आन्तरिक उपनिवेशवाद : उपेक्षा की मार और मुण्डा भाषा परिवार

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    अक्टूबर 2015
श्रेणी आन्तरिक उपनिवेशवाद : उपेक्षा की मार और मुण्डा भाषा परिवार
संस्करण अक्टूबर 2015
लेखक का नाम रणेन्द्र





धारावाहिक
भाषा चिंतन

जिस समय राजनैतिक सत्ताएं भाषा का एक मूर्ख खिलवाड़ करने में व्यस्त हैं, उस समय यह भी समझना जरूरी है कि बेजोड़ बनने के लिए कैसी साम्राज्यवादी-सांस्कृतिक धुंध व्यापक पैमाने पर जन भाषाओं की ओर फेंकी जा रही है। और कैसे धीरे-धीरे हमारी बोलियों और भाषा परिवारों की हत्या हो रही है। रणेन्द्र 'पहल' में लगातार लिख रहे हैं। एक गंभीर भाषा वैज्ञानिक विमर्श।




'' साम्राज्यवाद हथियारों से हमला करने के पूर्व सांस्कृतिक आक्रमण करता है जो उपनिवेशों की जनता की संस्कृति के खिलाफ लम्बे समय तक जारी रहता है। नव-औपनिवेशिक स्थितियों में यह सांस्कृतिक हथियार और भी तेजी से काम करता है ताकि इसके जरिए नया शासक वर्ग जो एक दलाल पूँजीपति की भूमिका निभाता है, अपने भूतपूर्व औपनिवेशिक शासकों के हितों की रक्षा करनेवाली मानसिकता का निर्माण कर सके।'' न्युगी वा थ्योंगो
''... मेरे विचार से भाषा सर्वाधिक महत्वपूर्ण साधन है जिसके जरिए आत्मा को वश में किया गया और उसे बन्दी बना लिया गया। शारीरिक गुलामी के लिए गोलियों को साधन बनाया गया लेकिन मानसिक और आत्मिक गुलामी भाषा के जरिए थोपी गई।'' (न्युगी वा थ्योंगो : भाषा, संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता, पृष्ठ 9)
'' स्व की चेतना संवाद के दरवाजे का बन्द होना नहीं है।'' (फ्रैंज फेनॉन: धरती के अभागे, पृष्ठ 192)

हमारे यहाँ भाषा विज्ञान की पुस्तकों में 'भारोपीय भाषा परिवार' इस तरह पसरा हुआ है कि अन्य भाषा परिवारों के लिए जगह ही शेष नहीं है। चाहे वह पुस्तक 1948 में प्रकाशित हुई हो या 1953 में उनमें 'मुण्डा भाषा परिवार' को एक पैराग्राफ में निपटा दिया गया है। साम्राज्यवादी हथियार बने यूरोपीय भाषा शास्त्रियों ने जब यह अवधारणा दी कि ग्रीक, लैटिन, फारसी और संस्कृत एक भाषा परिवार की भाषाएँ हैं और इस समूह की मूल भाषा संभवत: संस्कृत है तो उन्होंने बिना लड़े कई मोर्चे फतह कर लिए। इस सैद्धांतिकी के तहत उन्होंने अपने औपनिवेशिक सत्ता को एक तरह की वैध्यता प्रदान करने की कोशिश की। ब्रिटिश गुलामी चार पाँच हजार वर्षों के बाद आर्य भाइयों का मिलन बन गयी। ब्रिटिश तो बस अपने बिछुड़े भाईयों को सभ्य बनाने और रूल ऑफ लॉ सिखाने आए थे। केशव चन्द्र सेन जैसे सक्षम समर्थक इस अवधारणा के पक्ष में खड़े मिले।
दूसरा मोर्चा यह फतह हुआ कि आर्यों के आव्रजन के सिद्धान्त को इस अवधारणा से पुष्टि मिलती थी। सम्राज्यवादियों के अनुसार भारत में कोई मूलवासी था ही नहीं। पहले निग्रिटो आए, उसके बाद प्रोटो आस्ट्रेलाइड/आस्ट्रिक आए फिर द्रविड़, आर्य, शक, हूण, कुषाण, तुर्क, अफगान, मुगल तक बस आव्रजन की एक श्रृंखला थी जिसकी अगली कड़ी के रूप में अंग्रेजों के आगमन को भी स्वीकार करना था।
आर्यों की श्रेष्ठता की अवधारणा ने क्या-क्या गुल खिलाए! विश्व इतिहास के पन्नों पर नार्डिक आर्यों ने जिस तरह की होलोकास्ट की कालिख पोत दी उस पर बहुत चर्चा नहीं करनी है। भारत में ब्राह्मणवादी और पुनरूत्थानवादी ताकतों को इस अवधारणा ने ऐसी आत्ममुग्धता की खुमारी से भरा जो  अभी तक नहीं उतरा है। इस 'आत्ममुग्धों' की लम्बी सूची में नया-नया नाम मोहनदास करमचन्द गाँधी का जुड़ गया है। दक्षिणी अफ्रीकी भारतीय मूलवंशी अश्विन देसाई और गुलाम वाहेद ने अपनी नई पुस्तक 'साउथ अफ्रीकन गाँधी : स्ट्रेचर बियरर ऑफ एम्पायर' में इस तथ्य को प्रमाणित किया है कि  ''Throughout his stay on African Soil (1893-1914) remained true to empire while expressing disdain for Africans. For Gandhi, Whites and Indian were bound by an Aryan bloodline that had no place for the African.''
आर्य नस्लवाद की अवधारण एक ऐसी गुदगुदी है जो केशवचन्द्र सेन से लेकर केवल गाँधी तक की पीढ़ी को ही नहीं बल्कि नई पीढिय़ों को भी आह्लादित कर रही है। इसी आह्लाद का यह परिणाम है कि उत्तर भारत में भाषा विज्ञान या लिंगुस्टिक के पाठ्यक्रम से इन्डो-यूरोपियन भाषा परिवार के अलावे अन्य भाषा परिवार या तो ओझल है या उपेक्षा की घातक मार की शिकार हैं।
आन्तरिक उपनिवेशवादी दृष्टि
चूँकि बड़े पैमाने पर उत्पादन हेतु विशालकाय परियोजनाओं का आर्थिक दर्शन यूरोप से उधार लिया गया था अतएव उनकी सफलता के सूत्र भी औद्योगिक पूँजीवाद के साम्राज्यवादी समाधान में ही निहित थे। यूरोपीय साम्राज्यवाद ने पूरे तृतीय विश्व को उपनिवेश बना कर, वहाँ के कच्चे माल, सस्ता श्रम और अबाध बाजार से अपने उद्योगों को मुनाफे के मशीन में बदल दिया था। किन्तु द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद प्रत्यक्ष की जगह परोक्ष  उपनिवेशवाद ने जन्म लिया। भारत जैसे देशों के लिए कहीं अन्यत्र उपनिवेश तलाशना तो मुश्किल था अतएव आन्तरिक उपनिवेशवाद का विकल्प चुना गया। जिन इलाकों में खनिज सम्पदा थी, ऊर्जा संसाधन थे उन इलाकों के साथ उपनिवेश की तरह ही व्यवहार प्रारम्भ हुआ । और खेदजनक है कि यह तस्वीर लगभग पूरी दुनिया की है। जैसे सम्राज्यवादी शक्तियाँ अपने उपनिवेशों की संस्कृति-भाषा आदि के प्रति उपेक्षा-नकार और घृणा भाव से भरी रहती थीं ठीक उसी प्रकार आन्तरिक उपनिवेशवाद ने मुख्यधारा की संस्कृति को एक झूठी श्रेष्ठता और अहमन्यता के भाव से भरा है। अत: मुख्यधारा के विद्वतजनों का श्रेष्ठता भाव, भारोपीय भाषा परिवार से ही भाषा विज्ञान की शुरूआत करता है और वहीं अन्त करता है। उनके लिए मुण्डा भाषा परिवार, नागा भाषा परिवार आदि एक पैराग्राफ में निपटा देने वाले, यूँ ही, नामोल्लेख भर के लिए हैं। झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, उत्तर-पूर्व आदि क्षेत्रों की अकूत खनिज सम्पदा, सस्ता श्रम आदि तो चाहिए लेकिन यहाँ की संस्कृति-भाषा के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह है। वे एंथ्रोपोलोजी के बाहर अध्ययन-मनन और महत्व प्रदान करने योग्य नही हैं। अब पिछड़े, आदिम, अंत्यल्प आबादी वाले समुदायों की भी कोई अपनी भाषा -संस्कृति क्या हो सकती है? मुख्यधारा की सामान्य अवधारणा इस चर्चा को ही प्रशांकित करती है।
पारिवारिक वर्गीकरण और नामकरण
 जहाँ आज हिन्द महासागर है वहाँ लाख वर्ष पूर्व एक लेमुरिया महाद्वीप की कल्पना की गई। लेमुरिया से ही चल कर बारह आदिम जातियों के पूर्वज विभिन्न दिशाओं में बढ़े। नतीजन भारत से आस्ट्रेलिया और फिलीपीन्स से लेकर मेडागास्कर तक की मूलवासियों में एकरूपता और भाषागत समानता की अवधारणा भी सामने आई। किन्तु अध्ययनों ने जब द्रविड़ भाषा एवं अन्य भाषाओं में भिन्नता सिद्ध की तो लेमुरिया सिद्धांत को आघात लगा।
फादर पेटर श्मिड्ट ने 1906 ई में '' आस्ट्रिक-भाषा परिवार'' शब्द का पहली बार प्रयोग किया और यह बताया कि '' इस परिवार की भाषाएँ मैडागास्कर से लेकर न्यूजीलैण्ड तथा दक्षिण अमेरिका के तट से प्राय: 400  की दूरी पर अवस्थित ईस्टर द्वीप समूह तक फैली हुई हैं। उन्होंने इस परिवार की कल्पना, ध्वनि, वाक्य-संरचना, व्याकरणिक विशेषताओं तथा किसी सीमा तक एक जैसे शब्दों की समानताओं के आधार पर की। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि इस सभी भाषाओं में एकवचन, द्विवचन और बहुवचन-जैसे भेद मिलते हैं, उत्तम पुरुष सर्वनाम के अन्तर्भावी और बहिर्भावी- जैसे भेदों का अस्तित्व है तथा मूल शब्द में सरल उपसर्गों , अनुनासिक तथा निरनुनासिक अन्त:प्रत्ययों तथा प्रत्ययों के संयोग की एक -जैसी पद्धति मिलती है। उन्होंने अपने द्वारा प्रस्तावित ऑस्ट्रिक भाषा परिवार को दो उप-परिवारों में विभक्त किया -(1) ऑस्ट्रोनेशियन और (2) ऑस्ट्रोएशियेटिक। इनमें प्रथम के अन्तर्गत मैडागास्कर, इण्डोनेशिया तथा प्रशान्त महासागर के द्वीपों की भाषाएँ आती हैं और द्वितीय के अन्तर्गत निकट तथा वृहत्तर भारत में फैली हुई भाषाएँ आती है। (भारत का भाषा सर्वेक्षण, खण्ड -1, भाग -1, पृष्ठ-57)
सन् 1963 ई, में प्रो. एच. जे. पिन्नो ने आस्ट्रिक वर्ग की भाषाओं का सामान्य वर्गीकरण निम्नवत किया:
(1) पश्चिमी शाखा (निहाली मुण्डा)
    (अ) पश्चिमी: निहाली
    (ब) पूर्वी : मुण्डा:
        (1) उत्तरी:    (अ) खेरवारी (सन्ताली, मुण्डारी, कोरवा,
                        हो आदि)
                        (ब) कोरकू
        (2) दक्षिणी:   (अ) केन्द्रीय: खडिय़ा, जुआड., गदावा आदि
                        (ब) दक्षिणी-पूर्वी: सोरा, गोरूम, गुलोब आदि
(2) पूर्वी शाखा (ख्मेर-निकोबरी)
          (अ) पश्चिमी: निकोबरी
          (ब) पूर्वी: प्लाउड-ख्मेर:
                         (1) पश्चिमी: खासी
                         (2) उत्तरी: प्लाउड, वा, रियाड आदि
                         (3) पूर्वी मोन, ख्मेर, बहनार, स्रे आदि
                         (4) दक्षिणी: मलक्का: सकई, जाकुद, सेमड
( डॉ डोमन साहू 'समीर': सन्ताली भाषा और साहित्य सद्भव और विकास, पृष्ठ 2-3)
डॉ दिनेश्वर प्रसाद के अनुसार आस्ट्रोएशियेटिक उप-परिवार की शाखा मुण्डा भाषा समुदाय के लिए ''मुण्डा'' शब्द का प्रयोग मैक्सम्यूलर की देन है। उन्होंने भारत के सन्दर्भ में द्रविड़ भाषाओं से पृथक एक भाषा परिवार की पहचान की थी, जिसके लिए उन्होंने 1854 ई में इस शब्द का प्रयोग किया था।'' (मुण्डा भाषा परिवार और मुण्डारी, दस्तक: आदिवासी विशेषांक पृ. 250)

लेकिन मैक्सम्यूलर के मुण्डा भाषा परिवार नामकरण को खारिज करते हुए 1866 ई. में जार्ज कैम्पबेल ने इस भाषा परिवार को 'कोलारियन' नाम दिया। डॉ दिनेश्वर प्रसाद के अनुसार '' उन्होंने मैसूर राज्य के कोलार जिले के साथ मुण्डा जाति का सम्बन्ध स्थापित करना चाहा, जो बाद में निराधार प्रमाणित हुआ। पुन: उन्होंने कोल और आर्य के संयोग से बने जिस कोलार्य या कोलारियन की प्रस्तावना की, इससे इस जाति का सम्बन्ध आर्यों से भी स्थापित हो जाता है। इस धारणा को भी कोई आधार नहीं है। यही कारण है कि सर जार्ज ग्रियर्सन ने 'कोलारियन' शब्द का खण्डन करते हुए मैक्सम्यूलर द्वारा प्रस्तावित ''मुण्डा'' नामकरण की स्वीकृति पर बल दिया।'' (मुण्डा भाषा परिवार और मुण्डारी: दस्तक, आदिवासी विशेषांक: पृ. 251)
किन्तु डॉ. रामविलास शर्मा अपनी पुस्तक 'भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी: खण्ड 3 के अध्याय 3 में 'मुण्डा भाषा परिवार' को 'कोल भाषा परिवार' के रूप में ही उल्लेखित करते हैं। अपने उक्त अध्याय की प्रस्तावना में उनका तर्क है कि 'भारत का एक प्राचीन भाषा परिवार 'कोल' है। बहुत से लोग इसे 'मुंडा' कहते हैं। डॉ. चाटुर्ज्या ने 'बंगला भाषा के उद्भव  और विकास ग्रन्थ' में लिखा है कि मुण्डा शब्द की अपेक्षा कोल शब्द का व्यवहार अधिक समीचीन है। कोल परिवार में मुण्डा एक विशेष समुदाय है, 'कोल' शब्द इस परिवार के सभी समुदायों के लिए प्रयुक्त होता रहा है। इस परिवार की भाषाएँ मध्यभारत, बिहार, पश्चिमी बंगाल और उड़ीसा के पहाड़ी क्षेत्रों में बोली जाती हैं। मुण्डारी, संताली, कूर्कू, हो सबर, भाषाओं के बोलने वालों की संख्या लाख, दो लाख, कहीं पाँच लाख से ऊपर है, शेष भाषाओं के बोलनेवालों लाख से भी कम हैं और कुछ के बोलने वाले हजार से भी कम हैं। (पृष्ठ 86)
'आस्ट्रिक' और 'कोल' नामकरण का रहस्य
भाषा परिवारों का नामकरण करने में उनकी उत्पत्ति यूरोप या उसके आसपास मानने के पीछे यूरोपीय भाषा वैज्ञानिकों को मानस को समझने में कोई दिक्कत नहीं होती। एक तो उनकी यूरो-केन्द्रित दृष्टि हर भाषा-संस्कृति का जन्म अपने यहाँ मानने की वर्चस्ववादी मानसिकता से ग्रस्त नजर आती है दूसरी यह कि निग्रिटो से आर्य तक, शक, हूण, कुषाण से लेकर मुगल तक भारत में बाहर से ही आये तो उनके सम्राज्यवादी विस्तार पर क्यों उँगली उठायी जाए?
''आस्ट्रिक (आग्नेय) लैटिन भाषा में आउस्तेर है जिसका अर्थ है दक्षिण प्रान्त। जब यूरोपीय अन्वेषकों ने प्रशान्त के दक्षिण में एक विशाल महादेश को पाकर उसक नाम आस्ट्रेलिया रख लिया तो उसी आधार पर परवर्ती मानव-वैज्ञानिकों और भाषा शास्त्रियों ने यहाँ की मूल प्रजातियों और भाषाओं का 'प्रोटो आस्ट्रेलाइड' और 'आस्ट्रिक' (दक्षिण) नामकरण किया।'' (जगदीश त्रिगुणायत: मुण्डा लोक कथाएँ: पृष्ठ 26)
यानि कि यह मानकर चला जाए कि मानव सभ्यताएँ-संस्कृतियाँ और भाषाएँ सब यूरोप के पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण से ही पूरे विश्व में फैली। सारी सभ्यताएँ-संस्कृतियों और भाषाओं का मूल केन्द्र यूरोप को मानकर ही आगे बढ़ा जाए। धरती के नक्शे के अन्य भूभाग, वहाँ की नदियाँ, आबोहवा, मिट्टी, वनस्पतियाँ सब बाँझ थीं। वहाँ न तो कोई सभ्यता-संस्कृति-भाषा पैदा हो सकती थी और न विकसित। ऐसी शुद्ध सम्राज्यवादी अवधारणा को स्वीकार करने का कोई कारण ही नजर नहीं आता।
भाषा विज्ञानी राजेन्द्र प्रसाद सिंह का मानना है कि ''केवल आस्ट्रिकों को ही नहीं अपितु भारत के सभी जातियों को भूमध्यसागर के कूल-कच्छारों से आया हुआ साबित कर दिया गया है जैसे कभी धार्मिक स्थापनाओं में पृथ्वी पूरे ब्रह्मांड की धुरी मान ली गई थी। रोचक तथ्य यह है कि भूमध्यसागर के तट पर मुण्डा भाषा परिवार की कोई भी भाषा नहीं बोली जाती है। संताली की लोक-कथाएँ तो एक अलग कहानी कहती है कि मानव दम्पत्ति का जन्म, पूरब की ओर, समुद्र में  'हाँस-हाँसिल' नाम के दो पक्षियों से हुआ है। पश्चिम आया कहाँ से?'' (भाषा का समाजशास्त्र, पृ. 75)
इस भाषा परिवार के  'कोल' नामकरण को जार्ज कैम्पबेल, डॉ चाटुर्ज्या और डॉ. रामविलास शर्मा जैसों की जिद्द को समझा जाए। दिनेश्वर प्रसाद यह स्वीकार करते हैं कि ''मैक्सम्यूलर द्वारा प्रस्तावित नामकरण ही आज स्वीकृत है। इस नाम के सम्बन्ध में तर्क यह है कि 'कोल' जिसका अर्थ संस्कृत में 'सूअर' है, एक अपमानजनक शब्द है और किसी जाति के लिए इसका प्रयोग अनुचित समझा जाना चाहिए।'' (वही पृ. 251)
'कोल' या 'कोलारियन' के सन्दर्भ में राजेन्द्र सिंह का मानना है कि ''........ श्रम, कृषि और हस्तशिल्प से जुड़ी मुण्डा भाषाओं को कोलारियन अथवा कोल भाषाएँ कहना कहाँ तक सार्थक है?
संस्कृत में 'कोल' कहते हैं सूअर को। ब्रह्मा के विरोध में विश्वमित्र ने ने जिन बारह जीवों की रचना की थी, उनमें एक सूअर भी था। विश्वमित्र का यह विद्रोह ब्राह्मण-संस्कृति को एक चुनौती थी। इसलिए आर्यवादी भाषाओं में  'सूअर' एक गाली है। ... 'कोल' शब्द संताली में 'होड़' है। इसका मतलब यह नहीं है कि ये दोनों एक-दूसरे के प्रतिरूप हैं। इसका तात्पर्य केवल इतना ही है कि वहाँ  'कोल' के बदले 'होड़'  का प्रयोग किया जाता है। यह 'होड़' ही हो-भाषा में 'हो' (मनुष्य) है। जब आदिवासियों को तिरस्कारवाची 'कोल' की संज्ञा दी होगी तब उन्होंने इसके विरोध में अपने को होड़/हो (मनुष्य) कहा होगा। शायद 'मुण्डा' शब्द इस भाषा परिवार के लिए ज्यादा सार्थक और उपयुक्त होगा। मुण्डारी भाषा के इस शब्द का अर्थ होता है- ग्राम प्रधान या सिर। यह शब्द उनके लिए सम्मानजनक है। इसीलिए मुण्डा आदिवासी उपनाम के रूप में इस शब्द का प्रयोग करते हैं।'' (भाषा का समाजशास्त्र पृ. 79)
मुण्डा भाषा परिवार की विशेषताएँ
डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. दिनेश्वर प्रसाद के आलेखों एवं ग्रेगॉरी डी. एस. एन्डरसेन द्वारा सम्पादित 'द मुण्डा लैग्ग्वजेज' के आलेखों से 'मुण्डा भाषा परिवार' की निम्न विशेषताएँ रेखांकित की जा सकती हैं:-
मुण्डा भाषाओं के ध्वनितंत्र की कुछ अपनी विशेषताएँ हैं। इनमें एक काकल्य स्पर्श ध्वनि का व्यवहार है। इसे अंग्रेजी में ग्लौटल् स्टौप् कहते हैं और इसके लिए प्रश्न चिन्ह जैसा ध्वनि चिन्ह बना देते हैं।
इस परिवार में क्, त्, प् आदि व्यंजनों का एक अवरूद्ध रूप भी होता है। अन्य भाषाओं में ऐसी स्पर्श ध्वनियों के उच्चारण में पहले वायु का अवरोध है, फिर उसका विस्फोट होता है। जहँा केवल वायु का अवरोध हो और विस्फोट न हो वहाँ अवरूद्ध व्यंजनों का उच्चारण होगा। अंग्रेजी में ये चेकड् कौन्सोनेट् कहलाते हैं।
इन भाषाओं की तीसरी विशेषता स्वरों की दीर्घता का अनिश्चित होना है। इनमें स्वर की दीर्घता पहचान में तो आ जाती है पर वह अर्थ विच्छेदक नहीं होती। चैथी विशेषता यह है कि इनमें सघोष महाप्राण ध्वनियों का अभाव है किन्तु द्रविड़ भाषाओं की अपेक्षा ये महाप्राण ध्वनियों को अधिक सरलता स्वीकार करती हैं।
इन भाषाओं की एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि शब्द के आरम्भ में ड्.,ञ् जैसी नासिक्य ध्वनियों का प्रयोग हो सकता है। बोन्डा भाषा के ञेरी (शरीर), ड.कुइ (छोटी बहन) जैसे शब्दों में यह प्रवृति देखी जा सकती है।
लिंगुआ पत्रिका के खण्ड 14, 1965 में कुइपर ने मुण्डा भाषाओं के व्यंजन परिवर्तन पर आलेख लिखा था। इनमें जो अनेक प्रकार के परिवर्तन दिखाये गए हैं, उनमें एक वह है जहाँ क्-ख्-ग्-घ् ध्वनियाँ ह् में बदलती हैं। इनमें ख् और मुण्डा भाषाओं की मूल ध्वनियाँ नहीं हैं। पूर्वी बंगाल की बोलियों तथा तमिल में मध्यवर्ती क्-ग् को ह् में बदलने की प्रवृति है।
इन भाषाओं में ध्वनि परिवर्तन की एक विशेषता यह है कि द्- ड् ध्वनियाँ  र् और ल् में बदलती हैं। तमिल के समान इनमे जहाँ-तहाँ आदि स्थानीय ल्के पहले अतिरिक्त स्वर जोडऩे की प्रवृति है, तथा कुछ मुण्डा भाषाओं में आदिस्थानीय न् की जगह ञ् का व्यवहार होता है।
मुण्डा भाषाओं की रूपात्मकता पर भाषा विज्ञानी पिनोव ने गम्भीरता से काम किया है। उनका एक आलेख 'ए कम्पैरिटिव् स्टडी ऑफ दि वर्ब् इन दि मुंडा लैग्ग्वजेज इन भाषाओं की क्रियापदों पर प्रकाश डालता है। पिनोव के अनुसार मुण्डा भाषाओं में कर्मसूचक सर्वनाम चिन्ह क्रिया के बाद आता है, इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मुण्डा भाषाओं के आदिम रूपों में कर्मसूचक संज्ञा शब्द भी क्रिया के बाद आता था। किन्तु कर्ता के लिए उन्होंने लिखा है कि आदिम मुंडा भाषाओं में वह क्रिया के पहले आता था। वास्तव में मुंडा भाषाओं का वाक्यतंत्र क्रियाभिमुख था। खडिय़ा के 'उड्तिं्' (मैं पीता हूँ) में 'उड्' क्रिया है, 'इञ्' कर्ता-सर्वनाम है।
आर्य और मुण्डा भाषाओं के प्राचीन सम्बंधों का एक प्रमाण क्रिया और संज्ञा रूपों में द्विवचन का प्रयोग है। मुण्डा भाषाओं में द्विवचन का प्रयोग अब भी होता है जबकि संस्कृत की उत्तराधिकारिणी भाषाओं में लुप्त हो गया है।
मुण्डा भाषाओं की एक विशेषता यह है कि वे क्रियापदों के एक या अधिक वर्णों की, या अक्षर ध्वनियों की, आवृति करती हैं। वर्ण की आवृति बहुधा क्रिया के अर्थ को सघन करने मे लिए होती है यथा संताली 'दल' माने मारना, 'ददल' माने ज्यादा मारना।
इस भाषा परिवार की क्रियापद रचना संयोगात्मक या संश्लिष्ट है। क्रियामूल में प्रत्यय जोड़कर वचन-पुरूष का बोध कराना और क्रिया की पूर्णता, अपूर्णता, निरन्तरता आदि का बोध कराना मुख्य बात है। इस दृष्टि से संस्कृत और मुण्डा भाषाओं में जबरदस्त समानता है। क्रियापदों में सहायक शब्दांश जोड़े जाते हैं। कभी- कभी यह निश्चय करना संभव नहीं होता कि क्रियापद में जो कुछ जोड़ा गया है, वह प्रत्यय है या स्वतंत्र शब्दांश। इन भाषाओं में क्रियापदों समेत विभिन्न कोटि के शब्दों में प्रत्यय और उपसर्ग लगते हैं। यहाँ अन्तप्रत्यय का भी प्रयोग होता । यह अन्तप्रत्यय की प्रवृति न आर्य भाषाओं में है न द्रविड़ भाषाओं में। जैसे मुण्डारी के कृत प्रत्यय जो क्रिया के प्रथम वर्ण के बाद 'न' मध्य प्रत्यय जोड़कर संज्ञा शब्द बनाते हैं:-
क्रिया-संज्ञा
    मुण्डारी      हिन्दी                   मुण्डारी     हिन्दी
    दुब          बैठना                   दुनुब        बैठक
    बई          बनाना                  बनइ        बनावट
    ओल        लिखना                 ओनोल      लिखावट
    दाल         मारना                  दानाल       मार
मुण्डा भाषाओं में लिंग व्याकरणिक नहीं है। सभी जीवित प्राणी पुलिंग है और निर्जीव वस्तुएँ स्त्रीलिंग है। आवश्यकतानुसार संज्ञाओं में पुरूष और स्त्रीवाचक शब्दों का इस्तेमाल कर लिया जाता है।
संस्कृत पर मुण्डा भाषाओं का प्रभाव:-
सुदीर्घ अवधि का साथ एवं समावेशी स्वभाव के कारण दोनों भाषा परिवारों ने एक दूसरे को प्रभावित किया है। फादर जॉन हॉफमैन एवं फादर पी. पोनेट के मुण्डारी भाषा पर किए गए सघन कार्य को डॉ दिनेश्वर प्रसाद ने आगे बढ़ाते हुए 'मुण्डारी शब्दावली: अखिल भारतीय संदर्भ' पर महत्वपूर्ण कार्य किया है। मुण्डा भाषाओं का संस्कृत पर प्रभाव का आकलन करते हुए उन्होंने काल्डवेल, गुंडर्ट प्रिजिलुस्की, कायपर, बरो आदि भाषा विज्ञानियों के कार्यों को रेखांकित किया है। इन विद्वानों ने यह स्पष्ट किया है कि संस्कृत भाषा की मूर्धन्य ध्वनियाँ मुण्डा और द्राविड़ भाषाओं से आगत हैं, क्योंकि भारत के बाहर की आर्य भाषाओं में मूर्धन्ध ध्वनियों का अभाव है।
संस्कृत की शब्दावली की परीक्षा करने के बाद प्रो. प्रिजिलुस्की ने यह निष्कर्ष निकाला है कि इसमें 'म्ब' और 'बु' ध्वनियों वाले शब्दों में से अधिकांश मुण्डा से गृहीत हैं, जैसे- अलाबु, कम्बल, कदम्ब, तुम्ब, तुम्बरू, निम्ब, निम्बु, निम्बुक, रम्भा, उदुम्बर, जम्बु, जम्बीर, शिम्ब और स्तम्ब।
कई पेड़ों-फलों के नाम मुण्डा भाषाओं से संस्कृत में समाहित हुए हैं, यथा: नारिकेल, गुबाक, कदल, ताम्बूल, हरिद्रा, श्रृंगबेर, वातिंगन आदि। उसी प्रकार से स्थान के नाम यथा: कोसल-तोसल, अंग-बंग, कलिंग-गिलिंग आदि।
तुलनीय शब्दों के आधार पर कायपर ने कुछ ध्वनि-सम्बंधी नियम निर्धारित किए और ऐसे सतर शब्दों पर विचार किया जो मुण्डा भाषाओं से संस्कृत और उसकी उत्तराधिकारिणी भाषाओं में आए, यथा: अराल, आकुल, कज्जल, कण्ठ, कनक, कबरी, कुण्ठ, कलिंग, खड्ग, खल्वाट, गण, घट, चाट, जम्बाल, जाल, डाल, डिम्ब, ताम्बूल, तिमिर, तुमुल, दण्ड, दाड्मि, दुन्दुभी, पतंग, पुण्डरीक, फल्गु, मुकुर, लम्पट, ललित, वातुलि, शकुन्ति, श्रृंखला, श्रृंगार, हला आदि।
मुण्डारी पर संस्कृत का प्रभाव
डॉ. दिनेश्वर प्रसाद ने इस सन्दर्भ में सबसे पहले उन संस्कृत शब्दों का उल्लेख किया है जो संस्कृत और मुण्डारी में एक ही रूप में उपस्थित हैं। यथा: अंक, अगम, अन्न, आहार, आत्मा, इतिहास, उदास, उचित, उत्तर, एकता, कमल, काल, कुण्डल, गुरू, चण्डी, चुम्बक, नगर, नरक, मधु, माला, मुरली, मन, मुनि, सभा, समतल, समय आदि।
ऐसे कई संस्कृत शब्द भी हैं जो मुण्डारी में रूप परिवत्र्तन के बावजूद पहचाने जा सकते हैं यथा: अंद मनोआ (अंध मानव), अंगोर (अंगार), कंता (कथा), चन्दि (छन्द), तुलम् (तूलम), दिसुम (देशम), दुखम-सुखम (दु:खम-सुखम), पारकोम् (पर्यक्रम), सकम् (शकम), सिसिर (शिशिर) आदि।
इसी प्रकार संस्कृत शब्दों का ध्वनि परिवर्तन, व्याकरणिक कोटि परिवर्तन, अर्थ परिवर्तन आदि के साथ मुण्डा भाषाओं में उपस्थिति के उदाहरण दिये जा सकते हैं।
स्पेक्ट्रम / कंटिनम सिद्धांत और मुण्डा भाषा परिवार
तद्भव के अप्रैल 2015 अंक में श्री राजकुमार ने अपने शोधपरक आलेख, 'बहता नीर: आरम्भिक आधुनिक भारत में भाषा और समाज' में औपनिवेशिक अनुकूलन से मुक्ति का आह्वान करते हुए भारतीय भाषाओं के स्वरूप पर विचार किया है और इनकी आन्तरिक एकताओं को गहराई से रेखाकिंत करते हुए इनके समावेशी चरित्र को स्पष्ट किया है। इसी क्रम में वे भाषा के रूपात्मक एकता के स्पेक्ट्रम/कंटिनम सिन्द्धांत को निरूपित करते हैं। अपने आलेख में श्री राजकुमार, किशोरीदास बाजपेयी, बाबूराम सक्सेना के उद्धरणों से अपने सिद्धांत को सुस्पष्ट करते हैं। यथा: किशोरीदास बाजपेयी के 'हिन्दी शब्दानुशासन' से उद्धृत यह उद्धरण  ''काल की ही तरह देशभेद से भी भाषा बदलती है, बहुत धीरे-धीरे। आप प्रयाग से पश्चिम चलें, पैदल यात्रा करें, चार पांच मिल नित्य आगे बढ़े, तो चलते चलते आप पेशावर या काबुल तक पहुँच जाएंगे पर यह न समझ पायेंगे कि हिन्दी कहां किस गाँव में छूट गई, पंजाबी कहाँ प्रारम्भ हुई, पश्तो ने पंजाबी को कहाँ रोक दिया। ऐसा जान पड़ेगा कि प्रयाग से काबुल तक एक ही भाषा है।  ... इसी तरह पूर्व की यात्रा पैदल करने आप हिन्दी की विभिन्न 'बोलियों' में तथा मैथिली, उडिय़ा, बंगला आदि में अन्तर वैसा न लख पायेंगे। यही क्यों, दक्षिण की ओर चलें तो ठेठ मदरास तक पहुंच जायेंगे, भाषा सम्बंधी कोई भी अड़चन सामने नहीं आयेगी। किन्तु वायुयान से उड़ कर मद्रास पहुँचिए, जान पड़ेगा भाषा में महान अन्तर है! आप कुछ समझ ही न सकेंगे''।
श्री राजकुमार का स्पैक्ट्रम सिद्धांत और वाजपेयी जी का उपर्युक्त उद्धरण आर्य भाषा से निसृत बोलियों-सम्पर्क भाषाओं की आन्तरिक एकता की दृष्टि से शत-प्रतिशत यही सिद्ध होते हैं। झारखण्ड की सम्पर्क भाषाओं नागपुरिया, खोरठा, पंचपरगनिया, अंगिका आदि में भी यह एकता देखी जा सकती है। बंगाल और उड़ीसा के सीमा क्षेत्र के गाँवों-कस्बों में मिश्रित बोलियाँ विकसित हुईं और फली-फूली। पूर्वी सिंहभूम की सीमा पर प्रखंड है बहरागोड़ा, जिसकी सीमाएँ बंगाल और उड़ीसा दोनों से जुड़ी हंै, नतीजन वहाँ की सम्पर्क भाषा का रंग अनूठा है जिसमें उडिय़ा, बंगला और हिन्दी की बोलियों ने मिलजुल कर एक अलग बहुरंगी बोली को जन्म दिया है। उसी प्रकार की अविष्कृति उड़ीसा और आन्ध्र के सीमा क्षेत्रों में परखी जा सकती है। किन्तु यह मुक्त समावेशीकरण मुण्डा भाषाओं के साथ नहीं हो सका है। यहाँ तक कि भिन्न मुण्डा भाषा परिवार के लोग की आपस में उस क्षेत्र में प्रचलित हिन्दी से निसृत बोलियों  का ही सम्पर्क भाषा के रूप में उपयोग करते दिखते हैं। भाषा शास्त्रियों के लिए यह परिघटना एक चुनौती खड़ी करती है। विशेषकर स्पैक्ट्रम/कंटिनम सिद्धांतकारों को समावेशीकरण की बाधाओं का अध्ययन करना चाहिए। हाँलाकि डॉ. डोमन साहू  'समीर' ने संताली और हिन्दी का तुलनात्मक अध्ययन एवं डॉ. मथियस डुंगडुंग ने 'हिन्दी और खडिय़ा: तुलनात्मक और विश्लेषाणात्मक अध्ययन' पर ग्रन्थों का प्रकाशन कर संभवत: इस दिशा में कदम बढ़ाये हैं।
लेकिन यह भी लगता है कि सैकड़ों वर्षों से इन आदिवासी इलाकों में सदानों/गैर-आदिवासियां की उपस्थिति के बावजूद मुण्डा भाषा परिवार की भाषाओं का सम्पर्क भाषा के रूप में सहज रूप से नहीं अपनाया जाना कहीं न कहीं मूलरूप में भिन्नता एवं भिन्न भाषा परिवार के सिद्धांत को ही प्रमाणित करता दिखता है। यह भी सत्य है कि विश्वविद्यालयों के भाषा विज्ञान के विभाग भारोपीय भाषा परिवार से ही इतना अभिभूत या मुग्ध रहा है कि मुण्डा भाषा परिवार पर विचार करने के लिए अवसर ही नहीं निकाल सका है। आज भी मुण्डा भाषा परिवार के भाषा विज्ञानी अध्ययन के लिए सबसे अच्छी किताब सन 2013 ई. में प्रकाशित ग्रेगॉरी डी. एस. एन्डरसन द्वारा सम्पादित पुस्तक 'द मुण्डा लैन्ग्ग्विजेज्' ही है। अर्थ यह कि पहले भी मैक्सम्यूलर, कैम्पवेल, विलियम जोन्स, फादर पेटर श्यिड्ट, फादर जॉन हॉफमैन, पी.ओ. वोन्डिग इस भाषा परिवार पर विचार कर रहे थे और आज भी लिविंग टन्गस इन्स्टीच्यूट फॉर एन्डन्जेरड लैन्ग्ग्विजेज, सालेम, ओरगॉन, अमेरिका के निदेशक ग्रेगॉरी एन्डरसन ही गम्भीर काम कर रहे हैं। यह अत्यंत ही विचारणीय प्रश्न है। आज भी फादर हॉफमैन की सोलह खंडो की एन्साइक्लोपीडिया मुण्डारिका एवं पी.ओ. वोन्डिंग की सात खंडो की 'ए संताली डिक्शनरी' न केवल इस भाषा परिवार की शब्द सम्पदा से हमारा परिचय करवा रही है बल्कि हमारे मानसिक आलस्य और उपेक्षा भाव को गहराई से चिन्हित भी कर रही हैं। 




सन्दर्भ ग्रन्थ
1.     जी. ए. ग्रियर्सन: लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया, खंड ढ्ढ, ढ्ढढ्ढ एवं ढ्ढङ्क
2.    फॉदर जॉन हॉफमैन: एन्साइक्लोपीडिया मुण्डारिका खंड ढ्ढ
3.    जार्ज यूले: द स्टडी ऑफ लैंग्ग्वजेज: कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस
4.    ग्रेगॉरी डी.एस.एन्डरसन। द मुण्डा लैंग्ग्वजेज: रोडल्ट्ज प्रकाशन
5.    एफ. ए. यूक्सबॉन्ड: मुण्डा-मग्यार-माओरी: ज्ञान पब्लिशिंग हाउस
6.    सोफाना श्रीचम्पा, पाडल शिडवेल: आस्ट्रोएशियाटिक स्टडीज:मोनख्मेर स्टडीज जर्नल स्पेशल इश्यू 2
7.    संताली: ए नेचुरल लैंग्ग्वजेज: डॉ पी. सी. हेम्ब्रम
8.    रामविलास शर्मा: भारत का प्राचीन भाषा परिवार एवं हिन्दी खंड. 3
9.    श्री जगदीश त्रिगुणायत: मुण्डा लोक कथाएँ: हिन्दी राजभाषा परिषद, बिहार
10.    डॉ. डोमन साहु 'समीर': संताली भाषा और साहित्य (उद्भव और विकास)
11.    डॉ. डोमन साहु 'समीर': हिन्दी और संताली तुलनात्मक अध्ययन
12.    गणेश एन देवी: भारत भाषा लोक सर्वेक्षण: झारखण्ड की भाषाएँ
13.    प्रो. (डॉ.) कृष्ण चन्द्र टुडू: संताली का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन
14.    डॉ दिनेश्वर प्रसाद: मुण्डारी शब्दावली: अखिल भारतीय संदर्भ
15.    राजेन्द्र प्रसाद सिंह: भाषा का समाजशास्त्र
16.    राजकुमार: बहता नीर: आरम्भिक आधुनिक भारत में: भाषा और समाज: तद्भव अप्रैल 2015

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