पंडित रतननाथ सरशार

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    अक्टूबर 2015
श्रेणी पंडित रतननाथ सरशार
संस्करण अक्टूबर 2015
लेखक का नाम राजकुमार केसवानी





शख्शियत



जिन लोगों ने उर्दू अदब को अपने इल्मो-हुनर से एक अज़मत बख़्शी है और नई राहें ईजाद की हैं, उन्ही में से एक बेहद नुमाया नाम है पंडित रतननाथ सरशार का. क़ाबिले-तहसीन बात यह है कि इस नाम को एक आवाज़ देते ही फ़ौरा तौर पर इन्हीं के अंजाम दिए गए एक कारनामे का नाम यक-ब-यक एक तस्वीर बनकर सामने आ खड़ा होता है - 'फ़साना-ए-आज़ाद।'
हिंदुस्तानी अदब के लिहाज़ से उन्नीसवीं सदी एक बेहद अहम दौर रहा है. इसी दौर में भारतेंदू हरीशचन्द्र (1850-1894) हिंदी साहित्य की नींव मज़बूत करने में लगे थे, तो तकरीबन उसी वक़्त बंगाल में बंकिम चन्द्र चटट्टोपाध्याय (1838-1894) बांगला साहित्य को एक नए अंदाज़ में तराशने में मशगूल थे। ठीक यही वक़्त था जब लखनऊ में पंडित रतननाथ दर 'सरशार' (1846-1902) उर्दू अफ़साना नवीसी की बुनियाद में पहली मज़बूत ईंट लगा रहे थे।
हैरत की बात है कि जहां पहले दो हज़रात को उनके काबिले-दाद कारनामों के एवज़ में अदब के सरताज मकाम पर जगह देकर क़सीदे लिखे गए, लेकिन सरशार के बेमिसाल कारनामे को बगल में दबाए-दबाए एक मानीख़ेज़ ख़ामोशी इख़्तियार कर ली गई। उर्दू में इस नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ कुछ आवाज़ें गुज़रे सौ बरस में कभी-कभी ज़रूर सुनाई दी हैं।
''फ़साना-ए-आज़ाद' उर्दू के अफ़सानवी अदब में एक बेनज़ीर तख़लीक़ का दर्जा रखता है। इसे जो शुहरत और मक़बूलियत हासिल हुई, वह उर्दू की कम किताबों को नसीब हुई है। लेकिन अफ़सोस है कि इसके मुसन्निफ़ पंडित रतननाथ सरशार के हालात-ए-ज़िंदगी की तहक़ीक़ पर बहुत कम तवज्जो दी गई। जिसका नतीजा है कि उनकी ज़िंदगी के बारे में बहुत सी तफ़्सीलात अब तक पर्दा-ए-ख़फा में हैं। (डॉक्टर क़मर रईस)
हिंदी साहित्य ने अक्सर उर्दू अदीबों को न सिर्फ़ पूरी इज़्ज़ त-एहतराम से नवाज़ा है और याद किया है, लेकिन सरशार में ज़रा कम-कम ही दिलचस्पी दिखाई है। वह भी तब, जब हिंदी के सबसे बलंद पाया लेखक मुंशी प्रेमचंद ने इस हरफ़न मौला इंसान की तख़्लीक़ को इबादत की हद तक इज़्ज़त दी। ख़ासकर 'फ़साना-ए-आज़ाद' का नशा उन पर इस क़दर छाया कि उसका तर्जुमा हिंदी में, 'आज़ाद कथा', किए बिना न रह सके। बाद को उन्होने सरशार की कुछ और किताबों 'सैर-ए-कुहसार' और 'जाम-ए-सरशार' के तर्जुमे भी किए।
''उस वक़्त मेरी उम्र कोई 13 साल की रही होगी। हिंदी बिल्कुल न जानता था। उर्दू के उपन्यास पढऩे-लिखने का उन्माद था। मौलाना शरर, पंडित रतननाथ सरशार, मिर्ज़ा रुसवा, मौलवी मोहम्मद अली हरदोई निवासी, उस वक़्त के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे। इनकी रचनाएं जहां मिल जाती थीं, स्कूल की याद भूल जाती थी और  पुस्तक समाप्त करके ही दम लेता था.... पंडित रतननाथ सरशार से तो मुझे तृप्ति ही न होती थी। उसकी सारी रचनाएं मैने पढ़ डालीं।'' ('मेरी पहली रचना- मुंशी प्रेमचंद)
इसी बात को और ख़ुलकर उन्होने यह भी तस्लीम किया है कि उनकी लेखनी पर सरशार और शरतचंद्र का असर ज़्यादा और टेगोर का बहुत कम है।
यह एक अजब सी हक़ीक़त है कि ग़ैर मामूली किस्म की शख़ि्सयात अक्सर ग़ैर मामूली हालात में ही पैदा होती रही हैं। पंडित रतननाथ सरशार की पैदाइश भी इंतहाई ग़ैर मामूली दौर में ही हुई। पैदाइश की किसी यकीनी तारीख़ की ग़ैर मौजूदगी में भी यह कमोबेश मान लिया गया है कि सरशार की आमद नवाब वाजिद अली शाह के वालिद नवाब अमजद अली शाह के दौर में अंदाज़न 1846 में हुई होगी। इस राय की बुनियाद में उनकी तारीखे-वफ़ात 27 जनवरी 1902 है, जिस वक़्त उनकी उम्र 55-56 बरस बताई गई थी।
सरशार का ख़ानदान कश्मीरी पंडितों का ख़ानदान है, जो किसी वक़्त ज़रिया-ए-माश की तलाश करते लखनऊ में आ बसा था। सरशार अभी चार बरस के ही थे कि  पिता पंडित बैजनाथ दर चल बसे। अब उनकी परवरिश की ज़िम्मेदारी उनकी मां के सर आ पड़ी, जो उन्होने बख़ूबी निभाई।
उस दौर के तमाम बच्चों की तरह सरशार की तालीम का सिलसिला फ़ारसी और अरबी के साथ शुरू हुआ। घर के आसपास बसे मुस्लिम घरों में बे-रोक-टोक आने-जाने और उन घरों की औरतों की बोल-चाल की ज़बान सुनने और सीखने का सुनहरी मौका मिला। सुनहरी मौका इस मायने में कि यही ज़बान सरशार के अफ़सानों, ख़ासकर 'फ़साना-ए-आज़ाद' की बड़ी ताकत साबित हुई।
अंग्रेज़ी का दबदबा भी इस दौर में कायम हो चुका था, लिहाज़ा स्कूल के बाद से ही अंग्रेज़ी में भी काबिलियत हासिल करने का जुनून सवार हुआ जो केनिंग कालेज में दाख़िले के साथ ही परवान चढ़ा।
कुच्छ हालात की नासाज़गारी और कुच्छ मिज़ाज में नापाएदारी की वजह से सरशार कालेज से बिना कोई डिग्री हासिल किए ही निकल आए। इस जगह महज़ सरशार के किरदार में मौजूद बोहेमियन असरात की गहराई की एक झलक देखना लाज़िमी हो जाता है, क्योंकि इसी तर्ज़े ज़िंदगी (लाईफ स्टाईल) ने उनकी ज़िंदगी की राहें तय कीं।
जिगर बरेलवी साहब का बयान है कि ''राक़िम अलहरूफ़ (यह लिखने वाला) के वालिद आजहानी (स्वर्गीय) कुंवर कन्हैयालाल कपूर सरशार के साथ इस कालेज में हम सबक़ थे। वह फ़रमाया करते थे कि उस्तादों ने रतननाथ को आज़ाद कर रखा था। नंगे सर, बाल बिखरे हुए, अचकन के बटन खुले हुए, अजीब लाइब्लियाना अंदाज़ से क्लास में आते थे। पढऩे-लिखने से कुच्छ सरोकार न था। ऐसे में डिग्री कैसे मिलती।''
सरशार के बारे में इस बयान के पीच्छे वह बे-बयान हालात दिखाई दे जाते हैं, जिन हालात से गुज़रकर वह कालेज के दरवाज़े तक पहुंचा होगा। बाज़ वक़्त इंसान के आमाल-ए-ज़िंदगी उसकी अनकही दास्तान बयान करते हैं। सरशार ऐसे ही लोगों में से एक था।
किसी सरपरस्त की ख़ारदार निगहबानी की ग़ैर मौजूदगी में सरशार ज़िंदगी के उन रास्तों पर निकल आया था, जिन पर चलने वालों के पांव बाद में और जिगर पहले लहू होता है। ऐसे ही लहू-लुहान जज़्बात ने सरशार को ख़ुद अपनी ज़ात और अपने आसपास की हर चीज़ से बाग़ी बना दिया था।
बहरहाल कालेज के दौर में हुई अंग्रेज़ी ज़बान से ख़ासी जान-पहचान को सरशार ने बाद को अपनी मेहनत-मशक़त से याराने में तब्दील कर लिया। इसी याराने की बदौलत उन्हें अंग्रेज़ी अदब की दुनिया में दाख़िल होकर तमाम क्लासिक अफ़सानों को पढऩे समझने का मौका मिला। बाद को तो उन्होने कई सारी अंग्रेज़ी किताबों, जिनमें साइंस की एक किताब 'शमशुज़्ज़ुहा' भी शामिल है, के तर्जुमे किए हैं। इन तर्जुमे वाली किताबों की फ़हरिस्त में सरवांतीज़ की लाफ़ानी किताब 'डान क्विगज़ोट' (डान क्योंते) भी शामिल है, जो 'ख़ुदाई फ़ौजदार' के नाम से 1894 में मुंशी नवल किशोर प्रेस, लखनऊ से छपकर मंज़रे आम पर आ गया था।
इस मकाम तक पहुंचने से पहले सरशार ने कुछ अर्से खीरी के एक स्कूल में बतौर मुदर्रिस नौकरी भी की। इसी नौकरी के दौरान ही लिखने-पढऩे का सिलसिला शुरू हो गया। कश्मीरी पंडितों के एक रिसाले 'मुरासिला-ए-कश्मीर' का इसी दौर में आग़ाज़ हुआ था। सरशार ने उसमें बाकायदा लिखना शुरू कर दिया।  उसके बाद अपने दौर की बेहद मक़बूल 'अवध पंच' में उन्हें जगह मिलने लगी। जितना वह लिखते जाते थे, उतना ही उनकी मक़बूलियत ख़ुश्बू की तरह फैलती जाती थी।
सरशार के अंदाज़े-बयां ने मुंशी नवल किशोर को बेहद मुतासिर किया। अपने तजुर्बे के बिना पर इन्होने सरशार में मज़मून निगारी के हुनर से कहीं आगे की सलाहियतों को ताज़ लिया। इसी के मद्देनज़र उन्होने सरशार को सीधे-सीधे 'अवध अख़बार' के एडीटर का ओहदा देने की पेशकश कर डाली। इस पेशकश ने अव्वल तो सरशार को चौंका दिया और जो ज़रा सम्हले तो दोस्त-अहबाब से मशविरा किया। इस सारी कसरत का नतीजा यह निकला कि आज़ाद तबीयत सरशार ने नौकरी के बंधन में बंधना मंज़ूर कर लिया। इस फ़ैसले के पीछे सबसे बड़ी वजह थी सरशार के माशी हालात जिनमें दो वक़्त दस्तरख़्वान का बिछ पाना भी किसी तरह मुमकिन न था।
'पंडित रतननाथ सरशार के तराजिम' के उनवान से एम.फिल की डिग्री के लिए डाक्टर अब्दुल रशीद सिद्दीक़ी की लिखी गई डिज़रटेशन में उनके हालाते ज़िंदगी पर भी कुछ रोशनी डाली गई है। 'अवध अख़बार' में नौकरी को लेकर यहां इस तरह का बयान मौजूद है।
''इस तरह सरशार की बाकायदा सहाफ़ती ज़िंदगी का आगा? 'अवध अख़बार' से होता है। 1887 तक उनके सब मज़ामीन इस अख़बार में शाया होते रहे। चूंकि इससे पहले भी वह सहाफ़त में दख़ल रखते थे, इसलिए पब्लिक के मिज़ाज से गहरी वाक़फ़ियत हो चुकी थी। 'अवध अख़बार' का कलमदान संभालते ही लखनऊ के मख़सूस रस्मो-रिवाज पर मज़ाहिया अंदाज़ में 'ज़राफ़त' के उनवान से एक किस्तवार सिलसिला शुरू किया। (यही आगे चलकर शुहराह-ए-आफाक़ नावेल 'फ़साना-ए-आज़ाद' की सूरत में शाया हुआ) जिसे अवाम में बड़ी मक़बूलियत हासिल हुई।
...'अवध अख़बार' की इदारत सरशार के हाथों में आई तो 'अवध अख़बार' की मक़बूलियत भी काफ़ी बड़ गई। यह बात आगे चलकर मुंशी सज्जाद हुसैन (मालिक-मुदीर 'अवध पंच') से रक़ाबत का बाइस भी हुई।''
इसी बात को आगे बढ़ाते हुए डाक्टर सैयद लतीफ़ हुसैन अदीब की 1961 में कराची से छपी हुई किताब 'रतननाथ सरशार की नाविल निगारी' में कुछ और तफ़्सीलात मिलती हैं।
''सरशार ने जब 'अवध अख़बार' निकाला तो फ़ितरतन लोगों ने इसको 'अवध पंच' का हरीफ़ समझा। चुनांचे 'अवध अख़बार' और 'फ़साना-ए-आज़ाद' पर सख़्त और रकीक (अख़लाक से गिरी हुई) किस्म की तनक़ीद (आलोचना) की गई। यह एक नाज़ेबा और नागवार वाक्या था। सरशार और सज्जाद हुसैन में साहब सलामत भी बंद हो गई लेकिन बकौल चकबस्त - 'चूंकि दोनो का आईना-ए-दिल ज़ंग-ए-कदूरत (दुश्मनी) से साफ़ था और दोनों पुराने यार थे, लिहाज़ा बाहम सफ़ाई हो गई और अगली सी मुहब्बत कायम हो गई। चुनांचे आख़िरी मज़मून हज़रत सरशार का जो कि उन्होने मरने के दिन लिखा था 'अवध पंच' के लिए ही लिखा गया था और उसी में ही शाया हुआ।''
ज़ाहिरा तौर पर सरशार की इमेज हालात की वजह से भले कुछ भी बनी हो लेकिन उसके दिल में अपने समाज को लेकर फिक्र का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है, कि 'अवध अख़बार' में 'फ़साना-ए-आज़ाद' का सिलसिला शुरू करने से पहले अपने पढऩे वालों के नाम एक ख़ास पैग़ाम भी लिखा था, जिसमे इस सिलसिले की शुरूआत का मक़सद बयान किया था।
'फ़साना-ए-आज़ाद' उर्दू अदब में एक नई राह खोलने वाला कारनामा साबित हुआ। इसी बिना पर इसे उर्दू का पहला बाकायदा नावेल होने का क़िताब हासिल है। हालांकि सरशार से पहले रजब अली बेग 'सुरूर' का 'फ़साना-ए-अजाइब' मंज़रे आम पर आ चुका था लेकिन इसकी 'ख़ामियों' की वजह से उसे यह फ़ख्र हासिल न हो सका। उस वक़्त नक्कादों ने कहा कि 'सुरूर' अपनी कलम से लखनऊ की चीज़ों, सामानों के ख़ूबसूरत बयान पेश करते हैं और उसके बरअक्स 'सरशार' इंसानों और इंसानी ज़िंदगी की तहों तक चले जाते हैं।
इससे अलग यह भी कि यह पहला मौका था जब उर्दू में परियों-देवों, ऐयारों और चमत्कारों से हटकर असल ज़िंदगी में मुश्किल हालात से जूझता हुआ इंसान दिखाई देता है।
फिराक़ गोरखपुरी कहते हैं ''सरशार उर्दू के पहले यथार्थवादी कलाकार हैं। 'फ़साना-ए-आज़ाद' में उन्होने लखनऊ का ही सजीव चित्रण नहीं किया, बल्कि उन्नीसवीं सदी उतर भारत की पूरी सभ्यता का ऐसा पूर्ण चित्र उपस्थित किया है और प्रकारांतर से अंतरराष्ट्रीय मामलों को भी इस तरह पेश कर दिया है कि देखकर आश्चर्य होता है कि एक ही उपन्यास के अंदर यह सब कैसे आ गया। विदेशियों के जीवन को उनकी कल्पना अच्छी तरह चित्रित कर सकी, लेकिन लखनऊ अपनी पूरी मस्तियों के साथ देखने को मिल जाता है। पुराने बिगड़े रईसों की हास्यास्पद दशा, अभिजात वर्ग के घरानो के रीति-रिवाज और महिलाओं का जीवन, बाज़ार, मेले-ठेले, फक्कड़, चोर, उच्चके, डाकू, ज़मींदार, मौलवी,पंडित, साधू - सभी की जीती-जागती तस्वीरें देखने को मिल जाती हैं। 'फ़साना-ए-आज़ाद' तथा सरशार के अन्य उपन्यासों का साहित्यिक ही नहीं ऐतिहासिक महत्व भी बहुत अधिक है।
किंतु 'फ़साना-ए-आज़ाद' की तत्कालीन ख्याति का आधार 'सरशार' की लेखन शैली है। इसमे संदेह नहीं कि वे अक्सर ऐसी कठिन फ़ारसी-अरबी भाषा लिखने लगते हैं जिसे समझने में मौलवियों को भी पसीना आ जाये (संभवत: इसका कारण यह हो कि सरल भाषा लिखने पर हिंदू होने के कारण उन्हें कम पढ़ा-लिखा न समझ लिया जाये) और कभी-कभी वे फ़ारसी और अरबी के पैरे के पैरे लिख डालते हैं। फिर भी साधारणत: - विशेषत: कथनोपकथन में - वे बड़ी ही चलताऊ और चुलबुली भाषा लिखते हैं और मुहावरों पर मुहावरे बोलते चले जाते हैं। 'सरशार' ने यह तो दिखा ही दिया है वे हर प्रकार की भाषा - यहां तक कि अशिक्षितों की ग़लत उर्दू, बंगालियों की टूटी-फूटी उर्दू और गांव वालों की अवधी भी - अधिकारपूर्वक लिख सकते हैं। साथ ही कमाल यह है कि उनके चरित्र-वैभिन्य का भाषा-वैभिन्य भी पूरे सामंजस्य के साथ है। उनकी अरबी, फ़ारसी, अवधी सब अपनी-अपनी जगह जमी हुई है और उनके चरित्र चित्रण को उभार कर रख देती है।'' (उर्दू भाषा और साहित्य- फिराक़ गोरखपुरी)
फिराक़ साहब ने अपने इस बयान की ताईद करते हुए 'फ़साना-ए-आज़ाद' से कुछ नमूने भी पेश किए हैं।
''मियां आज़ाद ऐसे मज़े में आये कि मअन चल खड़े हुए। देखते क्या हैं कि बड़े-बड़े जुहहाद और मौलाना बिलइल्मो-अलफ़•ल, मौलाना और क़ाज़ी-ओ-मुफ़्ती, शैख़ो-शाब, एमाम-ए-फ़ज़ीलत बरसर और क़बाए-मआरिफ़त दरबर, बा-ज़ब-ओ-दस्तार, बसद फ़ख़्रो-इफ्तख़ार, चले आते हैं, चेहरे से नूरे-इलाही बरसता है। इतने में दो रिंदाने-साग़र-नोश बसद जोशो-ख़रोश जिन्न और चुड़ेल की बातें करते उनके करीब आये, एक लहीमो-शहीद और दूसरा लाग़र।
लहीम - यार तुम तो मग़्ज़ के भेजे के गूदे के कीड़े तक चाट गये। बड़े बक्की हो। लाखों दफ़ा समझाया कि यह सब ढकोसला है। मगर तुम्हे तो कच्चे घड़े की चढ़ी है। तुम कब सुनने वाले हो। मर्दे-आदमी यह सब लग़्व बाते हैं। वल्लाह बनी हुई बातें हैं।
लाग़र - क़िब्ला, मर्दे आदमी तो ख़ामख़ाह आप ही हैं। माशाअल्ला साहबे तनो-तोश, वल्लाह गेंडे बने हुए हो...
सरशार जैसे बिखराव और उजड़ाव भरे किरदार वाले इंसान अपने हुनर की तो दूर ख़ुद को भी ठीक से सहेज कर नहीं रख पाते। ऐसे ही मौकों और ऐसे ही इंसानों को हर वक़्त मुंशी नवल किशोर जैसे सरपरस्त की शदीद ज़रूरत होती है। यह एक हक़ीक़त है कि सरशार अपने इब्तदाई हालात से घबराकर शराब से दिल लगा बैठे। उससे इश्क़ करने लगे। वह भी बेइंतिहा और बेहिसाब। इस इश्क़ को वो बाकायदा ख़म ठोक कर ऐलानिया तौर पर यूं कहते थे :
दिल टूट गया सुनते ही गुफ्तार किसी की
सुनता ही नहीं अब ये मेरा यार किसी की
पीने पे जब आते हैं तो फिर बस नहीं करते
मैख़ाने में सुनते नहीं 'सरशार' किसी की
उनकी इस आदत के नतीजे में कभी-कभी तो आलम यह होता था कि प्रेस में सरशार साहब का इंतज़ार हो रहा है कि वे 'फ़साना' की अगली किश्त लिख दें तो उसकी किताबत हो और अख़बार वक़्त पर छप जाए और उधर हज़रत कहीं जाम मुंह से लगाए मस्त हुए बैठे हैं। ख़ैरियत कि उनके इन तमाम अड्डों की ख़बर मुंशी जी ने पहले ही जमा कर रखी थी। लिहाज़ा उन्हें वक़्त रहते तलाश लिया जाता और सरशार साहब उसी बेख़ुदी के आलम में तूफ़ानी रफ़्तार से बाकायदा लिखवाना शुरू कर देते।
यह सचमुच एक हैरान कर देने वाली बात भी है और इंसानी ज़हन की क़ुव्वत का नमूना भी कि सरशार को हज़ारों कि लाखों मुहावरे और शेर ज़ुबानी याद थे। 'फ़साना-ए-आज़ाद' ही नहीं बल्कि उनके बाकी उपन्यासों में भी हर दूसरे सफ़े पर उर्दू-फ़ारसी के ढेर सारे शेर और मुहावरे कहानी के किरादरों के मुंह से मौके की मुनासिबत और ज़रूरत के हिसाब से आते जाते हैं। कहीं-कहीं शायद जहां सरशार को कोई मुनासिब शेर नहीं मिला तो अपनी शायरी क़ुव्वत का इस्तेमाल कर नया शेर ही लिख डाला है।
'फ़साना-ए-आज़ाद' अगस्त 1878 से जनवरी 1880 तक बाकायदा छपता रहा। इस एक फ़साने की वजह से 'अवध अख़बार ' की बिक्री में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा हुआ। बाद को जब यह फ़साना किताब की शक्ल में शाया करने का फ़ैसला हुआ तो तकरीबन तीन हज़ार से ज़्यादा सफ़े मौजूद थे। इन तीन हज़ार सफ़ों को चार हिस्सों में बांटकर छापा गया। किताब की शक्ल में तब से यह सिलसिला सवा सौ साल के बाद भी अब तक कायम है.।
इसी दौर में सर सैयद अहमद, रौनक़ अली 'रौनक़', मिर्ज़ा हादी रुस्वा, जैसी बड़ी हस्तियों के साथ ही एक बेहद अहम नाम था अब्दुल हलीम 'शरर'। शरर साहब के वालिद नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में आलिमों की तरह जुड़े थे और वे ख़ुद अपनी हैसियत से नामवर अदीब थे। किसी वजह से सरशार से उनके इख़्तिलाफ़ात थे और वे उन्हें नापसंद करते थे। लेकिन उस दौर में शख़्सी पसंद-नापसंद के ऊपर ईमान अक्सर पूरी ताकत से इंसानी किरदार में मौजूद था। इसी वजह से 'शरर' ने बाकी तमाम बातों को दरकिनार कर 'सरशार' को एक बेहद जज़्बाती और ख़ूबसूरत ख़त लिखा।
काफ़ी कोशिश के बावजूद मेरे पास मौजूद उस ख़त का असल उर्दू मज़मून इस वक़्त हाथ नहीं आ रहा, जिसे पंडित बृजनारायण चकबस्त ने अपने एक उर्दू मज़मून में इस्तेमाल किया है।  लिहाज़ा उस ख़त का अंग्रेज़ी से अपना तर्जुमा पेश कर रहा हूं।
'' 'फ़साना-ए-आज़ाद' लिखकर उर्दू ज़बान के लिए आपने एक मसीहाई कारनामा कर दिखाया और इसमें (उर्दू) में एक नई रूह फूंक दी है .... यह बात हौसला बढ़ाने और दिलासा देने वाली है कि आप एक क़दीम और ख़ूबसूरत लेकिन बे-यार-ओ-मददगार ज़बान के मद्दाह है। मैं इस बात के लिए ख़ुदा का शुक्र बजा लाता हूं। मैं नहीं जानता कि आपके इस कारनामे की किस तरह तारीफ़ करूं, सिवाय इसके कि मैं शेरी ज़बान में कुछ लिख भेजूं...''
इसी के बाद लिखे मुताबिक 'शरर' साहब ने आख़िर में यह लिख दिया
था :
तुमने नई निकाली फ़साने की राह वाह !
किन-किन मुहावरों का किया है निबाह वाह !
देखीं जो शोख़ियां तिरे ख़ामा की ग़ौर से (ख़ामा - लेखनी)
बोले शफ़ीक़ वाह, अदू बोले आह-आह ! (शफीक़-दोस्त / अदू-दुश्मन)
करता है 'शरर' मिसरा-ए-तारीफ़ पेश कश
क्या बोल चाल लिखी रतन नाथ वाह-वाह !
पंडित बृजनारायण चकबस्त ने एक जगह दिलचस्प खुलासा किया है कि 'फ़साना-ए-आज़ाद' का बुनियादी ख़्याल सरशार के दिमाग़ में एक दोस्त त्रिभुवन नाथ 'हिज्र' की एक बात से पैदा हुआ। 'हिज्र' का कहना था कि '...इस दुनिया में अगर कोई एक ऐसा नावेल है, जिसका हर पेज बिना बीस बार हंसे पढऩा नामुमकिन है तो वह एक अकेला उपन्यास है 'डान क़ि्वगज़ोट'। अगर कोई उर्दू में इस तरह का उपन्यास लिख सके तो कमाल हो जाएगा।'
और कमाल हो गया। 'डान' के सांचो पाजा की तरह सरशार के यहां आज़ाद के साथ खोजी मौजूद है, जिसका अंदाज़ एकदम निराला और देसी है। खोजी के किरदार को लेकर हिंदी में भी ख़ासा इस्तेमाल हुआ है, जिसके चलते इस किरदार को किसी और ज़्यादा तारुफ़ की ज़रूरत नहीं है। अलबता 'फ़साना' के ढेर सारे किरदार और उनके साथ सरशार का एक हमदर्दी भरा सुलूक ज़रूर एक अलहदा मज़मून की दरकार रखता है।
सरशार के ढेर सारे तर्जुमों में मैकेंज़ी वालेस का रूस का इतिहास के अलावा 'अलिफ-लैला' की भी एक अनोखा मकाम है।
इन सबसे अलग 'सरशार' एक शायर भी है, जिसे अपने दौर में ख़ूब दाद भी मिली। उसी के साथ यह भी हक़ीक़त है कि उनकी पहचान उनके फ़साने से ही है शायरी से नहीं। शायरी में मुंशी मज़हर अली 'असीर' उनके उस्ताद होते थे।
'सरशार' ने ग़ज़ल, नज़्म, मसनवी और क़तआत में यकसां काबलियत के साथ लिखा है। कहीं-कहीं वो भले ही हंसी-मज़ाक़, छेड़-छाड़ और तंज़ से काम लेते हों लेकिन बाज़ जगह वो बड़ी संजीदा और पते की बात कह जाते हैं। उनका एक शेर है।
जिनको नशा हो बादशाही का
उनको हाले-गदा नहीं मालूम
उन्होने अपनी जात-बिरादरी वालों के अंध-विश्वास की खिल्ली उड़ाने के लिए भी शायरी का ही सहारा लिया। असल में उस दौर के कश्मीरी पंडितों की धर्म सभा ने एक कश्मीरी विव्दान और सरशार के दोस्त बिशननाथ दर के सात समंदर पार इंग्लैंड जाने को लेकर 'जात बाहर' करने का फ़तवा दे दिया था। सरशार ने एक मसनवी 'तोहफा-ए-सरशार' लिखकर इस अंध विश्वास में पडऩे के लिए ख़ूब लताड़ लगाई थी।
सरशार की ज़िंदगी का आख़िरी दौर बेहद तकलीफदेह था। ज़िंदगी भर राज दरबारों से फ़ासला बनाए रखने वाले और मज़लूमों के साथ ज़िंदगी गुज़ारने वाले सरशार ने 1895 में लखनऊ छोड़ हैदराबाद जाने का फ़ैसला कर लिया। हैदराबाद में निज़ाम के वज़ीर-ए-जंग महाराजा किशन प्रसाद ने उन्हें अपनी शायरी और मज़मून की इस्लाह के लिए 200 रुपए माहाना पर मादर-उल-माहम मुकरर्र कर दिया था।
नौकरी देते वक़्त उनसे कई सारे वादे किए गए जो वफ़ा न हुए। हैदराबाद पहुंचने पर उनका ऐसा अज़ीमो-शान इस्तक़बाल किया गया कि उसकी सारी तफ़सील ख़ुशी से फूले सरशार ने लिखकर अख़बार 'कश्मीर प्रकाश' में छपवा दिया।
किशन प्रसाद ने ख़ुद भी सरशार को शुरूआत में ख़ूब तवज्जो दी और उनसे ख़ूब काम भी लिया। एक अदबी रिसाला 'दबदबा-ए-आसिफ़ी' निकालना शुरू किया लेकिन बाद के दिन सरशार निहायत तकलीफ में रहे। किशन प्रसाद ने अचानक ही किसी बात पर ख़फा होकर उन्हें नौकरी से अलहिदा कर दिया। वादों के मुताबिक रकम भी न मिली।
एक दौर का ख़ूबसूरत, क़दावर, दिलकश इंसान जिसके सर पर महज़ हडियों का ढांचा बनकर रह गया। मुनासिब इलाज की गैर मौजूदगी में जिस्म ख़ोखला होता चला गया। और 27 जनवरी 1902 को यह सारे मर्ज़ और सारे दर्द ख़त्म हो गए। बस रह गया एक फ़साना - 'फ़साना-ए-आज़ाद' बकलम पंडित रतननाथ 'सरशार'।
 
रतन नाथ सरशार की एक ग़ज़ल

हाले ज़ुल्फ़ रसा नहीं मालूम
इब्तिदा, इंतिहा नहीं मालूम
जिनको नशा हो बादशाही का
उनको हाले-गदा नहीं मालूम
टाले टलती नहीं है हिज्र की रात
है कहां की बला नहीं मालूम
पेच दर पेच दे रहे हैं वह
गेसुओं की ख़ता नहीं मालूम
बहरे आलम में हम हैं मिस्ले हुबाब
अपना बिगड़ा, बना नहीं मालूम
मुंह चिढ़ाते हो होश में आओ
अपना बिगड़ा, बना नहीं मालूम
हजूमे कर रहे है क्यों वाइज़
उनकि इसका मज़ा नहीं मालूम
ख़िज़्र-ए-राह को हाल ख़ुद अपना
सूरते नक़्शे-पा नहीं मालूम
हाय दिल अपना उस पे आया है
जिसके घर का पता नहीं मालूम
हाथ में उसके तेज़ है सरशार
आई किसकी क़ज़ा नहीं मालूम

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