समोसे वाले का ठेला

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    जून-जुलाई 2015
श्रेणी समोसे वाले का ठेला
संस्करण जून-जुलाई 2015
लेखक का नाम इंदिरा दांगी





लम्बी कहानी



''येऽ करारे समोसे! येऽ चटपटे समोसे! चटनी डाल के, दही मार के! लूट लो मसालेदार समोसे! येऽ करारे समोसे! येऽ चटपटे समोसे!''
गोपाल भाई का समोसे बेचने का अंदाज़ निराला है। जिधर-जिधर से गुज़रते हैं, रौनकें बिखेरते जाते हैं। इन ग़रीब सड़क-किनारों के रहवासी छह रुपये का समोसा हर दिन तो नहीं ख़रीद सकते; दही-नमकीनदार, प्लास्टिक के दोने-चम्मच वाला समोसा तो फिर दस रुपये का है! ग़रीब आदमी का चटोरापन कभी-कभी ही क़ाबू बाहर होता है, सो इधर को गोपाल भाई के समोसे कम ही बिकते हैं, पर वे हर दिन के पूर्वान्ह और अपरान्ह जब सेंट पॉल मिशनरी स्कूल के लंच टाइम के लिये समोसे बेचने निकलते हैं तो इन तीन किलोमीटर के रास्ते भर अपना ठेला धकियाते, ऊँची, दिलकश आवाज़ें लगाते जाते हैं,
''येऽ करारे समोसे! येऽ चटपटे समोसे!..''
आसपास की कच्ची-पक्की झोपडिय़ों के लिये ये आवाज़ रोज़मर्रापन का एक हिस्सा है... घिसते-घसिटते रोज़मर्रापन का एक सूक्ष्म सुख-हिस्सा!
आज भी गोपाल भाई मिशनरी स्कूल को जा रहे हैं और वैसे ही पुरसुकून पुकारें लगाते जा रहे हैं,
''येऽ करारे समोसे! येऽ चटपटे समोसे!''
... तभी!
पीछे से आती तेज़ रफ़्तार कार ने धड़ाम से गोपाल भाई में जो टक्कर मारी कि वे मय ठेले सड़क बगल की कचरा-खंती में गड़ाप हो गये। सामने की झुग्गी-दुकान पर अख़बार पढ़ते, चाय पीते, जर्दा चबाते मज़दूर दौड़े। वो लम्बी कार जो इस अचानकता से गड़बड़ाकर धीमी पड़ गई थी, न सिर्फ़ उसे रोक लिया गया; बल्कि अगले दो मिनिटों में ही गोपाल भाई अपने ठेले-असबाब सहित वापिस सड़क पर ले आये थे। गोपाल भाई की छिली कुहनी और फूटे माथे से लहू छलछला आया था; जिसे देखते उस अजनबी-जनमज़दूर समूह के चेहरे पर ऐसा कष्ट भरा आक्रोश उभरा जैसे उनके अपने बीच का ही कोई साथी घायल कर दिया गया हो। अमीर कार अब अक्रोशों के घेरे में थी। पाश्चात्य नायिका जैसी दिखती वो लड़की हालात से कुछ ऊबी, कुछ डरी दिख रही थी। माहौल की विपरीतता ने लेकिन उसके हावभाव पर रत्ती भर भी असर नहीं डाला था। उसका बर्ताव ऐसा था जैसे वो किसी मंच पर हो। लड़की का पूरा व्यक्तित्व एक प्रस्तुतीकरण जान पड़ता था। बार-बार वो अपना गॉगल और अपने कलर्ड बाल किसी सोची समझी अदा से नहीं छू-सँवार रही थी बल्कि ये अदायें अपनी पूरी सहजता से उसकी त्वचा में उतर चुकी मालूम होती थी। वो उस मॉर्डन दुनिया से आई थी जहाँ दिखावा साँस लेने की तरह ज़रूरी होता है। लड़की के बगल में उसका हमउम्र साथी लड़का बैठा था- दुबला और आधुनिक। वो अब तक अपने आईफ़ोन को देखे जा रहा था। वर्तमान में वो जैसे आभासी तौर पर उपस्थित था और मशीन के अंदर की आभासी दुनिया इतनी ज़्यादा ताक़तवर थी कि उसके चंगुल से उसे ये सच्चा दृश्य भी नहीं निकाल पा रहा था कि एक आदमी उनकी कार से लहूलुहान हो चुका है - सच्ची दुनिया का एक सचमुच का आदमी।
लड़की कार से उतरी तो बेख़्याल लड़के को भी ज़मीन पर पैर रखने पड़े लेकिन सिर्फ़ उसका मस्तिष्कविहीन ज़िंदा शरीर ही ज़मीन पर खड़ा था; क्योंकि उसने आईफ़ोन पर नेट अभी तक बंद नहीं किया था और उसकी एक आँख इंटरनेट और दूसरी अपनी प्रेमिका के मुसीबत में फंसने की लाईव कहानी पर थी। अचानक नेट-नशेड़ी को कुछ सूझा और वो लड़की से कुछ दूर, पीछे हटकर खड़ा हो गया आरै पूरा मामला रिकार्ड करने लगा। लड़की के चेहरे पर अपने उस मित्र के प्रति ऐसी घृणा, विवशता और कोफ़्त उभरी कि अब इस अफेयर का ब्रेकअप हुआ ही समझिये। जबकि लड़का आभासी दुनिया के लिए वास्तविक दुनिया को फिल्म में बदल रहा है, भीड़ की शिकन भरी नज़रें लड़की पर हैं और लड़की अपनी पूरी अदाओं में परेशान दिख उठी है, गोपाल भाई ने अपना दर्द ज़ब्त करते हुए कहा,
''ऐ हसीना, तुमको इतना अदद आदमी और उसकी ये अदद दुकान दिखी नहीं कि मुझ पर फ़िदा होकर मुझसे आ टकराई हो?''
छोटा जनसमूह ठहाका लगाकर हँस पड़ा। लड़की का चेहरा तमतमा गया। लड़की के मित्र-लड़के ने उसके चेहरे पर आईफ़ोन का कैमरा केंद्रित कर लिया।
''क्या बकता है बे! एक कॉल करूँगी पापा को तो अभी आधे घंटे के अंदर जेल में होगा।''
''हम भी एक कॉल करेंगे अख़बारवालों को तो अभी आधे घण्टे के अंदर तुम्हारी फोटू खिंच जायेगी कल की ताज़ा ख़बर के लिये। हम रोज़ अख़बार पढ़ते हैं देवीजी, ये न समझिये कि निरा अनपढ़ ही हूँ!''
सबेरे-सबेरे पेश आ गये इस वाक्ये में, इस ग़रीब-गुरबे समूह को विशुद्ध मनोरंजन मिल रहा है और इस अमीर युवक को अपने दोस्तों के साथ शेयर करने के लिये रियल एन्टरटेनिंग स्टोरी। दहशत में आ चुकी लड़की ने अपने बहुत क़ीमती फ़ोन से एक बहुत क़ीमती नंबर डॉयल करना शुरू किया ही था कि किसी मज़दूर ने आगे बढ़कर उसकी कलाई पकड़ ली,
''पापा को फ़ोन बाद में लगाना गुडिय़ा; पहले थाने चलो।''
साथ वालों की आवाज़ें भी उतनी ही तलख़ हो उठीं,
''अपने पापाओं की काली कमाई पर बहुत हरमजदगियाँ करते हैं ये आज के लौंडे-लपाड़े और हम जैसों को कीड़े-मकोड़े समझते हैं!''
''मकोड़े नहीं पकोड़े कहो भई, पकोड़े! जिन्हें ये खा भी सकते हैं और थूक भी सकते हैं!''
लड़की को घेरे खड़ा समूह अबकी हँसा नहीं।
लड़की ने अपनी कलाई झटककर छुड़ा ली और वापिस कार की तरफ़ लौटने की हुई कि एक फटी बनियान, तार-तार जींसवाला नौजवान सामने हो गया,
''पिछली महीने हमारे एक बूढ़े को ऐसी ही कार कुचलती चली गई। पर की साल मेरी चाची को तेरे यार के जैसे किसी बिगड़े नवाबजादे की कार ने टक्कर मार दी। अब तो पहले पुलिस आयेगी, तब ही तुम और तुम्हारी ये हत्यारी गाड़ी यहाँ से हिलेगी रानी!''
भीड़ में से किसी ने पुलिस का फ़ोन नंबर अपने सस्ते मोबाईलफ़ोन पर घुमाया ही था कि गोपाल भाई अपनी हमलावर को ओट कर आगे हो गये,
''इसे माफ़ कर दो भाईयो। अब लड़की जात को क्या थाना-कचहरी कराना! ये देवीजी हमें बस हमारे नुकसान का हर्ज़ा-ख़र्चा दे दें और अपनी राह पकड़ें।''
''हाँ! हाँ! निकलो पाँच हज़ार रुपये! पूरे पाँच हज़ार!'' भीड़ कहने लगी।
लड़की का चेहरा हल्का हो गया। वो गाड़ी की तरफ़ रुपये लेने को मुड़ी की तभी उसका मित्र अपना वॉलेट निकालता हुआ आगे आ गया। आईफ़ोन कैमरा अपनी आधुनिकतम सहूलियतों के साथ चालू था और इस समय फोकस लड़के और उसके वॉलेट पर था। एक हाथ के कैमरे से फ़िल्म बनाते, दूसरे से वॉलेट पकड़े लड़के ने अपने आभासी दुनियावालों को जीत लेने वाला संवाद बोला,
''इसमें से मेरे क्रेडिट कार्ड और मेरी दोस्त की फ़ोटो भर निकाल दो, बाक़ी सब तुम रख लो!''
इतना कहकर लड़के ने वीडियो किल्प की रिकार्डिंग बंद कर दी... एक अधूरी, असत्य कथा वो पूरी कर चुका था जिसमें वो नायक था- आभासी नायक!
इस परेशान-हाल में भी लड़की से अपना गुस्सा दबाया नहीं गया। उसने उसे बाँह से पीछे खींच दिया। वो जैसे चौंककर जागा। उसने अपना वॉलेट अपनी ज़ेब में रख लिया और वापिस कार में जाकर बैठ गया। आईफ़ोन पर इंटरनेट चालू है ही। लड़के के चेहरे की अद्भुत प्रसन्नता बता रही है कि उसे पूरा यक़ीन है कि इस क्लिप को डाउनलोड करते ही हज़ारों लाईक्स-फेवरेट्स मिलेंगे! ...क्या वो अंतर्राष्ट्रीय नायक बन जाने वाला है??
लड़की कार से अपना पर्स ले आई है और गोपाल भाई के सामने खोल दिया है। उसके हाथ में पाँच-पाँच सौ के नोटों की गड्डी है।
''तनिक रुकिये देवीजी! पहले हम हिसाब तो कर लें! ... देखिये, सौ समोसों के हुए छह सौ रुपये, छह रुपये प्रति नग के हिसाब से। दही, चटनी और नमकीन डिब्बों में बंद सो फैले नहीं हैं। काँच टूटा है, सौ रुपये में बदल जायेगा। और हम टूटे हैं सो ज्यादा हुआ तो दो-ढाई सौ रुपयों का टोल बनेगा मरम्मत का। आप ऐसा कीजिये, साढ़े नौ सौ रुपये दे दीजिये।''
लड़की ने तपाक से पाँच-पाँच सौ के दो नोट थमा दिये और वापिस जाने लगी।
''रुकिये तनिक और!'' गोपाल भाई ने अपने मैले कुर्ते की सब ज़ेबें टटोलकर निकाले पचास रुपये लड़की को लौटाये।
''नहीं। रख लो।'' लड़की ने एलीट उदारता से कहा।
''न! ख़ैरात न दो हसीना। देना ही है तो वादा दो कि सड़क पर चलने वालों को अब से उतना ही जानदार समझोगी जितना अपने इस बेजान पुतले दोस्त को समझती हो।''
भीड़ वाह-वाह कर उठी। लड़की वादा कर, झट वहाँ से हट गई। कार स्टार्ट हुई और आगे बढ़ गई। कुछ दूर जाकर, इधर से दिखाई देता है कि लड़का कार से उतार दिया गया है। कुछ पलों को वो जैसे यथार्थ में लौटा और भौंचक्का खड़ा रह गया जबकि कार बहुत आगे जा चुकी थी; फिर लड़के ने एक मोटर साईकिल वाले से लिफ़्ट ली और पीछे बैठते ही फिर अपने आईफ़ोन में विलीन हो गया; शायद अपना स्टेटस सिंगल दिखाने के लिए। यहाँ दूर खड़े गोपाल भाई ने चाहा तो कि मुस्कुरायें; पर घाव अब असलियत में दुखने लगे थे। अपनी टूटी दुकान और जान समेटे घर की ओर लौट पड़े। पीछे मुड़कर देखा। बस्ती के बच्चे, कुत्ते, कौये सब एक साथ गड्ढे-खंती के कूड़े में जा मिले समोसों पर टूट पड़े हैं। धूल, कचरे और कंकड़-पत्थरों के बीच से समोसे निकालते-खाते वे मैले-नंगे बच्चे दूर से ऐसे जान पड़ते हैं जैसे शिशु-नरकंकाल श्मशान में जली लाखों का भोज कर रहे हों। गोपाल भाई के सीने में जैसे किसी ने खंजर घोंप दिया हो; हमेशा सोचते थे किसी दिन इस बस्ती के बच्चों को मुफ़्त समोसे बाँटेंगे। आज ख़्वाहिश पूरी हुई भी तो किस तरह जैसे कोई अपना चिर प्रतिक्षित मिला हो... लेकिन मुर्दा!
इतनी जल्दी गोपाल भाई के घर लौटने की आहट सुन पत्नी छायावती चौंकती है। और जब पति के हाथ पर पट्टी बँधी देखी, कनपटी छिली-सूजी तो मारे घबराहट के वो अपने चुप्पे स्वभाव के विपरीत वाचाल हो उठी,
''ऐं! क्या हुआ डॉली के पापा? हे मातारानी, ये सब क्या है? कहीं मूँदी चोट तो नहीं आई? बहुत दुख रहा होगा ना?''
चटपट उसने हल्दी वाला दूध बना दिया। सिरहाना-सहारा लगाकर पति को तख़्त पर बिठा दिया। तख़्त पर आधे हिस्से में नन्हीं डॉली सोई है।
''आज डॉली को आँगनबाड़ी नहीं छोड़ा?''
''गद्दियाँ गरम थीं मौड़ी की। मैंने सोचा कहीं बुखार ही न हो आये सो सुला दिया।''
''छोड़ आना था। खेलती बच्चों में तो तबीयत ही बहलती। थोड़ा कुछ खाने को भी मिलता ही है जैसा बच्चों को सचमुच खाना चाहिये। अब इसका दूध भी तुमने मुझे दे दिये। जागेगी तो रोयेगी दूध को!''
''आप चिंता न करो। आज उसकी रोटी पानी में मसल दूँगी।''
पत्नी ये कहा तो गोपाल भाई को लगा; गिलास भर दूध पीकर उन्होंने सचमुच एक गुनाह कर दिया। मिट्टी-पत्थरों-टीन से बनी अपनी झोपड़ी को देखने लगे।
''श्याम और सूरज स्कूल गये है?''- इस बेवक़्त घर लौटते गोपाल भाई को झोपड़ी का सूनापन ब्याप रहा है।
''और तुम ये क्या कर रही हो?''
लिपे फर्श पर अधूरा काम सज रहा था। थालियों में मसाले, मैदा और बने-अधबने नन्हें समोसे दिख रहे थे।
''समोसियाँ बना रही हूँ।''
''समोसियाँ??''
''और नहीं तो क्या; छह रुपये और दस रुपये में तुम्हारे कितने समोसे उस ईसाई स्कूल के बच्चे ख़रीदते हैं? दिनोंदिन आँकड़ा नीचे आता जा रहा है। सौ समोसे हर दिन बनाकर देती हूँ तिस में से स्कूल में कभी अस्सी बिक पाते हैं कभी पचास ही। दस-पन्द्रह बाहर भी बेच लिये तो भी बचे समोसों का घाटा तो सहना ही पड़ता है। फिर अब इतने कम में घर चलाना कित्ता कठिन होता जा रहा है। डॉली के लिये पउआ भर दूध हर दिन लेते हैं वहीं मुश्किल लगता है। श्याम-सूरज को पेन और कॉपियाँ दिलाने को सिक्का-सिक्का ढूंढना पड़ता है घर में!''
''सो तूने समोसे का साइज़ आधा कर दिया और दाम भी आधा ही होगा मेरी जान, तेरी इस समोसी का!''
''बिल्कुल! दस तो ज़रूर बिकेंगे ये छोटे समोसे जाते में, दस आते में और स्कूल में भी कम-से-कम दस-पन्द्रह तो बिक ही जाने चाहिए। सौ रुपये रोज़ का बिजनेस ये बढ़ेगा। और ये देखो। ये पापड़ भी कल से मैं तलकर ठेले पर रख दिया करूँगी। दो रुपये में एक बेचना। पच्चीस तो ज़रूर ही रोज़ के बिक जायेंगे। ये हुये पचास रुपये। डेढ़ सौ रुपये रोज़ की कमाई में अस्सी रुपये मुनाफ़ा। अस्सी रुपये बहुत होते हैं डॉली के पापा। गृहस्थी की सब तंगी जाती रहेगी। तीनों बच्चे हर दिन दूध पी सकेंगे। हम रोज़ चाय पिया करेंगे; और वो तुम्हें क्या तो शौक था बड़ा ब्याह के बाद? हाँ, पान खाने का। सो उसके लिये भी पाँच रुपया रोज़ निकाल दिया करूँगी- मेहनती आदमी पर कम-से-कम एक ऐमाल तो जँचता ही है!'' पत्नी के होंठों पर मीठे पान की लाली रच गई जैसे।
लेकिन गोपाल भाई के होंठ अपने फीकेपन में और ज़्यादा सूख गये उसी पल।
''डॉली के पापा, जी कैसा है आपका? दुख रही हैं चोटें या कोई और खटका आ लगा है भीतर? मेरी समोसियाँ और पापड़ पसंद नहीं आये?''
''ऐसी बात नहीं है। तुम ही तो लक्ष्मी हो इस घर की। सब तुम्हारे ही हाथ की बरकत है मेरी जान!''
''बहलाओ नहीं। विष्णु भी अगर चाहें तो अपनी पत्नी से झूठ नहीं बोल सकते। सच-सच बताओ जी, तुम्हें मेरी सौगंध है!''
उत्तर में गोपाल भाई का हमेशा वाला जिंदादिल चेहरा मुर्दा हो गया,
''अगर तुमसे कोई ईसाई बनने की बात कहें तो?''
''क्या???''
दो-चार पल को वो स्तब्ध रह गई; फिर जैसे होश लौटे उसके। अपने काम में फिर अपने आप को उलझाती हुई बोली,
''ऐसी भी क्या दिल्लगी जी कि जान की निकाल लो अगले की!''
''अरे तुम मेरी बात तो सुनो प्राणो की प्यारी!''
पति ने भूमि पर पास बैठते हुए मसखरे ढंग से उसकी कलाई पकड़ी; पर उसने आज झटक लिया अपना हाथ। वो जान गया, बीवी सचमुच नाराज़ है।
''हटो भी। आज मेरा सोमवती अमावस्या का उपवास है। तुम्हारी इन समोसियों में ऐसी उलझी सबेरे से कि पूजा के लिए इत्ता टेम कर लिया।''
पन्द्रह लीटरी तेल की कट्टिया से बने गमले में श्यामा तुलसी का कड़क पौधा स्थापित है। महीन गुलाबी-साँवले फूलों में छायावती की गहरी आस्था खिली है। ब्याह के इन पन्द्रह वर्षों में सामान्यत: शायद ही किसी दिन ऐसा हुआ हो कि पूजा का जल इस तुलसी में चढ़ाने से पहले छायावती ने एक ग्राम भी तोड़ा हो। धर्म की ये कट्टरता छाया अपने मायके के दहेज़ में लाई है। उसकी माँ सागर ज़िले की थी और मारे ग़रीबी के, इतनी दूर भोपाल आकर बस गई थी। छह-आठ घरों के बर्तन माँजने और एक कच्ची झुग्गी में शरीबी-निठल्ले पति और तीन बच्चों का पेट पालन ेकी लड़ाई में यही धर्म उसकी ताक़त रहा था। ...यही छाया की ताक़त है!
अपनी बूढ़ी तुलसी माँ पर सुराग की कोरी चूड़ी, बिंदी चढ़ाकर अब वो परिक्रमायें करने लगी है। हर परिक्रमा की सम्पन्नता पर एक इलायचीदाना अर्पित करती जाती है। उसीक चाल में, उसकी देहभाषा में ऐसा भाव है कि जैसे उसने कोई ऐसी पाप की बात सुन ली है, अब जिसका प्रायश्चित उसे करना पड़ेगा।
''हा हा हा!'' गोपाल भाई के ठहाके पर छाया ठगी-सी देखने लगी।
''ओ मेरे बच्चों की माँ! मैं तो यों ही दिल्लगी कर रहा था।''
पत्नी आधे पल को रुकी। उसकी तरफ़ सीधी निगाह से देखा। पूजा के बीच बोल नहीं सकती पर मन का सवाल मन तक पहुँच गया।
''पूरी बात ये है कि वो राजू पारदी दस बरस पहले भोपाल आया था वो कितना भुखमरा था! बीवी-बच्चों के तन पे साबुत कपड़े तक न थे। आने की साल ही ईसाई हो गया। स्कूल वालों ने उसे सिर्फ़ चौकीदारी ही नहीं दी; स्कूल कैम्पस में पानीपुरी का ठेला भी लगाने दिया। उसे अपनी रोज़ाना की कमाई का सिर्फ़ पाँच परसेंट जमा करना पड़ता है; महीने का कुछ भी जमा नहीं करना पड़ता उसे। और उसके दोनों बच्चे भी उसी स्कूल में पढ़ते हैं। फ़ीस भी माफ़ है उनकी। वो तो कहता है कि उसे ये सब मदद उसे गरीब ईसाई होने के नाम पर मिलती है! कल मुझसे कहने लगा तुम ईसाई हो जाओ तो तुम्हारे बच्चे भी यहाँ मुफ़्त में बड़ा ऊँचा पढ़-लिख जायेंगे। ईसाई स्कूलों में बड़ी ऊँची और पुख़्ता पढ़ाई होती है। वहाँ से निकले बच्चे एस.पी. और कलक्टर बनते हैं। डॉक्टर-इंजीनियर तो चट से बन ही जाते हैं। एक मिनिट को सोचो तो, कहां एस.पी.-कलेक्टर और कहाँ तुम बीमार, फाँके करते ग़रीब, समोसे बेचने वाला!''
छाया के चेहरे पर राजू पारदी के लिये गाली का भाव उभरा फिर अगले पल जैसे वो पूरे मामले को माफ़ करती, अपनी प्रार्थना-परिक्रमाओं में आगे बढ़ गई।
लेकिन मामले का ज़िक्र उठाने वाले पति ने अपने दिल की असली गिरह खोल दी,
''एक दूसरी तरह से बात तो वो सही ही कहता था कि मैं एक बीमार, फाँके करता, ग़रीब समोसे बेचने वाला हूँ। और सच ये भी है छाया कि वो समोसे भी अब मुझसे ठीक से बेचे नहीं जाते! कभी-कभी तुम सब की बड़ी चिंता सताती है। श्वास का मरीज़ हूँ, इत्ती दूर स्कूल तक ठेला खींच ले जाना और फिर लौटना ही मुझे पहाड़ लगता है। मेहनत-मजूरी के काम का हूँ नहीं। कोई और हुनर आता नहीं। समोसे बेचने के सिवाय और किसी रोज़ी में नहीं धक सकता मैं। लेकिन उन समोसों में भी अब कहाँ से कमाऊँ मैं मुनाफ़ा? दिन-पे-दिन ये धंधा कितना मुश्किल होता जा रहा है! आजकल के बच्चे केक-पेस्ट्री और पिज़्ज़ा-बर्गर खाना पसंद करते हैं; समोसों का ज़माना लद गया अब। पांच-छह बरस पहले तक उसी स्कूल में, मैं ढाई सौ समोसे रोज़ बेचता था। अब अस्सी-नब्बे भी बिक जाते हैं तो धन्य भाग्य जान पड़ते हैं अपने। और मुसीबत सिर्फ़ इस नये चलन के खाने से ही नहीं। स्कूल वाले हर दिन की बिक्री से दस परसेंट ले लेते हैं। महीने का हज़ार रुपया अलग से जमा करना पड़ता है, एडवांस में।''
परिक्रमा करती पत्नी की धीमी हो गई गति बता रही है कि वो कितनी गंभीरता से उनकी बातें सुन रही है। एकाएक गोपाल ने उसके दिल की बात अपने दिल से दोहरा दी,
''...भूख से लडऩे में लेकिन, भगवान ही तो रक्षक है; उसे कैसे बदल दें??''
पत्नी मुस्कुराई। अपनी परम पूजनीय तुलसी की एक सौ आठ परिक्रमायें पूरी कर उसने भूमि पर माथा टिकाया तो देर तक टिकाये ही रही - जैसा शरणागत की रक्षा हो गई हो!!
तुलसी वाला पीपा-गमला उठाकर उसने झोपड़ी के ऊपर रख दिया और सब थालियाँ समेटकर बगलवाली झोपड़ी में चली गई। जाते-जाते पुरानी साड़ी वाला परदा दरवाज़े पर डालती गई। उसके चेहरे पर एक महान उलझन थी और हमेशा की तरह वो चुप हो गई थी।
बेवजह उसे दुखी कर दिया; गोपाल भाई का दिल अफ़सोस से भर उठा। अपनी बदरंग, पोलिस्टर की तेहमद लपेटी और झोपड़ी से बाहर निकल आये। एक नज़र अपनी दोनों झोपडिय़ों में सजी गृहस्थी पर डाली और हारे हुए जुआरी की तरह वो अपनी हिम्मत भी हार गया। कुल घर-गृहस्थी एक नज़र में खंती के कबाड़-सी नज़र आती है... जैसे किसी कूड़ा बीनने वाले ने जीवित रहने भर के लिये चार चीज़े और एक छत जुटा ली हो!
अपने अस्वास्थ्य और अपौरुषेय की बात सोचकर मन गहरी वितृष्णा से भर उठा और गोपाल भाई मोड़ की तरफ़ निकल गये। जग्गू चायवाले के यहाँ चाय तो हफ़्ते में एकाध ही पी पाते हैं लेकिन उसे जो भाईसाहब कहते हैं सो बदले में अख़बार हर रोज़ पढऩे को मिल जाता है।
दो घर ही निकले थे कि रफ़ीक मियां अपनी झोपड़ी के बाहर चबूतरे पर बैठे मिल गये। उनकी साईकिल आज बाहर नहीं, भीतर टिकी थी जिसमें पीछे देगचे बँधे थे जिसमें भकर वे कबाब-पराँठे बेचने निकलते थे। ज़िम्मेदार माँ बनकर घर-बच्चों की देखभाल भी करते हैं और ज़िम्मेदार बाप बनकर मेहनत से रोज़ीरोटी भी कमाते हैं; पांच वक़्त के नमाज़ी रफ़ीक भाई ज़िन्दगी को इबादत की तरह जी रहे हैं।
''भाईजान, आज काम पर नहीं गये? सब ख़ैरियत?''
''चबीयत ज़रा खुश्क थी। सोचा, छुट्टी पर लूँ। आओ बैठो। अपनी ख़ैरियत कहो; तुम्हें ये क्या हुआ? पट्टियाँ बाँधे कैसे घूम रहे हो?''
''न पूछिये! आज सुबह स्कूल जा रहा था कि एक हसीना आ टकराई।''
''अमाँ मियाँ, हसीनाओं के टकराने से दिल का घायल होना तो सुना था लेकिन यों जिस्म लहूलुहान हो जाये, ये पहली मर्तबा देख रहे हैं।''
''अजी, हसीना के सात उसकी कार भी थी ना!''
हा हा हा! हा हा हा! - इस पल में सम्मिलित हँस ही नहीं रहे, हँसी को सम्मिलित जी रहे हैं ...आदमी के ज़िन्दा होने का पता उसके यही छोटे-छोटे ठहाके देते हैं।
''शाहिद और सबा नहीं दिख रहे? स्कूल गये होंगे? अरे लेकिन, आज तो आप लोगों को शाहिद के मामू के घर जाना था ना किसी शादी में??''
''हमें क्यों बुलाने लगे शाहिद के मामू? बुलायेंगे अपने-से अमीर रिश्तेदारों को जो वलीमे वज़नदार तोहफ़े या मोटे लिफाफे देंगे उन्हें। हम ग़रीबों से क्या वसूल होना था? शाहिद की मुमानी ने कहीं कहा है कि हम तीनों एक बैठक में इतना गोश्त उड़ा जाते हैं जितना वे महीने भर में न खा पायें!''
रफ़ीक का चेहरा तमतमा उठा तो गोपाल ने कंधे पर दोस्त वाला हाथ रख दिया। सख़्त होती माँसपेशियाँ पल में ढीली पड़ गयीं,
''मैं तो गोपाल, चार साल गये, उन लोगों से उसी दिन से रिश्ता ख़त्म समझता हूँ जिस दिन शाहिद-सबा की अम्मी नहीं रहीं।''
गोपाल अपने दोस्त की तकलीफ़ की गहराई समझता है। शाहिद और सबा पिछले पन्द्रह दिनों से दिलोजान से तैयारियाँ कर रहे थे। महाकंजूस सबा अपनी गुल्लक से रुपये निकाल-निकाल लाती और ठेलों से मालायें, बुंदे, चूडिय़ाँ क्या-क्या न खऱीद रही थी। शाहिद मियाँ इ•िममे से तरह-तरह के कुर्ते, पायजामे, जैकेट, टोपियाँ और चमड़े के मौज़े ख़रीद लाये थे।
''बच्चे कहाँ हैं? स्कूल गये हैं?''
''सबा गई है। बेचारी लड़की ने जब सुना कि हम नहीं जा रहे शादी में, तब से रो-रोकर जान देती रही, ज़िद करती रही। सबेरे डाँट खाकर स्कूल तो चली गई लेकिन बिना खाने का डिब्बा लिये। आठ बरस की उमर में बच्चे अपनी सब तकलीप़ों का इल्ज़ाम वालिदैन को ही देते हैं!''
''और शाहिद मियाँ?''
''रात खाना नहीं खाया साहबज़ादे ने। गुस्से से फट पड़े रहे थे। मैं तो पहले से ही जानता था कि न्यौता न आयेगा। पर वे दोनों कल रात तक राह तकते रहे कि मामू के घर से अब कोई आया, अब कोई आया! आज सबेरे स्कूल जाने के बजाय पीठे पर चले गये हैं। कहते थे- अब्बू आज मज़रूरी करूँगा, कल कारीगरी और परसों ठेकेदार बन जाऊँगा! मैंने लाख समझाया कि मियाँ, जो चीज़ जितनी तेज़ी से ऊपर जाती है, वो इतनी ही तेज़ी से नीचे भी आती है। इल्म और सबर के रास्ते पर चलकर ज़िन्दगी बनाने वालों की बीसियों मिसालें दीं। तुम्हारे बेटों की भी मिसाल दी जिसकी युनीफ़ार्म भले  घिसी हों, बस्ते भले फटे हों लेकिन मार्कशीटों में नंबर हीरों-से दमकते हैं! मैंने उसे उस हद तक समझाया गोपाल जहाँ तक मेरी अक्ल थी लेकिन जब किसी पर शैतान ही सवारी कर ले तो उसे दीन, ईमान और इल्म की बातें कहाँ सुनाई पड़ती हैं!''
अपने बेटों की तारीफ़ सुन गोपाल में नई जान पड़ गई। अपनी अंदरूनी प्रफुल्लता दबाते हुए ऊपरी सहानुभूति पर कायम रहे,
''मैं समझाऊँगा शाहिद मियाँ को। आप फ़िकर न करें। वैसे भी मज़ूरी करना कोई बच्चों का खेल तो है नहीं। आज हाड़तोड़ मेहनत कर आयेंगे बच्चू तो कल सीधी राह स्कूल की लेंगे।''
''नहीं गोपाल। बचपन अब हमारे-तुम्हारे ज़माने वाला सरल बचपन नहीं रहा। तब बच्चे बदन पे नया कपड़ा पाकर और पेट पर पूरियाँ खाकर ही ख़ुश हो जाते थे। दो पैसे का खिलौना मिल जाये तो यों पेश आते थे मानो कारू का ख़जाना हाथ लग गया हो। लेकिन आजकल के चूज़े तो अंडे में ही पर फडफ़ड़ाने लगते हैं। शाहिद को मैं पिछले चार-छह महीने से देक रहा हूँ; मियाँ छँटे-छँटे रहते हैं। न जाने किन सोहबतों में हैं। पिछले जुमे मैं मस्जिद से नमाज़ पढ़कर लौट रहा था तो आप ममदू के बेटे के साथ आवारगी करते मिले।
''वही ममदू का बेटा ना जो...?''
''हाँ जी, बिल्कुल वही जो अपनी बहन की ससुराल के ज़ेवर चुराकर बेच आया था और बदले में मोबाइल फ़ोन आईपैड, लैपटॉप और न जाने क्या-क्या बलायें ख़रीद लाया था। शाहिद के हाथ में भी हफ़्ते भर से नया मोबाइल फ़ोन देख रहा हूँ, वो उत्ता मँहगा वाला जिसके भीतर व्हॉटएप, फेसबुक, ट्विटर और न जाने क्या-क्या अज़ाब क़ैद हैं! मैंने ख़बर ली तो साहबज़ादे सफ़ेद झूठ बोल गये कि उनके दोस्त का फ़ोन है, उन्हें यों ही इस्तेमाल के लिए दे दिया है उसने। पन्द्रह साल का लड़का हमें अहमक समझे बैठा है!''
''बिन माँ का बच्चा है फिर नाजुक उम्र में है, कुछ एहतियात, कुछ बड़प्पन से काम निकालियेगा। उसे दुनियादारी समझाईयेगा। बाप बनकर नहीं बल्कि एक माँ बनकर उसे समझाने की कोशिश कीजियेगा कि ये बड़े क़ीमती पढ़ाई के साल इंटरनेट और मोबाइल, आईपैड में गँवाने या पीठे पर जाकर मज़दूरी करने में ज़ाया न करें। मैं भी बात करूँगा उससे। अपनी ही मिसाल दूँगा कि अगर मैं पढऩे-लिखने की उमर में मज़दूरी न करने लगा होता और किसी ने मुझे उस उम्र में पढ़ाई-लिखाई की एहमियत समझाई होती तो मुझे आज ज़िन्दगी यों आधे कपड़ों, आधे पेट न काटनी पड़ रही होती।''
''तुम ज़रूर समझा। मैं भी अपनी नज़ीर पेश करूँगा। मुमकिन है लड़का हाथ से न निकले!''
गोपाल भाई ने दोस्त का कंधा थपथपाया और आदतन मौक़े पर फबता शेर सुना डाला,
मीर साहब ज़माना नाज़ुक है
दोनों हाथों से थामिए दस्तार।।
यहाँ से चले गोपाल भाई तो उन्हें अपने चारों ओर अदृश्य दीवारें उठती-गिरती नज़र आने लगीं जैसे मीलों तक उठते-ढहते खंडहरों की क़ैद में आ फँसे हैं। उनका पूरा विश्व ढहने को है! ...जैसे पानी में नमक घुल जाता है, एक अनजान भय बड़ी अदृश्यता से इधर गोपाल भाई के ख़ून में घुलता जा रहा है कि वे और बहुत दिन जियेंगे नहीं!
अगली सुबह फिर उसी सड़क पर फिर वही दिलचस्प पुकार थी, सुनने वालों की संघर्ष भरी दिनचर्या में सुस्ताने की राहत जैसी,
''येऽ करारे समोसे! येऽ चटपटे समोसे!''
स्कूल में लंच टाइम होने को है। नियमों के मुताबिक गोपाल भाई हाथों में दस्ताने, सिर पर टोपी और शरीर पर एप्रिन पहने ढँकी जालियों में रखे समोसों के साथ बड़ी नफ़ासरत से तैयार खड़े हैं।
ग्राउण्ड पार मेन गेट पर छायावती नज़र आ रही है, सिर पर बोरी रखे हुए। गार्ड उसे पहचानते हैं। कभी-कभार जब गोपाल भाई की श्वास की बीमारी ज़ोर मारती है तो छाया ठेला धकेलती साथ आई है, और संग खड़े होकर समोसे बेचे हैं; और रोज़नी एक दिन को भी टूटने नहीं दी। छायावती को आता देख गोपाल का दिल खुश हो गया जैसे रेगिस्तान पर एकाएक बारिश हो उठे; लेकिन अगले ही पल रक्त में घुला भय फिर दिल को दबाने लगा। एक मृत्यु-सुंदरी उसे अपने इर्द-गिर्द अदृश्य टहलती महसूस हुई। ...इस बहुत प्यारी बीवी का, बहुत दिनों का साथ शेष नहीं है गोपाल!
छाया ने सिर का बोझ एहतियात से कंधे पर लेते हुए नीचे उतारा।
''इसमें क्या लाई हो मेरी जान?''
''तरक़्क़ी।''
वो हँस दी और बोरी में से निकाल-निकालकर आधे ब्रेड स्लाइस की संरचना से बनी चीज़ें ठेले पर सजाने लगी।
''ये क्या बना लाईं? ख़ुशबू तो बड़ी करारी जान पड़ती है!''
''स्वाद भी इत्ता ही करारा है!''
''और इसे कहते क्या हैं रानी?''
''ये है छोटू पिज़्ज़ा और ये छोटू बर्गर।''
''ख़रीद के लाई हो?''
''न। बना के।''
''कैसे?''
''अब ये न पूछा जी। आप फल खाओ, पेड़ न गिनो।''
''अब प्राण न लो प्राणों की प्यारी। बताओ भी कैसे सीखा, कहाँ सीखा? कित्ती लग्गत आई? और लग्गत लगाने के लिए रुपये कहाँ से पाये?''
''सीमा के संग पूड़ी बेलने जो गई थी तीन बेर; इकट्ठा हिसाब कर दिया उसने आज सबेरे ही तो फटाफट ये सामान ख़रीदा और बना लाई।''
''और ये सब सीखा कब मेरे बच्चों की माँ?''
''कित्ते दिन बताऊँ; समझो कि महीनों से सीख रही हूँ। सीमा के संग जब-जब पूड़ी बेलने गई उसके घर बनाया और खाया-खिलाया। वो कहती है, तुम्हारे हाथ में अन्नपूर्णा-सा स्वाद है छाया! देखना इत्ता मुनाफ़ा मिलेगा इन ब्रेड के टुकड़ों में कि दिन फिर जायेंगे तुम लोगों के!''
''इत्ता ही मुनाफ़ा है तो वो ख़ुद क्यों नहीं कर लेती ये धंधा?''
''उस नेताईन को फुर्सद कहाँ पूडिय़ाँ बेलने की साईयाँ लेने और बाईयों का लाने-ले जाने से। फिर अकेली रांड जनी। एक पेट की रोटी करने में ही आलस खाती है। कभी चीला बना लेती है कभी खिचड़ी उबाल लेती है कभी चाय-टोस्ट खाकर ही सो जाती है।''
''तो फिर ये पिज़्ज़ा-बर्गर बनाने का हुनर कहाँ से पा गई तुम्हारी सहेली?''
''समझो की हमारे ही भाग्य से! वो अपनी नानी की गमी में पटना गई थी। वहीं मुहल्ले में एक ठेलेवाला और उसकी जनी बनाते-बचते थे। इस चटोरी को ऐसा स्वाद लगा कि ख़ूब ही तबीयत से सीख आई। लेकिन यहाँ महारानी ने कभी खुद बनाकर नहीं खाया; मेरी ही मिन्नतें कर-करके बनवाती रहती है मुझसे जब भी मैं उसके घर जाती हूँ।''
गोपाल भाई के सवालों और छाया के जवाबों के बीच ही लंच की छुट्टी की घंटी बजी - सैकड़ों नन्हें कानों में मिश्री घोलती हुई टन-टन-टन और ये ग्राउण्ड में निकल आये बच्चे। कुछ इन ठेलों की तरफ़ भी आये। समोसा लेने आये ग्राहक बच्चों से छाया ने दुलार पगी आवाज़ में कहा,
''पिज़्ज़ा ले लो बेटे। केवल बीस रुपये में है। हॉफ़ पिज़्ज़ा दस रुपये में है। बर्गर भी सस्ता है - केवल पन्द्रह रुपये में। हॉफ़ बर्गर भी है - सिर्फ आठ रुपये में!''
वे बच्चे पिज़्ज़ा और बर्ग ले गये और अगले दस मिनिट में ही बीसियों बच्चे खड़े थे गोपाल बाई के ठेले को घेरे - पिज़्ज़ा, हॉफ पिज़्ज़ा, बर्गर, हॉफ बर्गर की शोर मचाती फरमाईयों के साथ। चंद मिनिटों में ही बोरी भरे पिज़्ज़ा-बर्गर बिक गये। संग समोसे, छोटे समोसे और पापड़ भी ख़ूब बिके। लंच टाइम ख़त्म होने की घंटी बजी और सह गहमागहमी एकदम ख़त्म हो गई। बच्चे अपनी क्लासों की तरफ लौट गये।
''अब चलती हूँ। डॉली को आँगनबाड़ी से लाना है।''
''तुम बस से चली जाओ। सब माल बिक गया है तो अब मैं भी आता हूँ ठेला लेकर।''
''तब साथ ही चलें। मुझे भी पैदल ही जाना है।''
''तुम पैदल आई हो?''
''पाँच रुपये आने के बचाये; पाँच जाने के बचाऊँगी आरै दस रुपये के अमरूद ख़रीदूँगी बच्चों के लिये तो छह किलोमीटर चलना वसूल हो जायेगा।''
अभिभूत गोपाल कोई फबती हुई बात कहना चाहता था। कहना चाहता था कि तुम मेरी अन्नपूर्णा भी हो, सरस्वती भी हो; और तुम्हीं लक्ष्मी भी हो! कहना चाहता था कि तुम्हारे इस कंगले पति ने भी प्रसिद्ध कहानी के चंदन वन की भीलनी की तरह चंदन की लकड़ी को अपने चूल्हे का ईंधन बना डाला है। वो कोई बहुत सुंदर कतिा अपनी पत्नी को सुनाना चाहता था जिसे सुनकर वो ख़ुश हो जाये। यों वो उसे अपने जीवन में होने का धन्यवाद देना चाहता था कि तभी,
रक्त में घुला भय कुछ और स्याह हो उठा। गोपाल भाई सन्न खड़े रह गये। पीछे खड़ी छाया ने कंधा छुआ, ''ओ डॉली के पापा, आपने तो ये पूछा ही नहीं कि छोटू पिज़्ज़ा-बर्गर की लागत कितनी और मुनाफा कितना?''
अब वे दोनों अपना ठेला धकेलते चल पड़े घर की ओर जाती सड़क पर। अनमने-शर्मिन्दा पति को पत्नी जैसे बहला रही है,
''तीन रुपये पिज़्ज़ा पर बचते हैं। दो रुपये का मुनाफा बर्गर पर है।''
''दो रुपये के मुनाफे से तुम मेरी डूबती रोज़ी को बचाना चाहती हो?''
''मैं बस तुम्हें बचाना चाहती हूँ।''
मायूस गोपाल ने बहुत चौंककर पत्नी की तरफ़ देखा। क्या वो जान गई है कि आजकल उसके इर्द गिर्द किसका वास हो गया है??
वे घर को लौटती राह पर हैं। आसपास वे ही जीवन हैं, वही संघर्ष का रोज़मर्रापन लेकिन संघर्ष में सुख घोल देने वाली आवाज़ आज गोपाल भाई के पास नहीं है। गूंगे की तरह वे चुपचाप चले जा रहे हैं। एक गड्ढे में चिथड़ों, मिट्टी, झाड़-झंकार से बनी जुग्गी में से एक नंगा बच्चा दिलख़ुश आवाज़ में चीखा
''येऽ करारे समोसे! येऽ चटपटे समोसे!''
गोपाल भाई की खोई आवाज़ लौट आई जैसे। अपनी लय पर लौटते हुए ऊँची आवाज़ें लगाने लगे,
''येऽ करारे समोसे! येऽ चटपटे समोसे!''
ठेला धकेलते, थके और संतुष्टि पति-पत्नी घर पहुँचे। सामने जीवन की एक नई कठिनता उनका स्वागत करने बैठी थी। गोपाल की छोटी, लंगड़ी बहन अपने दो ट्रंकों, तीन बड़ी पोटलियों, एक पेटी और गोद में डेढञ साल की बेटी लाड़ली को लिए बाहर चबूतरे पर बैठी मिली।
यह दृश्य पिछले चार बरस से हर चार-छह महीने में यहाँ उपस्थित होता ही रहता है जब शांति उर्फ लंगड़ी अपनी आदमी से लड़-झगड़कर, पीट-पिटकर यहां चली आती है। हफ़्ते-दस रोज रहती है फिर ख़ुद ही वापिस चली जाती है। न कभी उसका पति लेने आता है, न गोपाल भाई बहन को छोडऩे जाते हैं। आँखों के अँधे, नान नैनसुख कहावत को सार्थक करती परम झगड़ालू, महा क्लोशिन शांति के साथ रहने-जीने वालों के सौ गुनाह माफ़- यही गोपाल भाई की हमेशा की राय रही है और मायका-ससुराल, मोहल्ला-रिश्तेदार-माने हर जानने वाला यही जानता है कि शांति अपने नाम की सबसे बड़ी दुश्मन है।
गोपाल भाई ने आदतन माहौल को हल्का करना चाहा,
''कहो बिन्नू, अबकी तुम पीट के ज़्यादा आई हो कि पिटके?''
लेकिन भाभी ने ननद के पीडि़त चेहरे पर उसका समूचा यथार्थ पढ़ लिया और आगे बढ़कर उसे गले लगा लिया। शांति फूट-फूटकर रो उठी।,
''भाभी, उन्ने तलाक के काग़ज़ पे पता नहीं कब दस्तख़्त करवा लिये! दूसरी औरत को ब्याह के घर ले आये तब मेरी आँखें खुलीं। मैंने भी ख़ूब मार दई दारी की और वा लुच्चा-उचक्का के मुँह पे तो थूक के आ रही हूँ!''
''हम केस करेंगे। कोई मज़ाक है क्या?''
गोपाल भाई ने बड़े भाई वाले आक्रोश में दावा किया लेकिन अपने आक्रोश और दावे की व्यर्थता वे ख़ुद भी समझ गये अगले ही पल... नंगे-बुच्चे लोगों का दावा भी क्या दावा होता है??
अगली सुबह घरेलू कामों में उलझी छाया ने डॉली और लाड़ली को आँगनबाड़ी पहुँचाने का जिम्मा शांति को देने की चूक कर दी। शाँति अपने दुख से दुखी, उदासी से लँगड़ाती और दोनों बच्चियों को सम्हालती-गिराती गई; और आधे ही घंटे में मय बच्चियों के तेज़-तेज़ लँगड़ाती लौटी चली आ रही थी।
''शाँति??'' आटा गूँधती भाभी चौंक गई।
''वो आँगनबाड़ी वाली मैडम चोट्टी, बदमाशिन, घूसखोरिन! हम शिकायत करेंगे! कलक्टर के पास जायेंगे कल जनसुनवाई में!''
''हुआ क्या?''
''ओ मातारानी! बड़ी फाइन है वो मैडम! हम तो बस जे बोले कि अब हम यहीं के स्थायी निवासी हैं, हमारा राशनकारड बना दो। दो लगी माँगने हजार रुपये! हमने भी बोल दिया, मौड़ा-मौडिय़ों के हिस्से का दलियाृसत्तू-नमकीन तुम बोरियाँ भर-करके पीछे-के-पीछे बेच देते हो सो ग़रीबों के मुँह से कौर छीन-छीनके भी तुम्हारा पेट नहीं भरा! अब हमारा लहू भी पिओगी तो तुम्हारे बच्चों के सामने आयेगा तुम्हारा किया! बस, इत्ती बात थी कि मैडम अगिया बेताल हो गई और दोनों मौडिय़ों को हाथ पकड़ के बाहर कर दिया। बोली, आज के बाद दिखना नहीं इधर को! दो बाईयाँ और दो मैडमें - वे चार जनी थीं और मैं अकेली, तो भी मुँहज़ोरी में हरा नहीं पायीं मुझे! छटी का दूध याद दिला दिया; पेट पर गालियाँ देकर आ रही हूँ!''
''और इन बच्चियों के पेट ख़ाली ही रह गये!'' छाया के चेहरे पर एक शांत नाराज़गी थी। शाँति रोने लगी,
''अब तुमें भी मैं बोझ लगने लगी हूँ तो पहले इस मौड़ी का गला दबाये देती हूँ फिर आप कनेर के गट्टे निगल के मरी जाती हूँ। आदमी ने छोड़ दिया। बाप है नहीं! एक माँ है सो गायत्री शक्ति पीठ में रम गई है। मेरा और लाड़ली का अब इस संसार में कौन रखवाला है??''
''बिन्नू, रोओ नहीं। चलो रोटी खा लो। सबेरे से काम में ही खपी हूँ मैं और तुम भी कित्ता रो ली हो। देखो, लैकी अभी बघारी है। मैं चूल्हे पर रोटियां सेंकती हूँ, मौडिय़ों के साथ तुम खा लो फिर मैं भी खाये लेती हूँ।''
शाँति के बहते आँसू थम गये। एक चुप सौ को हराये। भाभी से कोई गिला-शिकवा करे भी तो कैसे - लडऩे के लिए दूसरा पक्ष भी तो हो!
शाँति खाना खाने बैठ गई, साथ में दोनों बच्चियाँ भी। छाया के चेहरे पर एक गहरी चिंता चूल्हे की लपटों में दिपदिपाई और बुझ गई - ईश्वर है तो पार लगाने वाला!
समोसे बेचकर गोपाल भाई लौटे। पूरा वाक्या जाना। बच्चियों की आँगनबाड़ी छूट जाने पर अफ़सोस तो क्या करते, ठठाकर हँस पड़े,
''भला किया शाँति। इन बच्चियों को आगे बहुत साल स्कूल-कॉलेज में खटना है। अब स्कूल की उमर होने तक इन्हें ख़ूब प्यार से पालो चौबीसों घंटे लंगड़ो बुआ!''
भाईं की हँसी ने बहन के मन की ग्लानि धो दी। लेकिन छाया के चेहरे पर जो कष्ट था - डॉली के मुंह से एक कटौरी पौष्टिक खाना छिन गया- गोपाल को छू गया। आदतन माहौल को हल्का करते बोले,
''लड़के-बच्चो, चलो सब तैयार हो जाओ। मेला चलते हैं। वहीं से शक्ति पीठ चलेंगे, अम्मा से मिलने।''
सबके चेहेर खुश हो गये। शांति बगल वाली झोपड़ी में सब बच्चों को तैयार करने लगी और आप भी सजने लगी। इधर छाया ने पच्चीस-तीस बड़े पापड़ तलकर एक छकड़े में भरे और पीठ से बाँध लिये।
''ये क्या प्राणप्रिये? वहाँ मेला घूमने जा रही हो कि मेले में दुकान लगाने?''
''कुछ नहीं तनिक तो पापड़ हैं। रास्ता चलते ही बिक जायेंगे। मैं ही उठाये रहूंगी। मैं ही बेच लूँगी। कुछ बच्चे भी खा लेंगे इसी में से। आप ध्यान न देना; मज़े से घूमना-फिरना।''
वो अपराधी की तरह सफ़ाई दे रही है और गोपाल भाई सोच रहे हैं - हम कितने ग़रीब हैं!!
सब चले। बस्ती से पैदल ही निकले हैं। आगे चौराहे से बस पकडऩी है। चौराहे पर लेकिन पुलिस तैनात है। ज़रूर कोई वीवीआईपी निकल रहा होगा। तीन तरफ़ का ट्रैफिक रोक दिया गया है। सैंकड़ों स्टार्ट वाहनों के चालक दम साधे हुए हैं। पता चला है कि देश के एक बड़े प्रमुख केन्द्रीय मंत्री जी निकलने वाले हैं। बाँयी तरफ़ के भीड़ वाहनों  में स्कूल बसों में से नन्हे बच्चे लस्त चेहरों से झाँक रहे हैं। दाँयीं तरफ के रुके वाहनों में फँसी एक गाड़ी एक सौ आठ एम्बुलेंस में एक प्रसूता चरम कष्ट से कराह उठी है। पीछे वाली तरफ़ के रोड पर सुलगती अगरबत्तियों के धुँये में लिपटा एक शववाहन स्टार्ट लेकिन रुका खड़ा है जैसे आदमी तो मर गया हो पर प्राण न निकल पाये हों। सड़क के ये आदमी चाहे जन्म लेने वाले हों, चाहे मर चुके हों- उनके जीवन और मौत की गरिमा उनके लीडरों के बूटों तले है!
गोपाल भाई अपने कुनबे के साथ सड़क किनारे तक आ गये हैं। फ़ोर लेन वाली इन अतिव्यस्त सड़कों के इस चौराहे पर इस समय परिन्दा भी पर नहीं मार सकता। सब तरफ़ स्टार्ट वाहन गुर्रा रहे हैं और पुलिस वाले डंडे फटकार-फटकार कर उन्हें क़ाबू किये हैं जैसे सर्कस के वेतनभोगी शिकारी गुर्राते शेरों को हंटरों से क़ाबू किये हों।
शायद गोपाल भाई को सड़क पार नहीं करनी थी, शायद शांति और छाया भी सड़क पर नहीं दौड़तीं जब एक कि केन्द्रीय मंत्री जी का काफिला न गुज़र जाता ... लेकिन अदृश्य नियति तो इसी सड़क पर इसी पल में एक ख़ौफनाक घटना रचे उनके इंतज़ार में बैठी थी।
ये पल आया कि एकाएक श्याम और सूरज ख़ाली सड़क पर दौड़ गये। एक पुलिस वाले की उधर से सीटी गूँजी। इधर से एक गुस्साये सिपाही ने अपना डंडा फेंककर मारा। डंडा श्याम के घुटने में पीछे की तरफ़ से वो ज़ोर से पड़ा की बच्चा बीच सड़क पर गिरकर तडफ़ड़ाने  लगा।
''ऐ! ऐ!'' छाया और शांति सड़क पर गिरे बच्चे की तरफ़ दौड़ी ही थीं कि सिपाही ने उन्हें धक्का दिया। गोपाल की छाया गिर पड़ी- छकड़े से पापड़ चौराहे पर बिखर गये और गोद की डॉली औंधे मुँह जो गिरी बीच सड़क पर तो चेहरा छिल गया; नाक से ख़ून बहने लगा। गोपाल भाई ने आगे बढ़कर बच्ची को गोद में समेटा ही था कि इधर के पुलिस वाले ने कॉलर से घसीटकर पीछे कर लिया और तीन-चार तमाचे रसीद किये। सड़क के उस तरफ़ पुलिस के जवान छाया और शांति को परे धकेंल रहे थे। लडख़ड़ाते श्याम में एक गुस्साये पुलिस वाले ने अपने बूट से जो ठोकर मारी, वो मुँह के बल उस पार की धूल में जा गिरा।
''तुम्हारे बाप का राज है क्या सालो? मारा कैसे हम लोगों को तुमने??'' सदा के हँसमुख, विनम्र और विवश गोपाल भाई इस पल में सिर्फ़ एक पुरुष थे। ...अपने परिवार का रक्षक पुरुष!
सिपाही गोपाल को पीटकर फेंक जाने के बाद अपना झनझनाता हाथ सहलाता हुआ पुन: सड़क किनारे ड्यूटी पर जा खड़ा हुआ ही था कि गोपाल भाई ने अपने पाँव का फटा जूता उतारकर उसकी ओर फेंक मारा... और अब आया नियति का ये ख़ौफ़नाक पल!!
केन्द्रीय मंभी जी का काफिला गुज़र रहा था। जूता ऐन लालबत्ती वाली एमबेसडर पर पीछे वाले खुले काँच के अंदर जा लगा- लोकतंत्र के एक बहुत ही मँहगे चेहरे पर!!
''वो पड़ा जूता! सरकार को वो पड़ा जूता! मुझे नंगा करने वाली सरकार को वो पड़ा जूता! जियो मेरे लाल!'' फुटपाथ पर पड़ा रहने वाला नंगा-पागल भिख़ारी खुशी से  नाच उठा।
काफ़िले की कारें आधे पल को रुकीं। अफ़सर की नेमप्लेट देखते हुए, ताकतवर आँखों ने एक बेआवाज़ आदेश दिया गया और काफ़िला अपनी पूर्ववत रफ़्तार पकड़ते हुए ऐसे आगे बढ़ गया जैसे कुछ घटा ही न हो।
''मंत्री जी को किसी ने जूता मारा???''
''मंत्री जी को किसने जूता मारा???''
''किसने???''
लोगों के मोबाइल फ़ोन-कैमरे अंधाधुंध क्लिक होने लगे- किसी को दरअसल कुछ समझ नहीं आ पाया था लेकिन लोक खचाक्-खचाक् हवा की फ़ोटो खींचे जा रहे थे जैसे हवा का चलना ही कोई सनसनीख़ेज ख़बर हो अपने आप में! दो कैमरामैन और दो संवाददाता न जाने कहाँ से प्रकट हुए और प्रकट होते ही इसी ओर दौड़ पड़े लेकिन तब तक गोपाल भाई को पुलिस की जीप के भीतर मुँह के बल दबोचा जा चुका था। बड़े अफसर ने कम बड़े अफसर से कहा,
''मीडिया को इसकी हवा नहीं लगनी चाहिए। कुछ भी अगर उजागर हुआ तो पहला दोषी मैं तुम्हें मानूँगा!''
नौकरी पर आती आँच की गर्मी में पुलिस जीप फरार हो गई और कैमरामैन, संवाददाताओं ने शांति और छाया को घेर लिया जो बच्चोचं के साथ अब सड़क के इस बार आ गहई थीं और सड़क पर अकेली-बिलखती रह गई डॉली को समेटकर यहाँ से जल्द-से-जल्द निकल रही थीं।
''क्या आप लोग उसी आदमी का परिवार हैं? क्या उसे अभी-अभी पुलिस की जीप में ले जाया गया है? बताईये, क्या मंत्री जी पर जूता फेंकने वाला आदमी आप ही के परिवार का है?''
सामने चालू कैमरे हैं। सवालों की झड़ी लगाये संवाददाता हैं। आसपास से खचाक् होते सैंकड़ों फ़ोन-कैमरे हैं; और हैं दर्ज़नों पुलिसवाले जिनकी आँखों के डोरे लाल हो चले हैं, चेहरे तमतमाये। शांति ने रिरियाकर कहा,
''कौन आदमी? हम किसी को नहीं जानते! हम तो अकेली जनियाँ हैं जो अपने बच्चों के साथ घर लौट रही हैं भईया!''
कैमरे हट गये। पुलिस का घेरा टूट गया।
''मैंने मारा मंत्री को जूता। मैंने! मेरे सिवाय और कौन जूता मार सकता है मंत्रियों को! मैं इस देश का राजा हूँ। मैं किसी को भी जूता मार सकता हूँ। आओ, मैं तुम्हें भी एक जूता मारूँगा! आओ! आओ! लेकिन अपना जूता साथ लाना। मैं तुम्हारा जूता ही तुमको मारूँगा क्योंकि मैं तो इस देश का राजा हूँ! राजा हूँ भई राजा हूँ! राजा हूँ भई राजा हूँ! मैं इस देश का राजा हूँ!''
पागल भिख़ारी नाच उठा है।
''जाईये, अब पगलों और भिख़ारियों के भी इंटरव्यू लीजिए। आपके पास बेचने को अब बस यही सनसनियाँ जो बची है!''
एक पुलिस अफसर ऊँची आवाज़ में सुनाता है और बाक़ी सब खाक़ी वर्दियों वाले मोटे शरीर अट्टहास कर उठते हैं। झेंपे हुए मीडियाकर्मी अफवाह और सनसनी के बीच इस क़दर कन्फ़्यूज़ड् थे कि तुरंत वहाँ से निकल लिये। ट्रैफिक खुल गया है। पुलिस अपने कामों पर लौट गई है। अपने घायल बच्चों को समेटे दोनों स्त्रियाँ तेज़ी से वहाँ से भाग रही हैं। उनमें इतना भी हौसला शेष नहीं कि किसी से पूछ ही लेतीं कि पुलिस की जीप गोपाल भाई को कहाँ ले गई है। ये लरकौरी माँयें उन बदहवास हिरनियों की तरह भाग रही हैं जिनके घायल छौने भेडिय़ों की नज़र की हद में हों। भागती छाया ने लवलेश भर समय के लिए पलटकर देखा, सड़क पर गिर गये उसके पापड़ों के ऊपर से सैंकड़ों गाडिय़ाँ गुज़र चुकी थीं - उसकी रोज़ी धूल में मिल गई थी!
ख़बर पाकर, शक्ति पीठ से अम्मा लौट आयीं। बूढ़े-स्थूल शरीर पर सूती सफेद साड़ी, सिर पर पल्ला, माथे पर चंदन, गले में कंठी और चेहरे पर चुप्पी - वे एक आदर्श हिन्दू विधवा का चेहरा लिये आई थीं। वैधव्य एक काल्पिनिक दुक है जिसे निभाने के लिये असामान्य एकान्त चाहिये। जब तक यह असामान्यता उपलब्ध रहती है तभी एक विधवा अपने लिये तय आदर्श मनहूसियत ओढ़े रह सकती है जैसे अम्मा मौन धैर्य को हर पल ओढ़े रहती थीं और शक्तिपीठ में इसी बड़प्पन के लिये सम्मान पाती थीं; पर घर पर जब बच्चों को कलपते देखा, उनका धैर्य जाता रहा और ख़ूब ज़ोर से रो पड़ीं। साथ में सब रोने लगे। अंतत: बूढ़ी ने ही घर भर को ढाँढस बँधाया,
''सब चुप हो जाओ। मेरा बेटा कोई मर थोड़े ही गया है जो रोते हो। मैं थाने जा रही हूँ। शक्तिपीठ से भी किसी को ले जाऊँगी। न मिला गोपू उदर तो कलेक्टर की जनसुनवाई तो कहीं गई नहीं! चिंता न करो। दिन-दो-दिन में आप ही घर आ जायेगा मेटा बेटा। चलो उठो, चूल्हे में आग डालो। बच्चे बाप के जाने से कम, भूख से ज़्यादा बिलख रहे हैं!''
अगले दिन अम्मा बस्ती में किसी से दरख़्वास्त लिखाकर जो सुबह घर से निकलीं तो दिन डूबे लौटीं। बेटे का कहीं पता न चल सका था- बिल्कुल कहीं भी नहीं! पुलिस ने तो बाहर से ही भगा दिया था। जनसुनवाई में कागज़ दे आई थीं।
अम्मा फिर अगले दिन गयीं। फिर अगले दिन। और फिर हर दिन जाने लगीं। सबेरे जातीं तो चिराग जले लौटतीं। पहले थाने और जनसुनवाई जाती थीं फिर किसी की सलाह पर कोर्ट में याचिका लगा कायीं। किसी के सुझाव पर मानव अधिकार आयोग में प्रार्थनापत्र दे आयीं। उस मंत्री से जुड़े विभाग के आला अफसरों के पैरों में गिरकर गिड़गिड़ा भी आयीं। आला पुलिस अफसरान जूतों पर सिर रखकर रिरिया भी आयीं। यों जब बहुत दिन हो चले आने-जाने का किराया-भाड़ा ख़र्च करते-करते, तो एक सुबह वे पैदल ही घर से निकल पड़ीं। शाम को पड़ोसी औरतें बेहोश अम्मा को लटकाये ला रही थीं। उस दिन भर वे पैदल चल चुकने के बाद बस्ती में लौटतीं बेहोश होकर नाली में गिर पड़ी थीं। उन्हें भीषण ज्वर हो आया था और पुरानी दमे की बीमारी फिर उभर आई थी।
यों अम्मा के पन्द्रह दिनों के अनथक प्रयास जब किसी मुकाम तक नहीं पहुँचे तो दिन-दिन भर पति के लौटने की राह तकती छायावती का दिल डूबने लगा। अब तो हर दिन एक भरम था जो हालात का सामना करने से उसे बचाये हुए था। चाँदी के जो दो-चार ज़ेवर थे, घर में जो भी बेचने लायक सामान था, एक-एक कर सब बिका, अभी घर चलाने तो कभी अम्मा किराया जुटाने के नाम पर। अब बेचने को कुछ नहीं बचा। यहाँ उधार भी कौन देगा; सीमा बाहर गई हुई है। छाया का बड़े दिनों से अपने मायकेवालों से अबोला है। विपत्ति की इस बेला में कई संदेश भेजने पर भी जब वे नहीं आये तो अनाथ छाया की हिम्मत नहीं पड़ी भाई-भाभियों के घर जाकर हाथ पसारने की। शांति दो-एक पहचान के घर गई थी उधार मआंगने, एकदम चुप होकर लौटी है। घर के सब प्राणी रात से ही भूखे हैं। श्याम और सूरज तो स्कूल चले गये; वहाँ उन्हें मध्यान्ह बोजन के नाम पर थोड़ा खाना मिल ही जायेगा। लेकिन दोनों बच्चियाँ मारे भूख के अब ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी हैं। अंदर कोठरी में अम्मा अपने अटूट हो चुके जवर में बेसुध सोई हैं। शांति जिन्न की तरह चिपटी हुई है घर के कामकाज निबटाने में। छाया किंकर्तव्यमिूढ़ देहरी से टिकी बैठी है। बुद्धि काम नहीं कर रही क्या करे-क्या न करे! दोनों बच्चियाँ चबूतरे पर पड़ी-पड़ी रो रही हैं पर स्तब्ध छाया और व्यस्त शांति उन्हें सुनकर भी नहीं सुन रही हैं
- भूखी बच्चियों को चुप कराया जाये भी तो क्या कहकर?
- बच्चियाँ रो रही हैं!
- बच्चियाँ रो रही हैं!!
- बच्चियाँ रो रही हैं!!!
और अब उनमें से एक बिल्कुल चुप हो गई है। छोटी लाड़ली लस्त वहीं चबूतरे पर पड़ी रह गई है। शांति लडख़ड़ाती दौड़ती आती है और बच्ची को फैली आँखों से परखने लगती है - साँस अभी तक चलती है। भूख ने अब तक प्राण नहीं हरे हैं। अंदर से गिलास भर पानी ले आई। बच्ची को पिलाना चाहा पर वो पीने को होंठ ही नहीं खोलती! शांति की आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे,
''भाभी!''
उसने इतनी धीमी और करुण आवाज़ में पुकारा कि छाया को लगा, आवाज़ उसके अपने भीतर से आई। हफ़्तों की स्तब्धता, अकर्मण्यता और कायरता क्षण भर में टूट गई - पानी की सतह का अदृश्य तनाव जैसे एक कंकड भर के पड़ते ही टूट जाता है। छाया रोती हुई ननद और उसकी बेहोश शिशु को सम्हाल रही है कि अचानक डॉली का ख़्याल आता है,
''डॉली?? डॉली कहाँ गई??''
वो इधर-उधर देखती है। अंदर-बाहर कहीं नहीं। - मेरी डॉली??
वो यहाँ-वहाँ बदहवास पुकारती है कि तभी सामने से डॉली आ रही है, पैदल नहीं, रफ़ीक र्भा की गोद में।
छाया सिर पर पल्ला लेकर आड़ में हो गई है। शांति अपना दुपट्टा ढूँढ़ती अंदर चली गई है। रफ़ीक भाई चबूतरे के पास आकर गोद से डॉली को उतारते हैं और साथ ही अपना कबाब-परोंठों वाला बड़ा देगचा भी चबूतरे पर रख देते हैं। फिर दूसरी ओर मुँह फिराकर कहते हैं,
''भाभी! ये न समझियेगा कि गोपाल नहीं है तो मैं मदद कर रहा हूँ। गोपाल आज नहीं तो कल आ ही जायेगा। मैं तो बस मौक़ा ताककर, अपना ही बुढ़ापा महफूज़ कर रहा हूँ। जब हाथ-पाँव न चलेंगे और अगर शाहिद मियाँ रोटी न देंगे तो गोपाल ही के चबूतरे पर पड़ा रह सकूँ, बस इसीलिये!''अपने आप में बड़े शर्मिन्दा-से रफ़ीक भाई झट वहाँ से हट गये। शांति ने बड़ी फुर्ती से थालियाँ सजा लीं। लाड़ली को जगाया। डॉली, लाड़ली और शांति तीनों ही टूटकर खाने लगीं। छायावती स्तब्धता से उनके चेहरों को देख रही है।
थाली में परौंठे रख वो भीतर सोयीं अम्मा के लिये ये गई। सोयीं-जागती अम्मा खाने का नाम सुनकर पूछती हैं,
''खाने का इंतज़ाम कहाँ से किया बहू?''
''अम्मा, रफ़ीक भाई दे गये।''
अम्मा की आँखें पूरी खुलीं फिर मुँद गयीं,
''अभी जी अच्छा नहीं है बेटा। तुम लोग खा लो।''
वे खाट पर करवट बदलकर लेट गयीं और अपनी शक्तिपीठ वाली धवल साड़ी से मुँह ढाँप लिया। कोठकरी से सिर झुकाये बाहर निकलती छायावती जानती है, वे रो रही हैं! ...अम्मा का धर्म बचाना होगा; उसके दिल ने उससे बस यही एक बात कहीं उस पूरी रात!
अगली सुबह है। छायावती कल देर शाम अपने बेटों को लेकर, सीमा को देखने गई थी। वो तभी दो-एक घंटे पहले ही लौटी थी। छाया को कुछ रक़म उधार मिल गई।
आज छाया ने अपनी पूर्ण अन्नपूर्णा कला कसौटी पर चढ़ा दी है। 'गोपाल भाई समोसे वाले' की तख़्ती लगा ठेला फिर सज उठा है - छोटू पिज़्ज़ा, छोटू बर्गर, समोसे, समोसियों और पापड़। काम पर जाती छाया के पास दिलासा देने को बड़ी-बड़ी बातें हैं,
''आज की कमाई से आटा, तेल, सब्ज़ी सब लेती आऊँगी। फिर कल से थोड़ा-थोड़ा पैसा बचाना है। मुझे सब पता है; भारत सरकार के $िखलाफ़ केस लडऩा पड़ेगा। मातारानी करेंगी तो डॉली के पापा जल्दी घर आ जायेंगे।''
बीमार-बूढ़ी अम्मा, कमसिन बच्चों और लंगड़ी शांति को झोपड़े के बाहर अपने भरोसे यक़ीन में खड़ा छोड़ छायावती निकल पड़ी है ठेला धकेलते हुए।
रास्ते भर दिल धक-धक करता रहा है। सोचा बहुत उसने कि अपने पति की तरह वो भी पुकारें लगाये करारे सामोसों की लेकिन हलक से आवाज़ नहीं निकली; उल्टा, वो और घबरा गई जब दो-एक शोहदों ने एक अकेली जवान औरत को ठेला धकेलेते देख सीटियाँ बजा दीं, गाने गा दिये। वो लगभग भागने की गति से ठेला धकेलती मिशनरी स्कूल चली आई है... तो क्या ईसाई स्कूल ही अंतिम पनाह है??
वो दूर सामने ईसाई स्कूल नज़र आने लगा है। इतनी दूर से जिस भरोसे के बूते छाया चली आ रही है, एकाएक वो ग़ायब हो गया है। अपनी नीम गहराईयों में वो हमेशा से ये बात जानती है कि राजू पारदी ने नहीं बल्कि किन्हीं और लोगों ने उसके पति पर हमेशा एक दबाव बनाये रखा है धर्म बदलने का। इसी धीमे ज़हर दिनाई से दिन-दिन घुलते गये गोपाल; और इसमें इतना साहस हर्गिज़ नहीं कि इन दबावों में काम कर सके। ...सामने जैसे सुरसा का खुला हुआ मुंह है! अब उसमें जैसे ठेला धकेलने की ताक़त नहीं बची। ठेला पूरी तरह रुका तो नहीं मगर कुछ डगमगाता, बेरफ़्तार होता-सा दिखाई पड़ता है।
ईसाई स्कूल के गार्डों ने दूर से आते ठेले को पहचान लिया है और विशाल लौहद्वार खोला जा रहा है।

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