चंदनपुर का चाँद

  • 160x120
    मार्च : 2015
श्रेणी कहानी
संस्करण मार्च : 2015
लेखक का नाम नईम कौसर






दुलारे सिंह राठौर एक साल में बिल्कुल बदल गये। जैसे वो बीते साठ साल रहे अब न थे। सफेद नौकीली मूँछों का कलफ, करख्त कलाईयाँ और चेहरे की सुर्खी बरक़रार थी। लेकिन ज़बान को मिठास और रेशमी बोल देने वाली शबनम काफूर हो गई। दूसरों को सुनने की चाहत और हमदर्दी जताने की आदत भी न रही। उनके दादा और पिता श्री ने हमदर्दी और दूसरों के दुख दर्द बांटने की जो विरासत उन्हें सौंपी थी उससे भी मुँह मोड़ लिया। क़स्बे की मस्जिद से जिस दिन लाउडस्पीकर की कड़क और गडग़ड़ाहट गूँजी उसके दूसरे दिन शिव मंदिर से दोगुनी आवाज़ें और आरती का शोर उठा। हफ्ते में एक बार कोई न कोई तेजतर्रार साधवी मंदिर के विशाल मैदान में प्रवचन देने आने लगी। धर्म तो पहले ही चंदनपुर के घर-घर में सांस लेता था मगर अब सड़कों पर सीना ठोकने लगा।
राठौर हवेली के लौहे के गेट के बाहर बड़ा सा चबूतरा तामीर किया गया जिस पर टीन की चादरों का साया था और नीचे गणेश उत्सव, दशहरा के त्यौहार पर भगवान गणेश और माता दुर्गा की कद्दावर मूर्तियाँ सजने लगी। दुलारे सिंह के पुराने दोस्त कहते हैं कि जब से वो देहली से लौटे हैं उनका हृदय परिवर्तन हो गया है। हफ्ते भर पहले कालोनी में आये जहाँ कश्मीरी पंडितों को आबाद किया गया था। उनके रवैये को देखकर शम्सू इज्जाम के खपरैल वाले मकान में रहने वालों ने दाँतों  तले उंगली दाब लीं। यह मकान दुलारे सिंह के पिता ने उस दिन शम्सू को दिया था। जब वह वर्मा से लौटा था। और टीन की पेटी से फौजी यूनीफार्म के नीचे रखी एक छोटी सी पोटली निकालकर अमर सिंह राठौर के हाथों में थमा दी थी। बड़े ठाकुर की आँखों से आँसू बह निकले और उन्होंने शम्सू हज्जाम को सीने से लगा लिया और कहा 'शम्सू तूने असंभव को संभव कर दिखाया।'
'मैं और मेरी औलाद तेरे इस एहसान को जीवनभर नहीं भुलाएगी।'
खपरैल वाला मकान एक तंग गली में था। इतना लंबा चौड़ा कि चंदनपुर के दोनों प्राईमरी स्कूल समा जाएं। बड़े आँगन में पाँच सौ आदमी एक साथ पाँव फैलाकर बैठ जाएँ और इतमिनान से खाना खाकर डकार ले लें। शम्सू के दोनों बेटे कोई काम नहीं करते थे। माँ कहते कहते मर गयी कि काम के न काज के, दुश्मन अनाज के। तीस बकरियाँ और पचास के करीब देशी मुर्गियाँ पाल रखीं थी। आराम से खर्च चल रहा था। पाँच रुपये में एक अंडा फुटकर में घर बैठे बिक जाता। बीस अंडे रोज हो जाते थे। जो मुर्गी कुड़क होती उसके नीचे अंडे रख देते। दो साल में आठ बकरे कुबार्नी के लिए तैयार हो जाते और ईदे-कुबां पर छह हजार एक बकरे के आसानी से हाथ लग जाते। रमज़ान सा वलद था। उसकी बीवी $खातून बी को शहर की लेडी  डाक्टर ने बांझ बता दिया था। छह महीने भी न गुजरे थे कि रमजान पास के गाँव से इमरत बी को ब्याह लाया था। वो शेख कल्लू जुलाहे की बेटी थी। छोटे भाई करमू की बीवी मुन्तो का बेटा चाँद बीस साल का था।
बड़े ठाकुर अमर सिंह के बख्शे हुए कच्चे मकान में खातून बी, मुन्तो और इमरत बी मिलजुलकर बकरा-बकरी और मुर्गा-मुर्गी की निगरानी और देख भाल करतीं। पिछले महीने राठौर हवेली के सफाई कामगार ने रमजान के कान में खुसुर-फुसुर की तो रमज़ान हक्का बक्का रह गया, तीनों औरतों के चेहरे फ़क हो गये। दुलारे सिंह को रात के आ$िखरी पड़ाव पर मुर्गों की बांग बिल्कुल पसंद नहीं आती थी।
देहली से वापसी के बाद दुलारे सिंह राठौर के बर्ताव, मिज़ाज और आदत में जो भी परिवर्तन आया उसका उनके रोजमर्रा पर रत्ती बराबर फ़र्क नहीं पड़ा, जो पचास साल से उनकी रगो में जिन्दगी की हरकत बनते खून का हिस्सा बन चुका था। सबेरे-सबेरे हवेली की रसोई का दरवाजा खुलने की आवाज सड़क किनारे इमली की दरख्त तले सोए हुए काले कुत्ते को सुनाई देती तो उसके कान खड़े हो जाते। चारों पैरों पर उसका जिस्म तन जाता। सड़क के बीचोंबीच जुगाली करती भूरी जर्सी गाय गर्दन उठाकर हवेली की तरफ देखने लगती। हर दिन की तरह दुलारे सिंह पलंग पर उठ बैठते। लंबी अंगडाई लेते, उंगलियाँ चटखाते ताक में रखे गिलास से नीम की दातोन निकालकर मुँह में दाबे हुए रसोई का दरवाजा खोलते। मिट्टी की हांडी में से रातकी चार बासी रोटियाँ निकालते और दरवाजा खोलकर सड़क पर आ जाते। हल्के - हल्के अंधेरे में चिडिय़ों की चहचहाहट सुनते हुए वह गाय के करीब आते। उसके सर पर आहिस्ता से हाथ फेरते और तीन रोटियाँ मुँह में सरका देते। दो कदम मुश्किल से उठा पाते कि उनके पास कुत्ता दौड़ा आता और दुम हिलाने लगता। मानो सपेरे की बीन पर साँप फन फैलाये डोल रहा हो। वो बची हुई रोटी कुत्ते के आगे डालकर अपने खेतों को रूख करते।
दुलारे सिंह ने देहली की बस्ती का आँखों देखा हाल सिर्फ अपनी पत्नी को सुनाया, ठकुराइन ने पहले तो खूब आँसू बहाये फिर उनकी चितवनें तन गईं। आँखें तंदूर जैसी दहक उठीं। कमरे की दीवार पर सुर्ख रंग के मखमली खोल में मु$गलों का खून पीकर अपनी आबोताब खो चुकी तलवारें जैसे लोहार के अस्तित्व को कोसने लगीं।
'भाग्यवान मेरा खून खौल उठा था। गुलाब से लाल सुर्ख गालों वाले मासूम बच्चे, वीर बहूटी सी सिमटी हुई खूबसूरत बच्चियाँ'।
दुलारे सिंह रुके और सामने फोटो फ्रेम में माँ पार्वती की रंगीन तस्वीर की तरफ़ इशारा करते हुए बात आगे बढ़ाई।
'बस ऐसी ही सुंदर कश्मीरी महिलाएं, तंग गलियों और गंदगी में छोटे-छोटे कमरों में साँसे ले रही थीं।'
वो देर रात तक ठाकुराइन को बर्फ से ढके अमरनाथ का दर्शन कराते रहे। कैलाश पर्वत पर निवास करते जगपाल शिवजी को प्रणाम भी किया। जब सोए तो सपने में अपने परदादा फदेह सिंह राठौर का जमाना भी याद आया। वो मूँछों पर ताव देते और कमज़ोर आवाज़ में कहा करते थे - बेटा, हमारे बेडरूम की दीवार में समाई फौलादी तिजोरी में किंग पंचम की तस्वीर वाले दबीज़ सौ-सौ के नोट की गड्डियाँ, सोने चाँदी के जड़ाऊ जेवर, छोटी-बड़ी डब्बियों याकूत, जमर्रुद, नीलम और लाल रखे रहते थे। लेकिन आज़ादी आई तो जम्हूरियत राठौर खानदान के लिए साँप के नीचे का बिच्छू बन गई। महाराजे और नवाब गये। ताल्लुकेदारों और ज़मींदारों का ओढऩा बिछोना छिन गया। तिजौरी की चाबी का वजन इतना रह गया कि बड़ी ठकुराइन की छोटी उंगली उसे उठाने में शर्माती। चंदनपुर ही क्या, गंगा मैया के किनारे आबाद बस्तियों के कमरों में जहाँ घोड़े पर सवार महाराणा प्रताप की रंगीन तस्वीरें टंगी रहती हैं, वहाँ आज भी चंदनपुर के ठाकुरों का नाम बड़ी इज्जत से लिया जाता है।
दुलारे सिंह ने दूसरे दिन तय किया कि क़स्बे के बेरोज़गार और आवारगर्द नौजवानों की मीटिंग करेंगे। उन्होंने अखबारों और मैगजीन में राइफल उठाए, वर्दी  पहने फौजियों की तस्वीरें दिखाईं। कई दिन तक ऐसा सिलसिला चलता रहा। टीवी पर 26 जनवरी की आनबान वाली परेड का भी इन नौजवानों ने लगन और दिलचस्पी से नज़ारा किया।
'फ़ौजी का बहुत सम्मान होता है; पगार की मोटी गड्डी मिलती है।'
दुलारे सिंह ने करमू के बेटे चाँद खाँ की मिसाल दी। जिसे खुद उन्होंने फ़ौज में भर्ती कराया था।
'देखते नहीं करमू के क्या ठाठ हैं, तीन कमरों पर पक्की छत डाल दी और अपने पोते को स्कूल भेजने लगा है।'
दुलारे सिंह की मेहनत रंग लाई। बदरी लोहार, नारायण मोची, मनोज पंसारी और हल्कू कामगार के जवान बेटे, दुलारे सिंह की भागदौड़, तअल्लुकात और मानसिंह राठौर की कुर्बानी के सहारे फौजी बन गए। रमजान और करमू जुमे की नमाज पढ़ के मस्जिद से बाहर निकले थे कि हल्कू कामगार उनकी तरफ दौड़ता आया।
'भाई जी चलो, छोटे सरकार ने बुलाया है।'
दोनों घबराये और तेज कदमों से हवेली आये। दुलारे सिंह बाहर चबूतरे पर बैठे थे। उनके माथे का तिलक सूरज की रोशनी में चीते की आँखों जैसा चमक रहा था। दोनों ने सलाम किया। दुलारे सिंह ने घूरते हुए अपनी बात कहने में देर नहीं लगाई।
'रमज़ान जरा मेरी बात ध्यान से सुनना। मैं नहीं, सैकड़ों लोगों ने मुझसे कहा है' कि रमज़ान और करमू के रोंगटे खड़े हो गये। वो समझे कि मुर्गों की बांग पर आज फ़जीहत होगी। नज़रों में हलाल होते तड़पते और उछलते मुर्गे घूम गये।
'छोटे सरकार हुक्म करें।' रमजान बकरी की तरह मिनमिनाया। दुलारे सिंह के हुकम ने दोनों भाइयों के होश उड़ा दिए। बड़े ठाकुर याद आ गये। पल भर को सोचा खसम किया सँग सोने को, लग गए पत्थर ढोने को। सुमन्दर के रास्ते उनकी बकरियों का रेबड रोज जंगल जाता था। शिव भक्तों को ऐतराज था कि सारी सड़क मेंगनियों से गंदी हो जाती है। जूते चप्पल की बात दूर रही, नग्न पाँव जाने वाले मंदिर की सीढिय़ों पर भी मेंगनियाँ समेट ले जाते हैं। इसलिए कल से बकरियाँ उस सड़क से जंगल जाएं जो मस्जिद के पिछवाड़े है। रमजान जानता था कि पिछवाड़े वाली सड़क से जंगल पांच किलोमीटर दूर है। वो एक साल पहले भी सब कुछ समझ गया था जब दुलारे सिंह देहली से आये थे और शिव मंदिर में लाउड स्पीकर लगाया था। दोनों सर झुकाए वापस लौटे और घर के बजाये बड़े ठाकुर करमान सिंह राठौर की समाधि की तरफ मुड़ गए। शम्सू हज्जाम के बेटे रमजान और करमू समाधि के सामने यूँ खड़े थे जैसे चाँद खां कश्मीर की सरहद पर चौकसी से पहरा दे रहा हो।
मानसिंह राठौर जब हजामत बनवाते तो गाँधी जी और देश की आज़ादी की बातें किया करते। उन्हें फिरंगियों से बड़ी नफ़रत थी। अपने कमरे में महाराना प्रताप के बगल में नेता जी सुभाषचंद्र बोस की तस्वीर भी टांग रखी थी। शम्सू हजाम बड़ी दिलचस्पी से सब कुछ सुनता। बाल काटने और सेविंग के बाद कैंची, उस्तरा, मशीन, ब्रश और साबुन की डीबिया अपनी पेटी में रखता और फ़र्श पर बैठ जाता। कुछ हफ़्ते गुजरे होंगे। बड़े ठाकुर और शम्सू हज्जाम मेरठ गए और आजाद हिंद फ़ौज में भरती हो गए। महीने भर बाद मानसिंह राठौर बर्मा रवाना हुए तो शम्सू हज्जाम भी टीन की पेटी लिए हुए उनके साथ था। उसे आज़ादी के मतवालों की हजामत के काम पर मामूर किया गया था। चंदनपुर के नमाज़ियों और भक्तों के सर फ़ख्र से ऊंचे हो गये। हुआ यूँ कि एक दिन इत्तेहादी हवाई जहाजों ने रंगून और आसपास के जंगलों पर जबरदस्त बमबारी की। ला तादात जापानी सिपाही हलाक हुए। आजाद हिन्द फ़ौज के मानसिंह राठौर और तीन सिपाही भी शहीद हो गये। इन चारों की चिताएँ जलीं। दलदली जंगल में सूखी लकडिय़ाँ बड़ी मुश्किल से मिलती थीं। तीन दिन तक चिताओं से शोले और धुआँ उठता रहा। शम्सू हज्जाम दिन रात जंगलों के चक्कर काटता और लकडिय़ाँ ढोता रहा। तब कहीं लाशें राख हुईं।
शम्सू हज्जाम ने अपनी ज़िन्दगी में ले देकर एक अक्लमंदी का काम किया। सर से रूमाल खोला और मानसिंह राठौर की चिता से राख और दो चार सूखी हड्डियाँ बांध लीं। जंग खत्म हुई और वो चंदनपुर जिन्दा सलामत वापस आ गया। मानसिंह रठौर के शहीद होने की खबर राठौर हवेली में पहले ही आ चुकी थी।
दोनों भाइयों ने तय किया कि चंदनपुर के हौलनाक माहोल में जिन्दगी को उस दोराहे तक ले जाना होगा जहाँ से ढलान और चढ़ाई साफ़ नज़र आए। वह एक फ़ैसला कर चुके थे। समाधि से अब उन्हें कोई उम्मीद न थी।
'बड़े ठाकुर यह क्या हो रहा है, कुछ तो करें आप।' समाधि पर नजरें गाढ़े रमजान बुदबुदाआ। दोनों 15 मिनिट वहां रुके और घर लौट आए। मुंह लटका हुआ था, मस्जिद से देर से लौटे थे। उन्होंने घर का निज़ाम बदलने का फ़ैसला सुनाया और अपने-अपने कमरे में चले गये। खातून बी और इमरत बी रमजान के पाँव दबाने लगी। मुन्तो ने करमू से बहुत पूछा कि भाई साहब भी उदास हैं, तुम्हारा चेहरा भी सुस्त हो गया है। तभी सड़क के पार नारायण के घर से रोने चीखने की आवाज़ें आईं। रमजान और करमू घबराते उधर को लपके। क़स्बे के अनगिन लोग वहाँ जमा थे। दुलारे सिंह भी आ गये। नारायण के बीवी बच्चों के आँसू थम नहीं रहे थे। करमू को माजरा मालूम हुआ तो उसने दोनों हाथ छाती पर रख लिये। नारायण का बेटा महेश कारगिल की लड़ाई में मारा गया और उसकी लाश कल जहाज से करीब के हवाई अड्डे पर आएगी।
चाँद खां ने इस माह तनख्वाह में से आठ हजार रुपये भिजवाये तो उसी दिन करमू ने बीस मुर्गिया और पांच मुर्गे हाट बाजार में बेच दिये। रमजान ने करमू के मशवरे पर बाँझ खांतून बी की डयूटी लगा दी कि सबेरे बांग देने से पहले दरबे के उपर डंडा बजाते रहें ताकि मुर्गे डर के मारे चूँ भी न कर सकें। कमजोर और कम दूध वाली बकरियों की छंटनी भी धीरे धीरे होती रही। इनके दूध से वो मावा तैयार करते थे जो महीपाल हलवाई अच्छे भाव में $खरीद लेता था। बकरी के मावे की गुलाबजामुन इन्तेहाई लज़ीज़ होती और घण्टा भर में पूरा कड़ाव खाली हो जाता था। दुलारे सिंह की बेरूखी, उनके चेहरे से दुलारपन की मिटती लकीरें खपरैल वाले मकान के दरों दीवारों और आँगन की $खुशियों पर बिजली बनकर गिरने लगीं। बकरियाँ कम हुईं तो मावे के बर्तन भी खड़कने लगे। आदमनी का बड़ा ज़रिया रमजान के हाथों से खिसक रहा था। खातून बी और इमरत बी की आँखों का काजल आँसुओं ने धो दिया। करमू के बेटे चांद खाँ से रुपयों का सहारा न होता तो रमजान अपने वालिद शम्सू हज्जाम की पेटी उठाकर सड़क किनारे हजामत का पेशा करने का पक्का इरादा कर चुका था।
दुलारे सिंह ने एल्यूमिनियम के ताबूत उठाये चार फ़ौजियों को देखा तो हज़ारों अफ़राद के बीच सरबरही कर रहे कैप्टन से कड़वे लहजे में कहा -
'आपको धार्मिक क्रिया का अपमान करते शर्म नहीं आती? अर्थी क्यों नहीं लाए?' ये क्रिस्टान के ताबूत में शहीद की लाश आई है।'
हफ़्ता भर बाद बदरी लौहार का बेटा भी एल्यूमिनियम के ताबूत में आया। दुलारे सिंह जल भुन गये। चिल्लाकर चिल्ला नाराज़ी जताते रहे। काले के आगे चिराग नहीं जलता। फ़ौजी बहरहाल आला थे और बर्मा के जंगल में राख हुए नेता जी के फौजी को विरासत हल्की पडऩी ही थी। दुलारे सिंह का ऐतराज टाल दिया गया लेकिन दोबारा उसकी हिदायत पर चंदनपुर में सख्ती से अमल हुआ। मस्जिद ने भी शोग मनाया और लाउड स्पीकर पर अजान नहीं दी गई। रमजान और करमू को वो दिन भी याद आया जब बाबरी मस्जिद मिस्मार होने पर सारे देश में दंगे हुए थे। दुलारे सिंह ने चंदनपुर में दिन रात गश्त लगाया और अमनो-शांति की अपील करते रहे थे।
रमजान का महिना शुरू होने में पन्द्रह दिन बाक़ी थे कि एक दोपहर कलेक्टर का अर्दली स्पीड से मोटर साइकिल भगाता आया और गली किनारे मोटर साइकिल खड़ी कर के तेज़ी से रमज़ान के मकान पर पहुंचा और ज़ंजीर खटखटाई। रमज़ान खाना खा रहा था। निवाला चबाते हुए बाहर आया। अर्दली ने सील बंद लिफ़ाफ़ा उसकी तरफ़ बढ़ाया। रमजान मुस्कुरा दिया।
'कहाँ से आया है, भईया खोल के पढ़ भी दो।'
'मिलेट्री हेड क्वाटर से', अर्दली ने लिफ़ाफ़ा खोला, लरज़ती आवाज़ में आहिस्ता से पढ़ दिया। रमजान गश खा गिरने को था कि अर्दली ने बाजू फैलाकर उसे सम्हाला। खातून बी टुपट्टा फेंक बेपर्दगी की परवाह किये बगैर भागती आई। खबर हो ऐसी डरावनी थी। चाँद खाँ कारगिल की पहाडिय़ों में दुश्मन की गोलाबारी में शहीद ही गया। दो दिन बाद उसकी लाश हवाई जहाज से चंदनपुर पहुँचेगी। अर्दली, औरतों की चीखों से हवास बाख्ता गली में दौड़ता मोटर साइकिल के पास आया और उसे स्टार्ट कर आिफस की तरफ चल दिया। रोने-पीटने की आवाजें घर घर गूंजी। दूसरे मोहल्लों तक गईं। करमू, मुन्तो और रमजान बेहोश थे। दरवाजा खुला हुआ था। बकरियों और मुर्गा-मुर्गियों को आज़ादी नसीब हुई और कुदती, उड़ती गली से सड़क पर आ गईं। चंदनपुर में मातम छा गया। लोग जोंक दर जोंक शम्सू हज्जाम के मोहल्ले में आने लगे। करमू को होश आया तो वह बड़े भाई और मुन्तो को नमनाक आँखों से फ़र्श पर खामोश पड़ा देखता रहा। बेटी ने बिलखते हुए खबर दी कि बाहर शहरवालों की भीड़ है। वो कमजोर चाल से गली में आया। सामने दुलारे सिंह राठौर खड़े थे। उनसे आँखें चार हुई तो रोता हुआ पाँव छूने झुका ही था कि दुलारे सिंह ने बाजू पकड़ लिये और उसे छाती से लिपटा लिया।
'रोते नहीं करमू। तेरा बेटा चाँद देश के लिए शहीद हुआ है। बिल्कुल मत घबराना। अभी मैं ज़िन्दा हूँ।'
जुमे के दिन 11 बजे वैसा ही नजारा था जब नारायण और बद्री के बेटों के ताबूत चंदनपुर के शमशान घाट लाये गये थे। फ़र्क यह था कि चाँद खाँ का लकड़ी का ताबूत कब्रस्तान आया। शीशे की चौखट से पूरे शहर ने उसका चेहरा देखा। बुर्का पहने उसकी माँ, दोनों बड़ी माँएं और छोटी बहन लडख़ड़ाती, आबशार बरसाती आँखों से चांद खाँ के पुरसुकून चेहरे को देख रही थीं। जनाज़े की नमाज़ के लिए लारी से ताबूत फौजियों ने उतारा और खुले मैदान की तरफ़ चलने को थे कि रमजान, करमू और दुलारे सिंह के साथ एक सिपाही ने काँधे पर उठा लिया। लोग आते गये और काँधा देते रहे।
रमजान का चाँद नज़र आ गया। खपरैल वाले मकान में गमज़ाद माहौल ज़रूर था लेकिन रमज़ान जैसे मुकद्दस महीने का पूरा ऐहतेराम हुआ। रोजे, तरावीह, सहरी और अफ़्तार खामोशी से जारी रहा। चाँद खाँ की मगिफरत के लिए कुर्आन शरीफ़ के कई खत्म हुए। ईद के लिए सिवाइयाँ बनाई गई। बरसों से शम्सू हज्जाम के घर से शीरखुरमा और दही बड़े के डोंगे थाल में रखकर राठौर हवेली में जाते थे। पहले रमजान और करमू थाल ले जाया करते थे।
शम्सू की रिहालत के बाद करमू और चांद खाँ उसे फ़र्ज़ की तरह अज़ाम देने लगे। ईद के दिन गली के बाहर सड़क की फुटपाथ पर कुर्सियाँ रख दी जाती थीं। अपनी ज़िन्दगी में मानसिंह राठौर, उनके बेटे अमरसिंह और पोते दुलारे सिंह वहां ईद मिलने और मुबारकबाद देने आते थे। दो मीठी ईद पहले तक दुलारे सिंह ज़रूर आये। उसके बाद घुटनों का दर्द का कहला दिया। शीर$खुर्मे की थाल लौटती रहीं कि ठाकुर और ठाकुराइन शुगर के मरीज़ हैं। मीठा नहीं खा सकते। देहली की कश्मीरी पंडित बस्ती ने राजपूती आनबान वाले खून को ऐसा ही गरमा दिया था। अब की ईद पर रमजान और करमू को पूरी उम्मीद थी कि चाँद खाँ की शहादत उनके घुटनों के दर्द पर जरूर मरहम रखेगी। मगर दुलारे सिंह नहीं आये। रमजान और करमू ने उनके हर हृदय परिवर्तन पर यक़ीन कर लिया। चाँद खाँ ने कश्मीरी पंडितों की वापसी के लिए जंग नहीं लड़ी थी। मुन्तो की ममता सबसे ज्यादा दुखी थी कि उसके लाड़ले ने बर्मा के जंगलों से ज्यादा खतरनाक जंग में अपनी जान कुर्बान की। वो जंग, आजादी हासिल करने के लिए थी और चाँद ने आज़ादी की हिफाज़त के लिए सीने पर गोलियाँ खाईं। मुन्तो, ईद की पहली रात पलभर नहीं सोई। सुबह होने से पहले उसने खूँटी से बुर्का उतारा। घर में सब थके मादें गहरी नींद सोए हुए थे। मुर्गे ऊँची आवाज में बाँग दे रहे थे।
दुलारे सिंह हमेशा की तरह जाग गये। जम्हाई लेते हुए मुँह में दातोन दबाई, रसोई से चार रोटियाँ निकाली और बेरूनी दरवाजा खोल सड़क पर आ गये। अच्छा खासा अँधेरा छाया हुआ था। वह आहिस्ता-आहिस्ता जानी पहचानी जगह गाय की तरफ़ आये और तीन रोटियां उसके मुँह में डालने की कोशिश की। अचानक जैसे उनके हाथ में करंट सा लगा। आँखें फाड़कर देखा और रोटियाँ िफसल कर ज़मीन पर गिर गईं। उस वक्त इमली के दरख्त के नीचे से कुत्ता भी हर रोज़ की तरह दौड़ता नहीं आया। दुलारे सिंह खौफ़ और हैरत से चीख उठे।
'तू-तू मन्तो!'
निकाब में से मुन्तो रुहाँसे लहजे में बोली - 'ईद मुबारक ठाकुर साहब' वो उठी और अँधेरे में गुम हो गयी।











नईम कौसर उर्फ मुहीउद्दीन अख्तर उर्दू अदब का जाना पहचाना नाम है। उनके पिता स्व. कौसर चांदपुरी भी उर्दू अफ़साना निगारी की एक प्रसिद्ध हस्ती थे। इसी अदबी माहौल का नतीजा था कि बारह बरस की उम्र में ही पहली कहानी 'यतीम बच्चे की ईद' लिखी, जो 1948 में दिल्ली से प्रकाशित माहनामा 'नौनिहाल' में प्रकाशित हुई।
1948 से शुरू हुआ यह सफ़र आज भी पूरी बाकायदगी से जारी है। हिंदुस्तान और पाकिस्तान की दर्जनों पत्रिकाओं में तकरीबन 600 कहानियां छप चुकी हैं। उनकी प्रकाशित पुस्तकों में - 'इक़रारनामा', 'ख्वाबों के मसीहा', 'आिखरी रात', 'अग्नि परीक्षा', 'काल कोठरी' और 'रगे-जां का लहू' शामिल हैं। भोपाल से प्रकाशित उर्दू पाक्षिक 'सदा-ए-उर्दू' के संपादक हैं।
अपने दौर की हर हलचल पर पैनी नज़र रखते हैं और पूरे तटस्थ भाव से उन पर अपनी राय कायम करते हैं। उनकी कहानियों में इंसानी रिश्तों की अहमियत को जहां पूरी-पूरी तवज्जो दी जाती है तो वही समाजी भटकाव और भड़काव पर वे बेखौफ वार भी करते हैं। प्रस्तुत कहानी इसी अंदाज़ की बानगी है।

Login