हिन्दी ग़ज़ल आलोचना की दिक्कतें

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    अक्टूबर 2015
श्रेणी हिन्दी ग़ज़ल आलोचना की दिक्कतें
संस्करण अक्टूबर 2015
लेखक का नाम देवेन्द्र आर्य







हिन्दी में ग़ज़लें दो पाटों के बीच फंसी है। छन्द विधान और व्याकरण फ़ारसी का, लिपि और काव्य संस्कार हिन्दी का। हिन्दी में ग़ज़ल बरास्ता उर्दू, फ़ारसी से आई है और उसका संरचनात्मक ढांचा तथा व्याकरण (बह्र) फ़ारसी का है, जिसे हम तब तक नहीं बदल सकते जब तक हमें ग़ज़ल में बने रहना है। इसके बावजूद हमें स्वीकार करना चाहिए कि कोई भी विधा या शैली किसी पेटेंट कानून से नहीं बंधी होती। ग़ज़ल कोई वस्तु या फार्मूला नहीं है कि सर्वाधिकार सुरक्षित फ़ारसी (उर्दू) के पास ही है। फ़ारसी छन्द विधान और मूल शर्तों का पालन करते हुए भी बहुत सी बन्दिशें ऐसी हैं, जिन्हें तोड़ा जाता रहा है और तोड़ा जाना चाहिए। फ़ारसी बह्यों का अनुपालन इसलिए भी ज़रूरी है कि ग़ज़ल की सारी विशिष्टता ही उसी से है। शेरों की एक ख़ास कहन शैली, उनकी प्रसरणशीलता, उनका लालित्य, उनकी विषय केन्द्रीयता और संक्षिप्तता, सरलता और गहनता और उनकी मारक क्षमता यानी प्रभावोत्पादकता ये सभी गुण बहुत कुछ फ़ारसी छन्द विधान के कारण ही हैं। इसलिए इन्हें छोड़कर हम हिन्दी ग़ज़ल को ग़ज़ल नहीं रख पायेंगे। सिर्फ लिपि से ग़ज़ल की फ़ारसीयत या उसका हिन्दीपन तय नहीं होता। मगर इश्क़ के इम्तिहां और भी हैं। ग़ज़ल की फ़ारसीयत के प्रति कठमुल्लावादी रवैया अिख्तयार न करते हुए आप अपनी स्थानीयता, अपने भाषाई-संस्कार, अपने खास लहज़े और प्रचलित हो चुके जनस्वीकार्य उच्चारण को अपनाते हुए भी मुकम्मल ग़ज़लें कह सकते हैं। सच है कि ग़ज़ल मूलत: एक सामान्ती विधा रही है। मैलिक रूप से उसका उद्देश्य ही ख़वास का मनोरंजन करना था। बाद में ग़ज़लों में तसव्वुफ़- भक्ति और अध्यात्म का पुट आया। ग़ज़लों के इश्क़े-मिज़ाजी से इश्क़े-हक़ीक़ी तक का सफ़र तय किया। परन्तु जो लोच-लचकपन एक खास तरह की स्त्रैणता उसकी बुनावट में रही वह समकालीन ग़ज़लों में भी दिखाई पड़ती है और उस्ताद उसे एक ज़रूरी तत्व भी मानते हैं।
आवश्यकता, परम्परा और आधुनिकता का द्वन्द्व ही सभ्यता, संस्कृति और साहित्य को गति देता रहा है। एक छोटा सा उदाहरण इसे स्पष्ट कर सकता है। पारम्परिक नकाब (बुर्का) काले रंग का होता है। कालान्तर में उसमें कढ़ाई (इम्ब्रायड्री) जोड़ दी गयी। उसे फैशनेबुल बनाया गया, डिजाइनदार। अब उसका रंग भी भूरा, सफेद, सलेटी दिखता है। यह हुई अरबी-फ़ारसी संस्कृत में नालबद्ध लोगों की बातें। हिन्दू संस्कृति से जुड़े लोग भी अब नकाब संस्कृति को थोड़े परिवर्तन के साथ अपना रहे हैं। सड़कों पर आँख छोड़, पूरा चेहरा ढंके, हाथों में लम्बे दस्ताने पहने लड़कियाँ स्कूटी पर फर्राटे भरती दिखती हैं। इस मिनी नकाब को अपनाने के लिए उन्हें किसी ने धर्म से नहीं जोड़ा, बाध्य नहीं किया। यह सिर्फ देखा-देखी ज़रूरत मुताबिक है और अच्छा है। बीफ (गाय का गोश्त) हिन्दुओं के लिए अब हराम नहीं रह गया है। न ही चोरी छिपे खाने की चीज। रहन-सहन, खान-पान-परिधान में जब कठमुल्लापन नहीं चल रहा तो साहित्यिक विधाओं, शैलियों में ही अंधभक्ति क्यों चले। परिवर्तन ग़ज़लों में भी दिख रहा है, ज़रूरत उसे रेखांकित करने, मान्यता और प्रश्रय देने की है।
समकालीन काव्यालोचना के मुहावरे में एक बात यह भी है कि कविता, कविता के बाहर होती है। समकालीन हिन्दी ग़ज़ल के लिए भी क्या यह बात कसौटी बनेगी?
यह प्रश्न इसलिए भी कि ''यह विचार कि शेर किसी विषय वस्तु के बारे में हो सकता है, लेकिन उसके अर्थ उसके विषय वस्तु से अधिक या अलग हो सकते हैं, अरबी-फ़ारसी काव्यशास्त्र में नहीं है। सम्भव है हमारे यहां यह संस्कृत से आया हो।''1 इस मुताबिक फ़ारसीशास्त्र में तो ग़ज़ल, ग़ज़ल से बाहर होने से रही, तो फिर क्या ग़ज़ल को कविता के आलोचनात्मक उपकरणों से तौला जाए? हिन्दी काव्यालोचना के मुहावरे हिन्दी ग़ज़लों पर भी लागू होंगे या नहीं? इस प्रश्न के उत्तर में ही हिन्दी ग़ज़लों के आलोचकों की अनुपस्थिति का कारण भी छिपा है। शिल्प की विशिष्टता का आग्रह पाल के आप हिन्दी के आलोचकों को ग़ज़ल के व्याकरण से अनभिज्ञ होने का बहाना थमा देते हैं। फलस्वरूप और कुछ कुछ प्रतिक्रियास्वरूप हिन्दी आलोचक ग़ज़लों को दोयम दर्जे की कविता मान कर उसे ख़ारिज कर देना आसान समझते हैं।
कविता, कविता के बाहर होती है, का आशय कविता के शब्दार्थ से अधिक उसके ध्वन्यार्थ से है। समकालीन यथार्थ की सपाट और लूली अभिव्यक्ति दूर तक और देर तक गूंज पैदा नहीं कर पाती। ऐसे में ग़ज़लों के सिद्धान्तकार जो अभी भी अर्थ और उसकी ध्वनि से अधिक महत्वपूर्ण उसका शिल्प मानते हैं, क्या इस कसौटी पर ग़ज़लों को कसना पसन्द करेंगे? शिल्प-धनी ग़ज़लें, समकालीन आलोचना की कसौटी पर कितनी सराही जा पायेंगी? ठीक हैं कि कवितायें वक़्त ज़रूरत नारा गढ़ती हैं, परन्तु नारेबाजी कविता नहीं होती। ग़ज़लों से हो रही नारेबाजी, कविता के आलोचनात्मक मुहावरों पर कसी जाए अथवा नहीं? प्रो. कलामुद्दीन अहमद ने उर्दू की ग़ज़लों का जो कीमा कूटा है, उसका मूल कारण फ़ारसी शास्त्र की तंगनज़री और इकहरापन ही है, जिसका पालन करते करते ग़ज़लें भाषा की बुतपरस्ती करने लगीं- ''बात यह है कि उर्दू में भाषा को कविता के ऊपर हमेशा श्रेष्ठता दी गयी है और कहा जाता है कि 'नज़ीर' के शेर भाषा के मापदण्ड पर पूरे नहीं उतरते... उर्दू कवि-गण भाषा को बुत बनाकर उसकी पूजा करते रहे हैं। इसी विचारधारा के कारण उर्दू-काव्य में बहुत सी ख़मियाँ पैदा हो गयी हैं।''2 आश्चर्य नहीं कि उर्दू के हर बड़े और ट्रेंडसेंटर शायर ने फ़ारसीशास्त्र की सीमाओं का उल्लंघन किया है, तभी वे उर्दू कविता में कुछ जोड़ सके हैं। ''ग़ालिब की तस्वीरें सुन्दर होने के अतिरिक्त विचारोत्तेजक भी हैं। उनमें एक साहित्येतर ध्वनि भी रह जाती हैं... उन्होंने उर्दू कविता को एक बुद्धितत्व प्रदान किया।''3
फ़ारसीशास्त्र के लिहाज़ से ग़ज़ल एक प्रकार का फिनिश्ड प्रोडक्ट है। जबकि हिन्दी में गीत एक सेमी फिनिश्ड और कविता अनफिनिश्ड प्रोडक्ट है। बिना पुरा परिपाक हुए ग़ज़ल, मुकम्मल ग़ज़ल नहीं होती जबकि कविता में एक सराहनीय तत्व उसका ऊबड़ खाबड़पन भी होता है। कहीं कोई अतृप्ति। ''अपने नक्शे के मुताबिक ये ज़मी कुछ कम है''4 जैसी अतृप्ति। बहुत चिकना चुपड़ापन, बहुत सधापन, ग़ज़ल का विशिष्ट गुण होगा; कविता में तो एक ख़ास तरह का अटपटापन, जैसे कोई घरेलू रूप में हो, उसकी जान है। यही कमी जिसे आलोचना की भाषा में गैरबनावटीपन कह लें, कविता की नियति है। एक सम्पृक्त सी असम्पृक्ति। जैसे 'अनपढ़ के हाथ का खत' जो ''नज़र तो आता है, मतलब कहाँ निकलता है''5 हिन्दी आलोचना में यही कविता की नीयत है और नियति भी। अनिफिनिश्ड होना ही कविता की नैतिकता भी है। ''कविता सत्य का सन्धान उतना नहीं करती जितना सचाई के गल्प गढ़ती है।... कविता का अगर कोई सच होता है तो वह निरन्तर रचा और संशोधित किया जाता, सच है। अक्सर कविता चलती रहती है कहीं पहुँचने की उम्मीद में, पर पहुँचती नहीं है। इसीलिए एक अर्थ में कविता एक अधूरी या बीच में स्थगित या थरथराती हुई प्रक्रिया है: उसमें पथ है, गन्तव्य नहीं। सचाई है, सत्य नहीं।6 क्या ग़ज़लकारों को हिन्दी आलोचना की इन परिभाषाओं के साथ गुज़र करना कुबूल है?
ग़ज़ल कवियों को आलोचना के नाम पर सि$र्फ दो ही मिसरे सुनने की आदत है। एक तो 'बहुत खूब' और दूसरा- 'यह बह्र में नहीं है'। बहुत खूब की आलोचनात्मक पड़ताल करने पर पता चलेगा कि जिसे बहुत खूब समझ रहे थे, वह तो ले डूबा। तो भला यह संकट कौन मोल ले। हिन्दी आलोचक से ख़तरा कितना ख़तरनाक है, ज़रा देखें- ''ग़ज़ल मूलत: अन्तर्विरोध को व्यक्त करने वाली विधा बन गयी है जिसमें विरोध का चमत्कार दिखलाया जाता है... वह (शायर) स्वयं समय के दर्द में शामिल नहीं। कई बार तो लगता है कि वह सैडिस्ट की तरह दर्द का मज़ा ले रहा है।''7 इसलिए बेहतर है कि गक़ाल का बह्र में होना मात्र ही उसका कविता होना बना रहे, ताकि बाल की ख़ाल निकालने वालों से आप बचे रह कर अपनी अलग ग़ज़ल-खिचड़ी पकाते रहें और हिन्दी काव्य प्रदेश में अल्पसंख्यक होने का रोना रोते रहें। हालाँकि पूछा जा सकता है कि अगर ग़ज़लकार समय के दर्द में शामिल न होकर सैडिस्ट की तरह सि$र्फ मज़ा ले रहें हैं तो क्या समय का दर्द बयान करने वाला नई कविता का कवि समय के दर्द में शामिल है?
शायद यही कुछ बात जेहन में रही होगी कि ज्ञान प्रकाश विवेक ने लिखा है कि - ''ग़ज़ल में कविता का तत्व ग़ज़लियत को नुकसान पहुंचाता है।''8 हक़ीकत यह है कि ग़ज़ल की रूहानी और रूमानी दुनिया में समकालीन नई खिड़कियाँ खुलीं ही तब जब ग़ज़ल नई कविता के पास गयी। वरना तो आम की बातें भी ख़ास की भाषा में होती थीं। फ़िराक़ शायद ग़ज़लों को वह भारतीय संस्कार और लोकभाषा न दे पाए होते यदि उनके समकालीन महाकवि निराला न रहे होते। साक्ष्य लिखित हों, ज़रूरी नहीं, परन्तु कल्पना की जा सकती है कि निराला की लेखनी की स्वीकार्यता से फ़िराक कहीं न कहीं प्रभावित हुए होंगे। 'राम की शक्ति पूजा' और 'सीता की रसोई' का साम्य कुछ इशारा करता है। निराला स्वयं फ़िराक़ की ग़ज़लों की मकबूलियत से प्रभावित हुए और टूटी-फूटी ही सही, ग़ज़लें लिखने की कोशिश की। दुष्यन्त यदि नई कविता के कवि न होते तो शायद ग़ज़लों को वह हिन्दी संस्कार, प्रतिरोध की नैतिकता और आम ज़बान, सीधी मार न दे पाए होते। यह एक अलग अध्ययन का विषय है। परन्तु इतना तय है कि ग़ज़लों ने नई कविता से नई ताज़गी प्राप्त की। ''उर्दू कविता साधारणत: अन्तर्मुखी है। बुनियादी तौर पर उसमें सामाजिक चेतना के तत्व कम मिलते हैं।''9 ग़ज़लों में सामाजिक चेतना की देन के पीछे बहुत बड़ा हाथ नई कविता का ही है।
आ$िखर शेरयित और तगज़्जुल पर देवनागरी ग़ज़लों की दुनिया में इतनी हायतौबा क्यों है? कहीं यह उर्दू काव्यालोचना को लेकर हिन्दी वालों की एहसासे कमतरी तो नहीं है? हम अपनी आलोचना की शब्दावली भी बह्र की तरह फ़ारसी से उधार लेने को अभिशप्त क्यों हैं? कविता बिना काव्य-संवेदना, काव्य-भाषा और अन्तर्निहित काव्यात्मकता के सम्भव ही नहीं होती। गीत, ग़ज़ल भी कविता ही है, यह बात अब स्वीकार्य हो चली है। देखें हिन्दी कवि एकान्त श्रीवास्तव की सम्पादकीय- ''हिन्दी गीत, हिन्दी ग़ज़ल भी हिन्दी कविता के अविभाज्य अंग हैं। इनके बिना हिन्दी कविता की चर्चा अधूरी ही समझी जानी चाहिए।''10 अब कहाँ 1982 में रघुवीर सहाय की तान- ''मगर अब याद रहे छन्द नहीं चाहिए। वह सारी चिडिय़ों की अतुकान्त चहक को बिगाड़ कर रख देगी''11 ''और कहाँ 2015 में एकान्त की यह स्वीकृति।''
लगभग चार दशक की मुसल्सल ग़ज़ल यात्रा के बाद क्या अब हिन्दी ग़ज़लों के सन्दर्भ में भाषा और शिल्प की भूमिका पर नए सिरे से सोचने की ज़रूरत नहीं पैदा हो गयी है? क्या देवनागरी ग़ज़लों की आलोचना (मूल्यांकन) फ़ारसी ग़ज़ल शास्त्र की कसौटियों पर ही की जानी चाहिए? अपनी पुस्तक 'ग़ज़ल: हिन्दी ग़ज़ल' में सुल्तान अहमद लिखते हैं- ''मेरे ख़्याल से हिन्दी ग़ज़लें समकालीन हिन्दी कविता का ही हिस्सा हैं,''12 और समकालीन हिन्दी कविता क्या है? - ''छायावादोत्तर हिन्दी कविता जिसे मोटे तौर पर समकालीन कविता कहा जा सकता है।''13 तो कविता की जड़ें हिन्दी परम्परा में हों और हिन्दी ग़ज़लों की कसौटियाँ फ़ारसी की हों, यह विरोधाभास क्यों? नतीज़ा क्या है? फ़ारूकी साहब की ज़बानी- ''कुछ पाबन्दियाँ (देसी/अरबी/फ़ारसी शब्दों के बीच में सामाजिक एवं संबंधकारक पदों से गुरेज़; फ़ारसी/अरबी शब्दों को जैसे हैं वैसे ही' 'अस्ल' उच्चारण के साथ प्रयोग  करना) अब भी बाक़ी हैं, नये प्रयोगों को उसी शक की निगाह से देखा जाता है। वह समस्त कट्टरता जो 19 वीं शती की साहित्यिक भाषा की संस्कृति में प्रवेश कर गयी थी, अब भी विद्यमान है।''14
उर्दू भाषा के विकास के बारे में फ़ारूकी साहब की टिप्पणी और भी गौरतलब है। ''उर्दू में इसका उल्टा हुआ कि बोलने वालों को व्याकरणकारों का पाबन्द बनाया जाने लगा। यहाँ तक कि कवि जिनका काम भाषा की सम्भावनाओं का विस्तार करना होता है, इन्हीं व्याकरणकारों के पाबन्द करार दिए गए जिनका अस्तित्व ही न होता, अगर कवि न होते और आम बोलने वाले न होते। अठारहवी शती का अन्त होते-होते लगभग हर जगह 'भाषा के शुद्ध रूप' और 'फ़ारसी वालों के अनुकरण' का दौर-दौरा हो गया।.... फ़ारसी (इसमें अरबी शामिल है) को अनावश्यक महत्त्व/प्रतिष्ठा प्रदान करना एक प्रकार का आभिजात्य है और सम्भव है इसे यही ख़याल करके अपनाया गया हो... यह भाषा के स्वाभाविक विकास के विपरीत था... हमारी भाषा अनावश्यक और बनावटी जकड़बन्दियों में गिरफ़्तार हो गयी... इन पाबन्दियों से एक बनावटी भाषा का विस्तार हुआ, जो मूल बोल-चाल की भाषा से भिन्न थी।'' इसी तरह का शासकवादी आभिजात्य खड़ी बोली में भोजपुरी के प्रति महसूस किया जा सकता है।
हिन्दी कविता इसी आभिजात्य के खिलाफ लड़ के ही आगे बढ़ सकी है और हिन्दी ग़ज़ल भी। आगे का हिन्दी ग़ज़ल का रास्ता भी फ़ारसीयत के आभिजात्य से संघर्ष और जन-बोली के प्रश्रय का ही होगा। स्पष्ट होना चाहिए कि कोई भी लिपि सिर्फ लिपि ही नहीं होती, एक माइण्डसेट भी है। देवनागरी लिपि हिन्दी प्रदेश, हिन्दी आबोहवा और हिन्दुस्तानी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करती है। हिन्दी आबोहवा में प्रेम का मतलब सिर्फ दो होता है- स्त्री-पुरुष के बीच या भक्त और भगवान के बीच का प्यार। फ़ारसी संस्कृति में प्रेम का एक लौण्डा रूप भी है बल्कि पूरी फ़ारसी शायरी में प्रेम पुरुष, और पुरुष के बीच ही है। परन्तु आज उर्दू ग़ज़लों ने स्वयं प्रेम की इस फ़ारसीयत और फिलॉसफी से किनारा कर लिया है। किसी शायर का महबूब अब लड़का नहीं है। हम क्या चुनें यह हमारे काव्य-विवेक ही नहीं जीवन-विवेक पर भी निर्भर करता है। ऐसे में देवनागरी में लिखा जाने वाला समय हमारा हो और उसके विश्लेषण की कसौटी उनकी हो, यह कहाँ तक उचित है? क्या भारतीय दण्ड संहिता की तमाम धाराओं (जिनका उत्स ब्रिटिश कानून था) की तरह उर्दू ग़ज़ल संहिता की तमाम कसौटियाँ पुरानी और बेमानी नहीं हो चुकी हैं? बात स्पष्ट करने के लिए सि$र्फ दो-एक उदाहरण रखना चाहूँगा। यह क्यों ज़रूरी है कि हुस्ने मतला, मतले के साथ ही आएगा या वह शेर जिसमें कवि  का नाम प्रकारान्तर से भी आ गया हो उसे मक्ते के शेर के रूप में ही परिभाषित किया जाएगा और उसकी स्थिति ग़ज़ल के आ$िखरी शेर के रूप में ही होगी। हो सकता है शायर को लगे कि ग़ज़ल के ख़ास अर्थ सन्दर्भ और प्रभावोत्पादकता को लेकर कोई अन्य शेर मतले के तुरन्त बाद रखना ज़्यादा सटीक हो न कि हुस्ने मतला। इसी तरह तथाकथित मक्ते का शेर वहाँ फिट न लगे जहाँ उसे पारम्परिक व्याकरण बताता है। यह छूट शायर को क्यों न हो?
इसी तरह का एक दोष तक़ाबुले-रद़ीफैन है। यानी मतले के बाद शेरों के पहले मिसरे में रदीफ़ नहीं आनी चाहिए। रदीफ़ लम्बी है, तो उसका अन्तिम शब्द भी नहीं आना चाहिए। क्यों? उस्ताद का जवाब होगा- क्योंकि ऐसी ही परम्परा है फ़ारसी काव्यशास्त्र में। अब यदि कथ्य की मजबूरी ही नहीं, कथ्य की खूबसूरती के लिये शेर के दोनों मिसरों में रदीफ़ का अन्तिम शब्द आ ही जाए तो शेरियत या तगज़्जुल या ग़ज़लियत में कौन सी कमी आ जाएगी? हाल ही में साहित्य अकादमी पुरस्कार घोषित शायर मुनव्वर राना का उदाहरण देना चाहूँगा।
न कमरा जान पाता है न अंगनाई समझती है
कहाँ देवर का दिल अटका है मौजाई समझती है।
हमारे और उसके बीच एक धागे का रिश्ता है
हमें लेकिन हमेशा वह सगा भाई समझती है।
बताइये न! तक़ाबुले रद़ीफैन के कारण शेर में क्या गड़बड़ी आ गयी है। मुनव्वर ख़ुद भी चाहते तो उसे दुरस्त कर सकते थे परन्तु इस दोष को बचाने पर मिसरे के कृत्रिम हो जाने का ख़तरा ज़्यादा पैदा हो जाता- ''हमारे और उसके बीच है धागे का एक रिश्ता'' एक तरह की भाषाई चिकनाई जो तक़ाबुले रदीफ़ैन दोषयुक्त मिसरे में है, वह ख़त्म हो जाती। फ़ारसीशास्त्र में एक और दोष गिनाया जाता है जिसे तनाफ़ुर कहते हैं। किसी शब्द का अन्तिम अक्षर और उसके तुरन्त बाद आने वाला शब्द का पहला अक्षर यदि समान हो या एक ही वर्ग का हो तो उसे तनाफ़ुर दोष मानते हैं क्योंकि उनकी ध्वनियों का टकराव खटकने वाला होता है। फ़िराक़ का एक मिसरा है- ''जिसकी फ़ुर्कत ने पलट दी इश्क़ की काया फ़िराक़''। यहाँ इश्क़ के 'क' और काया के 'क' का टकराव फ़ारसीशास्त्र के अनुसार दोषयुक्त है। परन्तु शुद्ध क्या होगा, यह किसी को नहीं पता। मिसरा इतना दमदार है कि दोष-फोश कुछ भी नज़र नहीं आता।
ऐसे तमाम दोष हैं जिनसे यदि ग़ज़लें बरी का दी जाएं तो उनके काव्य-व्यक्तित्व के विकास के लिए बेहतर होगा। सिर्फ आंचल सम्हालने में ही ग़ज़लों की आधी ऊर्जा ख़त्म हो जाती है। चाल-ढाल, नाक-नक्श, रंग-वस्त्र, बोली-बानी आदि के पैराए में इंसान की परिभाषा नहीं गढ़ी जा सकती। आदमी की मूल और सर्वाधिक मूल्यवान पहचान आदमीयत है। ग़ज़लों के लिए भी उनकी मौलिक और अपरिहार्य पहचान को बचाकर, फ़ालतू चीजें ख़त्म कर देनी चाहिए। शह्र और शहर के विवाद ने कितनी सडऩ पैदा की थी। भाषा का व्यवहारिक इस्तेमाल ही उनकी रचनात्मकता है। ''हिन्दी वालों से उनकी व्यवहारिक हिन्दी नहीं छीनी चाहिए... कम्प्यूटर को संगणक कहकर यह भुलावा देने की चाल न खेली जाए कि कम्प्यूटर वेद से निकला था।''16
ग़ज़ल की ऐतिहासिक पहचान के साथ उनकी भौगोलिक पहचान भी ज़रूरी है। हिन्दी काव्यालोचना की प्रचलित शब्दावली में 'लोकेल' का होना, स्थानीयता का होना। ग़ज़ल की सांस्कृतिक पहचान भी ज़रूरी है। जम्मू का शायर लिख रहा है कि गोरखपुर का कि हैदराबाद का कि मुंगेर या कोलकाता का, समकालीन ग़ज़लें इसका पता ही नहीं देतीं। गाँव का शायर है कि शहर का कि फ्लैट कल्चर का कि स्लम एरिया का, इसे बिलगाने में पूरी कसरत करनी पड़ेगी। एक तरह की ओढ़ी हुई वैश्विकता ग़ज़लों पर लदी है। दलित कवि भी वैसी ही ग़ज़ल लिख रहा है, जैसी सवर्ण मानसिकता का शायर। अपनी ख़ास पहचान, अस्मिता बोध नदारद है, जबकि ग़ज़लेतर विधाएं अपनी अलग दलित-दमित पहचान उजागर कर रही हैं। समकालीन हिन्दी ग़ज़ल अपनी भौगोलिक और सांस्कृतिक पहचान बनाने से चार दशक की अनुभव यात्रा के बावजूद क्यों कतरा रही है? कौन सी हीन भावना उसे ग़ज़ल की पारम्परिक और ऐतिहासिक पहचान बनाए रखने तक ही सीमित कर रही है? कहीं ऐसा तो नहीं कि इसके पीछे हिन्दी ग़ज़लों की रचनात्मकता और अपार काव्य-ऊर्जा को नष्ट करने की कोई साजिश चल रही है। हम तो डूबे हैं सनम तुमको भी ले डूबेंगे।
उर्दू में ग़ज़ल पूरे वाक्य की कविता होती है। देवनागरी ग़ज़लें भी जिनकी जड़ें हिन्दी कविता में हैं, इसकी पाबन्द क्यों हों? हिन्दी कविता अधूरे वाक्यों की शानदार और वजनदार अभिव्यक्ति रही है। लिफि सिर्फ शब्दों को ही काग़ज़ पर नहीं उतारती, वह एक पूरी रहन-कहन शैली, मानसिकता, बुनावट-बनावट का भी मुज़ाहिरा करती है। कर्ता, क्रिया, कर्म की मुकम्मल शिनाख़्त के बाद ही शेर अर्थ देंगे, ऐसा ज़रूरी तो नहीं। पाठक गैप को स्वयं भर के अर्थ समझ लेता है। वैसे ही जैसे किसी शेर में 'जम' के पहलू की तरफ पाठक का ध्यान स्वत: चला जाता है। विडम्बना यह है कि ग़ज़ल का चेहरा उतना नहीं बदला है, जितना उसका ज़ेहन। यह समय, शिथिलता, इत्मीनान से गुफ़्तगू करते ग़ज़ल कहने और उसकी तख्तीअ करने का नहीं है। नख-शिख श्रृंगार का ही नहीं है। प्रतिप्रश्न हो सकता है कि क्या जेह्न बदलने से चेहरा भी बदल जाता है। जी हाँ, सीरत बदलती है तो सूरत भी बदल जाती है। आंगिक भाषा, फेसियल एक्सप्रेशन, शब्द भाषा के समानान्तर रंग-भाषा की अवधारणाएं यूं ही नहीं विकसित हुई हैं। जहां चेहरा बदलने पर जेह्न न बदले, वहीं फ़रेब पनपता है। हिन्दुस्तान की कुर्सीवादी राजनीति पर एक नज़र डाल के इसे समझा जा सकता है। ग़ज़लों का जेह्न बदले मगर चेहरा न बदले, यह एक तरह का बाल हठ है। ''वैचारिक विकास के साथ भाषा का विकास भी होना चाहिए। यदि विचार के साथ कदमताल होकर भाषा विकसित नहीं होगी तो नुकसान यह होगा कि जीवन में हिप्पोक्रेसी जन्म ले लेगी।''17
ग़ज़ल के परिधान की बात और है, पर्सनालिटी की बात और। यदि किसी के लिए परिधान ही पर्सनालिटी है तो बहस बेकार है। ख़ाकसार का एक शेर है- 'उनसे न कभी थी न कभी होनी है बहस/जिनके लिए है शायरी लफ़्ज़ों का एक क़फ़स'। बेशक परिधान, पर्सनालिटी में इज़ाफा करता है, सोने में सुहागे की तरह, परन्तु वह सोना नहीं हो सकता। ग़ज़ल का परिधान उर्दू का हो सकता है, मगर उसका व्यक्तित्व खांटी हिन्दी का होना चाहिए। मेरे लिए हिन्दी का मतलब देवनागरी में लिखी भाषा से भी है और रामविलास जी की 'हिन्दी जाति' से भी है। 'हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा' वाली हिन्दी। उर्दू लिबास पहने हिन्दी कविता का मतलब है हिन्दी ग़ज़ल। हिन्दी पर फ़िराक़ को भी यहाँ सुनते चलें- ''शुद्ध हिन्दी का एक शब्द ऐसा नहीं होता जिसमें हर अक्षर की पूरी और अलग आवाज़ सुनाई दे। इसी तरह की ध्वनि वाले अरबी-फ़ारसी शब्द उर्दू में अपनाए गए।''18 ''...वस्तुत: खड़ी बोली को एक विशेष ढंग से या विशेष शैली में प्रयोग करना उर्दू है।''19 यानी जिसे हम उर्दू लिबास कहने को मजबूर हैं वही फ़िराक़ के लिए हिन्दी लिबास है। बेशक हिन्दी ग़ज़ल को जितनी जल्दी ग़ज़ल में संक्षिप्त कर लिया जाएगा उतनी ही ज़ल्दी ग़ज़ल को कविता मानने-मनवाने में हम सफल होंगे और तब ग़ज़लों  के आलोचक न होने का रोना भी ख़त्म हो जाएगा। पहले हम स्वयं तो ग़ज़ल को कविता मानें, कविता की तरह उसे बरतें, तभी हिन्दी आलोचना से कुछ उम्मीद करें।
हिन्दी ग़ज़लों को शिल्प की जानकारी और शिल्प की चाकरी में भेद करना होगा। अंधभक्ति अरचनात्मक प्रवृत्ति है। ''जड़ और स्थिर शिल्प, संवेदना को भी जड़ बना देता है और इस प्रकार की प्रक्रिया एक निर्जीव और विकलांग रचना को ही जन्म दे सकती है।''20 अकारण नहीं कि बहुत से ग़ज़लकार केवल शिल्प के शायर हो के रह जाते हैं और ज़िन्दगी भर ज़िन्दगी नहीं लफ़्जों की शायरी करते रहते हैं। ये जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि के शुद्ध शायर हैं। इन्हीं के बरक्स एक और श्रेणी है जिन्हें हम कथ्य के शायर और वह भी गिने-चुने कथ्य के शायर कह सकते हैं। ये ग़ज़ल के गाँव के मशालची हैं, इन्हें ग़ज़ल के शिल्प की कोई फ़िक्र नहीं होती। वास्तव में हिन्दी ग़ज़ल को बकौल नज़ीर 'अकबराबादी', 'पोख़्तगी और ख़ामी' के बीच अपनी यात्रा ज़ारी रखनी होगी। हिन्दी ग़ज़लों को न केवल ग़ज़ल की परम्परा, वरन् जीवन की परम्परा का भी ध्यान रखना होगा। जीवन की परम्परा में 'ज़ियादा' और 'ज़्यादा' दोनों सही है। इसलिए ग़ज़ल की परम्परा को हमें विस्तार दे के बात को कहने की छांदिक बंदिश को आसान बनाना होगा और 'ज़ियादा' (1+2+2) तथा 'ज़्यादा' (2+2) दोनों का एहतराम करना होगा। ज़िन्दगी जब तद्भव में नहीं चलती तो ग़ज़ल तद्भव में सांस लेने को मजबूर क्यों की जाए। भाषा, तत्सम के बिना विकसित नहीं हो सकती और अविकसित भाषा में आधुनिक जीवन व्यक्त नहीं हो सकता। जीवन में अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग की मुमानियत नहीं तो ग़ज़ल में ही क्यों हो। सुल्तान अहमद सही ढंग से हिन्दी टकसाल की बात उठाते हैं- ''फ़ारसी और संस्कृत के शब्द हिन्दी में आने पर अपनी अपनी गंध बाहर ही छोड़कर आएं। यानी वे ऐसे आएं कि फ़ारसी और संस्कृत न लगकर हिन्दी ही लगें। ऐसे में हिन्दी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल मेें भेद तो नहीं रह जाएगा, भेदभाव चाहे जितना रह जाए।''21
उरुज या पिंगल के अतिरिक्त दबाव में कविता सहज नहीं रह सकती। व्याकरण जब कविता से बंधुआ मजदूर की तरह व्यवहार करने लगे तो काव्य-विवेक का आलोचनात्मक हस्तक्षेप अनिवार्य हो जाता है। शिल्प (ख़ासतौर से फ़ारसी शिल्प) के ब्राह्मणवाद से लड़े बिना हिन्दी कविता (ग़ज़ल) का विकास सम्भव ही नहीं हुआ होता। फ़ारसी भाषा और उरुज के आक्रामक और अन्तर्निहित विजेताभाव वाले दबाव में हिन्दी ग़ज़लें गुलाम बनकर ही रह पाएंगी, जिसे दुष्यन्त से लेकर आज तक के गम्भीर ग़ज़लकारों ने कतई स्वीकार नहीं किया है। हिन्दी ग़ज़लों को फ़ारसी (उर्दू) के शासक भाव से उबरने की ज़रूरत है। उर्दू का जो धनात्मक और रचनात्मक अवदान है, उसे हमें स्वीकार करना चाहिए। उर्दू ग़ज़ल न होती तो हिन्दी ग़ज़ल आती ही नहीं। भले ही हिन्दी के पास रहीम, कबीर, निराला, त्रिलोचन, मुक्तिबोध, शमशेर और दुष्यन्त थे। उर्दू ग़ज़लों की लम्बी प्रगतिशील परम्परा से हमें सीखना चाहिए। परन्तु जूते हमें अपने पैरों के हिसाब से ही बनवाने होंगे। जूतों की तयशुदा साइज के अनुसार हम अपने पांव नहीं रख सकते। संस्कृत काव्यशास्त्र और फ़ारसीशास्त्र के शासक भाव के पीछे छिपे द्वेष-भाव को भी समझने की ज़रूरत है तभी हम उनकी तंग नज़री पर सवाल उठा सकेंगे।
भाषा का भी अपना एक वर्ग-चरित्र होता है। मैं यहाँ विश्वनाथ त्रिपाठी को उद्धृत करना चाहूँगा- ''तुलसी के समय में फ़ारसी राज्याधिकारियों की भाषा थी और संस्कृत धर्माधिकारियों की। संस्कृत और फ़ारसी दोनों जनभाषाओं का गला दबोच रही थीं.... तुलसी ने काव्य रचना संस्कृत में नहीं की- 'भदेस भाषा' में की। संस्कृत और फ़ारसी आदि भाषाओं को हिन्दी की प्रकृति में ढाल देते समय तुलसी हिन्दी के वाक्य गठन और ध्वनि प्रवृत्ति को सुरक्षित रखते हैं। उनके यहाँ 'साहिब-द्रोही' जैसी समास रचना मिल सकती है।''22 आगे वे प्रश्न करते हैं, ''भारत में व्यवहृत विदेशी भाषाओं की ध्वनि प्रवृत्ति भारतीय बोलियों के अनुकूल होगी या अपने 'होम लैण्डों के अनुकूल।'''23 मीर और ग़ालिब की शायरी का बड़प्पन अपनी जगह। परन्तु वे हमारी काव्यभाषा परम्परा को हेय समझें, इसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। शेर तो आप ख़वास पसन्द लिखें और गुफ़्तगू अवाम से चाहें, यह सम्भव नहीं। अभिजात्य चाहे शिल्प का हो या भाषा का, तंगनज़री चाहे संस्कृत की हो या फ़ारसी की, उस पर सवाल उठाए ही जाने चाहिए। इक़बाल का यह शेर मुझे पसन्द है-
ज़ाहिदे तंगनज़र ने मुझे काफ़िर जाना
और काफ़िर ये समझता है मुसलमां हूं मैं।
देशभक्त मुसलमानों की त्रासदी की तरह ग़ज़ल की दुनिया का मैं काफ़िर ही सही परन्तु रूमी के इस वाक्य- ''काल से बड़ा हूँ और काल में समाया हूँ'' की तर्ज़ पर कहना चाहूंगा कि 'उरुज से बड़ा हूँ और उरुज में समाया हूं।' बह्र से मुक्ति बह्र में रह के ही सम्भव है और यह तभी सम्भव है जब आप हिन्दी की गंगा को फ़ारसी में 'गंग' और 'यमुना' को 'जमुन' के उच्चारण के अनुसार बह्र की तख़्तीअ करने की स्वतन्त्रता दें और फ़ारसी के ज़ियादा को हिन्दी के ज़्यादा/ज्यादा के रूप में गणना करने की आज़ादी प्रदान करें। बहर में रहके बहर से मुक्ति तभी सम्भव है जब हिन्दी का आइना और फ़ारसी का 'आईना', शहर और शह्र, दोनों शायरी के एतबार में सही माने जाएं।
'आइना झूठ बोलता ही नहीं'
'दिल के आईने में है तस्वीरे यार'
'यह तवह्हुम का कारखाना है/यां वही है जो एतबार किया'
मीर यहाँ के अर्थ में यां का इस्तेमाल करते हैं। हिन्दी में यह परिपाटी नहीं है। परन्तु हिन्दी मीर की बह्र पर सवाल नहीं उठाती। फिर?
अपनी पुस्तक 'उर्दू भाषा और साहित्य' में फ़िराक़ ने ब्रज नारायण चकबस्त पर लिखते हुए एक ग़ौरतलब टिप्पणी की है - ''उन्होंने उर्दू कविता की परम्परा के अनुसार कोई उस्ताद नहीं बनाया। यह अच्छा ही हुआ। क्योंकि उस्ताद बनाकर वे शायद शुरु से ही अपना अलहदा रंग न पैदा कर पाते।'' याद कीजिए कि ग़ालिब ने भी शायरी की उस्ताद परम्परा का उल्लंघन किया था और इसके लिए उन पर लानतें भेजी गयी थीं। निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि नई बात, नई राह वहीं बन पायी है, जहाँ परम्पराओं और रूढिय़ों का अतिक्रमण हुआ है।
शब्द गढऩे की प्रवृत्ति हिन्दी कविता की एक मौलिक प्रवृत्ति रही है। कारण यह है कि उर्दू की अपेक्षा हिन्दी हमेशा 'लोक' और उसकी बोलियों से सम्पृक्त रही है। हिन्दी ग़ज़लों को अपनी इस परम्परा का निर्वाह करना चाहिए, भले फ़ारसी कसौटी के उस्ताद हायतौबा मचाते रहें। हालाँकि शायरी के दबाव में फ़ारसी में भी शब्द गढऩे की प्रवृत्ति दिखाई पड़ जाती है। वरना रास्ते के अर्थ में 'राह' और 'रह' दोनों शब्द जायज़ नहीं होते. इसी तरह 'निगह' और 'निगाह'। फैज़ ने 'राह गए' के लिए 'रह गए' इस्तेमाल किया है, जबकि हिन्दी में 'रह गए' छूट गए के अर्थ में प्रयोग होता है। बह्र के हिसाब से अनाज को नाज (शमशेर- नाज पकने पर खुले आकाश से), छूटकर को छुटकर (फ़िराक़-तुझसे छुटकर बड़ी फ़रागत है) इज़्जत को इज्जतें (मुनव्वर राना- यहाँ तक इज़्जतें मरने के बाद मिलती हैं) किधर को कीधर (मीर 'दर्द'-'दर्द' कुछ मालूम है ये लोग सब/किस तरफ से आए थे कीधर चले) करना को कर (ग़ालिब- वरना क्या बात कर नहीं आती), शक्ति को शक्ती, शान्ति को शांती और मुक्ति को मुक्ती (इक़बाल की नज़म 'शिवाला') कहने की छूट बह्र की तंगनज़री को ध्यान में रखके ली गयी है। शम्शुर्रहमान फ़ारूकी ने इंगित किया था- 'अठारहवीं शताब्दी के अन्त में उर्दू की साहित्यिक संस्कृति में एक खेदजनक रूचि का आविर्भाव होता है। मात्रा शुद्धि के नाम पर एक तरह के मूल तत्ववाद (Fundamentalism) का प्रचार किया जाने लगा, 'भाषा के सुधार' और 'भाषा से विकृत/अप्रिय तत्व के विरेचन की बात होने लगी, सबसे बुरा यह कि तमाम फ़ारसी/अरबी शब्दों का दर्ज़ा देशी शब्दों के ऊपर नियत किया जाने लगा। जो आज़ादियाँ देशी शब्दों के साथ उचित समझी गयीं, फ़ारसी/अरबी शब्दों को उनसे ऊपर माना गया। देशी और फ़ारसी/अरबी शब्दों के मध्य सामाजिक एवं सम्बन्धकारक चिन्हों को 'अवैध' कहा जाने लगा... भाषा के अन्दर कुछ इस तरह के वर्गीकरण हुए जैसे कि हिन्दू समाज ने वर्ण-व्यवस्था के रूप में बनाए थे।'24 मैं भाषा की इसी वर्ग-व्यवस्था, वर्ग-चरित्र, भाषा के आभिजात्य और उसके शासक भाव के पीछे छिपे द्वेषभाव की चर्चा कर रहा हूँ जिससे हिन्दी ग़ज़ल को न केवल बचना-उबरना है, अपनी एक गैर साम्प्रदायिक, जन भाषा भी गढऩी है। हिन्दी कविता इस मामले में हिन्दी ग़ज़लों के लिए उदाहरण हो सकती है।
भाषा हमेशा बरतने वाले की सामाजिक-आर्थिक स्थिति, जीवन, व्यवहार, संस्कार, रूचि, व्यवसाय और जलवायु के अनुरूप ही बदलती, फूलती-फलती है। शब्दों की सही वर्तनी और उच्चारण पद्धति के आधार पर भाषाओं का विकास नहीं होता। कविता का विकास भाषा की इसी विकास परम्परा और तरीके से नालबद्ध है। भाषा का जड़ होना, कविता का जड़ होना है। हिन्दी ग़ज़लों ने यदि इस ओर ध्यान नहीं दिया और भाषा के मानकीकरण से चिपकी रहीं तो वे कतई हिन्दी काव्यालोचन के परिसर में स्वीकृत नहीं हो पाएंगी। यह भी ध्यान देने की बात है कि भाषा के लोकतंत्रीकरण को परिणति भाषा की अराजकता की ओर न ले जाए। फ़िराक़ का शेर याद आता है - 'कभी पाबन्दियों से छुट के भी दम घुटने लगता है/दरो-दीवार हो जिसमें वही ज़िन्दा नहीं होता।' इसीलिए हिन्दी काव्यालोचना में भाषा के भीतर की भाषाई दुनिया पर भी चर्चा होती रही है। हिन्दी ग़ज़लों की भाषिक निजता के लिए आवश्यक है कि शायर भाषा के चरित्र पर भी नज़र रखें। कविता की एक कसौटी भाषा का मौन भी है, ग़ज़लों का मौन भी सुनाई पडऩा चाहिए। हालाँकि यहीं शेरों की अबूझता का भी ख़तरा पैदा होता है। कहने से अधिक बोलना एक दोष है जिसे सामान्य भाषा में बड़बोलेपन भी कहा जा सकता है। कुछ लोगों को यह ख़तरा सालता है कि जनभाषा कहीं काव्यभाषा की जगह अखबारी भाषा का इकहरापन न अ$िख्तयार कर ले। उन्हें निश्चिन्त रहना चाहिए कि जनभाषा दिखती सपाट भले हो, होती तहदार है। संक्षेप में गहरी बातें कहने की विशिष्टता जनभाषा में ही होती है। डॉ. अजीज इन्दौरी का शेर- ''ग़ज़ल में शोर बढ़ता जा रहा है। ग़ज़ल तहरीक होती जा रही है''25 हमें सतर्क करता है।
अर्थ की असम्बद्धता और अस्पष्टता के रोग से बचते हुए 'दिखाव' से अधिक 'छिपाव' का काव्य गुण हिन्दी ग़ज़लों को विकसित करना है, ताकि कविता का अनेकार्थी गुण और ग़ज़लों की तहदारी भी कायम रहे। इसके लिए कविता की अनुगूंज का मुहावरा ध्यान में रखना होगा। कथ्य सि$र्फ सम्प्रेषित हो के ही न रह जाए बल्कि एक असम्प्रेष्य सी खनखनाहट भी छोड़ आए। उर्दू शायरी इस गुण से मालामाल रही है। विश्वनाथ त्रिपाठी से शब्द उधार ले के कहें तो हिन्दी ग़ज़लों को 'शब्दों' की ध्वनि-मैत्री पर भी ध्यान देना होगा। सि$र्फ पठनीयता ही नहीं, सुननीयता (श्रव्यता) का गुण भी ग़ज़लों का एक आकर्षक गुण होना चाहिए। इस सुननीयता के लिए हमें नज़ीर की तरह लोकभाषा की ओर जाना होगा-
तन सूखी कुबड़ी पीठ भई, घोड़े पर जीन धरो बाबा
अब मौत नक़ारा बाजि चुका चलने की फ़िक्र करो बाबा।
फ़िराक़ ने कहा था - ''सुन्दर अनुभूतियाँ सिद्धान्तों से उच्चतर वस्तुएं हैं... आंतरिक भावनाओं की तुलना में विवेकशील सिद्धांत सदा कम महत्व के रहे हैं... लोक गीतों की शायरी मूल शायरी है... यह शायरी अपने समस्त आकर्षक गुणों के बावजूद सुसंस्कृत कविता के सभी तत्वों को लेकर आगे नहीं बढ़ सकती... उर्दू साहित्य अपनी समस्त अच्छाईयों के बावजूद मुझ पर एक पराएपन का प्रभाव डालता रहा है।''26 ऐसा क्यों है फ़िराक़ के साथ? ऐसा इसलिए है कि उर्दू भाषा बेशक हमारे देश-काल-परिवेश-परम्परा और ज़रूरत की भाषा है, परन्तु उसका फ़ारसीशास्त्र विदेशी है, हमारा अपना नहीं। हमें उर्दू से प्यार है मगर उर्दू की फ़ारसीयत से गुरेज़ है। क्या अब ज़रूरी नहीं कि हम अपनी भाषा (उर्दू-हिन्दी) की कविता को अपने समय के हिन्दी काव्यशास्त्र के आधार पर मूल्यांकित करें?
''कुछ और चाहिए वुसअत मेरे बयां के लिए'' (फ़ारसीयत के तलबगार हिन्दुस्तान के सार्वकालिक शायर ग़ालिब) के बाद महान उर्दू शायर फ़िराक़ के 'हिन्दी जेहन' की पीड़ा को समझने की कोशिश की जानी चाहिए। समकालीन ग़ज़लों की आलोचना के लिए तमाम पारम्परिक ग़ज़ल कसौटियों के झाड़-फानूस-झंखाड़ की सफाई ज़रूरी है। ''हर लिया है किसी ने सीता को/ज़िन्दगी है कि राम का वनवास''। फ़ारसी ग़ज़लशास्त्र की तमाम कसौटियों ने ग़ज़ल की सीता का अपहरण कर रखा है। शायरी राम का बनवास हो गयी है।
ग़ज़लों की दुकानदारी चलाने वालों को ये बातें सदमे की तरह लगेंगी। वहाँ ग़ज़ल अभी भी लिखी नहीं जाती, कही जाती है यानी नाज़िल होती है। भले अस्सी प्रतिशित ग़ज़लें तख़्तीअ के सहारे ही दुरुस्त होती हों। यह रवैया वही है कि भक्ति को कर्मकाण्ड में इतना उलझा दो कि मूल उद्देश्य- 'ईश-दर्शन' भूल जाए, सिर्फ 'पुंगलीफलम समर्पयामि' याद रहे। मूल वस्तु शैली-शिल्प नहीं कथ्य है। वैसे ही जैसी जीवन धर्म के लिए नहीं, धर्म जीवन के लिए है। ग़ज़लें लिखने, समझने, विश्लेषित और मूल्यांकित करने की सदियों पुरानी कसौटियां, नेट-कम्प्यूटर के युग में बदलनी ही होंगी। ये कसौटियाँ तब की हैं जब इंसान ऊँट पर या पालकी पर, नहीं तो पैदल चलने को अभिशप्त था। साइकिल तक नहीं थी। सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ आदमी की सोच को भी प्रभावित करती हैं। आज? अब पहले की तरह ग़ज़लें सि$र्फ नशिस्तों, मुशायरों, दरबारों, महफिलों में कान पर खुलने के लिए मजबूर नहीं हैं। कान के लिए जो लबालब लयात्मकता ज़रूरी है ताकि पंक्तियाँ स्मरण में रह सकें, वह आँखों के लिए ज़रूरी नहीं। कहीं-कहीं, कभी-कभी लयात्मकता भी खटकती है। कर्कशता कविता का गुण भले न हो, वक़्त की ज़रूरत हो सकती है।
प्रभावोत्पादकता ग़ज़लों का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण गुण रहा है और इसी गुण ने हिन्दी कवियों को ग़ज़लों के शिल्प की तरफ आकर्षित किया है। परन्तु ''भावना या अनुभूति की प्रभावोत्पादकता वह कसौटी नहीं है जिससे हम जीवन के प्रति कवि-दृष्टि के औचित्य या अनौचित्य की जाँच कर सकें। कभी-कभी होता यह है कि भावना की रसात्मकता वस्तु-तत्व के अनौचित्य को ढंक देती है। या इस पर पर्दा डाल देती है।... समीक्षा प्रभावोत्पदक गुणों की होती है, अर्थात् कलात्मकता की भी होती है, तत्व की भी होती है, साथ ही कलाकार की दृष्टि की भी होती है।''27 रगे-गुले से बुलबुल के पर बाँधने वाले शायरों के लिए हिन्दी आलोचना की कसौटियाँ कितनी भारी पड़ेंगी, इसका एहसास शायद ग़ज़लकारों को है। फिर भी ग़ज़लें वक़्त की ज़रूरत बनके ही हिन्दी आलोचना से कुछ उम्मीद कर सकती है। एल.ई.डी. बल्ब के ज़माने में भी, जब दीपावली दरअस्ल बल्वावली या झलरावली हो चुकी है, हम ग़ज़ल में रौशनी के नाम पर चिराग ही जला रहे हैं।
अपना एकान्तवास छोड़के ग़ज़लें काव्यालोचना के अखाड़े में उतरें और कविता से दो-दो हाथ करें। एक कथ्य पर कोई कविता और उसी पर कोई शेर या ग़ज़ल आमने सामने रखकर बात क्यों न की जाए। यह तभी सम्भव है जब आप शिल्प-विशिष्टता के अभियान से उबरकर अर्थ, अर्थात्, ध्वन्यार्थ और जनभागीदारी का उद्देश्य लेके हिन्दी कविता का पड़ोसी बनेंगे। दोनों काव्यशिल्पों में कथ्य के निर्वहन, उसकी प्रस्तुति और प्रभाव के मद्देनज़र कविता का मूल्यांकन किया जाए, तभी सीमाएं, खूबियां, और काव्य-रूढिय़ां उजागर हो पाएंगी। ग़ालिब का मिसरा- 'मेरी तामीर में मुज्मर है एक सूरत ख़राबी की', हमेशा याद आना चाहिए। कोई शिल्प सम्पूर्ण नहीं होता। कोई तामीर मुकम्मल नहीं। कविता की कोई एक पृथ्वी इंसान की भावनाओं, जरूरतों के लिए पूरी नहीं हैं। आत्मुग्धता के दायरे में रह के न ग़ज़ल को फ़ायदा होगा, न कविता को। अभी तक 'ग़ज़ल के साज' उठाए गए हैं, अंधेरे के खिलाफ़ अब ग़ज़ल के शस्त्र उठाने का वक़्त है। हाँ, यह ज़रूरी है कि शस्त्र वही उठाए जिसे शास्त्र की भी जानकारी हो, वरना ग़ज़ल में आतंकवाद का ख़तरा सम्भाव्य है।


सन्दर्भ सूची
1.     उर्दू का प्रारम्भिक युग : शम्सुर्रहमान फ़ारूकी।
2.     उर्दू कविता पर एक दृष्टि : पहला भाग, पृ. 315।
3.     आले अहमद सुरूर : प्रो. कलीमुद्दीन की उपरोक्त पुस्तक पृ. 131 से।
4.     शहरयार।
5.     ब्रज किशोर वर्मा 'शैदी'।
6.     अशोक वाजपेयी : कविता का गल्प, भूमिका।
7.     जीवन सिंह।
8.     हिन्दी ग़ज़ल : दुष्यन्त के बाद, पृ. 138।
9.     फ़िराक़: उर्दू भाषा और साहित्य।
10.     वागर्थ: जनवरी- 2015।
11.     धूप में इतिहास: लोक भूल गये हैं।
12.     हिन्दी ग़ज़ल की रिवायत: एक ज़िरह, पृ. 20।
13.     विष्णुकान्त शास्त्री: चुनी हुई रचनायें, खण्ड-1, पृ. 335।
14.     उर्दू का प्रारम्भिक युग: पृ. 313-132।
15.     वही, पृ. 125-126।
16.     सूत न कपास: डॉ. धर्मवीर, पृ. 42।
17.     डॉ. धर्मवीर: वही, पृ. 89।
18.     उर्दू भाषा और साहित्य: पृ. 8।
19.     वही पृ. 14।
20.     कवि स्व: प्रमोद वर्मा; सभार कांतिकुमार जैन की पुस्तक 'मुक्तिबोध जुमा टैंक की सीढिय़ों पर।
21.     ग़ज़ल: हिन्दी ग़ज़ल, पृ. 57।
22.     लोकवादी तुलसीदास: पृ. 73-74।
23.     वही, पृ. 76।
24.     उर्दू का प्रारम्भिक युग: शम्सुर्रहमान फ़ारूकी।
25.     'ग़ज़लकार' पत्रिका के प्रवेशांक से उद्धृत।
26.     गुफ़्तगू: वार्ताकार सुमत प्रकाश शौक, पृ. 24-25।
27.     गजानन माधव मुक्तिबोध: कामायनी एक पुनर्विचार, पृ. 155।

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