बाबुषा कोहली की कविताएं

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    अक्टूबर 2015
श्रेणी बाबुषा कोहली की कविताएं
संस्करण अक्टूबर 2015
लेखक का नाम बाबुषा कोहली





नया कवि





सरहद प्याली अनहद चुस्की
उस्ताद नुसरत फ़तेह अली खाँ के लिए

हालाँकि
बहुत सारे लोग मुझ से कहीं ज़्यादा गोरे हैं
कुछ मुझ से कम भी
एक-सा उनकी मेरी परछाई का रंग
हम से ज़्यादा मनुष्यता है हमारी परछाइयों में

नक्शे बिछे पड़े हमारी आँखों में
स्वप्न नहीं जानते सड़कें-सीमाएँ
हम से कहीं ज़्यादा प्रेम है हमारे स्वप्न में

किसी नन्हे स्वप्न की विराट सम्भावना हम
हो सकते थे अपनी परछाइयों का स्वप्न शायद

हर पिछली साँस लुप्त हो रही किसी लोकगीत की तरह
जाने किसके कंठ में शरण पाती होगी गुम ददरिया
किस ढोलक पर थपकती होगी
याददाश्त में पड़ी मिलती है कोई थाप धुंधली
मानो गुच्छे से गिर गयी कोई चाभी
गायब चीज़ों का ठौर-ठिकाना न ढूँढना
एक अलग क़िस्म की सधुक्कड़ी है
किसी सनकी राजा का यज्ञ है जीवन
स्वाहा दिन-रातों का कोई हिसाब नहीं

हमसे कहीं ज़्यादा है हमारा 'होना'
हमारी गुमशुदगी में

एक ताला है जिस पर लगती है केवल वही गुमी चाभी

स्वप्न में प्रेम
बाक़ी दूसरे दिनों से ज़रा ज़्यादा ही होती है हरारत उस सुबह की
रॉकेट-सा आसमान चढ़ जाता तापमान

यकायक भाप के जंगल में तब्दील होता
बाथरूम का आईना
कुल जमा तीन अक्षर भरते कुलाँचे चारों दिशाओं में
दिशाओं के चार से दस होते देर नहीं लगती

सारी दिशाएँ प्रेम का बहुवचन हैं

जब तक शिकारी तानता धनुष
ओझल हो जाता मायावी हिरण आँखों की चौंध में

स्वप्न नशे में धुत्त अफ़ीमची नहीं
किसी फ़रार मुजरिम की खोज में जागता सिपाही है

और तुम!

मेरी उनींदी काया में छुप के रहते हो ऐसे
कि जैसे 'ऑनेस्टी' में बेईमानी से 'एच' रहता है

सैनिक की प्रेमिका

एक
जब वो तंज़ करती है

कैलेंडर बदलने से मौसम नहीं बदल जाते
कब से मेरी आँखों में ठहरी जुलाई
मूसलाधार बरसती हुयी यादें
छींकता मन
याद ही रूमाल
स्थायी होती हैं कुछ हलचलें
कि जैसे निरंतर चलता श्वास

तुम्हारे काँधों के गझिन वन में हिरन होते दु:ख मेरे
हलक सूखता और सामने कुआँ
मैं बाएँ मुड़ जाती हूँ

सोचती हूँ अपनी आँखों पर बाँध लूँ मोटी दूरियाँ
कि तुम इन में झाँक न सको
कहीं युद्ध के ऐन बीचोंबीच अचानक
तुम भरे आसमान फहरा न बैठो मुस्कुराहटों का परचम
कहीं अपनी सिगरेट न साझा कर लो दुश्मन के साथ
गोलियों की आवाज़ के बीच गुनगुना भी सकते हो वो गीत
जिसे घायल उँगलियों ने लिखा था तुम्हारी पीठ पर

सैनिक!
तुम हर रोज़ कारतूस में रोटी डूबो कर खाना
ताकि भूल सको एक विषैले चुम्बन का स्वाद
जिसने तुम्हें मार दिया था

मत रहो मेरे भीतर
कि मैं जो प्रेम का धड़कता हुआ बंकर हूँ
उन बदमिजाज़ पड़ोसियों से भी बड़ा ख़तरा हूँ तुम्हारा
जाओ सिकन्दर!
कि रक्त सनी मिट्टी तुम्हारी बाट जोहती है
मुझे भी देर हो रही 
चूल्हे पर भिंडी चढ़ा कर आई थी
जल न जाए कहीं

चलती हूँ
हालाँकि बहुत जल्दी सात बज गए आज

दो
वो डरती है Cntrl Z से
हालाँकि
तुम भी अंगुल-अंगुल सहेजना चाहते
वक्त की तिजोरी में रखे ज़ेवर सारे
जाने कहाँ गुम हुयी मेरी अँगूठी
खिड़की के बाहर सिगरेट की राख झाड़ते तुम
गड्डमड्ड दर्ज करते रपट जीवन की

रास्ता भूल जाते स्वप्न
मंज़िल से एक मोड़ पहले ही
भटकते
अटकते
पानी वाले सारे मोती
बाँध रखना था Cnrtl S की गठरी में
ग़लत मोड़ पर ठहरते तुम Cntrl Z अपनाते

एक-एक कर सारे ज़ेवर गुमते जाते

तीन
जब वो फ़िक्र करती है
आधे घंटे से दरवाज़े पर खड़ी पड़ोसियों के गमले देख रही हूँ
एक भी पौधे का नाम नहीं मालूम
तुम अब तक आवाज़ नहीं देते
हालाँकि कमरे में धुआँ बढ़ रहा होगा
खिड़कियों के बाहर झाड़ी जा रही होगी राख

कई तरह के अदृश्य कंट्रोल होते हैं Cntrl Z के पार
जैसे जीवन के उस पार जीवन

शायद तुम जान भी न सको कभी
कि मैं भी लगातार एक युद्ध लड़ती हूँ खुद से
तुम्हें जीत लेने के लिए नहीं
लेकिन तुम्हें जिता देने के लिए, जानाँ!

सोचती हूँ
क्या फ़ायदा अब लौटने का
कि भिन्डी तो यूँ भी जल ही चुकी होगी अब तक

अच्छा! पहले तुम मुँह-हाथ धो लो
मैं तब तक चाय बनाती हूँ

शाम ढल गयी और अभी अँगूठी भी ढूँढना है

चार
बची रहे मनुष्यता
मनुष्यों ने रचीं इतनी किताबें
और किताबों में ही रह गयी मनुष्यता

तुम वनमानुष भी हो
तो कोई हर्ज नहीं
जियो खुल के आदिम जंगलों में
जमा लो लय नर्तकी हवा के साथ
अपनी भाषा में खाऊँ-खाऊँ करो
कह दो कल-कल झरने से मन की बात

तुम
किताबों में दब कर मरे मच्छरों से दूर
पेड़ों की छाल पर लिखो गीत

हवाओं के छम-छम घुँघरू बजेंगे
तुम्हारे गीतों के साथ दोनों ध्रुवों के पार
जल अपनी निर्मलता से करेगा तिलक तुम्हारा
तुम होओगे मनुष्यता के दुलारे राजकुमार

अमानुष हो?
तब भी बची रहे इतनी नैतिकता
कि दे सको बेझिझक
कविता की नागरिकता से त्याग-पत्र

पहले जाओ गुरूकुल
आँखों में रखी नमक की डलियों का
मत करो हिसाब दर्ज हर बार

भीगो प्रेम के सावन में
जागो विरह के अगहन में
मत रखो याद कोई बात लिखने की हद तक
एक स्लेट दो किसी बच्चे को
और कुछ अक्षर
मत बनाओ उसका मायूस चेहरा अपनी स्लेट पर
दिन भर कड़ी धूप में काटो लकड़ी
रख दो अपने हिस्से की रोटी साथी की थाली पर चुपके

कुछ दिनों को अपना नाम भूल जाओ
पता भूल जाओ

मत खटखटाओ कविता का द्वारा बार-बार
उदार होती है सच्ची कविता

जैसे तुम ढूँढ़ते फिरते हो फिर साधते कविता
कविता भी ढूँढती तुम में मनुष्यता

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