दौड़

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    जून-जुलाई 2015
श्रेणी दौड़
संस्करण जून-जुलाई 2015
लेखक का नाम जयश्री रॉय





कहानी


आई को पुकारते हुए रघु जानता था, वह कहाँ मिलेगी- हमेशा की तरह पूरब वाले खेत की आल पर! समझा कर हार गया कि यह अब अपना खेत नहीं रहा मगर वह सुने तब ना! उस ज़मीन को हथेली भर टुकडे में उसकी ज़िंदगी के पच्चीस साल द$फ्न हैं- आषाढ के अनवरत झड़ते दिन, शीत की कनकनाती रातें, ग्रीष्म की सीझी हुईं सुबह-शाम... यही गढ़ी गई है वह, उसकी आत्मा- जन्म भर के लिये! अब जायेगी भी तो कहाँ! बाबा कहते थे, माटी का मोह अपने शरीर के मोह से ज्यादा प्रचंड होता है बेटा, देह छूट जाये मगर किसान की जमीन नहीं! बाबा की बात तब समझ में नहीं आई थी...
आई के कंधे पकड़ कर वह हिलाता है तो आई जागती है जैसे, झेंपती हुई-सी उठ खड़ी होती है- देख ना रघु! कनाल के पार वाले नीलम के नीचे कितनी कैरिया गिरी हैं! कोई उठानेवाला नहीं!
''गिरने दो, हमें क्या! जिनकी ज़मीन-बाडी है, वह सम्हाले... बड़ी भूख लगी है, तू घर चल।'' रघु आई को खींचते हुये चल पड़ता है। सांझ की आखिरी रोशनी कनाल पर चमक रही है। हवा में तिर-तिर कांपता पानी स्याह लाल है। पश्चिम की ओर, जहाँ क्षितिज स्लेटी हो गया है, उड़ते हुये पंछी छोटे-छोटे बिंदुओं की तरह दिख रहे थे, शिवाजी राव, राघोवा चव्हाण और महादेव गवंडी के खेत पार कर वे राष्ट्रीय राजमार्ग पर चढ़ आये थे। यहां से सड़क दूर तक दिखती है, अंत में आकाश में समाती हुई-सी, सड़क की दूसरी तरफ उनका गांव था, सत्तर-अस्सी लोगों का छोटा-सा गाँव-नांदीपुरा! इस समय सुलगते हुये चूल्हों के धुयें से लगभग अदृश्य। सामने राजमार्ग के आखिरी छोर से दौड़ कर आते हुये वाहनों की अनगिनत रोशनी के धब्बे चमक कर तेज़ी से फैलते हुये आंखें चौंधिया रहे थे। जब सामने से कोई वाहन गुज़रता, एक तेज़ सनसनाहट के साथ दोनों के कपड़े अस्त-व्यस्त हो जाते। किसी तरह माथे का पल्लू सम्हाले अपने बेटे का हाथ पकड़ कर सड़क पार करते हुये आई ने जाने कैसी आवाज़ में कहा था- खेती के मौसम में ऐसे हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रहा जाता रघुआ! बचपन की आदत है... उनके बाकी के शब्द बगल से गुजरती किसी ट्रक के शोर में खो गये थे। ''जिस जमीन में हाड़ गलाये, प्राण रोपे...'' आई फिर शुरु होने लगी थी मगर रघु ने सुनकर भी नहीं सुना था। अब वह इन सब बातों से आगे निकल जाना चाहता था। क्या रखा है इनमें? कुछ भी तो नहीं! गुज़ार लिये साल-महीने, ज़िंदगी का एक बहुत बड़ा हिस्सा। सब फिजूल गया।
गांव की कच्ची सड़क धूल से अंटी पड़ी है। मवेशी अब भी घर लौटते हुये सोसियाते हुये आसपास से गुज़र रहे हैं। हवा में ताज़े गोबर और सूखी कूटी की गन्ध है। दूर तुकाराम के कुयें के पास दो बैल दोपहर से लड़ रहे हैं। अब भी एक-दूसरे से सींग भिड़ाये खड़े हैं। उन्हें अलग करने की कोशिश करके गांव वाले हार गये। ''पूरी दुनिया का यही हाल है... जिसे देखो बस लड़े जा रहे हैं...'' आई धीरे-धीरे बड़बड़ाती है। उनकी आवाज़ में खंडहर गूँजता है। जाने उनके भीतर का भराव कहाँ गया! बाबा के बाद इस तरह खोखली हो गई... जाने वाला कभी अकेला कहाँ जाता है!
घर लौट कर आई ने हाथ-पैर धो कर तुलसी चौरे पर दिया जलाया था। तुलसी के सामने झुकी आई का दीये की लौ में चमकता सूना माथा रघु को दहशत से भर देता है। वह उसकी ओर देखने से बचता है। बचपन से जिस माथे पर हमेशा सिक्के भर का टीका देखा है, मांग भर सिंदूर देखा है, वहाँ बंजर खेत-सी वीरानी... अब आई आई नहीं लगती, कोई और लगती है! चूना, रंग झड़ा हुआ कोई भुतैला घर!
मंदा और भाग्या आंगन के एक कोने में चटाई बिछा कर लालटेन की रोशनी में पढ़ रही थीं। नीलांगी गाय के लिये नाद में पानी भर रही थी। बगल की झोंपड़ी में विनायक धोंड एकतारा बजा कर संत ज्ञानेश्वर के भजन गा रहा था। हर रोज़ दिन भर खेत में काम करने के बाद रात को वह इसी तरह अपने आंगन में बैठ कर भजन गा रहा था। हर रोज़ दिन भर खेत में काम करने के बाद रात को वह इसी तरह अपने आंगन में बैठकर भजन गाता था। रघु महसूस करता है, उसकी आवाज़ में कितना सुकून और यकीन है! जाने वह यह सुकून अपने भीतर कहाँ से लाता है! कई बार उसके भजन सुनते हुये रघु को नींद आ जाती थी।
आई ने गरम पानी में नाशनी गूंथ कर बड़ी परात जैसे तवे पर भाखरी बनायी थी। लहसन, नारियल की सूखी चटनी और प्याज के साथ भाखरी खाते हुये रघु चुप रहा था। आई भी। आज कल वह बात करते हुए कतराता है, आई समझती है। मगर वह क्या करे! इतना सारा कुछ इकट्ठा हो गया है भीतर- राख से भरे हुये चूल्हे की तरह! कुंद हो कर रह गई है। सांस नहीं ली जाती। ये निरंतर कहना खुद को हल्का करना है। वह खुद भी कहाँ समझती है! सबकी उसे भी लगता है, वह सठिया रही है। गरीबी में रोक का प्रकोप उम्र गिन कर नहीं आता।
उसे जो उम्मीदें हैं अपने इकलौते बेटे से ही है। बेटियाँ समझदार हैं मगर अभी छोटी हैं। बड़ी बेटी नीलांगी तेरह बरस की है, दूसरी मंदा नौ और छोटी वाली छह बरस की। नीलांगी पांचवी तक पढ़ कर घर में उसका हाथ बंटाती है और मंदा, भाग्या सरकारी बालबाड़ी में जाती है। बालबाड़ी की बहन जी कहती हैं बेटी को पढ़ाओ, तो पढ़ा रही है। ना पढ़े तो करें भी क्या! तीन साल हो गये पाँव के नीचे जमीन नहीं रही। होती तो ये छोटे-छोटे हाथ भी कुछ काम आ जाते। बेकार बैठने से अच्छा है पट्टी पर खल्ली घीसे। दिमाग में दो शब्द के साथ पेट में अन्न के दो दाने बी पड़े। वहाँ दोपहर का खाना मिलता है! सड़ा-गला खा कर महीने-दो महीने में बच्चे कई बार बीमार पड़ते हैं, फिर भी, यह बहुत बड़ा आसरा है...
आई रघु से एक और भाखरी के लिये पूछती है मगर वह मना कर देता है। हमेशा की तरह कहता है कि दोस्त के घर में शीरा खा कर आया है। आई जानती है, रघु झूठ बोल रहा है। उसके लिये आखिरी बची हुई भाखिरी के वह दो टुकड़े नहीं करना चाहता... बचपन में रघु के कई बार झूठ बोलने पर उसने उसे पीटा था, आज बस छिप कर अपने आँसू पोंछती है- कितना समझदार हो गया है वह! भीगी आंखों से वह अपने बेटे को एक साथ दो गिलास पानी पीते हुए देखती है। मंदा अपनी भाखरी से एक टुकड़ा कल सुबह के लिये बचा कर रखती है। शाला जाते हुये कुट्टी चाय के साथ खायेगी। भाग्या अपनी पूरी भाखरी खा जाती है। आधी भाखरी पर वह पूरी रात गुज़ार नहीं पाती।
रात की हवा भी अब गर्म होने लगी है। पलास के फूलों से जंगल सुलग उठा है। घाटियों से उतर कर पानी पीने के लिये मोर छोटे बांध तक आने लगे हैं। सुबह-शाम उनके केंका से वन-प्रांतर गूंज रहा है। कल खेत की मेड़ दो साही अपने कांटे तान कर घूमते फिर रहे थे, ढेला मारा तो झम्मक-झम्मक भागे। आज कल हाईवे पर कछुआ और खरगोश भी सड़क पार करते हुए मारे जा रहे हैं। मंदा, भाग्या बेली या चमेली के गजरे ले कर अक्सर वहाँ बेचने के लिये खड़ी रहती हैं। उस दिन एक घायल गिलहरी उठा लाई तीं घर में
रघु ने अपनी चटाई आंगन में सहजन के पेड़ के नीचे लगा ली थी। तीनों बहनें और आई रसोई के बरामदे में एक साथ सोई थी। रसोई की दीवार पर कतार से सूखते कंडे काले टीके-से चमक रहे थे। गर्मी में कोई समस्या नहीं मगर बारिश में बहुत तकलीफ होती है। छत हर जगह से रिसती है, आंगन, गली कीचड़ से भर जाता है। सामने वाली सदर दरवा•ों की दीवार अगली बारिश झेल नहीं पायेगी। रघु सोचता है और सोचता है। उसेक पास किसी बात का हल नहीं। बस ज़रुरतों का पुलिंदा है और सर दर्द है। आई उससे कभी कुछ कहती नहीं मगर जाने किन नज़रों से देखती है। उसे वे आंखें सहती नहीं। कहीं से बहुत छोटा कर देती हैं। वह उनसे दूर रहने की कोशिश करता है।
कभी-कभी उसे चिढ़ होती है। क्यों आई उससे इतनी उम्मीद करती है? किस काबिल है वह! उन्नीस साल उमर है उसकी। बी.ए. प्रथम वर्ष में पढ़ता है। बाबा की आक्समिक मौत ने उसे रातों रात बदल दिया है। दुनिया के साथ-साथ आई भी उसकी ओर देखने लगी है। उसकी कातर आंखें, दयनीय हाव-भाव... बाबा के बाद वह अपना सारा आत्मविश्वास खो चुकी है। काश कि वह समझ पाती, उसका बेटा अब भी इतना बड़ा नहीं हुआ है कि इस दुनिया का सामना कर सके। उसे भी डर लगता है, अब भी संकट में उसे आई की ज़रुरत महसूस होती है... सोचते हुए रघु चुपचाप रोता रहा था। आज कल वह अक्सर रोता है। खास कर रातों को। रोने के लिए उसे रात होने का इंतज़ार करना पड़ता है। दिन को वह औरों को चुप कराता है। वह घर का अकेला मर्द है। उसे रोना शोभा नहीं देता। कर्ज के बोझ से घबरा कर बाबा ने इस तरह से आत्महत्या कर उसे और पूरे परिवार को किस मुसीबत में डाल दिया!
दो साल पहले आया सूखा उनकी ज़मीन ही नहीं, ज़िंदगी को हमेशा के लिये बंजर कर गया था। बाबा ने सूरजमुखी की खेती के लिये बैंक से कर्ज़ लिया था। पूरे परिवार ने मिला कर खूब मेहनत की थी। उस साल अच्छी बारिश होने की बात थी। खेत तैयार करके सब आसमान की तरफ देखते रहे थे मगर अचानक जाने क्या हुआ था- जब फूल के पौधों को सबसे ज़्यादा पानी की ज़रुरत थी, सारे बादल आसमान से गायब हो गये थे। सुनहरे फूलों से लदने वाली डालियाँ धीरे-धीरे सूख कर काली हो गई थीं, झड़ कर विदर्भ की काली मिट्टी में मिल गई थीं... उन दिनों बाबा सुबह से शाम तक क्षितिज की ओर टकटकी लगाये खेत की मेड़ पर बैठे रहते थे। बड़ी मुश्किल से उन्हें रात गिरते-गिरते घर लाया जाता था। कभी-कभी बीच रात को उठ कर आंगन में निकल कर आसमान की ओर देखने लगते थे या कान पर हाथ रख कर पूछने लगते- सुना क्या रघु की आई, बादल गरज रहे हैं... आज पानी बरसेगा...
ज़मीन फट कर टुकड़े-टुकड़े हो गई, औंधे पड़े चूल्हे की तरह से आकाश में गर्म राख झड़ता रहा, हरियाली सूख कर पेड़ों के कंकाल निकल आये। बाबा ने अब रात दिन बड़बडऩा शुरु कर दिया- अब क्या होगा रघु की आई? हम तो बर्बाद हो जायेंगे... आई बिना कुछ बोले अपने खाँसते हुये पति की पीठ सहलाती रहती। रघु सर झुकाये दालान के एक कोने में बैठा रहता। तीनों बहनें एक-दूसरे से लगी दूसरे कोने में। बीच में पकती भूख, शंका, विवशता... उन दिनों रात-दिन खूब लम्बे हो गये थे।
जिन दिन बैंक से ज़मीन, घर जब्त कर लिये जाने का नोटिस आया, बाबा रघु से नोटिस पढ़वा कर देर तक बिना कुछ बोले बैठे रहे थे। उस रात बाबा जाने कब घर से निकल कर खेत पर चले गये थे। सुबह उनकी लाश खेत के बीचो-बीच पड़ी मिली थी- ज़हर से नीली! उन्होंने खेत में इस्तेमाल की जाने वाली पेस्टीसाइट खा ली थी शायद। उस दिन खूब पानी बरसा था। अचानक काले-काले बादलों से आकाश भर गया था और तेज़ हवा और गरज के साथ झमाझम पानी बरसा था। जब तक पुलिस पंचनामा करके ना ले गई थी, उस दिन काली मिट्टी के कीचड़ से लिथड़ी बाबा की लाश शाम तक खेत में पड़ी रही थी। उस समय भी उनकी आंखें आकाश को ही तक रही थीं...
आई चाहती थी, आकाश को नोंच कर उतार ले, बादलों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले, मगर कुछ नहीं कर पाई थी। अपनी छाती मसलती बैठी रह गई थी। रो भी नहीं पाई थी। उसकी आंख के आंसू भी सूख गये थे। आज भी कभी-कभी कहती है- मेरा तेरे बाबा के लिये रोना रह गया है रघुआ! ऊपर जाऊंगी तो वो पूछेंगे, रघु की आई! तेरे पास भी मेरे लिये दो बूँद पानी नहीं था!
बाबा के मरने के बाद दो दिन खूब हो-हल्ला हुआ था। स्थानीय टी वी चैनल वाले, अखबार वाले आये थे। आई और पूरे परिवार को आंगन में बाबा के फोटो के साथ बैठा कर तस्वीर खींची थी। आई के रोने पर टी वी के एक संवाददाता ने अपने कैमरा मैन को एक विशिष्ट एंगल से आई की तस्वीर लेने के लिए कहा था। स्थानीय विधायक और नेता, विपक्ष भी आये थे। चारों तरफ से सहानुभूति, दया, करुणा की बारिश-सी होने लगी थी। थोड़े समय के लिये तो रघु को यह सब अच्छा लगने लगा था। लगा था वे अचानक विशिष्ट हो गये हैं। इंटरव्यू आदि देने के चक्कर में बाबा के लिये शोक मनाना भी भूल गया था। अब वह साफ-धुले कपड़े में मीडिया वालों के लिये तैयार रहता। बाबा की एक तस्वीर को अच्छे फ्रेम में बंधवा लिया था। कुछ दिन गांव में उत्सव का-सा माहौल हो गया था। अखबार-टीवी वाले आते, उनकी बड़ी-बड़ी गाडिय़ाँ, कैमरे, फर्राटे से अंग्रेज़ी बोलते पत्रकार, महिला पत्रकारों की काजल लिसरी आँखें, फेडेड जींस, खादी की कुर्ती... एक बार उसके कपड़े, बने हुये बाल देख कर एक पत्रकार ने इंटरव्यु से पहले कहा था- नहीं! यह नहीं चलेगा! अपना हुलिया बिगाडो, अपने बाबा के कपड़े पहनो... यु डोंट रीप्रेजेंट द पोवर्टी स्ट्रिकेन फेस आफ रूरल इंडिया... वह सकपका गया था। इतने सारे लोग, लाइट के सामने वह इतना 'इमोशन' कहाँ से लाता जिसके लिये टीवी एंकर बार-बार चिल्ला रही थी! आज जब कोई भीड़ नहीं, कैमरा नहीं, वह अकेला रह गया है अपने दुख के साथ, खूब रोना आता है। दुख को उसका अंधेरा कोना चाहिए, मरघट का एकांत चाहिये...।
उसका पढ़ाई में मन नहीं लगता मगर पढ़ता है। रोज पांच किलोमीटर साइकिल चल कर कालेज जाता-आता है, मोटी किताबों में सर खपाता है। मास्टरजी ठीक ही कहते थे, अगर कुछ बेहतर ना कर सको तो खाली पास क्लास में बी.ए., एम.ए. करके कोई फायदा नहीं। ये थर्ड क्लास की डिग्रियां तुम्हारे गले का ढोल बन जायेंगी। इसलिये वह मन लगा कर पढ़ता है। उसे अपने ही भविष्य के बारे में नहीं, अपने पूरे परिवार के बारे में सोचना है- आई, तीनों बहने.... कितनी जल्दी बड़ी हो रही हैं! नीलांगी की तो शादी की उम्र भी हो चली... अगले तीन महीने में 14 की हो जायेगी! आई हर दूसरे दिन उसे याद दिलाती है। वह सुना कर आतंकित होता रहता है। जिस घर की हर कोठरी सूनी हो और रसोई के डिब्बे-बर्तन खाली, वहाँ शादी-उत्सव के प्रसंग भी शोक की बातें लगते हैं।
बाबा के बाद उसके जीवन की छोटी-छोटी खुशियाँ एक-एक कर चली गयी हैं। बैशाख का मेला, गणेश चतुर्थी... उनके रहते कुछ था ना था, निश्चिंतता थी! तब खुला आकाश भी छत लगता था। अब तो छत भी आश्रय नहीं देती... नहर में नहाने में, मछली पकडऩे में, खेत में बिना बैट-बॉल के क्रिकेट खेलने में... उन दिनों लगता था, हर चाहे को पाया जा सकता है। उर्मि को भी! उर्मि भोंसले!- गांव के सरपंच की एकलौती बेटी। पूनम के चाँद-सी गोरी, सुंदर! दोस्त मज़ाक करते थे- सरपंच की बेटी, ऊपर से जात की मराठा! और तू... मगर वह उनकी बातों से निराश नहीं होता- आजकल जात-पात कोई मायने नहीं रखता। फिर उर्मि ने मुझे खुद कहा था, वह इन बातों में यकीन नहीं करती।
दोनों गांव के दूसरे बच्चों के साथ सालों एक साथ स्कूल जाते थे। उन धूल भरी पगडंडियों की बहुत सारी खूबसूरत यादें इकट्ठी हैं उसके पास- बाँध के पानी से खेलना, ईमली-कैरी तोडऩा, खेतों से भुट्टे चुराना... उन दिनों वह कई बार चोरी-चोरी उर्मि को निहारता था। उर्मि जानती थी मगर अनजान बनी रहती थी। एक दिन उसने किसी बात पर उर्मि से कहा था- मैं छोटी जात का हूँ, तु जानती है ना? जवाब में उर्मि ने आँखों में आँसू भरकर कहा था- मुझे इससे कोई मतलब नहीं! मेरे लिये तू सिर्फ रघु है... उर्मि की उसी बात की पूंजी लिये वह आज भी बैठा है। जाने उसने उसमें कैसा आश्वासन महसूस किया था...
अब रघु के बहुत सारे दोस्त नहीं। दो-चार ही रह गये हैं। बबलू उनमें से एक है। कभी-कभी वह उसके घर चला जाता है। उसकी माली हालत ठीक है। बाप सरकारी नौकरी करता है। एक दिन उसके मामा ने रघु से कहा था वह महाराष्ट्र पुलिस में हवलदार पद के लिये आवेदन पत्र दे दे। वैकेंसी निकली है। वे खुद पुलिस में थे। बबलू ने उसे नेट पर महाराष्ट्र पुलिस में नौकरी का विज्ञापन दिखाया था- नागपुर, चन्द्रपुर, पुने में हज़ार पद, धुले में एक सौ बीस, अमरावती, जालना -सब मिलाकर छह हज़ार वैकेंसियां! पच्चीस मई तक आवेदन देना था। उम्र सीमा अट्ठारह से पच्चीस वर्ष तक थी। रघु अभी उन्नीस का ही था। मामाजी ने कहा था रघु को बड़े आराम से नौकरी मिल सकती है। फिर ओ बी सी होने का भी उसे फायदा मिलेगा। आन लाईन आवेदन पत्र उपलब्ध था। बबलू ने पच्चीस रुपये महाराष्ट्र ई सेवा सेंटर या शायद इंटरनेट बैंकिंग के ज़रिये चुका कर उससे आवेदन पत्र भरवाया था। आवेदन पत्र जमा करके ही रघु लो लगा था जैसे उसे नौकरी मिल गई है। उस दिन वह उड़़ते हुये अपने घर पहुंचा था। आई से दुनिया जहान की बातें की थी और सारी रात दालान पर लेट कर ढेर सारे सपने देखे थे। सपनों की उम्मीदों के पंख लगते ही वह सातों आसमान छू आये थे। नौकरी लगते ही वह बहन की शादी कर पायेगा, घर की मरम्मत और आई का ईलाज भी। हवलदार बनने पर उसे रोबाला दिखना चाहिये। आज ही से वह अपनी मूंछे बढ़ानी शुरु कर देगा। हवलदार... हवलदार साहब! सोचते हुये उसके मन में अजीब-सी गुदगुदी होती है। कभी अपनी वर्दी में वह उर्मि से मिलने जायेगा। सोचते हुये वह कल्पना करने की कोशिश करता है कि उसे वर्दी में देख उर्मि के चेहरे पर कैसे भाव आयेंगे। एकदम सकते में आ जायेगी वह तो! उस रात नींद में भी वह मुस्कराता रहा था।
कुछ ही दिनों में उसके आवेदन पत्र स्वीकृत होने की सूचना आई थी। साथ ही उसे एक क्रमांक संख्या भेजा गया था। पुलिस विभाग लिखित परीक्षा और इंटरव्यु के दिन की घोषणा प्रमुख समाचार पत्रों में जल्द ही करने वाला था। वह रोज़ बबलू के मामा के पास जा कर इस नौकरी के बाबद पूछताछ कर आता था। उन्होंने बताया ता लिखित परीक्षा राज्य के विभिन्न सेंटरों में ली जायेगी। 75 अंक के पेपर होंगे। पहला रीज़निंग और लॉजिक, दूसरा सामान्य विज्ञान तथा करेंट अफेयर्स, तीसरा इतिहास, भूगोल, संस्कृति और कला। ओ.बी.सी. उम्मीदवारों के लिये परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिये 40 प्रतिशत अंक प्राप्त करना पर्याप्त था।
यह थोड़े-से दिन उससे काटे नहीं कट रहे थे। मामाजी ने कहा था, शारीरिक परीक्षायें बहुत कठिन होती हैं। उसे व्यायाम बगैरह करना चाहिए। पौष्टिक आहार लेना चाहिये। सुन कर आई ने घर की अकेली बकरी का सारा दूध उसे पिलाना शुरु कर दिया था। साथ में नाशनी का दूध भी। अब वह सुबह उठते ही मैदानों में दौड़ लगाता। मामाजी ने ही बताया था, पांच किलोमीटर की दौड़ लगानी है वहाँ। सूरज के गर्म होते-होते वह घर लौट आता और नाशनी की रोटी, मूंगफली की चटनी या लहसून की चटनी के साथ एक गिलास बकरी का गर्म दूध पी जाता। सारा दिन किताबों में भी डूबा रहता। जाने इंटरव्यू में क्या-क्या पूछते हैं। तैयारी पूरी होनी चाहिये। उसका सामान्य ज्ञान बहुत कमज़ोर है। उन्नीस साल तक तो इस इलाके के 5-6 किलोमीटर की परिधि में ही चक्कर लगाता रहा है। इसके बाहर की दुनिया उसके लिये किस्से-कहानियों जैसी ही है! $िफल्मों और टी वी में दिखायी जाने वाली ज़िन्दगियां जाने किस ग्रह-नक्षत्र की होती है...
वह हर समय या तो आने वाले अच्छे दिनों के दिवा स्वप्न में डूबा रहता या किताबों में सर डाले बैठा रहता। आई के बहुत बोलने पर किसी तरह उठ कर नहा-खा लेता। जब लिखित परीक्षा की तिथि की घोषणा हुई, वह अपने पास के सेंटर में जा कर परीक्षा दे आया था। मामाजी भी उसके साथ गये थे। उसके सारे पेपर बहुत अच्छे गये थे और उसे पूरा विश्वास था कि वह अच्छे अंकों से पास होगा। इसके बाद के दिन बहुत बेचैनी से कटे थे। उसे इंटरव्यु के लिये बुलावे का इंतज़ार था जो आखिर एक दिन आ ही गया। 15 दिन बाद इंटरव्यु और शारीरिक परीक्षण के लिये उसे मुम्बई जाना था। कॉल लेटर ले कर वह यूं नाचता फिरा था जैसे उसे नौकरी ही मिल गई हो। जाने कितनी बार पढ़ा था उसे! आई तो चिट्ठी आने की खुशी में मुहल्ले वालों को गुड़ बांट आई थी। रात को चिट्ठी सरहाने ले कर सोते हुये वह फिर सपने देखता रहा था। उम्मीद में जीना निराशा में जीने से भी ज़्यादा कठिन होता है।
मगर दूसरे दिन मामाजी से खर्चे की बात सुनकर उसका हौसला पस्त होने लगा था। मुम्बई आना-जाना, वहां दो-चार दिन रुकना, खाना-पीना, बस, रिक्शे का भाड़ा... कम से कम हज़ार रुपये की ज़रुरत! सुन कर आई का भी चेहरा उतर गया था। सारी रात बिस्तर पर पड़ी-पड़ी इतने पैसों की जुगाड़ कैसे की जाये, यही सोचती रही थी। अब घर में बेचने लायक कुछ बी नहीं था एक नथ के सिवा। यह उसके सुहाग की आखिरी निशानी थी। शादी में उसकी सास ने पहनाई थी उसे- लाल पत्थर और सफेद मोतियों वाली, ठोड़ी तक झूलती हुई। बड़ी बेटी की शादी के लिये सहेज रखी थी इसे। अब इस अकेले बचे गहने का मोह क्या करना! बेटे को नौकरी लगी तो इससे भी बड़ी नथ अपनी बहन को बनवा कर देगा।
सुबह उठ कर वह नथ और बकरी बेच आई थी। दो दिन बात तो रघु मुम्बई चला जायेगा। फिर बकरी के दूध की ज़रूरत नहीं पड़गी। आगे दूसरी बकरी आ ही जायेगी। आई ने रघु के हाथ में हज़ार रुपये रखे तो वह चुप रह गया। कहता भी क्या। ये पैसे काफी नहीं थे मगर आई ने बहुत मुश्किल से ये पैसे जुटाये थे वह जानता था। बुरे समय का फायदा लोग भी उठाने से बाज नहीं आते।
रघु के साथ मामाजी भी मुम्बई आने के लिये तैयार थे पर ऐन चलते वक्त बीमार पड़ गये। मजबूरन रघु को अकेले ही जाना पड़ा। इससे पहले वह कभी मुम्बई नहीं गया था। थोड़े-से सामान के साथ कितनों के सपने गठरी बांध कर वह अपने साथ मुम्बई ले जा रहा है! गणपति बाप्पा! तुम्हीं लाज रखना। उसने हाथ हिलाते हुये मन ही मन प्रार्थना की थी।
रात भर की यात्रा में वह एक पल भी सो नहीं पाया था। एक तो आने वाले कल की उत्तेजना, उपर से एस टी बस का सफर और घाट का उबड़-खाबड़ रास्ता! गहरी घाटियों से भरे स्याह सन्नाटों और झिंगुरों की तेज़ आवाज़ को सुनते हुये वह अपनी सोच में डूबा चुपचाप बैठा रहा था। देर रात बस हाईवे के किसी होटल पर रुकी तो उसने चाय के साथ आई की दी हुई रोटी-चटनी खाई। अच्छा हुआ आई ने घर से खाना बांध दिया था। यहां सब कुछ कितना महंगा है। रुपये सोच-समझ कर खर्चना है उसे। शहर में तीन-चार दिन निकालना आसान नहीं होगा।
दूसरे दिन सुबह-सुबह बस मुम्बई पहुंची थी। नवी मुम्बई पुलिस ने उम्मीदवारों के लिये कालाम्बोली पुलिस ट्रेनिंग सेंटर में शारीरिक परीक्षण की व्यवस्था की थी और दौड़ इनखारघर में। मामाजी न कहा था कालाम्बोली पुलिस ट्रेनिंग सेंटर बस अड्डे से कुछ ही दूर पर पड़ता है मगर रिक्शा वाले ने जाने कहां-कहां घुमा कर सौ रुपये ऐंठ लिये।
मुख्यालय में उम्मीदवारों की भीड़ देख कर उसका दिल बैठ गया था। देवा! इतने लोग! चीटियों की कतरा-सी लम्बी लाईन थी। मुख्यालय के गेट से बाहर तक। हज़ारों लोग होंगे! बुझे मन से वह भी कतार में लग गया था। सुबह के सात बजे थे मगर अभी से दिन गरम होने लगा था। हवा एकदम बंद। लाईन में खड़े-खड़े वह सबकी बातें सुन रहा था। सब हाथों में फाईल लिये एक-दूसरे से पूछताछ कर रहे थे। कतार घोंघे की चाल से आगे सरक रही थी। एक कदम बढ़ती फिर जैसे सदियों के लिये ठहर जाती। मक्खियों की भिनभिनाहट की तरह सबकी बातें सुनाई पड़ रही थीं। देखते ही देखते दो घंटे गुज़र गये थे और वे अब तक मुख्यालय के गेट तक भी नहीं पहुंच पाये थे। आसमान का रंग एकदम फीका लग रहा था। धूप सफेद आग़ की नदी बनी हुई थी। रघु को तेज़ प्यास लग रही थी। जीभ तालू से चिपक गयी थी। मुंह में जैसे गोंद भरा हो! एक पैर से शरीर का बोझ दूसरे पैर में डालता हुआ वह बेचैन हो रहा था। सर से पसीना बहते हुये आंखों में उतर रहा था।
सब आपस में परीक्षा के तरीके की बात कर रहे थे। पहले काग़ज़ों को देखते हैं, जांच करते हैं, क़द, वजन और छाती की चौड़ाई नापते हैं। क़द कम से कम 165 सेंटीमीटर और छाती की चौड़ाई 79 सेंटी मीटर होना चाहिये। इन बातों के लिये रघु परेशान नहीं था। वह एक लम्बा-चौड़ा और स्वस्थ युवक था। तनख्वाह 5200-20200 सुन कर उसके भीतर पहले दिन से कुछ अजीब-आ घटा था।  इतने रुपये से तो वह अपनी सारी जिम्मेदारियां अच्छी तरह निभा लेगा। उसने धीरे से साई बाबा का लॉकेट निकाल कर सबकी नज़र बचा कर चूमा था - सब ठीक से निबटा देना बाबा! कितने युवक है यहां! पूरे महाराष्ट्र और जाने कहां-कहां से - बुलढाना, गोदिया, सांगली, सतारा, औरंगाबाद, लातूर, नांदेड, आकोला, नागपूर... सबकी आंखों में सपने, ढेर सारी उम्मीदें! गणपति बप्पा किसकी सुनेंगे, किसकी नहीं! वह और मन लगा कर प्रार्थना करता है। इसमें भी एक रेस है। जो अपनी प्रार्थना जितनी जल्दी भगवान तक पहुंचा सके। रघु को यहां हर कोई अपना प्रतिद्वंद्वी प्रतीक होता है। सबके प्रति वह एक अस्पष्ट-सी ईष्र्या अनुभव कर रहा है। इनमें से ना जाने वह कौन है जो उससे उसकी नौकरी झपट कर ले जायेगा...
पानी पीने के लिये वह कतार से बाहर निकल कहीं जा नहीं सकता। इससे उसकी जगह छिन जायेगी। उसकी बेचैनी बढती जा रही है। प्यास से जैसे गला अंदर से चिपक गया है। जीभ सूज कर मोटी हो गई है। पानी का बंदोबस्त तो होना चाहिये कहीं। उसके आगे खड़े युवक ने कहा था शायद अंदर हो। अंदर पहुंचने में भी अभी घंटा भर तो लग ही जायेगा। बहुत देर से कतार एक ही जगह थम गई है। शायद अंदर लंच ब्रेक हुआ होगा। रघु पस्त हो पर ज़मीन पर बैठ जाता है। लोगों की बातें उसे मक्खियों की भिनभिनाहट की तरह सुनाई पड़ रही है। माथे से बहते पसीने से आंखों में जलन है। हर तरफ धूप में लाल-पीले सितारे-से तैर रहे हैं। कुछ लोगों ने तौलिये से अपना माथा, चेहरा ढंग रखा है।  जेब टटोल कर वह एक छोटा रूमाल निकालता है। नीलांगी ने दिया था। लाल धागों से 'माय स्वीट ब्रदर' लिख कर। उससे अपना चेहरा ढांपते हुये रघु की आंखें और जल उठती हैं। जीवन में पहली बार इस तरह घर से बाहर निकला था। जी चाहता था, अभी उठ कर घर चला जाय। यहां से कितनी दूर है उसका घर! बीच में कई घंटों का सफर और कितने सारे पहाड़, नदियां.. अपने बैग से निकाल कर वह एक सूखी रोटी खाता है। नारियल की चटनी खट्टी हो गई है। अपने आगे वाले लड़के को जगह रखने लिये बोल कर वह गली के मोड़ पर लगे सरकारी नल से पानी पीता है। दोपहर की धूप में पानी उबल गया है। पी कर जैसे और प्यास बढ़ जाती है। फिर भी वह कोशिश करके और थोड़ा पानी पीता है। पेशाब करने के लिये किसी एकांत जगह की तलाश में उसे दूर तक चलना पड़ता है। लौट कर देखता है उसकी जगह छिन गई है। उसके आगे कम से कम दस लोग खड़े हो गये हैं। दस लोग यानी एक और घंटे का इंतज़ार।
उसकी बारी आते-आते शाम हो गई थी। अधिकारियों ने उसके कागज़ों की जांच-पड़ताल की थी, उसका कदम नापा गया था। छाती की चौड़ाई और वजन भी देखा गया था। जाने कितनी देर तक यह सब चला था। उसे बताया गया था, दूसरे दिन सुबह 6 बजे पी.ई.टी. यानी फ़िजीकल एफिसियंसी टेस्ट लिया जायेगा।
शाम घिरते-घिरते मुख्यालय के अहाते से भीड़ छंट गई थी। कुछ और उम्मीदवारों के साथ वह बातें करते हुये खड़ा रह गया था। रात कहां बितायी जाये इसकी समस्या थी। अधिकतर उम्मीदवार गरीब परिवारों से थे। किसी तरह इंटरव्यु के लिये मुम्बई तक आये थे। किसी होटल में रहना उनके लिये संभव नहीं था। सबने मिल कर तय किया था मुख्यालय के सामने की सड़क के फुटपाथ पर सायेंगे। वह जगह निहायत गंदी थी। चारों तरफ खुले नाले और भरी हुई कचरा पेटियां, आवारा कुत्ते और बैल भी घूम रहे थे। एक ठेले से दो बड़ा-पाव खा कर और नल से पानी पी कर वह एक संकरी-सी पट्टी पर चादर बिछा कर लेट गया था। बहुत थकान हो रही थी। कल भी पूरी रात सो नहीं पाया था। वह सोना चाहता था मगर किसी भी तरह सो नहीं पा रहा था।  ज़मीन से जैसे भाप उठ रहा था।
आसपास कुछ लोग बैठ कर सिगरेट पी रहे थे। एक शराबी इधर-उधर घूम-घूम कर जाने किसे गालियां देता फिर रहा था। सोने की कोशिश करता हुआ रघु आकाश को तक रहा था। धुआं-धुआं, टिमटिमाते सितारों से भरा हुआ! उसके गांव का आसमान कितना खुला हुआ होता है। सर्दियों में कांच की तरह। सितारे भी खूब उजले। यहां कितनी धूल है! नथुनो में काली मिट्टी-सी भर गई है। करवट बदलते हुए उसे घर की याद आती है। एक छोटी-सी झोंपड़ी, मिट्टी गोबर से लीपा आंगन, बारिश में जुगनू और सड़ती हुई कूटी की गंध से भरी हुई। इतनी दूर से सोचते हुये सब सपने की तरह मोहमयी लग रहा है। जितनी दूर घर से जाओ घर उतनी क़रीब आता जाता है।
दूसरे दिन कचरा गाडिय़ों की घरघराहट और सफाई कर्मचारियों के बोलने की आवाज़ से रघु की नींद टूटी थी। हरी साड़ी पहनी महिला सफाई कर्मचारी उसके आसपास झाडू लगा रही थीं। हर तरफ धूल का बवंडर उड़ रहा था। आवारा कुत्ते और गाय कूड़े की ढेर पर मुंह मारते फिर रहे थे। एक अधमरी-सी गाय प्लास्टिक की थैली समेत सड़ी सब्जियां चबाते हुये उसे निर्लिप्त भाव से घूर रही थी। 6 बजे एक शारीरिक परीक्षण के लिये ट्रैनिंग सेंटर पहुंचना था। साथ के लड़के उठ कर जाने कब के जा चुके थे। रघु अगली गली के मोड़ पर म्यूनिस्पैलिटी के नल से मुंह धो कर सुलभ शौचालय हो आया था। ठेले पर चाय और एक बड़ा-पाव खा कर वह लगभग दौड़ते हुए मुख्यालय के गेट पर पहुंचा था। आज गर्मी कल से भी बहुत ज़्यादा थी। इतनी सुबह भी लग रहा था ज़मीन से गर्म भाप उठ रहा है। कपड़े पसीने से भीग उठे थे। कतार में खड़े-खड़े रघु ने साई बाबा का लॉकेट निकाल कर माथे से लगाय था और गणपत्ति बप्पा का स्मरण किया था- आज सारी परीक्षायें अच्छे से निबट जाये देवा! कल शाम एस टी डी बूथ से उसने गांव के पाटिल के घर आई के लिये संदेश छोड़ा था कि वह कुशल है और आज उसका शारीरिक परीक्षण होने वाला है। आई ज़रूर गांव के रामदास मंदिर में जा कर उसके नाम से पूजा चढ़ायेगी। सोच कर वह कहीं से आश्वस्त हुआ था। आई की प्रार्थनाओं पर उसे भरोसा है।
शारीरिक परिक्षण में 5 किलोमीटर की दौड़, शॉट पुट तथा हाई जम्प सम्मिलित था। रघु को विश्वास है वह यह परीक्षायें आसानी से पास कर जायेगा। धैर्य से वह अपनी बारी का इंतज़ार करता है, कतार आधे घंटे से टस से मस नहीं हो रही है। जाने कहां जा कर अटक गई है। इधर माथे पर सूरज का गोला तमतमाये हुये चढ़ आया है, धूप का रंग एकदम सफेद है। तरल आग़ की तरह चारों तरफ झड़ रही है। हवा धुआं रही है धीरे-धीरे...
रघु को महसूस हो रहा है वह भीतर तक सूख गया है। एक धीमी आंच में उपले की तरह उसका शरीर तप रहा है। उसे पानी चाहिए... रह-रह कर पूरी देह में एक ऐंठ-सी पैदा हो रही है। जीभ तालू से जा चिपकी है। जैसे काठ की हो। आंखों के आगे लाल, नीली आकृतियां नाच रही हैं। वह इधर-उधर नज़रें दौड़ता है। आज भी कहीं पानी का बंदोबस्त नहीं दिख रहा। जल्दबाजी में वह भी पानी साथ लाना भूल गया। आगे की पंक्ति में एक उम्मीदवार के हाथ में पानी का बोतल है। वह उसे खोल कर गटागट पी रहा है... रघु उसे चुपचाप देखता है। चिल्ला कर कहना चाहता है, उसे भी पानी चाहिये मगर कह नहीं पाता। तभी सामने सड़क में एक पानी का टैंकर गुज़रता है, पानी छलकाते हुये! कितना पानी बह रहा है... रास्ते पर पानी की एक लम्बी लकीर बन गई है। एक कौआ चोंच उठा-उठा कर पानी पी रहा है। दो कुत्ते एक गड्ढे में जमा गंदला पानी चाट रहे हैं। रघु अपनी पलकें झपकाता है। दूर दोपहर का क्षितिज एक पनीली दीवार की तरह तिर-तिर कर रहा है... पीछे अभी-अभी एक युवक त्योरा कर गिरा है। वह चौथा है। उससे पहले तीन और युवक अब तक गिर चुके हैं। जून की धूप सूखी आग़ की तरह सबके भीतर से ऊर्जा निचोड़ रही है।
अंदर पहुंच कर भी जाने कितनी देर इंतज़ार करना पड़ा। तपती ज़मीन पर बाड़े में ढूंसे भेड़-बकरियों की तरह उन्हें घंटे भर बैठाया गया। तरह-तरह की औपचारिकतायें पूरी की गई। सबके बनियान में उनके नम्बर चिपकाये गये। ब्लड प्रेशर और हृदय गति जांची गई। वहां डॉक्टर, नर्स और अन्य चिकित्सा कर्मचारी मौजूद थे। एम्बुलेंस भी। उन्हें बताया गया था कि पेट टेस्ट वे अपनी जिम्मेदारी पद दें। हर बात पर वे एक साथ सर हिलाते रहे थे।
अब 5 किलोमीटर की दौड़ में कई अन्य युवकों के साथ रघु की बारी आई, दोपहर का सूरज ठीक सर के ऊपर था, दहकती भट्टी की तरह। ट्रैक पर खड़ा रघु ने साई बाबा को याद करने की कोशिश की थी मगर जाने क्यों सब कुछ अंदर गडमड होता जा रहा था।
आखिरकार जब दौड़ शुरु हुई थी, रघु तीर की तरह सबसे आगे निकल गया था। उसकी आंखों के सामने उसके गांव का हरा मैदान पसरा था। उसे यह दौड़ किसी भी तरह नियत समय में पूरी करनी थी। उसे यह नौकरी हर हाल में चाहिए। कई परीक्षायें उसने पास कर ली थी। शेष बची भी करनी थी। करनी ही थी! वह बेतहासा दौड़ रहा था। दहकता सूरज, सुलगती हवा और धूल के काले बवंडर के बीच। उसके साथ जाने और भी कौन-कौन दौड़ रहे थे- कीट नाशक ज़हर से काले पड़े बाबा, झुर्रियों की गठरी बनी आई, तीनों बहनें... हर तरफ शोर है। सब एक साथ चिल्ला रहे हैं, उससे बोल रहे हैं - बाबा, आई, नीलांगी, मंदा, छुटकी - अपनी ज़मीन वापस लानी है बेटा... अपनी ज़मीन में किसान की जान होती है... मैं वहीं दबा पड़ा हूं... मुझे मुक्ति चाहिए... वह बाबा के हाथों से अपनी बांह छुड़ता है- बाबा दौडऩे दो... सब आगे निकल रहे हैं! कहते ना कहते आई उसके आगे आ जाती है। वह गिरते-गिरते बचता है। आई को बस हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाना आता है- अगले अगहन तक नीलू की शादी करनी है, उधार के रुपये पर सूद चढ़ रहा है... रघुआ... दादा मला नील रंगाचे रीबन... रघु सब के हाथ झटक कर और तेज़ी से भागता है। उसे अब कुछ नहीं दिख रहा। बस आंखों के आगे नाचता एक मटमैला बवंडर और कानों में गूंजती सीटियां।
रघु ने जाने चौथा किलोमीटर कब पूरा कर लिया है और कोई चिल्ला कर कह रहा है पांचवा किलोमीटर पूरा होने ही वाला है। वह उलटती हुई पुतलियों से देखता है, सूरज पिघल कर पूरे आकाश में फैल गया है। पारे के चमकते सैलाब की तरह। अब आकाश कहीं नहीं है! कान में तेज़ सनसनाहट... पसलियों से टकराता दिल! वह अपनी बची-खुची आखिरी ताकत समेटता है। अब आँखों के सामने बाबा की काली लाश मुर्ख हो रही है, आई की सैकड़ों झुर्रियां झिलमिला रही हैं, नीलांगी की नाक की नथ में हज़ारों सितारे हैं... सब ताली बजा रहे हैं। कोई लगातार चिल्ला रहा है 'रघु-रुघ... तू करु शकणार, तुला होणार...' 'होय, मी करणार, मी करु सकतो...' रघु बुदबुदाता है। उसकी चमड़ी विवर्ण पड़ गई है, इतनी गर्मी में भी ठंडी और ढीली। सीने में धड़कता हुआ दिल अब पसलियां तोड़ कर निकल आना चाहता है, सामने क्षितिज पर पानी ही पानी है, ऊंची, मटमैली लहरें आकाश को छू रही है। ठंडा पानी! मीठा पानी! आह! पानी दुनिया की सबसे सुंदर चीज़ है, अमृत है! वह सारा पानी पी जायेगा- नदी, झील, समंदर... सब! अब रघु उड़ रहा है, उसने पानी तक पहुंचने के लिये अपनी जान लगा दी है! अब उसके आसपास कोई नहीं- बाबा, आई, बहने... उर्मि भी नहीं! पूरी दुनिया पिघल कर पानी बन गई है। आकाश में काले, घने बादल घिर आये हैं। इस बार पानी बरसेगा... खूब पानी बरसेगा...
अचानक दोपहर का दहकता सूरज एवं भयंकर विस्फोट के साथ टूट कर रघु के ऊपर आ गिरा था। इसके साथ ही रघु के भीतर आखिरी हद तक तनी जीवन की मसृन रेखा बिजली की तरह औचक चमक कर एकदम से तड़की। रघु ने पांच किलो मीटर की दौड़ पूरी कर ली थी। तालियों की गडग़ड़ाहट के साथ कोई ज़ोर से सीटी बजा रहा था। चारों तरफ अफरा-तफरी थी। लोग रघु को घेर कर उस पर झुके हुये थे मगर रघु उन बातों से बेखबर सबके बीच गर्म बालू पर निश्चल पड़ा था। उसकी आंखें फटी हुई थी, होंठों पर दरारें थीं और मुंह खुला हुआ था। डॉक्टर ने उसकी नब्ज टटोल कर निर्लिप्त भाव से कहा था- ही इज़ डेड! पानी की कमी की वजह से हाईपोवोलेमिक शॉक या हाईपोटेनशन, हाईपोक्शिया- हिट स्ट्रोक! सायरन बजाती हुई एम्बुलेंस रघु की लाश अस्पताल ले जाने के लिये आ खड़ी हुई थी। आसपास इकट्ठी भीड़ तितर-बितर हो गई थी।
ऊपर आकाश में इसी बीच जाने कब एक टुकड़ा बादल के पीछे सूरज छिप गया था और तेज़ हवायें चलने लगी थीं। मुम्बई से बहुत दूर नांदीपुरा गांव में रघु की आई अपने छिन गये खेत की मेड़ पर बैठी बदलाये आकाश की तरफ देखती हुई बुदबुदा रही थी- इस साल बारिश ज़रूर बहुत अच्छी होगी रघु के बाबा... इस बात से बेखर कि रोती हुई छुटकी उसे ढूंढ़ती हुयी इसी ओर भागी आ रही थी- पाटिल के घर मुम्बई से फोन आया था - रघु...

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