अच्छी कविता पर सजा भी मिल सकती है..

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    मार्च : 2015
श्रेणी किताब
संस्करण मार्च : 2015
लेखक का नाम गजेन्द्र पाठक





सुनो चारुशीला




नरेश सक्सेना के पिछले साल प्रकाशित उनके दूसरे काव्य-संग्रह 'सुनो चारुशीला' की आख़िरी कविता 'परसाई जी की बात' में अपने समय के एक सुविधाजनक रास्ते का जिक्र हुआ है। काव्य-प्रयोजन पर अपने देश में बहुत विचार हुआ है। सोचने की जरूरत है कि संस्कृत काव्यशास्त्र में जब इन प्रयोजनों की चर्चा हो रही थी तब हिंदी के भक्त कवि इन प्रयोजनों की बहस को अपनी तरह से देखने की कोशिश क्यों कर रहे थे? जायसी यदि अपनी तारीफ़ के प्यार के दो बोल सुनने की कामना करते थे तो तुलसीदास अपने को कविता के संसार के बाहर का नागरिक बताकर चुपचाप स्वान्त: सुखाय तक सीमित कर लेना चाहते थे। यह भी विचार का विषय है कि भक्तिकाल के बाद कविता के संसार में सिर्फ काव्य-प्रयोजन ही नहीं बदले बल्कि कवि और कविता के संसार में एक बहुत बड़े कायापलट की शुरूआत हुई। साहित्य और जीवन के बीज जिस व्यावहारिक रिश्ते की तलाश आचार्य शुक्ल भारतेंदु युग में कर रहे थे उस व्यावहारिकता का एक पक्ष रीतिकाल में भी पा सकते हैं। भक्तिकाल ने कविता में दरबारी संस्कृति को जिस तरह से स्थगित किया था उसे रीति कवियों ने पुन: स्थापित किया। यह उनकी 'व्यावहारिक दृष्टि' थी। आश्चर्य की बात यह है कि आज की हिंदी कविता में ऐसे 'व्यवहारिक' कवियों की संख्या बढ़ी है। हर छोटे-बड़े पुरस्कार को अपनी जीवनवृत्त में जोडऩे और जडऩे के लिए बेताब कवि-संसार के लिए नरेश जी की इस कविता में मुझे एक मूल्यवान सुझाव दिखाई पड़ता है। आप याद करें कि स्वाधीनता आन्दोलन के दौर में ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा अन्य भारतीय भाषाओं के साथ-साथ हिंदी की सैकड़ों किताबों को प्रतिबंधित किया गया। एम. जेराल्ड बैरीयर ने अपनी किताब 'बैण्ड कंट्रोवर्सियल लिटरेचर एंड पोलिटिकल कंट्रोल इन ब्रिटिश इंडिया' (1976) में सिर्फ हिंदी की किताबों की संख्या 1700 के करीब बताई है। इसमें से कुछ किताबें जब प्रकाशित होकर सामने आ रही हैं तब यह बात समझ में आ रही है कि इतनी महत्वपूर्ण रचनाशीलता की उपेक्षा करके आधुनिक हिंदी साहित्य का जो इतिहास लिखा गया है वह कितना अधूरा है। भारतेंदु युग से लेकर प्रगतिशील आन्दोलन तक इतनी बड़ी संख्या में जिन किताबों को प्रतिबंधित किया गया उन किताबों पर प्रतिबन्ध के आधारों पर विचार करें तो बात स्पष्ट हो जाएगी। इन किताबों की सूची तैयार करें तो पता चलेगा कि बड़ी रचनाएँ ईनाम के लिए नहीं, सजा पाने की ही ज्यादा ह$कदार होती हैं। इस सन्दर्भ में मैनेजर पाण्डेय का यह कहना ठीक लगता है कि इन लेखकों को दोहरा दंड मिला। पहले तो ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित किया और  बाद में हिंदी साहित्य के आलोचकों और इतिहासकारों ने इन पर विचार नहीं किया।
आज हिंदी में न कवियों की कमी है और न कविताओं की। परिस्थितियाँ कितनी जटिल हुई हैं और कितनी संगीन इसके बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है। इसके बावजूद यह कितना दिलचस्प है कि हमारी इतनी बड़ी भाषा के हर कवि को कोई न कोई ईनाम तो जरूर मिल जाता है लेकिन कभी कोई सजा नहीं मिलती? अभी हैदराबाद में केदार जी का सम्मान हुआ। इस सम्मान समारोह में वे कह रहे थे कि पुरस्कार गुणवत्ता के प्रमाण नहीं हो सकते। आलोचना भी एक सीमा तक ही किसी कविता के पक्ष में खड़ी हो सकती है। अंतत: लोक ही यह तय करता है कि कौन कबीर बनेगा, कौन जायसी या फिर कौन तुलसीदास बनेगा?
नरेश जी की कविता में यह चिंता स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है कि साहित्य का संसार हाल के दिनों में थोड़ा संकुचित हुआ है। इस संकुचन की परिधि मित्र- संवाद या शत्रु-संवाद तक सीमित रह गई है, जिसमें या तो मुस्कुराहट भरी शातिर खामोशी है या फिर वाह-वाह -
''आज जब सुन रहा हूँ, वाह-वाह
मित्र लोग लेते हैं हाथों हाथ
सजा जैसी कोई सख्त बात तक नहीं कहता
तो शक होने लगता है,
परसाई जी की बात पर, नहीं-
अपनी कविताओं पर।''
अपनी कविताओं पर बहुत ज्यादा भरोसा करने वाले और भरोसे के पास जाकर लगभग आत्ममुग्ध रहने वाले कवियों पर नरेश जी की यह टिप्पणी हिंदी कविता की प्रतिरोधी चेतना पर भी एक प्रश्नवाचक चिन्ह है। ऐसा चिन्ह जिसे चीन्हने वाले हिंदी में धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं।
नरेश जी की इस किताब के फ्लैप पर जो पहला वाक्य लिखा है वह उनके वैशिष्ट्य का एक दूसरा उदाहरण है। 'कम लिखने के बावजूद ज्यादा पढ़े जाने वाले कवि'। नरेश जी को जब कविता के लिए पहल सम्मान मिला था तब उनके पास कविता की कोई किताब नहीं थी। मुक्तिबोध के निधन के समय भी उनके पास कविता की कोई किताब नहीं थी। ये हिंदी के विरल संयोग हैं। हालांकि, किसी रचनाकार के सन्दर्भ में किताब और किताब की संख्या को उनके महत्व का कोई प्रतिमान नहीं बनाया जा सकता। इसके बावजूद मशहूर पाश्चात्य काव्य-चिन्तक होरेस से लेकर माओ तक की वह बात भी तो नहीं भुलाई जा सकती कि कम लिखना और उससे भी कम प्रकाशित कराना एक कवि या लेखक के लिए आत्मानुशासन है। माओ ने स्पष्ट किया था कि हम जो कुछ भी लिखते या बोलते हैं उससे एक जनमत निर्मित होता है। जनमत-निर्माण की यह प्रक्रिया सिर्फ राजनीति तक सीमित नहीं होती बल्कि इसमें साहित्य की भी गहरी भूमिका होती है। लेनिन भी इस बात को मानते थे और माओ भी। दुनिया के दो बड़े जनवादी राजनीतिक आन्दोलन के इन दो अग्रदूतों ने साहित्य के प्रति जो विश्वास और आस्था अर्जित करने की संस्कृति विकसित की थी उसे आज के लेखक या कवि कितना याद रखते हैं यह भी विचार का विषय है। राष्ट्रीय या सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में एक कवि को अपनी जिम्मेदारी का बोध सिर्फ स्वान्त: सुखाय तक सीमित नहीं रहने दे सकता।
टेरी इग्लटन ने अपनी मशहूर पुस्तक 'why marx was right' में लिखा है कि, 'माक्र्स का आदर्श अवकाश (leisure) था, श्रम नहीं।' यह अलग से बताने की जरूरत है कि जिसे हम लोक संस्कृति कहते हैं उस लोक की मूलभूत संस्कृति श्रम केन्द्रित है। श्रम के बगैर पेट नहीं चल सकता। कबीर की उस मशहूर कविता को याद करें जिसमें उनकी माँ उनके काव्य संसार में प्रवेश कर दुखी हैं-
''तनना बुनना तज्या कबीर
राम नाम लिख लिया शरीर
मुसि मुसि रोवें कबीर के माई
रे बालक कैसे जियहिं खुदाई।''
तनने-सुनने से पेट चलेगा, कविता लिखने से नहीं। लेकिन, तनने-बुनने के आगे-पीछे जो कविता लिखी गई इसी से कबीर पैदा होते हैं। दुनिया की सारी कलाएँ श्रम के पहले या बाद में निर्मित हुई हैं, होती हैं। श्रम के आगे पीछे का यही अवकाश माक्र्स का आदर्श है। इसी अवकाश का स्वप्न लेकर लेनिन, ताल्स्तॉय की जरुरत को एक नए सिरे से व्याख्यायित कर रहे थे और इसी अवकाश को ध्यान में रखते हुए माओ सांस्कृतिक आन्दोलन को आवश्यक मान रहे थे। नरेश जी की कविताओं में इस अवकाश को सिर्फ एक अवसर के रूप में नहीं बल्कि एक बड़ी जिम्मेदारी के रूप में देखे जाने की कोशिश दिखाई पड़ती है-
''कल तुम्हें सुनसान अच्छा लग रहा था
आज भीड़ें भा रही हैं
तुम वही मन हो कि कोई दूसरे हो।''
दुनिया की सारी कलाएं शारीरिक और मानसिक श्रम का मणिकांचन संयोग है। श्रम करते हुए या श्रम के बाद विश्राम की प्रक्रिया में लोकगीतों की रचना प्रक्रिया पर विचार करें तो टेरी इग्लटन की बात और स्पष्ट होगी। जो लोग मानसिक श्रम को श्रेयस्कर और शारीरिक श्रम को गर्हित दृष्टि से देखते थे वे ही कलावाद के प्रवक्ता बने। कलावाद के विभिन्न अवतारों ने कलाओं को आकाशीय या दैवीय कृपा मानकर दरअसल मनुष्य के श्रम से दूर करने का लम्बा षड्यंत्र रचा है। कलाओं का स्वराज निर्मित करने वाले नहीं जानते कि -
''मिट्टी के इतिहास में मिट्टी के खिलौने हैं
खिलौनों के इतिहास मे हैं बच्चे
और बच्चों के इतिहास में बहुत से स्वप्न हैं
जिन्हें अभी पूरी तरह समझा जाना शेष है
नौ बरस की टिकू तक जानती है ये बात
कि मिट्टी के फूल पैदा होते हैं
फूलों से शहद पैदा होता है
और शहद से पैदा होती है बाकी कायनात
मिट्टी से मिट्टी पैदा नहीं होती।''
नरेश सक्सेना के काव्य संसार में कलावाद का प्रत्याख्यान परोक्ष रूप से उनकी कविताओं में एक अंतर्धारा के रूप में मौजूद है। संभव है ऊपर से वे कविताएं अपनी सरल काया में कुछ और बता रही हों लेकिन उनके भीतर मौजूद चिनगारी कलावाद के खोखले किले को जलाने के लिए पर्याप्त है। यह भी दिलचस्प है कि रचने वाले और हिसाब करने वाले एक नहीं होते। जैसे कलाकार और उनकी कलाओं का व्यापार करने वाले दो तरह के लोग होते हैं -
''कितने फूलों से बनती है क्यारी
कितनी क्यारियों से एक बगीचा
और कितने बगीचों से बनती है
एक शीशी इत्र की
यह बताएँगे फूलों के व्यापारी
फूल नहीं बताएँगें।''

2

नरेश सक्सेना के काव्य संसार से गुजरते हुए एक बात जो हमें लगभग आश्वस्त करती है कि वहाँ अपने समय के प्रति एक गंभीर जिम्मेदारी का भाव है। शायद यह बात भी उन्होंने परसाई जी से सीखी हो कि जो अपने समय के प्रति ईमानदार नहीं होगा उससे शाश्वत और अनंत के प्रति ईमानदारी की उम्मीद नहीं की जा सकती। समय नरेश जी के यहाँ एक ठोस वास्तविकता है लेकिन ठस नहीं। समय की द्वद्वंात्मकता अपनी पूरी तासीर में उनकी 'घडिय़ाँ' शीर्षक कविता में देखी जा सकती है। सबके समय एक जैसे नहीं हो सकते और जैसे सबके दिन एक साथ नहीं फिरते, उसी तरह सबके समय भी एक तरह नहीं चलते। घडिय़ों की सुइयां समय के चलने का सबसे कमजोर प्रमाण हैं क्योंकि कवि का मानना है कि जो घडिय़ां गणित में इतनी कमजोर हों कि बारह से आगे की गिनती तक नहीं जानतीं वे वक्त के बारे में क्या बताएँगी? यही नहीं-
''गरीब कलाइयों वाली घडिय़ाँ
लखनऊ से दिल्ली जाने का वक्त दस घंटे बताती हैं
जबकि अमीर कलाइयों वाली बताती हैं
महज पैंतालिस मिनट की उड़ान।''
इस कविता में घडिय़ों के खिलाफ जो एक अभियान है वह अभियान वक्त की पाबन्दी के विरोध में नहीं है बल्कि घडिय़ों में समय के चलने का जो एक छद्म अहसास है, उसकी विडम्बना को समझने का एक प्रयास है। कवि को पता है कि घडिय़ाँ सिर्फ दुकानों में नहीं बिकतीं और न ही वे दीवार या कलाइयों की शोभा बढ़ाती हैं बल्कि ये घड़ी होने का भ्रम पैदा करने वाली घडिय़ाँ हैं क्योंकि इनकी घुंडी घुमाकर इनके वक्त को आगे-पीछे किया जा सकता है। घड़ी से ज्यादा महत्वपूर्ण वे लोग हैं जिनके हाथों में इन घडिय़ों की घुंडी है-
''फ़ौरन पता करिए
कि आपकी घुंडी किसके हाथों में है
कविताओं में वक्त बर्बाद मत करिए
मेरी शक्ल क्या देख रहे हैं
अपनी घड़ी देखिये जनाब।''
लेकिन घड़ी और शक्ल की इस द्वंद्वात्मकता में आप विचार करें कि कवि घड़ी से ज्यादा शक्लों को भरोसेमंद प्रमाण मानता है-
''देखिए अपने देश के पचपन करोड़ कुपोषित बच्चों को
उनके चेहरे बता रहे हैं उनका वक्त
उनके चेहरों की झुर्रिया घड़ी है
उनकी बुझी हुई आँखें घड़ी हैं
उनके धँसे हुए पेट घड़ी हैं
उनकी उभरी हुई हड्डियां घड़ी हैं।''
ज़ाहिर है ये घडिय़ां रोलेक्स या टाइटन नहीं बनातीं बल्कि ये हमारी 'सभ्यता' और 'मनुष्यता' की प्रयोगशाला में निर्मित होती हैं और हमारी सभ्यता और मनुष्यता की परिभाषा पर टिक-टिक बजते हुए अनवरत सवाल पूछती हैं।
जो पूरे इतिहास में चलने का भ्रम रखते हैं और पूरे समय को समझने की जिद करते हैं उनसे भी यह कविता एक सवाल पूछती है-
''अपनी घड़ी देखिए जनाब
जितनी देर मुझे यह बात कहने में लगी
उतने में तीन सौ हत्याएं हो गईं, छह सौ बलात्कार
और बारह सौ अपहरण
इस बीच भुखमरी से मर गए चौबीस सौ लोग
और घडिय़ों के चेहरे पर शिकन तक नहीं।''
बीसवीं सदी में विज्ञान ने धरती को अन्तरिक्ष के करीब लाने का एक बहुत बड़ा प्रयास हुआ था। इक्कीसवीं सदी मंगल पर बसने की तैयारी कर रही है। धरती को अन्तरिक्ष का स्वप्न दिखाने वाला और अन्तरिक्ष से धरती को चमकदार तारे की तरह देखने वाला विज्ञान क्या इस बात की भी जिम्मेवारी लेगा कि इस धरती पर विज्ञान ने जो कुछ अच्छा किया है वह अपनी जगह लेकिन उसी ने परमाणु हथियारों का जो एक बहुत महंगा और खतरनाक जखीरा तैयार किया है, उसका क्या होगा? टेरी इग्लटन की तरह हमारे कितने आलोचक यह सवाल उठाने का जोखिम उठाते हैं कि जो चीज़ बनी है उसका अंतत: इस्तेमाल होता है यह जानते हुए भी क्यों नहीं पूछते कि इन परमाणु हथियारों का प्रयोग धरती पर कब होगा? एक नागासाकी और हिरोशिमा का ज़ख्म आज तक तारी है। अब तो मिनटों में पूरी धरती को नेस्तनाबूत कर देने का मसाला हमारे पास है। यह कब होगा? हम सब जानते हैं कि यह काम होना है। शायद पूँजीवाद अपने संकट के सबसे अंतिम दौर में यही काम करेगा। भष्मासुर के इस अवतार के लिए पूरी तैयारी हो चुकी है। इंतज़ार है एक अदद 'लाचारी' की। धरती की सुन्दरता देखने के लिए अंतरिक्ष पर जाने की तैयारी में मैंने सुना है कि सैकड़ों लोगों ने करोड़ों की कीमत से अपना आरक्षण करा रखा है। नरेश जी का विनम्र निवेदन है-
''पृथ्वी को चमकदार देखने के लिए
अंतरिक्ष में न जाना पड़े
यहीं रहकर दिखें उसकी रोशनियाँ
यहीं रहकर दिखे उसका अंधकार।''
अन्तरिक्ष से धरती की चमक देखने वालों से कवि का आग्रह है कि वे धरती पर अंधकार बढ़ाने वाले लोगों को देखें। यह भी देखें कि इस अंधकार के शिकार लोग किस तरह फटे बस्ते लिए हुए बिना ईमारत वाली स्कूलों में पढऩे जा रहे हैं। महज एक मुट्ठी भात रांधने लायक पानी और ईंधन की तलाश में स्त्रियां पहाड़ों और रेगिस्तानी की दुर्गम चढ़ाइयों और विस्तार को पार कर रही हैं। बाढ़ में डूबे हुए लोग सर पर गठरी और बच्चे संभाल कर नदियाँ पार करने की जुगत में लगे हुए हैं। अंतरिक्ष से ये दृश्य नहीं दिखाई पड़ेंगे। ये दृश्य तो हवाई जहाज से भी नहीं दीखते। हवाई यात्रायें यद्यपि बाढ़ के दिनों में खूब होती हैं लेकिन काश ऐसे दृश्य उन आँखों में ठहर पाते जिन आँखों में अब कैमरा देखकर भी पानी नहीं निकलता। जिन आँखों का पानी मर गया हो उन आँखों के लिए धरती की चमक देखने के लिए सबसे अच्छी जगह अंतरिक्ष ही हो सकती है। जबकि,
''यह भी दिखे की कुछ चेहरों पर जैसे-जैसे बढ़ रही है रोशनी
वैसे-वैसे बढ़ रहा है
बाकी बचे चेहरों पर अंधकार।''
भोजपुरी में एक कहावत है 'चिरई के जान जाए, लड़कन के खिलौना'। मरने वाले मर रहे हैं और कुछ लोग उन्हें देखकर अपना मनोरंजन कर रहे हैं। इस सन्दर्भ में लाल्टू की एक मशहूर कविता याद आ रही है-
''एक दिन हँसेंगे हम
पास पड़ी लाशों को देखकर
इस तरह मरेंगे हम''
पहाड़ों और रेगिस्तानों की यात्रा करने वाले सैलानी काश वहाँ रह रहे लोगों के अंधकार को भी देख पाते। अंडमान में जारवा जनजाति के लोगों के साथ पर्यटन के नाम पर जो कुछ हो रहा है उसे भी याद करिए और बाबा नागार्जुन की इस कविता के पास चलिए -
''लहलहाते हरियाली के समुद्र के बीच
गाँव
बस,
सुपरफास्ट ट्रेन की खिड़की से देखने की चीज है।''
देखने वालों की आँखों का उजाला और सहने वाले लोगों की आँखों का अंधकार- तय करना है दिलचस्पी किधर है। नरेश जी मुक्तिबोध की तरह उस 'पॉलिटिक्स' को समझते हैं और 'इस बारिश' शीर्षक कविता में स्पष्ट रूप में स्वीकार करते हैं कि जिसके पास, उनकी जमीन चली गयी उसी के पास अब बारिश के साथ सारी चीजें भी चली गईं। काली घटाएँ, कोयल की कूक, धरती की सोंधी सुगंध, हल-बैल, हरी बूँद, आद्र्रा नक्षत्र, कजरी और मल्हार सब चले गए। इन सबका जाना दरअसल उस जमीन के जाने के साथ जुड़ा हुआ है, क्योंकि -
''जिसकी नहीं कोई जमीन
उसका नहीं कोई आसमान''
आश्चर्य है कि दुनिया के इतने बड़े-बड़े अंतरिक्ष वैज्ञानिक इतनी आसान बात को नहीं जानते। चिडिय़ा चाहे उड़े आकाश, दाना है धरती के पास...। कहने वाले तो यह भी कह रहे हैं कि सोवियत ढाँचे के ध्वस्त होने में एक बहुत बड़ा कारण उसका जरुरत से ज्यादा अंतरिक्ष-विज्ञान पर होने वाला खर्च था। सरकार चलाने वालों ने राशन की दुकानों पर बढ़ती हुई लम्बी कतारों की अनदेखी की और ग्रहों नक्षत्रों की ज्यादा चिंता की। पिछले साल खबर आई थी कि सोवियत संघ की इस गलती से संयुक्त राज्य अमेरिका भी सबक ले रहा है और 'नासा' की इमारत के एक बड़े हिस्से को किराये पर देने का निर्णय कर लिया है।

3

नरेश सक्सेना के काव्य संसार में प्रकृति का कोई न कोई व्यापक रूप बार-बार हमारे सामने आकर एक नया प्रश्न छोड़ जाता है। उनके पहले कविता संग्रह का ही नाम था - 'समुद्र पर हो रही है बारिश'। धरती और आकाश को जोडऩे में पानी की भूमिका को समझने के लिए ही यह कविता नहीं लिखी गई थी बल्कि इस कविता में समुद्र की वह पीड़ा थी जो नमक की बहुतायत से इतना ग़मगीन है कि प्यासों को मुंह दिखाने लायक भी नहीं समझता। धरती से तीन गुना होने की प्रतिक्रिया में उसे जो उछाल की सजा मिली थी वह कवि की चिंता का विषय था लेकिन, उससे भी बड़ी चिंता यह थी कि -
''नमक नहीं है स्वप्न में
मुझे पता है
मैं बचपन से उसकी एक चम्मच चीनी
की इच्छा के बारे में सोचता हूँ।''
'सुनो चारुशीला' में समुद्र की यह चिंता एक नए रूप में सामने आई है। एक कविता जिसका शीर्षक समुद्र की तरह ही बड़ा है। ('पहाड़ों के माथे पर बर्फ बनकर जमा हुआ, यह कौन से समुद्र का जल है जो पत्थर बनकर, पहाड़ों के साथ रहना चाहता है'। उसमें समुद्र के पत्थर प्रेम की चर्चा है। इस कविता को पढ़ते हुए एक तरफ कामायनी की याद आती है तो दूसरी तरफ केदारनाथ सिंह की 'सृष्टि पर पहरा' में शामिल मनु का वह बिम्ब जहाँ पहाड़ और समुद्र का विप्लव देखने वाले मनु खुद पत्थर की मूर्ति में तब्दील हो गए हैं। हिमाचल, आज जहाँ है वहाँ कभी एक लहराता हुआ समंदर था यह बात तो भूविज्ञानी भी बताते हैं। शायद यही कारण हो कि यही 'पुरातन प्रीति' समुद्र को पत्थर के पास बुलाती है-
''यह इलाका परतदार चट्टानों का है
जिन्हें समुद्र की लहरें बनाती हैं
पता नहीं किस उथल-पुथल और दबाव में
मुसीबत की मारी, यह चट्टानें
इस ऊँचाई पर पहुंची हैं
लेकिन समुद्र इन्हें भूला नहीं है।''
निश्चय ही पत्थर और पानी के सबसे बड़े समुच्चय का यह सम्बन्ध एक तरफा नहीं है। यदि समुद्र इन पत्थरों के लिए घनघोर गर्जना करते हुए इनके प्रति अपनी तड़प को नहीं छुपा पाता तो पत्थर हैं कि -
''हर पत्थर समुद्र की यात्रा पर है
जो गोल है, वह लम्बी दूरी तय करके आया है
जो चपटा या तिकोना है, वह नया सहयात्री है।''
आश्चर्य है कि जिन्हें हम पत्थर कहते हैं वह हमसे कितने मुलायम हैं-
''हम कितनी जल्दी भूल जाते हैं
अपने रिश्ते
पत्थर नहीं भूलते।''
नरेश जी के काव्य-संसार में पत्थरों के बाद या उससे अधिक ईंटों की चर्चा है। पत्थर प्रकृति की रचना है। ईंट मनुष्य की। मनुष्य स्वयं पत्थर बनने की प्रक्रिया में मिट्टी को ईंट में तब्दील करता है। ये ईंटें उसकी प्रगति का आईना है। इन्हीं ईंटों, लोहों और सीमेंट के बल पर उसने एक नई सभ्यता की रचना की है जिसमें अपने को कैद कर सुविधा संपन्न और सभ्य होने का भ्रम पलने लगा है। आश्चर्य नहीं कि उनकी कविताओं में ईंट, लोहे और सीमेंट बार-बार आते हैं। जिस प्रकार इस संग्रह की पहली कविता में मौसम भी हिन्दू और मुसलमान बन जाता है, वैसे ही ईंटें भी। लेकिन इससे भी जरूरी यह कि जो ईंट आग को सबसे खूबसूरती से जज़्ब करती है वही अव्वल कही जाती है। आग की रोशनी से दीप्त ये ईंटें हमें सिर्फ मोहनजोदड़ों और हड़प्पा का पता ही नहीं देतीं बल्कि वे हमारी समसामयिक सभ्यता का इतिहास भी रचेंगी-
''एक दिन सदियों से पुराने अंधकार से
बाहर निकल आएंगी
रोशन से भरी ईंटें
और बताऐंगी अपने समय की
घृणा और हिंसा और सहिष्णुता के बारे में
हम तो होंगे नहीं
पता नहीं पृथ्वी पर जीवन भी होगा या नहीं
शायद आणविक राख से सनी हुई
ईंटें ही कहेंगी कथा
और ईंटें ही सुनेंगी।''
टेरी इग्लटन की इसी दुश्चिंता की चर्चा हमने पहले की है। पत्थरों से हमने अपनी सभ्यता की उम्र जानी है। ईंटों से हम उसका अंत जानेंगे और यह अंत ऐसा होगा जिसे जानने वाले भी शायद नहीं बचे। कवि की यह चिंता यदि किसी को कवि की निराशावादिता का प्रमाण लगे तो इन उद्धत आशावादियों से हम सिर्फ वीरेन डंगवाल के शब्दों में यही कहना चाहेंगे कि ''इतने भी भले मत बन जाना साथी।'' टेरी इग्लटन ने भी समकालीन साहित्यकारों और आलोचकों के 'भोलेपन' पर चिंता जाहिर की थी। समय की जटिलता का अहसास यदि निराशावाद के पास ले जा रहा है तो मेरे तईं यह निराशा एक झूठी आशा द्वारा रचित यूटोपिया से ज्यादा कीमती है।

4

नरेश जी के इस संग्रह में पानी, धूप नदी और सूर्य पर भी कवितायें हैं। पानी और नदी तथा धूप और सूर्य के विधेयवादी सम्बन्ध की चर्चा इन कविताओं का ध्येय नहीं है बल्कि यहां सूर्य भी ऊर्जा से भरे होने के बावजूद अक्ल से लचर नज़र आते हैं-
''इंच भर भी हिल नहीं पाते
कि सुलगा दे किसी का सर्द चूल्हा''
हिंदी की काव्य रूढिय़ों में चन्द्रमा और सूर्य बहुत मशहूर हैं। चन्द्रमा के खिलाफ हिन्दी कविता में पहला हमला तुलसीदास ने किया था। पहली नज़र में सीता के प्यार के नशे में कैद राम जब चन्द्रमा से रात भर शास्त्रार्थ करते हैं तब उन्हें चन्द्रमा की वास्तविकता का पता चलता है और वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि दूसरों के प्रकाश और दूसरों के ज्ञान से चमकने वाले लगभग एक ही श्रेणी के लोग होते हैं। सूर्य से सीता की तुलना हो नहीं सकती थी क्योंकि राम स्वयं सूर्यवंशी थे। कवि को निर्णय लेना पड़ा कि सारी उपमाएं झूठी हैं इसलिए विदेह कुमारी की तुलना करना एक निरर्थक प्रयास है। छायावाद में इस सूर्य से डर था। पन्त जी की चाँदनी रात में दिलचस्पी को छोड़ भी दिया जाये और निराला के सबसे साहसिक रचनात्मक प्रयास के पास चला जाये तो वहां भी रवि के अस्त होने के बाद ही कविता की शुरुआत होती है। इस दृष्टि से देखें तो केदारनाथ अग्रवाल तुलसीदास के बाद दूसरे कवि हैं जो सूर्य और धूप को साथ देते हुए धूप पर कविताएं लिखते हैं। भारत जैसे कृषि प्रधान और धूपधर्मी देश में सूर्य और धूप पर कविताएँ नहीं लिखी जाएंगी तो फिर कहाँ लिखी जाएंगी? यह भी एक विचित्र संयोग है कि 'सुनो चारुशीला' के प्रकाशन के साल भर भीतर प्रकाशित केदारजी के काव्य संग्रह 'सृष्टि पर पहरा' की पहली कविता भी सूर्य केन्द्रित है- 'सूर्य 2011'। नरेश जी से इतर केदारजी की यह कविता सूर्य को लगभग अपना समकालीन मानती है। कवि से उसका परिचय पुराना है और उसे जानने का कारण यह भी है कि वह उनके पहले प्रेम के प्रतिद्वंद्वी की तरह जो कभी अपना मोबाइल चार्ज करने की जुगत में ब्रह्माण्ड के सबसे संपन्न सौदागर की तरह दिखता है लेकिन, सबसे बड़ी बात यह कि -
''और इस समय जबकि हम
यानी लाखों वर्ष पुराना वह
और पचहत्तर वर्षी मैं
दोनों एक ढाल में उतर रहे हैं
मैं उसे जानता हूँ
जैसे एक समकालीन जानता है
दूसरे समकालीन को।''
नरेश जी के इस काव्य संग्रह में मुझे यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि धूप और सूर्य दोनों पर इन्होंने कविताएं लिखी हैं। यह भी महज संयोग नहीं है कि दोनों कविताएँ आमने सामने के पृष्ठों पर बाएं और दायें साथ-साथ हैं। हालांकि, इन कविताओं में शिकायती स्वर हैं। धूप से शिकायत है कि वह जाड़े में नदी नालों के किनारे बसे गरीबों से मुँह मोड़ लेती है तो सूर्य से शिकायत है कि वह किसी का सर्द चूल्हा सुलगाने में मदद नहीं करता। सूर्य से दूसरी शिकायत है कि वह अपनी जगमग ज्योति छूने वाले सम्पाती जैसे चरित्रों पर भी क्रूरता दिखाता है और सूर्य की यही अलौकि विकलांगता कवि को भयभीत करती है।
नरेशजी की इन दोनों कविताओं को पढ़ते हुए शमशेरजी की मशहूर कविता 'चाँद से थोड़ी सी गप्पें' याद आती है। निश्चय ही नरेशजी की इन दोनों कविताओं से यह महत्वपूर्ण कविता है। संभव हो नरेशजी पर उस कविता का गहरा असर हो लेकिन चाँद के साथ जो शमशेर जी का ट्रीटमेंट है, वही ट्रीटमेंट अगर नरेश जी सूर्य और धूप के साथ करते हैं तो यह बात मेरी समझ में नहीं आती कि वे कहाँ जाना चाहते हैं?
अपने काव्य संग्रह की भूमिका में नरेशजी ने एक दिलचस्प टिप्पणी की है- ''हिंदी के साथ दो दुर्घटनाएं एक साथ हुई। एक दो उर्दू से उसका नाता टूटना और दूसरा विज्ञान और तकनीक से उसे काट दिया जाना। यह निरी साहित्यिक दुर्घटना नहीं एक बड़ी सोची-समझी राजनीतिक साजिश है।'' वैसे तो कवि की कविता पर बात करते हुए उसके बयानों या वक्तव्यों पर विचार करना लाजिमी नहीं है फिर भी यदि कविता की भूमिका के रूप में कवि और कविताओं के साथ उपस्थित होना चाहता है तो उसको भी संज्ञान में न लेना उचित नहीं होगा। नरेश जी विज्ञान और तकनीक के सिर्फ विद्यार्थी ही नहीं रहे बल्कि वह उनका पेशा भी रहा है। उनकी कविताओं में उनके पेशे की छाया कई बार दिखाई भी पड़ती है। हालांकि, हिंदी कविता में पेशे की छाया कोई नयी बात नहीं है। बात जो महत्वपूर्ण है और लगभग चकित करने वाले अंदाज में कही गई है वह मेरे ख्याल से विचारणीय है। पहली बात तो यह कि हिंदी के साथ जिन दुर्घटनाओं का उल्लेख वे कर रहे हैं वे एक साथ घटित नहीं हुई। दूसरी बात यह कि ये दोनों घटनाएं एक जैसी घटनाएं नहीं है। दोनों घटनाओं की राजनीति और चरित्र भी एक जैसा नहीं है। प्रेमचंद और आचार्य शुल्क के समग्र लेखन पर विचार करें तो प्रेमचंद हिंदी और उर्दू के बीच हमारे सबसे बड़े सेतु हैं। शुल्क जी के अनुवाद कार्य और आलोचना दृष्टि में विज्ञान की गहरी भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। हिंदी और उर्दू के बीच प्रेमचंद द्वारा निर्मित सेतु सिर्फ गद्य तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि इसका विस्तार कविता में भी होता है। निराला से लेकर शमशेर तक की कविताएं इसका प्रमाण हैं। हिंदी की समकालीन कविता में इनको 'सघन तम की आँख' मानने वालों की संख्या कम नहीं है बल्कि ज्यादा है। इसलिए इस दुर्घटना को एक द्वंद्वात्मक तनाव के रूप में ही देखे जाने की जरूरत है। रही बात विज्ञान की तो साहित्य में वैज्ञानिक चेतना का प्रमाण तो हिंदी में तब से मिलता है जब यूरोप में विज्ञान उतना लोकप्रिय नहीं हुआ था। तुलसीदास की चन्द्रमा सम्बन्धी राय को छोड़ भी दीजिए और उनसे बहुत पहले कबीर की कविताओं को देखें तो पता चलेगा कि साहित्य और विज्ञान का सम्बन्ध क्या होता है? कबीर की मशहूर कविता 'पांड़े, बुझि पियहिं तुम पानी' को पढ़ें तो पता चलेगा कि कविता और विज्ञान का सम्बन्ध कितना सर्जनात्मक हो सकता है। नरेश जी की ही कविताओं में इसके अनेक प्रमाण मौजूद हैं। मुक्तिबोध से लेकर लाल्टू तक कि कविताएं इस बात का प्रमाण हैं कि विज्ञान और हिंदी कविता का सर्जनात्मक सम्बन्ध शिथिल नहीं हुआ है। इसलिए मैं नरेश जी की इस चिंता से असहमत होने की इजाज़त चाहता हूँ। रह गई बात हिंदी भाषा और हिंदी साहित्यकार की हैसियत की तो इसकी गिरावट का कारण सिर्फ हिंदी भाषा और हिंदी के साहित्यकार नहीं हैं। मैनेजर पाण्डेय ने इसके कारणों पर टिप्पणी करते हुए बताया है कि 'आजकल भूमंडलीकरण की जो आंधी चल रही है उसमें हर बुद्धिजीवी स्थानीय होने से पहले राष्ट्रीय बन जाना चाहता है और राष्ट्रीय होने से पहले अन्तर्राष्ट्रीय'। अंग्रेजी में बोलने और लिखने का शौक लगभग इन्हीं कारणों से बढ़ा है। इसके बावजूद मैं यह कहना चाहता हूँ कि हिंदी लगातार देश और देश से बाहर बढ़ रही है। हिंदी के इस विस्तार और लोकप्रियता का सम्बन्ध सिर्फ हिंदी साहित्य से नहीं है। ग्राम्शी जैसे आलोचक लोकप्रिय संस्कृति पर विचार करने की जरूरत जिन कारणों से समझते थे उन कारणों पर विचार किए बगैर हम हिंदी की लोकप्रियता को नहीं समझ सकते। महज कविताओं की किताबों की बिक्री के आधार पर हिंदी के लिए स्यापा करने की जरूरत नहीं है।
रघुवीर सहाय का मानना था कि समाज के संसार में किसी बड़े बदलाव के अभाव में कविता के संसार में किसी बड़े बदलाव की उम्मीद बेमानी होगी। नरेश जी की जो चिंता है, उसका सबब समझा जा सकता है लेकिन जो कवि कविताओं से बेइंतहा प्यार करता हो और संख्याओं को शब्दों का पूर्वज मानता हो, उससे शब्दों के संसार के प्रति संख्याधर्मी दृष्टि की उम्मीद तो नहीं ही की जा सकती।

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नरेश जी के इस संग्रह में 'घास' शीर्षक एक छंदबद्ध कविता है। छंद के प्रति आकर्षण समकलीन कविता में एक आश्चर्य के रूप में दिखाई पड़ता है। अष्ठभुजा जी ने तो 'पद-कुपद' के जरिए एक नया प्रयोग ही किया है। नरेश जी की इस कविता में अष्टभुजा जी के इस प्रयोग का समर्थन हुआ है-
''धरती पर भूगोल घास का तिनके भर इतिहास
घास से पहले, घास यहाँ थी, बाद में होगी घास''
यही नहीं 'सृष्टि पर पहरा' में भी एक ग़ज़ल है। गीतों से शुरू करने वाला कवि गीत-ग़ज़ल के मोह से बाहर निकलने के बावजूद उसकी ताकत से परिचित तो है ही। स्वयं निराला का भी मानना था कि छंद के अनुशासन से गुज़रे बगैर छंद से मुक्ति सम्भव नहीं है। ऐसे में पुन: छंद की ओर वापसी के संकेत इन बड़े कवियों के यहाँ मिल रहे हैं और इसके कारणों पर भी विचार होना चाहिए। कविता की श्रुति परंपरा ने कविता को लोक से जोडऩे का काम तो किया ही था। भक्ति कविता आज भी हिंदी की सबसे लोकप्रिय कविता है तो इसका एक बड़ा कारण उसके छंद हैं। उर्दू से कटने की जो चिंता नरेश जी ने जाहिर की है उस उर्दू में भी छंद की वजह से ही ग़ालिब, ग़ालिब है। भक्ति कविता और उर्दू कविता की परंपरा से जुडऩे की कोशिश में छंद की ओर वापसी को मैं एक नया संकेत मान रहा हूँ। केदार जी ने बहुत सोच-समझकर यह प्रयोग किया है-

''केदार जी, ग़ज़ल है ये, खाला का घर नहीं
इस घर में कैसे आए- ज़रा पूछ लीजिए।''
'सृष्टि पर पहरा' में भी 'घास' शीर्षक से एक कविता है-
''घास परेशान है इन दिनों
आने दो उसे
अगर आती है वह
दुनिया के तमाम शहरों से खदेड़ी हुई
जिप्सी है वह
तुम्हारे शहर की धूल में अपना खोया हुआ नाम
और पता खोजती हुई।''
केदार जी और नरेश जी लगभग हम उम्र हैं (शायद पांच वर्ष का अंतर है)। मेरे लिए यह देखना दिलचस्प है कि उनकी कुछ कविताओं के शीर्षक मिल रहे हैं तो कुछ कविताओं की केन्द्रीय चेतना। मसलन 'सुनो चारुशीला' शीर्षक कविता नरेश जी ने अपनी दिवंगत पत्नी विजय जी के लिए लिखी है-
''क्या कोई बता सकता है
कि तुम्हारे बिना मेरी एक वसंत ऋतु
कितने फूलों से बन सकती है
और अगर तुम हो तो क्या मैं बना नहीं सकता
एक तारे से अपना आकाश।''
केदार जी ने अपनी पत्नी की अट्ठाईसवीं पुण्यतिथि पर जो कविता लिखी है उसमें शून्य का यह अहसास बहुत पुराना है और उस शून्य में-
''और जो बच गया शून्य
उसमें रहने आ गए
झुण्ड के झुण्ड शब्द
और किताबों के रेवड़
और बर्र की तरह
लिखी- अनलिखी कविताओं के छत्ते
और इस तरह शामें
होती रहीं सुबहें
सुबहें धीरे धीरे
होती रहीं शाम''
जीवन का उपसंहार करते हुए जीवन के बेहद मुलायम पन्नों को पलटने की कोशिश ऊपर से साधारण दीखते हुए भी बहुत मूल्यवान है। अपनी पत्नी को याद करते हुए निजार कब्बानी की कवितायें याद आ रही हैं। नाजिम हिकमत याद आ रहे हैं। हिंदी का यह अपेक्षाकृत उपेक्षित कोना है, जिसमें कभी-कभी कोई निराला, केदारनाथ अग्रवाल या सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसे कवि दिखाई पड़ जाते हैं। जिस भाषा के साहित्य के इतिहास में एक पूरा युग श्रृंगार को समर्पित रहा हो और दूसरी स्त्रियों के अनुसन्धान में कोई कर-कसर न छोड़ी गई हो उस भाषा में अपनी पत्नी पर लिखने का साहस अर्जित करने में बहुत इंतजार करना पड़ा है। नरेश जी और केदार जी की ये दोनों कवितायें इस बात का प्रमाण हैं।
बहरहाल, नरेश जी के काव्य-संग्रह में कुछ कविताएं ऐसी भी हैं जिन्हें कमज़ोर कहा जा सकता है। लेकिन इन कमजोर कविताओं में भी उनकी ताकत को समझने के लिए कुंजी मौजूद हैं। केदार जी के ही शब्दों में कहें तो हर बड़े कवि की कमजोर कविताएं उसकी महत्वपूर्ण कविताओं को समझने की कुंजी होती हैं। नरेश जी के काव्य-संसार की ये कुंजियाँ हैं। नई पीढ़ी और नए अंखुओं से उम्मीद उनके यहां कम नहीं है। यह जानते हुए भी कातिल फूल सरीखी चाहों पर घात लगाये बैठे हैं, 'प्रवासी पक्षी' शीर्षक कविता में उन्हें यह बात बेहद चकित और हमें आश्वस्त करती है कि,
''कितनी अजीब बात है
कि ठण्डे इलाकों से
गर्म इलाकों की तरफ उड़ान भरने वाली
चिडिय़ों की अगुवाई
शिशु चिडिय़ा करती हैं।
उन्हें जन्म से ही पता होते हैं
वे रास्ते
जो उनके पूर्वजों ने तय किये थे।''




इसके पहले भी गजेन्द्र पाठक ने पहल के लिये लेखन किया है। वे हैदराबाद विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं।
अंक 100 में नरेश सक्सेना की लम्बी कविता पाठक पढ़ सकेंगे

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