मायूस परिंदे

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    मार्च : 2015
श्रेणी कहानी
संस्करण मार्च : 2015
लेखक का नाम भूमिका द्विवेदी





नये कथाकार




दंगा अपने पूरे शबाब पर था। सरकारी दफ़्तर, इमारतें, गाडिय़ां धू-धू कर जल रहीं थीं। दुकानों पर ताले पड़ गये थे। बाज़ारों में सन्नाटा पसरा था। सड़कों पर जली हुई सरकारी बसों के टायर टहल रहे थे और कार-मोटरों के परखच्चे मंडरा रहे थे। भले ही कर्फ्यू का ऐलान हो चुका था, फ़िर भी पुलिसिया गश्त, लाशों के सड़ते गोश्त और चील-कौव्वों की वजहों के चलते, सड़कें वीरान नहीं कही जा सकतीं थीं। इस इलाके में बसी हुई आवाम की जानें हलक़ में अटकी हुई थीं, खासकर बीच बाज़ार और चौक इलाके में रहने वालों की हालत बदतरीन थी। लोगों ने अपने घर की खिड़की-दरवाजे इस क़दर बन्द कर रखे थे, गोया मकानों में कोई रहनवारी बची ही ना हों।
ज़हरूल ख़ुदाबक्श अन्सारी बहोत लाचार-सा कभी आसमान ताकता, कभी अपने छोटे-से आंगन में इस पार से उस पार तेज़ क़दमों से चहलक़दमी करता, कभी रुक कर चिलम के दो-तीन कश खींचता। उसकी बेकली का बयान मुश्किल था। उसका तकरीबन सवा साल का नवासा लगातार रोये जा रहा था। वो नन्हीं-सी जान दोनों बूढ़ा-बूढ़ी के जी को हलक़ान किये था। आंगन के किनारे कच्ची ज़मीन पर बैठी ज़ोहरा उसे गोद में लिये, हाथ का बना पंखा झले जा रही थी और किसी भी तरह उस रोते बच्चे को चुप कराने की कोशिश भी कर रही थी। ''मेरी बात मानो तो पीछे की सड़क वाले पुजारी के पास रख आओ इसे। वो लोग अभी-अभी निकले हैं इस गली से, फ़िर लौट के आने में कुछ वक़्त तो लग ही जायेगा। तब तक तुम पुजारी के यहां से हो आओगे। कम से कम कुछ दिन तो इसे वहीं छुपा रहने देते हैं... देखो उन कमबख्तों का कोई भरोसा नहीं, वो इस नादान को भी नहीं छोड़ेंगे... सुन रहे हो ना...'' ज़ोहरा की आवाज़ बेइन्तिहां घबड़ाई हुई थी।
''हम्म्म्म्... सुन रहा हूं...'' ज़हरूल एक जगह थम गया। उसकी  बेचैन टहल ज़रा रुक गई, ''कहती तो तुम ठीक हो, पुजारी के अपने भी दो-तीन बच्चे हैं। वहीं मन्दिर के चौबारे में खेलते रहते हैं। उनके कुनबे में ये महफ़ूज तो रहेगा। लेकिन... लेकिन पुजारी मानेगा, इस बात पर ऐतबार नहीं मुझे...''
''मानेगा क्यूं नहीं... ज़रूर मान जायेगा। उसने पिछली बार भी हमारी पूरी मदद की थी... और फिर देखो, कुछ ही दिन की तो बात है... दंगा ख़त्म हो या न हो, इन कमीने पुलिस वालों का दौरा ज़रूर कम हो जायेगा... फ़िर हम अपने लाल को वापस ले आयेंगे... जो माल-असबाब था घर पे, सब तो छानकर ले गये थे मरदूद... अब तो यही एक घर का चिराग बचा है हमारे पास... इसकी हिफ़ाज़त ना कर सके तो हम लोगों के जीने का कोई मतलब ही नहीं... मेरी बात मानो, फ़ौरन निकल जाओ तुम... महमूद यहां होता तो ज़्यादा फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं थी... लेकिन महमूद को भी इसी दम जाना था... मेरी समझ से इस नाज़ुक वक़्त कम-अज़-कम इस मासूम को यहां से हटा देना ही बेहतर है। तुम वक़्त ख़राब मत करो। जल्दी जाओ, वरना वे कमीने किसी भी घड़ी आ धमकेंगे... ख़ुदा ना करे कि वे पलट के आयें, लेकिन अगर वे आ ही गये तो मैं उन्हें तब तक उलझाये रखूंगी, जब तक कि तुम लौट नहीं आते...''
''ठीक है, तुम्हारी बात मान कर चला तो जाता हूं, पुजारी ना माना तो उलटे पांव लौट के आ ही जाऊंगा... खैर, लाओ दे दो इसे मुझे। वो बड़े वाले तौलिये में लपेट करके दे दो...''
दोनों मियां-बीवी की थोड़ी देर बात की रज़ामन्दी के चलते ज़हरूल अपने नन्हें नवासे को गोद में उठाये, पीछे वाले दरवाज़े से संकरी गली की ओर निकल गया।
उसके निकले अभी मिनट भी पूरा नहीं बीता था, कि ज़ोहरा ने मुख्य-दरवाज़े पर कुण्डा खटखटाने के साथ-साथ आती हुई तेज़ मर्दाना आवाज़ें सुनी... ''धड़ धड़ धड़... धड़ धड़ धड़... अरे मनहूसों कहां मर गये हो, दरवाज़ा खोलो... धड़ धड़ धड़...''
ज़ोहरा सर का दुपट्टा ठीक करती, ख़ुदा से सलामती की दुआ मांगती हुई, जल्दी-जल्दी दरवाज़े तक पहुंची। उसके सांकल गिराते ही पुलिस की वर्दी पहने तीन हवलदार, एक ड्राईवर और एक दरोगा, कुल पांच मर्दाने घर के भीतर धड़धड़ाते हुये दाख़िल हो गये। उनमें से एक गुर्राते हुए बोला,
''दरवाज़ा खोलने में इतनी देर क्यों की...''
''सेवइंया छान रही होगी बैठकर... हमें खिलाने के लिये... हा हा हा हा...'' दूसरे ने खिल्ली उड़ाई... उसकी बात सुनकर सभी हंसने लगे।
ज़ोहरा ख़ामोश खड़ी, अपना दुपट्टा कसके पकड़े, इन जाहिर ठहाकों को सुनती रही। ज़ोहरा इन मनहूसों के नापाक इरादे खूब जानती थी। ये उनका कोई पहला फेरा तो था नहीं। सिर्फ इसी घर क्यूं, आस-पास के तक़रीबन सभी घरों में ये इन्सान का भेस धरे भेडिय़े बारी बारी से चक्कर लगाते थे। अव्वल तो दंगों की माराकाटी के चलते और ऊपर से इन सभी सरकारी वर्दी वाले डाकूओं के ज़ुल्मों की वजह से पूरे के पूरे दंगे से प्रभावित इलाकों के लोग अपने घरों को बन्द करके, क़ीमती चीज़ें समेटकर कहीं ना कहीं महफ़ूज़ ठिकानों को जा चुके थे। आसपास के मकानों में केवल ज़हरूल और ज़ोहरा ही थे, जो बेटे की ग़ैरमौजूदगी और बहू की बीमारी के चलते रुक गये थे, और इन गिद्धों के शिकार बन रहे थे, वरना तो, झगड़ा बढऩे का अन्देशा ज़हरूल को पहले ही हो चुका था, और वो कोई ना कोई ख़ानदान वालों के पास अब तक चला भी गया होता।
अब की बार कमीनों का सरताज दरोगा, अकेली औरत ज़ोहरा से बोला, ''बोलती क्यों नहीं... ज़बान पर ताले जड़े हैं क्या... जवाब दे, कहां है बेटा तुम्हारा... शहर में फ़साद कराता है, और घुस जाता है अम्मा के पल्लू में... निकाल कर ला उसे... कहां छुपा के रखा है... और वो बुढ्ढा, शौहर कहां है तुम्हारा... दिख नहीं रहा... पिछली बार तो यहीं बैठा था सांड़ जैसा... अब कहां मर गया...''
''जी... साब, वो... न न नमाज़ पढऩे... गये हैं...'' ज़ोहरा ने हकलाते हुए ज़हरूल को बचाने की कोशिश की। इस पर दारोगा फ़िर चीख पड़ा।
''नमाज पढऩे गया है... लेकिन पूरे इलाके में कफ़्र्यू लगा है, वो हरामज़ादा क्या ये नहीं जानता... ये तो सरासर सरकारी हुक़्म की नाफ़रमानी है... आने दो साले को, अभी अन्दर करता हूं... लड़का है कि शहर भर का गुण्डा बना फिरता है और माई-बाप अल्लाह का नाम ले रहे हैं... बहोत खूब... आख़िरी बार तुम्हारे लड़के को दंगाईयों के साथ देखा गया है, तुम लोग लाख अल्लाह का नाम लो, उससे कुछ नहीं होने वाला... समझी... बस एक बार तुम्हारा लड़का हत्थे चढ़ जाये हमारे, फिर देखना क्या गत बनाते हैं उसकी... एक-एक जुर्म कबूलवा के रहेंगे...''
''साहब उसने कुछ नहीं किया, यक़ीन कीजिये मेरी बात पर, वो तो लड़ाई-झगड़ा होने के पहले ही शहर से बाहर हाजी बाबा की मज़ार पर चादर चढ़ाने चला गया था... उसकी औरत भी बहोत बीमार थी, उसे तो इन फ़सादों का कोई इल्म भी नहीं...''
इस पर हवलदार ज़ोर से चीखा,
''चुप्प्प... बहोत ज़बान चलती है तेरी... साहब के मूं लगती है...''
ज़ोहरा सहम गई, चुप होकर दारोगा को देखने लगी,
दारोगा भी उसे घूरने लगा, फ़िर इधर-उधर झांककर बोला,
''बहू नहीं दिखाई दे रही तुम्हारी, तुम कह रही हो, बीमार है... तो फ़िर मर गई क्या...''
''अल्लाह ना करे साहब, वो मायके चली गई...'' ज़ोहरा की जान हलक़ में अटकी थी।
थोड़ा रुककर दारोगा फ़िर बोला,
''हां... तो तुमने बताया नहीं... दरवाज़ा खोलने में इतनी देर क्यूं हुई तुम्हें... ज़रूर अपने लड़के को छुपा रही होगी, पीछे के दरवाज़े से भगा रही होगी... क्यों... बोल... जवाब दे मेरी बात का...''
''जी वो.. जी मैं ज़रा ऊंचा सुनती हूं... देर से आवाज़ें आयी मुझे...'' ज़ोहरा ने बहौत धीमी आवाज़ में जवाब दिया।
कमीनों की इस टोली का सरदार, ज़ाहिराना तौर पर दारोगा ही था, उसने ज़ोहरा को गलीच नज़रों से देखा और उसका दुपट्टा उसकी पकड़ से, एक झटके से छीनते हुए बोला, ''अच्छा... तो ऊंचा सुनती हो तुम... लेकिन इतनी उमर तो नहीं लगती तुम्हारी... भरी जवानी में ऊंचा सुनने लगी हो, ये तो अच्छी बात नहीं... क्यों...''
''क्या गज़ब कर रहे हैं साहब.. मैं नाती-पोते वाली हूं... कुछ तो लिहाज कीजे... आपके घर में ज़नाना होंगी, अम्मा होंगी... बहन-बेटियां होंगी... साहब कुछ तो ख़याल कीजे.... साहब... रहम कीजे...'' ज़ोहरा के आंखों से झरझर आंसू गिरने लगे।
''ख़याल रखने ही तो आये हैं तुम्हारा... और ये नौटंकी बन्द कर अपनी... मुझे चराती है स्साली.. ये जो तुम लोग अपने बच्चों की ज़रा-ज़रा सी उमर में ब्याह कर देते हो, इसी से नाती-पोते वाली बनके बैठ गई हो, समझी कि नहीं... बड़ी आई नाती-पोते वाली... मुझे बहन-बेटी बता रही है... अपनी बहू को मायके भगा के बैठी है... हरामज़ादी स्साली...'' और उसने बेशुमार मां-बहन की गालियों की झड़ी लगा दी।
ज़ोहरा ख़ामोशी से अपने हाथों से अपनी छाती ढके, सुबकती हुई बोली, ''साहब मैं कोई जवान छोकरी नहीं हूं.... मुझे बक्श दीजे... ये थोड़ी देर में आ जायेंगे... आप उनसे बात कर लीजियेगा...''
''अरी ओ दंगाइयों की महतारी, ज़्यादा ज़बान मत चला... समझी कि नहीं... ले लाठी देख रही है, दो बदन पर पड़ेगी तो सारा बुढ़ापा निकल जायेगा तेरा, समझी... अब चुप हो जा हरामज़ादी...'' ये कहते-कहते दरोगा का एक चेला,अपनी स्वामिभक्ति दिखाने बीच में कूद पड़ा।
दारोगा फ़िर गुर्राया, ''इधर आ.. आ इधर...'' उसने ज़ोहरा की कलाई दबोची ही थी, कि घर के बाहर सड़क पर सायरन बजने की तेज़ आवाज़ें आने लगीं।
''कोई मन्त्री आया है दौरे पर... ये हूटर की ही आवाज़ें लगती हैं..'' हवलदार हड़बड़ाहट में, अपनी टोपी ठीक करते हुये, ज़ोर से बोला।
''हम्म्म्म... तुम ठीक कहते हो...'' कहते-कहते दारोगा के हाथ से ज़ोहरा की कलाई छूट गई। उसने चुपचाप हाथ में लिये हुये ज़ोहरा के दुपट्टे को भी वहीं आंगन में फेंक दिया। जिसे ज़ोहरा ने बिना एक पल भी गंवाये, उठाया और अपने बदन से लपेट लिया।
जिस तेवर और रौ से वो दारोगा घर में दाखिल हुआ था, ठीक उसी गति से धड़धड़ाते हुये, अपनी भारी-भारी जूतों की चीत्कार लिये, आंगन से निकल कर बाहर दरवाज़ें तक पहुंच गया। अपनी हैट और छड़ी संभालते हुये सड़़क से होते हुये बाहर चौराहे पर आ गया। उसके सभी साथी भी उसका उसकी गति से अनुसरण करते गये।
*
ज़हरूल नन्हें-से बच्चे को जतन से समेटे, मन्दिर की सीढिय़ों से कुछ दूर, नाले के पार, एक बेहद संकरी गली की आड़ में छुपा था। दम साथे हुये, आते-जाते पुलिस-दल के सामने से गुज़र जाने का इन्तज़ार कर रहा था। बारह-बीस सीढ़ी फलांग कर, मन्दिर था, और मन्दिर के ठीक पीछे पुजारी मय अपने परिवार के रहा करता था। ज़हरूल को वहां पंहुचने में मुश्किल से दो मिनट लगे, लेकिन पुलिस वाले मन्दिर के नीचे सीढिय़ों पर जमे हुये थे... कुछ वक़्त बीता, तो कई सारे सिपाही टहलते हुये काफ़ी दूर सड़क पर निकल गये। केवल दो सिपाही बचे हुये थे, जो आपस में ठिठोली करने में मशगूल थे... कुछ देर बाद एक सिपाही उठकर नज़दीक बने सरकारी शौचालय पहुंचा, और उसके जाते ही दूसरा भी अपनी बटालियन की ओर मुड़ गया। ज़हरूल को यही सही मौका मिला, उसने बच्चे वाली तौलिये से ख़ुद को और गोद लिये बच्चे को ढक लिया, और करीब-करीब दौड़ लगाते हुये सीढिय़ां फांदता हुआ, पुजारी के कमरे तक पहुंच गया। पुजारी उसे देखकर परेशान हो गया, फ़ौरन अन्दर कमरे में ले जाकर बोला,
''ये क्या गज़ब करते हो ज़हरूल भइय्या... ऐसे दंगा-फ़साद वाले माहौल में काहे हांफ़ते-पादते चले आ रहे हो... हुआ क्या... काहे आना पड़ गया इधर तुमको...''
''क्या बताऊं शास्त्री भाई, मुसीबत का मारा हूं... इस नन्हीं-सी जान को हैवानों से बचाने फ़िर रहा हूं... ना जाने कहां से पुलिस महकमें को ये वहम बैठ गया है कि इस मासूम के अब्बू, यानी महमूद इस मज़हबी दंगे में शरीक़ है, वो कुत्तों की तरह हम लोगों की जान को सूंघती फ़िर रही है... बीस दिन बीत गये, महमूद का भी कुछ अता-पता नहीं चल सका... दंगा शुरू होने से पहले हाजी बाबा की मज़ार का कहकर निकला था। दोस्त-यार भी थे साथ उसके, उधर इशरत की हालत भी बहुत नाज़ुक है, इसी वजह से उसे मायके भेजना पड़ा... अब ये पुलिस वाले हैं कि कहर ढाये पड़े हैं... दिन-दोपहरी, रात-बेरात कभी भी दरियाफ़्त का बहाना लेकर घर की चौखट पर आ धमकते हैं। इतनी गलीच निगाहों से ज़नाने को देखते हैं कि अब मैं तुम्हें क्या बताऊं... शहर में दंगा क्या छिड़ा, उनकी तो जैसे चांदी हो गई... कोई देहरी नहीं बाक़ी, जहां लूट-खसोट ना किया हो... ऊपर से दिखाते हैं मरदूद की दंगाईयों की खोज रहे हैं... असलियत क्या है उन नमकहरामों की, ये तो केवल हम जैसे लोग ही बता सकते हैं... औरत अपनी आबरू के लिये लड़ रही है, मज़दूर अपने काम को और बच्चे अपनी जान को रो रहे हैं... पूरे कस्बे में यही बदहाली छाई है... अल्लाह रहम करे... रमाकांत भाई, ऐसी सख़्त घड़ी में मैं तुमसे मदद मांगने आया हूं... मुझे इस नादान की बेहद फ़िक़्र है... तुम इसे अपने दर पर छुपा लो... खुदा बनाये रखे, तुम्हारे छोटे-छोटे बच्चों के बीच मेरा जिगर का टुकड़ा भी पनाह पा जायेगा... भाई मेरे, अल्लाह तुम्हें आबाद रखे, इस मासूम फ़रिश्ते की जान बचा लो... बड़ा हौसला करके तुम्हारे दर पर आया हूं...रहम करो इस नादान पर भाई...''
''ज़हरूल भइय्या जैसे तुम्हारा बच्चा वैसे मेरा। कोई भेद नहीं रखता, ईश्वर के दरवाजे बैठा हूं, झूठ नहीं कहूंगा... मुझे कोई बैर नहीं किसी से, लेकिन भइय्या कसम खाकर कहता हूं, मुझे लग रहा था, ये फसाद अभी और लम्बा खिंचेगा... ना सरकार झुक रही है, ना फ़सादी बाज़ आ रहे हैं, यहां गोली, वहां धमाके, इधर लाशें, उधर मातम... क्या कहूं, मेरा तो जी फटा जा रहा है ये सब देखकर... ज़हरूल भइय्या, अब आगे का तो प्रभु ही मालिक है। इसी नाते तुम्हारी भाभी को बच्चों समेत महीना भर पहले ही पीहर छोड़ आया हूं... वरना मेरे बच्चों के संग ये नन्हीं जान भी लुक-छुप के रह जाती, मुझे तो ईश्वर के घर से पुण्य मिलता... लेकिन मैं क्या करूं अब... अकेले यहां बैठे-बैठे, एक-एक घड़ी राम का नाम लेकर बिता रहा हूं.... इस बच्चे को अकेले कैसे संभाल सकूंगा...''
''रमा भाई, बड़ी उम्मीद लेकर तुम्हारे दर पर आया था... मेरी तो जान हलक में फंसी है, कहां ले जाऊं, किधर छुपाऊं इस बच्चे को मैं... महमूद को क्या मुंह दिखाऊंगा, खुदा ना करे इसे कुछ हो गया तो... मैं तो जीते-जी मर जाऊंगा... कोई नामलेवा भी ना रह जायेगा शास्त्री भाई... यही एक अमानत बची है हमारे घर-खानदान की... ख़ुदा रहम करे इस मासूम पर...''
''ज़हरूल भइय्या भगवान सबका भला करे... मैं विवश हूं, और इस समय तो ख़ुद ही भगवान-भरोसे जी रहा हूं... मैं क्या कहूं, ना कहना पड़ रहा इस अभागे वक़्त पर... प्रभु वापस शान्ति बहाल कर दे... मुझे माफ़ कर दो ज़हरूल भइय्या...''
ज़हरूल आगे कुछ ना बोला, मायूस होकर बाहर आ गया। उसने अपना चेहरा, बच्चे वाली तौलिया से दोबारा ढंक लिया। वो अपने घर लुकता-छिपता लौट रहा था, तभी उसे सिद्दीकी साहब के माली वसीम का ख़्याल हो आया। जब कोई बड़ी आफ़त इन्सान के सिर पर गिद्ध की तरह मंडराने लगती है, तो उसे हर नज़दीक और दूर-दराज़ के 'अपने' या 'अपने' जैसे दिखने वाले फ़ौरन याद आने लगते हैं, ये दीगर मसला है कि उन याद आने वालों में दरअसल, 'अपने' होते कितने हैं। ज़हरूल को भी ऐसे आड़े वक़्त पर वसीम याद आ गया।
ज़हरूल ने याद किया, ज़ोहरा ने वसीम की घरवाली के कुछ कपड़े भी सिले थे। और बात-व्यवहार से भी वो आदमी भला जान पड़ता था। उसकी रेहाइश भी सिद्दीकी साहब की हवेली के अन्दर थी, इसलिये वो इन दंगे-फ़सादों से भी महफूज था। शायद इस कठिन घड़ी में उससे कुछ मदद मिल जाती... इसी ख़्याल के साथ, वो अपने घर वाली गली से थोड़ा आगे निकल गया, जहां से सिद्दीकी साहब की हवेली शुरू होती थी। वो हवेली के पिछले फाटक से ही अन्दर जाना चाहता था, क्योंकि ज़हरूल इस ख़बर से भी अन्जान नहीं था, कि पुलिस-वालों का ऐसे टेढ़े वक़्त पर सिद्दीकी साहब के घर आना-जाना खूब होता है... भले वे यहां सिद्दीक़ी साहब को मौजूदा शहर के हालात से वाकिफ़ कराने ही जाते हों... वैसे भी सिद्दीकी साहब जैसे रसूख वालों की हिफ़ाज़त करना ही तो उन सरकारी मुलाज़िमों का पहला फ़र्ज़ बनता है। भले ही वे तनख्वाह और सुविधायें सरकार से लेते हों, लेकिन चाकरी तो इन जैसे सिद्दीकी साहबों की ही बजाते हैं।
इन्हीं खयालों को लिये, उसने अपनी नन्हीं जान को कलेजे से लगाकर, फ़ड़फ़ड़ाते हुए परिंदे की तरह सिद्दीकी साहब की हवेली की ओर रुख़ किया। लेकिन ज़हरूल को हवेली पहुंचकर फ़िर से मायूसी ही मिली, पता चला कि वसीम अपनी घरवाली के साथ हज पर गया है। वीज़ा देर से मिला, इसलिये वो अपने जानने वालों को ख़बर ना दे सका था। वैसे भी उसकी रुख़सती से पहले ही फ़साद का आगाज़ हो चुका था। इस नाते भी वसीम ने ख़ामोशी से कुछ वक़्त के लिये शहर से दूर रहना बेहतर समझा और मक्का की ओर रवाना हो गया। ज़हरूल की एक और आख़िरी उम्मीद भी गर्त में चली गयी।
*
ज़हरूल अपने नन्हें-से नवासे को संभाले, बहोत थके हुये मायूस क़दमों और मरी हुई हसरतों के साथ घर लौट आया। अगर इस मुश्किल घड़ी में ज़हरूल के दिल में कुछ भी जीता था, तो वो केवल इस बच्चे की सांसों के साथ ही जी रहा था। उसने घर के भीतर क़दम रखा, तो ज़ोहरा बेसब्र हुयी उसका इन्तज़ार करती मिली,
''आ गये तुम, भला हुआ। ये बदज़ात पुलिसवाले तुम्हारे जाते ही धमक पड़े थे। सच मानो ये बेहद गलीच लोग हैं...''
वो बच्चा जो अब तक जहरूल की कांख में दुबका था, ज़ोहरा को देखकर फ़िर मचलने लगा, और ज़हरूल की जकड़ से निकलने के लिये हाथ-पांव मारने लगा। ज़ोहरा उसे प्यार से गोद में लेते हुये बोली, ''आजा मेरा लाल, मेरा लाडला... सुनो क्या पुजारी ने नहीं रखा इसे... लेकिन क्यूं...''
''पुजारी ने अपने पूरे परिवार को मारे डर के, अपनी ससुराल भेज दिया है... अकेला पड़ा है मन्दिर में... कैसे रख सकता था इसे, मुझे तो लगता है, उसकी तो ख़ुद ही जान पर बनी हुयी है... इसीलिये मैं वापस आ गया... मुझे बड़ी फ़िक्र हो रही है...''
इतने में ही बाहर कहीं गोलियों की आवाज़ें फ़िर आने लगीं। चीखना-चिल्लाना भी हल्का-फुल्का हो रहा था। लगता था कि जैसे कोई संदिग्ध पुलिसवालों की नज़र में फ़िर से आ गया है, जिसे देखते ही पुलिसवालों की फ़ायरिंग फ़िर रवां हो चली।
''या ख़ुदा, ये क्या हो रहा है... इस शहर के सुकून को किसकी नज़र लग गई... या अल्लाह अब तेरा ही सहारा है... कुछ तो रहमतें बरसा, या मेरे मौला...''
ज़ोहरा ये सब सुनकर बस अपने ख़ुदा को ही ज़ोर-ज़ोर से पुकारने लगी। दोनों मियां-बीवी पहले से ही इतने खौफ़ज़दा थे, गोलियों की तड़ातड़ आती आवाज़ों ने उन्हें और परेशान कर दिया। वे इतने बदहवास थे, कि ना ज़हरूल, सिद्दीक़ी साहब की हवेली और वसीम के हज का बता सका, और ना उसकी बीवी ज़ोहरा पुलिसवालों की बदसलूक़ियां और बेहूदगियां ही ज़हरूल के सामने गिना सकी। अपने-अपने दु:खों-तक़लीफों से अलहदा, दोनों को बस एक यही चिन्ता खाये जा रही थी, कि किसी तरह घर के इस इकलौते चिराग को बचा लें, जिसे क्या पता कभी भी पुलिसवाले आकर उनसे छीन ही लें और ना जाने उस नादान के साथ क्या बदसलूकी करें, उन्हें महमूद की भी बेइन्तिहां फ़िक्र थी, लेकिन अपने नवासे के बाद ही थी। स्वाभाविक ही है, जो तक़लीफ़ अपने सामने होती है इन्सान सबसे पहले उसीका इलाज करता है। पका हुआ फोड़ा हकीम को दिखाने जाया जाता है, उसकी मरहम-पट्टी भी हक़ीम फ़ौरन करता है, लेकिन पुराने सिर-दर्द के बारे में हमेशा बाद में विचार किया जाता है। उसका कालान्तर में ही उपचार भी होता है।
ज़हरूल की बीवी घबड़ाई हुयी बोली,
''मेरी बात मानो, तो चलो, हम लोग भी चलते हैं। इशरत के घर ही चले चलते हैं। देखो, मुंगेराबाद यहां से दूर भी नहीं है, मुझे याद है, महमूद की मंगनी कराने मैं ही तो गयी थी... दरिया पार करते ही गांव है इशरत का... शहर की इस नामुराद बर्बादी से महफ़ूज़ भी ज़रूर है... वहां कम के कम हमारे नवासे की जान तो बच ही जायेगी। हम इसे वहां छोड़के लौट आयेंगे, और अगर तुम कहो तो हम भी वही रह जायेंगे। बूढ्ढा-बुढ्ढी कहीं कोने में पड़े रहेंगे। हमसे किसी को कोई दिक्कत पेश नहीं आने वाली। चलो, ज़हरूल मियां, निकल चलते हैं...''
''अरे ऐसे कैसे निकल चलते हैं... बाहेर तबाही मची है... मैं किस तरह इसको बचा कर ख़ुद लुकता-छिपता घर की दहलीज़ तक आ सका हूं, ये मेरा ख़ुदा ही जानता है... मन्दिर की चार सीढ़ी चढऩे में मुझे आज ही क़यामत नज़र आ गई थी... वो तो करम हुआ अल्लाह का, कि रमाकांत से मिलकर भी सही-सलामत लौट सका हूं... अभी बाहेर जाना मुनासिब नहीं ज़ोहरा, हालात बहोत नाजुक हैं.... हर तरफ़ पुलिस अपनी बड़ी-बड़ी टोली लिये हर तरफ़ नाच रही है... मेरी बात को समझो, ये वक़्त बाहेर निकलने का नहीं...''
''ठीक है अभी नहीं जाते... जब दंगा ख़त्म हो जायेगा, पुरसुक़ुन माहौल बन जायेगा, महमूद लौट के आ जायेगा, क्या तब जायेंगे वहां... क्या पत्थर पड़ गये हैं तुम्हारी अक़्ल पर...'' ज़ोहरा के तेवर तेज़ हो गये।
ज़हरूल ने उसे लाख समझाने की कोशिशें कीं, लेकिन कोई बात उसे समझ ना आयी।  उसने तो जैसे ज़िद बांध ली थी इस दर को छोड़ देने की। उसने ज़हरूल को पुलिसवालों की नीच कारस्तानियां भी बताई। ज़हरूल सब सुनता रहा। ज़हरूल इसी लम्हे अपनी बीवी का दामन छूने वालों को मौत की नींद सुला देना चाहता था, लेकिन मौक़े की नज़ाक़त जान-समझकर, अपने नन्हें मासूम नवासे को देखकर और महमूद की गैरमौजूदगी के चलते अपने खून के उबाल को थामे रहा।
आख़िरकार दोनों मियां-बीवी में ये तय हुआ कि रात के अंदेरे में वो दोनों अपने नवासे को उसकी मां के पास ले जायेंगे। अगर तो इशरत के घरवालों को कोई भी तक़लीफ़-शुबहा-अड़चन महसूस नहीं हुई और उसके घर-गांव में रहने की सूरत बन गयी तब तो वहीं ठहर जायेंगे, वरना तो अपने इस वीरान घर में वापस आ जायेंगे। दोनों चुपचाप दम साधे, रात ढलने का इन्तज़ार करने लगे। अल्लाह की मेहरबानी रही, कि इस रात के इन्तज़ार के कठिन दौर में कोई यमदूत जैसा पुलिस-वाला बीच में नहीं आ टपका।
शाम हो ही गयी थी, इतनी देर में ज़ोहरा ने, घर में बचे हुये अनाज-मसाले को मिलाजुला कर खाने की कुछ चीज़ें बना लीं, जिससे समधी के घर खाली हाथ ना पहुंचे। ज़हरूल भी अपने कामकाज की चीज़ें, और बच्चे के कपड़े-लत्ते, समेटता-बहोरता रहा, और एक थैले में भरता रहा।
रात की कालिमा गहरी होने लगी तो ज़हरूल, बच्चे और सामान के एक थैले सहित ज़ोहरा को गली के पीछे खड़ा करके, अन्दर आ गया। उसने काला कम्बल लपेटकर घर के सामने वाला दरवाज़ा बन्द किया और उस पर ताला लटका दिया। सिमटता-सिकुड़ता वो भी, सारे पुलिस-सिपाही-अफ़सर-चौकीदार से बचता हुआ, पीछे ज़ोहरा के पास आ गया। दोनों ने काले कम्बल के साये में ख़ुद को लपेटकर, धीरे-धीरे नदी के तट की ओर बढऩा शुरू किया, दोनों ने चलने से पहले रत्ती-सी अफ़ीम दूध में घोलकर बच्चे को पिला दी थी, ताकि वो गहरी नींद में सो जाये, और उसके हंसने-रोने का सिलसिला ना रह जाये और उसकी आवाज़ किसी को किसी भी हाल में सुनाई ही ना दे।
दोनों मियां-बीवी चोरी-छुपे, डरते-सहमते नदी के किनारे तक पहुंच गये, जहां से आमतौर पर लोग नदी पार जाया करते थे। उन्हें वहां नाव वाले को उस पार जाने के लिये तैयार भी करना था। ख़ैर, दोनों ने अभी चैन की सांस पूरी ली भी नहीं थी कि उन्होंने देखा तीन पुलिस के सिपाही अंधेरे में बैठकर बीड़ी-सिगरेट में लगे हुये हैं। वो यहां अंधेरे में बैठकर दारू भी चढ़ाये थे। भला पूरे-पूरे दिन इस मुर्दा कस्बे की गश्त भी कोई कम ज़हमत का काम था। मिलना-मिलाना दमड़ी नहीं लेकिन चौकसी दिन-रात की। जब तक सत्तर-पचास कुनबे बाक़ी थे शहर में, तब तक, कुछ नहीं तो इधर-उधर से बदन-सेंक की व्यवस्था तो हो ही जाती थी, लेकिन सारे के सारे भाग गये एक-एक करके। अब जो राई-रत्ती बचे हैं, सारे के सारे अच्छी तरह निचोड़े जा चुके हैं, अब उनसे कोई अला-भला नहीं होने वाला। इन हालात में, भले 'फ्रस्ट्रेशन' तो हो ही जायेगा। चलो ड्यूटी से दो घड़ी जान छुड़ाकर कुछ हंस-बोल लेना भी तो जरूरी है, ना। इन्सानियत नाम की भी एक चिडिय़ा होती तो है और इन्सानी ज़रूरत भी किसी शय का नाम होता है।
ज़हरूल और ज़ोहरा वहां उन लोगों को देखकर ठिठक गये, और पेड़ के मोटे तने के परे छुप गये, तीनों पुलिस वाले बैठे चुहल कर रहे थे। इधर-उधर की वाहियात बातें कर रहे थे, और गन्दे-गन्दे चुटकले सुनाकर एक दूसरे का खूब मनोरंजन भी कर रहे थे। ज़हरूल ने उन्हें अपनी मस्ती में मशगूल देखा तो ख़ामोशी से, वहीं बंधी नाव से ख़ुद ही नदी पार करने का तय कर लिया और वो नाव का रस्सा धीरे-धीरे खोलने की कोशिशों में लग गया। उसने काफ़ी मशक्कत के बाद थोड़ा-सा रस्सा खोला ही था, कि वहां पड़े सूखे पत्ते उसकी हरक़तों की वजह से खडख़ड़ाने लगे। वो रुक गया। दोबारा उसने और आहिस्ता से खोलना चालू किया, लेकिन पत्ते फिर भी आवाज़ करने लगे। ऐसा कई बार होने पर, उन्हें बाधा जैसी महसूस हुई और उनमें से एक सिपाही इन आवाज़ों की हक़ीक़त जानने चुपचाप उठकर आया और उसने दोनों को साफ़-साफ़ देख लिया, वो फ़ौरन ही दहाड़ उठा, ''क्या हो रहा है यहां... कमीनों चैन से दो घड़ी सुस्ताने मत देना हमें...''
इतना कहते-कहते उसने ज़हरूल को ज़ोरदार धक्का दिया, और ज़हरूल छटक के दूर जा गिरा। उसका बूढ़ा जिस्म अच्छी-ख़ासी चोट खा गया। ज़हरूल की चीख सुनकर बाकी के दो सिपाही भी वहीं आ धमके और ज़ोहरा से जबर्दस्ती करने लगे। उन्होंने जोहरा के हाथ से उसका थैला लेकर नदी की धार में फेंक दिया। वहां होने वाली घटनाओं से शोर बढऩे लगा। ज़हरूल कोहनी, टांगों और पीठ में लगी चोटों के दर्द के चलते चीख-पुकार मचाये था, और ज़ोहरा के हाथ से वो लोग उसकी सीने से लगाई हुयी गठरी छीन रहे थे, वो अलग ज़ोरों से चिल्ला रही थी।
''साहब क्या कर रहे हैं, हमारा सामान है, छोडिय़े इसे... हम कोई बदमाश लोग नहीं हैं, जाने दीजे हमें... वो बूढ़ा शौहर है मेरा... हम लोगों को आपके कामकाज से कोई लेना-देना नहीं... जाने दीजे हमें, रहम कीजिये हम पर...'' ज़ोहरा बड़बड़ाये जा रही थी और पूरा ज़ोर लगाकर बच्चे को ढीली होती अपनी पकड़ से बचाने में लगी हुई थी।
पुलिस के सिपाही थे कि कुछ सुनने को तैयार ही नहीं थे, उनके आराम के पलों में खलिश पडऩे की वजह से वे बहोत भड़के हुये थे। उन्हें पूरा होश था ही नहीं कि वे कर क्या रहे हैं। दारू में धुत्त, अभद्र गालियों की बरसात के साथ बुढिय़ा के हाथ से वो गठरी छीने ले रहे थे, जिसमें उसने अपना लाड़ला बच्चा छुपा रहा था। ''क्या छुपा के लिये जा रही है हरामज़ादी। इधर ला... शहर में आग लगी हुई है, और ये दोनों मालमत्ता लिये फ़रार होने की तैयारी में निकले हैं... मनहूस कहीं के... दिखा क्या छुपाये है इस गठरी में... क्या लेकर जा रहे थे कमीनों, नदी के पार... ला इधर दे...''
कहते-सुनते आख़िरकार बुढिय़ा की हिम्मत जवाब दे गयी और उन्होंने उसकी गठरी उसके हाथ से छीनकर सीधा नदी में फेंक दी। ज़हरूल ने सारी चोट और दर्द भूलकर, जल्दी से अपनी सारी ताकत बटोर ली और वो बदहवास हुआ, तत्काल नदी में कूद पड़ा।
उसने इधर-उधर बुरी तरह से बेचैन होकर हाथ-पांव मारने शुरू कर दिये। उसकी बूढ़ी आंखें, उसका बेचैन दिल-जिगर और उसका बेबस हुआ जिस्म हर सम्भव कोशिश के बाद भी उसके नवासे को नहीं खोज पा रहे थे। बच्चा वैसे ही अफ़ीम की मन्द बेहोशी में था, उसकी ओर से भी कोई रोना-चिल्लाना कुछ हुआ नहीं, वो नदी के तेज़ बहाव में ना जाने कहां गुम हो गया।
ज़हरूल बहोत देर तक नदी की ठंडी लहरों से उलझता रहा, नदी के प्रवाह से जूझता रहा, अपनी बदकिस्मती से पूरे वेग और ताकत से लड़ता रहा, आखिरकार बेदम होकर किनारे आकर गिर पड़ा। ज़ोहरा अलग रो रो के तूफ़ान मचाये थी, कभी अल्लाह को, कभी पुलिसवालों की बेरहमियों को, कभी महमूद की ग़ैरमौजूदगी को, तो कभी इशरत की बीमारी को, कभी ख़ुद अपने आप को, दिल भर के कोसती रही, गरियाती रही, चीखती-पुकारती रही। उसका रोना भी पूरे रौ में बहोत देर तक नदी किनारे गूंजता रहा। आखिरकार सुबकते-तड़पते वो भी बेदम हो गयी।
पुलिस वालों का तो कुछ नहीं बिगडऩा था, उनका रत्ती भर कुछ ना गया, उनका कुछ भी नुकसान नहीं हुआ। वे अपने काम में दोबारा जा रमे।
ये दोनों लुटे-पिटे, नाक़ाम, मायूस ज़हरूल और ज़ोहरा, वहीं नदी की लहरों का बदनसीब शोर सुनते रहे।





तेजी से प्रकाशित और अपनी जगह बनाती भूमिका दिल्ली में रहती हैं। 'पहल' में पहली बार प्रकाशित।

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