गोलमेज... नहीं जनाब ,यह तो हिन्दी की पगडंडी है

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    जून-जुलाई 2015
श्रेणी गोलमेज... नहीं जनाब ,यह तो हिन्दी की पगडंडी है
संस्करण जून-जुलाई 2015
लेखक का नाम गजेन्द्र पाठक






'गोलमेज़' पर एक आलोचनात्मक निबंध





जहाँ तक मुझे याद आ रहा है पहली बार अरुण कमल को जे.एन.यू. में देखा था। लाइब्रेरी के पास, केदारजी के साथ। मेरे मित्र अनिल त्रिपाठी ने दूर से चिन्हवाया  था। अनिल ने जब पिछले दिनों अरुण जी के साठ वर्ष का होने की सूचना दी और एक किताब के आयोजन में शामिल होने का निमंत्रण दिया तब एकबारगी मैं चकित हुआ कि क्या हमें युवा लगने वाले कवियों के भी बुढाने के दिन आ गए। फिर अपनी उम्र याद आई और यकीन करना पड़ा कि घडिय़ाँ अलग-अलग भले ही दिखती हों, चलती तो एक साथ ही हैं।
अरुण कमल को दूसरी बार तब देखा जब महाराजा कॉलेज, आरा के पचास वर्ष पूरे होने के अवसर पर कुछ आयोजनों का सिलसिला बन रहा था  मेरा सुझाव था कि अरुण कमल  को बुलाया जाय।  सब ने मेरे प्रस्ताव का समर्थन किया। आज मुझे ताज्जुब होता है कि यह कैसा संयोग था कि महाराजा कॉलेज और अरुण कमल की उम्र लगभग एक ही थी। पचास के कॉलेज के आयोजन में पचास के कवि को आमंत्रित करने का निर्णय ठीक ही था। इसमें एक तीसरा पचास विषय के रूप में शामिल हुआ। अरुण जी से बातचीत करने बाद व्याख्यान का जो विषय तय हुआ था, उसका शीर्षक था : 'पिछले पचास वर्ष की हिन्दी कविता'। अरुण जी आए और अपने साथ विभाग के लिए पच्चीस-तीस किताबों का उपहार भी लेकर आए। यह मेरे लिए, हमारे विभाग के लिए बिल्कुल नया अनुभव था। कार्यक्रम शुरू हुआ और जब उन्होंने बोलना शुरू किया तब थोड़ी ही देर में एक राष्ट्रवादी कहे जाने वाले छात्र संगठन के कार्यकर्ता विरोध में नारे लगाते हुए सभागार के दरवाजे पर थे। बहुत मुश्किल से  उन कार्यकर्ताओं से निवेदन किया गया कि यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है जिससे किसी को कोई खतरा पहुंचे बल्कि यह महज एक साहित्यिक कार्यक्रम है जिसमें एक अध्यापक और कवि को हमने बुलाया है। लेकिन, माजरा कुछ और था। इस कवि की कविताओं से वे कितने परिचित  थे यह तो मैं नहीं कह सकता बल्कि वे इस बात से आहत थे कि  महाराजा कॉलेज, नाम के विपरीत प्रतिरोधी  शक्तियों का केंद्र बनता जा रहा  है । वे 'भोजपुर की आग' को समझने वाले लोग नहीं थे बल्कि, उस आग को जान-बूझकर न समझने वाले और उससे भागने वाले लोग थे। थोड़ी देर में चले गए। मुझे या सबको यह देखकर आश्चर्य हुआ कि अरुण जी इस घटना से बिल्कुल विचलित नहीं थे बल्कि इसके विपरीत  उत्साहित थे। उन्होंने यह स्वीकार किया कि बिहार के किसी भी कॉलेज या विश्वविद्यालय में उनका यह पहला व्याख्यान था। पिछले पचास वर्ष की कविता पर जो उनका व्याख्यान था वह उनकी विश्लेषण क्षमता और राजनीति की समझ का अनूठा उदाहरण था। मुझे आश्चर्य हुआ कि 'गोलमेज' में उनका यह व्याख्यान शामिल नहीं है। शायद, इस बात की जिम्मेदारी सामने की कुर्सियों पर बैठने वाले लोगों की भी हो, जिसमें एक किनारे और पीछे की कुर्सी मेरी भी थी।
मुझे याद आ रहा है कि प्रो. रामशरण शर्मा का  पटना के एक अंग्रेजी अखबार में एक साक्षात्कार प्रकाशित हुआ  था। पत्रकार ने आश्चर्य व्यक्त किया था कि पटना में रहकर वे इतना काम कैसे कर लेते हैं ? रामशरण जी का जवाब था कि, क्यों पटना में क्या खराबी है कि यहाँ रहकर पढ़ा लिखा नहीं जा सकता? बिहार से मजदूरों और विद्यार्थियों के पलायन के साथ जो लंबे समय से वहाँ उदासी थी उसके ठोस कारण थे। आप याद करें कि पटना विश्वविद्यालय की कीमत पर ही दिल्ली विश्वविद्यालय का इतिहास विभाग समृद्ध हुआ था। इस प्रसंग की चर्चा का आशय यही है कि जब सभी इधर-उधर भागने की तैयारी में थे या लगे रहते हैं तब अरुण कमल जैसे कुछ लोगों का पटना में बने रहना मुझे बहुत कीमती लगता है। केदारनाथ सिंह ने कवि कर्म पर विचार करते हुए पलायन की प्रवृति और विडम्बना पर विचार किया था। ज़ाहिर है यह प्रवृति किसी के लिए अवसरवाद से जुड़ी है तो किसी के लिए यातना के रूप में। मुझे यह भी याद आ रहा है कि जब प्रो. एजाज अहमद ने 'इन थ्योरी' में सलमान रुश्दी और वी. एस. नॉयपाल पर विचार किया था, तब  इस तथाकथित  पलायन की  विडम्बना और राजनीति को व्याख्यायित किया था। बहरहाल, अरुण कमल के बहाने मैं यह जानने की कोशिश करता हूँ कि अष्टभुजा शुक्ल, महेश कटारे और तमाम ऐसे कवि-लेखक जो पलायन की आँधी में अपने को बचाकर रख पाए हैं या बच गए हैं ,उनकी रचनाशीलता पर कोई वज्रपात क्यों नहीं हुआ? बहरहाल, यहाँ अरुण कमल की रचना नहीं बल्कि आलोचना की चर्चा होगी और वह भी इस निवेदन के साथ की आलोचना और रचना में फर्क होता है। दो सदियों  के अवसान और उदय के संधि बिंदु  पर आलोचना को विमर्शों में तब्दील करने के आत्मघाती दौर में अरुण जी की किताब यह आश्वस्त करती है कि आलोचना सिर्फ साहित्यिक ही नहीं बल्कि एक सामाजिक जिम्मेदारी भी है। साथ ही यह भी कि ये दोनों जिम्मेदारियां एक दूसरे से किसी प्रकार के रियायत की दूर दूर तक कोई उम्मीद नहीं करतीं।
 'गोलमेज' का जो पहला लेख है, वह कबीर को संबोधित है : 'कबीर के मस्तक पर मोर-पंख' । ध्यान रखिये कि, कबीर के चित्र में  मोरपंख उन्हें कृष्ण बनाने की कोशिश नहीं है। ये पंडित जवाहरलाल नेहरु की कोट पर लगने वाले गुलाब जैसे भी नहीं हैं । अरुण कमल के लिए यह बेहद विचारणीय विषय है कि 'कफ़न' के घीसू माधव उस कठिन घड़ी में कबीर को ही क्यों याद करते हैं ? तुलसीदास  को याद करनेवाले और कबीर को याद करने वालों में फर्क है। उन्हें लगता है कि, ''भारतीय जीवन की त्रासदी का साक्ष्य शायद कबीर के बिना संभव ही नहीं था।'' मृत्यु के प्रसंग में कबीर की कविता में जो बिम्ब हैं, उन्हें याद करते हुए उन्होंने रेखांकित किया है कि वे सारे बिम्ब जीवन की गहरी निस्सारता के नहीं आसक्ति के बिम्ब हैं-
''कबीर भरि मड़हटि रह्या, तब कोई न पूछै सार
 हरि आदरि आगै लिया ज्यों गऊ बछ लीलार!!''
गाय और बछड़ा का बिम्ब जिन्होंने काँग्रेस पार्टी के चुनाव चिन्ह के अलावा भी देखा हो वे इसे समझ सकते हैं। काँग्रेस पार्टी ने इस बिम्ब को अपना चुनाव चिन्ह कैसे बनाया था ,यह तो मुझे नहीं पता लेकिन इस सम्बन्ध की ऊष्मा को आप महसूस करें। यह कैसी विडम्बना है कि मनुष्य समझे जाने वाले लोगों ने पत्थरों और पोथियों पर ज्यादा भरोसा किया जबकि इन पत्थरों को भगवान बनाने वालों और पोथियों की इबारतों को टक टकी  लगा कर देखने वालों की घनघोर उपेक्षा की। जन्म से ही प्यार के लिए जो हूक उठी वह कबीर जैसे कवि के यहाँ आजीवन एक बेचैन तड़प की तरह मौजूद रही। मरने के बाद भी प्यार की यही भूख ईश्वर को गाय के रूप  में तब्दील कर देती है। अपने बच्चे से ऐसा बेइंतहा  प्यार गाय ही कर सकती है । पशुओं की मनुष्यता और मनुष्यों की पशुता को कबीर ने जिस तरह घुमाकर सामने रखा है, वैसा सबके लिए संभव नहीं होता.बताइए भला, ऐसे कवि को आचार्य शुक्ल कवि मानने को तैयार ही नहीं थे। आश्चर्य नहीं कि, कविता क्या है निबंध में उन्होंने  जो पशु विरोधी टिपण्णी की उसमें यह सोचने की  जरुरत ही नहीं समझी कि पशुओं को कविता की जरुरत भले ही न हो उनमें मनुष्य से भी ज्यादा मनुष्यता है।  मृत्यु के भय के आधार पर सारे धर्मों की खेती चलती है.कबीर इस भय की जगह वात्सल्य प्रेम का जो विकल्प प्रस्तुत करते हैं उससे मृत्यु और जीवन के बीच सदियों से  खड़ी की गई भुतही दीवार भरभरा कर गिर जाती है। उसी दीवार की कब्र पर प्यार के बिरवे का नाम कबीर है... ढाई आखर प्रेम का -जिसे न टीका युग के पंडित समझ पाए और न ही  इक्कीसवीं सदी के ज्ञानी। अरुण कमल के लिए इन बिम्बों की कीमत बहुत ज्यादा है क्योंकि, ''कविता में जीवन की निस्सारता तथा मृत्यु के ऐश्वर्य के चित्र भी जीवन के प्रति लालसा ही उत्पन्न करते हैं क्योंकि जो बिम्ब आते हैं वे साक्षात् भौतिक जगत के एवं  इन्द्रियों द्वारा गृहीत होते हैं। लेकिन कहीं भी चिंतन तथा काव्य में कोई फांक नहीं दिखाई देती- ''ताँता लोहा यूँ मिले, संधि न लखई कोई।''
अरुण कमल ने मुक्तिबोध की ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान की पद्धति को कबीर के कवि कर्म के विश्लेषण में अक्षम पाया है। विद्यापति जिस जीवन और श्रृंगार के कवि थे उस श्रृंगार और उत्सव की पृष्ठभूमि से हम परिचित हैं। जिस जीवन को झूठा और निरर्थक सिद्ध करने में कोई कसर ज्ञानियों ने नहीं छोड़ी थी उसमें विद्यापति जैसे कवि का इस जीवन में विश्वास और भरोसा कायम करने के लिए श्रृंगार का उद्घाटन एक ऐतिहासिक कार्य था। इसलिए वे युग प्रवर्तक सिद्ध हुए। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उन्हें फुटकल खाते में रखा था लेकिन जब वे सूरदास के पास आए तब उन्हें पता चला कि विद्यापति के बिना सूरदास का मूल्यांकन संभव ही नहीं था- ' मुरझाया हुआ मन', जो मिथिला में भी था और ब्रजभूमि में भी था। यह मुरझाया मन सिर्फ मिथिला या ब्रजभूमि तक सीमित नहीं था। पद्मावत में  आप याद करें कि काशी और प्रयाग में जीते जी मोक्ष प्राप्त करने के लिए लोग आत्महत्या को धर्म के नाम पर महिमामण्डित किए हुए थे। जायसी ने इस आत्महत्या के पीछे जो बैकुंठ की कामना देखी थी तो यह कहने का साहस किया था कि इसी धरती का प्रेम, मानुष प्रेम ही उन्हें बैकुंठ के बराबर  लगता है, मुझे कई बार लगता है कि बौद्ध धर्म में भिक्षु संस्कृति और हिन्दू धर्म में सन्यासी वृति दोनों ने एक ऐसा वातावरण बनाया था कि सांसारिक सामान्य मनुष्य के आत्म सम्मान  के लिए कोई गुंजाइश  ही नहीं बची थी। हमारे संत कवियों ने अपनी कविताओं के माध्यम से इस सामान्य-जन और उसके जीवन को और उस जीवन से जुड़े देश की चिन्ता की थी। आध्यात्मिकता और पलायन की आंधी को रोककर देश को अलौकिक से लौकिक धरातल पर लाने का ऐतिहासिक  प्रयास भक्ति  कविता ने ही किया था । कार्ल मार्क्स यदि कविता को मनुष्यता की मातृभाषा मानते थे तो मैं यह जोडऩा चाहूँगा कि इसकी शुरुआत हिन्दी में कबीर से होती है।
अरुण कमल ने यह रेखांकित किया है कि कबीर की कविता में जो  मृत्यु की छाया दिखाई पड़ती है, वह कितनी लंबी और गम्भीर है।एक बार ट्रेन में एक ज्ञानी मिले और कहने लगे कि विद्यापति यदि जीवन के श्रृंगार के कवि हैं तो कबीर मृत्यु के श्रृंगार के कवि हैं। उनसे बहस करना मैंने ठीक नहीं समझा। ज्ञानियों से बहस हमेशा ज्ञानपरक ही नहीं होतीं। अरुण जी ने कबीर की कविता में मृत्यु का जो समाजशास्त्र देखा है वह उन जैसे ज्ञानियों का उत्तर है। सारे धर्मों की खेती मृत्यु को लेकर है। कबीर इस मृत्यु को भय नहीं प्रेम से जोड़कर धर्म का जवाब कविता से देते हैं। विद्यापति ने भी यही किया। सूरदास ने भी यही किया था और जायसी ने भी यही किया था, अपनी-अपनी तरह से।
'गोलमेज' का दूसरा लेख जिसने मुझे आकृष्ट किया वह 'भिखारी ठाकुर - भिखारी से भीख' है। जिन्होंने केदार जी की कविता पढ़ी है, भिखारी ठाकुर से सम्बंधित या संजीव का 'सूत्रधार' पढ़ा है वे भी और जिन्होंने नहीं पढ़ा है वे भी इस लेख को पढ़ें तो इस बात से चकित हो सकते हैं कि जो अपनी माँ को माताश्री न कहकर 'माई रे' कहने वाले लोग हैं वे ही भिखारी ठाकुर को 'भिखरिया' कहते हैं। यह संबोधन प्यार का हद से गुज़र जाना है। भिखारी ठाकुर की रचनाओं में हिन्दी का आना अरुण कमल के लिए झटका लगने की तरह है; क्योंकि उनके नाटकों में, ''प्राय: किसी शहराती लोगों या कृत्रिम अथवा बुरे चरित्र के, जैसे वह साधु जो ठग है, हिन्दी बोलता है।'' हिन्दी से बोलियों के रिश्तों का यह एक भिन्न धरातल है जिस पर लोग जान-बूझकर पर्दा डालने की कोशिश करते हैं। भिखारी ठाकुर के नाटककार रूप और उनके कवि रूप के आन्तरिक रिश्ते पर भी इस लेख में विचार हुआ है- ''यह सही है कि कई बार उनके नाटकों में चरित्र बहुत उभर कर सामने नहीं आते क्योंकि उनका स्वभाव गीतात्मक है। उनके सोचने का तरीका भी मूलत: एक कवि का तरीका है। मुझको लगता है कि बिना पद्य या कविता के नाटक अधूरा होता है। उसमें वह शक्ति नहीं होती जो काव्य-नाटकों में होती है क्योंकि कविता द्वारा जो सान्द्रता, जो घनत्व संभव है वह बाहर छूट जाता है। कविता जीवन के ताड़वृक्ष पर ऊपर टंगी लबनी है, जिसमें सारा रस इकठ्ठा होता रहता है।''
बहरहाल, इस किताब में कबीर के बाद जो दूसरा लेख है वह निराला  पर है। यह क्रम लेखक की प्राथमिकता के साथ कवि अरुण कमल के रचनात्मक बनावट और बुनावट की तरफ भी संकेत करता है। इस लेख की शुरुआत ही इन वाक्यों के साथ होती है- ''निराला की कविता हमारा अतीत भी है और भविष्य भी। निराला की कविता नहीं होती तो आज हिन्दी की जो कविता है, जिस रूप में है, वह नहीं होती। यह निर्विवाद है कि हिन्दी का एक कवि जिसने आगे की समूची कविता का नक्शा तय किया, वह निराला है। इसलिए निराला हमारे अतीत हैं और भविष्य भी। बहुत बार निराला का प्रभाव, निराला का होना, बहुत स्पष्ट नहीं दिखाई देता, लेकिन जैसे कागज में पानी की छपाई होती है, जो रोशनी में ही रखने पर दिखाई देती है, वैसे ही निराला के बाद की तमाम कविता है।''
निराला को अरुण कमल हिन्दी ही नहीं दुनिया के गिने-चुने आलोचकों में मानते हैं। कवि और आलोचक दोनों कितना जरुरी है इस बात का इल्हाम उन्हें निराला का लेख: 'विचार कविता का ज्ञानपक्ष' में होता है। निराला का यह कहना कि, ''हिन्दी का और भी विकास हुआ होता, अगर यहाँ कविता के सम्बन्ध में विचार करने की नयी-नयी सरणियाँ होतीं।'' निश्चय ही काव्य-बोध ही नहीं उनके व्यापक जीवन-बोध के मूल्य हैं। निराला के कवि रूप को उन्होंने  ग़ालिब की नज़्म 'कतरे में दजल : दिखाई न दे' से समझने का प्रयास किया है। निराला के सन्दर्भ में  ग़ालिब की याद कोई नई चीज़ नहीं है। एक बार मैंने केदार जी से 'पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है' की चर्चा की। उन्होंने बताया कि यह कविता  ग़ालिब से प्रेरित और प्रभावित है- 'हूँ मैं  वो सब्जा कि जहराब उगाता है मुझे'। उन्होंने यह भी बताया था कि कम शब्दों में महाकाव्य की सम्भावना पैदा करने की कला कोई  ग़ालिब से सीखे या फिर निराला से। उनका मानना था कि निराला ने यह कला निश्चित तौर पर ग़ालिब जैसे कवियों से ही सीखी होगी। अरुण कमल ने निराला की इसी विशेषता को जोर देकर रेखांकित किया है- 'बाँधो न नाव इस ठाँव बंधु' की उनकी यह व्याख्या उल्लेखनीय है- ''बहुत छोटी सी कविता है  क्योंकि इसका प्रभाव फलक एक महाकाव्य की तरह का है। एक बहुत लंबी कविता इसमें समाई हुई है, जो धीरे-धीरे खुलती है। इसी से जुड़ा हुआ दूसरा सवाल यह पैदा होता है कि निराला यह काम कैसे करते हैं? इतनी छोटी जगह में इतनी सारी बात कैसे कहते हैं? और तब मुझे लगा कि निराला के जो शब्द होते हैं, भवभूति का बिम्ब लेकर कहें तो उनके शब्द अंकुरित होते हैं।'' शब्दों का यह अंकुरण ध्यान देने लायक है। एक शब्द की अर्थ-ध्वनियाँ एक वृक्ष बनने की प्रक्रिया से जुड़ी हुई हैं। एक कवि ही अपने पूर्वज और अग्रज कवि की इस बारीक विशेषता को समझ सकता है। जैसे एक किसान ही दूसरे किसान की भाषा को समझ सकता है। निराला से जो उन्होंने दूसरी बात सीखी है वह यह कि एक शब्द पूरी कविता में दूसरे से गुंथे हुए हों। गझिन बुनावट। एक धागा निकले तो दूसरा धागा दरकने लगे। निराला के कुछ अद्भुत अर्थ-बिम्बों की चर्चा इस लेख में मौजूद है। मसलन-
''ढेले गडऩे वाले थे/ धुल गये''
और विजयलक्ष्मी पंडित को सम्बोधित कविता का यह अंश-
''जैसे बहुत प्यासे को पानी लग जाये, ऐसा मुझे लगा तुझे देखकर।''
अरुण जी का मानना है कि ''एक साधारण अनुभव को इतनी उदात्तता तक उन्होंने पहुँचाया है। और ऐसे कि जैसे उनके राडार लगातार खुले होते हैं। कुछ भी ओझल नहीं होता, सब कुछ को वह समेटते हैं।''
अरुण कमल ने इस किताब के माध्यम से हिन्दी साहित्य के इतिहास को समझने का प्रयास किया है। इतिहास लेखन निश्चित तौर पर एक जटिल प्रक्रिया है, यह बात चकित करती है कि कबीर के बाद उन्होंने जिस काव्य-युग का चुनाव किया है वह छायावाद है। वही छायावाद जिसे अपने समय के सबसे बड़े आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल नहीं समझ पाए थे। अरुण जी ने निराला के आलोचक रूप की जिस महती विशेषता का विश्लेषण किया है, उससे यह ध्वनि निकलती है कि कविता की आलोचना की समझ शुक्ल जी से निराला की कम नहीं थी बल्कि ज्यादा थी। हालाँकि, उन्होंने शुक्ल जी का नाम नहीं लिया है परन्तु निराला और शुक्ल जी के सम्बन्ध से हम परिचित हैं और उस सन्दर्भ की छाया इस लेख पर दिखाई पड़े तो कोई आश्चर्य भी नहीं।
इस कड़ी में जो अगला लेख है वह पन्त जी को सम्बोधित है । पन्त जी की जो सबसे बड़ी विशेषता उन्होंने रेखांकित की है, वह उनकी जन-चेतना से जुड़ी हुई है। हालाँकि, यह भी गौर कीजिए कि शुक्ल जी पन्त जी के मुरीद थे लेकिन इन कारणों से नहीं। मुक्तिबोध के पन्त पर लिखित निबंध को उन्होंने उद्धृत किया है- ''एक पन्त जी ही हैं (निराला के अतिरिक्त) जो अपनी विशुद्ध ऐतिहासिक अनुभूति के फलस्वरूप जनता के साथ हैं।'' एक कवि का जनता के साथ होना, जो प्रकृति के साथ होने के कारण कुछ लोगों के प्रिय थे तो कुछ लोगों के लिए अप्रिय भी, मायने रखता है।
'पल्लव की भूमिका' में पन्त जी ने काव्य-भाषा के लिए जिस राष्ट्रभाषा का महत्व समझा था वह किन ऐतिहासिक परिस्थितियों की देन थी उससे हम परिचित हैं। अरुण कमल के लिए पन्त जी के महत्व का एक दूसरा प्रमाण 'मैला आँचल' के शीर्षक के रूप में भी दिखाई पड़ता है। पन्त जी से रेणु के भीतर-भीतर बहती इस धारा को वे महज एक संयोग ही नहीं मानते। पन्त जी की जो बात उन्हें सबसे ज्यादा प्रभावित करती है उसका एक खास कारण उनकी निर्भीकता और बौद्धिक दृढ़ता भी है। लिखते हैं कि ''पल्लव की भूमिका से लेकर अपने अंतिम निबन्धों तक उन्होंने अपने सौम्य स्वभाव के विपरीत निरंतर विरुद्ध भावों, विचारों तथा सौंदर्यबोध पर आक्रमण किए। कोई रियायत न की, न ही कोई क्षमादान किया। अपने आदर्शों तथा मूल प्रतिज्ञाओं से इतनी दृढ़ता से प्रतिबद्ध रह कर ही वह इतनी लम्बी अवधि तक कवि-कर्म से सन्नद्ध रहे।''
'छायावाद' पर पुनर्विचार की कोशिश में इस किताब में यह बात ध्यान देने लायक है कि वे पन्त के मूल्यांकन में आचार्य शुक्ल को आधार न मानते हुए मुक्तिबोध के पास जाते हैं। शायद मुक्तिबोध की आलोचना-दृष्टि के प्रति गहरी आश्वस्ति ही उन्हें जयशंकर प्रसाद पर लिखने से बचाती है। जिस 'कामायनी' और प्रसाद पर मुक्तिबोध ने काम किया हो उस पर बात करने की जरुरत अरुण कमल नहीं समझते। लेकिन जिस महादेवी वर्मा को शुक्ल जी ने हल्के ढंग से लिया था उन पर विचार करना आवश्यक समझते हैं।
   
छायावाद के कवि जिन कारणों से अरुण कमल को आकृष्ट करते हैं, उनमें उनका आलोचक और चिन्तक रूप प्रमुख है। महादेवी वर्मा पर विचार करते हुए उन्हें यह बात विशेष रूप से प्रभावित करती है कि ''छायावाद के इन चार कवियों का सृजन तो महान है ही, उनका चिंतन और आलोचनात्मक विवेक भी महान है। भारतीय दर्शन और काव्य की ऐसी गहरी समझ बाद में विरल होती गई। एक बार फिर मुझे लगता है कि बड़े विचारशील मस्तिष्क के बिना बड़ी कविता भी संभव नहीं।'' महादेवी वर्मा पर अरुण कमल के लेख का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि आचार्य शुक्ल से लेकर प्रो. दूधनाथ सिंह जैसे आलोचकों ने उनके महत्व को 'रिड्यूस' करने का प्रयास किया है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में मीरा के सैकड़ों वर्षों बाद उन्हीं की प्रेरणा से कोई स्त्री यदि कविता और लेखन के क्षेत्र में आती है, तो यह हिन्दी के लिए उत्साह और स्वागत का विषय होना चाहिए था। स्त्रियों की आवाज़ से हिन्दी के लोगों का डरना हिन्दी के सामंती ढाँचे का परिणाम है। ऐसी परिस्थिति में महादेवी की दृढ़ता अरुण जी को प्रभावित करती है। महादेवी का यह कहना कि ''मुझसे जहाँ ठहरा गया वहाँ मैं ठहरी। मैंने प्रयत्न भी नहीं किया कि लोग मुझे प्रगतिशील मानें या न मानें। यह चिन्ता मैंने कभी नहीं की। इसी तरह से प्रयोगवादी आन्दोलन आया तो उसमें भी मैंने चिन्ता नहीं की।... मैं वहीं कहती रही हूँ जो मैंने कहा। एक ही दिशा है।'' यह दृढ़ता का प्रमाण है। महादेवी का यह कहना कि, ''रहस्यवाद आत्मा का गुण है, काव्य का नहीं है।'' अरुण जी के लिए बेहद कीमती वक्तव्य है। छायावाद में रहस्यवाद के आरोपों का खंडन करने का यह महादेवी का अपना रास्ता था। उनका यह कहना कि ''हम पौराणिक राम को नहीं जानते, तुलसीदास के राम को जानते हैं।'' यह भी उनकी साहित्यिक समझ का परिणाम है। यही नहीं रामकाव्य परम्परा में वाल्मीकि के ऐतिहासिक योगदान को वे देवताओं के ऊपर मनुष्य की विजय मानती थी और वेदों में दादुर, श्वान आदि छोटे-छोटे जीव जंतुओं के वर्णन के आधार पर ही वे इस निष्कर्ष पर पहुँच पाई थीं कि ''साधारण चरित्रों को प्रमुखता मिलना अधिक सामाजिक विकास और विस्तृत दृष्टिकोण की अपेक्षा रखता था।'' यही दृष्टि 'घीसा' जैसे चरित्रों के प्रति महादेवी के भीतर  करुणा और सृजन की भावभूमिका विस्तार करती है। महादेवी के भीतर जिस महामानव का दीदार इस किताब में मिलता है, वह हिन्दी आलोचना का एक ऐसा धरातल है जिस पर जाने की जरुरत कम लोग समझते हैं।
महादेवी वर्मा के बाद जिस रचनाकार पर इस किताब में विचार हुआ है, वे सुभद्राकुमारी चौहान हैं। यह एक महज संयोग नहीं है। महादेवी और सुभद्राकुमारी चौहान पर एक साथ विचार करने की कोशिश कम हुई है। सुभद्रा जी पर मुक्तिबोध और शमशेर दोनों ने लिखा है। अरुण जी ने मुक्तिबोध के लेख से उद्धरण भी दिया है। उनका यह कहना ठीक लगता है कि अपनी कविता में और कहानियों में वे क्रमश: देश और स्त्री की स्वतंत्रता और उसके विभिन्न पहलुओं पर बात करती हैं। कविता में देश और कहानी में स्त्री। यह थोड़ा चकित करने वाला प्रसंग है, लेकिन मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो उनकी जन-साधारण मानवीयता अन्य तथाकथित राष्ट्रवादियों से उन्हें अलग क़तार में खड़ा करती है। अरुण कमल का उनके सन्दर्भ में इस निष्कर्ष पर पहुँचना उचित ही है कि, ''भारतीय काव्य में राष्ट्रीय स्वातंत्र्य आन्दोलन के जो अग्रणी स्वर हैं उनमें सुभद्राकुमारी चौहान का स्वर भी है। लेकिन उनकी कविता उस आन्दोलन की चेतना का संवाहक मात्र नहीं है बल्कि उसे विस्तार और गहराई देती है और आज भी स्वाधीन भारत में भी हमारी चेतना को मुक्ति की नयी आकांक्षा से उद्विग्न कर देती है। उनका महत्व केवल ऐतिहासिक नहीं, सर्वकालिक है।''
गोलमेज में नेमिचंद्र जैन, मलयज, केदारनाथ सिंह, कुँवर नारायण, राजेश जोशी, चिरंजीव दास, राय शर्मा, जीवन, पाब्लो नेरुदा, कविता के नए प्रतिमान अदि के बहाने न सिर्फ हिन्दी का ज्ञात-अज्ञात दुनिया का एल्बम है बल्कि उसमें वे तस्वीरें भी हैं जिन्हें हिन्दी संसार ने हमेशा के लिए गले लगाया है। नेरुदा जैसे कवि इन्हीं लोगों में से हैं- ''आज नेरुदा नहीं हैं। पर उनकी कविता है। उनकी वो अधूरी लड़ाइयां हैं। सपने हैं। पेड़, जंगल. फूल, फल और एंडीज पर्वत और समुद्र और करोड़ों-करोड़ लोग हैं।''
'कविता के नए प्रतिमान' पर उनका यह निष्कर्ष भी गौरतलब है- ''कविता के नए प्रतिमान हिन्दी आलोचना में एक ऐसी पुस्तक है जो केवल अपने समय की कविता के पक्ष में नहीं, वरन् सभी श्रेष्ठ कविता के पक्ष में उठा हुआ हाथ है।'' इस किताब के परिशिष्ट में शामिल 'अँधेरे में - परम अभिव्यक्ति की खोज' तथा 'अँधेरे में - पुनश्च' को वे पूरी पुस्तक का सत्त् मानते  हैं : ''प्रतिमानों का व्यवहार में बर्ताव ये आज भी उतने ही नए हैं।''


जिस निबंध के आधार पर इस पुस्तक का नामकरण हुआ है, वह मलार्मे के एक उद्धरण से शुरू होता है- ''भाषाओँ की बहुलता उनकी अपूर्णता में निहित है।'' 'गोलमेज' में सहित्य के संसार में अनुवाद की भूमिका का विश्लेषण करते हुए अरुण कमल ने विश्व सहित्य का ऐसा वृत्त बनाया है जिसमें नागरिकता की पहली शर्त अनुवाद की संस्कृति है। अनुवाद के ऐतिहासिक और सर्वकालिक योगदान को रेखांकित करते हुए उन्होंने 'अंधेर नगरी' (भारतेंदु) 'गबड़घिचोड़' (भिखारी ठाकुर) और 'खडिय़ा का घेरा' (ब्रेख्त) के बीच एक अद्भुत साम्य देखा है- ''इससे लगता है कि जीवन और लोक में अपनी जड़ें होने के कारण ही इन तीन परस्पर अपरिचित एवं तीन भिन्न कालखण्ड के लेखक एक दूसरे के इतना निकट लगते हैं।'' अरुण जी इसे किसी केन्द्रीय  सम्बन्ध का परिणाम मानते हैं। बोदलेयर और ओक्तोवियो पाज को उद्धृत करते हुए उन्होंने कवियों की सांस्कृतिक अनुवादक की भूमिका को रेखांकित किया है। इसी सन्दर्भ में उन्होंने एजरा पाउंड के उस ऐतिहासिक योगदान को भी रेखांकित किया है जिसमें उन्होंने चीनी कविता के अनुवाद के जरिये अमेरिकी कविता की दिशा और दशा को प्रभावित कर दिया। अनुवाद के जरिये साहित्यिक इच्छाएं ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक और राजनीतिक आकांक्षाएँ भी अभिव्यक्त होती हैं। इसका प्रमाण भारतीय नवजागरण के क्रम में अनुवाद की भूमिका के रूप में देखा जा सकता है। अरुण जी ने भारतेंदु के नाट्य लेखन में अनुवाद की इसी भूमिका को पहचाना है। अनुवाद की भूमिका का विश्लेषण करते हुए उन्होंने लिखा है कि ''चीनी, वियतनामी कोरियाई और इण्डोनेशियाई तथा जापानी कविताएँ यूरोपीय कविताओं की तुलना में ज्यादा सहज ग्राह्य एवं आत्मीय हैं, शायद अधिक भौगोलिक एवं सांस्कृतिक निकटता के कारण। तुलनात्मक रूप से देखने पर लगता है कि एक भारतीय कविता है, एक एशियाई कविता भी और जाहिर है एक विश्व कविता भी। अनुवाद सहित्य के जरिये ही प्रेमचंद, गोर्की और लू शुन का तुलनात्मक अध्ययन इतने बड़े पैमाने पर हुआ। भारतीय भाषाओं के आरंभिक अनुवादों को पढ़कर ही लगा कि 'भारतीय उपन्यास' जैसी कोई अवधारणा संभव है, जो पाश्चात्य अवधारणा से भिन्न होगी।''
अनुवाद के संसार में संवाद और लोकतंत्र की भूमिका का स्थायी महत्व होता है। मीनाक्षी मुखर्जी ने बहुत पहले यह सवाल उठाया था कि बांगला से हिन्दी में इतने अनुवाद हुए लेकिन हिन्दी से बांगला में इसकी तुलना में कुछ नहीं हुआ। जाहिर है एक दूसरे को समझने की प्रवृति और जिज्ञासा ही अनुवाद के मंगलाचरण है। अगर यह प्रवृत्ति और जिज्ञासा किसी भाषा को बोलने वालों के पास नहीं होगी तो स्थिति उदासीन होगी। अरुण जी ने इस सन्दर्भ में एक अलग तरह से विचार किया है। अनुवाद की घटना को वे इस रूप में देखते हैं कि, ''भाषा के जनतंत्र में न तो कोई बड़ा है और न कोई छोटा। प्रत्येक श्रेष्ठ रचना सम्पूर्ण मानव जाति की साझी संपत्ति है। केवल कुछ लाख लोगों द्वारा बोली जाने वाली अवार भाषा के लेखक रसूल हमजातोव की पुस्तक 'मेरा दागिस्तान' अनेक भाषा में अनूदित होकर आज विश्व पुस्तक बन चुकी है।''
उन्होंने एक दिलचस्प तस्वीर खींचते हुए यह बताया है कि दुनिया के सभी बड़े लेखक एक गोलमेज के किनारे बैठे हुए एक दूसरे की रचनाओं में ताक-झाँक कर रहे हैं, उलझ भी रहे हैं और जरुरत पडऩे पर पीठ भी थपथपा रहे हैं, ''यानी अनुवाद सहित्य ने सभी साहित्यों को प्रगट करने एवं उसे दूर करने का काम किया है। हर भाषा की अपूर्णता को प्रगट करने एवं उसे दूर करने का काम।'' समकालीनता के प्रश्न और कविता पर उनकी यह टिपण्णी उल्लेखनीय है : ''कोई कृति केवल एक बार ही रची जा सकती है और उसकी समकालीनता जिसने उसे वह रूप विधान दिया है कभी उसका साथ नहीं छोड़ेगी। कालजयी कृतियों के अनेक जन्म-पुनर्जन्म होते हैं, लेकिन वे कभी भी अपना पहला जन्म नहीं भूलतीं जो कि उसकी समकालीनता है।''
गोलमेज में एक बेहद दिलचस्प आलेख है जिसका शीर्षक है : 'हिन्दी समाज में सहित्य और साहित्यकार की स्थिति'। इस लेख की शुरुआत में ही उन्होंने 'कन्फेशन ऑफ ए ठग, में वर्णित अवध्यों की सूची में कोढ़ी और विकलांग के साथ कवि के शामिल होने को लेकर चिंता प्रकट की है। बोर्खेज ने भी इस किताब के 100 साल पूरे होने पर 1938 में प्रकाशित संस्करण की समीक्षा करते हुए इस पूरी सूची को उदृत किया था। कवि की यह छवि और वह भी यूरोप में चिंतनीय है। मुझे रामविलास जी की एक बात याद आ रही है। जिसमें उन्होंने कवियों की परम्परागत छवि का उल्लेख किया था। उन्होंने पुराने भारत में देवताओं के साथ कवियों का उल्लेख किया था और इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया था कि इंद्र, वरुण आदि देवता भी कवि माने जाते थे। बहरहाल यह एक भिन्न प्रसंग है और यहाँ चिंता यह है कि जैसा देश हमने बनाया है उससे साहित्यकार सत्ता के लिए कोई खतरा या चुनौती नहीं है, यह एक वाजिब चिंता है कि ''अगर अंग्रेज हुकूमत प्रेमचंद की पहली किताब जब्त करती थी इसमें एक गौरव था। उन्हीं प्रेमचंद की किताब आज की 'स्वदेशी' सरकार उठा कर कूड़ेदान में  फेंक देती है और इसको लेकर पूरे हिन्दी समाज में कोई चूं तक नहीं होती, लेखकों पत्रकारों के कुछ एक प्रतिवाद अपवादों को छोड़ दें। तो इसका मतलब यह है कि हमारी सत्ता साहित्य को और साहित्यकार को जरा भी महत्व के योग्य नहीं मानती। क्योंकि हमारा हिंदी समाज स्वयं उन्हें कोई महत्व नहीं  देता। साहित्य और साहित्यकार के प्रति यह जो दृष्टि है वह कमोवेश हर जगह एक जैसी ही है। साधारण मध्यवर्ग जो तुलसीदास को धर्म के नाम पर ही सही कभी पढता था वहां से वह धीरे-धीरे बाहर हो रहे हैं। अकादमिक दुनिया में विश्वविद्यालयों की परिधि में साहित्य के विभागों और उसके विद्यार्थी और अध्यापकों के प्रति जो दृष्टि होती है उससे हम अपरिचित नहीं हैं। राज्यों की विधान परिषदों में लेखकों, साहित्यकारों के लिए आरक्षित स्थानों पर यदि अपराधी मनोनीत हों तो यह आश्चर्य का विषय नहीं होना चाहिए । जाहिर है यह एक बड़ा प्रश्न है और ऐसे प्रश्नों के जवाब किसी पर दोषारोपण कर के नहीं पाए जा सकते। अरुण जी ने इस प्रसंग में रुसी समाज में आये बदलावों के माध्यम से साहित्य और जनता के पारस्परिक परिवर्तित स्वरुप पर विचार किया है। जिसमे राजनीति की भूमिका बहुत बड़ी होती है- ''तीन-चार साल पहले रुसी भाषा के कथाकार रास्पुटिन भारत आये थे। साहित्य अकादमी में व्याख्यान देते हुए कहा कि विश्वास नहीं होता कि अभी हाल तक रुसी समाज पुस्तक प्रेमी समाज था। अभी हाल तक सबसे ज्यादा भीड़ किताब की दुकानों पर होती थी। लेकिन जबसे सोवियत संघ टूटा, वह पाठक समाज भी समाप्त हो गया, आज वहां के समाज में रुसी साहित्य और साहित्यकारों का वह स्थान  नहीं है जो पहले था । यहाँ कहा जा सकता है कि सोवियत समाज में भी विरोध पक्ष के लेखकों को दंड भोगना पड़ता था, उनकी किताबें प्रतिबंधित होती थीं इत्यादि। लेकिन इससे यह भी पता चलता है कि उस समाज में साहित्य और साहित्यकारों को बेहद गंभीरता से लिया जाता था, जो अब नहीं है।  सोल्जेनित्सिन आज कहाँ किस हाल में हैं, कोई नहीं जानता। येव्तुशेंको अमेरिका में पढ़ा रहे हैं, रुसी लेखक पैसे-पैसे को मोहताज हैं? क्या यही स्थान था रुसी समाज में लेखकों का?''
अरुण जी ने इस बात पर चिंता प्रकट की है कि हिंदी में ही नहीं इंग्लैंड में भी कविता की 500 या 1000 से अधिक प्रतियां कोई प्रकाशक छापने की जरुरत नहीं समझता। यही नहीं अपने देश में अब कोई लेखन की बदौलत अपना पेट नहीं पाल सकता। जिस भाषा को बोलने वाले करोड़ों लोग हों उस भाषा में लेखन के बल पर कैरियर के लिए किसी संभावना का न होना कितना दुखद है। यह एक भयानक सच है। अरुण जी का कहना अच्छा लगता है कि ''सबसे अच्छा समाज तो वो है जहाँ लेखक का स्थान उसके लेखन से बनता हो, जहां उसकी रचना के कारण पाठकों के दिल में उसकी जगह हो, जहां अप्रिय और कटु बोलकर भी लेखक निर्भीक और सम्मानित रहे। लेकिन ऐसा न भी हो तो कम से कम यह लगे कि वह जो कह रहा है, उसे कोई सुन रहा है और उसपर, उसके हर शब्द पर, नजर रखी जा रही है। ठगों की नजर में अवध्य होने से अच्छा है सत्ता की नजर में वध्य होना और समाज में ऐसा स्थान हासिल करना कि जब लेखक बोले तो शहर का सारा यातायात थम जाए।'' जाहिर है हिंदी में यह काम अभी बाकी है और इसके लिए शायद लम्बा इन्तजार करना पड़े ।
'गोलमेज' में आलोचना का एक नया रूप उसके शीर्षक में दिखाई पडऩा शुरू हो जाता है। यह शीर्षक है : 'पारचून'। थोक के भाव में खरीददारी के लिए शापिंग मॉल की और भागने वाली भीड़ के बीच आलोचना का यह 'पारचून' विचारणीय है। इसे आलोचना का मुक्तक भी कहा जा सकता है। बड़े-बड़े आलोचना प्रबंध लिखने से बेहतर है आलोचना का यह 'पारचून' क्योंकि यहाँ जॉन ड्राईडन की तरह सूक्तियों के माध्यम से जीवन और रचना की एक बड़ी परिधि के बीच व्यास खींचने की कोशिश दिखाई पड़ती है। 'पारचून' की प्रारम्भिक टिप्पणियों में ही अरुण कमल आचार्य शुक्ल से टकराते हैं। सभ्यता के साथ कवि कर्म की मुश्किलों के बढ़ते जाने की अवधारणा को वे सरलीकरण का शिकार सिद्धांत घोषित करते हुए यह स्थापित करते हैं कि कवि-कर्म अपने प्रारम्भ से ही एक मुश्किल कार्य रहा है। उनका मानना है कि ''कविता का इतिहास बताता है की हर युग की श्रेष्ठतम कविता उस युग की सर्वाधिक संश्लिष्ट एवं घूर्णों भरी जीवन स्थितियों तथा अंतर्विरोधों से जूझते हुए रची गई, चाहे वह रामायण हो या महाभारत या कबीर या तुलसी अथवा निराला या मुक्तिबोध। कविता ने, श्रेष्ठ कविता ने कभी आसान रास्ता नहीं चुना। वह  हमेशा दुर्गम की राह चली। कवि-कर्म कठिन बनाया। सभ्यता का विकास कोई आज की चीज नहीं है। वह एक प्रक्रिया है।''
आचार्य शुक्ल के निबंध 'कविता क्या है' को याद करें और अरुण जी की इन काव्य सम्बन्धी मान्यताओं पर विचार करें। पूंजीवाद के विकास क्रम के एक लम्बे अंतराल के बावजूद कविता के प्रति यह भरोसा जिस बात की ओर संकेत कर रहा है उधर ध्यान देने की जरुरत है। कविता की प्रक्रिया या काव्य प्रक्रिया पर विचार करते हुए उन्होंने जिस रूपक का उपयोग किया है वह भी विचारणीय है : ''किवंदंती है कि बेल का फल पकने के बाद भी पेड़ पर लगा वापस कच्चा होने लगता है और फिर पूरा कच्चा हो जाने पर एक बार पुन: पकना शुरू करता है। एक ही फल के दो बार पकने, दो बार कच्चा होने का गल्प आश्चर्यजनक रूप से एक कवि के विकास क्रम का बिम्ब बन जाता है। एक परिपक्वता पा चुकने पर फिर एक दूसरी परिपक्वता के लिए वापिस कच्चा हो जाना। यानी कोई भी अंतिम  बिंदु नहीं है। इसके अलावा एक ही शिखर पर कई दिशाओं से पहुँचना क्योंकि स्वयं शिखर भी निरंतर बढ़ रहा है, निरंतर खिसक रहा है। और हर नया आरोही जब वापिस अपने आधार शिखर को लौटता है तो उसे शिखर के पास मिले एक कंकाल की याद बेचैन कर देती है जो शायद किसी पूर्व आरोही का हो।'' काव्य-प्रक्रिया को समझने का एक दूसरा उदाहरण भी देखिये- ''अजीब है। इस शहर में इन फ्लैटों में भी बिल्ली उसी पुराने रिवाज़ से चल रही है। आज तक किसी ने बच्चा जनते देखा नहीं। पहले भी नहीं, आज भी नहीं कैसे उसे वे सारी बातें याद हैं हज़ारों सालों से? वैसा ही शायद एक कवि भी होता है। आज के कवि का स्वभाव भी बहुत कुछ हज़ारों साल पहले के कवि-स्वभाव की तरह है । वही कुछ पुरानी आदतें, रस्में, वही शब्दों को दाँतों से ऐसे पकडऩा की कहीं कोई दाग-खरोंच तक न हो और एक मात्रा बचाने पर पुत्र जन्मोत्सव का आनंद मनाना, वही उन्माद, वही व्यग्रता और वही झूठ और देह की वही गंध।''
अरुण जी के लिए कविता एक टीका की तरह है, जो मनुष्य की भिन्न-भिन्न बीमारियों से रक्षा करती है- ''कविता मनुष्य की आत्मा का सर्वाधिक प्रतिरोधी, सर्वाधिक सशक्त टीका है।'' मृत्यु के विरोध कविता एक टीका है, सवाल यह उठता है इतनी अनमोल टीका को पहचाना कैसे जाय? इसका जवाब भी 'पारचून' में मौजूद है- ''कविता असली है या नकली इसकी पहचान सिर्फ उसके संगीत और सुगंध से हो सकती है।'' एक स्त्री देह की सुगंध से उन्होंने कविता की तुलना की है लेकिन इससे भी जरुरी पहचान यह है कि, ''कोई भी हुनरमंद व्यक्ति सूर्य का चित्र बना सकता है यानी उसे कागज पर उतार सकता है, लेकिन एक सच्चा चित्रकार जब सूर्य को कागज पर उतरता है तो कागज जलने लगता है और रौशनी आतशी शीशे के पार से आती दिखती है। जरुरत है उस वस्तु के भीतरी लय को पकडऩे की।'' दीपक राग को याद कीजिये और फिर तानसेन को याद कीजिये। फिर कला के असली और नकली संसार की पहचान आसान हो जाएगी। पहले कविता पर भरोसा और फिर असली और नकली का प्रश्न। अरुण जी कविता के समुद्र में लहरों की असलियत का पता ढूंढने का जोखिम उठा रहे हैं । इस जोखिम भरी यात्रा में वे जिस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं उसे भी सुनें - ''असली कविता आपको मोहाविष्ट नहीं करती, आपको भ्रम में नहीं डालती। जो पहले से ही 'काव्यात्मक' है उसका प्रयोग नहीं करती । असली कविता वहां होती है जहाँ उसके होने की उम्मीद इसके पहले कभी किसी ने की भी न थी।''
अब बारी है इस कविता की आलोचना की।इस पर उनका मानना है कि, ''बहुत कुछ 'अंधेर नगरी' वाली हालत चल रही थी। फाँसी उसी को दी जानी थी, जिसके गर्दन में वह फंदा अंट जाए या वो फंदा जिसकी गर्दन में बैठ जाए। आलोचक प्रवर ने बार-बार मेरी ओर देखा और देखकर कुछ क्षुब्ध हुए। उन्हें एक ऐसी गर्दन की तलाश थी, फंदा वे तैयार लिए बैठे थे । एक-दो बार मेरी गर्दन नापी और कुछ असंतुष्ट लगे । खैर! मतलब यह है कि पूर्वनिर्धारित मापदण्डों पर कविता को कसने का अर्थ 'अंधेर नगरी- चौपट राजा' जैसा है।''
आलोचना के अंधेर नगरी की चर्चा हो और 'टके सेर भाजी, टके सेर खाजा' की चर्चा छूट जाए यह कैसे मुमकिन है ? उन्हीं से सुनिए : ''आज कल ऐसी आलोचना महामारी की तरह फैली है जिसमें निराला से लेकर अमुक जी तक एक ही भाव से लिखा जा रहा है।सब महान हैं। सबकी समान भाव से प्रशंसा। सब धान बाईस पसेरी। कोई विवेक तो हो, कोई श्रेणी भाव तो हो। कुछ फर्क लगे। लेकिन नहीं। इतना जोखिम कौन ले। समतल सड़क पर दौडऩे से अच्छा है ऊँचे-नीचे दुर्गम रास्ते पे डगमगाते हुए चलना।''
कविता की मूल्यांकन प्रक्रिया में काव्येतर प्रतिमानों के खतरे से वे परिचित हैं। किसी कवि के मूल्यांकन में ये उन सूचनाओं का जिनका सम्बन्ध कविता से नहीं होता उनका उपयोग जिस हैरतंगेज नतीजे तक पहुँचाता है उससे कवि या आलोचक का भले ही कोई फायदा होता हो, कविता और आलोचना को भारी खामियाजा चुकाना पड़ता है। किसी कवि को 'पूरावक्ती' या कविता का कार्यकर्ता आदि बता कर जिस तरह की डिस्काउंट की उम्मीद की जाती है, वह उम्मीद बेमानी है। किसी विचारधारा या किसी आन्दोलन से जुड़े होने की सूचना भी इसी श्रेणी में है हालाँकि अरुण जी ने इसकी चर्चा नहीं की है। उनका यह कहना बहुत महत्वपूर्ण है कि- ''हर कवि, यदि वह कवि है तो, 'पूरावक्ती' ही होता है- चाहे वह जो भी काम करे, ईंटा ढोने से लेकर नाली साफ़ करने तक, वह हमेशा ही भीतर-भीतर और भी कुछ कर रहा होता है, सृजन प्रक्रिया भूमिगत होती है और अनवरत चलती रहती है। जैसे मुक्तिबोध थे, शिक्षक भी तो थे। घर-परिवार भी देखते थे। कोई भी कवि हो। जैसे गर्भवती स्त्री के लिए सृजन अलग से कोई काम नहीं होता, कोई यह नहीं कहता कि वह 'पूरावक्ती' है, वह कोई काम करती है, लेकिन सृजन अबाध अनवरत चलता रहता है।''
इस 'पारचून' में कविता के स्टॉक-एक्सचेंज की भी चर्चा है। वहीं इस बात की भी कि ''आधुनिकता का शुभलग्न बीत चुका है और उत्तर-आधुनिकतावाद का खरमास चल रह है।'' कविता में छंद की चर्चा करते हुए वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि,''गद्य कविता या छंदबद्ध या मुक्तछंद कहीं मुक्ति नहीं है। सच्चे कवि को किसी में कोई रियायत नहीं है। वैसे यह सच है कि जो अच्छा नाचते हैं वे चलते भी अच्छा हैं और जो चलना नहीं जानते उनके लिए हर आँगन टेढा है।'' निराला ने जब छंद के अनुशासन से गुजरे बगैर छंदमुक्ति को निरर्थक माना था तब भी उनका आशय यही था। कवि सम्बन्धी किवंदंतियों की चर्चा करते हुए अरुण कमल ने तुलसीदास और कालिदास को याद किया है। कालिदास की मूर्खता के किस्से मशहूर हैं। लेकिन, इस किवंदंती की व्यंजना अरुण जी के लिए मायने रखती  है- ''जीवन के गूढ़तम रहस्यों और जटिलताओं को अभिव्यक्त करने वाला मस्तिष्क स्वयं कितना मासूम हो सकता है, यह प्रसंग इसी तथ्य को प्रकाशित करता है। दूसरी बात यह है कि जो स्वयं अपनी ही डाल को काट न सके वह कवि होने की अर्हता भी शायद पूरी नहीं करता।'' इसी प्रकार तुलसीदास के बारे में प्रचलित किवंदंती के आधार पर वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि, ''प्रेम कर पाने की ऐसी विलक्षण शक्ति, इन्द्रियों के उद्दाम अनियंत्रित आवेग को धारण करने का ऐसा सामर्थ्य जिसमें हो वही तो तुलसीदास जैसा कवि बन सकता है। यानी जिसमें जीवन की त्वरा और झंझा जितनी ज्यादा होगी वह उतना ही बड़ा कवि होगा।''
 मलयज की डायरी पर लिखते हुए अरुण जी ने इसी किताब में लिखा है कि ''सबसे अच्छी समीक्षा यही होती कि मैं पूरी डायरी यहाँ उद्धृत कर देता।'' 'गोलमेज' पर लिखते हुए यदि मैं भी उनके स्वर में स्वर मिलते हुए यही बात कहूँ तो शायद कोई अतिशयोक्ति न हो। अलग से कहने की जरुरत मैं महसूस नहीं करता कि 'गोलमेज' हिन्दी की समकालीन आलोचना की एक उपलब्धि भी है और हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परंपरा में एक हस्तक्षेप भी।

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