कुछ उजाले ही कम हैं राहों में।
या है कम रौशनी निगाहों में।।
कौन पूछे मिजाज़ मंज़िल का। कारवां गुम है शाहराहों में।।
इम्तियाज़ इम्तियाज़ दावरे हश्र। मेरी मज़बूरियाँ गुनाहों में।।
रफ्ता रफ्ता सिमट के मेरी हयात। रह गई है मेरी निगाहों में।।
बस गई आपकी निगाहों से। एक दुनिया नई निगाहों में।।
जाने क्या रंग लाये खूँ मेरा। मेरा क़ातिल है अब गवाहों में।।
फिर खता याद आ रही है मुझे। फिर वही साज़िशें1 है आहों में।।
पीके निकला जो मयकदे से ख़िज्र। दो जहाँ थे मेरी निगाहों में।।
एक होता है अपनी बाहों में। और कोई दूसरा निगाहों में।।
1. जलन
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सब सोज़ो साज मिट जाए तूफाँ नहीं रहा। अब कोई दिल बहलाने का सामाँ नहीं रहा।।
तय कैसे होंगी राहे तमद्दुन की मंजिलें। आज़ादिये ख़याल का हमकाँ नहीं रहा।।
कुछ काम आ सके न मेरे बाल-व-पर कभी। मुझको ही पर फिशानी का अरमाँ नहीं रहा।।
पाबस्तगीय लानते मज़हब से बच गये। हिंदू नहीं रहा मैं मुसलमाँ नहीं रहा।।
छोड़ो ग़रीब ख़िज्र को इमाँ के तबस। कब था जो आज साहबे इमाँ नहीं रहा।।
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उसकी दहशत कबूल हो जैसे। मुझको शैताँ रुसूल हो जैसे।।
मार कर मुझको मौत पछताई। लग रहा था मलूल हो जैसे।।
क्या गिला हो तेरे इशारों का। जिन में अपनी ही भूल हो जैसे।।
मेरी हर हार में लगे हैं मुझे। जी का कुछ शमूल हो जैसे।।
छूने देता नहीं लतीफ अहसास। शेरगोई फजूल हो जैसे।।
सारे नाटक का रूप आँक लिया। बैठना हीं फजूल हो जैसे।।
किसी बेदर्द की जफ़ाओं को। याद रखना भी भूल हो जैसे।।
सदियों आगे की बात करता है। ख़िज्र कोई रसूल हो जैसे।।
ढीली इक एक चूल हो जैसे। बे उसूली वसूल हो जैसे।।
1. उदास गमगीन, 2. शामिल होना
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रंगों बू जब वफ़ा नहीं करते। खिल के भी गुल खिलाना न करते।।
आयेगा कल तो सोचा जायेगा। फिक्रे फर्दा1 किया नहीं करते।।
जिन मे नामे खुदा सियासत हो। वह सहीफे2 छुआ नहीं करते।।
अभी शबनम हूँ और अभी शोला। मुझ से पैदा हुआ नहीं करते।।
ज़िंदगी बेवफ़ा है तो हम भी। बेवफ़ा से वफ़ा नहीं करते।।
पास3 है दर्द देने वाले का। दर्द की हम दवा नहीं करते।।
पत्तियों पर ही होती है छिड़काव। जड़ की नश्बोनुमा4 नहीं करते।।
पा गये निगहेयार से क्या खिज्र। अब ज़मी पर रहा नहीं करते।।
1. आने वाले कल की फिक्र, 2. लिखा हुआ (किताब), 3. लेहाज, 4. उगना या बढ़ाना।
बाबू हरिशंकर लाल श्रीवास्तव, ख़िज्र 1922-2013
ख़िज्र साहब बलरामपुर के प्रसिद्ध शिक्षाविद और साहित्यकार थे। वे अंग्रेज़ी, हिन्दी, अवधी और फ़ारसी में साहित्य सृजन करते थे, परंतु अवध में वे अपनी उर्दू शायरी, और बेधक व्यंग्य के लिए विख्यात थे। उनकी कविताओं में भाषा का बाँकपन, संक्षिप्तता, चुटीलापन, अपरोक्षता और स्वत: प्रवृत्ति पर जोर है। विदग्ध पांडित्य एवं संपन्न जीवनानुभवों के बावजूद उनके यहाँ न तो और किसी कवि की नकल है और न ही किसी को अनुगूँज। जीवन की भाषा, देशज शब्दों और अभिव्यक्तियों का आनुपादिक प्रयोग, प्रांजलता और गहन सामाजिक चेतना उनके साहित्य के जीवंत गुण हैं। |