1
रहतीं
आँगन ही में
मीलों चलकर चीटियाँ
जैसे
विकल अँधेरे में
मन
2
हरा समूचा आकाश है डूबा
सुआपंखी मन
रोको
सुग्गों का आर्तनाद
गाढा तीखा अशांत
3
चिडिय़ा को देखना खुद को देखना है
जैसे दिखती है वह
फूल पत्ती दूब धूप
उड़ती है जंगल में जंगल होकर
नदी पर नदी सी बहती है
4
कोई स्वप्न नहीं नहीं कोई एक भी
दांव सा जिस पर खेलूं जीवन
चुभे जो
बंजर नींद को
5
कातर है नींद के आले में भूखा कबूतर
दीमक निशब्द कुतरती चौखट सपनों की
रात के अंतिम प्रहर
विरक्त आत्मा निर्वाण पथ निहारती
कहीं
6
चिडिय़ा करती परिक्रमा धूप की नहीं दिखती
टटोलने पर भी मिलती नहीं देह अपनी
निकल गया समग्र घूँट-घूँट
देखने को मेरे देखने वाला
28 नवम्बर 1972 को उन्नाव में जन्मी पारूल पुखराज की हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत और आधुनिक फोटोग्राफी में गहरी रुचि है। पहल में पहली बार। पारूल की कविताओं में प्रकृति के साथ गहरा तादात्म है। |