हुआ इतिहास है। इतिहासकारों ने आदिवासियों के वन-प्रान्तर-सीमान्त इलाकों को गौड़-बंग जैसे प्रदेशों के विद्रोह के क्रम में कभी-कभी याद किया है। वह भी अर्द्धसभ्य, जंगली, कोल-किरात, चुहाड़-धांगरों, डाकू-अपराधी जातियों के देश के रूप में। वे भी क्या करें जब स्वयं देवग्रन्थ ऋग्वेद ही इन्हें अनास:, शिश्नदेवा:, असुर आदि के रूप में उल्लेखित कर रहा हो।
प्रसिद्ध इतिहासकार लालबहादुर वर्मा का भी मानना है कि 'आधुनिक भारत का इतिहास काफी एकांगी और अपूर्ण है। भारत के मुक्तिसंग्राम के महाकाव्यात्मक आयाम अभी पूरी तरह उजागर ही नहीं हो पाए हैं। उसमें कुछ नायक मात्र स्थापित किए गए हैं जिनके नायकत्व पर भी प्रश्न उठते जा रहे हैं।
...भारत में इतिहास लेखन के क्षेत्र में पिछले चार दशकों के दौरान उत्साहवर्द्धक विकास हुआ है, फिर भी समाज का बहुमत-नारियां, जनजातियाँ और दलितवर्ग की इतिहास में उपस्थिति और भूमिका पूरी तरह दर्ज नहीं हो पायी है, इस तरह तो नहीं ही कि उनके द्वारा इतिहास निर्माण में उन्हें दृष्टि और शक्ति मिले। ...इतिहास में जन और जन में इतिहास का संचार ही इतिहास को इतिहास निर्माण का उपकरण बना सकता है।
 (हिन्दी कलम: इतिहास लेखन की समस्याएँ (खंड-दो) पृ.-77)
दरअसल सामाजिक स्तरीकरण की सैद्धान्तिकी और कार्य व्यापार द्वारा प्रत्यक्षत: और परोक्षत: मन-मस्तिष्कों को अनुकूलित करने की प्रक्रिया निरन्तर सक्रिय रहती है। अतएव 1757 ई. के प्लासी के युद्ध में ईस्ट इंडिया कम्पनी की विजय के पश्चात् 100 साल तक नई व्यवस्था में अपने सामंजन के लिए निरन्तर प्रयासरत हारे-थके निस्तेज राजे-रजवाड़ों-सामन्तों का 1887 का विद्रोह तो प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में रेखांकित होता है (किसानों और आमजनों की भूमिकाएँ यहाँ भी प्रारंभ में उपेक्षणीय ही रही)। किन्तु 1765 ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी को बंगाल की दीवानी मिलते, बिना किसी मनसबदारी-जमींदारी की लालच में समय गवाये या बिना किसी अनुकूलन-सामंजन की प्रतीक्षा किए 1767 ई. के जंगल महाल के खैरा-मांझियों- भूमिज-धालों की क्रान्ति से प्रारंभ आदिवासी क्षेत्रों की उलगुलानों की श्रृंखला भारत के इतिहासकारों के ध्यान में नहीं आती। बात बस इतनी सी है कि भारत में सामाजिक स्तरीकरण के दोनों प्रमुख कारकों-शास्त्रीय और लौकिक की कसौटियों पर आदिवासी कहीं टिकते ही नहीं। शास्त्रीय स्तरीकरण चतुर्वणीय विभाजन को आधार मानता है, ब्राम्हणवादी दृष्टि आदिवासी समुदायों को चतुर्थ वर्ण की ही मानती रही है अत: वह उन्हें या उनके इतिहास को महत्व क्यों दें? दूसरी ओर लौकिक सामाजिक स्तरीकरण का आधार आर्थिक समृद्धि और राजनीतिक शक्ति है, इस नजरिए से आदिवासी समुदायों में इन दोनों तत्वों का भी अभाव है तो क्यों महत्ता प्रदान की जाए? नतीजन राजस्थान, पूर्वी गुजरात, मध्यप्रान्त, निमाड़, खानदेश, बस्तर, उत्तरपूर्व, आन्ध्र, झारखंड आदि बड़े-विशाल, विस्तृत भू-भाग पर 1767 ई. से प्रारंभ हो कर निरन्तर गतिशील प्रतिकार-प्रतिरोध-क्रान्ति की घटनाएँ कथित मुख्यधारा द्वारा उपेक्षित-अनदेखी और अजानी रह गई।
झारखण्ड के इतिहासकार डॉ. बालमुकुन्द वीरोत्तम आदिवासी समुदायों और उनके क्षेत्रीय इतिहास लेखन की कठिनाईयों को छोटानागपुर के सन्दर्भ में निम्नवत् व्यक्त करते हैं, ''छोटानागपुर का इतिहास अद्यतन उपेक्षित रहा है। पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वानों द्वारा गत दो सौ वर्षों से यदा-कदा इससे सम्बद्ध सामग्री प्रस्तुत की जाती रही है, किन्तु क्रमबद्ध एवं गवेषणात्मक निरूपण का प्राय: अभाव रहा है। क्षेत्रीय इतिहास के इस महत्वपूर्ण अंश पर हिन्दी सहित किसी भी भारतीय भाषा में कोई प्रमाणिक पुस्तक नहीं लिखी गई। सहायक सामग्रियों का अभाव, क्षेत्रीय इतिहास पर मौलिक लेखन की दृष्टि का अभाव तथा कार्य का अत्यधिक श्रमसाध्य होना ही संभवत: प्रमुख बाधाएँ थीं।''
 (डॉ. बी. विशेषज्ञ: झारखण्ड: इतिहास एवं संस्कृति: आमुख)
ब्रिटिश काल में आदिवासी क्षेत्र विषयक अध्ययनों में रूचि लेने वाले तीन प्रकार के लोग थे,- नृतत्वशास्त्री और ब्रिटिश अधिकारीगण और ईसाई धर्म प्रचारक। नृतत्वशास्त्री और ब्रिटिश अधिकारीगण से कानून एवं व्यवस्था के प्रति बार-बार होने वाले स्थानीय उपद्रवों से उत्पन्न खतरों के कारण विशेषत: जनजातियों में रूचि लेते थे। ऐसे ब्रिटिश अधिकारियों में डब्लू. जी. आर्चर, डब्लू.डब्लू. हँटर, ई.टी. मैन, डब्लू. बी. ग्रिग्सन आदि का नाम लिया जा सकता है। नृतत्वशास्त्री दृष्टिकोण से प्रभावित लेखकों में वेरियर एल्विन, ई.टी. डाल्टन, एच.एच. रिसले आदि अग्रणी थे। ईसाई धर्म प्रचारकों ने अपने सामाजिक सांस्कृतिक-भावात्मक दृष्टिकोण से इन क्षेत्रों का अध्ययन किया। ऐसे लोगों में फादर जॉन हॉफमैन, एल.ओ. स्क्रेफर्सड, पी.ओ. बोडिंग आदि का उल्लेख किया जा सकता है। शरतचन्द्र राय जैसे भारतीय नृतत्वशास्त्री के नियमित प्रकाशित जर्नल 'मैन ऑफ  इन्डिया' ने भी शुद्ध नृतत्वशास्त्री दृष्टिकोण से उल्लेखनीय काम किया किन्तु उनका नजरिया भी साम्राज्यवादी शासक वर्ग के अनुरूप था।
नृतत्वशास्त्रियों, ब्रिटिश अधिकारियों और ईसाई मिशनरियों के इन अध्ययनों का मुख्य उद्देश्य विजित लोगों का वर्गीकरण, इनके प्रति प्रशासनिक-सामाजिक नीतियों का निर्धारण तथा इनका औपनिवेशिक व्यवस्था में संलयन था। अतएव इन सामाग्रियों की सीमाएं स्पष्ट हैं। ये सत्ता की दृष्टि है, जो परिवर्तन-प्रतिकार-प्रतिरोध की हर हलचल को दुश्मन के नजरिए से देख रहा होता है, जो उनके 'विधि के शासन' को स्वीकार नहीं करता वह अपराधी, असभ्य, चुहाड़, कोल (सुअर) होता है। इन सारे सरकारी दस्तावेजों, अदालती गवाही, पदाधिकारियों के पत्राचार, चश्मदीद बयान आदि को बहुत सावधानी से पढऩे की आवश्यकता होती है, क्योंकि इनमें आदिवासी नायक हुड़दंगी/अपराधी की तरह ही दर्ज होता है। उनकी आवाजें या उनका पक्ष वहाँ या तो दर्ज नहीं हो पाता या उसकी झलक मात्र ही वहाँ मिलती है।
भू-राजस्व नीतियों की भारतीय परम्परागत व्यवस्था को अपने पूर्वाग्रह-अनुभव-स्वार्थ एवं लालच से प्रभावित होकर ब्रिटिशों द्वारा पूरी तरह उलट दिया जाना एवं वन क्षेत्रों पर पहली बार आधिपत्य कायम करने की जबरन प्रक्रिया इन्हीं दो मूलभूत कारणों ने 1857 ई. के कथित प्रथम स्वतंत्रता आन्दोलन के लगभग 90 वर्ष पूर्व से आदिवासी इलाकों में क्रान्ति की अन्तहीन क्रम को जन्म दिया। बिचौलियों, सूदखोरों, महाजनों के अन्तहीन शोषण ने इन प्रतिकार की ज्वालाओं को प्रज्ज्वलित करने में घी का काम किया।
इतिहासकार निर्मल पुरी के अनुसार ''प्राक्-ब्रिटिश भारत में राजकीय सामंती व्यवस्था विद्यमान थी जो कि ब्रिटिश सामंती व्यवस्था के विपरीत थी। यहाँ भूमि पर निजी स्वामित्व नहीं था, वरन् सामूहिक स्वामित्व था। जमीन का स्वत्व कृषक समुदाय के अलावा किसी अन्य के हाथ में नहीं रहा। सामंतों एवं सम्राटों दोनों के शासन काल में यही स्थिति रही। सामाजिक बंधनों के मजबूत होने के कारण भूमि जन-जाति या उसके उप विभाजन जैसे ग्राम-समुदाय, गोत्र या बिरादरी की होती थी, वह कभी राजा की सम्पत्ति नहीं मानी गई।
(राधा कमल मुखर्जी, पृ0-16)
कृषि योग्य भूमि केवल उसकी थी, जिसको गाँव-समुदाय द्वारा कृषि करने का अधिकार मिला था। ''जो भूमि कृषि योग्य नहीं थी वह सभी गाँववालों के लिए हल-पाली की तरह सुलभ थी'' (ताराचंद, भारतीय स्वतंत्रता का इतिहास खंड-1)
सामूहिक आधिपत्य होने के कारण गाँव का उत्पादन विनिमय के लिए तो उपलब्ध था किन्तु उसे बेचा नहीं जा सकता था। यहाँ तक कि भूमि भी कभी पण्य वस्तु नहीं रही, अर्थात् उसे न कभी बेचा जा सकता था और न ही खरीदा जा सकता था। लगान आदि का निर्णय भी गाँव की ओर से ही किया जाता था, जो कि फसल का ही भाग होता था। वे ही उत्पादन पण्य थे जिनका भुगतान 'कर' के रूप में किया जाना था। लगान खड़ी फसल के आधार पर ही लगाया जाता था और इसकी मात्रा कभी पहले से निश्चित नहीं होती थी। इसका भुगतान भी फसल के रूप में ही किया जाता था, नगद मुद्रा के रूप में नहीं।''
(भारत में उपनिवेशवाद: कृषि-व्यवस्था तथा उत्पादन पर औपनिवेशिक प्रभाव पृ.-46)
इतिहासकार निर्मल पुरी ने प्राक्-ब्रिटिश भारत के मुख्य भूभाग की भू-राजस्व स्थिति का चित्रण किया है, किन्तु पूर्वी गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रान्त, निमाड़, बस्तर, झारखण्ड, उत्तरपूर्वी प्रदेश के आदिवासी बाहुल्य इलाकों की स्थिति और भी भिन्न थी। झारखण्ड और निमाड़ के निम्न उल्लेखित उदाहरणों से यह स्थिति ज्यादा स्पष्ट होगी।
डॉ. बी. वीरोत्तम के अनुसार ''12 अगस्त, 1765 ई. को मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय ने ''इंगलिश कम्पनी'' को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी (राजस्व प्रशासन) मिली। ईस्ट इंडिया कम्पनी के अनुसार छोटानागपुर बिहार का भाग था, अत: उम्मीद की जाती थी कि इस क्षेत्र के राजा और जमीन्दार भी कम्पनी सरकार को कर देंगे। कम्पनी की यह धारणा निराधार थी, क्योंकि छोटानागपुर के राजागण इस क्षेत्र के ऐतिहासिक शासक थे, जिन्होंने मुगलों द्वारा बिहार-बंगाल विजय से पहले ही अपने राज्यों की स्थापना कर ली थी। वे अपने राज्यों के स्वतंत्र शासक थे जो कभी-कभी मुगल बादशाहों और बाद में बंगाल के नवाब को कर दे दिया करते थे। उनकी स्थिति मुगल साम्राज्यों के अधीनस्थ कर राजाओं की थी और जब-जब उन पर मुगलों के हमले हुए उन्होंने थोड़ा-बहुत कर देना स्वीकार कर लिया। इस तरह छोटानागपुर की स्थिति बिहार-बंगाल से (जिन पर मुगलों का नियमित प्रशासन था) सर्वथा भिन्न थी। अत: बिहार-बंगाल-उड़ीसा के दीवान के  रूप में कम्पनी का छोटानागपुर से भी कर वसूलने का दावा कानूनी रूप से अवैध था।''
(झारखण्ड: इतिहास एवं संस्कृति पृ.-77)
ऐसा नहीं था कि केवल छोटानागपुर या अन्य आदिवासी इलाकों के कथित राजे नियमित रूप से मुगलों-नवावों या मराठों को कर नहीं चुकाते थे बल्कि इन इलाकों के आदिवासी रैयत, जिन्होंने खुद जंगलों को काट कर खेत-गाँव आबाद किया था और स्वगोत्रीय स्वजनों के साथ पीढिय़ाँ गुजार रहे थे, लगान जैसी नियमित कर-व्यवस्था के साथ कभी सहज नहीं रहे थे। उनकी अपनी त्रिस्तरीय स्वशासन की व्यवस्था थी (मुण्डा-मानकी-तीन मानकी/मांझी-परगना- दिसुम परगना/महतो-पड़हाराजा आदि) जो उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक-अपराधिक समस्याओं का समाधान करने में सक्षम थी, तो फिर वे क्यों किसी जमीन्दार-गुमश्ता को कोई लगान दें।
...स्थानीय जमीनदार भी राजाओं को नियमित 'कर' देने में आनाकानी करते थे। छोटानागपुर के तमाड़ की स्थिति के विवरण से यह परिस्थिति ज्यादा स्पष्ट होगी, ''तमाड़ प्राय: हमेशा ही उथल-पुथल की स्थिति में रहा। इसने 25 वर्षों से भी अधिक समय से छोटानागपुर के नागवंशी राजाओं को नकार दिया था। नागवंशी शासक दर्पनाथ शाह ने इसके दमन के कई प्रयास किए थे। दो बार उसे इस काम में मराठों से भी सहायता मिली थी। किन्तु इसके सभी प्रयास विफल हुए थे।''
(बी. वीरोत्तम, झारखण्ड-इतिहास एवं संस्कृति पृ.-181)
अब देश के भौगोलिक क्षेत्र के बड़े हिस्से में बसे भीलों की परम्परा-व्यवस्था पर नजर डालें तो आदिवासी समुदायों की स्वायतता की स्थिति ज्यादा स्पष्ट होगी। भीलों की पहाड़ी इलाकों में बिखरी-बिखरी सी बसावट मध्यप्रदेश, गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र की सीमाओं को छूती है। किन्तु शशांक कइला ने अपनी पुस्तक 'ए रॉग एण्ड पेजेन्ट स्लेव: आदिवासी रेजिस्टेन्स 1800-2000' में भीलों के इतिहास के अध्ययन के लिए मुगलों द्वारा रेखांकित निमाड़ प्रान्त का चयन किया है, जो पश्चिमी मध्यप्रदेश के आधुनिक जिलों झाबुआ, अलीराजपुर, धार, बड़वानी और खरगौन के सम्मिलित इलाके की संज्ञा थी।
''बम्बई के गवर्नर जॉन मेलकॉम ने ए. मेमॉयर ऑफ  सेन्ट्रल इंडिया वॉल्यूम-1 में उल्लेखित किया है कि ''निमाड़ के भीलों का तराई क्षेत्र पर कोई अधिकार हो इसका कोई दस्तावेज तो नहीं मिलता किन्तु उनका उस इलाके के पहाड़ी भू-भागों पर पूर्ण अधिकार था। वे अपने नायकों के नेतृत्व में सदियों से उन इलाकों को नियंत्रण बनाये हुए थे, जिनमें से कई अपनी समृद्धि और शक्ति के कारण अत्यन्त प्रतिष्ठित और विख्यात थे।''
... कई राजदरबारों में नये राजा के सिंहासनारूढ़ होने के समय भील नायक उनके ललाट पर तिलक लगाते थे। यह भीलों से राजपूतों को राजत्व के हस्तान्तरण की प्रतीकात्मक रस्म थी। गवर्नर मेलकॉम के कार्यकाल में अलीराजपुर के राजदरबार में इस 'तिलक' की रस्म सम्पन्न हुई थी।
कुछ भील समुदाय सुस्पष्ट रूप से रजवाड़ों की अधीनता से मुक्त थे। मान्डु क्षेत्र के भील समुदायों ने धार राज सरकार की अधीनता कभी भी स्वीकार नहीं की थी। धार इलाके के ही जमनिया क्षेत्र भील कर देने के बदले राजा को सलाना उपहार दिया करते थे।
...सतपुड़ा के भील नायक राज्य की सार्वभौमिकता में हिस्सेदारी करते थे। सतपुड़ा के भील नायक सैन्य टुकडिय़ों के सेनापति की तरह होते थे और अपने इलाके से गुजरने वाले सड़कों पर महसूल/मार्गकर (ञ्जशद्यद्य) वसूलते थे। वे स्थानीय अदालतों से दस्तूर (प्रथागत वसूली) और तराई के गाँवों से अनाज तथा धान के रूप में खिराज/नजराना वसूलते थे।''
(शशांक कइला: ए रॉय एण्ड पेजेन्ट स्लेव पृ.-59-61)
कुछ प्रतिष्ठित और विख्यात भील नायकों के विवरण से स्थिति और स्पष्ट होगी।
''1820 ई. में दोवलिहा नायक का बड़वानी जिले या कस्बा के हर सिंचित भूमि से कर वसूलने का प्राचीन हक या प्राधिकार स्वीकार किया गया। (10 मार्च, 1820 का मुड़वानी के राणा एवं दोवलिहा नायक के बीच अनुबन्ध, दक्खन कमीश्नर रिकॉड्र्स, वौल्यूम, 343, पुना आर्काइंव)
धाबाबावादी (ष्ठद्धड्डड्ढड्डड्ढड्ड2ड्डस्रद्ब) नायकों को उनके जिले से गुजरने वाले व्यापारियों के हर माल पर लेवी या हल्का कर वसूलने का अधिकार था। वे अपने जिले के प्रत्येक छियासी (86) गाँवों से सलाना एक रूपये, एक बकरा और चार सेर अनाज प्राप्त करते थे। गाँवों के हर खेत के जेरात फसल से भी हिस्सा मिलता था। (लेटर डेटेड 22 नवम्बर, 1852 फ्रॉम इट्चिन्सन टू हैमिल्टन इन फॉर. पॉल. न. 91-93, 21 जनवरी, 1853,एन.ए.आई.)
ये वसूलियाँ भील कुलों के क्षेत्रीय प्राधिकार को अभिव्यक्त करती थी। अगर स्थानीय अदालतें कर चुकाने में असफल रहती तो उन्हें भील नायकों की टुकडिय़ों की छापामारी का सामना करना होता था। 1842 ई. में भीलों का छापामार दस्ता नीचे उतरा और खरगौन के निकट होल्करों के इलाके में छापामारी की, क्योंकि होल्करों के स्थानीय अधिकारियों ने भीलों के कुछ अधिकार को मानने से इन्कार किया था और कुछ वसूली अवैध तरीके से रोक रखी थी। (लेटर डेटेड 25 फरवरी, 1842 फ्रॉम वडे टू एब्वॉट, फॉर. पॉल. न. 127, 14 मार्च, 1842 ,एन.ए.आई.)
ऐसे भी भील नायक थे जो अपने राजा मानते थे। उनमें से सबसे प्रसिद्ध जमनिया के वंशानुगत पटेल नादिर सिंह थे जिनके पास 200 घुड़सवार और 600-700 पैदल सैनिकों की टुकडिय़ाँ थीं। पैदल सैनिकों में भीलों के अलावे भाड़े के सैनिक भी थे।
(शशांक कइला: ए रॉग एन्ड पेजेन्ट स्लेव पृ.-61-62)
इतिहासकार निर्मलपुरी, डॉ. बी. वीरोत्तम एवं शशांक कइला के उद्धरणों से भारत में प्रचलित भू-राजस्व पद्धति एवं आदिवासी समुदायों की स्वायतत्ता स्पष्ट होती है। किन्तु ब्रिटिश बिल्कुल दूसरी तरह की अवधारणाओं के साथ काबिज हो रहे थे। ईस्ट इंडिया कम्पनी और उसके वारेन हेस्टिंग्स, लॉर्ड कॉर्नवालिस जैसे हुक्मरानों ने हिन्दुस्तानी मिजाज के बरखिलाफ  केवल राजस्व के अधिकतम दोहन और ग्राम्य अर्थव्यवस्था की तबाह करने के लिए भूमि को 'जिन्स' में तब्दील कर दिया। वह जमीन जो अब तक माँ थी, समुदाय-गाँव-गोत्र की अमानत थी 'परिसम्पत्ति' में बदल गई जो खरीदी-बेची रेहन रखी जा सकती थी।
अंग्रेज 'सम्प्रभू अधिकार' (Eminent Domain) की अवधारणा के साथ पधारे थे। उनके मानस में यह बसा था कि जमीन पर इकलौती मिल्कीयत राजसत्ता की है। राजसत्ता ही असली मालिक है। समुदाय-गाँव, पीढिय़ों से उसे जोतने कोडऩे वाले, घने जंगलों को काटकर, पथरीली विषय भूमि को सम बनाने वाले 'रैयत' को केवल मालगुजारी के बदले ही खेती करते रहने का हक है।
इसी सिलसिले में ब्रिटेन के इन्क्लोजर कानूनों पर भी नजर डाली जानी चाहिए जिसने भारत में भी ब्रिटिश हुक्मरानों की नीतियों को स्पष्टतया प्रभावित किया और उनकी उत्तराधिकारिणी भारतीय राजसत्ता भी उनके प्रभाव से अब तक मुक्त नहीं हो पाई है। ब्रिटिश संसद ने इन्क्लोजर कानूनों के माध्यम से 'गैर मजरूआ आम'/सामुदायिक जमीनों को कब्जे में लेने की मुहिम शुरू की थी। हालांकि इन्क्लोजर कानून 12वीं सदी से ही बनने शुरू हुए थे किन्तु इनका बहुलांश 1750 से 1860 के बीच आया था। इसके माध्यम से ऐसी 'गैरमजरूआ आम' भूमि जिस पर किसान खेती कर रहा था, पशु चरा रहा था, सामुदायिक वन सम्पदा या सैरात (जल संरचनाएँ) का उपयोग कर रहा था या अन्य किसी प्रकार का सामुदायिक उपयोग कर रहा था, उनसे छिन कर, बाड़ा-बन्दी कर बड़े जमीनदारों या धनी भेड़ पालकों के कब्जे में दे दी गई। ब्रिटिश संसद ने अभिजात्यों और धनी जमीनदारों के पक्ष में लगभग 5000 (पाँच हजार) इन्क्लोजर कानून बनाये। 1801 ई. में ब्रिटिश संसद ने इन्क्लोजर कॉनसोलिडेसन कानून बना कर पुराने वैयक्तिक कानूनों को एक साथ जोड़ दिया।
सन् 1845 ई. में सामान्य 'इन्क्लोजर कानून' के माध्यम से एक इन्क्लोजर कमीश्नर की नियुक्ति की गई जो बिना ब्रिटिश संसद के समक्ष कोई अभ्यावेदन दिए, किसी भी किस्म की कोई गैर मजरूआ भूमि अधिग्रहित कर सकता था। इस प्रकार की कानूनी लूट के माध्यम से ब्रिटेन की कुल कृषि योग्य भूमि का 21 प्रतिशत आम लोगों से जबरन छिन कर चन्द हाथों में सौंप दिया गया। भूमिहीन तबाह ब्रिटिश किसानों की भीड़ से शहरों की सड़के-गलियाँ-फुटपाथ भर गए जिनसे नये कारखानों के लिए बंधुआ गुलाम मिले।
(पेपर्स बाय कमान्ड वौल्यूम-12 बाय ग्रेट ब्रिटेन पार्लियामेन्ट, हाउस ऑफ कॉमन्स पेज-588 द इंग्लिश पेजेन्ट्री एण्ड द एन्क्लोजर ऑफ  कॉमन फील्डस: गिल्वर्ट स्लेटर)
सोने, चाँदी, खनिज, भूमि की लालच में ब्रिटिश एवं अन्य यूरोपीय साम्राज्यवादी कितने बर्बर हो सकते थे इसका प्रमाण वे अमेरिकी महाद्वीपों में दे रहे थे। दक्षिण अमेरिका की माया, इन्का और एज्टैक सभ्यताएँ, उत्तरी अमेरिका की अपाची, होपी, नावाहो, पाब्लो, मोहाव, मिनोमिनि, शायेन, चिरोकी आदि जन-जातियों की लगभग 1 करोड़ अबादी से घटते-घटते हजार-सैकड़ा तक सिमट कर रह गई और इस नरसंहार/होलोकॉस्ट के कत्र्ता-धत्र्ता समुची दुनिया में अपने को 'रूल ऑफ  लॉ' और लोकतंत्र के जन्मदाता कहते इतराते फिर रहे थे। एक रेड इंडियन माँ की बेटी रोक्साने डूनबार ओत्र्तिज की पुस्तक 'एन इन्डिजेनस पीपुल्स हिस्टरी ऑफ द यूनाईटेड स्टेट्स' का एक-एक पन्ना उन नरसंहारों के रक्त से सना हुआ है। चाहे अपने को 'इंडियन हेटर, इंडियन किलर' कहने वाले एन्ड्रू जैक्सन से जुड़ा अध्याय हो या विभिन्न जनजातियों के खिलाफ  'टोटल वार' से जुड़े अध्याय हों या 'ट्रेल ऑफ टियर्स', नरसंहार के ये वीभत्स तरीके रोंगटे खड़े कर देते हैं। जनजातीय प्रतिकार के पश्चात् गाँवों-खलिहानों को जलाने, स्त्री-पुरूष, वृद्ध-शिशु सबके कत्ले आम की प्रविधि अमेरिकी महाद्वीप में भी अपनाई गई और हमारे यहाँ भी।
केवल अपनी भू-राजस्व नीतियों से ही ब्रिटिशों ने विशेषकर बंगाल (जिसमें बिहार, उड़ीसा, असम सम्मिलित थे) प्रान्त को एक तरह से तबाह और बर्बाद कर दिया। इतिहासकार निर्मल पुरी के अनुसार, ''कृषि क्षेत्र में कम्पनी ने पहला कदम बंगाल में लगान वृद्धि करके उठाया। 1764-65 में लगान के रूप में वसूलने योग्य रकम (केवल बंगाल में) 81,75,533/-रू. थी जिसको कम्पनी ने अपने पहले ही वित्तीय वर्ष में लगभग दुगुना (1,14,04,675/-रू.) कर दिया। इस लगान में बराबर वृद्धि ही होती रही और 1790-91 तक यह रकम 26,80,000 पौण्ड हो गई। इस तरह से भारत का धन एक बरसाती नाले की तरह इंग्लैंड की ओर बहने लगा।
...वारेन हेस्टिंग्ज ने बंगाल को एक बूचडख़ाना बना दिया था। वह अपने पीछे दुर्दशा, उपद्रवों और अकालों की श्रंृखला छोड़ गया था।
... कार्नवालिस की स्थायी बन्दोवस्ती के परिणामस्वरूप किसानों के असीमित शोषण का दौर शुरू हुआ।''
(निर्मल पुरी: भारत में उपनिवेशवाद: कृषि व्यवस्था तथा उत्पादन पर औपनिवेशिक प्रभार पृ.-49-51)
भारत के जंगलों में अंग्रेज चोर की तरह घुसे फिर मालिक बन कर धौंस जमाने लगे। जंगलों में ओर उसके पास पीढिय़ों से निवास कर रहे आदिवासी/गैर आदिवासी समुदायों पर धौंसपट्टी जमाने और उन्हें ही चोर-अतिक्रमणकारी साबित करने के लिए वन कानूनों का सहारा लिया। उन्हें बन्दरगाहों के विकास के लिए जंगल की लकडिय़ाँ चाहिए थी, रेल की पटरी बिछाने के लिए स्लीपर्स चाहिए थे, उनके बंगलों के अन्दरूनी सजावट के लिए लकडिय़ाँ चाहिए थी। कम्पनी के हाकिम एवं अमला दोनों के लिए जंगल की इमारती लकडिय़ों का अवैध व्यापार ऊपरी आमदनी का बड़ा जरिया था। उदाहरणार्थ वारेन हेस्टिंग्स ने 1750 ई. में किरानी के रूप में कम्पनी की नौकरी में शामिल हुआ था। 1764 ई. में उसने बक्सर की लड़ाई के बाद इस्तीफा दे दिया था। बंगाल में दलाल के मार्फत से जंगल से इमारती लकड़ी की अवैध कमाई से जुड़ गया। अकूत सम्पदा इक्कठा कर लौटा और प्रोन्नति लेकर 1765 ई. में मद्रास कौंसिल का दूसरा प्रधान सदस्य बन कर लौट आया। बहरहाल इतिहासकार रामचद्र गुहा ने भारतीय वनों में अंग्रेजों के घुसपैठ, फिर उनका मालिक बन जाना और पीढिय़ों से वहाँ निवास कर रहे आदिवासी समुदायों एवं वनों की तबाही को कुछ यूँ रेखांकित किया है, ''उपमहाद्वीप में 1853 और 1910 के बीच 80 हजार किलोमीटर से अधिक रेलवे लाइन बिछाई गई थी। रेलवे विस्तार के शुरूआती वर्षों में भारत के वनों पर निर्मम हमला देखा गया। रेलवे स्लीपरों की मांग पूरी करने के लिए भारी मात्रा में जंगल तबाह किए गए। हर साल 10 लाख से ज्यादा स्लीपरों की जरूरत थी। मिसाल के लिए गढ़वाल और कुमाऊँ के साल के जंगल बेतहाशा काटे गए और हजारों पेड़ गिराए गए, जो कभी हटाए नहीं गए और न उनका हटाया जाना मुमकिन था।
...1864 ई. में भारतीय वन विभाग की स्थापना हुई। विभाग प्रभावी तरीके से काम कर सके, इसके लिए जरूरी था यह उपयोग करने के उन निर्बाध अधिकारों को रोके, जिनका व्यवहार दक्षिण एशिया का ग्रामीण समुदाय पहले से करते आ रहा था। ...1869 ई. भारत सरकार ने प्रान्तों को एक नया मसौदा अधिनियम भेजा।
...नया कानून इस आकलन पर आधारित था कि वास्तव में जोत के बाहर की सारी जमीन राज्य की है। हालांकि किसानों और दूसरे ग्रामीण समूह सदियों से वन भूमि को अपने उपयोग में लाते रहे थे और इसको चाह कर आसानी से खत्म नहीं किया जा सकता। औपनिवेशिक राज्य अब कह रहा था कि यह इस्तेमाल, चाहे वह कितना भी व्यापक और लम्बा रहा हो, उपनिवेश पूर्व की राजशाही के रहमो-करम पर ही किया जा रहा था। जब तक यह लिखित में दर्ज न हो, व्यावहारिक उपयोग एक विशेषाधिकार था, अधिकार नहीं था। लिहाजा चूँकि ब्रिटिश सरकार भारतीय शासकों की उत्तराधिकारी थी, इसलिए जंगलों और परती भूमि का मालिकाना अब इसके पास था।
हालांकि औपनिवेशिक शासन में ही असहमत आवाजें मौजूद थी। भारत सरकार द्वारा भेजे गए वन विधेयक के मसौदे पर मद्रास सरकार ने अपने विभिन्न अधिकारियों से उनकी प्रतिक्रिया मांगी। ऐसे नजरियों में से एक नल्लोर के डिप्टी कलेक्टर नारायण राव का नजरिया पूरी तरह प्रातिनिधिक है। उन्होंने कहा कि प्रास्तविक विधेयक से पहले ऐसी कोई ऐतिहासिक मिसाल नहीं है क्योंकि इस देश में वास्तव में कोई सरकारी वन नहीं रहा। यहाँ वन हमेशा एक प्राकृतिक विकास रहे हैं, और इसलिए जनता उनका लाभ उठाती रहती है। एक और डिप्टी कलेक्टर वेल्लारी के वेंकटाचलम पंतलु ने दलील दी कि नए विधेयक का बोझ सबसे ज्यादा गरीबों पर भारी पड़ेगा। जबकि बड़े जमींदारों के लिए अपनी वन संपत्ति पर राज्य की दावेदारी को नकारना अपेक्षाकृत आसान होगा, निरक्षर किसान अपना स्वामित्व साबित कर पाने में सक्षम नहीं होंगे, भले ही उनके द्वारा पारंपरिक रूप से वनों का उपयोग सामुदायिक सम्पत्ति के रूप में किया जाता रहा हो।
...मद्रास सरकार की आपत्तियों की उपेक्षा कर 1878 का भारतीय वन अधिनियम, कानून का ऐसा विस्तृत नमूना था, जिसने दूसरे ब्रिटिश उपनिवेशों में एक मॉडल का काम किया। भारत में इसने राज्य को वनों के व्यावसायिक दोहन के विस्तार की इजाजत दी जबकि इसने आजीविका के लिए स्थानीय उपयोग पर अंकुश बनाये रखा। ग्रामीण वन अधिकारों को नकारने की वजह से देश भर में विरोध भड़क उठे। 1893 में छोटानागपुर, 1910 में बस्तर, 1879-80 और फिर 1922-23 में गुडेप-रांपा, 1920 में मिदनापुर, 1940 में आदिलाबाद के विद्रोह। जहाँ असंतोष खुल कर और सामूहिक विद्रोह के रूप मेें जाहिर नहीं हुआ, वहाँ भी आगजनी और वन कानूनों के दूसरे तरीकों से उल्लंघन के रूप में व्यक्त हुआ।
(रामचन्द्र गुहा: उपभोग की लक्ष्मण रेखा पृ0-99-103)
औपनिवेशिक सत्ता द्वारा परम्परागत भू-राजस्व प्रणाली को केवल स्वार्थवश उलटने, वन क्षेत्रों पर जबरन कब्जा करने, आदिवासी समुदायों की भिन्न स्थिति, हैसियत, स्वायत्तता को अमान्य करने और सैन्य अभियानों के बल पर कुचलने-तबाह करने की पृष्ठभूमि में हम पूरे देश के आदिवासी उलगुलानों से आगे के आलेखों में परिचित होने की कोशिश करेंगे।

सन्दर्भ ग्रन्थ:
1.     रणेन्द्र, सुधीर पाल : झारखण्ड एन्साइक्लोपीडिया: हुुलगुलानों की प्रतिध्वनियाँ, खंड-1
2.     डॉ. बी. वीरोत्तम : झारखण्ड: इतिहास  एवं  संस्कृति
3.     डॉ. सत्या राय : भारत में उपनिवेशवाद
4.     सं. नीलकान्त : हिन्दी कलम: इतिहास-लेखन की समस्याएँ (खंड-2)
5.     Gilbert Slater : The english peasantry and enclosure of common field
6.     Papers by command Valume-12 : By great Britain_Parliament, House of Commons, Pg-585
7.     Shashank Kela : A rogue and peasant slave (adivasi resistance-1800-2000)
8.     ed. Crispin Bales and Alpha Shah : Savage attack (Tribal insurgencey in india
9.     ed. K.S. Singh : Tribal Movement in india (vol.I&II)
10.     रामचन्द्र गुहा : उपभोग की लक्ष्मण रेखा

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