पैमाइश

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    जून-जुलाई 2015
श्रेणी लम्बी कहानी
संस्करण जून-जुलाई 2015
लेखक का नाम गौरीनाथ





  उस दिन सुबह से ही बूँदाबाँदी हो रही थी। ज़मीन की पैमाइश वाला काम हो नहीं सकता था। मणिकांत अपने लैपटॉप खोल पिछले दिन शूट किए हुए वीडियोज़ देखने लगा। अचानक एक दृश्य पर उसका ध्यान अटक गया। रीवाइन्ड कर उसने फिर से देखा और उस दृश्य पर पॉज़ दिया। गौरैयों के एक झुंड की क्रीड़ा का छोटा-सा फुटेज था, स्पष्ट आवाज़ और मुकम्मल परिवेश के साथ। जिस जगह उसने पॉज़ दिया था वहाँ कटहल के पेड़ के पास कलरव करते गौरैयों के झुंड से दूर, काफ़ी दूर, नीबू और पपीते के झुरमुट से झाँकते आँगन के कोने में सफ़ेद साड़ी में संन्यासिन का साइड वाला पोजिशन था। वह सिर पर जलावन के लिए संठी का गट्ठल लिये आँगन में दाख़िल ही हुई थी। एक बारगी उसको लगा, इस दृश्य की संन्यासिन में ऋत्विक घटक की नायिकाओं जैसी कोई बात है।

    काफ़ी देर तक वह बार-बार चलाकर और अनेक बार पॉज़ देकर हर एंगल से उस दृश्य को समझने का प्रयास करता रहा। खैनी खाती बीड़ी पीती काली-कलूटी अधेड़ संन्यासिन की उस छवि में संभावनाओं की तलाश करता वह परेशान हो रहा था। इस बीच कई बार उसके जेहन में अपने सिनियर मशूहर फ़िल्मकार मुखर्जी दा की कही बात हथौड़े की तरह चोट करती रही, ''मल्टीप्लेक्स कल्चर वाले दर्शकों के लिए दर्शनीय नंगी देह का कोई भी कटाव और उभार अश्लील नहीं होता। मॉडर्न पेंटिंग की तरह पूरे परिवार कामुक से कामुक दृश्य देखते हैं...मगर खैनी-बीड़ी का सेवन करने वाली काली-कलूटी स्त्री के मुँह की तर देखते इन्हें उबकाई-सी आने लगती है, तो सिनेमा में उसकी छोवि लेकर करोड़ों का जोखिम उठाने का तरा कौन मूर्ख लेगा?...’‘

    ''हाँ दादा, प्लास्टिक के आदमी की निगाह में औरत शीशे की होती है या मोम की...चौबीस घंटे मैकप्ड!’‘ मन ही मन कहा था मणि ने।

    लेकिन अब जबकि मुखर्जी दा का सहायक नहीं है वह, उसकी अपनी अलग पहचान बन गई है, तो क्यों न ख़ुद के मन मुताबिफ़िल्म बनाने के लिए पटकथा की तलाश करे वह? उसको लगा, संन्यासिन की जीवनगाथा से उसकी चिर प्रतीक्षित फ़िल्म की पटकथा निकल सकती है। फ़िल्म का अंजाम जो भी हो...वह इस पर काम करेगा। बड़े और मशहूर कलाकार जुटाना महँगा पड़ेगा और उसके नखरे भी झेलने पड़ सकते हैं।...ऐसे में नए और स्ट्रगलर्स के साथ काम करेगा। सस्ते कैमरे और कम से कम कस्ट्यूम के सहारे सत्य को सत्य की तरह दिखाएगा।...

    उसने अपना लैपटॉप समेट कर रखा और कैमरे वाला थैला टाँग खड़ा हो गया। बाहर बूँदाबाँदी अब भी जारी थी।...उसने आँगन के बरामदे में रखी पिता के जमाने वाली छतरी ली। छतरी के डंडे पर उसको पिता के हाथ के निशान मालूम पड़े। इस वक़्त वह पिता की स्मृति में नहीं जाना चाहता था इसलिए तेज़ी से छतरी फैला कर ऊपर की और चल पड़ा संन्यासिन के आँगन की तर

 

 

संन्यासिन नाम उसको कुछ ही दिन पहले मणिकांत ने दिया था। यूँ वोटर लिस्ट में उसका नाम कलावती दर्ज था, लेकिन इसका पता पूरे गाँव में शायद ही किसी को हो। मुश्किल से वोटर लिस्ट, राशन कार्ड के प्रयोजन से जुड़े लोगों को ही। आम लोगों के बीच उसके चार नाम ज़्यादा प्रचलित थेफतेहपुरवाली, भोला की घरवाली, लोकेश की माई और मसोमात। इसके अलावा डायन, चुड़ैल, सतभतरी, कुल्टा, उढऱी, छिनाल जैसे न जाने कितने ही नाम थे जिसका इस्तेमाल ठेठ ग्रामीण लहजे में बड़े से छोटे तक बेहिचक करते थे। यूँ भले घरों के लोग उसके आँगन की तर अपने बच्चे तक को जाने से रोकते थे।

    आँगन बीच पहुँचकर मणि ने आवाज़ दी, ''संन्यासिन!’‘

    चूल्हा सुलगा रही संन्यासिन ने वहीं से पूछा, ''मणि बाबू, कहिए क्या चाहिए?...बीड़ी?’‘ उस बीच बीड़ी के सिवाय और कुछ मणि ने माँगा नहीं था।

    ''अरे नहीं संन्यासिन!...आप क्या पका रही हैं?’‘

    ''चाय बनाने के लिए आग पजार रही हूँ।’‘

    ''मैं भी पीऊँगा चाय!...अंदर नहीं बुलाएँगी क्या?’‘

    तब तक आँच सुलग चुकी थी और संन्यासिन ने चायवाला भगौना चूल्हे पर रखा ही था, ''यह तो मेरा अहो भाग्य!...आइए-आइए मणि बाबू!’‘ भगौने में पानी डाल उसने उनके बैठने के लिए बीच कमरे में पीढ़ा रखा।

    बाहर बरामदे में छतरी रख वह अंदर आया और अपने लिए रखा पीढ़ा खिसका कर चूल्हे के पास जा बैठा। गले से कैमरा उतार अभी लैंस वग़ैरह चेक कर ही रहा था कि संन्यासिन ने पूछा, ''ये सब लटका के कहाँ निकले? वर्षा में भी आज नापी हो रही है क्या?’‘

    ''अरे नहीं संन्यासिन! आज कैसे होगी नापी!...बस घर से सीधे यहीं के लिए निकला हूँ, आपके फ़ोटो लेने।’‘

    ''एह!...मुझ-जैसी छुतहर का फ़ोटो लेकर क्या करेंगे मणि बाबू!...मैं तो...।’‘ उसकी बोली लटपटा गई।

    ''संन्यासिन!...क्या फालतू बात करती हैं आप भी! मैं तो आपके ऊपर फ़िल्म बनाना चाहता हूँ। आप कितनी सुंदर हैं यह इस गाँव वाले अभी नहीं समझेंगे, मगर मैं एक न एक दिन सबको दिखाऊँगा।’‘

    ''नहीं मणि बाबू, झरकल मुँह झाँपने नीक। इतनी बदनाम रही हूँ मैं...और क्यों जगजाहिर करना चाहते हैं? बच्चों को मेरी चिंता भले ना हो, मुझे तो उन सब की चिंता है।’‘

    ''मैं समझता हूँ संन्यासिन! आप विश्वास कीजिए, आप पर कोई आँच ना आए इसका हर तरह से याल रखूँगा।...संन्यासिन के अलावा आपका असली नाम-परिचय जाहिर नहीं होने दूँगा। बस कहानी आपकी रहेगी।’‘

    संन्यासिन का चेहरा पहले भावहीन-सा हो गया फिर रुआँसा।

    ''आपकी कहानी परदे पर ले जाना मेरे लिए जितना कठिन होगा उतना ही दुखदायी भी, मगर जब तक यह फ़िल्म नहीं बनाऊँगा बाक़ी कुछ सार्थक नहीं कर पाऊँगा।’‘   

    संन्यासिन ने इस बार भी उसकी तर नहीं देखा। खौलती चाय उबल कर गिर न जाए, आँच ज़रा कम करने लगी थी।

    ''फ़िल्म में आपका किरदार जो हीरोइन निभाएगी उसको आपके चलने, उठने-बैठने, बोलने का तरीक़ा मालूम होना चाहिए ना...इसलिए इस कैमरे से मैं जब-तब आपका फ़ोटो लेता रहूँगा...आपको बिना बताए किसी भी मुद्रा में...एक औरत की छाया दूसरे की काया में प्रवेश करवाना आसान नहीं होता...मुझे विश्वास है आप बुरा नहीं मानेंगी।’‘ कहते-कहते मणि की नज़र दूर, बहुत दूर, चली गई जहाँ संन्यासिन की वेष में कैमरे के सामने खड़ी हीरोइन 'एक्शनका इंतज़ार कर रही हो।

    ''अरे मणि बाबू, आपसे हमारा क्या छुपा-ढका है?...रग-रग पहचानते हैं आप... सब कुछ जानते-समझते हैं...इस मामले में सात औरत की एक औरत हैं आप। इसलिए जो मन में आए कीजिए, लेकिन आगे-पीछे देखकर।...तिल को ताड़ बनाने वाले आपके चाचा जी अभी मरे नहीं हैं।’‘ उसने चाय का कप मणि की तर बढ़ाया।

    सुड़क-सुड़क कर चाय पी रही संन्यासिन के चेहरे पर कैमरा टिकाए मणि दृश्य की बारीकियों को पकडऩे की कोशिश में लगा हुआ था, लेकिन उसका ध्यान चाचा जी पर चला गया!...

 

 

...मणिकांत को गाँव आए पंद्रह से ज़्यादा दिन हो गए थे। पिता के रहते वह कम ही गाँव आ पाता था। पटना में प्रोफ़ेसरी कर रहा उसका छोटा भाई प्रेमकांत ज़रूर महीने में एकाध बार गाँव का चक्कर लगा लेता था। लेकिन पिता के गुज़रने के साल-भर के भीतर जब उसके चाचा ने अवैध तरीक़े से ज़मीन ब्ज़ाना शुरू कर दिया तो उसके कान खड़े हुए। हद तो तब हो गई जब पिछले महीने चाचा ने उसके घर के एक हिस्से में अपने माल-मवेशी बाँधना शुरू कर दिया था।

    प्रेमकांत के फ़ोन पर गाँव पहुँच जब उसने चाचा से बात की तो दंग रह गया उनकी गढ़ी हुई कहानी सुनकर...।

    ...मणि के पिता तीन भाई थे। सबसे बड़े थे भोला के पिता यानी संन्यासिन के श्‍वसुर जो रीब दस साल पहले गुज़रे थे। भोला से डेढ़ेक साल पहले। दूसरे नंबर पर थे मणिकांत के पिता जो हाइस्कूल में अंग्रेज़ी पढ़ाते थे। और सबसे छोटे थे चाचा जी जो ज़्यादा पढ़-लिख नहीं पाए थे तमाम कोशिशों के बावजूद। वे शुरू से ही खुराफाती दिमा के थे। लड़ाई-झगड़े में माहिर और रंग-रहस के शौकीन। राजनीति में जाना चाहते थे, लेकिन चरित्रगत वैसी तमाम ख़ूबियों के बावजूद मौक़ा ताकते रह गए। जवानी में पड़ोसी गाँव के मशहूर नेता, जो कई साल तक प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे, के लोकल एजेंट ही बने रह गए। इस बीच घोटालों में फँसे नेता जी जब जेलों के चक्कर लगा रहे थे और उनकी पार्टी रसातल में चली गई, तो चाचा जी धर्म की राजनीति के रंग में रंग कर पंचायत से ब्लॉक स्तर के प्रपंचों में अपनी दुकानदारी चमकाने लगे थे। अब तो नेपाल बोर्डर से चलने वाले कई-कई धंधों से लेकर शहर के होटलों के लिए ग्रामीण 'ब्यूटीके सप्लायर तक बन गए थे। खेती में एक तो यूँ भी लज्जत नहीं थी फिर धूप में पसीना बहाना उन्हें पसंद नहीं था। मणि के पिता जब तक जीवित रहे अपने छोटे भाई को जब-तब हमेशा मदद करते रहे थे।...बहरहाल अपने 'भैयाके लिए चाचा जी का कहना कुछ और ही था।...

    चाचा जी ने कहा, ''भैया को मैं भगवान माफ़िक समझता था। उन्होंने जब जो कहा मैंने पूरा किया। तुम लोग गाँव में रहते कब थे जो उनकी परेशानी समझते। भैया हाथ के खुले थे और स्वभाव से उदार। पेंशन के पैसे से उनका गुज़ारा नहीं चलता था। उनके जीवन के अंतिम पाँच साल में मैंने उन्हें तीन लाख से ज़्यादा रुपए दिए थे। उन्होंने मुझे कहा था कि खेती की ज़मीन तो तुम्हें यूँ ही मिल जाएगी क्योंकि मेरे बेटों में से कोई खेती करने वाला नहीं। इन रुपयों के एवज़ में घर और बासडीह की ज़मीन आधा दे दूँगा। इसलिए मैंने तुम्हारे ख़ाली दालान का उपयोग मवेशियों को बाँधकर किया था।... और तुम दोनों भाई हो कि मेरे सिर फोडऩे और मुझे ही जेल भेजने की धमकी दे रहे हो!... चलो खेती की ज़मीन पर ख़ुद खेती करो तो छोड़ देता हूँ।... लेकिन हमने जो तीन लाख दिए उसका न कुछ तो छह लाख तो बनता ही है। रुपए लौटा दो अथवा ज़मीन

लिखो!’‘

    प्रेमकांत तो गुस्से से तिलमिला गया था लेकिन मणि हँस पड़ा, ''चाचा जी, थोड़ा होमवर्क करके भी झूठ बोलते। रिटायरमेंट के बाद पिताजी के बैंक अकाउंट में कभी लाख से कम रुपए नहीं रहे। फिर भी आपने अपने भैया पर र्ज का इल्जाम लगा दिया! लेकिन आपको चेक के ज़रीए जो तीन बार रुपए उन्होंने दिए उसको कैसे झुठलाएँगे?’‘

    ''वे रुपए तो उन्होंने अपने र्च के लिए निकलवाए थे। बैंक जाने में उन्हें परेशानी होती थी इसलिए मुझसे नगद लेकर बदले में वे चेक दे देते थे।’‘ और चाचा जी गरज उठे, ''पढ़-लिख के मुझे झूठा कहते तुम्हें शर्म नहीं आती!...नालायक कहीं के!’‘

    ''उन्होंने हरेक चेक के डिटेल के साथ किस मद में काटा गया है, यह भी लिखा है।...और जहाँ तक मान-अपमान और लिहाज की बात है, यह तो आपको झूठी कहानी गढऩे से पहले सोचना चाहिए था।’‘

    कि चाचा जी एक टाँग पर खड़े हो नाचने-से लगे। भीषण हंगामा खड़ा हो गया। कई दिनों तक कई क़िस्तों में चखचख होता रहा। गाँव के कुछ रसूखदार लोगों से लेकर मुखिया-सरपंच और थाने तक उनकी पहुँच और पकड़ अच्छी थी। चाचा जी अपने संपर्कों और तिकड़मों के ज़रिए नीच से नीच हरकत पर उतर आए थे। यहाँ तक कि हाल ही में जेल से लौटे एक बाबा से धमकी भी दिलवा दिए थे।...

    आख़िरकार मणि ने डी.एम. और एस.पी. से मिलने का समय माँगा। संयोग कि दोनों उनके काम और नाम से परिचित निकल गए। अगले दिन एक सब-इंस्पेक्टर ने चाचा के घर जाकर पता नहीं उन्हें क्या समझाया कि उनका पारा अचानक गिर गया।... फिर अमीन आए और ज़मीनों की पैमाइश शुरू हुई। पैमाइश के क्रम में चाचा जी ने जो नए-नए ड्रामे शुरू किए, वह देखने लाय था।...

 

 

...जरीब सरज़मीन पर खींची जा रही थी, ज़ख़्मी दिल हो रहे थे। लोहे की वजनी जरीब और उसके काँटेदार फुलिए हरी घासों और सख़्त ज़मीन के सीने पर जैसे निशान छोड़ रहे थे, कुछ उसी तरह दिल भी लहूलुहान और छलनी हो रहे थे।

    दो अमीन थेएक गाँव के ही रतन लाल जो एक साल पहले कोसी परियोजना, सिंचाई विभाग से सेवा निवृत्त हुए थे और दूसरे थे सर्कल आफ़िस से आए राम प्रसाद।...पूरे गाँव का हुजूम था। गुनिया-प्रकार और नए-पुराने नक़्शे के गणित से निकले अंक मुताबि जरीब खींची जा रही थी और कडिय़ाँ गिनी जा रही थीं। उत्तर से 16 जरीब 12 कड़ी पर निशान दिया गया एक मज़बूत खूँटी गाड़ कर। दक्षिण से 7 जरीब 76 कड़ी पर बाँस का एक खूँटा गाड़ा गया। दो दिन की कठिन मशक़्क़त के बाद पूरब और पश्चिम की सीमाएँ भी कस ली गईं। रकबे की मीज़ान सही-सही मिल गई। हिस्से मुताबि मेंड़ के निशान लगा दिए गए।

    सब कुछ फाइनल था, लेकिन चाचा जी ने कहा, ''मुझे डाउट है!... पिछली बार जो नापी हुई थी...अरे वो मियाँ...इब्राहीम अमीन था, उसने इस शीशम से तीन कड़ी दक्षिण ही इसका हिस्सा पूरा कर दिया था। इस बार शीशम से छह कड़ी उत्तर कैसे आ सकता है!...नौ कड़ी की गड़बड़ी असंभव! ज़रूर कुछ झोल है। दुबारा नापना होगा।’‘

    जरीब में लगे फुलिए की तरह नुकीली थी चाचा जी की तर्कशक्ति। उन्हें लग रहा था, ज़मीन की पैमाइश ज़्यादा लंबी खींचने पर दोनों व्यस्त शहराती बारी-बारी भाग खड़े होंगे। मगर मणि ने सहज ढंग से उत्तर दिया, ''इसमें परेशानी क्या है? एक बार फिर से हो जाए सब कुछ।...और चाहें तो इब्राहीम अमीन को भी बुला लीजिए। आज का तो दिन गया, कल सही।...’‘

    अगले दिन इब्राहीम नहीं आया। अगले के अगले दिन तीन अमीनों के साथ गुनिया-प्रकार और नक़्शे के सहारे फिर उसी गणित को दुहराया गया। जरीब फिर खींची जाने लगी, दिल पर उसी तरह खरोंचें छोड़तीं। लेकिन ज़ख़्म से लहू नहीं गुम चोट के दर्द सा कुछ रिस रहा था। मणि को इस पीड़ादायी खेल में एक अलग तरह का अनुभव हासिल होने लगा। उसने छोटे भाई से कहा, ''प्रेमू, तुम जाओ पटना। अपना क्लास लो।...यहाँ काफ़ी समय लगेगा और मैं सोचता हूँ दो-एक महीने गाँव में ही रहकर कुछ नया करूँ। फिर घर-आँगन का रीनोवेशन वग़ैरह भी हम कब से सोच रहे थे...’‘

    प्रेमकांत अगले दिन सुबह की बस से निकल गया।...

    चाचा, अमीन और गाँव के बहुत सारे लोग जरीब के साथ चल रहे थे। मणि ने जरीब का पीछा करना छोड़ दिया। वह गाँव के बुजुर्गों के साथ मेंड़ के आसपास किसी पेड़ के नीचे गपियाता रहता और बीच-बीच में कुछ लैंडस्केप, पंछियों की करतब और मनमुताबि जिस-तिस दृश्य को कैमरे में क़ैद करता रहता। कभी स्टिल फ़ोटोग्राफ़ी, तो कभी वीडियोग्राफ़ी

    इस बीच मणि ने ग़ौर किया था कि ज़मीनों की नाप-जोख की प्रक्रिया के दौरान संन्यासिन दिन-भर या तो घर के पिछवाड़े के आम गाछ के पास बैठी जायज़ा लेती रहती थी या ड्योढ़ी से सटे कटहल के पेड़ के नीचे से सुनगुन पाती रहती थी। मणि की तरह ही तीन में से एक पट्टीदार वह भी थी, लेकिन संन्यासिन के पति भोला ज़मीन के मामले में बड़ा अनुभवी रहा था इसलिए उसका हिस्सा क्लियर था और हरेक मेंड़ कसी हुई थी। फिर भी उसकी अतिरिक्त जिज्ञासा और सजगता देख मणि को उत्सुकता हुई। जब जरीब और अमीनों के साथ लोगों का हुजूम पश्चिमी सीमा के पत्थर से तसदी करने निकल गया तो वह खिसककर संन्यासिन के पास पहुँचा, ''क्या भौजी, आप जैसी संन्यासिन की भी माया ज़मीन के साथ लिपटी है?’‘                 

    ''मणि बाबू, आप समझते नहीं हैं! बहुत छलिया और रेबी है आपका यह पतितबा चाचा!...मैं...मैं संन्यासिन हो गई रहती तो सब लुट चुका होता। पिशाचिन की तरह मैं इस ज़मीन को अगोर रही हूँ तभी बची हुई है इन प्रेतों से।’‘ और उसने मुँह से तंबाकू की सिट्ठी थूकड़कर फेंका और लटा कर हाथ में रखी नई जूम होंठ तले दबायी।

    संन्यासिन की मुख-मुद्रा पर ग़ौर करते मणि ने देखा कि उसके गहरे रंग मुख-मंडल बीच कभी चमकते रहने वाले दाँतों में पीलेपन लिये हिस्से कम होते जा रहे थे। निरंतर तंबाकू-सेवन के चलते ज़्यादातर हिस्से खैरी और दाग़ों की चपेट में आकर कत्थई हो गए थे। अधपके धूल-पसीने से लथपथ उलझे लट बाल ज़रूर उम्र की चुगली कर जाते थे, मगर मर्दाना-सा उसका दोहरा बदन ढीला नहीं पड़ा था। ''दुनिया या ख़ुद आप अपने को जो चाहें कहें, मैं तो संन्यासिन ही कहूँगा।...अपनी मर्जी से अपने सुख का संधान करने वाली संन्यासिन!... इतनी आफतों के बाद अकेले दम पर सारे गाछ, बाँस, जगह-ज़मीन जोड़-जोगा के रखना और इतने सारे लोगों से लड़ते-झगड़ते भी हमेशा मस्त-मलंग रहना मामूली बात है क्या?’‘

    ''आपको जो मन में आवे, कहिए!...ज़मीन-जोरू के लिए ज़ोर भी चाहिए... लेकिन कुछ और भी चाहिए जो ज़्यादा ज़रूरी है।...आपके चाचा धामिन की तरह ख़ूब फुँफकारते हैं। लगता है, इस बार साँप को नेबले से पाला पड़ेगा।’‘ और उसने खोंइछे से पहले बीड़ी निकाली फिर माचिस।

    मणि ने एक बीड़ी अपने लिए भी सुलगाने का संकेत दिया और मुस्कुराते हुए कहा, ''मेरी गुरुआइन तो आप ही हैं न!...’‘

    ''मेरी औलाद मुझे पगली, डायन और क्या-क्या कहती है...’‘

    ''तीस साल पहले, पंद्रह-सोलह की उम्र तक, मैं क्या-क्या कहता था, कुछ याद है?...वह तो मैट्रिक के बाद बदला।...फिर दोस्त और जो-जो बनाया आपने...’‘

    सुलगी हुई बीड़ी आगे बढ़ाती संन्यासिन के चेहरे पर उदासी तैर गई, ''मेरा बेटा पैंतीस साल का है, बेटी बत्तीस की...और उनके बच्चे भी बड़े हो रहे हैं।...’‘

    ''कुछ लोग मरने की उम्र तक बचपना में ही रहते हैं।’‘

    ''जैसे मेरे पति परमेश्‍वर!...’‘ धुएँ के बीच से एक सख़्त आवाज़ आई।

    ''एकदम ठीक!...’‘

    संन्यासिन के चेहरे पर की रेखाएँ बीड़ी के धुएँ की तरह कुछ ही देर में अदृश्य हो गईं, लेकिन चुप्पी छायी रही। लंबे अरसे पर बीड़ी पी रहे मणि को लगा कि बीड़ी के धुएँ से ज़्यादा कड़वी सच्चाई अनायास ही उगल दी थी दोनों ने।

    मणि बीड़ी का कश लेता-लेता अचानक निकल गया उस मेंड़ की तर जिधर पश्चिमी सीमी से खींची आने वाली जरीब पहुँचने की उम्मीद थी।

    जरीब लगातार खींची जा रही थी। लगतार चल रही जरीब में चमक आ गई थी और उसके फुलिए की धार हो गई थी तीखी। जैसे लगातार चल रहे हल की फाल। आस पड़ोस के ढेर सारे जंगल, नाले, बा-बगीचे जहाँ वह वर्षों से नहीं गया था, बचपन के उन भूले-बिसरे और अक्सर सपनों में आने वाले कोने-अंतरे तक जरीब के साथ ही मणि का भी आना-जाना हो रहा था। खैरबन्ने के बीच से गुज़रते उसको फुदकते खरगोश की याद आई और कानों में पंडौकी की आवाज़ घुलती महसूस हुई। तभी उसको स्मरण हो आया कि यहीं कहीं एक मरा हुआ नवजात जीवन में पहली बार रीब से देखा था।...गब्बी-नाले के किनारे झौआ और सिक्कट के जंगल के पास उसको विशाल नाग-नागिन के जोड़-लेने का दृश्य कौंधा। बगल की झील में चकवा-चकवी खेलते और दूर किसी पेड़ पर से कोयल की कूक सुनाई देती थी। बहरहाल सब जगह जरीब के निशान ही निशान दिखाई दे रहे थे।

    इस तरह तीन दिनों तक लगातार चलती जरीब का जो परिणाम आया वह पहले के निशान से एक कड़ी और उत्तर ही चला गया। तीनों अमीन ने एक स्वर में कहा कि इतना अंतर तो बार-बार की पैमाइश में आ ही जाता है इसलिए दोनों बार की नाप सही ही मानी जाए। मगर चाचा ने कहा, ''नहीं, कोई बड़ा झोल है। शीशम से दक्षिण ही इसका हिस्सा पूरा होना चाहिए।...ऐसा कीजिए, एक बार, उत्तर-दक्षिण गाँव की सीमाओं पर लगे जो पत्थर हैं उनको चेक कीजिए कि कोसी की बाढ़ में वो हिलडोल तो नहीं गए!...’‘

    इब्राहीम अमीन के लिए गाँव का एक-एक प्लॉट देखा-समझा था। वह जानता था कि किसका हिस्सा कितना कम है और किसका किसने अपने में कितना मिला लिया है। उसकी नापी को गाँव में ईमानवाला कोई चैलेंज नहीं कर सकता था। उसने अपने मन की पीड़ा दबाते हुए धीरे से कहा, ''चचा, आप जो पुरानी नाप की बात करते हैं, वह तो मुझे याद नहीं कि कभी मैंने इसकी सीमा शीशम से दक्षिण बतायी थी। यह शीशम भी मणि से पहले इनके वालिद मास्टर साहेब का ही कहलाता रहा है। हाँ, अब जहाँ तक सीमा-पत्थर की बात है तो जान लीजिए कि गाँव की सीमाएँ ठीक करने के बाद पड़ोसी गाँवों की सीमाएँ ठीक करने की समस्या भी आ सकती है।...और आप कोसी-बाढ़ से गाँव-सीमा के पत्थर हिलने-डोलने की बात पूछते हैं, पूरा प्रांत हिल गया है चचा!...सरकार, प्रशासन से आदमी के जमीर तक।’‘

    चाचा जी गुस्से से काँपने से लगे थे। ख़ुद को रोकते-रोकते भी संभाल नहीं पाए, ''मुझे मत पढ़ाओ इबरहिमा! जितना कहता हूँ उतना करो। हर जगह पाकिस्तान मत बनाओ। तुमको फीस मिल रही है, चुपचाप नापी करो।’‘

    तिलमिला-सा गया इब्राहीम चुप हो गया। अपमान-सा महसूस कर रहे बाक़ी अमीन भी चुप ही थे। दिन-भर का उग्र सूरज धीरे-धीरे अस्त हो रहा था।

    गुस्से को जज्ब करते मणि ने कहा, ''इस छोटी-सी बात के लिए आप लोग दुखी मत होइए, प्लीज! एक सप्ताह होने जा रहा है, बहुत से बहुत एक सप्ताह और। चाचा जी को भी संतुष्टि हो जाएगी और गाँव वाले को भी तसल्ली मिलेगी कि उसके गाँव की सीमावाला पत्थर दुरुस्त है।’‘

    तरह-तरह की टिप्पणी करते लोग छोटे-छोटे टुकड़ों में बिखर अपने-अपने घर की तर चल दिए। चाचा जी को किसी प्रपंच के मुतअल्लि मुखिया जी के यहाँ जाना था। वे तेज़ी से आगे बढ़ अपना फटफटिया स्टार्ट कर निकल गए।

    तीनों अमीन के साथ मणि दालान की तर आ रहे थे। कि सर्कल आफ़िस से आए अमीन राम प्रसाद ने कहा, ''देखिए मणि बाबू! सबसे ज़्यादा गंदगी राजनीति और कारपोरेट में मानी जाती है, लेकिन वहाँ सा कपड़े और एयरकंडिशन्ड माहौल के चाकाचौंध में सब दब-ढक जाता है। फिर शहर-नगर को गंदा बताया जाता, मगर वहाँ भी हर तरह की गंदगी बहाने-छुपाने के लिए असंख्य तरह के नाले, सीवर-डे्रन, कूड़ाघर बने हैं। माने एक सिस्टम है गंदगी के साथ एडजस्ट करने की। मगर गाँव में ऐसी कोई सिस्टम नहीं इसलिए यहाँ घर के आगे-पीछे कूड़े-करकट की ढेर है, कहीं भी हगने-मूतने की आज़ादी, बँसवाड़ी में छिनालपन, चौपाल में सट्टा-कमीशन की बातें, देवस्थल पर हत्या-उठाईगिरी का प्लान ताश खेलते-खेलते बन जाता है।...यहाँ आवरण बस कुल-गोत्र, पाग-पंजी के आदर्श, भोज-भात और दहेज के आडंबर में दिखता है...’‘

    ''कितना रायता फैलाओगे राम प्रसाद?...’‘ रतन लाल ने टोका।

    ''कहने का मतलब तो बताने दीजिए रतन भाई!’‘ इब्राहीम ने हस्तक्षेप किया।

    ''मैं कोई पहेली नहीं बुझा रहा हूँ।...मेरा कहना है, मणि बाबू के चाचा खुलेआम ग्रामीण स्टाइल की नंगटई कर रहे हैं।...कब तक यूँ ही समंदर उलीचते रहेंगे?’‘ राम प्रसाद ने अपनी बात पूरी की।

    ''मैं समझ रहा हूँ। मगर इन्हें इनके ही अस्त्र से मारना होगा। ये समझ रहे हैं, मैं परेशान होकर भाग खड़ा होऊँगा। ये मुझे किसी और मामले में भी फँसाने का जुगाड़ कर रहे होंगे। इसलिए मैंने लंबे समय तक रुकने का प्लान बना लिया है। बस आप लोगों का सहयोग चाहिए। बाक़ी देखते रहिए कि ये कैसे अपने ही जाल में उलझते जाएँगे!’‘

    ''हमरा सहयोग ज़रूर मिलेगा, लेकिन बीच-बीच में छुट्टी भी तो देंगे?’‘ इब्राहीम ने पूछा।

    ''ज़रूर...ज़रूर! जब भी कोई ज़रूरी काम हो इसको एक-दो दिन के लिए मुल्तवी रख सकते हैं।’‘ मणि ने उत्साहित स्वर में कहा, ''और मैंने अपनी रसोई की व्यवस्था ठीक कर ली है।... फौज को हथियार से पहले रसद चाहिए होता है।...और इस अवसर पर मैं चाहूँगा कि आप लोग मेरे हाथ की बनी एक-एक कप चाय ज़रूर पीकर जाएँ।’‘

    ''क्यों नहीं!...आप जैसे कलाकार के हाथ की चाय बार-बार थोड़े मिलेगी!...’‘ इब्राहीम के साथ ही बाक़ी दोनों भी राजी हो गए और तीनों उनकी बैठक में आ गए।

 

 

संन्यासिन के घर से लौटकर मणि ने पहले सारे फुटेज लैपटॉप में कापी किए। फिर एक बार चलाकर देखा। गैस-चूल्हे पर खिचड़ी चढ़ाकर पिछवाड़े के पेड़ से दो-तीन पपीते और अमरूद तोड़ लाए।

    भोजन-विश्राम के बाद उसका मन चौक तक जाने का हुआ। तैयार होकर वह निकलने ही वाला था कि आदिवासी टोले से तेजू और सिबन उराँव आ गए। घर की रीनोवेशन बाबत बात करने के लिए उसने ही उन कारीगरों को बुलवाया था। पूरा काम दिखा-समझा कर सारी बातें तय हो गईं। फिर उनके साथ-साथ वह भी निकल गया। चौक तक तीनों साथ थे। साथ-साथ वहाँ तीनों ने चाय पी और पान खाए। पान खाते समय उसी दुकान से एक ग्राहक को रहस्यमय तरीक़े से कुछ रीदते देख मणि को संदेह हुआ। थोड़ा अलग हट उसने उस बाबत पूछा तो दोनों हँसने लगे, ''आपको नहीं मालूम? पान दुकान क्या, यहाँ तो किराना दुकान तक में बिकते हैं, पाउच-बोतल सब!...’‘

    उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की। उसको कोई आश्चर्य नहीं हुआ। उसकी आशंका कंफर्म हो गई।

    दोनों कारीगर चौक से दूर जा चुके थे और वह वहीं अनमने खड़ा था। उसने चारों तर सरसरी नज़र दौड़ायी। जैसे कुछ खोज रहा हो। चार-छह दुकानें थीं...चाय-नाश्ते, पान-बीड़ी, स्टेशनरी-शृंगार और परचुनिए टाइप की।...इक्का-दुक्का ग्राहक। एक अजीब तरह की उदासी जिसको तेज़ आवाज़ में बज रहे टेपरिकार्डरों का शोर भी कहीं से त्म नहीं कर पा रहा था। चहलदमी करते वह थोड़ा आगे बढ़ा। एक दुकान के साइड में एक हस्तलिखित पोस्टर चिपका हुआ था

नैना ब्यूटी पार्लर

हर तरह के हेयर स्टाइल, आइब्रो, ब्लीच, फेसियल और

चेहरे निखारने के लिए एक बार सेवा का अवसर ज़रूर देवें।

रेखा झा

पत्नी श्री गोकुल झा

पंडित टोला, मोबाइल नं. 94310.....

    मणि वक़्त-ज़रूरत के लिए कुछ पेन-किलर लेना चाहता था। उस बाबत खोज की तो पता चला कि सोनू मल्लाह जो दवाई रखता था वह पंडित टोले में किसी को पानी चढ़ाने गया था। वह बिना कुछ सोचे पश्चिम की तर जाने वाली सड़क पर बढ़ गया। दलित-आदिवासी बस्तियों को पार कर वह सड़क जहाँ त्म होती थी वहाँ एक नदी थी। वहाँ कोई पुल नहीं था। खोलो धरिया उतरो पार यही है इस नदी का व्यवहार!...मगर उसको नदी-पार नहीं जाना था। वह तट पर बैठ गया।

    इस नदी के साथ उसकी बचपन की दोस्ती थी। इसके हर कल-बल से परिचित था वह और उससे जुड़ी अनेक कथाएँ भी उसको मालूम थीं। लेकिन कुछ ही साल पहले जब प्रलय मचाने वाली भीषण बाढ़ आई थी तो गाँव से निकलने के बाद फारबिसगंज स्टेशन के प्लेटफार्म पर संन्यासिन ने एक नई कथा सुनाई थी

उस भूखंड पर एक ब्राह्मण राजा हुआ था। उसके दुर्दिन कुछ इस तरह आए कि सारे हाथी बिक गए और घोड़े मर गए। ज़ाने में सोने क्या चाँदी तक का एक मोहर नहीं बचा। ऊपर से अन्न-पानी का संकट। नौकर-चाकर, मंत्री, अमला सारे भागने लगे। वह एक दरिद्र और निर्बल राजा के रूप में इस तरह विख्यात हो गया कि कोई भी उस पर चढ़ाई कर सकता था। उसके पास बड़ा-सा राजभवन बचा था और मुकुट की जगह वैसा ही साधारण कपड़े का एक गौरवशाली पाग!...फिर भी वह राजा कहला रहा था और किसी के अधीन नहीं हुआ था तो सिर्फ़ अपनी अपरूप सुंदरी बेटी के कारण। उसकी महासुंदरी बेटी पर आसपास के तमाम राज्यों के राजागण लट्टू थे। बेटी के बदले चारो तर से धन्यधान्य पूर्ण करने के प्रस्ताव आ रहे थे। तमाम प्रस्तावों को तौलने-परखने के बाद उस राजा ने गंगा पार के एक वयोवृद्ध क्षत्रीय राजा के साथ दस हज़ार सफ़ेद घोड़े और हर घोड़े पर लदे स्वर्ण मोहर, नाना प्रकार के मेवा और अन्यान्य सामानों के बदले विवाह तय कर दिया। जबकि उसकी गुणवंती बेटी एक महाबलवान शूद्र युवक से प्रेम करती थी जो नेपाल के कोसी उद्गम क्षेत्र में एक पर्वत शृंखला क्षेत्र का युवराज था। संध्याकाल बेटी ने पिता के सामने वृद्ध क्षत्रीय राजा की तुलना में महाबलवान शूद्र युवक की प्रशंसा की और बताया कि वह इतना वीर है कि रात-भर में कोसी-मुहान से गंगा तक बाँध बना सकता है।...और पिता से अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया।

पिता ने एक प्रतियोगिता रख दी। कहा कि क्षत्रीय राजा को मैं दस हज़ार सफ़ेद घोड़े के साथ बाक़ी सामान सुबह तक लाने का समय देता हूँ और शूद्र युवराज से तुम कहो कि वह रात-भर में बाँध पूरा कर सूर्योदय होने से पहले राजभवन पहुँचे। अगर ऐसा कर लिया तो उषाकाल में ही तुम्हें मन पसंद युवराज संग ब्याह कर पर्वत राज भेज दूँगा, अन्यथा देर होने पर दूसरे राजा संग ब्याह के गंगा पार जाना पड़ेगा।...

महाबलवान शूद्र युवराज ने आधी रात तक में ही बाँध पूरा कर लिया। फिर सोचा कि इतनी रात को राजभवन जाना ठीक नहीं होगा। राजभवन परिसर से थोड़ी दूरी पर एक बरगद के नीचे लेट गया। चिडिय़ों के चहचहाने पर उसकी आँखें खुलीं तो तेज़ी से राजभवन की तर बढ़ा। राजभवन के मुख्य द्वार के सामने दस हज़ार सफ़ेद घोड़ों की भीड़ थी। उन घोड़ों के बीच से धीरे-धीरे पार होते अपनी प्रेमिका के लिए साथ लाए सप्तला का फूल लेकर जब वह राजभवन पहुँचा, तभी पूरब आसमान में सूर्य का हल्का-सा गोला बाहर निकल आया था। सप्तला फूल की चमक त्म हो गई...

और दरिद्र ब्राह्मण राजा ने अपनी महासुंदरी युवा बेटी का विवाह वयोवृद्ध क्षत्रीय राजा से कर गंगा पार के लिए विदाई कर दी।

और तब वह सुंदरी रास्ते-भर इतना रोई, इतना रोई...उसके आँसू इतने बहे, इतने बहे कि वह जिस रास्ते से गई, उसके आँसू की धार लगातार बहती गई और गंगा तक जाते-जाते कोसी की सहेली मिरचैया नदी बनकर गंगा में ही विलीन हो गई!...   

मणि याद कर रहा था कि कथा सुनाने के बाद संन्यासिन ने यह भी बताया था कि धोखेबाज़-स्वार्थी बूढ़ों के प्रति अल्हड़ युवती-सी नदी का गुस्सा ही प्रलयंकारी बाढ़ के रूप में जब-तब प्रकट होता है। यूँ मणि संन्यासिन के जीवन के किसी अज्ञात पक्ष से भी उस कथा को जोड़कर देखने का प्रयास करता था।

    तट पर उसके बैठे-बैठे जब सूर्यास्त हो गया तो वह उठ खड़ा हुआ। दलित-आदिवासी बस्ती से गुज़रते हुए यह देख उसको अच्छा लगा कि जहाँ-तहाँ ढीबरी-लैम्प, सोलर लाइट जलाए बच्चे पढऩे की तैयारी कर रहे थे। चौक पर पहुँचा तो वहाँ दिन की अपेक्षा ज़्यादा रौनक दिखाई पड़ी। पान दुकान पर दिन की अपेक्षा भीड़ नज़र आ रही थी। मुखिया जी और चाचा जी तभी पान खाकर चुना चाटते सड़क के दूसरी तर खड़ी एक स्कार्पियो के पास पहुँचे। उसको याद आई कि वह गाड़ी पिछले दिनों कई शाम चाचा जी के दरवाज़े तक आई थी और कुछ ही क्षण में लौट गई थी।

    मणि पान दुकान की तर बढ़ गया। जब तक वह पान खाकर निकला चाचा जी अपनी फटफटिया स्टार्ट कर पंडित टोला वाली सड़क की तर बढ़ गए थे। वह स्कार्पियो के पास खड़े मोबाइल फ़ोन पर व्यस्त मुखिया जी की तर देख रहा था कि तभी पीछे से किसी ने टोका, ''मणि भैया!...’‘

    पटल कर देखा, जगत उराँव था जो पलम्बर का काम करता था, ''तेजू, सिबन कोई गया था काम के लिए बात करने?...’‘

    ''हाँ-हाँ!...जल्दी ही मैटेरियल मँगवाता हूँ तो काम चालू कर दूँगा। तुम भी अपना काम साथ-साथ कर देना।’‘

    ''जी भैया, आप निश्चिंत रहिए। सब समय से और एकदम टंच हो जाएगा। बिजली वाला काम के लिए भी अपने पहचान का एक लड़का है।’‘

    फिर उसने धीरे से पूछा, ''अरे जगत, मुखिया जी ने कब कार रीदी?’‘

    ''नहीं भैया, उनको कार कहाँ है। यह जो देखते हैं सामने स्कार्पियो, फारबिसगंज से किसी बनिया-मारबाड़ी की भेजी टैक्सी है।’‘ और वह मुस्कुराने लगा।

    ''ओऽऽ...चलो, फिर होती है मुलाक़ात। अभी ज़रा टहलने निकला हूँ।’‘ और वह अपने घर की तर ना जाकर पंडित टोले की तर बढ़ गया जिधर चाचा जी की फटफटिया गई थी।

    पंडित टोले के ज़्यादातर दालानों में अंधेरा था। आँगन से ज़रूर कुछ चहल-पहल का आभास होता था और जहाँ-तहाँ से टीवी-रेडियो की भी आवाज़ें आ रही थीं, मगर दालानों में पढ़ते बच्चों का दृश्य कहीं नज़र नहीं आया। देखते-देखते वह पूरा टोला पार कर गया। टोले से ज़रा हटकर मिडिल स्कूल के पास सड़क किनारे खड़ी एक मोटर साइकिल पर उसकी नज़र पड़ी। अंधेरे के धुँधलके में भी उसको पहचानने में दिक़्क़त नहीं हुई कि वह गाड़ी चाचा जी की फटफटिया थी। चाचा जी का आसपास कहीं पता नहीं चल रहा था। लेकिन सूनसान-से लग रहे उस स्कूल कैम्पस के गेट के रीब चंपा फूल के गाछ के साये में खड़ी दो लड़कियों का आभास हो रहा था। लड़कियों की तर से आती पाउडर-क्रीम की तेज़ गंध चंपा की गंध पर भारी थी जो उनके ताज़ा मैकप्ड होने की चुगली कर रही थी। मणि रुका नहीं, वह उसी गति से चलता चला गया थोड़ा आगे के बरगद तक। बरगद से थोड़ा और आगे नवटोल था जहाँ कुछ नए घर बसे थे जिनमें उसके एक रीबी का भी घर था। लेकिन क्षण-भर में ही उसने उधर न बढ़कर एहतियात के साथ बरगद पर चढ़ गया। बरगद पर एक सुरक्षित और माकूल जगह उसने तलाश ली जहाँ से स्कूल गेट के सामने का विहंगम दृश्य देखा जा सके।

    कुछ ही क्षण गुज़रा था कि नवटोल की तर से आती कुछ आकृतियाँ बरगद के नीचे पहुँचीं। फुसफुसाते स्त्री-पुरुष के अस्पष्ट स्वर थे। तभी आगे की आकृति ने कॉल करने के लिए मोबाइल चेहरे के सामने किया था। मोबाइल फ़ोन की क्षणिक हुई रोशनी में उसने चाचा जी को पहचान लिया था। उनके पीछे दो लड़कियों की आकृतियाँ भी चल रही थीं। तीनों मिडिल स्कूल के उसी गेट की तर बढ़ रहे थे जहाँ दो लड़कियाँ पहले से खड़ी थीं। उनको वहाँ पहुँचे कुछ ही पल हुए होंगे कि चौक पर खड़ी स्कार्पियो स्कूल-गेट के सामने आकर रुकी। गाड़ी से मुखिया जी झट से उतरे और चारो लड़कियाँ जल्दी-जल्दी अंदर गईं। तभी स्टार्ट हुई चाचा जी की फटफटिया पीछे मुखिया जी को लादे पश्चिम की तर निकल गई और लड़कियों से भरी स्कार्पियो पूरब की तर निकल नवटोल वाले मोड़ से नेशनल हाइवे की तर मुड़ गई थी।...

    दो किलोमीटर की पैमाइश कर घर पहुँचा मणि ने आसमान की तर देखा। दिन वाली बदली छँट गई थी। तारों भरा आसमान जगर-मगर कर रहा था। तीन तारे ठुमुक-ठुमुक कर ऊपर चढ़ रहे थे।...

 

 

उस दिन उत्तरी सीमा वाले पत्थर की जाँच के लिए बगल वाले गाँव की दूसरी सीमा से पैमाइश चल रही थी। गुनिया-प्रकार और नक़्शे के मार्फ़त संपन्न गणित के बाद बाक़ी लोग जरीब के साथ अगली सीमा की तर चले गए थे। मणि अपने गाँव की सीमा वाले पत्थर के रीब सड़क किनारे पाकड़ के छतनार पेड़ की छाया में बैठे-बैठे संन्यासिन को याद करने लगा। संन्यासिन की पटकथा लिखने से पहले वह उसकी संक्षिप्त जीवन-यात्रा याद करना चाहता हो जैसे!...

    ...संन्यासिन के पिता किसानी से ज़्यादा यजमानी पर आश्रित साधारण गृहस्थ थे। सत्यनारायण कथा-पाठ का अवसर उन्हें ज़्यादा मिलता था। इसका ऐसा प्रभाव था उन पर कि जब उनके घर पहली बेटी आई तो उसको लीलावती नाम दिया और दूसरी आई तो कलावती कहलायी। कलावती जब चार साल की थी, उस साल भीषण बाढ़ आई थी। कलावती को बस धुँधली-धुँधली-सी याद है कि घर छोड़कर लोग बाँध पर पहुँचे थे। बाँध पर उन सबकी छोटी-छोटी झोपडिय़ाँ रातोरात खड़ी हुई थींबाँस-बल्ली-रस्सी के साथ प्लास्टिक, पटेर की चटाई, बोरे और संठी की। उन झोपडिय़ों में कई दिनों तक रहे थे सब। जब पानी कम हुआ, वे घरों को लौटे थे। उसके बाद ही फैली थी महामारीहैजा।...और उस हैजा में गाँव के कई बूढ़े-बच्चे और जवानों के संग लीलावती भी चली गई थी। कलावती को इतनी-सी और याद है कि वह उसकी तरह पक्के रंग की नहीं, हल्की श्यामा माने ललकी गोराई लिये थी...और उसके घुँघराले घने बालों में लाल रिब्बन बँधा था!...

    कलावती के पिता घर में कभी कभार ही दिखते थे। यजमानी पर निकले होते तो भोजनादि के बाद देर रात प्रसाद लेकर आते। कलावती सोयी नहीं होती तो माई को नाम मात्र दे तत्काल पूरा प्रसाद चट कर जाती।...यजमानी मंदा रहता तो सगे-संबंधियों के गाँव मेहमानी करने निकल जाते थे। उसकी माँ गाँव के बड़े किसान पोस्ट मास्टर साहेब और रसूखदार करिया काका के घर कुटान-पिसान, झाड़ू-बहाड़ू से बर्तन-बासन तक का काम करके दो पेट लाय कुछ जुगाड़ पाती थी। पापड़, अदौड़ी, कुम्हरौड़ी, आचार-मुरब्बे से व्रत-त्योहारों के आयोजन तक में लोग उसको बुलाकर काफ़ी राहत महसूस करते और बदले में उसको कुछ-न-कुछ मिलता ही।...

    कलावती देखते-देखते नदी-नाले और तालाब में तैरना सीख गई थी। बीहड़ डरावने जंगल में अकेली जाकर लंबे-लंबे जामुन, बैर के गाछ पर चढ़ भर-पेट खा आती। गुलर के बड़े पेड़ पर चढ़ मधुमक्खी के छत्ते से शहद निकाल कर पी जाती थी। अमरूद हो या शरीफा, बेल हो या आमहर बीहड़ गाछ का दुर्लभ फल सबसे पहले वह ही खाती थी। माँ के लाख रोकने के बावजूद बड़े जंगल से जंगली सब्जियाँ तोडऩे के अलावा सिजन का पहला कटहल हो या सहजन किसी के भी गाछ से चुरा लाती थी वह। किसी के खलिहान से धान चुराकर लेमनचूस चूसना या पटसन का लच्छा खींच दालमोंट खाना उसके लिए बाँये हाथ का खेल था।

    धूल धूसरित कलावती की कमर में फटे-पुराने कपड़े की 'बिस्टीया जाँघियानुमा पैंट के अलावा कुछ और नहीं होता था।...लेकिन आज़ाद खाते-पीते उम्र से कुछ जल्दी ही जब उसकी देह गदरायी तो माँ के गाली-गंजन के बाद पिता ने पुरोहिती में मिले गमछे के कपड़े से उसके लिए फ्रॉक सिलवा दिया था। कलावती के अच्छे-बुरे की चिंता पिता को लगभग नहीं थी। माँ को थी भी तो उसको कोई उपाय सूझ नहीं रहा था। वह ख़ुद अंधे की लुगाई गाँव-भर की भौजाई की तरह हर मान-अपमान सहकर दिन काट रही थी। बहरहाल कलावती अपने में मस्त बिल्कुल लहंगलडि़ला थी!...घरघुस्सी लड़कियों के विपरीत कलावती दिन-रात में गाँव-भर का चार चक्कर लगाने वाली तिलबिखनी ततैया!...और घुमना-फिरना भी शोहदे लड़कों के संग! ...मर्दाना हाड़-काट, मार्दानी बोली-वाणी से गाली-गालौज तक!...तभी तो बचपन से ही खैनी-बीड़ी की लती रही और एकदम मुँहफट-बेलिहाज़!...

    ऐसी कलावती का विवाह एक दिन अचानक तय हो गया!...जब उसका चौदहवाँ चल रहा था और कुछ ही समय पहले ऋतुप्राप्ता हुई थी। किसी गाँव मेहमानी को निकले कलावती के पिता भोला के पिता से टकरा गए। दुनिया-जहान की बातें होते-होते शादी-ब्याह की बातें चल निकलीं और आनन-फानन में भोला जैसे सोलहवें साल में दम रखने वाले शर्मिले युवक संग कलावती का गठबंधन तय हो गया।

    एक बैलगाड़ी पर पाँच बारात संग गए भोला का विवाह सादगीपूर्ण ढंग से संपन्न हो गया। भोला के रूप-रंग पर मोहित और दाम्पत्य में पाए नए-नए रस से तर होकर कलावती उस पर लट्टू हो गई थी। सुहागरात का अनुभव उसने अपनी सहेलियों के अलावा भाभी और चाची के संबंध में आनेवाली कई औरतों को चहकते हुए सुनायी थी।...

    मगर साल-भर बाद गौना क्या हुआ उसका सारा रस बेरस हो गया। 'कलावतीनाम तक पीछे छूट गया। थोड़े दिन 'कनियाँरही, फिर 'भोला की बहूऔर 'फतेहपुरवाली’!...परिछन के बाद मुँह-दिखाई की रस्म शुरू हुई। सबसे पहले सास ने देखा और झूरझमान हो गई। फिर गाँव की औरतों ने देखा और फुसफुसाहट शुरू हो गई। ननदों ने तो काली बिल्ली कहने का मन बना लिया था, मगर भाई का मुँह देख चुप कर गई।...विदाई से पहले मायके में एक पूरा सप्ताह माँ-बाप, चाची-चाचा, अड़ोसी-पड़ोसी सबने जितने तरीक़े से संभव था उसको लाख-लाख समझाइश दी थी। सास-श्‍वसुर सेवापुराण से ससुराल की डाँट-डपट और गाली को भी आशीर्वाद समझने जैसी नसीहतों का इतना बड़ा पाठ था वह कि उसकी संपूर्ण पाठ सामग्री एकत्रित कर प्रसिद्ध धार्मिक प्रकाशन गृह से ससुराल-गामी स्त्रियों के लिए ज़रूरी पुस्तक रूप में छापी जा सकती थी। लेकिन उन उपदेशों के बावजूद सात दिनों में ही घुँघट के भीतर उसका दम घुँटने लगा। घुँघट उतारने के बाद बाहर-भीतर निकलते ही बेर, अमरूद, शरीफा के पेड़ की तर उसकी नज़रें गईं और रात-विरात चुपके से तोडऩे लगी। शुरू-शुरू में अपने गाछ से फिर किसी के भी गाछ से। उस साल उसके घर के पिछवाड़े के सहजन और कटहल बहुत कम फले थे, लेकिन कई शाम सब्जियाँ खाने के बाद भी पेड़ों पर कटहल और सहजन लगे ही थे। इसी तरह तालाब का सा पानी उसको तैरने को ललचाने लगा था। दिन-भर सास-श्‍वसुर का लिहाज कर नहीं जाती, मगर रात होते मायके से छुपा के लाये तंबाकू खाकर घंटे-भर तैर आती थी।...घर में सब सिर धुनतेयह औरत है या...?

    उसके श्‍वसुर थोड़े पढ़े-लिखे थे मगर घोर पारंपरिक! आँगन-घर के मामले में दखल न देने वाले, वीतरागी जैसे! सास घनघोर धर्मपरायण और 'शुद्ध-पवित्रनुमा नियम-निष्ठा से बँधी! आग भड़काने वाली ननदें ज़हर की तिली थीं।...पति मुश्किल से मैट्रिक पास था, और जगह-ज़मीन के मामले में होशियार, लेकिन घर-गृहस्थी के मामले में साक्षात भोलानाथ!...घर के आर्थिक हालात बहुत अच्छे भले न थे, मायके से काफ़ी बेहतर स्थिति थी। कई एकड़ खेती थी। ज़्यादातर बलुआही ज़मीन होने के कारण तब चावल-गेहूँ कम होते थे, लेकिन अल्हुआ, मड़ुआ, खेसारी, कुरथी, तिल-जौ जैसी सलें ख़ूब होती थीं। जूट और तंबाकू भी। बगीचे में आम, केला, लीची, शरीफा, अमरूद, बेर जैसे अनेक फलदार पेड़ थे। छोटा सही सा जल वाला तालाब था जिसमें रेहू, कतला जैसी मछलियाँ थीं। गाय-भैसें इतनी थीं कि दूध-दही इरात में होता था। कमी थी तो ऐसी कि पंद्रह साल की अल्हड़ बालिका में सब गुणवंती औरत तलाश रहे थे।

    एक और बात की बड़ी दिक़्क़त थी। उसकी खुरा थोड़े ज़्यादा थी। सामान्य ढंग से सास-ननदों के साथ उसकी भी थाली लगती थी और वह भूखी रह जाती थी। क्षुधापूर्ती के लिए पहले वह पेड़-पौधों तक ही सीमित रही फिर घर में रखे दूध, दही या जो भी खाने लाय मिलता चट करने लगी।

 

    मायके से चलते वक़्त जीह-जाँघ-पेट काबू में रखने का उपदेश मिला था, लेकिन निभाना कठिन हो गया था। चूल्हे पर चढ़ा भात खाने से दिमा चढ़े रहने की बात बतायी गई थी, लेकिन वह अक्सर देगची से दो-चार कलछुल निकाल के नमक के साथ गरमा-गरम खा जाती थी।...जीह पर गरम-गरम भात की वह तासीर और अगम पानी में जँघे की कशिश उसको अलग तरह का सुख देती थी।

    सास आगबबुला हो गई, ''अपवित्र!...अपवित्र!...जूठा, सब कुछ जूठा।...’‘

    चाचा जी अपनी बड़ी भाभी को रस लेकर उकसाते, ''पंडित की बेटी क्षुद्र, महाक्षुद्र!...हंडी में खाती चौके में हगती!...राम-राम!...’‘

    पहले डाँटा गया फिर पीटा गया।...झाड़ू से, डंडे से, छलनी से, कलछुल से...

    लेकिन मार के डर से भूखी रहनेवाली वह नहीं थी। उसका कहना सा थाभूख पेट की हो या दूसरी, उसके आगे कोई क़ायदा-क़ानून नहीं चलता...चुरा के खाया हर फल मीठा होता है। यूँ भरसक वह गाछ-वृक्ष से ही रात के अंधेरे में अपने लाय कुछ भी चुराना चाहती थी, लेकिन घर में रखे दूध-दही, चीनी-चिड़वा नज़र के सामने आ जाय तो ख़ुद को रोक नहीं पाती थी।...तब होती थी बेरहमी से पिटाई, माल-मवेशियों से भी बदतर तरीक़े से...

    पहले सास और ननदें ही मारती थीं फिर माँ के कहने पर उनका लाडला भोला भी जमकर कुटता था। माँ के आदेश और ललकार पाते भोला सीना चौड़ा कर मर्द बन जाता और गेन्हवा लाठी से टाँग, हाथ, पीठ जहाँ पाता उधेड़ देता था। गरदन के ऊपर के हिस्से को छोड़ कोई ऐसी जगह नहीं बची थी जहाँ उसकी बेरहम पिटाई ना हुई हो! और यह पिटाई हर सप्ताह, दस दिन पर रूटिन जैसी हो गई थी।

    ताडऩ का यह सिलसिला यहीं नहीं रुका। घर के लोगों ने उसका छुआ अन्न-पीना लेना छोड़ दिया। उसको एक अलग कोठली दे दी गई और बना-बनाया खाना सबसे अंत में ले जाकर कोई बाहर से ही उसकी थाली में उडेल देता था। कुछ दिन ऐसा चला फिर उसको अलग बर्तन-चूल्हा देकर महीने में एक मन कच्चा अनाज दिया जाने लगा। दूध-दही बेकार न जा रहा हो तो बूँद-भर भी नहीं। दूध-दही के लिए उसका जी ललचाता भर, लेकिन तंबाकू के बिना मन बेचैन हो जाता था। बीड़ी छोड़ चुकी थी, लेकिन तंबाकू जिस-तिस से माँग-चाँग के भी खा रही थी। उस मामूली से तंबाकू के लिए भी वह सैंकड़ों बार पिटी थी। वह तंबाकू ही था कि रात-विरात चुपके से जब कभी भोला उसके पास जाता तो बतौर तोहफ़ा देकर मनाता था।...

    दो साल पूरा होते-होते हथिनी की तरह मस्त रहने वाली वह बालिका भिखारिन की तरह दिखने लगी थी। मायके की राह तकते आँखें पथरा गईं। इकलौती संतान का बाप होकर भी उसके पिता एक बार देखने नहीं आए थे। उसने जिस-तिस के मार्फ़त संदेशे भी भिजवाए कि एक बार मायका देखने का बड़ा मन करता है।... उन दिनों फुर्सत के क्षण में तालाब किनारे बैठ वह एक लोककथा को अक्सर गीत की तरह गुनगुनाती थीपोखर महार पर खोंता रे खोंता/ बच्चा भूखेँ कनै यए श्याम चुन-चुन...

    दरअसल गाँव से बाहर निकलने का मौक़ा पहली बार उसको गौना में ही मिला था। वह ओहार लगी बैलगाड़ी के भीतर घुँघट लिये बैठी थी सो रास्ते का पता नहीं चला था, वरना पाँच-छह कोस तो रातभर में ही आ-जा सकती थी। आखिर दो-चार रात घर से निकली भी, लेकिन कोस-दो कोस जाकर लौट आई थी। लोगों ने बताया था कि उसका मायका फतेहपुर पूरब की तर है, लेकिन पूरब की तर कई रास्ते जाते थे और उधर फतेहपुर जैसे अनेक और भी गाँव थे। एक रात रास्ता खोजने निकली तो उसने भैंस चराते एक चरवाहे को देखा और उससे फतेहपुर का रास्ता पूछ लिया। चरवाहे के मुँह से बोल नहीं फुटा, भैंस छोड़ वह भाग खड़ा हुआ।

    धीरे-धीरे घर से लेकर पूरे गाँव तक चर्चा ज़ोर पकडऩे लगी और उसके रात्रि-भ्रमण के क़िस्सों में पंख जोड़े जाने लगे। कई लोगों ने आँखों-देखा हाल-सा सुनाया कि नदी किनारे वह भूतों से बातें करती थी और चरवाहों से खैनी माँगती थी। किसी ने मध्य रात्रि में श्मशान-सिद्धि की बात कही, तो किसी ने गाछ हाँकने का वृत्तांत सुना दियाकिसी फलदार गाछ पर चढ़ जाती है और उसको हाँकते-दौड़ाते कभी मोरंग पहाड़ तो कभी कामरूप-कामाख्या चली जाती है और सुबह तक लौट आती है।... इस तरह बात-कथा चलते-चलते एक दिन वह भी आया जब वह पूरे गाँव की नज़र में एक सिद्ध डायन घोषित हो गई।...

    उसकी शादी के तीन साल हो गए थे और बच्चे नहीं हुए थे।...सबने निष्कर्ष निकाल लिया कि कोख देकर डायन-मंत्र की सिद्धि की गई है। और हद तो तब हो गई जब एक दिन यही चाचा जी कुछ लोगों के साथ उसके आँगन आ गए और अपने बीमार बेटे को जल्दी ठीक करने के लिए धमकाने लगे। उसको घर से खींचकर ख़ुद चाचा ने ही बाहर लाया और आँगन बीच पटककर लात-हाथ से ख़ूब पीटा था। फिर दहाड़ते हुए कहा था, ''जिस मंत्र से इसको रोगी बनायी हो उसी मंत्र से निरोग करो!...नहीं तो आज तुम्हारी जान नहीं बचेगी।’‘ कि चाचा के एक हित-चिंतक पड़ोसी ने अपना ज्ञान बघारा, ''अरे, यह 'मारसीख गई है 'सम्हारनहीं जानती। गू घोल के पिला दो, सारे मंत्र बेअसर हो जाएँगे।’‘

    तभी चाचा जी ने मिट्टी के एक छोटे बर्तन में गू मँगवा कर घोल बनाना शुरू किया था। लोग दम साधे खड़े थे। आँगन में ही बैठी उसकी सास और ननदें चुप थीं। भोला कहीं ग़ायब हो गया था। पता नहीं उस दिन क्या हो जाता, लेकिन तभी किसी से इस बात की भनक पाकर मणिकांत के पिता स्कूल से दौड़े-दौड़े आ गए थे। उन्होंने चाचा जी सहित सबको डाँट के भगाया और धमकाया था कि ''अगर दोबारा किसी ने ऐसी जाहिलों वाली हरकत की तो जेल भेजवा कर छोड़ूँगा।... बीमार बच्चे का इलाज नहीं करोगे और अंधविश्वास के पीछे अपराध दर अपराध करते जाओगे।’‘

    गुस्साए चाचा जी गू वाले बर्तन में एक लात लगाकर चले गए थे...मणि के पिता उस दिन बहुत दुखी थे। शाम में भोला के लौटने पर उसको भी बुलाकर उन्होंने डाँटा और समझाया था कि जिसको ब्याह के लाते हैं उसकी देखभाल भी करनी पड़ती है! सबसे पहले चूल्हा एक करो!...अपनी स्त्री को समझो और माता को समझाओ!...अलग से भोला की माँ को भी बुलाकर उन्होंने समझाने का काफ़ी प्रयास किया था।...

    बालू में घी डालो या पानी! हर अच्छी बात के प्रभाव की तरह वह भी उस परिवार के लिए बेअसर रहा!...चूल्हा अलग ही रहा, बस थोड़े दिन के लिए मार-पीट रुक गई।...

    कुछ दिन और बीत गए। गाँव के दूसरे पट्टीदार के यहाँ शादी का एक आयोजन था। उनका एक संबंधी फतेहपुर में रहता था जिनका एक लड़का न्योंता पूरने आया था। वह लड़का मायके के नाते से संन्यासिन का दूर का भाई लगता था। वह मेहमान भाई शादी वाली रात थोड़ी देर के लिए मिल कर चला गया था, मगर अगले दिन वापस गाँव जाते समय फिर मिलने आया था। मिलकर जब भाई गाँव को निकला, वह उसके पीछे लग गई। जंगली इलाक़ा था, दस दम चलते राहगीर ओझल हो जाते थे। घर के लोगों ने समझा मेहमान को विदा करने गई है, थोड़ी देर में आ जाएगी। मगर वह जाती ही रह गई।...

    उसके इस तरह 'उढऱजाने को लेकर ख़ूब हंगामा हुआ। सास ने कसम खायी कि दोबारा उस 'उढऱीको घर घुसने नहीं देगी।...भोला के दोस्त-मित्र उसको 'उढऱी के सैयाँकहकर चिढ़ाते थे। दो-चार महीने ही बीते कि उसकी दूसरी शादी की चर्चा चलने लगी। दूसरी शादी के लिए उकसाने और लड़की खोजने में चाचा जी सबसे आगे रहते थे!...

    संन्यासिन की जीवन-यात्रा के इस मुक़ाम तक आते-आते मणि का ध्यान टूटा। तब तक दूसरे गाँव की सीमा से जरीब खींच के लानेवाले लड़के अमीनों के साथ उस पत्थर तक आ गए थे। मणि खड़ा होकर देखने लगा। पत्थर के चारों तर खड़े लोगों के बीच तीनों अमीन थे। थोड़ी देर की माथापच्ची के बाद उन्होंने उस सीमा-पत्थर को 'लगभग दुरुस्तघोषित कर दिया था। फिर दक्षिणी सीमा-पत्थर की तस्दीक की बात आई। वक़्त दोपहर के भोजन का हो रहा था और धूप भी तीखी थी इसलिए डेढ़ घंटे का ब्रेक घोषित हुआ।...मणि ने सुना भर और घर की तर चल दिया।

    घर के पास आकर मणि अचानक संन्यासिन के आँगन की तर मुड़ गया। संन्यासिन बरामदे के चूल्हे पर सत्तू भरकर मोकनी रोटी बना रही थी। बैगन के भुर्ते के साथ वह रोटी मणि को ख़ूब पसंद थी। आग्रह पाकर उसने चापाकल पर जा हाथ-मुँह धोया और खाने बैठ गया। खाते-खाते उसने आहिस्ते से पूछा, ''संन्यासिन, कुछ साल पहले एक रात चाचा जी आपके घर घुस आए थे...?’‘

    ''वह तो पूरे गाँव-परगना में सबको मालूम है।...’‘

    ''लेकिन सबको जो मालूम नहीं है वह जानना चाहता हूँ।’‘

    क्षण-भर चुप रहने के बाद संन्यासिन ने कहना शुरू किया, ''आप तो जानते हैं, आपके चाचा शुरू से ही मुझे बदनाम करने और हर नाच नचाने में लगे थे। जिस-तिस के साथ मेरे संबंधों के क़िस्से गढ़े-फैलाए...और जब मैं राँड-मसोमात हो गई और इसका मन अपनी बीमार घरवाली से भर गया, तो यह बूढ़ा मुझे ख़ुश करने के लिए लड़कों जैसी शरारत पर उतर आया।...रात-विरात दबे पाँव आँगन में हुल्की देने लगा और एक रात तो हद हो गई जब ख़ुशामद करते-करते यह मेरे पाँव पर गिर पड़ा...’‘ कहते-कहते वह सिसकने लगी। इस बीच बगल के कचनार पेड़ पर से एक कौआ काँव-काँव कर उड़ गया। आँसू पोंछ क्षण-भर बाद उसने बताया, ''मैं जानती थी कि देह-दशा की तात में यह मुझसे जीतने से रहा।...इसके मुँह पर कालिख पोतवाने का सोचकर मैं कमरे की तर चली। कार्तिक के कुत्ते की तरह पीछे-पीछे वह भी लडख़ड़ाता अंदर आ गया। उसके काँपते हाथ मेरी छाती की तर बढ़े ही थे कि मैंने ज़ोरदार धक्का देकर उसको नीचे पटक दिया और छाती पर चढ़कर लगी कूटने।...फिर मैं चोर-चोर का शोर करने लगी। टोले-भर से दौड़े आए लोगों ने 'कहाँ है, कहाँ हैकरते अंधेरे में ही इसको पकड़ा और धुनाई करने लगे। जब तक पहचान पाते इसकी अच्छी कुटाई हो गई थी। दंड-जुर्माने से लेकर चारों तरख़ूब थू-थू हुई।...फिर कभी मेरी तर नज़र उठाकर देखने की उसकी हिम्मत नहीं हुई, लेकिन...’‘

    ''लेकिन क्या?...’‘

    ''उस रात बड़ी लती हो गई कि भड़ुआ को नपुंसक नहीं बनाया!...अब तो यह हरामी औरतों का बहुत बड़ा दल्ला हो गया है।...’‘ कचनार पर कौआ फिर काँव-काँव करने लगा था।

    मणि को आगे कुछ बोला नहीं गया। चाचा की लिजलिजी हरकतों से उसका मन घिना गया था। थाली में बची रोटी का अंतिम टुकड़ा उसने मुश्किल से त्म किया। पानी पीकर उसने बीड़ी जलायी और आगे की पैमाइश की बाबत सोचने लगा...

 

 

उस शाम एक कप चाय बनाकर मणि अपनी छत पर आ गया था। बाँस और शीशम के उबड़-खाबड़ जंगल में पसरे घने अंधेरे के ऊपर और बैक ड्रॉप में तारों भरा आसमान एक अद्भुत दृश्य रच रहा था। दूज या तीज का चाँद डूबने-डूबने को था। चाय की चुस्की लेते-लेते उसने भरपूर निगाहों से रात के उस शुरुआती पहर को निहारा। फिर उसकी नज़रें संन्यासिन के आँगन की तर गईं जहाँ उसके कमरे से रोशनी का एक हिलता-डोलता तरा गिर रहा था। उस तरे को देखते-देखते उसके जेहन में संन्यासिन की जीवन-यात्रा का छूटा सिरा फिर जुडऩे लगा।...

    ...एकदम सा-सा याद है मणि को...तब वह दसेक साल का रहा होगा। एक दोपहर संन्यासिन के पिता दो-तीन और बुजुर्गों के साथ आए थे। उन्होंने मणि के पिता सहित गाँव के और भी कई लोगों को उनके बैठक में बुलाकर एक छोटी-सी पंचायत रखी थी। पंचायत में क्या सब बातें हुईं यह तो उसको याद नहीं, लेकिन इतनी भर याद बची थी कि अगली सुबह उन मेहमानों के साथ भोला ससुराल गया था। फिर चार या कि पाँच दिन बाद बैलगाड़ी पर सवार दोनों लौटे थे।

    पूरे ढाई साल मायके में रहकर आई थी संन्यासिन। उन्नीस-बीस के रीब रही होगी। भरी-पूरी देह! उसमें एक अलग तरह का निखार आ गया था जो सिर्फ़ अन्न-पानी से आया मालूम नहीं पड़ रहा था। स्वभाव से अल्हड़ता बिल्कुल ग़ायब नहीं हुई थी, लेकिन एक ख़ास तरह की समझदारी और दृढ़ता आ गई थी। आलस्य तो उसमें कभी था नहीं, इस बार मेहनत से कुछ नया करने का जज्बा पता नहीं कैसे उसके जेहन में आ गया था।

    ननदें ब्याह के जा चुकी थीं। सास-श्‍वसुर के अलावा ख़ुद दो प्राणी! चूल्हे-चौके, बरतन-बासन, झाड़ू-बहाड़ू के बाद भी काफ़ी समय बच जाता था। पिछवाड़े और आँगन से लगी कुछ ख़ाली ज़मीन थी कास, घास और भाँग की झाडिय़ों से भरी। उसने कुदाल-फावड़ा लेकर धीरे-धीरे सारे जंगल सा कर छोटी-छोटी क्यारियों की शक्ल में ज़मीन आबाद कर ली। फिर जल्दी ही उन क्यारियों में बैंगन, मूली, भिंडी, मिर्ची, लौकी-तोरई जैसी सब्जियों की बहार आ गई। उसकी वह लगन-मेहनत देख अड़ोसी-पड़ोसी से लेकर घर के लोगों के भीतर भी कुछ-कुछ सुगबुगाने लगी थी। इसके बावजूद किसी के भीतर से वह बात निकली नहीं थी कि वो सिद्ध डायन है। इसलिए लोग उससे दूर ही रहना चाहते और प्रशंसा तो भूल से भी नहीं करते थे। बल्कि बीच-बीच में छोटे-मोटे कलह के क्षण भी आते ही रहे।...

    और साल लगते-लगते उसकी गोद में बालक आ गया था फिर कुछ अंतर पर एक बालिका भी। और उन बच्चों के आने के बाद धीरे-धीरे मणि का उसके घर जाना बढऩे लगा था। यूँ संन्यासिन से उसकी बातचीत पहले भी होती थी, मगर ज़्यादा आते-जाते एक दोस्ती-सी भी पनप गई थी उनके भीतर। और उस संबंध का पहला परिणाम यह निकला कि शिक्षक पिता के अनुशासन में ज़्यादा किताबी हो रहा मणि आम-जामुन के पेड़ पर भी चढऩे लगा। फिर बैर-अमरूद चुराकर चखने लगा और एक दिन तालाब में तैरना भी सीख गया। यूँ इस बात से दुखी और चिंतित उसकी माँ बरजती और गुस्सा भी होतीपता नहीं क्या सुँघा दिया है काली बिल्ली ने कि बिगड़ता ही जा रहा है!...लेकिन काली बिल्ली से उसका लगाव इस कदर बढ़ता गया कि गोरी चमड़ी उसकी पसंद के दायरे से बाहर हो गई। यूँ तमाम लगाव के बावजूद मणि अक्सर उससे झगड़ता भी ख़ूब था। जब भी झगड़े होते वह कई तरह की गंदी गालियों के साथ-साथ उसको उढऱी, छिनाल और डायन तक कह डालता था। शुरू-शुरू में संन्यासिन उन गालियों से अप्रभावित-सी हँसती रहती थी। लेकिन एक बार, जब वह मैट्रिक का बोर्ड दे चुका था और वैसी ही गंदी गाली उसके मुँह से निकली तो संन्यासिन ने अपनी साड़ी ऊपर उठाते कहा, ''लो, ये...है! लो फाड़ के दिखाओ!...’‘ और तब जो शर्म और ग्लानि से मणि की नज़रें झुकीं वह झुकी ही रहीं। कान पकड़ माफी माँग वह वहाँ से भाग खड़ा हुआ। कई दिनों तक उससे नज़र नहीं मिला पाया और वैसी गाली तो उसके मुँह से फिर कभी किसी के लिए निकली ही नहीं।

    संन्यासिन की उस माफी के चलते ही उसने उसको गुरुआइन मान लिया था। ...मगर उसके घर के लोगों ने अपने जैसा ही इन्सान समझना कभी ज़रूरी नहीं समझा!... ख़ासकर सास के भीतर उसके हाथ की चीज़ों की पवित्रता पर शंका बनी रहती थी... इसलिए घृणा भी कायम थी।...मगर संन्यासिन ने अपनी इच्छाओं के पंख नहीं कतरे।...

    संन्यासिन के जीवन से दुखदायी प्रसंगों का कुछ ऐसा संयोग था कि वह सिलसिला त्म ही नहीं होता था। उसकी सास को एक दिन साँप काट लिया और वह मर गई, तो चाचा जी ने गाँव में अवाह फैला दी कि उसी के जादू-टोने वाला 'भूतसँपाकाटने से मरी।... भोला के पिता पेट दर्द से मरे थे और ख़ुद भोला नदी में डूबकर।...लेकिन इन घटनाओं को भी उसी के पाप और कर्म-फल से जोड़कर देखा गया!...

    यूँ भोला डूब के ज़रूर मरा था, मगर कई रहस्य भी अपने साथ ही लेकर गया था। कुछ लोगों ने उड़ाया था कि वह शर्म से डूब मरा! माने उसको शक था कि उसकी घरवाली का किसी संग कोई चक्कर था!... दूसरी तर संन्यासिन का अनुमान था कि वह चाचा जी के संगत में कुछ ज़्यादा ही रहने लगा था सो हो न हो उसी ने डुबवा दिया हो गला चापकर। इसीलिए उन लोगों ने झटपट दाह-संस्कार करवा दिया ताकि पुलिस-पोस्टमार्टम से भेद न खुल जाय!...भोला में उसको कोई बड़ा दोष नहीं मिला सिवाय इसके कि उसकी संगत और बुद्धि सब दिन बच्चों वाली ही रह गई...दूसरे के बहकावे में आनेवाला भोला-भाला!...

    संन्यासिन लगातार आग की नदियों में तैरती, असंख्य झंझावात सहती रही। उसने कभी क्षण-भर के लिए भी आत्महत्या की बात नहीं सोची थी। गाछ-बाँस और बच्चों के पीछे उसने अपना सब कुछ झोंक दिया था। तभी तो उसका इंजीनियर बेटा बंगलोर में रह साहब कहलाता था और मैट्रिक तक ही पढ़ी बेटी डाक प्यून संग ब्याह के ससुराल में मेम बनी मौज कर रही थी।...और संन्यासिन अकेली सारी ज़मीन-जायदाद की देख-रेख में लगी दिन-भर हाँसू-खूरपी लिये एक मजूरन की तरह कुछ न कुछ करती रहती थीचाहे कोई उसको मान-सम्मान दे, न दे!...

 

 

अगली सुबह तीनों अमीन आए थे लेकिन पैमाइश का काम उस दिन इसलिए नहीं हो पाया कि चाचा जी को अचानक फारबिसगंज जाना पड़ गया। फारबिसगंज में उनके बहू-बेटे अपने बच्चे संग रहते थे। कहने को बच्चों को पढ़ाने के मसद से वहाँ रहते थे, लेकिन कुछ और भी बिजनेस थे। सुना कि गत रात पुलिस की किसी तफ्तीश में उनकी बहू रानी पकड़ा गई। पता नहीं क्या हुआ, दस मुँह दस बात!...

    इब्राहीम की बुदबुदाहट अचानक सुनाई पड़ी, ''इनके घर में कोई भी सुधरने वाला नहीं!...’‘

    ''क्या मतलब?...’‘ मणि ने सहज ढंग से पूछा।

    ''कुछ नहीं...बस यूँ ही हम सब को परेशान कर रहे हैं।’‘ इब्राहीम ने बातें बदल दी।

    कि बगल की कुर्सी पर बैठे बुजुर्ग अमीन रतन लाल ने कहा, ''अभी मैं दलित-बस्ती से आ रहा था...चाचा जी का पुराना हलवाहा मुंगा मुझे रोक कर बताने लगा कि इन्होंने उसकी सात दिन की दिहाड़ी बाक़ी रखी थी। कल माँगने आया तो इन्होंने सात को छह दिन बना दिया! फिर जले पर नमक कितुमको पैसे की क्या दिक़्क़त! गाँव में खेती संग दिहाड़ी तो बनाते ही हो! यहाँ काम मंदा पड़ा तो दिल्ली-पंजाब से भी टान लाते हो।...कि मुंगा ने कह दियाआप जलते क्यों हो चचा? यहाँ कमावें कि वहाँ मेहनत-ईमान से लाते हैं, बैठे-ठाले कमिशनखोरी नहीं करते।...’‘

    ''हाँ जी, जैसे को तैसा कहने वाले हाजिर-जवाब बढ़ रहे हैं।’‘ इब्राहीम ने कहा।

    कि तभी रास्ते से जा रहे मिडिल स्कूल के एक मास्टर साहेब ने सड़क पर से ही तेज़ स्वर में पूछा, ''अरे इब्राहीम भाई, कोसी की कोई बर है?’‘

    ''नहीं, क्या हुआ?... फिर किसी ने अवाह फैलायी क्या?’‘ इब्राहीम ने संयत स्वर में कहा, लेकिन उनके भीतर हलचल सी हुई।

    ''मैं जा रहा हूँ समाचार देखने!...जब तक पक्का नहीं जान लूँगा कुछ नहीं कह सकता।’‘ और वह तेज़ दम आगे बढ़ गया।

    थोड़ी देर में तीनों अमीन अपने-अपने घर की तर निकल गए। मणि सोचने लगा कि लैपटॉप खोल गूगल पर कोसी-समाचार जान लें। कि तभी संन्यासिन आ गई और आते ही बिना किसी भूमिका के बताने लगी, ''जानते हैं, लोकेश का फ़ोन आया था अभी। कहता है, गाँव में अकेले रहते डर नहीं लगता!...आ जाओ बंगलोर। गाछ-बाँस और सारी ज़मीन-जगह बेचकर बंगलोर में ही बड़ा-सा मकान रीद देता हूँ।’‘

    मणि ने कहा, ''अच्छी बात!...आपने क्या कहा?’‘

    ''हाँ-हाँ, आप क्यों न कहेंगे...अच्छा!...मैंने कह दिया, मेरे मरने के बाद जो मर्जी कर लेना। अभी तो एक दातौन भी बेचने नहीं दूँगी।’‘

    क्षण भर चुप रहकर मणि ने कहा, ''मेरा प्रेमू भी बेचने की बात जब-तब करता रहता है!...’‘

    ''आपने क्या कहा है?’‘ उसने पूछा, सशंकित।

    ''मैंने कहा, मुझे गाँव में रहकर एक फ़िल्म की शुटिंग करवानी है। बस वह हो जाने दो!...’‘

    ''वह फ़िल्म कब तक होगी।’‘

    ''पता नहीं!...हो सकता है पूरी जि़ंदगी लग जाए!...’‘

    संन्यासिन अपनी मुस्कान छुपाती चली गई।

 

 

अगली सुबह तक इलाक़े भर में दहशत का बाज़ार गर्म हो गया था। कुसहा के आसपास कहीं भी कोसी बाँध फिर टूटना तय माना जाने लगा था। 2008 के दुहराव मात्र की बात नहीं कही जा रही थी...पिछली बाढ़ से कई गुना ज़्यादा पानी की आशंका बतायी जा रही थी। कुछ का तो कहना था कि तीस मीटर ऊँचा पानी एक साथ दौड़ेगा और जिधर से भी जाएगा गाँव के गाँव लील जाएगा!... मणि ने गूगल के सहारे अलग-अलग साइटों की बरें खोज कर देखी थी। उनके मुताबि कोसी जल-ग्रहण क्षेत्र में हुई भारी वर्षा और हिम-स्खल के चलते नेपाल के सिंधुपाल चौक ज़िले में पहाड़ ढहने से सोन कोसी का मार्ग अवरुद्ध हो गया था। इस कारण 20 से 27 लाख क्यूसेक पानी की एक कृत्रिम झील बन गई थी।... बड़ी संख्या में नेपाली सेना के जवान और इंजीनियर लगे थे कि कम क्षमता वाले बमों के विस्फोट के सहारे धीरे-धीरे झील का पानी निकाला जाए।... हाँ, एक साथ सारा पानी दौड़ गया तो भीषण तबाही हो सकती है इसलिए उत्तर बिहार के कई ज़िलों में हाई अलर्ट जारी था।...

    लेकिन उस अलर्ट और उससे जुड़ी ख़ौफ़नाक बरों के ज़रिए कमाई करने में लगे मीडिया की हॉरर फ़िल्मों जैसी भाषा के चलते इलाक़े में भीषण दहशत फैल गई और अफरा-तफरी का माहौल बन गया था। तेज़ी से वह इलाक़ाख़ाली होने लगा। गाय-भैंस-बकरी, बक्से-बोरे-गठरी लिये लोग निरंतर भाग रहे थे। जीप, ट्रक, टैम्पो, कार जितनी तरह की गाडिय़ाँ थीं लगातार दौड़ रही थीं खचाखच भरीं। बसों और ट्रैनों की छतें तक ख़ाली नहीं जा रही थीं।

    उस दिन मणि गाँव का चक्कर ही लगाता रह गया। भागते लोगों की तारें और अफरा-तफरी!... दो-तीन बार पान खाने के बहाने वह चौक तक गया और हर बार संन्यासिन के लिए भी पान लेकर आया।

    शाम में मणि के दो पड़ोसी घरों के लोग जब बोलेरो और टवेरा में भर कर जा रहे थे उन्होंने मणि को भी भागने की सलाह दी। उसके कुछ ही क्षण बाद एक मिनी ट्रक में चाचा जी के घर के क़ीमती सामान निकले और उसके पीछे स्कार्पियो में घर के लोग। यहाँ सुरक्षा के लिए एक आदिवासी युवक को बतौर चौकीदार छोड़ गए थे। जाते-जाते गाड़ी का शीशा नीचे कर चाचा जी ने कहा था, ''भाग जाओ मणि, भाग जाओ! जगह-ज़मीन कोई उठाकर नहीं ले जाएगा। जान बचेगा तो पैमाइश फिर हो जाएगी।...’‘

    चाचा जी को अपनी जान बचाने की ऐसी जल्दी थी कि मणि का जवाब सुनने के लिए भी नहीं रुके। दूर जाती उनकी गाड़ी का बैक लाइट मणि की नज़रों से ओझल नहीं हुआ था कि तभी संन्यासिन आ गई थी, ''अरे मणि बाबू, आज रात अरिकंचन-चक्का बना रही हूँ सब्जी में।... यदि आप भाग रहे हों तो कोई बात नहीं... रुकें तो साथ ही खाइए!’‘ उसके हाथ में उड़द का बेसन लगा ही था।

    ''अरे संन्यासिन, पानी आ जाएगा और बहने-भासने लग जाऊँगा तब भी आपके हाथ का अरिकंचन-चक्का खा के ही जाऊँगा।... इतना तैरना तो आपने सीखा ही दिया है।’‘

    संन्यासिन मुस्कुराती चली गई।

    उस रात का अंधेरा मणि को कुछ ज़्यादा ही घना लगा। अपनी छत पर से उसने एक नज़र चारों तर डाली। पूरे गाँव में भीषण सन्नाटा था। झिंगूरों की आवाज़ एकदम सा। हल्की हवा में हिलते-डोलते दरख़्तों के पत्तों की सरसराहट सुनी जा रही थी। उसका मन किया कि संन्यासिन से पूछा जाए कि उसको भी ऐसा लगता है, लेकिन ख़ुद को रोक लिया।... सालो-साल कितने ही दुष्काल का अंधेरा जिस स्त्री ने अकेले काटा हो, उसके आगे यह क्या!... फिर भी, कुछ तो विचलित होगी ही इस दहशतनाक मंजर में?...

    देर रात जब वह खाना खाने संन्यासिन के आँगन पहुँचा तो उसको पहले की तरह सामान्य देख आश्चर्य नहीं हुआ। भोजन करते समय उसने कुछ पूछना चाहा भी तो संन्यासिन ने ही पूछ लिया, ''अरिकंचन की सब्जी अच्छी नहीं बनी क्या?’‘

    ''नहीं-नहीं, बहुत अच्छी बनी है। वर्षों बाद खा रहा हूँ इतनी अच्छी...’‘

    ''तब लगता है, बाढ़ से डर गए हैं आप!...’‘

    ''नहीं तो...’‘

    ''झूठ मत बोलिए!... बाक़ी दिन कहाँ लाते थे कभी मेरे लिए पान?...’‘

    मणि चुप रहा।

    ''हर पान के साथ आपकी आँखों में कोई और ही हलचल दीख रही थी।... और अभी... बिल्कुल मन से नहीं खा रहे हैं।’‘

    ''वो कैसे?’‘

    ''आपको खाते हुए मैं पहली बार नहीं देख रही हूँ... अरिकंचन-चक्का की एक-एक पपड़ी बहुत आराम से बारी-बारी हटाते हुए उसके भीतर का स्वाद ले-लेकर खाते थे... और कहते थे कि हर तह के बाद हरेक पपड़ी में एक अलग तरह का स्वाद भरा होता है।...’‘

    मणि का हाथ रुक गया। वह एकटक संन्यासिन की तर देखने लगा।

    ''देखिए, कोई गपागप सौ रसगुल्ले खाकर भी उसके स्वाद का मज़ा नहीं ले पाता...कोई आराम से एक रसगुल्ला के भीतर का संपूर्ण स्वाद लेते-लेते तृप्त हो जाता है!...सारेगामा में लंबे आलाप के साथ गीत की एक पँक्ति की तरह...’‘

    मणि एकदम अभिभूत!...उसी तरह चुप संन्यासिन की तर देखता रहा।

    संन्यासिन का मधुर स्वर फुटा, ''खाइए-खाइए... आराम से खाइए! कोसी की बाढ़ कोई नई बात थोड़े ही है?... इसी की गोद में खेलते जीवन बीत जाएगी!... फिर डरे कोसी के दुश्मन और दलाल, आप क्यों डरेंगे कोसी-प्रेमी होकर!...’‘

    मणि को लगा, उसके पास बात करने के लिए कोई शब्द नहीं है। क्षण-भर के विराम के बाद वह एकदम पहले की तरह अरिकंचन-चक्का की एक-एक पपड़ी बारी-बारी हटाकर खाने लगा और इस तरह खाते हुए उसको हर पपड़ी में एक अलग स्वाद महसूस होने लगा। एक अद्ïभुत तृप्ति! उसने कनखियों से देखा, इस तरह उसको खाते देख संन्यासिन की आत्मा जुड़ा रही थी!...

 

 

उसके अगले के अगले दिन भी बाढ़ की आशंका और दहशत जारी रही। सौ में सत्तर सुरक्षित जगह की तलाश में घर छोड़कर जान बचाने जा चुके थे। स्कूल-कालेज तो बंद ही थे, कई बैंक तक कंप्यूटर सिस्टम वग़ैरह लेकर उस इलाक़े से दूर जा चुके थे। एटीएम मशीन ख़ाली डब्बा माफ़िक रह गया था। डरा-डरा रहने वाला चाचा जी के चौकीदार का भी कोई भरोसा नहीं था कि कब भाग खड़ा होगा।...

मणि ने 'संन्यासिनफ़िल्म की पटकथा लिखने की व्यवस्थित ढंग से शुरुआत भले नहीं की थी, लेकिन उसकी कथावस्तु जब-तब टीपने लगा था। उसके लैपटॉप की मेमोरी संन्यासिन के वीडियो फुटेज की फाइलों से भरती जा रही थी।

    फ़िलहाल गुनिया-प्रकार और जरीब के ज़रिए सरज़मीन की पैमाइश भले रुकी थी, मगर बाढ़ की आशंका में जी रहे इलाक़े के लोगों के मन की पैमाइश जारी थी।.....

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