पाँच कविताएँ: राजेश जोशी

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    जून-जुलाई 2015
श्रेणी पाँच कविताएँ: राजेश जोशी
संस्करण जून-जुलाई 2015
लेखक का नाम राजेश जोशी





 

एक कुख्यात अपराधी की आत्मकथा 

एक कुख्यात अपराधी की आत्मकथा की हजारों प्रतियाँ
बाज़ार में आते ही हाथों हाथ बिक गयीं
जबकि उसी के बगल में रखी महापुरूष की आत्मकथा के
खरीदार मुश्किल से चार या पाँच थे ।
उनमें दो अधेड़ और तीन बूढ़े थे और एक स्त्री थी
जो अविवाहिता थी , जिसके बाल पक चुके थे
और सेवानिवृत्त होकर वह एक एनजीओ में सोशल वर्क करती थी।

कुछ बूढ़े जो रोज़ शाम साथ साथ टहलने निकलते थे
किताबों की दुकान पर आकर रूक जाते थे
महापुरूष की आत्मकथा को वो अक्सर दूर से देखते रहते
कभी कभी उसे उठाकर यूँ ही उलटते पलटते
और अपने अतीत के किस्से सुनाने लगते
एक था जो कभी महापुरूष से मिल चुका था
बाकी ने महापुरूष को अपने शहर से गुजरते समय
स्टेशन पर जाकर देखा था ।
एक तो उससे भी वंचित रह गया था क्योंकि ऐन व$कत पर
उसके पिता ने उसे जाने से रोक दिया था ।

सारे किस्से पहले भी कई बार सुनाये जा चुके होते थे
लेकिन फिर भी बार बार दोहराये जाते थे
और कोई नहीं टोकता था कि यह किस्सा तो
पहले भी कई बार सुनाया जा चुका है ।
उनका कोई ज़िक्र महापुरूष की आत्मकथा में नहीं था
पर उन्हें जाने क्यों ऐसा लगता था कि
वो कहीं न कहीं उस आत्मकथा में मौजूद हैं ।

सनसनी और उत्तेजनाओं से लबरेज़ थी
कुख्यात अपराधी की आत्मकथा
उसको खरीदने और रात भर में पूरा पढ़ डालने वाले
पाठकों में ज्यादातर लोग अपराधी नहीं थे
अपराध की गनगनाती दुनिया उनका सपना नहीं थी
लेकिन उसकी सनसनाहट उनके लहू में दौड़ती थी
उनकी रगों को झनझना देती थीं अपराधी की हिम्मत
और सूझबूझ से भरी सनसनीखेज़ वारदातें ।
हमारे समय की तीव्र गतियों को
अपराध की दुनिया से अपनी खुराक मिलती थी ।

कुख्यात अपराधी की जीवनी में उसके नाम राशी
एक बादशाह का ज़िक्र आता था
जिसने मवेशियों और परिन्दों सहित पूरी कायनात पर
किसी समय हुकूमत की थी ।
और एक जनश्रुति के अनुसार उसके सिर्फ  छूनेभर से
लोहे की मजबूत छड़ मुड़ कर गोल हो गयी थी । 1.
कुख्यात अपराधी सपने में बादशाह की पोशाक में
अपने को देखता था ।

बूढ़े जब किसी नौजवान को कुख्यात अपराधी की
आत्मकथा खरीदते हुए देखते
तो उन्हें बहुत गुस्सा आता
ग्राहक की पीठ फिरते ही वो समय पर लानत भेजते 
और नयी पीढ़ी को कोसने लगते 
दुकानदार की नज़र बचाकर वो धीरे से महापुरूष की आत्मकथा को
कुख्यात अपराधी की आत्मकथा के बगल से उठाकर
अलग जगह रख देते
लेकिन कुछ देर बाद ही पता नहीं कैसे
कुख्यात अपराधी की आत्मकथा और महापुरूष की आत्मकथा
फिर अगल बगल आ जाती थी
जैसे इसके बगैर
हमारे समय का दृश्य ही पूरा नहीं होता हो !

1.संदर्भ  डोंगरी से दुबई तक: एस.हसैन ज़ैदी .अनुवाद: मदन सोनी

परिन्दे पर कवि को पहचानते हैं

सालिम अली की किताबें पढ़ते हुए
मैंने परिन्दों को पहचानना सीखा
और उनका पीछा करने लगा
पाँव में जंजीर न होती तो अब तक तो
न जाने कहाँ का कहाँ निकल गया होता
हो सकता था पीछा करते करते मेरे पंख उग आते
और मैं उडऩा भी सीख जाता ।

जब परिन्दे गाना शुरू करते
और पहाड़ अँधेरे में डूब जाते
ट्रक ड्राइवर रात की लम्बाई नापने निकलते
तो अक्सर मुझे साथ ले लेते
मैं परिन्दों के बारे में कई कहानियाँ जानता था
मुझे किसी ने बताया था कि जिनके पास पंख नहीं होते
और जिन्हें उड़ऩा नहीं आता
वो मन ही मन सबसे लम्बी उड़ान भरते हैं
इसलिए रास्तों में जो जान पहचान वाले लोग मिलते
मुझसे हमेशा परिन्दों की कहानियाँ सुनाने को कहते ।

दोस्त जब पूछते थे तो मैं अक्सर कहता था
मुझे चिठ्ठी मत लिखना
परिन्दों का पीछा करने वाले का
कोई स्थाई पता नहीं होता
मुझे क्या खबर थी कि एक दिन ऐसा आयेगा
जब चिठ्ठी लिखने का चलन ही अतीत हो जायेगा ।

न जाने किन कहानियों से उड़ान भरते
कुछ अजीब से परिन्दे हमारे पास आते थे
जो गाते गाते एक लपट में बदल जाते
और देखते देखते राख हो जाते 
पर एक दिन बरसात आती 
और वो अपनी ही राख से फिर पैदा हो जाते ।

पता नहीं हमारे आकाश में उडऩे वाले परिन्दे
कहानियों से निकल कर आये परिन्दों के बारे में
कुछ जानते थे या नहीं
उनकी आँख देख कर लेकिन लगता था
कि उन कवियों को परिन्दे पर जानते हैं
जो कुकनुस जैसे हजारों काल्पनिक परिन्दों की
कहानियाँ बनाते हैं ।

पाँव में जंजीर न होती तो शायद
एक न एक दिन मैं भी किसी कवि के हत्थे चढ़ कर
ऐसे ही किसी परिन्दे में बदल गया होता  !

ग़ाइबबाज़ 1

न ऊँट न घोड़ा न $फील न प्यादा
काले सफेद चौंसठ खानों की
कोई बिसात भी नहीं
बिना मोहरों बिना बिसात के वह खेलता है
शतरंज ।
अदृश्य बिसात पर एक अदृश्य मोहरा चलते हुए
कहता है चलो अब तुम्हारी चाल है
मैं अदृश्य बिसात पर एक अदृश्य किला बनाता हूँ
वह ढहा देता है मेरा किला
एक ही चाल में
और कहता है शै बचो ।

मैं आगे पीछे दाएँ बाएँ हटता हूँ
बार बार बचता हूँ
वह अपने अदृश्य मोहरों से मेरा हर मोहरा
पीटता जाता है
दंभ से मुस्कुराता है

मैं उसकी नजऱों से बचता बचाता
सिर्फ एक अदृश्य पैदल बढ़ाता हूँ

वह मोहरे पर मोहरा पीटता जाता है
जब सोचता है

अब उसकी जीत पक्की है
मैं अगली चाल चलता हूँ

पीटे जा चुके मोहरे को
फिर से जीवित कर लेता हूँ !

1. बिना बिसात के शतरंज खेलने वाला / शातिर


वो आखेट पर निकले हैं

वो आखेट पर निकले हैं  ।

चाहते हैं हम अपने घरबार छोड़ कर चले जायें
अपने पेड़ , पहाड़ , नदियाँ और जंगल
छोड़ कर चले जायें ।

वो चीटिंयों के घरों को रौंद रहे हैं
उन्हें कहीं से पता चल गया है
कि इन्द्रधनुष को चींटिंयों के घरों में छिपा कर
रखा जाता है
जब बारिश थम -सी जाती है तो चींटियाँ
बाहर ला कर बादलों पर फैला देती हैं उसे
उन्हें हमारे सपनों से, हमारे विश्वासों से,
हमारी कथाओं से डर लगता है ।
वो टुकड़े टुकड़े कर डालना चाहते हैं
उस सतरंगे धनुष के
वो सारे रंगों को कीचड़ में सान देना चाहते हैं 
पेड़ों पर अजीब उदासी उतर रही है
बारिशें रूठ कर चली गई हैं
और लोग पानी की तलाश में दर दर भटक रहे हैं ।

वो मछुआरों से उनका समुद्र छीन रहे हैं
तटों पर तड़पती मछलियों की आँखों में
एक सपना पथरा रहा हैं
नावें किसी अनजान तट से टकरा कर

टूट गयी हैं ।

वो जंगलों की तरफ आ रहे हैं

वो किसी जंगली जानवर का नहीं
हमारे सपनों का शिकार करना चाहते हैं

वो आखेट पर निकले हैं । 

मिमियाना*

पहले एक बकरी के मिमियाने की आवाज़ थी
फिर एक रेवड़ कहीं से अचानक आ गया
और सैंकड़ों बकरियाँ मिमियाने लगीं

मैं घाटी के बीच था
यहाँ कुछ भी बोलो प्रतिध्वनित होता था
प्रतिध्वनित होकर मिमियाना कई गुना हो गया

एकाएक अपनी कलाई पर बँधी घड़ी की तर$फ
गई मेरी नज़र
ओह! टिक टिक की जगह
वहाँ से मिमियाने की आवाज़ आ रही थी !

* अंतिम कविता 'मिमियाना' पाक्षिक 'शुक्रवार' में पूर्व प्रकाशित है। कवि ने कुछ महत्वपूर्ण संशोधन के बाद पुन: प्रस्तुत किया है।

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