विमलेश त्रिपाठी की कविताएं

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    अक्टूबर 2015
श्रेणी विमलेश त्रिपाठी की कविताएं
संस्करण अक्टूबर 2015
लेखक का नाम विमलेश त्रिपाठी






रहना
रहना है जब तक रहूंगा
पसीने में नमक और देह में आदिम गंध की तरह
हवा पानी पेड़ खेत पहाड़ नदी
काई-सैवाल और मछलियों से भरे तालाब की तरह

किसी बच्चे की तोतली जबान में
जैसे रहती है मां
पिता रहता है जैसे उसके लडख़ड़ाते कदमों में
दौड़ता-धूपता

आकाश के कोरे में रहती है बारिश
समय की कोख में जैसे छुपे रहते हैं मौसम के रंग
गांव में सदियों से चली आती
लोक कथा रहती है जैसे
गिरते हुए घरों की भुड़कियों में बने
घोसले में रह लेती है जैसे एक गौरैया

जैसे बुरे से बुरे देश में भी
रहती है उस देश की अभागी जनता
उसके अंदर जैसे हर समय
रहती है सब कुछ बदल जाने की
कोई एक आखिरी उम्मीद

जैसे रही आयी है
किसी औरत की एकांत रातों में
कभी पूरी न हो सकने वाली
सपनों की एक धुंधली चित्र-श्रृंखला

रहना है जब तक रहूंगा

और एक दिन जब चुपचाप चला जाऊंगा
एक ऐसे समय में
जहां से वापिस लौटने के रास्ते नहीं
नहीं बना सका है विज्ञान

तब तुम मेरे नाम मिटा देना
जो खुदा है हमारे-तुम्हारे समय की देह पर

सुनो...
बाद जाने के शायद भी न बचे
लेकिन ब्रह्मांड में थरथराता रहेगा
एक असाध्य शून्य
असंख्य प्रकाश वर्षों तक...

गलत काम
वैसे तो किसी भी गलत काम से दूर रहता हूँ मैं
लेकिन अगर कभी
हो ही गई कोई गलती मुझसे
तो एक अनजाना-सा डर घर कर जाता है मेरे अंदर

मैं ऐसे डरा रहता हूं कि पीछे से आकर
कोई हाथ रख दे कंधे पर तो चौंक जाता हूँ मैं
हँसता हूँ तो अचानक वह डर
मेरे होंठों पर आकर बैठ जाता
चलता हूँ तो वह साये की तरह चलता मेरे साथ

रात में तो और हो जाता हूँ परेशान
एक परछाई मेरे पीछे-पीछे आती हुई दिखती है
और फिर गलती की शक्ल में ढल जाती है
मेरी गलती मेरे ही सामने
एक खूँखार दैत्य की तरह खड़ी हो जाती है
सच बताऊँ तो उसके बाद
मैं सो नहीं पाता
सपने में भागता रहता हूँ रेल की पटरियों पर उस एक गलती से जान छुड़ाता
हांफते सिकते बेदम हो जाता हुआ

सुबह उठता हूँ और पत्नी से कहता हूँ
कि मैंने गलती की है
बच्चे से कहता हूँ कि मैंने गलती की है
जिस रिक्सेवाली के रिक्से पर बैठकर जाता हूँ बस स्टैंड तक
उससे भी कहता हूँ कि मैंने एक गलती की है

पत्नी समझाती है
कहती है तुम होते जा रहे हो डरपोक और दब्बू
तुम्हारे अंदर का पुरुष मरता जा रहा है
बच्चा हँसता है - पूछता है - गलती क्या होती है
रिक्सेवाला कहता है - बड़े-बड़े लोग कर रहे हैं गलतियाँ
कर के गलतियाँ खुश हैं वे
एक आप ही हैं जो परेशान हुए जा रहे हैं

मैं सोचता हूँ कि मैं भी गलती करूं
और परेशान न होऊँ जैसे दफ्तर का बिप्लब दा
जैसे वह किरानी
जैसे मेरे दफ्तर में मेरा बॉस बनकर बैठा वह काला आदमी
लेकिन मैं ऐसा कर रहीं पाता
हैरान-परेशान एक दिन
मैं हुगली नदी के सामने खड़ा हो जाता हूं
कहता हूँ नदी से कि मैंने गलती की है
क्षमा कर दिया जाय मुझे

और देखता हूँ कि नदी का रंग
स्याह हो रहा है डर की तरह
एक जोर की आँधी आती है और जल का सतह उछलने लगता है
आसमान से ओले गिरते हैं
और मैं चुपचाप देर तक खड़ा रहता हूँ हुगली के किनारे...।

यह कविता नहीं
(प्रेमचंद के लिए एक बेहतरीन प्रतिक्रिया)

मैं शामिल नहीं होना चाहता तुम्हारी जयंती में प्रेमचंद
होरी के बारे में
गोबर के बारे में
निर्मला या मेहता के बारे में कोई भाषण नहीं देना चाहता

तुम कम्युनिस्ट थे या दक्षिणपंथी
तुम लाला थे या ब्राह्मण
दलितों के विरोध में थे या उसके पक्ष में
तुमने कितना लिखा किसानों पर
जमीदारों पर कितना लिखा
कितना लिखा स्त्रियों की दशा पर
दलितों के हाल पर कितनी कलम चलाई
इन सवालों पर फिलहाल मेरे लिए कोई मतलब नहीं प्रेमचंद

मेरा सवाल यह है कि जिस आजादी के लिए
लड़ते रहे तुम उम्र भर
वह इस देश को एक सौ साल के बाद भी नसीब नहीं
अभी तो आज ही किसी कंपनी के गेट पर
मिली है लाश एक किसान की पेड़ पर झूलती
एक स्त्री की अस्मत अभी-अभी लुटी है
एक दलित का घर अभी-अभी जलाया है ठाकुरों ने

अभी-अभी एक ब्राह्मण मरा है भूख से
इसी देश के एक गांव में
एक ठाकुर के लड़के ने बेरोजगारी से तंग आकर
अंतत: खा लिया सल्फास

तुम जिनके खिलाफ लड़ते हुए मर गए जलोदर से
वे रूप बदलकर और भी हो गये हैं भयानक
जिस पत्रिका की सबसे ज्यादा चिंता थी
कि वह आगे कैसे निकलेगी
उसे देख कर तुम क्या सोचते प्रेमचंद मेरा सवाल यह है

तुम्हारी जयंती में न जाकर
मैं जाना चाहता हूँ किसी सकीना के घर
मैं खरीदना चाहता हूं
ईदगाह से एक चिमटा इस देश की सबसे बूढ़ी औरत के लिए

आज के दिन मैं जाना चाहता हूं
इस देश के संसद भवन में
और चिल्लाना चाहता हूं लोकतंत्र लोकतंत्र
आजादी और आजादी
और अपनी आवाज को बारूद में बदलते हुए
देखना चाहता हूं प्रेमचंद...

बनारस में ठंड
वह दशाश्वमेघ घाट की शाम थी
नदी ने धुएं की चादर ओढ़ रखी थी
मणिकर्णिका घाट से लाशों के जलने की गंध आ रही थी
कोई एक सुबक रहा था बहुत धीमें
कोई एक गा रहा था - टूटती थीं स्वर लहरियाँ
मैंने एक बूढ़े के हाथ से ले ली थी चिलम
सांस भर खींच रहा था धुँआ
बाहर धुँध की लपटें थीं
मेरे फेफड़ों में भी धुँध पहुँच रही थी अबाध

वह दिसंबर महीने के आखिरी दिनों की शाम थी
और तुम थीं
हम एक दूसरे को गरम ऊन की तरह बुन रहे थे
फिलहाल शीतलहरी से बचने का
कोई तरीका हमारी समझ में नहीं था
एक चट्टान खिसक रहा था
उस पर गड़े त्रिसूल की नोंक हल्की टेढ़ी हो रही थी
हिल रहा था बनारस धीमें-धीमें

उस ठंडे समय में भी प्रेम था
हमारी बेरोजगारी के सवाल थे
हमारी अजनबीयत के किस्से उड़-उड़ जा रहे थे हवा में

हम आश्वस्त नहीं थे कि हम प्रेम के कारण परेशान थे
या बेरोजगारी के कारण
कि अपनी अजनबीयत के कारण
हमारी बातों में एक लड़की का जिक्र जरूर था
जिसे हम दोनों प्रेम करते थे बेइंतहा
एक देश का भी जिक्र था वह भी जरूर
जिसे हम दोनों जितना प्रेम करते थे उतना ही नफरत भी

प्रेम और नफरत की अलग-अलग परिभाषाएँ थीं
जिसे धुँध में हम बार-बार पकडऩे की कोशिश करते
और असफल होते
पीछे छूट जाते थे

तुम बहुत सुंदर लड़की नहीं थी
न मैं कोई सुंदर लड़का था
लेकिन उस शाम हमारे बीच का वह ठिठुरता समय
सचमुच बहुत सुंदर था...।

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