जन-आन्दोलन और बौद्धिक-कर्म

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    मार्च : 2015
श्रेणी क़िताबें
संस्करण मार्च : 2015
लेखक का नाम प्रणय कृष्ण





सन्दर्भ- रणेंद्र के औपन्यासिक पात्र


रणेंद्र ने अपने दोनों उपन्यासों 'ग्लोबल गाँव के देवता' और 'गायब होता देश' में आदिवासी समुदायों के खिलाफ छिड़े नव-औपनिवेशिक युद्ध और उसके प्रतिरोध की कथाभूमि चुनी है, जो भारत के भूमंडलीकरण के अभी के दौर का ज्वलंत अंतर्विरोध है, लेकिन उनकी कथाभूमि को भाव-विचार-संवेदनाओं की जिन हवाओं ने घेर रखा है, वे विविधवर्णी आन्दोलनों से लवरेज हमारे आज के भारत की समूची पटभूमि से उठ रही हैं। सबसे ज़्यादा उनके बुद्धिजीवी पात्र इसका प्रमाण हैं. उनके दोनों उपन्यासों के मुख्य किरदार बौद्धिक वर्ग के हैं, इसलिए उपन्यास जैसी विधा का सन्दर्भ लेते हुए क्या यह देखना उचित न होगा कि वे बातें और विमर्श जिनकी रचना इन उपन्यासों में हुई है, उनका देशान्तर-अक्षांश क्या है?
पश्चिम में 'बुद्धिजीवी' कहने से ख़ास तरह का काम करने वाले ख़ास किस्म के व्यक्ति का बोध उन्नीसवीं सदी के प्राम्भ से ही माना जाता रहा है (रेमण्ड विलियम्स), लेकिन इस पद के अर्थ के इर्द-गिर्द सामाजिक तनावों और विवादों का एक लंबा इतिहास है। हिन्दी उपन्यास के विकास-क्रम में भी समाज के किसी ख़ास (पूर्व-परिभाषित) तबके से स्वतन्त्र एक अलग शख्सियत रखनेवाले चरित्रों के रूप में बुद्धिजीवी थोड़ा देर से ही प्रकट होते हैं। आज़ादी से पहले के औपन्यासिक चरित्रों में मेहता (प्रोफ़ेसर-गोदान), प्रमोद (जज-त्यागपत्र) या शेखर (अंतत: लेखक- 'शेखर - एक जीवनी') और आज़ादी के बाद के लगभग एक दशक के औपन्यासिक चरित्रों में डा. प्रशांत( चिकित्सक- 'मेला आँचल'), डा. प्राणनाथ (अर्थशास्त्री- 'झूठा सच') 'विचार और संस्कृति' की दुनिया में प्रत्यक्ष उत्पादनकर्ताओं की स्वतन्त्र भूमिका और पहचान की सूचना देते हैं। उन्नीसवीं सदी से ही भारत में समाज सुधारक, पत्रकार, वकील, कवि, लेखक, वैज्ञानिक नए भारत के बनने की प्रक्रिया से गहराई से जुड़े रहे।  इन तबकों से राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व भी आया, लेकिन संभवत: उनके बौद्धिक कर्म की प्रक्रियाओं और प्रकार्यों के वैशिष्ट्य या अपेक्षतया स्वतन्त्र प्रक्रिया पर बल देने की अपेक्षा उनके क्रिया-कलाप को राष्ट्रीय, सामाजिक या धार्मिक समुदायों के निर्माण के अंग के रूप में ही ग्रहण किया गया। साहित्यकार स्वयं भी बुद्धिजीवी ही था, लेकिन प्राय: अपने आत्म-बोध में वह प्रधानत: इन्हीं समुदायों का अंग था। आज़ादी के बाद के कथा साहित्य में स्वतन्त्र बौद्धिक किरदारों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई। ये किरदार बौद्धिक इसलिए थे कि वे स्थापित संस्थाओं, प्रभुत्वशाली सामाजिक व राजनीतिक सत्ताओं से ही नहीं, बल्कि अपनी उत्पत्ति के वर्ग से भी आपेक्षिक स्वायत्तता रखते थे। लेकिन आज़ाद भारत में 'बुद्धिजीवी के कर्म' को परिभाषित करनेवाली यह आपेक्षिक स्वायत्तता क्या इन संस्थाओं या सत्ताओं के साथ असहमति और विरोध में परिणत हो सकी? या यह आपेक्षिक स्वायत्तता आभासी और ऊपरी थी जिसके पीछे रक्तपायी वर्ग पर गहरी पर-निर्भरता छिप जाती थी?  गजानन माधव मुक्तिबोध ने लिखा,

'कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गयी!!

सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक
चिन्तक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं,
उनके ख्याल से यह सब गप है
मात्र किंवदंती .
रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग
नपुंसक भोग-शिरा जालों में उलझे,
राह से अनजान
वाक् रुदंती.
चढ़ गया उर पर , कही कोई निर्दयी
कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गई.
भव्याकार भवनों के विवरों में छिप गए
समाचार पत्रों के पतियों के मुख स्थूल.
गढ़े जाते संवाद,
गढ़ी जाती समीक्षा,
गढ़ी जाती टिप्पणी जन-मन-उर-शूल.
बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास,
किराए के विचारों का उद्भास.
बड़े-बड़े चेहरों पर स्याहियां पुत गयीं. ( अँधेरे में, 1964)

गजानन माधव मुक्तिबोध यह देख रहे थे कि बुद्धिजीवी तबके की आपेक्षिक स्वायत्तता असहमति या विरोध में परिणत होने की जगह 'रक्तपायी वर्ग' के 'वर्चस्व' के ही लगातार पुनरुत्पादन में काम आने लगी। उन्हें ऐसे भी बुद्धिजीवी ज़रूर दिखते थे जिनमें -

समझदारी व समझौते
विकट गड़ते.
हमारे आपके रास्ते अलग होते
व पल-भर,
मात्र आत्मालोचानात्मक स्वर प्रखर होता । ( चकमक की चिंगारियां, 1961) 

ऐसे भी दिखते जिनका अपराध-बोध भीषण होता ( मानो मेरे कारण ही लग गया / मार्शल लॉ यह/ मानों मेरी निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया/ मानों मेरे कारण ही दुर्घटन/ हुई यह घटना-  अँधेरे में )। उन्होंने उस कलाकार को भी देखा जिसके पास शुचितर भविष्य के मात्र सपने ही थे, जिसके स्वप्न, ज्ञान व जीवनानुभव का उसके असंग व्यक्तित्व के चलते जनोपयोग न हो सका, लेकिन वह भी 'जाने किस झोंक में क्या कर गुजऱा कि /संदेहास्पद समझा गया और / मारा गया वह बधिकों के हाथों।' ( अँधेरे में) उन्होने ज्ञान-गर्व से दूसरों से बहुत ऊपर और अलग खुद को स्थित रखनेवाले प्रकांड ज्ञानी 'ब्रह्मराक्षस' की त्रासदी भी देखी। उनकी कविताओं में भारत के समूचे बौद्धिक जगत का वृहद लैंडस्केप है। एक 'विज़नरी' कवि ने इसे आज़ाद भारत में जैसा देखा , वैसा पिछले 50 सालों में हर बीतते दिन के साथ और भी सच होता चला गया है। मुक्तिबोध ने आज़ाद भारत के अंधेरों पर बौद्धिक तबके की कीमियागीरी की सहायता से चमचामाता हुआ रेशमी पर्दा डाला जाता देखा था और भारत में ही नहीं दुनिया भर में जन-प्रतिरोध में अपने शब्द, स्वर, ज्ञान, अनुभव, विचार को मिलाकर उन्हें क्रियागत परिणति देते बौद्धिकों का इतिहास भी उनके सामने था। इनके बीच ही भारत के बौद्धिक तबके की एक पूरी रेंज थी जिसमें आत्मतृप्ति, आत्मालोचन, आत्मोदबोधन , भीषण भीतरी और बाहरी संघर्ष, त्रासदियों आदि के अनेक मनाज़िर थे। उहोने पूंजी की सत्ता बनाए रखने या उसे जन-क्रान्ति के ज़रिए समाप्त कर मानवीय मुक्ति को साकार करने में बौद्धिक कर्म की एक अनिवार्य भूमिका देखी थी। बौद्धिक-कर्म वर्ग-संघर्ष का ही हिस्सा है।
बौद्धिक-कर्म और जन-संघर्ष की एकता के विश्व-इतिहास में तमाम शानदार उदाहरण हैं, और उनकी साहित्यिक अभिव्यक्तियाँ भी खूब हुई हैं,  लेकिन हिन्दी साहित्य में इस परिघटना की  सबसे ताकतवर अभिव्यक्ति नक्सलबाड़ी के किसान विद्रोह से आवेग प्राप्त कविताओं और कथा साहित्य में हुई। इस आन्दोलन में मेडिकल, इंजीनियरिंग और उच्च शिक्षा के अन्य क्षेत्रों की पढ़ाई कर रहे सैकड़ों नौजवानों और युवतियों ने जिस प्रकार अपना करियर ही नहीं, बल्कि अपनी उत्पत्ति के वर्ग को भी छोड़कर भूमिहीनों और दलितों के क्रान्तिकारी संघर्ष को अपनाया, उनके साथ जिए और मरे और उस आन्दोलन की नेतृत्वकारी कतारों में पहुंचे, वह सचमुच भारत के इतिहास में अभूतपूर्व था। यह आज़ादी के आन्दोलन वाला असहयोग और बहिष्कार जितना निरामिष प्रकरण न था। कवि सरोज दत्त से लेकर गाँव के कालेज के जगदीश मास्टर तक बौद्धिक कर्म को क्रांतिकारी कर्म में परिणत करनेवाले लोग नितांत भिन्न- भिन्न पृष्ठभूमियों से आए थे। नक्सलबाड़ी प्रेरित बौद्धिक-कर्म और जन संघर्ष की एकता को अभिव्यक्त करने के क्रम में ही हमारे साहित्य ने नवीन आत्म-परिभाषा रची। साहित्य खुद में एक बौद्धिक कर्म है, जन-संघर्षों से जुड़कर वह 'प्रतिरोध' बन जाता है। साहित्य अब 'प्रतिरोध का साहित्य' हुआ। आज 'प्रतिरोध के साहित्य' या 'प्रतिरोध की संस्कृति' जैसे पद यदि व्यापक स्वीकृति प्राप्त कर सके हैं, तो इसके पीछे इन पदों की उत्पत्ति की उपरोक्त पृष्ठभूमि के साथ-साथ समकालीन वास्तविकता और बदलते यथार्थ का भी दबाव है। 'प्रतिरोध' शब्द अर्थ की एक पूरी रेंज को अभिव्यक्त करने लगा है - 'प्रोटेस्ट' से लेकर 'रेजिस्टेंस' तक। अंग्रेज़ी के ये दोनों शब्द वामपंथ की राजनीतिक शब्दावली में अलग अलग अर्थ रखते हैं। लेकिन सांस्कृतिक क्षेत्र में 'प्रतिरोध' शब्द अपनी स्वीकार्यता में इन दोनों को और इन के बीच के अर्थ के पूरे दायरे को समेटे हुए है। कोई कह सकता है है कि अर्थ का यह फैलाव उसे हल्का या पतला भी बनाता है। आखिर 'शुद्ध कला' वाले भी बाजारूपन और उपभोक्ता-संस्कृति के खिलाफ अपने साहित्य को 'प्रतिरोध' ही कहते हैं।
बहरहाल, रणेंद्र के उपन्यासों में हम दुश्मन-वर्गों के बीच संघर्ष को एक विकट बौद्धिक संघर्ष के रूप में भी खुलता पाते हैं। 'ग्लोबल गाँव के देवता' में कुछ कम और 'गायब होता देश' में अधिक। 'ग्लोबल गाँव के देवता' में संस्कृत में आनर्स रुमझुम और एम.ए. कर रही ललिता आदिवासी समाज के आवयविक बुद्धिजीवी के रूप में विकसित होते हैं ( ग्राम्शी के दिए अर्थ में ) और शहीद होते हैं। उपन्यास जिन दो वाक्यों से समाप्त होता है, वे हैं, 'राजधानी यूनिवर्सिटी हॉस्टल से सुनील असुर अपने साथियों के साथ कोयलबीघा, पाट के लिए निकल रहा है। लड़ाई की बागडोर अब उसे सम्हालनी थी।' सुनील को भी अब यूनिवर्सिटी से निकालकर जीवन-संग्राम की पाठशाला में संगठनकर्ता और नेतृत्वकर्ता की भूमिका में ढलते हुए अपने भीतर के लोहे को मारक आकार देना है। इस उपन्यास में डा. रामकुमार और कथावाचक दो ऐसे बुद्धिजीवी पात्र हैं जो आदिवासी समुदाय के नहीं हैं लेकिन उनके संघर्ष के सहयात्री हैं। दुश्मन तबके की कुछ चालाकियां ऐसी होती है जिन्हें पीडि़त समाज के बहुत अनुभवी, समझदार और परिपक्व लोग भी 'एक्सपोज़र' के अभाव में भांप नहीं पाते। यहाँ दुश्मन तबके को भीतर से जानने वाले 'विभीषण' पात्र पीडि़तों के संघर्ष के मददगार बनते हैं। इस उपन्यास में शिवदास बाबा के छल-छंद में फंसे लालचन असुर जैसे अनुभवी व्यक्ति और बाबा की असलियत को भांपने-बतलानेवाले डा. रामकुमार अन्य सन्दर्भों के अलावा इस मामले में भी संघर्ष के व्यापक परिप्रेक्ष्य में एक दूसरे के पूरक हैं।
'गायब होता देश' में मुंडा समाज के पढ़े-लिखे लोग अपने समाज के आवयविक बुद्धिजीवियों में ढलने की प्रक्रिया से गुजऱते दिखाए गए हैं। सिर्फ डा. सोमेश्वर मुंडा ही ऐसे हैं जो उपन्यास में शुरू से ही एक बड़े बुद्धिजीवी के रूप में उपस्थित हैं। सोनामनी दी शिक्षिका रही हैं। अनुजा पहले एक सरकारी अफसर, फिर एन.जी. ओ. कार्यकर्ता और फिर पत्रकार रही है। नीरज पालीटेक्निक  पढ़ा है, वीरेन भी पढ़ा-लिखा है। भले ही इन पढ़े-लिखे मुंडा पात्रों का अपने समाज के संघर्षों के संगठनकर्ता और नेतृत्वकर्ता बनने की प्रक्रिया किसी खास घटना से शुरू हुई, लेकिन यह प्रक्रिया शुरू होने के बाद से सचेत और सायास है। ऐसा नहीं कि इस समाज के सभी पढ़े-लिखों का रूपान्तरण इसी दिशा में होना तय हो। एक अच्छी खासी पढ़े-लिखों की संख्या सरकारी महकमें में रच-पच कर अपने ही समुदाय की लूट-पाट में साझीदार भी है। यह बात उल्लेखनीय इसलिए भी है कि इस किस्म से रूपांतरित होते लड़ाकू अस्मिता के वाहक इन पढ़े-लिखे पात्रों का चुनाव उपन्यासकार की अपनी निर्भ्रान्त दृष्टि का सूचक है, वरना तो अस्मिता की चालू राजनीति का झंडा भी पढ़े-लिखों ने ही उठाया हुआ है जिनमें अफसर भी हैं, राजनेता भी और एन. जी. ओ. करनेवाले भी जो समुदाय में अपने पैदा होने का मुआवजा ही उससे वसूलते हैं। उपन्यास में विधायक विक्टर तिग्गा और आदिवासी समुदाय के साहेब-सुबहा ऐसे ही लोगों की नुमाइंदगी करते हैं। ऐसे तत्व संघर्ष की बात करनेवालों को लांछित करते हैं और पूरे समुदाय की उन्नति शांतिपूर्ण, शासकीय ढंग से 'मुख्यधारा' में शामिल होना बताते हैं। 'सत्ता में भागीदारी' उनका चरम नारा होता है, बिना इस बात को उठाए कि उस सत्ता का चरित्र क्या है, लक्ष्य क्या है। 'अस्मिता' उनके लिए प्रतीकों में घटित होती है जिसका कोई सम्बन्ध वे समुदाय की भौतिक और आत्मिक लूट, उसके अस्तित्व तथा स्वाभिमान की लड़ाई से नहीं जोड़ते।
रणेंद्र के उपन्यासों के ये बौद्धिक पात्र आज के भारत के जनांदोलनों और बौद्धिक-कर्म के बीच रिश्ते के एक व्यापक परिवेश से संवेदित हैं, भले ही उपन्यास की महत्वपूर्ण घटनाएं किसी क्षेत्र-विशेष के रंगमंच पर घट रही हों। जहां 'ग्लोबल गाँव के देवता' में छत्तीससगढ़, केरल, कोंकण, मणिपुर , रींवा आदि जगहों पर अलग-अलग सवालों ( नदी की नीलामी, ज़मीन की लूट, विस्थापन, राज्य दमन) पर चल रहे आन्दोलनों को महज सूचित करते हैं, वहीं 'गायब होता देश' में अनेक आन्दोलनों की विविधता और सवालों का साझा उनके पात्रों की गतिविधि और शिरकत से भी संप्रेषित होती है। किशन विद्रोही जे.पी. आन्दोलन की पैदावार हैं। बुद्धूबीघा के महंथ के मठ की ज़मीन भूमिहीनों के पक्ष में जोतनेवाले पहले बागी- ''...आपातकाल... मीसा.... जेलबंदी'' रहे। सोमेश्वर मुंडा सत्तर के दशक में कैम्ब्रिज से पढ़े 'विश्वकोशीय' आयामों वाले बुद्धिजीवी होने के साथ साथ तमाम आन्दोलनों और संगठनों के अनुभवी हैं - ''रूटीन से बंधी यूनिवर्सिटी की नौकरी उबाने लगी, तो छोड़ दी। किशनपुर के हालात पर किताब लिखने लगे। अलग सूबा का मूवमेंट शुरू हुआ, तो उसमें लीन हो गए। अब उम्र हो गयी है, तो कई तालीमी संगठनों से जुड़े हैं।'' सोनामनी दी की व्यस्तता का आलम यह है कि ''कभी दुलमी बाँध की लड़ाई, तो कहीं खदान-विरोधी मोर्चा, तो कहीं जंगल के निष्कासन के खिलाफ जुलूस-धरना''। रणेंद्र के दोनों उपन्यासों का घटना-व्यापार और इन चरित्रों के क्रियाकलाप हमें आज के भारत में चल रहे आन्दोलनों के स्वरूप की एक झांकी  दिखलाते हैं। ये झांकी सत्तर और अस्सी के दशक के अपेक्षा संगठित, सुस्पष्ट विचारधारा वाले और अखिल भारतीय प्रभाव-क्षेत्र वाले आन्दोलनों ( उदाहरण के लिए नक्सलबाड़ी आन्दोलन या जे.पी. आन्दोलन) की नहीं, बल्कि मोटे तौर पर 1990 के बाद से हमारे देश में चल रहे ऐसे आन्दोलनों के कोलाज की ओर हमारा ध्यान खींचती हैं जिनमें ज़मीन की लूट, विस्थापन, राज्य दमन, आणविक संयंत्रों, भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, प्राकृतिक, मानवीय और बौद्धिक संसाधनों की कारपोरेट लूट, प्रदूषण आदि के खिलाफ जनता के प्रतिरोध ने अनेक रूपाकार ग्रहण किए हैं. आजीविका, रोज़गार और सामाजिक सम्मान तथा स्त्री, आदिवासी और दलित अस्मिताओं के लिए चलनेवाले छोटे, बड़े आन्दोलन भी काफी विविधता लिए हुए हैं। बेशक किसानों-मजदूरों के संगठित और सुस्पष्ट वैचारिक आधार वाले आन्दोलन भी अपनी निरंतरता बनाए हुए हैं, लेकिन ढेर-सारे आन्दोलन स्थानीय, गैर-पार्टी, सिर्फ एक मुद्दे पर केन्द्रित, वैचारिक स्तर पर निराकार भी, साथ-साथ चल रहे हैं। यही कारण है साहित्य और जनपक्षधर बौद्धिक-कर्म में भी प्रतिरोध के अर्थ विविधवर्णी हैं। इन तमाम आन्दोलनों और कार्रवाइयों में लगे लोगों के लिए विकल्प की धारणाएं यकसां नहीं हैं। बहुत से आन्दोलन तो अस्तित्व-रक्षा के आपद्धर्म में खड़े हुए और विकल्प का तसव्वुर भी इसी प्रक्रिया में निर्माणाधीन है। वास्तव में बड़े दायरे के, अपेक्षत: संगठित और वैचारिक स्तर पर सुनियोजित जिस तरह के आन्दोलन सत्तर और अस्सी के दशक तक दिखे, उनकी संभावनाओं को 1990 से शुरू हुए भारत के भूमंडलीकरण ने स्थगित और परिसीमित किया। उस किस्म के आन्दोलनों में ठहराव और बिखराव भी आए. वित्तीय पूंजी की नयी  विश्व-व्यवस्था, सोवियत पतन और सूचना संचार क्रान्ति, ज्ञान के क्षेत्र में नयी उत्तरवादी सैद्धांतिकी और 'विकल्प' की असम्भाव्यता के मिथक ने तमाम ऐसे नए किस्म के अंतर्विरोधों को जन्म दिया, जिसने पहले के आन्दोलनों को बिखराव, टूटन और थकान की प्रक्रिया में ढकेला। नए सवालों ने नए तरह के स्थानीय, मुद्दा केन्द्रित आन्दोलनों को भी अपरिहार्य बना दिया। लेकिन इन दोनों तरह के आन्दोलनों में एक सम्बन्ध भी है जिसकी गवाही खुद यह उपन्यास देता है, फिर से अपने बौद्धिक पात्रों के माध्यम से ही।
किशन विद्रोही पुराने जे.पी. मूवमेंट, सोमेश्वर मुंडा अलग झारखंड सूबे के विगत आदिवासी आन्दोलन की छिटकी हुई चिंगारियां हैं, जो कोकराह के नए संघर्षों के बीच भी सुलग रही हैं। नक्सल आन्दोलन भी उपन्यास के कार्य-व्यापार की पृष्ठभूमि में अपनी दुर्निवार उपस्थिति को जतलाता है। ऐसा लगता है कि ये पुराने आन्दोलन आत्मसंघर्ष और पुनर्निर्माण के दौर से गुज़रते हुए, अपनी थकान , टूटन से जूझते हुए नए आन्दोलनों के गुणसूत्रों में भी किसी हद तक निबद्ध हो गए हैं। पुराने (सत्तर और अस्स्सी के दशक के आंदोलनों)  के बिखराव, टूटन और थकान की प्रक्रिया ने ऐसे ढेर सारे एक्टिविस्ट बुद्धिजीवियों की जमात को पैदा किया जो अपनी मूल जमात से बिछड़े और टूटे हुए लोग हैं। वे लक्ष्यच्युत बाण की तरह इधर-उधर गिरे, संभले और फिर खुद को एक नयी शाख की तरह उन्होंने अजान, पराई मिट्टी में रोपा, उससे तत्व ग्रहण किया। ऐसे तमाम लोग वही हैं, जिन्होंने प्रतिरोध सीखा था कभी और लक्ष्य धुंधला जाने पर भी या मूल आन्दोलन के बिखर, सिमट जाने के बाद भी उसे पूरी तरह भूल न पाए। इन्हें हम 1990 के बाद के आन्दोलनों और अभियानों में कई जगह कई भूमिकाओं में देखते हैं, कहीं कहीं तो नेतृत्वकारी भूमिका में भी। किशन 'विद्रोही' इसी प्रजाति के जीव हैं। कईयों ने नए तरह के सामाजिक-सांस्कृतिक अध्ययनों में मन रमाया और सोचने विचारने के नए नुक्तों का आविष्कार किया। डा. सोमेश्वर मुंडा के व्यक्तित्व का एक पहलू ऐसे ही पात्रों की नुमाइन्दगी करता है। किशन विद्रोही के सन्दर्भ में मूल आन्दोलन से बिखरने की प्रक्रिया को उपन्यास का एक नैरेटर यों रखता है, 'आपातकाल....मीसा ...जेलबंदी ...एक लंबा अतराल। कितने साथी बिखर गए। छूट गए। कैरियरिस्ट होकर कहीं दूर जा पड़े। आपातकाल के बाद जनता पार्टी की लहर। व्यवस्था- परिवर्तन को संकल्पबद्ध साथी पहले टिकट के लिए, उसके बाद चुनाव में जीत और मंत्री-राज्यमंत्री पद के लिए संघर्षरत दिखे।'
'गायब होता देश' में किशन विद्रोही और सोमेश्वर मुंडा के चरित्र उपन्यास की संवेदना की दो मजबूत मेहराबें हैं जिन पर वह टिका हुआ है। उपन्यास में जाति की अस्मिता और इतिहास का आख्यान सोमेश्वर मुंडा के चरित्र से गति प्राप्त करता है जबकि 'कारपोरेट-राजनेता-अफसरशाही-मीडिया-भूमाफिया गठजोड़' का मुंडा समाज पर नए तरह का हमला यानी उपन्यास के मुख्य कार्य-व्यापार के आख्यान की धुरी है किशन विद्रोही का चरित्र। एक बुद्धिजीवी के रूप में किशन विद्रोही की अवस्थिति (लोकेशन) ऐसी है कि दुश्मन जमात के भीतर, उसकी स्याह और घृणित गहराइयों में पैठ उसी की है और उसी के माध्यम से वीरेन, अनुजा, सोमा आदि भी उस निकृष्ट दुनिया का पूर्णतर ज्ञान प्राप्त कर पाते हैं। यही कारण है कि किशन विद्रोही उपन्यास का प्रमुख नरेटर है, उसके डायरी के पन्नों से ही उपन्यास खुलता जाता है। जन-संघर्ष से बुद्धिजीवी का एक सम्बन्ध यह भी होता है कि वह उस संघर्ष के वास्तविक रूप को व्यापक समाज के सामने सच्चाई से प्रकट करे ताकि उस जन-संघर्ष के बारे में व्यवस्था द्वारा फैलाई गई भ्रांतियों का निराकरण हो। साथ-ही साथ वह उस संघर्ष की व्याख्या भी प्रस्तुत करता है। वह जन-संघर्ष का कम्युनिकेटर और इंटरप्रेटर एक साथ होता है। किशन विद्रोही ये भूमिका उपन्यास के भीतर और बाहर , दोनों स्तरों पर निभाता है। उपन्यास के भीतर घटनाक्रम में उलझे एक पात्र के रूप में और उपन्यास के बाहर उपन्यासकार द्वारा पाठक तक उपन्यास के संवेदनात्मक उद्देश्य को संप्रेषित करनेवाले माध्यम के रूप में।
किशन विद्रोही एक  'विस्थापित' और 'निर्वासित' बुद्धिजीवी है। वह अपनी उत्पत्ति के  समाज, वर्ग, परिवार, परिवेश से उन्मूलित और निर्वासित है। यह 'विस्थापन' उसकी आत्म-चेतना का प्रमुख संवेदी तत्व है। इसीलिए वह सतत विस्थापन का शिकार हो रहे आदिवासी समुदाय और उसके चरित्रों से एक सहज दर्द का रिश्ता कायम कर लेता है, मानों वह अपने बिछुड़े हुओं को इनमें पा रहा हो, फिर से बिछुड़ जाने के लिए। उसकी डायरी का यह अंश देखें, 'कितनी हिम्मत और टूटे हुए जीवन को जोडऩे में कितनी-कितनी मशक्कत. .... अनुजा पुष्पपुर क्यों गई? भैया गौहाटी क्यों गए? बाबू और उनके पीछे पीछे माय क्यों चली गई? मैं यहाँ क्यों पड़ा हूँ , अपने गाँव-घर-माटी से सैकड़ों मील दूर। देशनिकाला किसी को भी रास नहीं आता। रूहें कराहती रहती हैं। 'इस विस्थापन की पीड़ा ने जो रिश्ता बनाया है, उससे उसे एक विलक्षण दृष्टि मिलती है- 'किशनपुर में दो-ढाई दशक गुजारने के बाद यह महसूस हो रहा है कि यहाँ का हो या वहां का हो, लोक-जीवन लगभग एक जैसा है। भूख से रोज़ लड़ाई अंधराठाड़ी में थी और किशनपुर के आदिवासी गाँवों में भी। 'दोनों क्षेत्रों के पर्व, त्यौहार, किस्से-कहानियां, रस्में, प्रथाएं ही नहीं, बल्कि सौन्दर्य का विभावन भी किशन विद्रोही की चेतना में एक समत्व प्राप्त करते हैं। किशन के मन में अनुजा की बैंजनी छवि बचपन की यादों में बसी शान्ति-मानती के रंग में रिल-मिल जाती है।
 अंधराठाड़ी और किशनपुर की वेदना और संघर्ष में जो समत्व किशन देख पाता है, वही क्या हमारे देश के तमाम एक दूसरे से अलग-थलग दीखने वाले आन्दोलनों के बीच, उनके सवालों, पीड़ाओं और संघर्षों के बीच समत्व का भी सूत्र नहीं है?  किशन विद्रोही का विस्थापन ही उसका लोकेशन बन गया है। यह लोकेशन ही उसे रचनात्मक बनाता  है। सत्तर के दशक के आखिरी वर्षों में बुद्धू-बीघा के महंथ के खिलाफ संघर्ष के दौरान उसका पाला जिन सामन्ती ताकतों से पडा था, उससे भिन्न किस्म की और कहीं आगे बड़ी हुई ताकतें हैं निरंजन राणा-अशोक पोद्दार-सविता-कोकिला आदि। बुद्धू बीघा का महंथ 'ग्लोबल गाँव' के पंखवाले देवताओं से कहीं पिछड़ी प्रजाति का था। उसका शोषण स्थानीय था और उसमें विश्व पूंजी और बुद्धि का निवेश नहीं था। शोषण और दमन की ये दो तरह की दुनियाएं  है जिनके बीच तुलना से निष्कर्ष निकालने की स्थिति में किशन जैसा बुद्धिजीवी है। सिंडीकेट के कर्मचारी और के.के. डेवलेपर्स के प्रोप्राइटर के बतौर काम करते हुए और साथ ही साथ जन-संघर्ष के साथ हमदर्दी ने किशन को भीतर से तोड़ा ही नहीं, बल्कि दोनों के बीच 'मध्यस्थ' की भूमिका में खड़ा कर दिया है। यह स्थिति उसे आधी संलिप्तता और आधी निर्लिप्तता के साथ अतीत और वर्तमान को, शोषक ताकतों और जन-संघर्षों और यहाँ तक कि खुद अपने अंतरतम के कोनों को देखने का दोहरी दृष्टि- पथ प्रदान करती है। किसी बुद्धिजीवी की ऐसी लोकेशन क्या सचमुच जन-संघर्ष को कुछ सार्थक दे सकती है? वास्तव में इस लोकेशन और इस पात्र की दोहरी दृष्टि के बगैर यह उपन्यास ही संभव नहीं होता। किशन विद्रोही खतरनाक इसीलिए है कि वह दोनों पक्षों को खूब जानता है। आम आदिवासी समाज को शोषकों की हरकतें बाहरी घटनात्मक स्तर पर अनुभव होती हैं, जबकि किशन विद्रोही शोषक-सत्ता के आतंरिक विन्यास और गति-विज्ञान को जानता है। उसके प्रभाव-वृत्त में रहनेवाले वीरेन, अनुजा-सोमा, राजेश, अमरेन्द्र भी कॉर्पोरेट सता की अंदरूनी गहराइयों को भांपने में सक्षम बनते हैं, सिर्फ प्रशिक्षण से नहीं, बल्कि उस दुनिया के प्राप्त 'एक्सपोजऱ' को अपने अनुभवों से मिलाते हुए। किशन विद्रोही सत्ता-तंत्र के बीच रह कर भितरघात करने में सक्षम है, वह 'सबवर्सिव' हो सकता है, 'एडवर्ड स्नोडेन' की मानिंद, लेकिन यह 'सबवर्ट' करने का नज़रिया उसके अपने अनुभवों से ही नहीं, बल्कि डा. सोमेश्वर मुंडा के साथ से भी मिलता है। सोमेश्वर मुंडा की अनुभवसिद्ध दृष्टि जानती है कि किशन की लोकेशन का जन-संघर्ष के लिए उपयोग क्या है। वे किशन को एक अनुपम अंजन क्या, एक तीसरा नेत्र ही देते हैं, 'अब समझिए कि दुश्मन के घर में घुस कर लड़ाई लडऩी है। एकदम चुप्पा लड़ाई। आप कभी अकेले नहीं रहेंगे किशन बाबू। ई बच्चा लोग अनुजा-सोमा-वीरेन हमेशा आपके साथ रहेंगे... आपकी लड़ाई... हमारी लड़ाई को धीरे-धीरे आगे बढ़ाते हुए। ... आप को इस लड़ाई की याद दिलाते हुए। अंजन इसलिए दे रहे हैं कि 'बड़का लोग' से भेंट-भांट होना हो तो उसके पहले इसे अपने आँखों में लगा लीजिएगा... अंजन लगाने के बाद बड़का लोग, चरका-चमकीले लोगों का असली रूप नज़र आने लगता है। उसके बाद इस दुनिया को देखने का नज़रिया ही बदल जाता है। ''याद रखना चाहिए कि 'सबवर्ट' करनेवाले दोनों ओर होते हैं. विक्टर तिग्गा जैसे नेता और मुंडा समुदाय के साहब सूबा भी 'भितरघाती' ही हैं। वे कार्पोरेट/ सिंडीकेट के पक्ष में अपने समुदाय में भितरघात कर रहे हैं , जबकि किशन विद्रोही आदिवासी जनता के अस्तित्व और अस्मिता के लिए कार्पोरेट/ सिंडीकेट के भितरघाती हैं। लेकिन उपन्यास में 'भितरघात' भी इकहरी सीधी-सरल रेखा नहीं है। किशनपुर छोड़ किशन विद्रोही मोरेह इसीलिए चले जाते हैं कि खुद अपनी निगाह में वे गिर रहे हैं। उन्हें लगता है कि दुश्मन के घर में घुस कर लड़ाई वे नहीं कर पा रहे हैं। वे सिर्फ योद्धा नहीं हैं, उन्हें मध्यवर्गीय एडजेस्टमेंट और दिमागी सुकून की चाहत भी है। वे 'टोटल चेंज' पत्रिका और 'पलाश चैनल' में, के.के.डेवलपर्स के प्रोप्राइटर बनकर पंखवालों  द्वारा खुद के इस्तेमाल को समझ कर भी इसी एडजेस्टमेंट की ख्वाहिश से बंधे आगे बढ़ते जाते हैं। लेकिन क्या अंतत: वे एडजस्ट हो पाते हैं, सुकून पा जाते हैं? नहीं। भीषण अंतर्द्वन्द्व उन्हें अनिवार्यत: उस ट्रेजिडी की ओर ले जाता है, जो उनके जैसों की नियति भी है। यह चरित्र मुक्तिबोध की कविताओं के अनेक बुद्धिजीवी पात्रों की ट्रैजिक छवियों को ठीक आज के भारत में हमारे समाने चलचित्र की तरह उपस्थित कर देता है। दूसरी ओर विक्टर तिग्गा भी जिनके लिए काम करते हैं, उनकी हरकतों की सूचना अपने समुदाय को देकर वह सरल अर्थों में 'भितरघाती' नहीं रह जाते।
पूरे उपन्यास में वर्ग-युद्ध के साथ-साथ ज़बरदस्त ज्ञान-युद्ध लगातार चलता है। किशनपुर एक्सप्रेस में पहले विकास और प्रगति के सपनीले आख्यानों की रचना और बाद को ठीक उसके विपरीत विकास के मिथक का भंडाफोड़ करते हुए लूट और झूठ की कॉर्पोरेट संस्कृति के खिलाफ हो जाना उसे ज्ञान-युद्ध का रंगमंच बनाता है। यह किशन विद्रोही के चलते होता है। वहां से हटाए जाने के बाद 'टोटल चेंज' में भी यही ज्ञान युद्ध काल-क्रम से दोहराया जाता है। दूसरी ओर सोमेश्वर मुंडा आदिवासियों की अलग देशज ज्ञान-मीमांसा को, लुटेरी कॉर्पोरेट ज्ञान-संस्कृति के बर-अक्स जतन से खड़ा करते दीखते हैं। ज्ञान की दुनिया में भी भितरघात और चरित्रों के रूपांतरण के अनेक स्तर हैं। 'टोटल चेंज' का प्रतिभाशाली आर्किटेक्ट अभिश्यंत बड़ाइक पत्रकार अमरेन्द्र मिश्र की लीड पर जेम्स मिल की सरपरस्ती में चल रहे क्लिनिकल ट्रायल का भंडाफोड़ करनेवाले कंप्यूटर हैकर में बदल जाता है और जान की कीमत चुकाता है। अमरेन्द्र खुद थाने की दलाली करने वाले आदिवासी-द्रोही स्ट्रिंगर से रूपांतरित होकर संघर्ष का साथी बनता है। जेम्स मिल के षड्यंत्रों का खुलासा करता है और मारा जाता है। किशन विद्रोही का संक्रमण इन सब में है. खुद किशन विद्रोही का पुत्र बिट्टू आयनमंडल से आवेशित कणों को आकर्षित कर जैविक बैटरी बनाने की जेम्स मिल की पूरी परियोजना को और उसके षडयंत्र को समझने- समझाने में अपने ज्ञान का उपयोग करता है, जिसके चलते उपन्यास के अंतिम पन्नों में आन्दोलन की जीत होती दिखाई देती है। यह जीत न केवल आदिवासी समुदाय को भारी विभीषिका से बचाने के लिहाज से, बल्कि सोमेश्वर मुंडा के शोध की रोज़लिन , जेम्स मिल आदि द्वारा की गई  चोरी का भी प्रतिशोध है। दर-असल अपनी निगाह में असफल होकर भी किशन विद्रोही असफल नहीं रहा। बौद्धिक कर्म और जनांदोलन के जिस रिश्ते का उसने संधान किया वह अगली पीढी तक को हस्तांतरित हुआ। आज की 'नॉलेज सोसायटी' में जनसंघर्ष और ज्ञान-संघर्ष को अलगाया नहीं जा सकता।
किशन विद्रोही ने पंखवालों के साथ देश-दुनिया की यात्रा की। उपन्यास में उसकी यह ज्ञानात्मक और अनुभवात्मक यात्रा आज के संघर्षों के विराट सन्दर्भ-बिन्दुओं को उभार देती है। आज के उत्तर-पूंजी की दुनिया के शोषकों के कार्य-व्यापार, उनके तरह तरह के धंधों की आतंरिक जानकारी विद्रोही की देश-काल-यात्रा की मा$र्फत उपन्यास का अवयव बनकर जिस तरह प्रकट हुई है, वैसा संजीव के उपन्यास 'रह गई दिशाएं इसी पार' को किसी हद तक छोड़ कर, मेरी सीमित जानकारी में किसी दूसरे हिन्दी उपन्यास में प्रकट नहीं हुई है। डा. सोमेश्वर मुंडा की ज्ञान-मीमांसा भी ऐसी ही अनोखी है। इस उपन्यास का ज्ञान-काण्ड यह भी दिखलाता है कि आज के नए सामाजिक आन्दोलन वैचारिक चौराहे पर खड़े है और उनका उपन्यास भी। केवल रचनाकार ही चरित्र नहीं गढ़ता, चरित्र भी रचनाकार को गढ़ते हैं। संजीव की महान कहानी 'प्रेरणास्रोत' को याद कीजिए। इस उपन्यास के पात्रों ने खुद उपन्यासकार को भी गढ़ा है। किशन विद्रोही अपनी डायरी में सोमेश्वर मुंडा की इस धारणा को उद्धृत करते हैं कि भारत में समय चक्रीय माना जाता था, लेकिन उपन्यास में इस धारणा से कहीं कोई बहस नहीं। सृष्टि या काल के प्रति दृष्टिकोण 'विश्व-दृष्टि' का महत्वपूर्ण घटक है, जो आन्दोलन के बुद्धिजीवी के ज़रिए उसकी वैचारिक दिशा पर भी निश्चय ही प्रभाव छोडऩे में सक्षम हैं।  'सृष्टि-चक्र' हो या 'काल-चक्र', भारत में सृष्टि या काल के बारे में सोचने-समझने के अकेले ये ही तरीके नहीं रहे हैं। काल को महसूस करने और मापने के कितने विविध तरीके भारत में प्राचीन काल से ही रहे आए, इसका उदाहरण भर्तृहरि के वाक्यपदीयम से लेकर बाद के तमाम अन्य ग्रंथों में दर्ज हैं। 'काल-चक्र' की वैज्ञानिकता आदि की बातें अलग से महत्व की हैं।
आखीर में सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि पूरे उपन्यास के बौद्धिक चरित्रों के ज़रिए पाठक यह जानता है कि कॉर्पोरेट पूंजी की ताकतें बेहद संगठित हैं, हर स्तर पर, लेकिन आज के भारत के जन- आन्दोलनों में वेदना, सवालों और संघर्ष के समत्व की पहचान के बावजूद परस्पर गुंथाव नहीं है। सच कहूं तो यह उपन्यास आन्दोलन की दुनिया के बौद्धिक हस्तक्षेप की तरह हमसे पेश आता है और हमसे आपसे यह मांग करता है कि दुश्मनों के चट्टानी संगठन के बर-अक्स वंचितों के आन्दोलनों के बिखराव की विसंगति को समझें और उसे दूर करने का हर संभव उपाय करें। इस उपन्यास के तमामतर खूबसूरत आयामों को छोड़ इस एक ही आयाम पर चर्चा करने में मेरा स्वार्थ भी यही है।









रणेन्द्र को प्रसिद्धि 'ग्लोबल गांव के देवता' उपन्यास से मिली। पर 2014 में उनका दूसरा उपन्यास 'गायब होता देश' जो पेग्विंन से आया, एक बड़े कैनवेस और विचार को संबोधित है। पहल सम्मान से विभूषित कथाकार संजीव ने 'ग्लोबल गांव ने देवता' पर टिप्पणी की है। इस उपन्यास से उपन्यासकार रणेन्द्र ने ''बाह्मणवाद द्वारा सतत अपमानित अपर जनजाति को प्रतिष्ठा दिलाने का रचना कर्म निबाहा है।''
पाठकों पहल के सौवें अंक से रणेन्द्र एक माला शुरु कर रहे हैं जिसमें अदिवासी और जनजातीय समुदायों से संबंधित विमर्श का अध्ययन होगा।
प्रणय कृष्ण हमारी भाषा के एक प्रमुख युवा विचारक तथा आलोचक हैं। जन संस्कृति मंच के निर्माताओं में प्रमुख हैं। वर्तमान में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राध्यापक है।

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