कुक्कुट ज्वर

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    जून-जुलाई 2015
श्रेणी कहानी
संस्करण जून-जुलाई 2015
लेखक का नाम ध्रुव हजारिका / अनु. उदयभानु पाण्डेय





कहानी/अंग्रेजी-पूर्वोत्तर


पिछवाड़े के बाहर बाँस के टट्टर के सामने मुरगीखाना इस तरह खड़ा हुआ था जैसे किसी ऐसे कमरे में एनिसथीज़िया की एक बोतल धरी हो, जिसका हर व्यक्ति दाँत के दर्द से छटपटा रहा हो। रतन देव बर्मन ने इस दरबे को खुद बनाया था; बस उस बढ़ई ने उनकी थोड़ी सहायता कर दी थी, जो उसके बंगले की छत की मरम्मत करने आया था। यह छह महीने पहले की बात है, जब उनकी शादी को केवल छह महीने ही हुए थे।
उस औरत ने जिसके साथ इनके सात फेरे हुए थे इनमें एक ऐसी कमतरी अहसास भर दिया था, जो कोई और व्यक्ति या और चीज कभी नहीं कर सकी थी। वैसे इस महिला को काफी कमनीय कहा जा सकता था, लेकिन उनका यह संबंध बर्मन की भावात्मक सुरक्षा की खोज पर आधारित था। (यह खोज जैसा कि वह सोचते थे अतीत का वह परिणाम था, जिसने उन्हें स्त्री के प्रवंचक रूप को ही दिखाया था) और उसकी यह अवधारणा कि रोमांस के पाँव तभी ज़मीन से लग पाते हैं, जब आप पैसे की ताकत से ख़ुशी ख़रीद सकें।
बर्मन को आप बहुत कद्दावर नहीं कह सकते, वह पक्के रंग के तगड़े जवान थे, उनके बाल खूब काले और लहर लिए हुए थे। उनकी नाक को प्रभावशाली कहा जा सकता था, लेकिन नीचे का होंठ थोड़ा आगे निकला था। दफ्तर में वे गंभीर रहते और दोस्तों के साथ संवेगी और जहाँ तक शादी की बात है, वह पिछले बारह महीनों में अपनी कमियों से जूझ रहे थे। वह बात उनको कभी नहीं सूझी कि उनकी पत्नी भी सर्वगुण संपन्न नहीं है, हो सकता है कि उनकी अपेक्षा उसमें कुछ ज़्यादा ही कमियाँ हों, लेकिन मानव स्वभाव के बारे में जो थोड़ा-बहुत वह जानते थे उन्होंने यही जाना था कि बहुत सारी कमियाँ पैसे के इर्द-गिर्द घूमती थीं- हलाल का पैसा या वह पैसा जिसे वह हलाल कहना चाहते थे वह जानने के बावजूद कि वह वास्तव में हलाल का पैसा नहीं है। और बातें भी थीं जो उनके दिमाग में कौंध उठती थीं, वे चीजें जिन्हें उन्होंने देखा और सुना था, शब्दों की बूँदें, कार्यों की परछाइयाँ, रहस्यों की झलकें; यह तब होता जब एक बलात् खुलापन उनमें भड़क उठता तो उन्हें यह मानने के लिए राज़ी कर लेता कि यह मामला तो कोई मामला ही नहीं है। वह प्राय: इन सब बातों पर बहुत गंभीरतापूर्वक विचार करते। वह इस बात से संभ्रमित होते कि बेहतर विकल्प के अभाव में क्या कोई स्त्री उस गंभीरता को गंभीरतापूर्वक लेती है, जिसके सहारे वह अपनी इच्छा पूरी कर लेता है। या शायद उसमें अपने प्रति सम्मान का अभाव था, जिसके कारण वह चीज़ों का इस तरह विश्लेषण करती थी। उन्हें पता नहीं था, परंतु उन सभी पुरुषों की तरह जो उन चीज़ों से चिपके रहते हैं, जिन्हें वे प्रसन्नता समझ बैठते हैं- वह भी उस संसार में जहाँ वेदना का अखंड साम्राज्य है, वह उन विचारों और बिंबो को मिटा देते और अपनी कामनाओं को आशा से अनुप्राणित कर देते थे।
वह एक घरेलू प्राणी थे और अपनी प्रजाति के अन्य लोगों की तरह उस हर वस्तु के लिए वह बहुत स्वत्वात्मक थे, जो विवाह से संंबंधित थीं। उनके लिये मुरगीखाना एक बड़ा सहारा था। कभी एक पालतू मुरगा था और सात मुर्गियाँ थीं, जिनमें तीन अंडे दे रही थीं। जब वह बैठकर उनकी बीट साफ कर रहे थे, उन्होंने सोचा कि मेडीचेरा से वापस आते समय मैं पाथरकंडी के सड़क से लगे हाट से एक जवान मुरगा खरीद लाऊँगा।
उन्होंने दरबे में रखे पुआल को सुव्यवस्थित किया, तीन मुरगियों को प्यार से सहलाया और कुदाल लेकर उस दरवाजे से बाहर निकल आये, जिसे उन्होंने मोटर गैराज की टूटी खिड़की के आधे हिस्से से बनाया था। वह उठकर खड़े हो गये और दीवार की दूसरी ओर कुछ फिट की दूरी पर स्थित बाँस के झुरमुट को ध्यानपूर्वक देखने लगे कि वहाँ से कोई हरकत होती है कि नहीं। चालाक लोमडिय़ों का लेंहड़ा बाँसवारी में से निकल कर रात में मटरगश्ती करता था, लेकिन चूज़े उनसे सुरक्षित थे। मुरगीखाने की दावारें चीड़े गये बोटों से बनायी गयी थीं और अतिरिक्त सुरक्षा के लिए दरवाजे में सिटकिनी लगा कर उस पर ताला डाल दिया जाता था। चूज़ों तक पहुँचने के लिए और कोई रास्ता नहीं था, लेकिन दिन में उन्हें आज़ाद कर दिया जाता था, ताकि वे चोंच मार सकें और ज़मीन को खरोंच सकें। लोमडिय़ाँ तो दूर रहती थीं, लेकिन नेवलों और रेकूनों (बनबिलावों) ने बाड़े के अंदर बिल बना लिया था और रतन देव बर्मन ने पूरे मन से उस लहीम-शहीम, काने नेवले पर घात लगाया हुआ था, जिसने एक हफ्ते पहले एक मुर्गे का काम तमाम कर दिया था। वह अपनी अल सुबह की सैर से लौटे ही थे कि उन्होंने बांस के बेड़े के पास धर-पटक की आवाज़ सुनी। जब तक दौड़कर वे वहाँ पहुंचते उन्होंने देखा कि भूरा और चीमड़ नेवला बिल में अंतध्र्यान हो गया। मुरगे की गर्दन नेवले के जबड़ों में थी, उसका शरीर भुरभुरी मिट्टी में घिसट रहा था- उसके गेरुए भूरे और हरे पंख तडफ़ड़ा रहे थे और उसका जीवन धीरे-धीरे झीज रहा था। उनके पास इतना समय नहीं था कि वे बेडरूम से अपनी बारह बोर वाली एकनाली बंदूक लेकर वहाँ वापस पहुँचते। बहुत देर तक जब वे वहाँ मुरगी के दरबे के सामने खड़े थे, उनका दिल खूब ज़ोर से धड़क रहा था, उनमें गहरा आक्रोश भी था क्योंकि यह मृत्यु किसी मनुष्य की मृत्यु से कम त्रासदीपूर्ण नहीं था।
वे उसी जगह खड़े थे, मुरगी के दरबे के सामने-उनकी कल्पना में उनकी एक बैरल वाली बंदूक थी और काने नेवले का फटा हुआ सिर। उन्होंने सोचा कनऊ नेवले, तुम मेरी गैर-हाज़िरी में चुपके से घुस आये। लेकिन एक दिन मैं तुम्हें मौत के घाट उतार दूँगा, यह मेरा वादा रहा। तुम्हें मैं तड़पा तड़पा कर मारूँगा, ताकि तुम उस पीड़ा का अर्थ समझ पाओ जो तुमने मुझे दिया है। हरामजादे, मैं उस दिन का इंतज़ार कर रहा हूँ, जब मैं तुम्हारी खाल खींचूँगा और जिंदा जला दूँगा और भंगियों की बस्ती में सूँअरों को तुम्हारी एक-एक बोटी खिलाऊँगा। फिर जब उन्होंने दरबे को बंद किया और उनकी पत्नी ने उन्हें पुकारा, उन्होंने सोचा यह तो महज एक पालतू मुरगा था। मैं इस बात से बेकार में इतना हैरान-परेशान क्यों हूँ? क्या मेरा दिमाग ख़राब हो गया है? नहीं, मैं उतना ही स्वस्थ चित्त हूँ, जितने वे लोग जो आते हैं। और स्साले नेवले, वे बुदबुदाए, एक दिन, बहुत जल्द तुम मेरे हाथ आओगे।
लेकिन अब जब उन्होंने किचेन के सिंक में हाथ धोया, उन्हें यह सोचना पड़ा कि उसे उस दिन क्या काम करना है। हालाँकि इस काम से उन्हें कोई शाँति नहीं मिलेगी, यह ऐसा काम था कि उन्हें हर महीने इसके एवज़ में दो हज़ार रुपयों का वेतन मिलता था। उन्होंने सोचा कि महत्वपूर्ण बात तो यह है कि काम को अच्छी तरह से किया जाए क्योंकि मैं यह काम करने योग्य नहीं हूँ और मैं उस शिक्षक की तरह हूँ, जो अपने काम के पहले दिन असुरक्षित महसूस करता है और इसके बावजूद यह काम मुझे अवश्य करना है ताकि लोग मुझे कायर न समझें जो कि वास्तव में मैं हूँ। हाँ, मैं कायर हूँ। परंतु कभी-कभी मेरी कल्पना मेरी कायरता के लिए ईंधन का काम करती है। मुझे अभी निकलना चाहिए। डर जाना अच्छी बात नहीं है। लेकिन तुम इसलिए डरते हो कि तुम शाँति के पक्ष में हो और आज जो कुछ तुम्हें करना है वह शांति का काम नहीं है और उस काम को करना जिसे तुम दिल से करना नहीं चाहते, तुम्हें अनिर्णय में डाल देता है और इसलिए तुम भयभीत हो।
वे उस नाश्ते के लिए बैठ गये, जिसे लड़के ने बनाया था। वह लगभग चौदह साल का था, उसकी चाल भोंड़ी थी और उसकी आकृति भावशून्य जो उसकी मानसिक दशा का सही अंदाज़ दे रही थी। लोगों ने इस लड़के को उन अन्य लड़कों से बेहतर समझा था, जो उनके अंदर पहले कई महीनों तक काम कर चुके थे। क्योंकि ज़्यादा चालाकी नौकर को आज्ञाकारी नहीं होने देती और ज़्यादातर मालिक अपने नौकरों से हुक्मबरदारी की उम्मीद रखते हैं। रतन देव बर्मन ने मेज के पास बैठी अपनी सहधर्मिणी को देखा और अख़लाक़ से मुसकराये।
वह कमनीय सुकुमार थी और उसकी त्वचा स्पर्श मात्र से नरमा जाती थी। घनिष्ठता के चरम बिंदु पर लगता कि उसकी आँखें रतन को निगल जाएँगी। वह बड़े सलीके से खाती थी और प्रत्युत्तर में मुसकराती थी और जब वह रोटी और सब्ज़ी के अंतिम ग्रास को समेट रहे थे, वह किचेन में गयी और चाय ले आयी। रतन देव बर्मन ने उसकी पतली कमर और गोरे हाथों और उस पायल को देखा, जो वह शादी में लायी थी। शादी में दहेज़ नहीं था, लेकिन उपहार तो थे ही जो घूम-फिर कर दहेज़ ही थे। तब उन्होंने बर्नार्ड शा और ऑस्कर वाइल्ड और उनके द्वारा विवाह संस्था की परिभाषा की याद की। उन्होंने सोचा यह बहुत अच्छा हुआ कि इस विचार के बीच दहेज़ नहीं लाया गया क्योंकि दहेज़ पर आधारित विवाह व्यापार के स्तर पर पहुँच जाते हैं और विवाह कोई व्यापारिक प्रतिज्ञप्ति नहीं है। ''भूल जाओ, इस बात को बिल्कुल भूल जाओ''। उन्होंने अपने से कहा।
चाय ने उनके दिमाग को खोल दिया और उन्होंने यह महसूसा कि आँखों की माँसपेशियाँ ढीली हो गयी है। पिछली रात उनकी आँखें मुश्किल से लग पायी थीं। कल रात उन्होंने पुरातत्वविद यादव के साथ जब शराब पी खाना खाने के बाद, आधी रात के समय खाना-पीना अपनी रंग जमाने लगा और भय से उनके दिल दिमाग पर दस्तक दी। जब शराब का नशा काफूर हुआ विचारों ने उन्हें धर दबोचा जिनसे वे मुक्त नहीं हो पाये। लेकिन दौरे पर जाने से उन्हें निजात नहीं मिलने वाली थी। वह केवल भगवान से प्रार्थना कर सकते थे कि वे सही सलामत वापस आ जाएँ।
बाहर, घर के सामने गेट के पास जीप के इंजिन की घरघराहट सुनाई पड़ी और आदमियों की आवाज़ें कानों में पड़ीं।
यह संजय ही हैं जो यहाँ आये हैं, उन्होंने अपनी पत्नी से कहा।
वह चाय की चुस्की ले रही थी, प्याले का किनारा नाक के बाँसे को छू रहा था, बड़ी काली आँखें उसे तक रही थीं, भौहें ऊपर तक जाकर फिर मेहराब की शक्ल में  नीचे आती थीं और उनका अभिजात सौंदर्य उन्हें आकर्षित बनाता था। उसने कहा हाँ, यह संजय ही हैं। उसने प्यालों को प्लेटों पर रखा, चम्मचों, क्वार्टर  प्लेटों, छोटी कटोरियों और शीशे के गिलासों को समेटा और बुदबुदाई, ''मुझे फिर से पानी उबालना पड़ेगा। इन्हें थोड़ा पहले आना चाहिए था।''
रतन देब बर्मन ने उसे देखा जब वह पाक घर की ओर तेजी से जा रही थी। उन्होंने सोचा, संजय यादव, मैं अच्छी तरह जानता हूँ, तुम किस निगाह से मेरी पत्नी को देखते हो। लेकिन, यह एक ऐसी दृष्टि है, जिससे कोई भी मित्र अपने मित्र की पत्नी को देखता है और मैं इसके बारे में बहुत ज़्यादा नहीं सोचूँगा। मैं इसी तरह तुम्हारी पत्नी को भी देखता हूँ और मुझे अच्छी तरह मालूम है कि उस समय वह खुश होती है। वह और ज्यादा हँसती है और तब वह और मैं आँखों की भाषा में बातें करते हैं, जिसे न तो तुम जानते हो और न ही मेरी पत्नी। लेकिन यह सब शादी के बाद के पहले कुछ महीनों तक ही चलता है। उसके बाद आप दूसरी औरत की ओर इस तरह देखना शुरू करते हैं और उस तार को तोड़ डालते हैं जो आपकी स्वतंत्रता को अवरुद्ध करता है। तुम्हारे और मेरे जैसे लोगों के लिए शादी कारावास ही है, जब तक उसमें प्रेम का प्रवेश न हो और कौन जानता है कि प्रेम को जन्म लेने में कितना समय लगेगा। दरवाजे की घँटी बजी और रतन देब बर्मन ने सिंटिंग रूम का दरवाज़ा खोला। दरवाज़े के पास सीढ़ी पर सुंदर पुलिस सब इंस्पेक्टर बासुमतरी सावधान की मुद्रा में खड़ा था।
''गुड मर्निंग सर,'' उसने सैल्यूट ठोंका, ''मैं अपने साथ जवानों को लाया हूँ।''
''अच्छा, बहुत अच्छा, बासुमतरी, अंदर आओ हम लोग यादव को रास्ते में अपने साथ ले लेंगे।''
''उनकी पत्नी की हालत ठीक नहीं। वे बुखार और पेचिश से परेशान हैं।'' थानाध्यक्ष को उन्होंने फोन द्वारा सूचित कर दिया है। सर, उन्होंने 'वेरी सॉरी' कहा है। उनके बिना उनकी पत्नी असहाय हैं।''
रतन देब बर्मन ने कहा कि हाँ, वे अपनी पत्नी का बड़ा ख़्याल रखते हैं। और सोचा कि कम से कम वह मुझे एक नोट तो लिख भेजते।
वह फिर जनानखाने में गये और पानी की एक बड़ी बोतल उठा ली, जिसका पानी ठंडा हो चुका था और उन्होंने अपना धूप का चश्मा लिया, दीवार पर टँगे भगवान कृष्ण के चित्र का दर्शन किया और (प्रार्थना के) कुछ शब्द बुदबुदाए इसके बाद वे गुसलखाने गये और पेशाब की, उनका दिमाग फिर उसी दिशा में गया कि दिन के अंत तक पता नहीं क्या घट जाए। दरवाज़े पर लगे छोटे आईने में उन्होंने अपनी शक्ल देखी और इस बात की उन्हें खुशी हुई कि उन्होंने जैसे-तैसे दाढ़ी बना ली थी। इस बात से उन्हें जैसे-तैसे थोड़ी तसल्ली मिली।
दरवाज़ा बंद किये बिना वे ड्राईंगरूम पहुँच गये और अपनी पत्नी को देखने लगे, जो टिफिन बाक्स और मनीबैग लिए उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। वह अब छोटी और कमज़ोर लग रही थी और मासूमियत की झलक लिए हुई उसकी बड़ी आँखडिय़ाँ उनके दिल तक उतर गयीं और उसे यह अहसास कराने लगीं कि वह एक अच्छे पति की तरह उसे चाहते हैं। जब उन्होंने अपनी पत्नी के हाथ से टिफिन बाक्स लिया उनकी उँगलियों ने आपस में स्पर्श किया। जब उन्होंने मनीबैग बैकपाकेट में टिकाया पर्दे के पीछे उन्हें बासुमतरी का साया दिखायी पड़ा। उनमें पत्नी के गालों को सहलाने की तीव्र इच्छा जाग पड़ी, लेकिन उन्होंने अपने आपको इसलिए बरजा कि वह अपनी सहधर्मिणी को यह नहीं जानने देना चाहते थे कि स्पर्श का प्रतिदान न पाने पर वह बहुत आहत होते और फिर वह बाहर आ गये, जबकि पत्नी की आँखों से लहराती मुस्कान उसके एकाकीपन के जाले से अब भी खेल रही थी। यह उनकी शादी का पहला साल था और वे दोनों एक-दूसरे के साथ ऐसे बरत रहे थे जैसे किताबों के पात्र बरतते हैं और कभी कभी वे इस तरह बरतना चाहते थे कि किताबों के निरे पात्र न हों और यह क्षण रतन के लिए वास्तविक अनुभव और किताबी अनुभवों का समिश्रण-सा लग रहा था।
वह बाहर आयी और बोली, ''लौटने में देर मत करना'' और वह उल्लसित हो उठे, क्योंकि चिंता प्राय: प्रेम का प्रथम सोपान होती है और जब वह आखिरी सीढ़ी उतरे उन्होंने कहा, ''पाँच के पहले तो नहीं। लेकिन डिनर घर पर ही होगी। शोरबा। आज हम लोग मछली का शोरबा लेंगे।'' फिर वह बासुमतारी के साथ हो लिए जीप में बसुमतारी और ड्राइवर के बीच और जीप के चक्के पत्थर के टुकड़ों छिदरी जमीन, बाँस की सूखी पत्तियाँ जो पहाडिय़ों के नीचे बिछी थीं-को रौंदने लगे, यह वह मौसम था, जिसमें नवंबर का महीना दिसंबर को अलविदा कह रहा था।
क़सबा केवल अधजगा था, जब वे तेज़ी से बाहर निकले, बुड्ढे और बच्चे सुबह की पूजा के लिए फूल इकट्ठे कर रहे थे। क़सबे के बाहर, सर्दियों की धूप के बावजूद सड़क गरम और धूलभरी थी। इस बात का अहसास आप तभी कर सकेंगे, अगर कभी आपने खुली जीप में बैलगाडिय़ों वाली ऐसी खूसट सड़क पर सफर किया हो, जो पाथरकाँडी और बज़ारीचेरा और मिज़ोरम की गिरिपीठ के सूखे और शाँत भाग से होकर उस मेडीचेरा की ओर जाती है, जो काह्नमुन की सीमा से लगी है। रतन देब बर्मन इस इलाके में अब तक कभी नहीं आये थे और उन्होंने ऐसे भीषण भय का अनुभव किया जैसे भय ने आधी रात को उन्हें धर दबोचा था। उन्होंने सोचा कि तब क्या होगा, जब मेरी सशस्त्र बल की टुकड़ी का सामना उन भूमिगत विद्रोहियों से होगा, जो अधिक मारक क्षमता वाले हथियारों से लैस होंगे। आप क्या कर सकते हैं? बंदूकों को लोड करो और फिर लोड करो, निशाना साधो और दागो। हर गोली के बीच तीस सेकेंड से ज़्यादा फासला होना चाहिए। उन तीस सेकेंडों में क्या घट सकता है? आप यह नहीं जानते हैं और फिर भी जानते हैं। इसलिए आप क्या प्रार्थना करेंगे? आप कितना गिड़गिड़ाएँगे भगवान के सामने? और तुम डरके मारे क्यों मरे जा रहे हो, जबकि बासुमतरिया शाँत हो कर बैठा हुआ मुसकरा रहा है? रतन देब बर्मन, तुम जिगरा लेकर पैदा नहीं हुए। तुम्हारा जन्म हुआ है दूसरों के सामने गिड़गिड़ाने और दूसरों की चर्बी पर जीने के लिए। तुम दादा के भैया नहीं, दीदी के भैया हो। इसलिए तुम्हें स्वाँग भरने की क्या ज़रूरत आन पड़ी? क्या इसीलिए कि तुम अपने को जवाँमर्द समझते हो और यह चाहते हो कि लोगों की उम्मीदों पर खरे उतरो? तुम जवानों को अभी भी थम जाने का हुक्म दे सकते हो और बहाना कर सकते हो कि तुम पेट की मरोड़ से मरे जा रहे हो और वापस लौट जाओ, उन्होंने सोचा और लज्जा से विजडि़त हो गये।
उनकी जीप के पीछे सशस्त्र बल की जीप आ रही थी। और रतन देब बर्मन की बड़ी ग्लानि हो रही थी कि दूसरी जीप के कर्मचारी उस धूलि से धूसरित हो रहे थे, जो पहली जीप उड़ा रही थी। पानी की बोतल से उन्होंने जल्दी-जल्दी चुस्की ली और अपनी पत्नी और संजय की पत्नी के बारे में सोचने लगे और फिर उन्होंने बासुमतरी पर निगाह डाली जिसकी माँसपेशियाँ जीप की गति के साथ थिरक रही थीं।
''और कितनी दूर जाना है?'' रतन देब बर्मन ने पूछा।
''सर, बाजारीचेरा के आगे वाली चौकी से हम अपनी फौज की एक और टुकड़ी साथ लेंगे और जंगल में तैनात मज़दूरों को भी शामिल करेंगे,'' बासुमतरी ने कहा जैसे वह सफाई दे रहा हो। ''इसके बाद हम पहाड़ों में प्रवेश करेंगे। एक घँटे और लगेंगे सर, या उससे थोड़ा कम।'' उसने आगे कहा।
वे वहाँ जा रहे थे जहाँ असम की सीमा समाप्त हो रही थी और मिज़ोरम शुरू होने वाला था। लोंगाई नदी के किनारे अतिक्रमण किया हुआ स्थान था, जहाँ झोपडिय़ाँ और छप्परबंद जगह थी और बड़ा सा भट्ठा था। इसके नीचे ऐसी सभ्यता के अवशेष थे जो हज़ारों साल पुरानी थी और जिसके बारे में संजय यादव को पढ़ाया गया था। रतन देब बर्मन ने सोचा- संजय यादव, जब मैं धूल गर्मी और ऐसे अनुभव को झेल रहा हूँ जिन्हें मैं लज्जावश किसी से नहीं कह सकता तुम अपनी पत्नी की गोदी में समाये होगे। लेकिन तुम आने में असमर्थ होने के बावजूद मुझे बता सकते थे क्योंकि हमारी जान-पहचान पूरे एक साल पुरानी है।
एक मील के आगे तीसरी जीप उनके फोर्स में शामिल हुई। उसमें आठ पुलिस जवान थे, जो 303 रायफल से लैस थे। मितभाषी दिखने वाला एक नवजवान रेंजर एक और जीप में कठिनाई से चढ़ा जिसके साथ वन विभाग का एक और कर्मचारी था। रतन देब बर्मन ने सोचा अब हमें ज़्यादा तसल्ली हो रही है, लेकिन राहत का यह अहसास उस आदमी का अहसास है, जिसके पास नकली हौसला होता है। यह एक ऐसे छोटे दिमाग का लक्षण है, जो इसी लिए सुरक्षित महसूस करता है क्योंकि वह ऐसी चीज़ों से लैस है जो दूसरों में आतंक पैदा करती है। लेकिन आप क्या करेंगे जब दूसरे लोग भी इसीलिए सुरक्षित महसूस करते हैं क्योंकि उनके पास ऐसे हथियार हैं जो लोगों में भय पैदा करें? वे दयनीय भाव से अपने पर हँसे: रतन देब बर्मन, तुम कुछ ज़्यादा ही सोच विचार में पड़ जाते हो। इतनी चिंता मत करो कि तुम्हारा व्यक्तित्व विखंडित हो जाए। हवा के साथ आगे बढ़ो और हर गुत्थी अपने आप सुलझ जाएगी।
धूप उनकी रक्तशिराओं में उतरती जा रही थी और धूल उनकी आँखों में चुभ रही थी और कमीज़ के कालर के नीचे उन्हें छेद रही थी। कच्ची सड़क काफी देर तक उनके साथ थी, दोनों ओर धान के खेत थे, जिनमें धान काट लेने के बाद सूखे डंठल खड़े हुए थे, खेतों के भूरे रंग पर कोमल पीले रंग की आभा बिखरी हुई थी, जीपों के पहियों के बीच घास के गुच्छे थे, जो साँस थाम कर उस हरीतिमा की प्रतीक्षा कर रहे थे, जिसे केवल वसंत ऋतु और उसका प्रेम स्पर्श ही ला सकता था।
फिर वे गिरिपीठों के रास्तों से गुज़रने लगे और अचानक वे उनके उन हिस्सों में थे, जो टेढ़े-मेढ़े थे और लगता था ढलानें बहुत नज़दीक से उनका पीछा कर रही हैं। एक भी प्राणी दृष्टि गोचर नहीं हो रहा था और ऐसे भूखंड में जहाँ नीरवता संसार के समस्त शब्दों से अधिक मुखर थी, प्रत्येक वृक्ष मूक प्रहरी की तरह खड़ा था। उस पहाड़ी सड़क पर भयावह मोड़ थे और वहाँ केवल एक गाड़ी ही निकल सकती थी। स्वाभाविक है कि ऐसे मोड़ पर ऐम्बुश (घात-आक्रमण) से बचना असंभव था। मोड़ के नीचे ऐसे झाड़झंखाड़ थे, जो गिरने वाले को बींध दे सकते थे और जब आप की गाड़ी दाएँ-बाएँ हिल डुल कर ढाल की ओर दौड़ती है आप ब्रेक को चीख़ने चिल्लाने से बचा नहीं सकते। ऐसी स्थिति में आपका दिल बहुत ज़ोर से धड़केगा और आप असहाय महसूस करेंगे।
वृक्ष मोटे, काले, पक्षीहीन, निरानंद, वायुविहीन और शताब्दियों के अज्ञात षड्यंत्रों से नहाये हुए थे। यह ऐसी धरती थी जहाँ आप नील आर्मस्टाँग के चंद्रयान की कल्पना नहीं कर सकते और न ही भूमध्य सागर की नीली जल राशि पर तिरते श्वेत जलपोतों का सपना देख सकते हैं, क्योंकि यह एक तमावृत्त अमंगल धरती थी जहाँ आपके विचार काले हो जाते थे और एक ऐसा अपशकुन छोड़ जाते थे जिसे वह सूरज भी जो अब स्मितहीन था, मिटा नहीं सकता था।
वे दोपहर तक गंतव्य तक पहुंच गये। जीपें दाहिनी तरफ मोड़ लेती रहीं और नदी अभी भी काफी दूर थी और फिर वे भट्ठे पर पहुँच गये। वहाँ खाली झोपडिय़ाँ थीं और बाँस के खंभों पर टिकी नीची छतों वाली कोठरियाँ जिनमें आग के अंगारे थे जो सबेरे जलाये गये चूल्हों में अभी भी गरम थे। पास में बरतन इधर-उधर छितराये हुए मिले जो बताते थे जो सबेरे जलाये गये चूल्हों में अभी भी गरम थे। पास में बरतन इधर-उधर छितराये हुए मिले जो बताते थे कि कुछ ही क्षण पहले यहाँ लोग थे। (अब तक सारे लोग सिर पर पाँव रखकर भाग लिये थे? वे ऐसे लोग जो पलक झपकते दिन हो या रात, जंगल में विलीन हो सकते थे।) रतन देब बर्मन ने महसूसा कि उनका दिल एक बार फिर धड़कने लगा था।
वह एक बड़ा भट्ठा था, जिसमें वह झोपडिय़ाँ थीं और बिना दीवार के चार छप्पर वाले आवास थे। वहाँ वे रस्सियाँ भी थीं जिन पर दो रंग उड़ी कमीज़ें और एक लुंगी दिख रही थी, जो धीरे-धीरे फरफरा रही थी क्योंकि हवा का झोंका इतना कमज़ोर था कि उसकी उपस्थिति का केवल इसीलिए अहसास किया जा सकता था क्योंकि कपड़े हिल रहे थे। हवा के साथ या बिना हवा के भी वहाँ तबाही का माहौल था। यह जगह उस क़सबे की तरह लग रही थी, जो भरी दोपहरी में ही सोने चला गया हो और अदृश्य सोने वालों की साँसें हवा में गाढ़ी हो कर लटक गयी हों और जहाँ कोई गौरैया या भटकता देसी कूकुर भी न दिखायी पड़ता हो। वह जगह रतन देब बर्मन को उस पार्क की तरह दिख रही थी, जिसमें बच्चे और फूल न हों।
जब दूसरे लोग गाडिय़ों से नीचे उतरे देब बर्मन वहीं बैठे रहे। वहाँ उन्होंने एक ऐसी खामोशी का गहराई से अहसास किया जिसे केवल काल्पनिक शोककर्ता अपनी आहों से तोड़ सकते थे। उन्होंने सोचा यह बुरी बात है- बहुत बुरी बात। उन लोगों को हमारे आने का पता चल गया। उन्हें कैसे भनक लगी? या जीपों के कारण हम लोग अपना वजूद छिपा नहीं सके?
सशस्त्र बल के जवान दूसरी जीपों से कूदे। टुकड़ी का आधा भाग नदी और भट्ठे की ओर लपक लिया जबकि दूसरी टुकड़ी और उसके आधे जवान बायीं तरफ की नीची पहाड़ी ओर उन पेड़ों की तरफ बिखर गये जो लगभग दो फर्लांग की दूरी पर स्थित साफ किये गये स्थान के ऊपर छाया किये हुए थे। बायीं ओर लंबी और तन्वी नदी दो नीची पहाडिय़ों के बीच स्थित मोड़ के बीच वक्र गति से बह रही थी। उसका पानी इतना स्वच्छ था कि आप अपरान्ह सूर्य के प्रभाव में मोड़ के नदी तल में स्वर्णकणों को लहराते हुए देख सकते थे। वहीं से नदी कलकल ध्वनि करती तहलटी की ओर फैल जाती थी, इसके गरम बलुहे तट इसकी दोनों ओर ऐसे आकाश के नीचे ऊँघते रहते थे, जो बादल के एक छोटे टुकड़े या किसी पक्षी के काले पंखों की गति के लिए प्रतीक्षारत था और क्षितिज निरुत्साह, उदासीन और निष्प्राण सा रहता था।
नदी नहीं मुसकराई। उसके उस पार और भट्टे के आसपास झाडिय़ाँ और घनी हो गयी तथा झरबेरियों की परछाइयाँ लंबी हो गयीं और तब बाँसों के झुरमुट और वृक्ष काले हो गये क्योंकि जंगल के अपरान्ह की धूप को निगल लिया था।
रतन देब बर्मन ने अपनी बायीं ओर देखा और जान गये कि अगर (आतंकियों का) हमला हुआ तो वह इस तरह से होगा। पहाडिय़ों के उस पार के पेड़, निकट से भी बहुत बड़ी संख्या में आदमियों को छिपाने में सक्षम थे आरै बर्मन को यक़ीन था कि अगर हमला हुआ तो वे बहुत आसानी से निशाना बन सकते थे। वे नदी के पानी को चीड़ते हुए उस पार दौड़ जा सकते थे, लेकिन उन्हें पता था कि किसी और को इसकी शुरुआत करनी पड़ेगी, तब तक तो उन्हें प्रतीक्षा करनी ही है। हर चीज़ के बावजूद वे प्रतिष्ठा बोध के उस अंतिम अंश से जुड़े हुए थे जिसको आत्म सम्मान कहते हैं। लेकिन मुझे विश्वास नहीं है, उन्होंने सोचा, जब तक यह घटना घट न जाए। उन्होंने पेड़ों को एक बार और देखा और बसुमतरी की चौड़ी पीठ की ओर देखा जो जवानों को अपना मोर्चा सँभालने की हिदायत दे रहा था और उसके बाद जंगल विभाग के उन कर्मचारियों और श्रमिकों को आदेश दे रहा था जो वहाँ आये थे और एक दूसरे से सटकर लाल और हरे रंग की जीप के पास गठरी बने बैठे थे। उन्होंने महसूस किया कि उनके अंदर कुछ टूट गया।
वे जीप से कूदे और तेज-तर्रार, सख़्त आवाज़ में हुक्म दिया। आदमियों ने अपने दाव और कुदाल सँभाले और उच्छेदन शुरू किया। वहां कोई अतिक्रमणकारी ही नहीं था, जिसे बेदखल किया जा सकता। ज़्यादा से ज़्यादा आप ईंटों का विध्वंस कर सकते थे, फिर झोपडिय़ों का ताकि भगोड़े लोग कमाई या आश्रय के लिए दुबारा यहाँ न लौट सकें।
रतन देब बर्मन ने एक छड़ी उठायी और नदी की ओर मुड़ गये। वहाँ बैठकर उन्होंने साफ बलुहे पानी का छीटा मुँह पर मारा। गर्मी और धूल ने उन्हें चूस कर सुखा दिया था और जब पानी हथेलियों से आकर चेहरे और जबान तक पहुँचा उन्हें अपने माथे और गालों का पानी नमकीन स्वाद देने लगा। उन्होंने बालों में अपनी उँगलियाँ घुमायीं और छड़ी उठा ली। इसके बाद वे लंबे लंबे डग भरते हुए उधर लपके जहाँ वन विभाग के कर्मचारी बाँस के खंभों को तबाह कर रहे थे। एक मिट्टी के घड़े से टकराकर उन्हें ठोकर लगी और दबी जुबान में उन्होंने एक धाँसू गाली निकाली और संजय यादव के बारे में सोचने लगे।
वहाँ आप्रवासियों और श्रमिकों की अनुपस्थिति से रतन देब बर्मन इस तरह बौखलाये कि लगा उनके दिमाग की सारी नसें फट जाएँगी, जैसे-जैसे एक-एक कर झोपडिय़ाँ तोड़ी गयीं और तकरीबन बीस हजार ईंटों को हथौड़े चला कर लाल धूल में बदल दिया गया। उन्हें ऐसा लगा मानो सारे वृक्ष छद्म वेषी मानव होकर टोपी में अपने मुँह छिपा कर बंदूकों की गडग़ड़ाहट से भयभीत होकर अचानक पलायन कर रहे हैं। किंतु वृक्षों का मौन अब तक भंग नहीं हुआ था और अंत में उन्हें अपने कंधों में एक सहजता का अहसास हुआ जो इस बात का पहला लक्षण था कि अब चौकन्नेपन की इतनी आवश्यकता नहीं है।
जब उनके आदमी ईंटों को तोड़ रहे थे बसुमतरी और वे चहलकदमी करने लगे और वे अंतिम यानि छठी झोपड़ी के पास थम गये। वहाँ निवास स्थान के चिन्ह ने रतन देब बर्मन को अपने बचपन के दिनों की याद दिला दी-बचपन का गाँव, उनके पूर्वज और चाचाज़ाद, ताऊज़ाद भाई जिनके साथ वे धान के खेतों में खेलते थे- ये सारी चीज़ें उन्हें याद आईं। झोपड़ी के अंदर रजाइयाँ और कंबल गोल बंडलों में लपेटे हुए एक कोने में जमा किये गये थे। धोये जाने वाले कपड़ों को टिन की बाल्टियों में ठूँस-ठूँस कर भरा गया था और बाहर के कमरे में जो कि वास्तव में उस झोपड़ी का एक छोटा सा हिस्सा था उस राख के छोटे से टीले पर लाठियों के ढेर रखे हुए थे जो मिट्टी से पुती चिमनियों से बेलचे से निकाली गयी थीं। उन्होंने वहाँ टिन की एक छोटी ढिबरी देखी, जिसकी बत्ती ऊपर से काली थी और हैंडिल का जिसका कोना अंग्रेज़ी के एक अक्षर जैसा था। यह ढिबरी एक ऐसी डेगची पर तिरछी होकर रखी थी, जिसमें भात के कुछ दाने रखे हुए थे। रतन देब बर्मन ने सोचा कि हम लोगों ने उन्हें खदेड़ तो दिया, लेकिन वे बेचारे कम से कम अपने पेट में कुछ निवाले तो डाल सकें।
उन्होंने किरासिन की महक अपने फेफड़ों में भरी और चूँकि अंदर अंधेरा था, वे वहाँ से वापस आ गये और झोपड़ी के गिर्द चले गये। वहाँ कमर पर हाथ रखे हुए नायब दारोगा बसुमतरी पपीते के पेड़ों की ओर ताक रहे थे, जिनके पीछे सूखे खर की एक खरही थी, जिसके केन्द्र में एक काले बाँस का खंभा खड़ा था।
खरही के नज़दीक, पपीपे के पेड़ों के नीचे जिनमें कोई फल नहीं लगा था, रतन देब बर्मन ने ख़ुफिया नज़र से चिड़े हुए बाँस का बाड़ा देखा जिसके ऊपर कोई छत नहीं थी। वहाँ से कुछ गज दूर गीली और ढालवाँ जमीन जो नाले तक जाती थी मल मूत्र की दुर्गंध से ओतप्रोत थी और वहाँ से उड़ कर वह दुर्गंध उनकी नाक पर धावा बोल रही थी। वहाँ हवा नहीं थी, लेकिन गंध वहाँ तक पहुँच रही थी। रतन देब बर्मन ने जो साफ-सुधरे परिवेश के आदी थे, बिना कुछ सोचे अपनी नाक पर हाथ रख दिया, लेकिन यहाँ एक और गंध भी थी, जिससे वे परिचित थे और इसने इनका दिल खुश कर दिया और इसी कारण वे नीचे झुके और बाँस के ढाँचे को गौर से देखा।
उन्होंने मोटी, काली मुरगी जो पुआल पर बैठी हुई थी, को देखा, उसकी गर्दन और आँखें सावधान थीं। रतन देब बर्मन ने दो-एक चूज़ों को देखा जो मुरगी के पंखों के अंदर से झाँक रहे थे, लेकिन उनके मुँह से कोई आवाज़ नहीं निकल रही थी और अपने बंगले की मुरगी के चूज़ों का लेंहड़ा उन्हें याद आया और वे मुसकरा पड़े मुरगी के ऊपर देखा, उसकी चोंच के नीचे और माथे के ऊपर की लोलकी हिली और उसके नीचे के चूज़े तडफ़ड़ा कर कुड़कुड़ाने लगे। नाले से आई दुर्गंध अंतध्र्यान हो चुकी थी और पुरानी माटी की महक पंखों से भरपूर मुरगी की चिरपरिचित महक जिसे वह जी जान से चाहते थे, उनकी नाक में पड़ी।
रतन देब बर्मन ने सोचा, ''ऐ मोटी काली मुरगी और एक हफ्ते की उम्र वाले चूजों की अम्मीजान, तू मुझसे मत डर। तू कतई मत डर मुझसे। यह जानना कि हम आस पास बने हुए हैं और जीवित हैं कितना अच्छा लगता है! मौज कर और जब मैं यहाँ से चला जाऊँगा तुम्हें ज़रूर याद करूँगा। यहाँ रहने वाले लोगों की तरह दू भगी नहीं और अब मेरा डर कम हुआ है और मैं तुझे शुक्रिया अदा करता हूँ। शुक्रिया काली मुरगी और तेरा इकबाल बुलंद हो! मैं तुझसे प्यार करता हूँ- दुनिया की काली सबसे काली और सुंदर मुरगी!''
फिर उन्होंने एक बार और सोचा जैसा कि सुबह सोचा था- क्या मैं पागल हूँ? नहीं - नहीं जब मैं उन्हें बेइंतहा प्यार करता हूँ तो यह पागलपन कतई नहीं है। यह तो स्वस्थ आशावादिता है?
कैसी आशा? मैं नहीं जानता और इसकी परवाह भी नहीं करता। लेकिन तब भी यह आशा ही है और सबसे महत्वपूर्ण चीज़ आशा ही होती है, क्योंकि आप यह नहीं पूछते कि आशा ठिगनी है या लंबी, मोटी है या पतली, काली या सफेद $गलत या सही। जो सबसे महत्वपूर्ण चीज़ है वह आशा ही है। सारे मर्द, औरतें और बच्चे भाग गये, उन्होंने सोचा, लेकिन मेरी सुंदर काली मुरगी, तू नहीं भागी। तू रोएंदार, रुई के फाहे जैसी कोमल मुरगी।
उन्होंने बसुमतरी पर नज़र डाली जो नाले के पास गीली ज़मीन की ओर लंबे-लंबे डग भरते हुए चला गया था और उन्हें पेशाब की सिसकारी सुनायी पड़ी, जब वह हलका हो रहा था। उसकी चौड़ी पीठ उस समय थोड़ा झुकी जब वह पैंट की ज़िप बंद कर रहा था और फिर वह नाली को पार कर डग भरता हुआ पाँचवीं झोपड़ी के पास पहुँचा जिसे ज़मीनदोज किया जा रहा था।
रतन देब बर्मन ने अपनी नज़र घुमा कर पेड़ों पर टिका दी, उनकी ज्ञानेन्द्रियाँ चूज़ों की उपस्थिति और सूखी घास तथा बीट की गंध से शिथिल हो रही थीं, अपरान्ह की क्लाँति उनके अस्तित्व में तारी हो रही थी, वह घूर-घूर कर देखते रहे और हर चीज़ को अपने अंदर समेटते हुए और फिर भी नहीं समेटते हुए। उनकी विश्राँति उनकी चारों ओर के दृश्य का एक अंग बनती जा रही थी और धान के पत्तों की खरही से अचानक निकली एक सरसराहट ने उन्हें चौंका दिया, उनका दिल ऐसे डर से लरजने लगा जो केवल मृत्यु का भय ही ला सकता है।
खरही के बीच पड़ी फाँक से पुआल के दो बंडल जो नरम बाँस की पतली कामियों में ढीले बँधे हुए थे, ताकि पुआल उस बाड़े पर पड़ सके जिसमें मुरगी और उसके चूज़े पड़े हुए थे, एक औरत का चेहरा निकल आया और जैसे ही उसकी आँखें रतन देब बर्मन की आँखों से मिलीं और उसने अपने हाथों को ऊपर उठाया पुआल के बंडल छूट कर नीचे गिर पड़े।
वह नग्न थी या लगभग नग्न। एक पतला, गीला कपड़े का टुकड़ा उसके पेट को ढंके हुए था, लेकिन जब उसने खरही के बीच रेंगने का प्रयास किया वहाँ छिपने की और ज़्यादा जगह नहीं थी। इसी बीच उसका सीना और जाँघें उलंग हो गयीं। रतन देब बर्मन ने एक अठारह साल की ऐसी लड़की के शरीर का वैभव देखा जिसकी केश राशि काली थी और जिसकी आँखें (संसार में) सबसे अधिक काली थीं और जिसका कौमार्य निष्पाप था, जिसे उसके घर वालों ने पीछे छोड़ दिया था, शायद उस समय जब वह अपने पाँव धो रही थी। वह लड़की इतनी भयविजर्डि़त थी कि न तो वह शोर मचा सकती थी, न रो सकती थी, और न ही गिड़गिड़ा सकती थी। लगा बहुत लंबे समय तक, हालाँकि वह समय तीन सेकेंड से ज़्यादा नहीं था, वे दोनों एक दूसरे को घूरते रहे। फिर वह लड़की जिसकी त्वचा इतनी मसृण थी, जिसे केवल प्रकृति ही बना सके, अपने को दोनों हाथों से ढँककर नीचे खिसक आयी। उसने इस बात की प्रतीक्षा की कि रतन देब बर्मन आगे क्या कार्रवाई करते हैं।
वे उस डर को गटक गये जो बहुत जल्दी उनके अंदर पसर गया था। उन्होंने पचास फिट की दूरी पर खड़े बसुमतरी और वन विभाग के कर्मचारियों पर नज़र डाली जो पाँचवीं झोपड़ी को ज़मीनदोज़ करने के बाद अपनी अपनी कुल्हाडिय़ों को झुला रहे थे। उन्होंने पेड़ों को देखा और अपने सिपाहियों को जिनके हाथों में रायफलें थी। उन्होंने उस नदी को देखा जो अब उनके लिए किसी काम की नहीं थी। और अंत में उन्होंने अपनी काली मुरगी को देखा और उनका दिल इतनी जोर से धड़कने लगा जैसा पहले कभी नहीं धड़का था। रतन देब बर्मन ने निर्णय लिया और वे यूँ ही और लोगों को नज़रअंदाज किये बिना खरही की ओर चहलकदमी करते हुए पहुँच गये।
अब खरही उनके और बसुमतरी तथा अन्य कर्मचारियों के बीच (पर्दा बनकर) खड़ी थी वे घुटनों के बल मुड़े, पुआल का खुला बंडल हाथों में उठाया और उसे लड़की के ऊपर डाल दिया। लड़की की आँखों ने उन्हें व्यग्रता और फिर आश्चर्य के भाव दिखे जब वह प्रयास कर रहे थे कि उस लड़की के लचीले शरीर के छंद को वे भूल जाएं। ऐसा शरीर जिसने उनका गला सुखा दिया था और उनकी धड़कनों को तेज़ कर दिया था।
पिनपिनाती हुई लड़की पुआल में धँस गयी। उन्होंने उसे देखा और धीरे से अपने होठों पर एक उँगली रख कर वे मुस्कुराएँ वह पिनपिनाती रही और रतन देब बर्मन ने पुआल का दूसरा बंडल उठाया और उस पर डाल दिया ताकि वह इनकी नज़र से ओझल हो जाएँ और जब वह उठकर खड़े हुए उन्हें केवल, इस बात की चिंता थी कि उन लोगों के वापस जाने तक क्या वह लड़की साँस ले पाएगी। फिर उन्हें ऐसा अहसास हुआ कि वे अपनी पत्नी के बारे में सोच रहे हैं।
वे नाले के पास वाली ज़मीन पर उतरे और बसुमतरी वाला काम करने लगे। पेशाब करने के बाद उन्होंने अपने जूतों को गौर से देखने का अभिनय किया। खरही के पास से अब कोई सरसराहट नहीं आ रही थी, लेकिन उन्होंने सोचा कि मैं वापस जाऊँ और पुआल को बेहतर तरीके से सजा आऊँ, ताकि कोई भी बंडल नीचे लुढ़क न सके। लेकिन तब भी वह जानते थे कि वे ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि उनके कर्मचारियों ने पाँचवीं झोपड़ी तोड़ दी थी और वे अब उनकी ओर आ रहे थे। उन्होंने अपनी पत्नी के बारे में एक बार और सोचा और अभिनय को जारी रखते हुए खरही से दूर चल कर ऐसे बौने पेड़ों के झुरमुट की ओर आ गये, जिनके नाम वे नहीं जानते थे।
जवानों ने छठी झोपड़ी पर भी अपने दाव चलाना शुरू कर दिये थे। फिर वे मुरगी की चीख और चूज़ों की तेज़ चहचहाट सुनकर अचानक लौट पड़े। वे नाली से होकर नाले के ऊपर से और उस जगह के बगल से जहाँ उन्होंने पेशाब किया था, बाँस के बाड़े की ओर दोड़े। वन विभाग के एक जवान ने मुरगी की दोनों टाँगों को पकड़ रखा था। अपने को मुक्त करने के प्रयास में वह अपने पंखों को पागल की तरह फडफ़ड़ा रही थी। उसकी गर्दन मुड़ी हुई थी और पीली चोंच अपहरण करने वाले के उन हाथों पर वार कर रही थी, जो मुरगी को निरंकुशता पूर्वक पकड़े हुए थे।
रतन देब बर्मन उस आदमी के सामने रुक गये। वह चौड़े कंधों वाला एक हट्टा-कट्टा आदमी था और उसके चेहरे के निचले हिस्से और झुरियों को देखकर आप सहज अनुमान लगा सकते थे कि उसकी जठराग्नि तीव्र थी और अच्छे भोजन के प्रति उसकी वासना दुर्दमनीय थी। ''हरामज़ादा, रतन देब बर्मन ने अपने आप से कहा, ''हरामज़ादा कहीं का।''
''नीचे रखो मुरगी को, चलो नीचे रखो।''
जवान मुसकराया और एक ऐसे अंदाज में बोला जैसे वह कोई षडयंत्रकारी हो, ''इस हंगामे के बाद सर, हम लोग शोरबेदार गोश्त खा सकते हैं। सर, इसे मैं केवल आपके लिए पकाऊँगा, सर।''
''मुरगी को नीचे रखो'', रतन देब बर्मन गरजे।
जवान का चेहरा सख़्त हो गया और उसकी मुसकान उडऩ छू हो गयी और उसने मुरगी को आज़ाद कर दिया। कुड़कुड़ाती हुई मुरगी किसी बत्तख की तरह नन्हें-नन्हें कदमों से दोनों ओर डुगडुगाती हुई चलने लगी। उसके पंख ऐसे फडफ़ड़ाए जिसे बड़े धैर्य से प्राप्त किये गये मातृत्व की मूल प्रवृत्ति ही ला सकती है और वह बांस के बाड़े की छोटी-सी फांक की ओर बड़ी तेज़ी से लपकी। एकाध चूज़े दड़बे से उस समय निकल आये थे, जब उनकी माँ को धर लिया गया था और अब वे अपनी अविश्वनीय रूप से नन्हीं टाँगों के बल माँ के उस स्नेह और आश्रय की तरफ दौड़े जो पिता, भाई अथवा पुत्र, बहिन या पुत्री कभी भी प्रदान नहीं कर सकते।
''बसुमतरी,'' रत्न देब बर्मन ने आदेश ठोंका, ''इस पर गौर किया जाए कि यहाँ से कुछ भी नहीं ले जाना है। कोई मुरगी नहीं, कोई बर्तन नहीं, जो कोई इस नियम को तोड़ेगा उस पर अनुशासन भंग करने का आरोप लगाया जाएगा। समझ गये?''
''जी हाँ, सर,''
रतन देब बर्मन ने महसूस किया कि उनके अंदर का क्रोध शाँत हो रहा था। लेकिन भय अभी भी बना हुआ था। पेड़ों का भय और आदमियों का भय, और कभी भी घर न लौट जाने का भय और वह दूसरा भी भय था, जिसे वह किसी के साथ नहीं बाँट सकते थे और यह वही भय था, जिसने उन्हें उस बाड़े के पास खड़ा कर दिया, जिसकी दूसरी ओर खरही थी। उन्होंने प्रयास किया कि मैं मुड़कर पीछे न देखूँ, इसका भी प्रयास किया कि मैं यह भी न सोचूँ कि पुआल के बंडल नीचे गिर जाएँ तो क्या होगा? उन्होंने सोचा कि मुरगियों के लिए जो भूख होती है वह तो है ही, लेकिन जो भूख उस दूसरी चीज़ के लिए है वह एक अलग शै है। जो दूसरी भूख है वह भय से और प्रचंड हो जाती है और इस समय हम सभी लोगों के अंदर भय कुंडली मारे बैठा हुआ है। उन्होंने हिंसा और भय और सेक्स पर जो कुछ छिटपुट सामग्री पढ़ी थी वे उसके बारे में सोचने लगे। अगर यह सब उन पर लागू हो जाए तब क्या होगा? लेकिन वे जानते थे कि उनके अंदर जो भय है, कल्पना के  कारण ही बिराट रूप में दिख रहा है। इसे कम करने के लिए वह अब तक कुछ नहीं कर सकते थे, लेकिन उस समय भय का अस्तित्व कायम था चाहे वह काल्पनिक भय हो अथवा वास्तविक, भय तो भय ही है, जब तक आपके अंदर वह हो, उन्होंने सोचा, लेकिन यह भी सच है। हम सारे लोग जो यहाँ हैं उनके लिए यह भय निताँत वास्तविक है यद्यपि उनकी कल्पना उसे विराट रूप दे रही थी।
इस लड़की के अंदर भी भय है- उस शत्रु का भय जो विध्वंस के क्षण इसके अंदर जो कोमल, निष्पाप और सुंदर है उस पर आक्रमण कर उसे तहस-नहस कर सकता है। सबसे सुंदर कुचों वाली लड़की, यहाँ से हिलना मत, कतई नहीं हिलना, मैं नहीं जानता तुम यहाँ से क्यों नहीं भागीं, लेकिन इन जवानों में कुछ ऐसे भी है जिन्हें मैं कंट्रोल नहीं कर सकता। तुमने सुना नहीं कैसे इन बदतमीज़ जवान ने मेरी मुरगी को धर दबोचा था। कतई न हिलना थोड़ी देर के लिए तो मैं भी यह सोचने से अपने को रोक नहीं सका कि मैं तुम्हारा प्रेमस्पर्श करूँ। उस समय मैं भयभीत था और यह भी सोच रहा था कि (ऐसा करके) मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा। लेकिन तुम एक ऐसी श$िख्सयत हो जिसे मैं याद करूँगा- क्योंकि मैंने इस बात की प्रत्याशा कभी नहीं की थी कि तुम जैसी कोई लड़की अपनों के बिना इस निविड़ एकाँत में अकेली और असहाय होकर रहेगी। मत हिलो यहाँ से।
''सर, होइसे'' (काम पूरा हो गया, सर)
बसुमतरी ने ऊँची आवाज में कहा-
''जवानों को आने के लिए बोलो। ड्राइवरों को जीपों के अंदर जाने के लिए कहो'', उन्होंने आदेश दिया।
वन विभाग के चार आदमी आराम से चहल कदमी करते हुए उनके पास आये और उनमें से एक ने माचिश निकाली। सूरज आसमान की पूरी यात्रा के बाद क्षितिज की ओर झुग आया था। मंथर गति से चलने वाली हवा, कपड़ों के हिलने से जिसकी उपस्थिति को महसूस किया जा सकता था, अब उनकी गर्दन के नीचे कालर और जबड़े को छू रही थी और उनकी कमीज़ की ढीली आस्तीन को अस्तव्यस्त कर रही थी।
''इन झोपडिय़ों को बिना जलाये चला जाना उचित नहीं होगा, सर'', वन विभाग का एक कर्मचारी कह रहा था? ''वे फिर वापस आएँगे और यहीं दो दिनों में डेरा जमा कर काबिज़ हो जाएंगे।''
रतन देब बर्मन ने जवानों पर नजर डाली जो खरही के आगे अपनी पीठ किये हुए खड़े थे।
''जी हुजूर, दूसरी बेदखलियों में भी हमने ऐसा ही किया है।'' दूसरे आदमी ने कहा।
रतन देब बर्मन ने खरही पर नज़र डाली और उसके बाद उन्होंने उच्छेदित झोपड़ी को देखा जिसकी छत का खर जमीन पर छितराया हुआ था और बांस की तोड़ी गयी भूरी लाठियाँ उन पर बिखरी हुई थीं।
''यही करना ठीक होगा, सर,'' बासुमतरी ने कहा और वह भी उनकी जमात में शामिल हो गया।
हवा थोड़ी देर के लिए थम गयी थी और कुछ सोचे बिना रतन देब बर्मन ने कहा, ''ठीक है।''
जो जवान दिया सलाई लिये था, उसने एक तीली जलाई और लौ को हवा से बचाने के लिये हथेलियों का प्याला बना कर नीचे बैठ गया और उस बिखरे हुए छप्पर की ढेर में आग लगा दी, जो कालिख, धूल और समय की मार से काला पड़ गया था। दूसरे जवान बासुमतरी के साथ लंबे डग भरते हुए खेतों को पार कर दूसरी झोपडिय़ों की तरफ बढ़ गये, जो अब धराशायी हो कर ज़मीन पर चित और आकारहीन पड़े हुए थे तथा दिया सलाई जला दी।
आग की लपटें लाठियों और छप्परों से खेलती हुई मलबे के ऊपर धीरे-धीरे दौडऩे लगीं क्योंकि हवा की गति धीमी थी। वे किसी पियानों बादक की उन उंगलियों की तरह थीं जो की बोर्ड पर फिर रही थीं। रतन देब बर्मन ने अपने आगे फैले हुए खेतों को देखा और जवानों, लपटों, धुआँ, कालिख, खरही, मुरगी का दरबा, ईंटों, लाल जमीन, लड़की और अपनी रोयेंदार मुरली के बारे में सोचने लगे।
फिर उन्होंने अपनी पत्नी और उसकी उन उँगलियों के स्पर्श के बारे में सोचा जिसका अनुभव टिफिन बाक्स देने के समय हुआ था। हवा उनके मुँह का स्पर्श करती इसके पहले उन्होंने उन लपटों को देखा, जिनका बेग धीरे-धीरे बढ़ रहा था और जो धीरे-धीरे पुआल और लाठियों की ओर बढ़ रही थीं।
वे (लपटें) अब रतन देब  बर्मन की ओर बढ़ रही थीं और वह खरही उनसे कुछ ही फिट की दूरी पर थी।
कुछ समय तक वे भावशून्य दृष्टि से यह सब देखते रहे; उनका दिमाग अपरान्ह बेला की जडि़मा जिसमें फैलते हुए धुएं से निकली शिथिलता भी मिली हुई थी, से अवरुद्ध था और फिर उन्हें ऐसी आशंका ने अचानक धर-दबोचा कि उनकी आँखों से आँसू छलक उठेंगे। इस आशँका से उनकी सारी निष्क्रियता भंग हो गयी। वे आगे की ओर उछले और उस आदमी को धक्के देकर एक तरफ कर दिया जो अब तक हाथ में दिया सलाई थामे बैठा था। वह जवान भद्देपन से ज़मीन पर पसर गया और रतन देब बर्मन लपटों पर इस तरह डोले जैसे कोई चुड़ैल भगाने वाला ओझा उन्माद में आकर नाच रहा हो।
तेजी से रपटती हुई लपटें अब खरही से कुछ ही इंच की ही दूरी पर थीं। रतन देब बर्मन ने झपट्टा मारकर एक लाठी उठा ली और छप्पर के नीचे उसे सरका दिया और उसे खरही से दूर फेंक दिया। इस काम में उन्होंने अपनी पूरी कूवत लगा दी, ताकि एक भी चिनगारी पुआल पर न पड़े। प्रत्येक पल लपटें भयावह होती जा रही थी और फिर जब उन्हें लगा कि अब बहुत देर हो चुकी है, हवा ने अपनी दिशा बदले दी और लपटें खेतों की तरफ मुड़ गयीं जैसे भरपूर थप्पड़ मारने पर सिर मुड़ जाते हैं। रतन देब बर्मन का चेहरा गर्मी और जलन से सूख गया था। वे डंडी से छप्पर को कोंचते रहे जैसे डंडी कोई लीवर (उत्तोलक) हो जिसकी सहायता से वे सूखी चीजों को ज़मीन पर लाने का काम कर रहे थे, जहां तक हो सका वे छप्पर को खरही से दूर किये रहे।
जब उन्होंने देखा कि खरही पूरी तरह सुरक्षित है, उन्होंने लाठी नीचे डाल दी और अपनी कमीज की दोनों आस्तीनों से एक-एक कर अपना मुँह पोछा। फिर उन्होंने उस जवान की तरफ देखा जिसे उन्होंने धक्का मार कर जमीन पर गिरा दिया था।
वह आदमी अब खड़े होकर अपनी संभ्रमित आँखों से उन्हें तक रहा था।
''मुझे ऐसा करना पड़ा,'' रतन देब बर्मन ने कहा।
''लेकिन यह केवल पुआल है, सर। वे लोग फिर वापस आएंगे और इससे अपनी झोपडिय़ाँ बनाएँगे।''
''मुझे यह करना पड़ा-तुम नहीं समझोगे।'' वे अभी भी लंबी-लंबी साँसें भर रहे थे। उन्होंने अपना मुंह पोंछा, उनके मुँह में राख थी।
''यह तो केवल पैरा है, सर, पैरा।'' आग अब खेत के बीच तक पहुँच गयी थी। धुएँ ने दूसरी तरफ के पेड़ों को छिपा लिया था; गर्मी की लहरों से आकाश झिलमिला रहा था। सूखे बाँस इस तरह चटक रहे थे जैसे स्कूली बच्चे सभा में घर वापस जाने की आतुरता में अधीर होकर अपनी हजारों हजार उंगलियों की पोरों को चटका रहें हों।
''वह मुरगी'', रतन देब बर्मन ने कहा, ''वह मुरगी और उसके चूज़े...'' वे रुके, गहरी साँस ली और उस आदमी की आँखों में देखा- ''यह जोखिमभरा काम था। वे सब जलकर खाक हो गये होते।''
आदमी सावधान की मुद्रा में खड़ा हो गया, ''लेकिन एक मुरगी की क्या औकात है सर? सर, यह बात मेरी समझ में नहीं आती।''
रतन देब बर्मन बड़ी देर तक लपटों की ओर देखते रहे। फिर वे बोले, ''हाँ तुम ठीक कह रहे हो। एक स्साली मुरगी की क्या औकात है भला?''
आदमी पीछे हटा, दूसरी तरफ मुड़ा और चला गया। आग ने अपना काम पूरा कर लिया था और धुओं के छल्लों ने जो हवा में लटक रहे थे, आसमान को काला कर दिया था। रतन देब बर्मन ने सोचा कितना अच्छा होता अगर मैं आया ही न होता। कितना अच्छा होता मगर मेरी पत्नी बीमार पड़ गयी होती, या जीप रास्ते में ही खराब हो जाती या पुलिस का दस्ता इस काम से अधिक महत्वपूर्ण काम के लिए तैनात कर दिया गया होता। उन्होंने सोचा कि आखिर मैं ही क्यों इतना डाँवाडोल और विकल हो रहा हूँ। यह कैसा अचरज है कि दूसरे लोग तनिक भी भयभीत नहीं लगते?
वे खरही के पास ही रहे और फिर उन्होंने बसुमतरी की बुलंद आवाज सुनी, ''होइसे सर'' (काम पूरा हो गया सर)
रतन देब बर्मन ने भी उतनी ही बुलंद आवाज़ में आदेश दिया, ''चलिए, यहाँ से कूच करें हम लोग। मैं आपके पीछे आ रहा हूँ'', उन्होंने आगे जोड़ा, उनकी गर्दन के नीचे पसीना बह रहा था।
बसुमतरी ने जवानों को पास बुलाया। जो जवान नदी के तट के पास थे वे पहले आये और जीप की ओर बढ़ गये। सूरज बादलों के टीले के पीछे और ठंडक में चला गया था और जवानों ने वृक्षों की ओर देखा। रतन देब बर्मन में डर एक बार फिर तारी हो गया था और उन्होंने तब तक प्रतीक्षा की जब तक वन विभाग का हर कर्मचारी जीप के अंदर नहीं आ गया। उन्होंने मुरगी को देखा और फिर खरही को उन्होंने उस औरत के बारे में सोचा जो अब तक निरी लड़की ही थी और जिसने उनके दिल की धड़कन तेज़ कर दी थी। फिर वे जीप की ओर चल दिये। उनके पीछे काला पड़ा खेत था, टूटी हुई ईंटें थीं, पपीते के पेड़ों की कतारे थीं, वृक्षों के पीछे अदृश्य लोगों की साँस थी, बच्चों के बिना फुसफुसाता पार्क था, और फिर वे जीप के अंदर बैठ गये। उनकी बगल में बासुमतरी बैठा जिसका एक पैर जीप के बाहर पायदान पर था।
ड्राइवर ने इंजन स्टार्ट किया और गियर को एक नंबर में डाला और गाड़ी जैसे ही सड़क के मुखातिब हुई पहियों के नीचे पड़े पत्थर के टुकड़ों से कर्कश ध्वनि आने लगी। उनके पीछे की तीनों जीपें भी चल पड़ी थीं और रतन देब बर्मन ने पीछे बैठे सिपाहियों के बीच की खाली जगह के बीच में अपने कंधों के ऊपर खरही और बाँस के बाड़े पर नज़र डाली। लेकिन जीप एक मोड़ के नीचे आ गयी थी। कुछ सोचते हुए उन्होंने ठीक सामने देखना शुरु किया। भगवान को धन्यवाद है कि कोई हादसा नहीं हुआ हालाँकि बजारीचेरा पहुँचने के पहले हम लोग खतरे से बाहर नहीं हैं। मैं जानता हूँ कि कालीमुरगी ही हमारे लिए संकट मोचक बन गयी। यह हमारा सौभाग्य था। बहुत बड़ा सौभाग्य। भूमिगत बा$गी लोग पेड़ों के पीछे से आ सकते थे और अगर हमारे पास हथियार न होते तो ईंट के भट्ठे पर काम करने वाले आदमियों ने हमें धुन डाला होता। यह कतई गैरवाजिब है कि भूमिगत लोग इनकी ईंटों को पाने के लिए आप्रवासियों को सुरक्षा प्रदान करते हैं। किंतु लड़की, मैंने तुम्हें बचा लिया और इसके बाद इस बात को सोचकर मुझे खुशी होगी।
बोतल से उन्होंने एक लंबा घूँट लिया और सोचा कि घर वापस पहुँचना अच्छा रहेगा।
जब सड़क अपने टेढ़े-मेढ़े सँकरे रास्ते से आगे बढ़ी उन्हें लगा पहाडिय़ाँ बहुत नज़दीक से उनका पीछा कर रही थीं। धूल उनके दल के लोगों के शरीर, बालों और मूछों को आच्छादित कर रही थीं और रतन देब बर्मन ने बोतल से एक और लंबा घूँट भरा और अपनी पत्नी तथा मछली के उस शोरबे के बारे में सोचा जिसकी गंध रात को उनकी नाक में पडऩे वाली थी।
जब वे लोग पाथरकंडी पहुंचे अंधेरा घिर चुका था। और रतन देव बर्मन अपनी पत्नी को एक बार और याद कर नीचे उतरे और एक किलो मछली खरीदा जिसका वादा उन्होंने किया था। फिर उन्होंने एक साल का मुरगा खरीदा और जब वे बाहर निकलने वाले थे उन्होंने एक काली मुरगी देखी। उन्होंने उसे उठा लिया और उसकी कीमत चुका दी और उन्होंने कमसिन औरत तथा दूसरी काली मुरगी के बारे में सोचा। वह मेडीचेरा में मेरे लिए सौभाग्य लायी थी। और यहाँ वाली काली मुरगी, तुम मेरे घर में सौभाग्य लाओगी। फिर वे अपनी जीप में वापस आ गये और जब उन्होंने अंधेरे में आँख खोलते चिरागों और भूरी धुँधली आकृतियों को देखा तथा रात्रि के आगमन से क्षीण पड़ गयी बकरियों की मिमियाहट और लोगों की आवाजों को सुना उन्होंने आज के उस श्रमश्लथ दिन के बारे में कुछ न सोचा जो बीत चुका था।
क़सबे में घुसते समय साढ़े छह बज रहे थे और रतन देब बर्मन ने बासुमतरी से और सशस्त्र बल के हर सैनिक से हाथ मिलाया और वे थाने के अंदर गये। वे जवान विश्वसनीय, जागरुक और अनुशासित थे और उन्होंने मेरी उतनी ही निगरानी की जितनी काली मुरगी ने अपने चूजों की प्राणरक्षा के लिए की थी। रतन देब बर्मन ने गर्व महसूस किया कि वे इन लोगों के साथ रहे, इसलिए कि इन लोगों ने तब उनका साथ दिया जब भय उनको घुणाक्षरित कर रहा था। वे उस पिता की तरह गौरवान्वित थे जो युद्ध के पश्चात अपने पुत्रों के साथ घर वापस आया हो। उन्होंने सोचा भगवान को धन्यवाद है कि मैं भय के कारण कर्तव्य से पराङमुख नहीं हुआ। भगवान, तुम्हें धन्यवाद है।
जब जीप पीछे मुड़ी और वहाँ से एक फर्लांग की दूरी पर स्थित उनके घर की ओर तेज़ी से बढ़ी उन्होंने अपने जैकेट को फटकार कर उसकी धूल झाड़ी। बाहर के बरामदे की बत्ती अभी तक जली नहीं थी और वे मुरगा, मुरगी और पानी की बोतल एक हाथ में और दूसरे हाथ में वह रोहू मछली लिए हुए थे, जिसके नथुनों के बीच में निकली बाँस की पतली पट्टी उनकी तर्जनी को काट रही थी। वे बरामदे का जीना चढऩे लगे।
तभी बल्ब जला और नौकर ने फाटक से दरवाजा खोला। रतन देब बर्मन ने मुरगा और मुरगी को उसके हाथों में थमा दिया और उसने उन्हें सावधानी से सँभाल लिया और अपनी उन आँखों से उन्हें देखने लगा, जिसमें काफी राहत थी। लड़के के पीछे से रतन देब बर्मन की पत्नी ने कहा, ''तुम ठीक-ठाक हो न?''
''हाँ, सब खैरियत है'', वे आगे बढ़े, ''देखो मैं डिनर के साथ तुम्हारे लिए क्या लाया हूँ''?
उन्होंने रोहू मछली ऊपर उठायी और दुहराया, ''देखो।'' फिर वे अंदर आ गये और पत्नी के चेहरे की कोमल रूप रेखा देखी। उस चेहरे पर कोई रंगरोगन नहीं था और आँखें सूजी हुई थीं। वह उनकी ओर अनवरत देखती रही और फिर उनके बाजुओं को टटोला।
''मुझे बड़ी खुशी है कि तुम वापस आ गये। मैं चिंता में पड़ी थी।'' उसने कहा ''रास्ता बहुत लंबा था।'' उन्होंने कहा, ''लेकिन मेरे जवान बहुत अच्छे।''
अब वे घर के अंदर थे, उस जगह जो पाक घर के पास थी और जिसके ऊपर से घर के पिछवाड़े और मुरगी के दरबे को साफ देखा जा सकता था। रतन देब बर्मन वहाँ से नौकर को दरबे का दरवाज़ा खोलते और मुरगा-मुरगी को उसमें घुसाते देख सकते थे।
रतन देब बर्मन ने टेप के नीचे हाथ-मुंह धोया और उस प्रसन्नता को महसूसा जो तब आती है, अब आप भय के कारण होने वाले तनाव से मुक्त होते हैं। उन्होंने सिर ऊंचा किया और सिंक के ऊपर वाले रेलिंग से तौलिया उठा लिया। उन्होंने अपना मुँह पोंछा और लंबी साँस ली और फिर आइने में घूरा। उनका चेहरा धूप से काला पड़ चुका था और वह धूप अभी भी उनके अंदर बरकरार थी, उनकी गर्दन पसीने से चिपचिपी हो चुकी थी और फिर, अपनी आँखों के कारण उन्होंने खरही में छटपटाती कमसिन औरत के बारे में सोचा। उन्होंने अपनी पीठ सीधी की। जीप की सवारी के कारण उनकी माँसपेशियों अभी तक अकड़ी हुई थीं। ''मुझे बड़ी खुशी है कि तुम वापस आ गये। मैं चिंता में पड़ी थी।''
उसने ऐसी बात पहले कभी नहीं कही थी- उन्होंने दुबारा सोचा।
वे दूसरी ओर मुड़े और देखा कि वह डायनिंग टेबुल से सँट कर खड़ी हुई थी, चौके की ओर से आती हुई रोशनी उनके चेहरे पर पड़ रही थी। उसने कोई मसकारा नहीं लगाया था। लेकिन वे आँखें विशाल थीं और उसके जबड़े और होंठ हठीले थे। वे उसके थोड़ा और निकट आये और देखा कि उसकी आँखें नम थीं और बरौनियाँ तीन और चार के जत्थों में थीं। उसके बाल पीछे खिंचे हुए थे और जैसे ही लड़का हड़बड़ी में चौके में घुसा, रतन देब बर्मन, जिसके हाथ में तौलिया अभी भी थी, ने पूछा, ''क्या तुम्हारा दिन अच्छी तरह गुज़रा? मेडी चेरा में मैं तुम्हारे बारे में सोच रहा था।''
उसकी आँखों में आँसू उमड़ आये और जब उसके चेहरे में कंपन हुआ, उसके जबड़ों और होठों का आकार बिगडऩे लगा। शादी के एक साल बाद भी उसकी आँखें शर्म और तकल्लुफ़ से लबरेज़ थीं और रतन देब बर्मन ने सपने में भी यह नहीं सोचा था कि एक दिन की गैरहाज़िरी में उनका स्वागत आँसुओं से होगा।
''मुझे बताओ,'' उन्होंने पति सुलभ सहज वृत्ति से पूछा, उनकी आवाज की कठोरता उनकी आँखों के स्नेह से कोमल हो उठी, जिसे वे स्वयं नहीं देख सके।
उसने उन्हें देखा और फिर वह बहुत धीरे से बोली, ''वह दो बजे आये। सीधे बेडरूम में धमक आये। गनीमत थी कि लड़का बहुत दूर नहीं था।'' अब आँसू सूख चुके थे और उसकी आँखें उस औरत को मासूमियत से पूरी तरह खुली हुई थीं जो साँत्वना और सुरक्षा चाहती है। और फिर वह और नज़दीक आ गयी और उससे लिपट गयी और अपना सिर उसकी छाती पे टिका दिया। सिसकियाँ सुनायी नहीं पड़ रही थीं। लेकिन वे अपनी कमीज़ पर पत्नी की गति का अनुभव कर सकते थे। बाद में पत्नी के आँसू का खारापन और उनके शरीर का पसीना घुल मिल गये और उसने ऐसा संवेदन उभारा जिसमें लगा उसका शैंपू उनमें जज़्ब हो रहा है। वह एक संयमी और शाँत महिला थी और अपनी भावनाओं को खुलकर व्यक्त नहीं करती थी जैसा कि अब कर रही थी। पूरे बारह महीने एक साथ रहने के बाद कम से कम उनको इस बात की जानकारी थी और यह रिक्तता जब छँट रही थी, वह अब भी नहीं जानते थे या जान सकने में असमर्थ थे कि उनकी पत्नी इस तरह क्यों सिसक रही है।
एक सेकेंड, या शायद उससे कुछ ज़्यादा के लिए उसने पति के सीने से अपना सिर हटाया और अपनी दबी हुई तरंग में वह बोली, ''उन्होंने कहा कि वे तुमको बताना भूल गये। भूल गये,'' उसने सिसकी भरी।
''भूल गये?'' रतन देब बर्मन उसके बालों में साँस लेते बोले, ''क्या भूल गये?''
उसने अपना सिर घुमाया और अपने एक गाल को पति के सीने पर सटाते हुए बोली, ''एक आदमी कल रात उनके पास आया था। मेडीचेरा से एक ऐसा आदमी जो जानता था कि भूमिगत संगठन को बेदखली अभियान की जानकारी थी।'' उसने फिर सिसकी भरी, ''कि वे घात लगाकर इंतजार कर रहे हैं।''
''कौन था वह आदमी?''
''एक ऐसा आदमी जिसे भूमिगत संगठन ने एक साल पहले दंड दिया था। वह गायों को चुराता रहता था।'' एक बार रतन देब बर्मन के अंदर में फिर खालीपन भरने लगा।
''मैं चिंतित थी। बहुत चिंतित थी।'' वह बोली। उन्होंने रेशमी साड़ी में लिपटे हुए उसके मसृण एवं कोमल शरीर का हल्का स्पर्श किया और उस आक्रोश के कारण जिससे उनके शब्द गले में अटक रहे थे। उनका दिल तेज़ी से धड़कने लगा। अंत में वे बोले, ''और फिर?''
''उन्होंने मुझे बिस्तर तक धक्का देकर ले जाने की कोशिश की और कहा अगर तुम्हारे पति के साथ कोई हादसा हुआ मैं तुम्हें सँभाल लूँगा। उन्होंने कहा कि मेरे पास काफी रुपये पैसे हैं।'' वह अब तक सिसक रही थी। ''लड़का, वह बाहर था। जब मैं चीखी वह अंदर आ गया।''
अचानक उनके अंदर का खालीपन काफूर हो गया। रतन देब बर्मन ने जान लिया था कि जिस ज्वर ने संजय यादव को धर-दबोचा था वह अन्य किसी ज्वर से कहीं ज्यादा बुरा था। ''हराम ज़ादे! स्साले हरामी कहीं के!'' उन्होंने मन ही मन कहा, और फिर किसी कारण खरही में दुबकी हुई कमसिन औरत की बात उनके दिमाग में आयी और उस लड़कीनुमा औरत की छवि से वह संजय यादव, पुरातत्वज्ञ, को छवि की अपने मन से पोंछ डालना चाहते थे।
वे एक-दूसरे से आबद्ध खड़े रहे उन्हें इस बात का भी ज्ञान नहीं था कि नौकर गर्म पानी के डेगचे को गुसलखाने में रख आया था, यह भी ज्ञान नहीं था कि मुरगियाँ कुड़कुड़ा रही थीं और बाहर रात की हवा से बाँस की पत्तियाँ सरसरा रही थीं।
रतनदेब बर्मन एक सीधे सरल इंसान थे और उनके भय भी सरल थे। वे अपनी पत्नी को चिपकाये रहे। वह अपनी गरिमा में यह भी नहीं जान सकी कि कैसे रोया जाये। वह अपने पति के उतने निकट थी जितनी कोई स्त्री हो सकती है। वे उसे अपनी बाहों में बांधे हुए खड़े रहे और मुरगियों का कुड़कुड़ाना अब शोर में बदल चुका था। और तब जब हवा दरवाजों की फाँक से खिड़कियों और आधे खुले रोशनदानों से अंदर आ रही थी उन्होंने पत्नी के बालों को छुआ और उन्हें सहलाने लगे। फिर उन्होंने काली मुरगी और उसकी संरक्षात्कमता के बारे में सोचा और फिर उनके दिमाग में एकबोर वाली बँदूक की बाल कौंधी जो उनके बेडरूम में रखी थी। उन्होंने निर्णय लिया। आज मैं अपनी पत्नी को अंकशायिनी बनाऊंगा। और हाँ मेरी मुरगियाँ और कल सुबह मैं इस काने नेवले की खबर लूँगा।

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