अशोक कुमार पाण्डेय की दो कविता सिरीज़

  • 160x120
    जून-जुलाई 2015
श्रेणी अशोक कुमार पाण्डेय की दो कविता सिरीज़
संस्करण जून-जुलाई 2015
लेखक का नाम अशोक कुमार पाण्डेय









किसी सलीब पर देखा है मुझको बोलो तो

एक
आधी रात बाक़ी है जैसे आधी उम्र बाक़ी है
आधा कर्ज़ बाक़ी है आधी नौकरी आधी उम्मीदें अभी बाक़ी हैं
पता नहीं आधा भी बचा है कि नहीं जीवन

अब भी अधूरे मन से लौट आता हूँ रोज़ शाम
रोज़ सुबह जाता हूँ तो अधूरे मन से ही
जो अधूरा है उसे पूरा कहके ख़ुश होने का हुनर बाक़ी है अभी
अधूरे नाम से पुकारता हूँ जिसे प्यार का नाम समझता है वह उसे!

एक अधूरे तानाशाह के फरमानों के आगे झुकता हूँ आधा
एक अधूरे प्रेम में डूबता हूँ कमर तक

दो
वह जो चल रहा है मेरे क़दमों से मैं नहीं हूँ

हवा में धूल की तरह चला आया कोई
कोई पानी में चला आया मीन की तरह
कोई सब्जियों में हरे कीट की तरह
और इस तरह बना एक जीवन भरा पूरा

पाँचों तत्व सो रहे हैं जब गहरी नींद में
तो जो गिन रहा है सड़कों पर हरे पेड़
वह मैं नहीं हूँ

तीन
इतनी ऊँची कहाँ है मेरी आवाज़
एक कमज़ोर आदमी देर तक घूरता है कोई तो डर जाता हूँ
कोई लाठी पटकता है जोर से तो अपनी पीठ सहलाता हूँ
शराबियों तक से बच के निकलता हूँ
कोई प्रेम से देखे तो सोचते हुए भूल जाता हूँ मुस्कुराना
दफ्तर में मंदिर की तरह जाता हूँ
मंदिर में दफ्तर की तरह

अभी अभी जो सुनी मेरी आवाज़ आपने और भयभीत हुए
वह मेरे भय की आवाज़ है बंदानवाज़

चार
कौन करता है मेरा ज़िक्र?

मैं इस देश का एक अदना सा वोटर
एक नीला निशान मेरा हासिल है
मैं इतिहास में दर्ज होने की इच्छाओं के साथ जी तो सकता हूँ
मरना मुझे परिवार के शज़रे में शामिल रहने की इच्छा के साथ ही है

किसी ने कहा प्रेम तो मैंने परिवार सुना
किसी ने क्रान्ति कहा तो नौकरी सुना मैंने
मैंने हर बार बोलने से पहले सोचा देर तक
और बोलने के बाद शर्मिन्दा हुआ
मैंने मोमबत्तियाँ जलाईं, तालियाँ बजाईं
गया जुलूस में जंतर मंदर गया कुर्सियां कम पड़ी तो खड़ा रहा सबसे पीछे हाल में
और रात होने से पहले घर लौट आया

वह जो अखबार के पन्ने में भीड़ थी
जो अधूरा सा चित्र उसमें वह मेरा है
सिर्फ इतने के लिए भी चाय पिला सकता हूँ आपको
कमीज़ साफ़ होती तो सिगरेट के लिए भी पूछता

रुकिए... लिख तो दूँ कि धूम्रपान हानिकारक है स्वास्थ्य के लिए

हत्यारे से बातचीत

एक
तो तुम्हारा घर?

घर छोड़ दिया था मैंने
मुझे घरों से नफ़रत थी
मैंने सबसे पहले अपना घर उजाड़ा
मुझे नफरत थी छोटे छोटे लोगों से
मुझे ग़रीबी से नफरत थी, ग़रीबों से नफ़रत थी
मुझे मुश्किल से जलने वाले चूल्हे की आग से नफरत थी
मुझे उन सबसे नफ़रत थी जो मेरे लिए नहीं था
जो मेरे लिए था मुझे उससे भी नफरत थी

असल में मैंने घर नहीं छोड़ा
मैंने अपनी नफरतों का घर बनाया
और फिर जीवन भर उसमें सुकून से रहा

जो घर जलाए मैंने
उनकी चीखें मेरे जीवन का संगीत हैं।

दो
प्रेम?

प्रेम मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी है
मैंने नहीं किया प्रेम और बनता गया मज़बूत दिनोदिन
वीर प्रेम नहीं करते, वसुंधरा उनकी भोग्य होती है,

मैंने जंगल देखे तो वह मुझे छिपने की जगह लगी
मुझे तेज़ तूफान सबसे मुफीद लगे हत्या के लिए
बच्चों को देखकर मुझे कोफ़्त होती थी
मैंने चाहा कि रातोरात बड़े हो जाएँ वे
स्त्रियाँ मेरे जीवन में आई चीखने की तरह

मैंने खुद को प्रेम किया
और खुश रहा।

तीन
डर नहीं लगता तुम्हें?

डर नहीं लगा कभी मुझे...
असल में लगा
चीखें मेरे डर का इलाज थीं
बहते खून ने मेरी नसों में हिम्मत भरी
डरी हुई आँखों की कातरता ने हरे मेरे डर

जहाँ से शुरू होता है तुम्हारा डर
वहाँ से मेरा ख़त्म हो जाता है
मैं रात के अंधेरों से नहीं दिन के उजालों से डरता हूँ

चार
सपने...?

मुझे सपनों नफरत है
मैं रातों को सोता नहीं उनकी आशंका से
पता नहीं कहाँ से आ जाते हैं नदियों के शांत तट
खेल के मैदान, बच्चे...वे औरतें भी जिन्हें बहुत पीछे छोड़ आया था कहीं

मैं नहीं चाहता लोग सपने देखें और डरना भूल जाएँ थोड़ी देर के लिए
मैं नहीं चाहता लोग सपने देखें और सोचना शुरू कर दें
मैं नहीं चाहता कि लोग सपने देखें और नींद में गुनगुनाने लगें
मैं नहीं चाहता कि सपने देखते हुए इतिहास की किसी दुर्गम कन्दरा में ढूंढ लें वे प्रेम
और जागें तो चीखने की जगह कविताएँ पढऩे लगें

असल में मुझे कविताओं से भी नफरत है
और संगीत की उन धुनों से भी जो दिल में उतर जाती हैं
मुझे नारे पसंद है और बहुत तेज संगीत जो होठ और कानों तक रह जाएँ
मैं चाहता हूँ हृदय सिर्फ रास्ता दिखाए लहू को
और जब मैं एकदम सटीक जगह उतारूँ अपना चाकू
तो निकल कर ज़मीन को लाल कर दे

मैं इतिहास में जाकर सारे ताजमहल नेस्तनाबूद कर देना चाहता हूँ
और बाज बहादुर को सूली पर चढ़ाने के बाद रूपमती को जला देना चाहता हूँ
मैं उन सारी किताबों को जला देना चाहता हूँ जो सपने दिखाती हैं

मैं उनके सपनों में अँधेरा भर देना चाहता हूँ
या इतना उजाला कि कुछ दिखे ही नहीं

पांच
लेकिन?

जाइए मुझे अब कोई बात नहीं करनी!

Login